सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (4) भाग दो
अच्छे व्यवहारों के भीतर, हमने सुशिक्षित और समझदार होने, सौम्य और परिष्कृत होने, विनम्र होने, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाले होने, मिलनसार होने और सुलभ होने के उदाहरण दिए हैं। अब हम एक उदाहरण के रूप में बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने को लेंगे और इस पर विस्तार से संगति करेंगे। बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करना मानव-जीवन में एक बहुत ही सामान्य घटना है। यहाँ तक कि यह कुछ जानवरों की आबादियों के भीतर भी दिख सकता है, इसलिए, स्वाभाविक रूप से, इसे मनुष्यों के बीच और भी ज्यादा दिखना चाहिए, उनमें तो जमीर और विवेक होता है। मनुष्यों को इस व्यवहार का पालन अन्य प्रजातियों की तुलना में बेहतर, ज्यादा ठोस और व्यावहारिक ढंग से करना चाहिए, सिर्फ सतही ढंग से नहीं। बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने के इस अच्छे व्यवहार का पालन करने में मनुष्य को अन्य प्रजातियों से बेहतर होना चाहिए, क्योंकि मनुष्यों में जमीर और विवेक होता है, जो अन्य प्रजातियों में नहीं होता। इस अच्छे व्यवहार के पालन में मनुष्यों को यह प्रदर्शित करने में सक्षम होना चाहिए कि उनकी मानवता अन्य प्रजातियों के सार से बढ़कर है, अलग है। लेकिन क्या मनुष्य सच में ऐसा करते हैं? (नहीं।) क्या पढ़े-लिखे, जानकार लोग ऐसा करते हैं? (वे भी नहीं करते।) आओ, आम लोगों को अलग रखकर अभिजात वर्ग और राजदरबार के मामलों के बारे में बात करते हैं। वर्तमान में, कई देश शाही परिवारों की कई उत्तेजक कहानियाँ उजागर करने वाले अनेक शाही नाटक प्रस्तुत कर रहे हैं। महल के सदस्य और आम लोग इस मामले में एक-जैसे हैं कि वे दोनों वरिष्ठता-अनुक्रम पर बहुत जोर देते हैं। शाही घरानों के लोगों ने आम लोगों की तुलना में बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने के अच्छे व्यवहार के बारे में ज्यादा विशिष्ट शिक्षा पाई है, और शाही घरानों में युवा पीढ़ी आम लोगों की तुलना में अपने बड़ों के प्रति आदरपूर्ण होने और उन्हें सम्मान देने में बेहतर हैं—इसमें बहुत ज्यादा शिष्टाचार शामिल होता है। जब बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने की बात आती है, तो शाही परिवारों में अच्छे व्यवहार के इस पहलू के लिए विशेष रूप से उच्च अपेक्षाएँ होती हैं, जिसका उन्हें अक्षरशः पालन करना होता है। सतह पर वे, आम लोगों की ही तरह, परंपरागत संस्कृति की बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने की अपेक्षा का पालन करते दिखाई देते हैं—पर फिर भी, चाहे जितनी भी अच्छी तरह से या उपयुक्त रूप से वे ऐसा करते हों, चाहे जितने भी सभ्य और निंदा से परे वे नजर आते हों, इस निंदा से परे व्यवहार के मुखौटे के पीछे तमाम तरह के सत्ता-हस्तांतरण और विभिन्न ताकतों के बीच सत्ता के लिए संघर्ष छिपा होता है। पुत्रों और पिताओं, पोतों और दादाओं, सेवकों और स्वामियों, मंत्रियों और राजाओं के बीच—सतह पर, वे सभी व्यवहार के उस सबसे बुनियादी मानदंड : बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने का पालन करते प्रतीत होते हैं। पर चूँकि राजसी सत्ता और विभिन्न अन्य ताकतें सभी इसमें शामिल होती हैं, इसलिए यह बाहरी व्यवहार किसी काम नहीं आता। यह