सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (4) भाग तीन
परमेश्वर द्वारा मनुष्य के व्यवहार के संबंध में रखी गई माँगों में एक माँग यह भी है : “अपने माता-पिता का सम्मान करो।” लोगों में आम तौर पर अन्य माँगों के बारे में कोई विचार या धारणा नहीं होती, तो “अपने माता-पिता का सम्मान करो,” इस अपेक्षा के बारे में तुम लोगों के क्या विचार हैं? क्या तुम लोगों के विचारों और परमेश्वर के कहे सत्य सिद्धांत के बीच कोई विरोधाभास है? अगर तुम इसे स्पष्ट रूप से समझ पाते हो, तो यह अच्छा है। जो लोग सत्य को नहीं समझते, जो सिर्फ यह जानते हैं कि नियमों का पालन कैसे किया जाए और शब्द और धर्म-सिद्धांत कैसे बघारे जाएँ, उनमें विवेक की कमी होती है; जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो वे हमेशा इंसानी धारणाएँ पालते हैं, उन्हें हमेशा लगता है कि कुछ विरोधाभास हैं, और वे उसके वचनों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते। जबकि सत्य समझने वालों को परमेश्वर के वचनों में कोई विरोधाभास नहीं दिखता, उन्हें लगता है कि उसके वचन बेहद स्पष्ट हैं, क्योंकि उन्हें आध्यात्मिक समझ होती है और वे सत्य समझने में सक्षम हैं। कभी-कभी तुम लोग परमेश्वर के वचन स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते और कोई प्रश्न नहीं पूछ पाते—अगर तुम लोग कोई प्रश्न नहीं पूछते, तो ऐसा लगता है मानो तुम्हें कोई समस्या नहीं है, लेकिन असल में तुम लोगों को बहुत सारी समस्याएँ और बहुत सारी कठिनाइयाँ होती हैं, बस तुम लोगों को इसका पता नहीं होता। यह दर्शाता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। पहले, आओ परमेश्वर की इस अपेक्षा पर गौर करते हैं कि लोगों को अपने माता-पिता का सम्मान करना चाहिए—यह अपेक्षा सही है या गलत? लोगों को इसका पालन करना चाहिए या नहीं? (करना चाहिए।) यह निश्चित है और इसे नकारा नहीं जा सकता; इस पर संकोच या सोच-विचार करने की कोई जरूरत नहीं, यह अपेक्षा सही है। इसमें सही क्या है? परमेश्वर ने यह अपेक्षा क्यों रखी? “अपने माता-पिता का सम्मान करने” की जो बात परमेश्वर करता है, उसका क्या तात्पर्य है? क्या तुम जानते हो? तुम लोग नहीं जानते। तुम कभी कुछ क्यों नहीं जानते? अगर किसी चीज में सत्य शामिल रहता है, तो तुम उसे नहीं जानते, और फिर भी तुम शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में अनवरत बोल सकते हो—यहाँ क्या समस्या है? तो फिर तुम लोग परमेश्वर के इन वचनों का अभ्यास कैसे करते हो? क्या इसमें सत्य शामिल नहीं है? (है।) जब तुम देखते हो कि परमेश्वर के वचनों का एक वाक्यांश है जिसमें कहा गया है, “तुम्हें अपने माता-पिता का सम्मान करना चाहिए,” तो तुम मन ही मन सोचते हो, “परमेश्वर मुझसे मेरे माता-पिता का सम्मान करने के लिए कह रहा है, इसलिए मुझे उनका सम्मान करना होगा,” और तुम ऐसा करना शुरू कर देते हो। तुम वही करते हो, जो तुम्हारे माता-पिता तुमसे कहते हैं—जब तुम्हारे माता-पिता बीमार होते हैं, तो तुम उनके बिस्तर के पास रहकर उनकी सेवा करते हो, उन्हें कुछ पीने के लिए देते हो, उनके खाने के लिए कुछ अच्छा पकाते हो, और त्योहारों पर अपने माता-पिता के लिए उनकी पसंद की चीजें उपहारों के रूप में खरीदते हो। जब तुम देखते हो कि वे थके हुए हैं, तो तुम उनके कंधे सहलाते हो और उनकी पीठ की मालिश करते हो, और जब भी उन्हें कोई समस्या होती है, तुम उसे हल करने का उपाय सोच पाते हो। इन सबके कारण तुम्हारे माता-पिता तुमसे बहुत संतुष्ट महसूस करते हैं। तुम अपने माता-पिता का सम्मान करते हो, परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करते हो और सामान्य मानवता को जीते हो, इसलिए तुम स्थिरचित्त महसूस करते हो और सोचते हो : “देखो—मेरे माता-पिता कहते हैं कि जबसे मैंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया है, तबसे मैं बदल गया हूँ। वे कहते हैं कि मैं अब उनका सम्मान करने में सक्षम और ज्यादा समझदार हो गया हूँ। वे बहुत प्रसन्न हैं और सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करना बहुत अच्छा है, क्योंकि परमेश्वर में विश्वास करने वाले बेटी-बेटे न सिर्फ अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, बल्कि जीवन में सही मार्ग पर भी चलते हैं और इंसान की तरह जीते हैं—वे अविश्वासियों से बहुत बेहतर हैं। परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करना शुरू कर दिया है और मेरे माता-पिता मुझमें यह बदलाव देखकर वाकई खुश हैं। मुझे खुद पर बहुत गर्व महसूस हो रहा है। मैं परमेश्वर की महिमा बढ़ा रहा हूँ—परमेश्वर निश्चित रूप से मुझसे संतुष्ट होगा और कहेगा कि मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ, जो अपने माता-पिता का सम्मान करता है और संतों जैसी शालीनता रखता है।” एक दिन, कलीसिया सुसमाचार फैलाने के लिए तुम्हारे कहीं और जाने की व्यवस्था करती है, और संभव है कि तुम लंबे समय तक घर नहीं लौट पाओगे। तुम यह महसूस करते हुए जाने के लिए सहमत हो जाते हो कि तुम परमेश्वर का आदेश टाल नहीं सकते, और यह विश्वास करते हो कि तुम्हें घर पर अपने माता-पिता का सम्मान और बाहर परमेश्वर के आदेश का पालन, दोनों करने चाहिए। लेकिन जब तुम इस विषय पर अपने माता-पिता से चर्चा करते हो, तो वे गुस्सा हो जाते हैं और कहते हैं : “तुम अवज्ञाकारी बच्चे हो! हमने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा करने में बहुत मेहनत की है, और अब तुम उठकर जा रहे हो। जब तुम चले जाओगे, तो हम बूढ़ों की देखभाल कौन करेगा? अगर हम बीमार पड़ गए या किसी तरह की आपदा आ गई, तो हमें अस्पताल कौन ले जाएगा?” वे तुम्हारे जाने से सहमत नहीं होते, और तुम चिंता करते हो : “परमेश्वर हमें अपने माता-पिता का सम्मान करने के लिए कहता है, लेकिन मेरे माता-पिता मुझे कर्तव्य निभाने के लिए जाने नहीं देंगे। अगर मैं उनकी आज्ञा मानता हूँ, तो मुझे परमेश्वर का आदेश दरकिनार करना होगा, जो परमेश्वर को पसंद नहीं आएगा। लेकिन अगर मैं परमेश्वर की आज्ञा मानता हूँ और जाकर अपना कर्तव्य निभाता हूँ, तो मेरे माता-पिता नाखुश होंगे। मुझे क्या करना चाहिए?” तुम सोच-विचार करते रहते हो : “चूँकि परमेश्वर ने यह अपेक्षा सामने रखी है कि लोगों को पहले अपने माता-पिता का सम्मान करना चाहिए, इसलिए मैं उसकी वह माँग कायम रखूँगा। मुझे दूर जाकर अपना कर्तव्य निभाने की जरूरत नहीं।” तुम अपना कर्तव्य छोड़कर घर पर अपने माता-पिता का सम्मान करना चुनते हो, लेकिन तुम स्थिरचित्त महसूस नहीं करते। तुम्हें लगता है कि तुमने भले ही अपने माता-पिता का सम्मान किया है, लेकिन तुमने अपना कर्तव्य नहीं निभाया है, और तुम्हें लगता है कि तुमने परमेश्वर को निराश किया है। इस समस्या का समाधान कैसे किया जा सकता है? तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोजना चाहिए, जब तक कि एक दिन तुम सत्य को न समझ लो और यह न जान लो कि अपना कर्तव्य निभाना सबसे महत्वपूर्ण चीज है। तब तुम स्वाभाविक रूप से घर छोड़कर अपना कर्तव्य निभा पाओगे। कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर चाहता है कि मैं अपना कर्तव्य निभाऊँ, और वह यह भी चाहता है कि मैं अपने माता-पिता का सम्मान करूँ। क्या यहाँ विरोधाभास और द्वंद्व नहीं है? आखिर मुझे किस तरह अभ्यास करना