उस नतीजे को प्रभावित करने में पूरी तरह से अक्षम होता है जो आखिरकार राजसी सत्ता के हस्तांतरण और विभिन्न ताकतों के बीच के संघर्ष से मिलता है। स्वाभाविक रूप से इस तरह का अच्छा व्यवहार मूलभूत रूप से ऐसे किसी भी व्यक्ति को नियंत्रित करने में अक्षम होता है, जो सिंहासन का लालच करता है या सत्ता के लिए महत्वाकांक्षाएँ रखता है। आम लोग बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने के नियम का पालन करते हैं, जो उनके पूर्वजों ने उन्हें दिया था। वे भी इस नियम की सीमाओं के बीच रहते हैं। चाहे जितने हित आपस में टकराएँ, या उन हितों के टकराने पर चाहे जो संघर्ष उत्पन्न हो जाएँ, इसके बाद भी आम लोग एक-साथ रहने में सक्षम होते हैं। लेकिन शाही परिवारों में चीजें अलग होती हैं, क्योंकि उनके हित और सत्ता-विवाद ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। वे निरंतर लड़ते हैं, और अंतिम परिणाम यह होता है कि जीतने वाले राजा बन जाते हैं और हारने वाले अपराधी—या तो एक पक्ष मरता है या दूसरा। जीतने वाले और हारने वाले सभी समान रूप से बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने का नियम बरकरार रखते हैं, पर चूँकि प्रत्येक पक्ष अलग-अलग मात्रा में ताकत रखता है और उनकी अलग-अलग इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ होती हैं, या प्रत्येक पक्ष की ताकत के बीच असमानताओं के कारण, अंत में कुछ जीवित रह जाते हैं, जबकि अन्य नष्ट हो जाते हैं। इसे क्या निर्धारित करता है? क्या यह बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने के नियम से निर्धारित होता है? (नहीं।) तो, इसे क्या निर्धारित करता है? (मनुष्य की शैतानी प्रकृति।) इस सब से मेरा क्या तात्पर्य है? मेरा तात्पर्य है कि ये नियम, मनुष्य के नए, तथाकथित अच्छे व्यवहार, कुछ भी निर्धारित नहीं कर सकते। व्यक्ति किस मार्ग पर चलेगा, यह इस बात से जरा भी तय नहीं होता कि क्या वह सुशिक्षित और समझदार है, मिलनसार है, या अपने बाहरी व्यवहार में बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला है, यह मनुष्य की प्रकृति से निर्धारित होता है। संक्षेप में, परमेश्वर का घर अच्छे व्यवहार के बारे में मनुष्यों के बीच उदित हुए इन कथनों को बढ़ावा नहीं देता। ये व्यवहार, जिन्हें मनुष्य अच्छे समझता है, एक प्रकार के अच्छे व्यवहार और अभिव्यक्ति से ज्यादा कुछ नहीं हैं; ये सत्य को नहीं दर्शाते, और अगर किसी में ये अच्छे व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ हैं, तो इसका मतलब यह नहीं कि वह सत्य का अभ्यास कर रहा है, इसका यह मतलब तो बिल्कुल भी नहीं कि वह सत्य का अनुसरण कर रहा है।
चूँकि ये व्यवहार, जिन्हें मनुष्य अच्छा मानता है, परमेश्वर की ओर से नहीं आते, न ही उसका घर उन्हें बढ़ावा देता है, और वे परमेश्वर के इरादों के अनुरूप तो बिल्कुल भी नहीं होते, और चूँकि वे परमेश्वर के वचनों और उसके द्वारा की जाने वाली अपेक्षाओं के प्रतिकूल होते हैं, तो क्या मनुष्य के व्यवहार के लिए परमेश्वर की भी कुछ अपेक्षाएँ हैं? (हाँ, हैं।) परमेश्वर ने भी अपना अनुसरण करने वाले विश्वासियों के व्यवहार के बारे में कुछ कथन प्रस्तुत किए हैं। वे उन अपेक्षाओं से अलग हैं, जो परमेश्वर ने सत्य के संबंध में मनुष्य से की हैं, और वे कुछ हद तक सरल हैं, पर उनमें कुछ विशिष्ट बातें अवश्य हैं। अपना अनुसरण करने वालों से परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं? उदाहरण के लिए, संत जैसी शालीनता रखना—क्या यह मनुष्य के व्यवहार के लिए एक अपेक्षा नहीं है? (है।) लंपट न होना, संयमित रहना, असामान्य वस्त्र न पहनना, धूम्रपान या मद्यपान न करना, दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करना, साथ ही मूर्ति-पूजा न करना, अपने माता-पिता का सम्मान करना, इत्यादि भी हैं। ये सभी व्यवहारगत अपेक्षाएँ हैं, जिन्हें परमेश्वर ने अपने अनुयायियों के लिए सामने रखा है। ये सबसे बुनियादी अपेक्षाएँ हैं और इन्हें नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। परमेश्वर की उन लोगों के व्यवहार के संबंध में विशिष्ट अपेक्षाएँ हैं, जो उसका अनुसरण करते हैं, और वे अविश्वासियों द्वारा प्रस्तुत किए गए अच्छे व्यवहारों से भिन्न हैं। अविश्वासियों द्वारा प्रस्तावित अच्छे व्यवहार लोगों को, अन्य निचले जानवरों से अलग करते हुए, उच्च जानवर बनाने के अलावा और कुछ नहीं करते। जबकि, परमेश्वर द्वारा अपने अनुयायियों से की जाने वाली अपेक्षाएँ उन्हें अविश्वासियों से अलग करती हैं, उन लोगों से अलग करती हैं जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते। वे जानवरों से अलग होने के बारे में नहीं हैं। अतीत में “पवित्रीकरण” की भी बात होती थी। यह इसे कहने का कुछ हद तक अतिशयोक्तिपूर्ण और गलत तरीका है, लेकिन परमेश्वर ने अपने अनुयायियों के लिए उनके व्यवहार के संबंध में कुछ अपेक्षाएँ रखी हैं। बताओ, वे कौन-सी अपेक्षाएँ हैं? (संतों जैसी शालीनता रखना, लंपट न होना, संयमित रहना, असामान्य वस्त्र न पहनना, धूम्रपान या मद्यपान न करना, दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करना, मूर्ति-पूजा न करना और अपने माता-पिता का सम्मान करना।) इनके अलावा और क्या? (दूसरों की संपत्ति का गबन न करना, चोरी न करना, झूठी गवाही न देना, व्यभिचार न करना।) ये भी हैं। ये व्यवस्था के अंग हैं, ये वे कुछ अपेक्षाएँ हैं, जो परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार के बारे में बिल्कुल शुरुआत में रखी थीं, और ये आज तक वास्तविक और व्यावहारिक बनी हुई हैं। परमेश्वर अपने अनुयायियों के व्यवहार को विनियमित करने के लिए इन अपेक्षाओं का उपयोग करता है, जिसका अर्थ है कि ये बाहरी व्यवहार उन लोगों के चिह्न हैं, जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। अगर तुममें ये व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ ऐसे मौजूद हैं कि दूसरे तुम्हें देखकर जान जाते हैं कि तुम परमेश्वर में विश्वास करने वाले हो, तो वे कम से कम तुम्हारा अनुमोदन कर तुम्हारी प्रशंसा करेंगे। वे कहेंगे कि तुममें संतों जैसी शालीनता है, कि तुम परमेश्वर में विश्वास करने वाले जैसे दिखते हो, न कि किसी अविश्वासी जैसे। कुछ लोग, जो परमेश्वर में विश्वास करने लगते हैं, अविश्वासियों जैसे ही बने रहते हैं, अक्सर धूम्रपान करते हैं, मद्यपान करते हैं, लड़ते-झगड़ते हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो व्यभिचार और चोरी तक करते हैं। यहाँ तक कि उनका व्यवहार भी असंयमित होता है और परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं होता, और जब कोई अविश्वासी उन्हें देखता है, तो वह कहता है, “क्या ये वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं? तो फिर ये उन लोगों की तरह क्यों हैं, जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते?” दूसरे लोग उस व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करते या उस पर भरोसा नहीं करते, इसलिए जब वह व्यक्ति सुसमाचार फैलाने की कोशिश करता है, तो लोग उसे स्वीकारते नहीं। अगर व्यक्ति वह कर सकता है जिसकी परमेश्वर मनुष्य से अपेक्षा करता है, तो वह सकारात्मक चीजों का प्रेमी होता है, दयालु होता है और उसमें सामान्य मानवता होती है। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के वचन सुनते ही उन्हें अमल में ला सकता है, और वह जो अभ्यास करता है उसमें कोई ढोंग नहीं होता, क्योंकि उसने कम से कम अपने जमीर और विवेक के आधार पर उस तरह से कार्य किया है। परमेश्वर की मनुष्य से विशिष्ट अपेक्षाएँ उन अच्छे व्यवहारों से किस रूप में भिन्न होती हैं, जिन्हें मनुष्य बढ़ावा देता है? (परमेश्वर की मनुष्य से अपेक्षाएँ विशिष्ट रूप से व्यावहारिक हैं, वे लोगों को सामान्य मानवता को जीने में सक्षम बना सकती हैं, जबकि परंपरागत संस्कृति सिर्फ कुछ ऐसे व्यवहारों की माँग करती है जो दिखावे के लिए हैं, जिनका कोई वास्तविक कार्य नहीं है।) यह सही है। परंपरागत संस्कृति द्वारा मनुष्य से अपेक्षित तमाम व्यवहार नकली और स्वाँग हैं। वे एक ढोंग हैं। उनका पालन करने वाले भले ही मधुर वचन बोलें, लेकिन भीतर चीजें बिल्कुल दूसरी होती हैं। ये अच्छे व्यवहार एक नकाब हैं, एक भ्रम हैं। ये वे चीजें नहीं हैं, जो व्यक्ति की मानवता के सार से निकलती हैं, ये वे छद्म वेश हैं जिन्हें मनुष्य अपने गौरव के लिए, अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए ओढ़ता है। वे एक दिखावा हैं, एक तरह का पाखंडी नजरिया, एक ऐसी चीज जिसे व्यक्ति जानबूझकर दूसरों को दिखाने के लिए करता है। कभी-कभी लोग नहीं समझ पाते कि किसी व्यक्ति का व्यवहार असली है या नकली, लेकिन समय पर सब उस व्यक्ति के असली रंग देख लेते हैं। यह ठीक वैसा ही है, जैसा कि पाखंडी फरीसियों के साथ था, जिनमें बहुत सारे बाहरी अच्छे व्यवहार और उनकी तथाकथित धर्मपरायणता की बहुत सारी अभिव्यक्तियाँ थीं, फिर भी जब प्रभु यीशु सत्य व्यक्त करने और छुटकारे का कार्य करने के लिए आया, तो उन्होंने उसकी निंदा की और उसे सूली पर चढ़ाया, क्योंकि वे सत्य से विमुख होकर उससे घृणा करते थे। यह दिखाता है कि लोगों के अच्छे व्यवहार और बाहरी नजरिये उनका प्रकृति सार नहीं दर्शाते। वे लोगों के प्रकृति सार से संबंधित नहीं होते। जबकि परमेश्वर मनुष्य से जो नियम पूरे करने की माँग करता है, उन्हें अभ्यास में लाया जा सकता है और वास्तव में जिया जा सकता है, बशर्ते व्यक्ति वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करता हो और जमीर और विवेक रखता हो। तुम्हें ये चीजें करनी चाहिए, चाहे तुम उन्हें दूसरों के सामने करो या उनकी पीठ पीछे; चाहे तुम्हारा मानवता सार कैसा भी हो, तुम्हें परमेश्वर द्वारा सामने रखी गई इन अपेक्षाओं को पूरा करना ही चाहिए। चूँकि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, इसलिए तुम्हें खुद को संयमित कर उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, चाहे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव कितना भी गंभीर क्यों न हो। इस तरह कुछ समय तक अनुभव करने के बाद तुम्हारे पास सच्चा प्रवेश होगा और तुम सच में बदल गए होगे। यह सच्चा बदलाव वास्तविक है।