चाहिए?” “अपने माता-पिता का सम्मान करना” एक ऐसी अपेक्षा है जिसे परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार के संबंध में सामने रखा है, लेकिन क्या परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए सब-कुछ त्यागना और परमेश्वर का आदेश पूरा करना परमेश्वर की अपेक्षा नहीं है? क्या इसकी परमेश्वर और भी ज्यादा माँग नहीं करता? क्या यह और भी ज्यादा सत्य का अभ्यास नहीं है? (बेशक है।) अगर ये दोनों अपेक्षाएँ आपस में टकराती हों, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं : “तो, मुझे अपने माता-पिता का सम्मान करना है और परमेश्वर का आदेश पूरा करना है, और मुझे परमेश्वर के वचनों का पालन करना है और सत्य का अभ्यास करना है—ठीक है, यह आसान है। मैं घर पर सब-कुछ ठीक कर दूँगा, अपने माता-पिता के रहने की तमाम जरूरतें पूरी होने का इंतजाम कर दूँगा, उनके लिए एक नर्स रख लूँगा और फिर अपना कर्तव्य निभाने चला जाऊँगा। मैं हफ्ते में एक बार जरूर वापस आकर देख लिया करूँगा कि मेरे माता-पिता ठीक हैं, और फिर चला जाया करूँगा; अगर कुछ परेशानी हुई, तो दो दिन रुक भी जाऊँगा। यह नहीं हो सकता कि मैं हमेशा उनसे दूर रहूँ और कभी वापस न आऊँ, न यह हो सकता है कि मैं हमेशा घर पर रहूँ और अपना कर्तव्य निभाने कभी बाहर न जाऊँ। क्या यह दोनों हाथों में लड्डू होना नहीं है?” तुम इस समाधान के बारे में क्या सोचते हो? (यह नहीं चलेगा।) यह एक कल्पना है, यथार्थ नहीं। तो, इस तरह की स्थिति का सामना करने पर तुम्हें वास्तव में सत्य के अनुरूप कैसे कार्य करना चाहिए? (जब परमेश्वर के प्रति वफादारी और माता-पिता के प्रति कर्तव्य की बात आती है, तो दोनों हाथों में लड्डू होना असंभव है—मुझे अपना कर्तव्य ऊपर रखना चाहिए।) परमेश्वर ने लोगों को पहले अपने माता-पिता का सम्मान करने के लिए कहा, और उसके बाद, परमेश्वर ने लोगों के लिए सत्य का अभ्यास करने, अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने के संबंध में उच्चतर अपेक्षाएँ सामने रखीं—तुम्हें इनमें से किसका पालन करना चाहिए? (उच्चतर अपेक्षाओं का।) क्या उच्चतर अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना सही है? क्या सत्य को उच्च और निम्न सत्य या पुराने और नए सत्य में विभाजित किया जा सकता है? (नहीं।) तो जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो, तब तुम्हें किसके अनुसार अभ्यास करना चाहिए? सत्य का अभ्यास करने का क्या अर्थ है? (मामले सिद्धांतों के अनुसार सँभालना।) मामले सिद्धांतों के अनुसार सँभालना सबसे महत्वपूर्ण बात है। सत्य का अभ्यास करने का अर्थ है विभिन्न समयों, स्थानों, परिवेशों और संदर्भों में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना; यह चीजों पर हठपूर्वक नियम लागू करने के बारे में नहीं है, यह सत्य सिद्धांत कायम रखने के बारे में है। सत्य का अभ्यास करने का यही अर्थ है। इसलिए, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने और परमेश्वर द्वारा रखी गई अपेक्षाओं का पालन करने के बीच कोई विरोध नहीं है। इसे और ज्यादा ठोस रूप से कहें तो, अपने माता-पिता का सम्मान करने और परमेश्वर ने तुम्हें जो आदेश और कर्तव्य दिया है उसे पूरा करने के बीच कोई विरोधाभास नहीं है। इनमें से कौन-से परमेश्वर के वर्तमान वचन और अपेक्षाएँ हैं? तुम्हें पहले इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए। परमेश्वर अलग-अलग लोगों से अलग-अलग चीजों की माँग करता है; उनके लिए उसकी विशिष्ट अपेक्षाएँ हैं। जो लोग अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में सेवा करते हैं, उन्हें परमेश्वर ने बुलाया है, इसलिए उन्हें त्याग करना ही होगा, वे अपने माता-पिता का सम्मान करते हुए उनके साथ नहीं रह सकते। उन्हें परमेश्वर का आदेश स्वीकारना चाहिए और उसका अनुसरण करने के लिए सब-कुछ त्याग देना चाहिए। यह एक तरह की स्थिति है। आम अनुयायी परमेश्वर द्वारा नहीं बुलाए गए, इसलिए वे अपने माता-पिता के साथ रहकर उनका सम्मान कर सकते हैं। ऐसा करने का कोई पुरस्कार नहीं है और इसके परिणामस्वरूप उन्हें कोई आशीष नहीं मिलेगा, लेकिन अगर वे संतानोचित निष्ठा नहीं दिखाते, तो उनमें मानवता की कमी है। असल में, अपने माता-पिता का सम्मान करना सिर्फ एक तरह की जिम्मेदारी है और यह सत्य के अभ्यास से कम है। परमेश्वर के प्रति समर्पण ही सत्य का अभ्यास है, परमेश्वर का आदेश स्वीकारना ही परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की निशानी है, और परमेश्वर के अनुयायी वे होते हैं जो अपने कर्तव्य निभाने के लिए सब-कुछ त्याग देते हैं। संक्षेप में, सबसे महत्वपूर्ण कार्य जो तुम्हारे सामने है, वह है अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना। यही सत्य का अभ्यास है और यह परमेश्वर के प्रति समर्पण की एक निशानी है। तो वह कौन-सा सत्य है, जिसका लोगों को अब मुख्य रूप से अभ्यास करना चाहिए? (अपना कर्तव्य निभाना।) सही कहा, निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभाना सत्य का अभ्यास करना है। अगर व्यक्ति अपना कर्तव्य ईमानदारी से नहीं निभाता, तो वह सिर्फ मजदूरी कर रहा है।
अभी हम किस प्रश्न पर चर्चा कर रहे थे? (परमेश्वर ने पहले लोगों से अपेक्षा की कि वे अपने माता-पिता का सम्मान करें, फिर उसने उनके सत्य का अभ्यास करने, अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने के संबंध में उच्चतर अपेक्षाएँ सामने रखीं, तो लोगों को पहले किसका पालन करना चाहिए?) तुम लोगों ने अभी कहा कि लोगों को उच्चतर अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। सैद्धांतिक स्तर पर यह कथन सही है—मैं क्यों कहता हूँ कि यह सैद्धांतिक स्तर पर सही है? इसका मतलब यह है कि अगर तुम्हें इस मामले में नियम और सूत्र लागू करने हों, तो यह उत्तर सही होगा। लेकिन जब लोगों का सामना वास्तविक जीवन से होता है, तो यह कथन अक्सर अव्यवहार्य होता है और इसे क्रियान्वित करना कठिन होता है। तो, इस प्रश्न का उत्तर कैसे दिया जाना चाहिए? पहले, तुम्हें वह स्थिति और जीवन-परिवेश देखना चाहिए जिसका तुम सामना कर रहे हो, और उस संदर्भ पर नजर डालनी चाहिए जिसमें तुम हो। अगर अपने जीवन-परिवेश और उस संदर्भ के आधार पर, जिसमें तुम खुद को पाते हो, अपने माता-पिता का सम्मान करने से परमेश्वर का आदेश पूरा करने और अपना कर्तव्य निभाने में कोई टकराव नहीं होता—या, दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता का सम्मान करने से तुम्हारे निष्ठापूर्वक कर्तव्य-प्रदर्शन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता—तो तुम एक ही समय में उन दोनों का अभ्यास कर सकते हो। तुम्हें अपने माता-पिता से बाहरी रूप से अलग होने, उन्हें बाहरी रूप से त्यागने या नकारने की जरूरत नहीं। यह किस स्थिति में लागू होता है? (जब अपने माता-पिता का सम्मान करना व्यक्ति के कर्तव्य-प्रदर्शन से नहीं टकराता।) यह सही है। दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा डालने की कोशिश नहीं करते, और वे भी विश्वासी हैं, और वे वाकई तुम्हें अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाने और परमेश्वर का आदेश पूरा करने में समर्थन और प्रोत्साहन देते हैं, तो तुम्हारे माता-पिता के साथ तुम्हारा रिश्ता, आम शाब्दिक अर्थ में, रिश्तेदारों