आओ, जल्दी से इसका सारांश बनाते हैं : लोगों के व्यवहार के लिए परमेश्वर की किस तरह की अपेक्षाएँ हैं? लोगों को सिद्धांतवादी और संयमित रहना चाहिए, और उन्हें बिना किसी दिखावे के, गरिमा के साथ इस तरह जीना चाहिए कि दूसरे उनका सम्मान करें। ये मनुष्य से परमेश्वर की व्यवहारगत अपेक्षाएँ हैं। इसका मतलब यह है कि व्यक्ति को इस तरह से अभ्यास करना चाहिए और उसमें इस तरह की वास्तविकता होनी चाहिए, भले ही वह दूसरों की उपस्थिति में हों या नहीं, या वह जिस भी परिवेश में हो या जिस किसी के भी सामने हो। सामान्य मनुष्यों में ये वास्तविकताएँ होनी चाहिए; अपने आचरण के संदर्भ में व्यक्ति को कम से कम यह तो करना ही चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कोई बहुत जोर से बोलता है, पर वह दूसरों के साथ गाली-गलौज या अभद्र भाषा का इस्तेमाल नहीं करता, और वह जो कहता है वह सत्य और सटीक होता है, और यह अन्य लोगों पर हमला नहीं करता। भले ही वह व्यक्ति किसी को बुरा कहे या यह कहे कि वह व्यक्ति अच्छा नहीं है, यह तथ्यात्मक है। हालाँकि उसके बाहरी शब्द और कार्य अविश्वासियों द्वारा सामने रखी गई मिलनसार या सौम्य और परिष्कृत होने की अपेक्षाओं के अनुरूप न हों, वह जो कहता है उसकी विषयवस्तु, और उसकी बातों के सिद्धांत और आधार उसे गरिमा और निष्ठा के साथ जीने देते हैं। सिद्धांतवादी होने का यही अर्थ है। वे उन चीजों के बारे में लापरवाही से बात नहीं करते जिन्हें वे नहीं जानते, न ही वे उन लोगों का मनमाने ढंग से मूल्यांकन करते हैं जिन्हें वे स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते। हालाँकि वे सतह पर बहुत सौम्य नहीं दिखते, और वे सुसंस्कृत और नियमों के पाबंद होने का वह व्यवहारगत मानक पूरा नहीं करते, जिसके बारे में अविश्वासी बात करते हैं, पर चूँकि उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है और वे वचन और कर्म में संयमित होते हैं, इसलिए जिसे वे जीते हैं, वह सुशिक्षित और समझदार होने, सौम्य और परिष्कृत होने और विनम्र होने के उन व्यवहारों को काफी पीछे छोड़ देता है, जिनके बारे में मनुष्य बात करता है। क्या यह संयमित और सिद्धांतवादी होने की अभिव्यक्ति नहीं है? (है।) जो भी हो, अगर तुम लोग अच्छे व्यवहार की उन अपेक्षाओं को बारीकी से देखो, जिन्हें परमेश्वर अपने विश्वासियों के लिए सामने रखता है, तो उनमें से कौन-सी अपेक्षा इस बारे में ठोस नियम नहीं है कि लोगों को व्यावहारिक रूप से किसे जीना चाहिए? उनमें से कौन-सी अपेक्षा लोगों को स्वाँग रचने के लिए कहती है? उनमें से कोई नहीं, है न? अगर तुम लोगों को कोई संदेह हो, तो तुम बोल सकते हो। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कह सकते हैं, “जब परमेश्वर कहता है कि दूसरे लोगों के साथ मारपीट या गाली-गलौज मत करो, तो यह थोड़ा झूठा लगता है, क्योंकि अभी ऐसे लोग हैं जो कभी-कभी दूसरों के साथ गाली-गलौज करते हैं, और परमेश्वर उनकी निंदा नहीं करता।” जब परमेश्वर अन्य लोगों के साथ गाली-गलौज न करने के लिए कहता है, तो “गाली-गलौज” का क्या अर्थ होता है? (जब व्यक्ति अपने भ्रष्ट स्वभाव के कारण अपनी भावनाओं का गुबार निकालता है।) अपनी भावनाएँ बाहर निकालना, गंदी बातें बोलना—यही गाली-गलौज है। अगर किसी व्यक्ति के बारे में कही गई बात अप्रिय किंतु उसके भ्रष्ट सार के अनुरूप हो, तो यह गाली-गलौज नहीं है। उदाहरण के लिए, हो सकता है किसी ने कलीसिया के काम को बाधित और अव्यवस्थित किया हो और बहुत सारी बुराई की हो, और तुम उससे कहते हो, “तुमने बहुत बुराई की है। तुम बदमाश हो—तुम इंसान नहीं हो!” क्या यह गाली-गलौज माना जाएगा? या एक भ्रष्ट स्वभाव का उद्गार? या अपनी भावनाएँ बाहर निकालना? या संतों जैसी शालीनता न रखना माना जाएगा? (यह तथ्यों के अनुरूप है, इसलिए इसे गाली-गलौज नहीं माना जाता।) यह सही है, इसे गाली-गलौज नहीं माना जाता। यह तथ्यों के अनुसार है—ये सच्चे शब्द हैं, सच्चाई से बोले गए हैं, और कुछ भी ढका-छिपाया नहीं गया है। हो सकता है, यह सुशिक्षित और समझदार होने या सौम्य और परिष्कृत होने के अनुरूप न हो, पर यह तथ्यों के अनुरूप अवश्य है। डाँटा-फटकारा गया व्यक्ति अपनी तुलना उन शब्दों से करके अपनी जाँच करेगा, और देखेगा कि उसे इसलिए डाँटा-फटकारा गया था क्योंकि उसने कुछ गलत किया था और बहुत ज्यादा दुष्टता की थी। वह यह सोचकर खुद से घृणा करेगा, “मैं वास्तव में किसी काम का नहीं हूँ! जो मैंने किया, वह कोई घटिया व्यक्ति ही करेगा—मैं मनुष्य नहीं हूँ! उनका मुझे इस तरह डाँटना-फटकारना सही और अच्छा था!” इसे स्वीकारने के बाद वह अपने प्रकृति सार के बारे में थोड़ा ज्ञान प्राप्त करेगा और कुछ समय के अनुभव और खुलासे के बाद वह वास्तव में पश्चात्ताप करेगा। फिर वह जान जाएगा कि भविष्य में अपना कर्तव्य निभाते हुए उसे सिद्धांत खोजना है। क्या डाँट-फटकार ने उसे जगाया नहीं? तो फिर क्या इस तरह की डाँट-फटकार में और परमेश्वर की लोगों से दूसरों के साथ गाली-गलौज न करने की अपेक्षा में शामिल “गाली-गलौज” में कोई अंतर नहीं है? (अंतर है।) क्या अंतर है? परमेश्वर की इस अपेक्षा में कि लोग दूसरों के साथ गाली-गलौज न करें, शामिल “गाली-गलौज” का क्या अर्थ है? इसका एक पहलू यह है कि अगर विषयवस्तु और शब्द अश्लील हैं, तो यह अच्छा नहीं है। परमेश्वर अपने अनुयायियों के मुँह से अभद्र भाषा नहीं सुनना चाहता। वह ये शब्द सुनना पसंद नहीं करता। लेकिन अगर तथ्य प्रकट करते समय कुछ अप्रिय शब्दों का प्रयोग किया जाता है, तो ऐसे मामलों को अपवाद के रूप में लिया जा सकता है। यह गाली-गलौज नहीं है। दूसरा पहलू है : गाली-गलौज के व्यवहार का सार क्या है? क्या यह गर्ममिजाजी का उद्गार नहीं है? अगर कोई समस्या सामान्य संगति, उपदेश और संवाद के माध्यम से स्पष्ट और पारदर्शी रूप से समझाई जा सकती हो, तो इसके बजाय व्यक्ति के साथ गाली-गलौज क्यों करना? ऐसा करना अच्छा नहीं है, यह अनुचित है। उन सकारात्मक नजरियों से तुलना की जाए, तो गाली-गलौज कोई सामान्य प्रक्रिया नहीं है। यह अपनी भावनाएँ बाहर निकालना और अपनी गर्ममिजाजी उजागर करना है, और परमेश्वर नहीं चाहता कि लोग किसी भी तरह के मामले को सँभालने में अपनी नकारात्मक भावनाएँ बाहर निकालें या गर्ममिजाजी प्रकट करें। जब मनुष्य गर्ममिजाजी प्रकट करते हैं और अपनी भावनाएँ व्यक्त करते हैं, तो वे अक्सर जो व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, वह भाषा का उपयोग कर गाली-गलौज और हमला करने का होता है। वे वही कहेंगे जो सबसे अप्रिय होता है, दूसरे पक्ष को चोट पहुँचाता है और उनका क्रोध