के बीच का दैहिक रिश्ता नहीं है, वह कलीसिया के भाई-बहनों के बीच का रिश्ता है। उस स्थिति में, उनके साथ कलीसिया के साथी भाई-बहनों की तरह बातचीत करने के अलावा तुम्हें उनके प्रति अपनी कुछ संतानोचित जिम्मेदारियाँ भी पूरी करनी चाहिए। तुम्हें उनके प्रति थोड़ा अतिरिक्त सरोकार दिखाना चाहिए। अगर इससे तुम्हारा कर्तव्य-प्रदर्शन प्रभावित नहीं होता, यानी, अगर वे तुम्हारे दिल को विवश नहीं करते, तो तुम अपने माता-पिता को फोन करके उनका हालचाल पूछ सकते हो और उनके लिए थोड़ा सरोकार दिखा सकते हो, तुम उनकी कुछ कठिनाइयाँ हल करने और उनके जीवन की कुछ समस्याएँ सुलझाने में मदद कर सकते हो, यहाँ तक कि तुम उनके जीवन-प्रवेश के संदर्भ में उनकी कुछ कठिनाइयाँ हल करने में भी मदद कर सकते हो—तुम ये सभी चीजें कर सकते हो। दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा नहीं डालते, तो तुम्हें उनके साथ यह रिश्ता बनाए रखना चाहिए, और तुम्हें उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। और तुम्हें उनके लिए सरोकार क्यों दिखाना चाहिए, उनकी देखभाल क्यों करनी चाहिए और उनका हालचाल क्यों पूछना चाहिए? क्योंकि तुम उनकी संतान हो और तुम्हारा उनके साथ यह रिश्ता है, तुम्हारी एक और तरह की जिम्मेदारी है, और इस जिम्मेदारी के कारण तुम्हें उनकी थोड़ी और खैर-खबर लेनी चाहिए और उन्हें और ज्यादा ठोस सहायता प्रदान करनी चाहिए। अगर यह तुम्हारे कर्तव्य-प्रदर्शन को प्रभावित नहीं करता और अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और तुम्हारे कर्तव्य-प्रदर्शन में बाधा नहीं डालते या गड़बड़ी नहीं करते, और वे तुम्हें रोकते भी नहीं, तो तुम्हारे लिए उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना स्वाभाविक और उचित है और तुम्हें इसे उस हद तक करना चाहिए, जिस हद तक तुम्हारा जमीर तुम्हें न धिक्कारे—यह सबसे न्यूनतम मानक है, जिसे तुम्हें पूरा करना चाहिए। अगर तुम अपनी परिस्थितियों के प्रभाव और बाधा के कारण घर पर अपने माता-पिता का सम्मान नहीं कर पाते, तो तुम्हें इस नियम का पालन करने की जरूरत नहीं। तुम्हें अपने आपको परमेश्वर के आयोजनों के हवाले कर देना चाहिए और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए, और तुम्हें अपने माता-पिता का सम्मान करने पर जोर देने की जरूरत नहीं है। क्या परमेश्वर इसकी निंदा करता है? परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता; वह लोगों को ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं करता। अब हम किस पर संगति कर रहे हैं? हम इस बारे में संगति कर रहे हैं कि जब अपने माता-पिता का सम्मान करना लोगों के कर्तव्य-प्रदर्शन के साथ टकराता है, तो उन्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए; हम अभ्यास के सिद्धांतों और सत्य पर संगति कर रहे हैं। अपने माता-पिता का सम्मान करना तुम्हारी जिम्मेदारी है, और अगर परिस्थितियाँ अनुकूल हों तो तुम यह जिम्मेदारी निभा सकते हो, लेकिन तुम्हें अपनी भावनाओं से विवश नहीं होना चाहिए। उदाहरण के लिए, अगर तुम्हारे माता-पिता में से कोई बीमार पड़ जाए और उसे अस्पताल जाना पड़े, और उनकी देखभाल करने वाला कोई न हो, और तुम अपने कर्तव्य में इतने व्यस्त हो कि घर नहीं लौट सकते, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? ऐसे समय, तुम अपनी भावनाओं से विवश नहीं हो सकते। तुम्हें मामला प्रार्थना के हवाले कर देना चाहिए, उसे परमेश्वर को सौंप देना चाहिए और उसे परमेश्वर के आयोजनों की दया पर छोड़ देना चाहिए। इसी तरह का रवैया तुम्हारे अंदर होना चाहिए। अगर परमेश्वर तुम्हारे माता-पिता का जीवन लेना चाहता है और उन्हें तुमसे दूर करना चाहता है, तो भी तुम्हें समर्पित होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “भले ही मैं समर्पण कर चुका हूँ, फिर भी मैं दुखी महसूस करता हूँ और मैं इस बारे में कई दिनों से रो रहा हूँ—क्या यह एक दैहिक भावना नहीं है?” यह कोई दैहिक भावना नहीं है, यह मानवीय दयालुता है, यह मानवता होना है और परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता। तुम रो सकते हो, लेकिन अगर तुम कई दिनों तक रोते रहते हो और सो या खा नहीं पाते, और अपना कर्तव्य करने की तुम्हारी मनोदशा नहीं है, यहाँ तक कि तुम घर जाकर अपने माता-पिता से मिलना भी चाहते हो, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा सकते, और तुम सत्य को अमल में नहीं लाए हो, जिसका अर्थ है कि तुम अपने माता-पिता का सम्मान करके अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रहे हो, तुम अपनी भावनाओं के बीच जी रहे हो। अगर तुम अपनी भावनाओं के बीच जीते हुए अपने माता-पिता का सम्मान करते हो, तो तुम अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रहे, और तुम परमेश्वर के वचनों का पालन नहीं कर रहे, क्योंकि तुमने परमेश्वर का आदेश त्याग दिया है, और तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करता है। इस तरह की स्थिति का सामना करने पर अगर इससे तुम्हारे कर्तव्य में देरी न होती हो या तुम्हारे कर्तव्य का निष्ठावान प्रदर्शन प्रभावित न होता हो, तो तुम अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए कुछ ऐसी चीजें कर सकते हो जिन्हें करने में तुम सक्षम हो, और वे जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो जिन्हें पूरा करने में तुम सक्षम हो। संक्षेप में, यही है जो लोगों को करना चाहिए और जिसे वे मानवता के दायरे में करने में सक्षम हैं। अगर तुम अपनी भावनाओं में फँस जाते हो और इससे तुम्हारा कर्तव्य-प्रदर्शन बाधित होता है, तो यह पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के विपरीत है। परमेश्वर ने तुमसे कभी ऐसा करने की अपेक्षा नहीं की, परमेश्वर सिर्फ यह माँग करता है कि तुम अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करो, बस। संतानोचित निष्ठा होने का यही अर्थ है। जब परमेश्वर “अपने माता-पिता का सम्मान करने” की बात कहता है, तो इसका एक संदर्भ होता है। तुम्हें बस कुछ जिम्मेदारियाँ निभाने की जरूरत है, जिन्हें हर तरह की परिस्थितियों में हासिल किया जा सकता है, इसके अलावा कुछ नहीं। जहाँ तक तुम्हारे माता-पिता के गंभीर रूप से बीमार पड़ने या उनकी मृत्यु का सवाल है, तो क्या ये बातें तुम्हें तय करनी हैं? उनका जीवन कैसा है, वे कब मरेंगे, किस बीमारी से मरेंगे या कैसे मरेंगे—क्या इन बातों का तुमसे कोई लेना-देना है? (नहीं।) उनका तुमसे कोई लेना-देना नहीं। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, ताकि मैं अपने माता-पिता का सम्मान कर सकूँ। मुझे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे बीमार न पड़ें, खासकर उन्हें कैंसर या किसी तरह की घातक बीमारी न हो। मुझे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे 100 वर्ष की आयु तक जीवित रहें। तभी मैं वास्तव में उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभा पाऊँगा।” क्या ये बेतुके किस्म के लोग नहीं हैं? यह स्पष्ट रूप से मनुष्य की कल्पना है, परमेश्वर की माँग बिल्कुल नहीं। तुम्हें यह भी नहीं पता कि तुम खुद 100 साल तक जीवित रह पाओगे या नहीं, फिर भी तुम माँग करते हो कि तुम्हारे माता-पिता उस उम्र तक जीवित रहें—यह एक मूर्ख का सपना है! जब परमेश्वर “अपने माता-पिता का सम्मान करने” की बात करता है, तो वह बस तुमसे अपनी वे जिम्मेदारियाँ पूरी करने के लिए कहता है, जो सामान्य मानवता के दायरे में आती हैं। अगर तुम अपने माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार नहीं करते या ऐसा कुछ नहीं करते जो तुम्हारे जमीर और नैतिकता के विपरीत हो, तो इतना काफी है। क्या यह परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं है? (है।) बेशक, हमने अभी उस मामले का भी उल्लेख किया है, जिसमें तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा डालते हैं, उनका प्रकृति सार छद्म-विश्वासियों और अविश्वासियों का या बुरे लोगों और राक्षसों तक का है, और वे उस मार्ग पर नहीं हैं जिस पर तुम हो। दूसरे शब्दों में, वे बिल्कुल भी तुम्हारे जैसे व्यक्ति नहीं हैं, और हालाँकि तुम कई वर्षों तक उनके साथ एक ही घर में रहे हो, लेकिन उनके अनुसरण या चरित्र तुम्हारे जैसे नहीं हैं, और निश्चित रूप से उनकी प्राथमिकताएँ या आकांक्षाएँ तुम्हारे जैसी नहीं हैं। तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और वे परमेश्वर में बिल्कुल भी विश्वास नहीं करते, यहाँ तक कि वे परमेश्वर का विरोध भी करते हैं। इन परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिए? (उन्हें नकार देना चाहिए।) परमेश्वर ने तुम्हें इन परिस्थितियों में उन्हें नकारने या कोसने के लिए नहीं कहा है। परमेश्वर ने ऐसा नहीं कहा। परमेश्वर की “अपने माता-पिता का सम्मान करने” की अपेक्षा अभी भी कायम है। इसका मतलब यह है कि अगर तुम अपने माता-पिता के साथ रह रहे हो, तो तुम्हें अभी भी अपने माता-पिता का सम्मान करने की यह अपेक्षा कायम रखनी चाहिए। इस बात में कोई विरोधाभास नहीं है, है न? (नहीं है।) इसमें बिल्कुल भी कोई विरोधाभास नहीं है। दूसरे शब्दों में, जब तुम उनसे मिलने के लिए घर लौट पाते हो, तो तुम उनके लिए खाना पका सकते हो या कुछ पकौड़ियाँ तल सकते हो, और अगर संभव हो तो उनके लिए कुछ स्वास्थ्य-उत्पाद खरीद सकते हो, वे तुमसे बहुत संतुष्ट होंगे। अगर तुम अपनी आस्था के बारे में बात करते हो और वे इसे स्वीकारते नहीं या विश्वास नहीं करते, यहाँ तक कि वे तुम्हारे साथ गाली-गलौज भी करते हैं, तो तुम्हें उन्हें सुसमाचार सुनाने की आवश्यकता नहीं है। अगर तुम्हारे लिए उनसे मिलना संभव हो, तो इस तरह अभ्यास करना; अगर नहीं, तो कुछ नहीं किया जा सकता, यह परमेश्वर का आयोजन है, तुम्हें जल्दी से उनसे दूरी बना लेनी चाहिए और उनसे बचना चाहिए। इसके लिए क्या सिद्धांत है? अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं करते और वे तुम्हारे समान नहीं बोलते या समान शौक और लक्ष्य साझा नहीं करते और उस मार्ग पर नहीं चलते जिस पर तुम चलते हो, यहाँ तक कि परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा डालते हैं और सताते हैं, तब तुम उन्हें पहचान सकते हो, उनका सार समझ सकते हो और उन्हें नकार सकते हो। बेशक, अगर वे परमेश्वर को गाली देते हैं या तुम्हें कोसते हैं, तो तुम उन्हें अपने दिल में कोस सकते हो। तो, “अपने माता-पिता का सम्मान करना,” जिसकी परमेश्वर बात करता है, किसे संदर्भित करता है? तुम्हें इसका अभ्यास कैसे करना चाहिए? अर्थात्, अगर तुम अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो, तो उन्हें थोड़ा पूरा करो, और अगर तुम्हें उसका मौका नहीं मिलता, या अगर उनके साथ तुम्हारी बातचीत में टकराव पहले ही बहुत ज्यादा हो गया है, और तुम्हारे बीच द्वंद्व है, और तुम पहले ही उस बिंदु पर पहुँच गए हो जहाँ तुम अब एक-दूसरे को नहीं देख सकते, तो तुम्हें जल्दी से उनसे अलग हो जाना चाहिए। जब परमेश्वर इस तरह के माता-पिता का सम्मान करने की बात करता है, तो उसका मतलब है कि तुम्हें उनकी संतान होने की अपनी स्थिति के परिप्रेक्ष्य से अपनी संतानोचित जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए, और वे चीजें करनी चाहिए जो एक बच्चे को करनी चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए या उनके साथ बहस नहीं करनी चाहिए, तुम्हें उनके साथ मार-पीट नहीं करनी चाहिए या उन पर चिल्लाना नहीं चाहिए, उनके साथ गाली-गलौज नहीं करना चाहिए और अपनी पूरी क्षमता से उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। ये वे चीजें हैं, जो मानवता के दायरे में की जानी चाहिए; ये वे सिद्धांत हैं जिनका पालन “अपने माता-पिता का सम्मान करने” के संबंध में करना चाहिए। क्या इन्हें करना आसान नहीं है? तुम्हें यह कहते हुए अपने माता-पिता के साथ क्रोधपूर्ण व्यवहार करने की आवश्यकता नहीं है : “हे राक्षसो और छद्म-विश्वासियो, परमेश्वर तुम लोगों को आग और गंधक की झील और अथाह गड्ढे में जाने का शाप देता है, वह तुम्हें नरक के अठारहवें स्तर पर भेज देगा!” यह आवश्यक नहीं है, तुम्हें इस चरम सीमा तक जाने की जरूरत नहीं है। अगर परिस्थितियाँ अनुकूल हों और स्थिति की माँग हो, तो तुम अपने माता-पिता के प्रति अपनी संतानोचित जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो। अगर यह आवश्यक न हो, या अगर परिस्थितियाँ अनुकूल न हों और यह संभव न हो, तो तुम इस दायित्व से मुक्त हो सकते हो। तुम्हें सिर्फ इतना करने की जरूरत है कि जब तुम अपने माता-पिता से मिलो और उनके साथ बातचीत करो, तो अपनी संतानोचित जिम्मेदारियाँ पूरी कर दो। जब तुम ऐसा कर लेते हो, तो तुम्हारा कार्य पूरा हो जाता है। तुम इस सिद्धांत के बारे में क्या सोचते हो? (यह अच्छा है।) अपने माता-पिता समेत, अन्य सभी लोगों के प्रति तुम्हारे व्यवहार के सिद्धांत होने चाहिए। तुम जल्दबाजी में कार्य नहीं कर सकते, और अपने माता-पिता के साथ सिर्फ इसलिए गाली-गलौज नहीं कर सकते कि वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास के लिए तुम्हें सताते हैं। दुनिया में बहुत सारे लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, बहुत सारे अविश्वासी हैं, और बहुत सारे लोग हैं जो परमेश्वर का अपमान करते हैं—क्या तुम उन सभी को कोसोगे और उन सभी पर चिल्लाओगे? अगर नहीं, तो तुम्हें अपने माता-पिता पर भी नहीं चिल्लाना चाहिए। अगर तुम अपने माता-पिता पर चिल्लाते हो, पर उन दूसरे लोगों पर नहीं, तो तुम क्रोध के बीच जी रहे हो, और परमेश्वर इसे पसंद नहीं करता। ऐसा मत सोचो कि अगर तुम अपने माता-पिता के साथ बिना किसी वाजिब कारण के गाली-गलौज करते हो और यह कहते हुए उन्हें कोसते हो कि वे राक्षस, जीते-जागते शैतान और शैतान के अनुचर हैं, और उन्हें नरक में जाने का शाप देते हो, तो परमेश्वर तुमसे संतुष्ट होगा—ऐसा बिल्कुल नहीं है। सक्रियता के इस झूठे प्रदर्शन के कारण परमेश्वर तुम्हें स्वीकार्य नहीं पाएगा या यह नहीं कहेगा कि तुममें मानवता है। इसके बजाय, परमेश्वर कहेगा कि तुम्हारे कार्यों में भावनाएँ और क्रोध शामिल है। परमेश्वर को तुम्हारा इस तरह पेश आना पसंद नहीं आएगा, यह बहुत चरम स्थिति है और उसके इरादों के अनुरूप नहीं है। अपने माता-पिता समेत, अन्य सभी लोगों के प्रति तुम्हारे व्यवहार के सिद्धांत होने चाहिए; चाहे वे परमेश्वर में विश्वास करते हों या नहीं, और चाहे वे दुष्ट लोग हों या नहीं, तुम्हें उनके साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। परमेश्वर ने मनुष्य को यह सिद्धांत बताया है : यह दूसरों के साथ उचित व्यवहार करने के बारे में है—बात बस इतनी है कि लोगों की अपने माता-पिता के प्रति अतिरिक्त जिम्मेदारी है। तुम्हें बस यह जिम्मेदारी निभाने की जरूरत है। चाहे तुम्हारे माता-पिता विश्वासी हों या नहीं, चाहे वे अपने विश्वास का अनुसरण करते हों या नहीं, चाहे जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण और उनकी मानवता तुम्हारे साथ मेल खाती हो या नहीं, तुम्हें बस उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने की जरूरत है। तुम्हें उनसे बचने की जरूरत नहीं—बस हर चीज परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के अनुसार स्वाभाविक रूप से होने दो। अगर वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा डालते हों, तो भी तुम्हें अपनी पूरी क्षमता से अपनी संतानोचित जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, ताकि कम से कम तुम्हारा जमीर उनके प्रति ऋणी महसूस न करे। अगर वे तुम्हें बाधित नहीं करते और परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का समर्थन करते हैं, तो तुम्हें भी सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, उचित हो तो उनके साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए। संक्षेप में कहें तो चाहे कुछ भी हो, मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ नहीं बदलतीं और लोगों को जिन सत्य सिद्धांतों का अभ्यास करना चाहिए, वे नहीं बदल सकते। इन मामलों में तुम्हें बस सिद्धांत कायम रखने और वे जिम्मेदारियाँ निभाने की जरूरत है, जिन्हें तुम निभा सकते हो।
अब मैं इस बारे में बात करूँगा कि परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार के संबंध में “अपने माता-पिता का सम्मान करो” जैसी अपेक्षा क्यों रखी। परमेश्वर की अन्य सभी अपेक्षाएँ व्यवहार संबंधी नियम हैं, जो प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत आचरण से संबंधित हैं, तो परमेश्वर ने संतानोचित निष्ठा के मामले में एक अलग तरह की माँग क्यों रखी? मुझे बताओ : अगर व्यक्ति अपने माता-पिता का भी सम्मान नहीं कर सकता, तो उसका प्रकृति सार कैसा है? (बुरा।) उसके माता-पिता ने उसे जन्म देने और पाल-पोसकर बड़ा करने में बहुत कष्ट सहे, उसका पालन-पोषण करना निश्चित रूप से आसान नहीं रहा होगा—और वास्तव में, वे अपेक्षा नहीं करते कि उनका बच्चा उन्हें बहुत खुशी या संतुष्टि देगा, वे बस आशा करते हैं कि बच्चा बड़ा होने के बाद एक खुशहाल जीवन जिए और उन्हें उसके बारे में बहुत ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं होगी। लेकिन उनका बच्चा प्रयास नहीं करता या कड़ी मेहनत नहीं करता और वह अच्छी तरह से नहीं जीता—वह अपनी देखभाल के लिए अभी भी अपने माता-पिता पर निर्भर है, और वह एक जोंक बन गया है जो न सिर्फ अपने माता-पिता का सम्मान नहीं करता, बल्कि अपने माता-पिता को उनकी जायदाद से निकालने के लिए धमकाने और ब्लैकमेल करने की इच्छा भी रखता है। अगर वह इस तरह का घृणित व्यवहार करने में सक्षम है, तो वह किस तरह का व्यक्ति है? (खराब मानवता वाला व्यक्ति।) वह उन लोगों के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं निभाता, जिन्होंने उसे जन्म दिया और पाल-पोसकर बड़ा किया, और वह इस बारे में बिल्कुल भी दोषी महसूस नहीं करता—अगर तुम उसे इस दृष्टिकोण से देखो, तो क्या उसमें जमीर है? (नहीं है।) वह किसी के साथ भी मारपीट और गाली-गलौज करेगा, जिसमें उसके माता-पिता भी शामिल हैं। वह अपने माता-पिता के साथ किसी अन्य व्यक्ति की तरह ही व्यवहार करता है—जब मन हुआ, उन्हें मारता-पीटता और उनके साथ गाली-गलौज करता है। जब वह दुखी महसूस करता है, तो अपना गुस्सा अपने माता-पिता पर निकालता है, बरतन-भाँड़े तोड़कर उन्हें डराता है। क्या ऐसे व्यक्ति में विवेक होता है? (नहीं।) अगर व्यक्ति के पास जमीर या विवेक नहीं है और वह अपने माता-पिता के साथ भी बस यूँ ही दुर्व्यवहार करने में सक्षम है, तो क्या वह इंसान है? (नहीं।) तो फिर वह क्या है? (जानवर।) वह जानवर है। क्या यह कथन सटीक है? (हाँ, है।) वास्तव में, अगर कोई व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति अपनी कुछ जिम्मेदारियाँ निभाता है, उनकी देखभाल करता है और उनसे बहुत प्रेम करता है—क्या ये ऐसी चीजें नहीं हैं, जो सामान्य मानवता वाले लोगों में सामान्य रूप से होनी चाहिए? (हाँ, ये ऐसी चीजें ही हैं।) अगर कोई व्यक्ति अपने माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार और गाली-गलौज करता है, तो क्या उसका जमीर इसे स्वीकार सकता है? क्या कोई सामान्य व्यक्ति ऐसा कुछ कर सकता है? जिन लोगों में जमीर और विवेक है, वे ऐसा नहीं कर सकते—अगर वे अपने माता-पिता को क्रोधित करेंगे, तो कई दिनों तक दुखी महसूस करेंगे। कुछ लोगों का मिजाज उग्र होता है और वे हताशा के क्षण में अपने माता-पिता पर क्रोधित हो सकते हैं, लेकिन ऐसा करने के बाद उनका जमीर उन्हें धिक्कारेगा और चाहे वे माफी न माँगें, पर वे दोबारा ऐसा नहीं करेंगे। यह ऐसी चीज है, जो सामान्य मानवता वाले लोगों में होनी चाहिए, यह सामान्य मानवता का उद्गार है। जिन लोगों में मानवता नहीं है, वे बिना कुछ महसूस किए अपने माता-पिता के साथ किसी भी तरह का दुर्व्यवहार कर सकते हैं और वे यही करते हैं। अगर उनके माता-पिता ने उन्हें बचपन में एक बार पीटा हो, तो वे इसे जीवन भर याद रखेंगे, और बड़े होने के बाद वे अभी भी अपने माता-पिता को पीटना और उन पर पलटवार करना चाहेंगे। ज्यादातर लोग बचपन में अपने माता-पिता द्वारा पीटे जाने पर पलटवार नहीं करेंगे; 30 वर्ष की आयु के भी कुछ लोग अपने माता-पिता द्वारा पीटे जाने पर पलटवार नहीं करते और इसके बारे में एक शब्द भी नहीं बोलते, भले ही इससे उन्हें दुख होता हो। सामान्य मानवता वाले लोगों में यही होना चाहिए। वे इसके बारे में एक शब्द भी क्यों नहीं बोलेंगे? अगर कोई और उन्हें पीटता, तो क्या वे ऐसा होने देते और उस व्यक्ति को खुद को पीटने देते? (नहीं।) अगर यह कोई और व्यक्ति होता, फिर चाहे वह कोई भी होता, तो वे उसे खुद को पीटने न देते—वे उसे खुद को गाली का एक शब्द भी न बोलने देते। तो चाहे उनके माता-पिता उन्हें कितना भी पीटें, वे पलटवार क्यों नहीं करते या क्रोधित क्यों नहीं होते? वे इसे सहन क्यों करते हैं? क्या ऐसा इसलिए नहीं है कि उनकी मानवता के भीतर जमीर और विवेक है? वे मन ही मन सोचते हैं : “मेरे माता-पिता ने मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया। हालाँकि उनका मुझे पीटना सही नहीं है, फिर भी मुझे इसे सहन करना चाहिए। इसके अलावा, मैंने ही उन्हें क्रोधित किया था, इसलिए मैं पिटने के काबिल हूँ। वे ऐसा सिर्फ इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि मैंने उनकी अवज्ञा की और उन्हें क्रोधित कर दिया। मैं पिटने लायक ही हूँ! मैं दोबारा ऐसा कभी नहीं करूँगा।” क्या यही वह विवेक नहीं है, जो सामान्य मानवता वाले लोगों में होना चाहिए? (हाँ है।) सामान्य मानवता का यही विवेक उन्हें अपने माता-पिता का इस तरह का व्यवहार सहने देता है। यह सामान्य मानवता है। तो, क्या जो लोग इस तरह का व्यवहार सह नहीं पाते, जो अपने माता-पिता पर पलटवार करते हैं, उनमें यह मानवता होती है? (नहीं होती।) यह सही है, उनमें यह नहीं होती। जिन लोगों में सामान्य मानवता का जमीर और विवेक नहीं होता, वे अपने माता-पिता तक के साथ मार-पीट और गाली-गलौज करने में सक्षम होते हैं, तो वे परमेश्वर और कलीसिया में अपने भाई-बहनों के साथ कैसा व्यवहार करने में सक्षम होंगे? वे उन लोगों के साथ इस तरह से व्यवहार करने में सक्षम हैं, जिन्होंने उन्हें जन्म दिया और पाल-पोसकर बड़ा किया, तो क्या वे उन अन्य लोगों की और भी कम परवाह नहीं करेंगे, जिनका उनसे खून का रिश्ता नहीं है? (हाँ।) वे परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार करेंगे, जिसे वे देख या छू नहीं सकते? क्या वे परमेश्वर के साथ जमीर और विवेक से व्यवहार कर पाएँगे? क्या वे उन सभी परिवेशों के प्रति समर्पित हो पाएँगे, जिन्हें परमेश्वर ने आयोजित किया है? (नहीं।) अगर परमेश्वर को उनकी काट-छाँट करनी हो, उनका न्याय करना हो या उन्हें ताड़ना देनी हो, तो क्या वे उसका प्रतिरोध करेंगे? (हाँ।) इस पर विचार करो : व्यक्ति का जमीर और विवेक क्या कार्य करते हैं? एक निश्चित सीमा तक, व्यक्ति का जमीर और विवेक उसके व्यवहार को सीमित और नियंत्रित कर सकते हैं—ये उन्हें अपने साथ कुछ घटित होने पर सही रवैया रखने और सही विकल्प चुनने, और जो कुछ भी उन पर पड़ता है उसे अपने जमीर और विवेक के साथ पेश आने में सक्षम बनाते हैं। अधिकांश समय, जमीर और विवेक के आधार पर कार्य करने से लोगों को बड़े पैमाने पर दुर्भाग्य से बचने में मदद मिलेगी। निःसंदेह, जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे इस नींव पर सत्य का अनुसरण करने, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने का मार्ग चुनने में सक्षम होते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनमें मानवता की कमी होती है और उनमें इस तरह का जमीर और विवेक नहीं होता—इसके परिणाम गंभीर होते हैं। वे परमेश्वर के साथ कुछ भी करने में सक्षम होते हैं—ठीक उसी तरह जैसे फरीसियों ने प्रभु यीशु के साथ व्यवहार किया था, वे परमेश्वर का अपमान करने, परमेश्वर से बदला लेने, परमेश्वर की निंदा करने, यहाँ तक कि परमेश्वर पर आरोप लगाने और उसे धोखा देने में भी सक्षम होते हैं। यह समस्या बहुत गंभीर है—क्या यह परेशानी की द्योतक नहीं है? जिन लोगों में मानवता के विवेक की कमी होती है, वे अकसर अपने क्रोध के जरिये दूसरों से बदला लेते हैं; वे मानवता के विवेक के नियंत्रण में नहीं होते, इसलिए उनके लिए कुछ अतिवादी विचार और दृष्टिकोण विकसित करना और फिर किसी अतिवादी व्यवहार में संलग्न होना और जमीर और विवेक से रहित कई तरीकों से कार्य करना आसान होता है, और अंततः, इसके परिणाम पूरी तरह से नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं। मैंने “अपने माता-पिता का सम्मान करने” और सत्य के अभ्यास पर संगति कमोबेश पूरी कर ली है—अंत में बात मानवता पर ही आ जाती है। परमेश्वर ने “अपने माता-पिता का सम्मान करने” जैसी माँग क्यों रखी? क्योंकि यह मनुष्य के आचरण से संबंधित है। एक ओर, परमेश्वर इस माँग का उपयोग मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए करता है, और साथ ही, वह इससे लोगों की मानवता का परीक्षण करता है और उसे परिभाषित करता है। अगर व्यक्ति अपने माता-पिता के साथ जमीर और विवेक से व्यवहार नहीं करता, तो निश्चित रूप से उसमें मानवता नहीं है। कुछ लोग कहते हैं : “अगर माता-पिता में अच्छी मानवता न हो और उन्होंने अपने बच्चे के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी तरह से न निभाई हों—तो क्या उस व्यक्ति को फिर भी उनके प्रति संतानोचित निष्ठा दिखानी चाहिए?” अगर उसके पास जमीर और विवेक है, तो एक बेटी या बेटे के रूप में वह अपने माता-पिता के साथ गाली-गलौज नहीं करेगा। जो लोग अपने माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, उनमें जमीर और विवेक बिल्कुल नहीं होता। इसलिए परमेश्वर चाहे जो अपेक्षा रखता हो, चाहे यह उस रवैये से संबंधित हो जिससे लोग अपने माता-पिता के साथ व्यवहार करते हैं, या उस मानवता से जिसे लोग आम तौर पर जीते और प्रकट करते हैं, चाहे जो हो, चूँकि परमेश्वर ने बाहरी व्यवहारों से संबंधित ये नजरिये निर्धारित किए हैं, इसलिए ऐसा करने के पीछे उसके अपने कारण और उद्देश्य अवश्य होंगे। परमेश्वर निर्धारित ये व्यवहार संबंधी अपेक्षाएँ भले ही कुछ हद तक सत्य से दूर हैं, फिर भी ये ऐसे मानक हैं जिन्हें परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए तय किया है। ये सभी महत्वपूर्ण हैं और आज भी मान्य हैं।
मैंने अभी-अभी परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए रखे गए व्यवहार संबंधी मानदंडों और उन सत्यों, जिनकी वह माँग करता है, के बीच विभिन्न संबंधों और अंतरों पर संगति की। इस बिंदु पर, क्या हमने कमोबेश उन अच्छे व्यवहारों पर संगति पूरी नहीं कर ली है, जो उन चीजों का हिस्सा हैं जिन्हें लोग अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानते हैं? इस पर अपनी संगति समाप्त करने के बाद, हमने उन कुछ मानकों और कहावतों पर बातचीत की, जिन्हें परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार को, और जिसे मनुष्य जीता है उसे, नियंत्रित करने के लिए आगे रखा है, और हमने कुछ उदाहरण सूचीबद्ध किए हैं, जैसे कि : दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करना, अपने माता-पिता का सम्मान करना, धूम्रपान या मद्यपान न करना, चोरी न करना, दूसरों का फायदा न उठाना, झूठी गवाही न देना, मूर्ति-पूजा न करना, इत्यादि। निस्संदेह, ये सिर्फ प्रमुख हैं, और बहुत सारे विवरण और भी हैं जिनमें हम नहीं जाएँगे। तो, इन चीजों के बारे में संगति करने के बाद, तुम लोगों को कौन-से सत्य प्राप्त होने चाहिए थे? तुम्हें किन सिद्धांतों का अभ्यास करना चाहिए? तुम्हें क्या करना चाहिए? क्या तुम्हें बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने की जरूरत है? क्या तुम्हें एक विनम्र व्यक्ति बनने की जरूरत है? क्या तुम्हें मिलनसार और सुलभ होने की जरूरत है? क्या महिलाओं को सौम्य और परिष्कृत या सुशिक्षित और समझदार होने की जरूरत है? क्या पुरुषों को महान, महत्वाकांक्षी और निपुण व्यक्ति बनने की जरूरत है? उन्हें इसकी जरूरत नहीं है। निस्संदेह, हमने काफी सहभागिता की है। ये चीजें, जिनकी पारंपरिक संस्कृति वकालत करती है, स्पष्ट रूप से शैतान द्वारा लोगों को गुमराह करने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं। ये बहुत भ्रामक चीजें हैं, और ये ऐसी चीजें हैं जो लोगों को धोखा देती हैं। तुम लोगों को खुद जाँच करनी चाहिए और देखना चाहिए कि क्या तुम अभी भी इनमें से कोई भी विचार और दृष्टिकोण या व्यवहार और अभिव्यक्ति पालते हो। अगर हाँ, तो तुम्हें उन्हें हल करने के लिए जल्दी से सत्य खोजना चाहिए, और फिर तुम्हें सत्य स्वीकारना चाहिए और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना चाहिए। इस तरह, तुम परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करने में सक्षम होगे। तुम लोगों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि जब तुम पारंपरिक संस्कृति के अनुसार जीते थे तो तुम्हारी आंतरिक स्थिति कैसी थी और अपने दिल की गहराई में तुम कैसा महसूस करते थे, तुमने क्या हासिल किया और परिणाम क्या रहा, और फिर यह देखो कि परमेश्वर ने मनुष्य से जिन मानकों की माँग की है, उनके अनुसार आचरण करना कैसा लगता है, जैसे संयमित रहना, संतों जैसी शालीनता रखना, दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करना, इत्यादि। देखो कि इनमें से जीवन का कौन-सा तरीका तुम्हें ज्यादा आसानी से, स्वतंत्र रूप से, लगातार और शांति से जीने देता है और तुम्हें ज्यादा मानवता के साथ जीने में सक्षम बनाता है, और कौन-सा तरीका ऐसा महसूस कराता है जैसे तुम झूठा मुखौटा लगाकर जी रहे हो, और तुम्हारे जीवन को बहुत नकली और दयनीय बनाता है। देखो कि इनमें से जीवन का कौन-सा तरीका तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं के ज्यादा से ज्यादा करीब रहने देता है और परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता ज्यादा से ज्यादा सामान्य बनाता है। जब तुम वास्तव में इसका अनुभव करोगे, तो तुम्हें पता चल जाएगा। सिर्फ परमेश्वर के वचनों और सत्य का अभ्यास ही तुम्हें मुक्ति और आजादी दिला सकता है और परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करने दे सकता है। उदाहरण के लिए, मान लो, दूसरे लोगों से यह कहलवाने के लिए कि तुम बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करते हो, कि तुम नियमों का पालन करते हो, और कि तुम एक अच्छे इंसान हो, जब भी तुम उम्र में बड़े किसी भाई या बहन से मिलते हो, तुम उन्हें “बड़ा भाई” या “बड़ी बहन” कहकर बुलाते हो, कभी भी उन्हें उनके नाम से बुलाने की हिम्मत नहीं करते, और उन्हें उनके नाम से बुलाने में बहुत शर्मिंदगी महसूस करते हो, और सोचते हो कि ऐसा करना बहुत अपमानजनक होगा। बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने की यह परंपरागत धारणा तुम्हारे दिल में छिपी है, इसलिए जब तुम उम्र में बड़े किसी व्यक्ति को देखते हो, तो तुम बहुत सौम्य और दयालु व्यवहार करते हो, मानो तुम बहुत नियम-पालक और सुसंस्कृत हो, और तुम कमर को 15 डिग्री के कोण से 90 डिग्री के कोण तक झुकाए बिना नहीं रह पाते। तुम उम्र में बड़े लोगों के साथ सम्मानजनक व्यवहार करते हो—तुम्हारे सामने वाला व्यक्ति जितनी ज्यादा उम्र का होगा, तुम उतने ही ज्यादा शिष्ट होने का दिखावा करोगे। क्या इस तरह शिष्ट होना अच्छी बात है? यह बिना रीढ़ की हड्डी और बिना गरिमा के जीना है। ऐसे लोग जब किसी छोटे बच्चे को देखते हैं, तो बिल्कुल बच्चे की तरह ही प्यारा और चंचल व्यवहार करते हैं। जब वे अपने किसी हमउम्र को देखते हैं, तो बिल्कुल सीधे खड़े हो जाते हैं और वयस्क की तरह व्यवहार करते हैं, ताकि दूसरे लोग उनका अनादर करने का साहस न कर सकें। वे किस तरह के व्यक्ति हैं? क्या वे अनेक चेहरों वाले व्यक्ति नहीं हैं? वे कितनी जल्दी बदल जाते हैं, है न? जब वे किसी बूढ़े व्यक्ति को देखते हैं, तो उसे “बड़े दादा जी” या “बड़ी दादी जी” कहकर बुलाते हैं। जब वे किसी अपने से थोड़े बड़े व्यक्ति को देखते हैं, तो उसे “अंकल,” “आंटी,” “बड़े भाई,” या “बड़ी बहन” कहते हैं। जब वे किसी अपने से छोटे व्यक्ति से मिलते हैं, तो उसे “छोटे भाई” या “छोटी बहन” कहते हैं। वे लोगों को उनकी उम्र के अनुसार अलग-अलग उपाधियाँ और उपनाम देते हैं, और इन संबोधनों का बहुत सटीक और सही उपयोग करते हैं। ये चीजें उनकी हड्डियों में जड़ें जमा चुकी हैं और वे बड़ी आसानी से इनका उपयोग करने में सक्षम हैं। विशेष रूप से जब वे परमेश्वर में विश्वास करने लगते हैं, तो वे और भी ज्यादा आश्वस्त महसूस करते हैं कि : “मैं अब परमेश्वर का विश्वासी हूँ, मुझे नियम का पालन करने वाला और सुसंस्कृत होना चाहिए; मुझे सुशिक्षित और समझदार होना चाहिए; मैं उन अविश्वासी, समस्याग्रस्त युवाओं की तरह नियम नहीं तोड़ सकता या विद्रोही नहीं हो सकता—लोग इसे पसंद नहीं करेंगे। अगर मैं चाहता हूँ कि सभी मुझे पसंद करें, तो मुझे बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करनी होगी।” इसलिए, वे अपने व्यवहार को और भी सख्ती से नियंत्रित करते हैं, विभिन्न आयु-वर्ग के लोगों को अलग-अलग स्तरों में विभाजित करते हैं, उन्हें तमाम उपाधियाँ और उपनाम देते हैं, और इसे अपने दैनिक जीवन में लगातार अभ्यास में लाते हैं, और फिर ज्यादा से ज्यादा सोचते हैं : “मुझे देखो, मैं परमेश्वर में विश्वास करने के बाद वास्तव में बदल गया हूँ। मैं सुशिक्षित, समझदार और विनम्र हूँ, मैं बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करता हूँ, और मैं मिलनसार हूँ। मैं वाकई इंसान की तरह जी रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि मिलने वाले हर व्यक्ति को कैसे उसकी उपाधि से बुलाना है, चाहे उसकी जो भी उम्र हो। मेरे माता-पिता को मुझे सिखाना नहीं पड़ा और मेरे आस-पास के लोगों को मुझे यह करने के लिए कहना नहीं पड़ा, मैं बस जानता था कि इसे कैसे करना है।” इन अच्छे व्यवहारों का अभ्यास करने के बाद उन्हें लगता है कि उनमें वास्तव में मानवता है, कि वे वास्तव में नियमों का पालन करने वाले हैं, और परमेश्वर को यह जरूर पसंद होगा—क्या वे खुद को और दूसरों को धोखा नहीं दे रहे? अब से तुम्हें ये चीजें त्यागनी होंगी। इससे पहले, मैंने डेमिंग और शाओमिंग की कहानी सुनाई थी—वह कहानी बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने से संबंधित थी, है न? (हाँ, थी।) जब कुछ लोग एक बूढ़े व्यक्ति को देखते हैं, तो सोचते हैं कि उन्हें “बड़े भाई” या “बड़ी बहन” कहना पर्याप्त दयालुतापूर्ण नहीं है और इससे लोगों को यह नहीं लगेगा कि वे पर्याप्त सुसंस्कृत हैं, इसलिए वे उन्हें “बड़े दादा जी” या “बड़ी आंटी जी” कहते हैं। ऐसा लगता है कि तुमने उन्हें पर्याप्त सम्मान दिया है, पर उनके प्रति तुम्हारा सम्मान आता कहाँ से है? तुम्हारा चेहरा ऐसे व्यक्ति का नहीं है, जो दूसरों का सम्मान करता हो। तुम्हारी शक्ल भयावह और क्रूर, ढीठ और अहंकारी है, और तुम अपने कार्यों में किसी भी अन्य व्यक्ति से ज्यादा अहंकारी हो। न केवल तुम सत्य सिद्धांत नहीं खोजते, बल्कि तुम किसी और से परामर्श भी नहीं करते; तुम अपने आप में कानून हो और तुममें जरा-सी भी मानवता नहीं है। तुम यह देखते हो कि किसकी हैसियत है, और फिर इस आशा से उन्हें “बड़े अंकल” या “बड़ी आंटी” कहते हो कि इसके लिए तुम्हें लोगों की प्रशंसा मिलेगी—क्या इस तरह का दिखावा करना उपयोगी है? अगर तुम इस तरह दिखावा करोगे, तो क्या तुममें मानवता और नैतिकता रहेगी? इसके विपरीत, जब अन्य लोग तुम्हें ऐसा करते देखेंगे, तो वे तुमसे और भी ज्यादा घृणा महसूस करेंगे। जब ऐसे मामले उठते हैं जिनमें परमेश्वर के घर के हित शामिल होते हैं, तो तुम वास्तव में परमेश्वर के घर के हितों को धोखा देने में सक्षम होते हो। तुम सिर्फ खुद को संतुष्ट करने के लिए जीते हो, और इस तरह की मानवता होने पर भी तुम लोगों को “बड़ी आंटी” कहते हो—क्या यह दिखावा नहीं है? (यह दिखावा ही है।) तुम दिखावा करने में वाकई अच्छे हो! मुझे बताओ, क्या ऐसे लोग घिनौने नहीं हैं? (वे घिनौने हैं।) इस तरह के लोग हमेशा परमेश्वर के घर के हितों को धोखा देते हैं—वे उनकी रक्षा बिल्कुल नहीं करते। वे उसी हाथ को दाँतों से काटते हैं जो उन्हें खाना खिलाता है, और वे परमेश्वर के घर में रहने लायक नहीं हैं। अपनी जाँच करो और देखो कि तुम अभी भी कौन-से विचार, दृष्टिकोण, रवैये, नजरिये और लोगों के साथ व्यवहार करने के तरीके रखते हो, जो ऐसी चीजें हैं जिन्हें मानवजाति आम तौर पर अच्छे व्यवहार समझती है, लेकिन जो असल में वे चीजें हैं जिनसे परमेश्वर घृणा करता है। तुम लोगों को ये बेकार चीजें जल्दी से छोड़ देनी चाहिए और तुम्हें उनसे बिल्कुल भी चिपके नहीं रहना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “ऐसा करने में क्या गलत है?” अगर तुम ऐसा करते हो, तो मुझे तुमसे घिन आएगी और मैं तुमसे घृणा करूँगा, तुम्हें ऐसा बिल्कुल नहीं करना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “तुम्हारे हमसे घृणा करने से फर्क नहीं पड़ता, आखिर हम तुम्हारे साथ तो रहते नहीं।” भले ही हम साथ न रहते हों, फिर भी तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। मुझे तुम लोगों से घृणा महसूस होगी, क्योंकि तुम सत्य स्वीकारने या उसका अभ्यास करने में सक्षम नहीं हो, जिसका अर्थ है कि तुम लोगों को बचाया नहीं जा सकता। इसलिए बेहतर होगा कि तुम जितनी जल्दी हो सके, इन चीजों को त्याग दो। दिखावा मत करो और झूठे मुखौटे के पीछे मत रहो। मुझे लगता है कि पश्चिमी लोग इस संबंध में बहुत सामान्य हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में तुम्हें बस लोगों को उनके नाम से बुलाने की जरूरत है। तुम्हें अजीब तरह से इस व्यक्ति को “दादा जी” और उस व्यक्ति को “दादी जी” कहने की जरूरत नहीं, और तुम्हें इस बात की चिंता करने की जरूरत नहीं कि लोग तुम्हारा मूल्यांकन कर रहे हैं—तुम बस लोगों को गरिमापूर्ण तरीके से उनके नाम से बुला सकते हो, और जब लोग तुम्हें ऐसा करते सुनेंगे, तो वे, वयस्क और बच्चे समान रूप से, बहुत खुश महसूस करेंगे और सोचेंगे कि तुम सम्मान देने वाले व्यक्ति हो। इसके विपरीत, अगर तुम उनका नाम जानते हो और फिर भी उन्हें “श्रीमान” या “आंटी” कहते हो, तो वे खुश नहीं होंगे, वे तुम्हें नजरअंदाज करेंगे, और यह तुम्हें बहुत अजीब लगेगा। पश्चिमी संस्कृति परंपरागत चीनी संस्कृति से भिन्न है। चीनी लोग परंपरागत संस्कृति से शिक्षित और प्रभावित हैं और वे हमेशा ऊँचाई पर खड़े होना चाहते हैं, समूह में बड़े बनना चाहते हैं और अन्य लोगों से अपना सम्मान कराना चाहते हैं। उनके लिए “दादा जी” या “दादी जी” कहलाना पर्याप्त नहीं है, वे चाहते हैं कि लोग उसके आगे “बड़े” जोड़ें और उन्हें “बड़े दादा जी,” “बड़ी दादी जी,” या “बड़े अंकल” कहें। फिर “बिग आंटी” या “बिग अंकल” भी हैं—अगर उन्हें “बड़े” नहीं कहा जाता, तो वे “बिग” कहलाना चाहते हैं। क्या ऐसे लोग घृणित नहीं हैं? यह किस तरह का स्वभाव है? क्या यह अधम नहीं है? यह बहुत घृणित है! इस तरह के लोग न सिर्फ दूसरों का सम्मान पाने में असमर्थ होते हैं, बल्कि दूसरे लोग उनसे घृणा और उनका तिरस्कार करते हैं, वे उनसे दूर हो जाते हैं और उन्हें नकार देते हैं। इसलिए परमेश्वर के परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं को उजागर करने और इन चीजों से तिरस्कार करने के पीछे एक कारण है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इन चीजों में शैतान की चालें और उसका स्वभाव शामिल है और ये व्यक्ति के आचरण के तरीकों और दिशा को प्रभावित कर सकती हैं। बेशक, ये उस परिप्रेक्ष्य को भी प्रभावित कर सकती हैं जिससे व्यक्ति लोगों और चीजों को देखता है, और साथ ही, ये लोगों को अंधा कर सही मार्ग चुनने की उनकी क्षमता भी प्रभावित कर देती हैं। तो क्या लोगों को ये चीजें त्याग नहीं देनी चाहिए? (त्याग देनी चाहिए।)
चीनी लोग परंपरागत संस्कृति से बहुत गहराई से प्रभावित रहे हैं। बेशक, दुनिया के हर देश की अपनी परंपरागत संस्कृति होती है और ये परंपरागत संस्कृतियाँ सिर्फ छोटे मामलों में ही भिन्न होती हैं। हालाँकि उनकी कुछ कहावतें परंपरागत चीनी संस्कृति की कहावतों से भिन्न हैं, फिर भी उनकी प्रकृति समान ही है। ये सभी कहावतें इसलिए अस्तित्व में हैं, क्योंकि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं और उनमें सामान्य मानवता का अभाव है, इसलिए वे कुछ बहुत ही भ्रामक व्यवहारों का उपयोग करते हैं, जो सतह पर अच्छे लगते हैं, जो मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप होते हैं, जिन्हें क्रियान्वित करना, खुद को आकर्षक बनाना लोगों के लिए आसान होता है, ताकि वे बहुत सज्जन, महान और सम्माननीय दिखें, और ऐसा लगे कि उनमें गरिमा और ईमानदारी है। लेकिन परंपरागत संस्कृति के यही पहलू हैं जो लोगों की आँखें धुँधली कर और उन्हें धोखा देते हैं, और यही वे चीजें हैं जो लोगों को सच्चे इंसान की तरह जीने से रोकती हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि शैतान इन चीजों का उपयोग लोगों की मानवता को भ्रष्ट करने और उन्हें सही मार्ग से भटकाने के लिए करता है। क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) परमेश्वर लोगों से कहता है कि वे चोरी न करें, व्यभिचार न करें, इत्यादि, जबकि शैतान लोगों से कहता है कि उन्हें सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत, विनम्र इत्यादि होना चाहिए—क्या ये परमेश्वर द्वारा रखी गई माँगों के ठीक विपरीत नहीं हैं? क्या ये परमेश्वर की माँगों के सुविचारित विरोधाभास नहीं हैं? शैतान लोगों को सिखाता है कि बाहरी तरीकों, व्यवहारों और जिसे वे जीते हैं, उसका उपयोग दूसरों को धोखा देने के लिए कैसे करें। परमेश्वर लोगों को क्या सिखाता है? यही कि उन्हें गलत ढंग से दूसरे लोगों का विश्वास हासिल करने के लिए बाहरी व्यवहारों का उपयोग नहीं करना चाहिए और इसके बजाय उन्हें उसके वचनों और सत्य के आधार पर आचरण करना चाहिए। इस तरह वे दूसरे लोगों के विश्वास और भरोसे के पात्र बन जाएँगे—सिर्फ ऐसे लोगों में ही मानवता होती है। क्या यहाँ कोई फर्क नहीं है? बहुत बड़ा फर्क है। परमेश्वर तुम्हें बताता है कि तुम्हें आचरण कैसे करना है, जबकि शैतान तुम्हें बताता है कि दिखावा कैसे करना है और दूसरों को धोखा कैसे देना है—क्या यह एक बड़ा अंतर नहीं है? तो, क्या अब तुम समझ गए हो कि लोगों को आखिर क्या चुनना चाहिए? इनमें से कौन-सा मार्ग सही है? (परमेश्वर के वचन।) यह सही है, परमेश्वर के वचन ही जीवन में सही मार्ग हैं। चाहे परमेश्वर के वचन मनुष्य के व्यवहार के संबंध में जिस भी तरह की अपेक्षा रखते हों, भले ही वह परमेश्वर द्वारा मनुष्य को बोला गया एक नियम, एक आदेश या एक कानून हो, वे सभी निस्संदेह सही हैं और लोगों को उनका पालन करना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के वचन हमेशा सही मार्ग और सकारात्मक चीजें होंगे, जबकि शैतान के शब्द लोगों को धोखा देते और भ्रष्ट करते हैं, उनमें शैतान के षड्यंत्र होते हैं, और वे सही मार्ग नहीं हैं, भले ही वे लोगों की रुचियों या धारणाओं और कल्पनाओं से कितने भी मेल खाते हों। क्या तुम इसे समझते हो? (हाँ।) आज की संगति की विषयवस्तु सुनने के बाद तुम लोगों को कैसा लग रहा है? क्या इसका संबंध सत्य से है? (हाँ, है।) क्या तुम लोगों ने सत्य के इस पहलू को पहले समझा था? (स्पष्ट रूप से नहीं।) क्या अब तुम इसे स्पष्ट रूप से समझते हो? (पहले से कहीं ज्यादा।) संक्षेप में, इन सत्यों को समझना लोगों के लिए बाद में लाभदायक होगा। यह उनके सत्य के भावी अनुसरण, उनके मानवता को जीने और जीवन में उनके अनुसरण के लक्ष्य और दिशा के लिए फायदेमंद होगा।
26 फ़रवरी 2022
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