शांत करता है। और जब वे अपनी बात खत्म कर लेते हैं, तो वे न सिर्फ दूसरे पक्ष को कलंकित कर चुके और चोट पहुँचा चुके होंगे—बल्कि वे खुद को भी कलंकित कर चुके और चोट पहुँचा चुके होंगे। यह वह रवैया या तरीका नहीं है, जो परमेश्वर के अनुयायियों को चीजों को सँभालने में अपनाना चाहिए। इसके अलावा, भ्रष्ट मनुष्यों में हमेशा बदला लेने की, अपनी भावनाएँ और असंतोष व्यक्त करने की, अपना क्रोध प्रकट करने की मानसिकता होती है। वे हर मोड़ पर दूसरों के साथ गाली-गलौज करना चाहते हैं, और जब छोटी-बड़ी कोई भी बात सामने आती है, तो जो व्यवहार वे तुरंत प्रदर्शित करते हैं, वह गाली-गलौज का होता है। यहाँ तक कि जब उन्हें पता होता है कि इस तरह के व्यवहार से समस्या हल नहीं होगी, तब भी वे ऐसा करते हैं। क्या यह शैतानी व्यवहार नहीं है? वे इसे तब भी करेंगे जब वे अपने घर में अकेले होंगे, जब कोई उन्हें नहीं सुन सकता। क्या यह अपनी भावनाएँ व्यक्त करना नहीं है? क्या यह अपनी गर्ममिजाजी प्रकट करना नहीं है? (है।) आम तौर पर अपनी गर्ममिजाजी प्रकट करने और अपनी भावनाएँ व्यक्त करने का अर्थ, किसी चीज को देखने और सँभालने के तरीके के रूप में अपने क्रोध का उपयोग करना है; इसका मतलब सभी मामलों का सामना क्रोधपूर्ण रवैये के साथ करना है, जिसका एक व्यवहार और अभिव्यक्ति गाली-गलौज है। चूँकि यह गाली-गलौज का सार है, इसलिए क्या यह अच्छी बात नहीं कि परमेश्वर चाहता है कि मनुष्य ऐसा न करे? (यह अच्छी बात है।) क्या परमेश्वर का मनुष्य से यह अपेक्षा करना उचित नहीं कि वह दूसरों के साथ गाली-गलौज न करे? क्या इससे मनुष्य का भला नहीं होता? (होता है।) अंततः, परमेश्वर की इस अपेक्षा का लक्ष्य, कि मनुष्य को दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज नहीं करनी चाहिए, लोगों से संयम बरतवाना और उन्हें हमेशा अपनी भावनाओं और गर्ममिजाजी के बीच रहने से रोकना है। अपनी भावनाओं और गर्ममिजाजी के बीच रहने वाले किसी के साथ गाली-गलौज करते हुए चाहे जो भी कहें, उनके भीतर से जिसका उद्गार होता है, वह एक भ्रष्ट स्वभाव ही है। वह कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव है? कम से कम, क्रूरता और अहंकार का स्वभाव। क्या यह परमेश्वर का इरादा है कि किसी भी समस्या का समाधान भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर किया जाए? (नहीं।) परमेश्वर नहीं चाहता कि उसके अनुयायी अपने आसपास होने वाली किसी भी चीज को देखने के लिए इस तरह के तरीकों का उपयोग करें, जिसका निहितार्थ यह है कि जब लोग अपने आसपास होने वाली हर चीज के प्रति दूसरों के साथ मारपीट और गाली-गलौज करने का रवैया अपनाते हैं, तो परमेश्वर इसे पसंद नहीं करता। तुम लोगों के साथ गाली-गलौज करके किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकते, और ऐसा करने से सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने की तुम्हारी क्षमता प्रभावित होती है। कम से कम, यह कोई सकारात्मक व्यवहार तो नहीं है, न ही यह कोई ऐसा व्यवहार है जो सामान्य मानवता वाले लोगों में होना चाहिए। यही कारण है कि परमेश्वर ने अपना अनुसरण करने वाले लोगों के लिए यह अपेक्षा रखी कि वे दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करें। “गाली-गलौज” के भीतर भावनाएँ और गर्ममिजाजी होती है। “भावनाएँ”—ये विशेष रूप से किसके संदर्भ में है? इसमें शामिल हैं घृणा और शाप, दूसरों का बुरा होने की कामना करना, यह आशा करना कि उसकी इच्छा के अनुसार दूसरों को उनके किए का फल मिलेगा, और दूसरों का अंत बुरा होगा। भावनाओं में विशेष रूप से ऐसी नकारात्मक चीजें ही आती हैं। तो, “गर्ममिजाजी” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है व्यक्ति का अतिवादी, निष्क्रिय, नकारात्मक और बुरे तरीकों का उपयोग करके अपनी भावनाएँ व्यक्त करना, और उन चीजों और लोगों के मिटने की कामना करना जिन्हें वह पसंद नहीं करता, या उनके आपदा में पड़ने की कामना करना ताकि वह उनके दुर्भाग्य में आनंदित हो सके, जैसा कि वह चाहता था। यह गर्ममिजाजी है। गर्ममिजाजी में क्या शामिल है? घृणा, वैर और शाप, साथ ही कुछ दुर्भावना—ये सभी चीजें गर्ममिजाजी में शामिल हैं। क्या इनमें से कोई सकारात्मक है? (नहीं।) जब व्यक्ति इन भावनाओं और गर्ममिजाजी के बीच रहता है, तो वह किस स्थिति में होता है? क्या वह एक पागल दानव में बदलने के करीब नहीं होता? जितना ज्यादा तुम लोगों के साथ गाली-गलौज करते हो, उतने ही ज्यादा तुम क्रोधित होते हो, और उतने ही ज्यादा क्रूर हो जाते हो, और उतनी ही ज्यादा तुम लोगों के साथ गाली-गलौज करना चाहते हो, और अंत में, तुम जाकर किसी को पीट देना चाहोगे। और जब तुम किसी को पीटते हो, तो तुम उसे घातक रूप से घायल करना चाहोगे, उसकी जान लेना चाहोगे, जिसका अर्थ है : “मैं तुम्हें नष्ट कर दूँगा! मैं तुम्हें मार डालूँगा!” एक छोटी-सी भावना—एक नकारात्मक भावना—व्यक्ति की गर्ममिजाजी में वृद्धि और विस्फोट करने की ओर ले जाती है, और अंत में, यह लोगों द्वारा जीवन के नुकसान और विनाश की कामना करने का कारण बनती है। क्या यह ऐसी चीज है, जो सामान्य मानवता वाले लोगों में होनी और उन्हें प्राप्त करनी चाहिए? (नहीं, यह ऐसी चीज नहीं है।) यह किसका चेहरा है? (यह शैतान का चेहरा है।) यह शैतान है, जो अपना असली रूप दिखा रहा है। यह वही चेहरा है जो किसी दानव के पास तब होता है, जब वह किसी व्यक्ति को निगलने वाला होता है। उसकी दानवी प्रकृति सतह पर आ जाती है और नियंत्रित नहीं की जा सकती। पागल दानव होने का यही मतलब है। कितने पागल हो जाते हैं ये लोग? ये उस दानव में बदल जाते हैं, जो मनुष्य की देह और आत्मा निगलना चाहता है। गाली-गलौज का सबसे गंभीर परिणाम यह होता है कि वह किसी साधारण मामले को पूरी तरह उलट सकता है और किसी की मृत्यु का कारण बन सकता है। कई मुद्दे दो लोगों के बीच थोड़े-से मनमुटाव से शुरू होते हैं, जिसके कारण वे एक-दूसरे पर चिल्लाते और एक-दूसरे के साथ गाली-गलौज करते हैं, फिर एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं, जिसके बाद दूसरे को मार डालने की इच्छा होती है, जो फिर तथ्य बन जाती है—उनमें से एक मारा जाता है, और दूसरा हत्या का दोषी ठहराया जाकर मौत की सजा पाता है। अंत में दोनों पक्ष हार जाते हैं। यही अंतिम परिणाम होता है। वे गाली-गलौज कर चुके, अपनी भावनाओं का गुबार निकाल चुके, अपनी सारी गर्ममिजाजी प्रकट कर चुके, और दोनों नरक में चले गए। यह परिणाम है। मनुष्य को अपनी भावनाओं की निकासी और अपनी गर्ममिजाजी में वृद्धि और विस्फोट से यही परिणाम मिलते हैं। यह अच्छा परिणाम नहीं, बुरा परिणाम है। देखो, एक साधारण, नकारात्मक भावना के कारण किए गए व्यवहार के परिणामस्वरूप मनुष्य इसी तरह का नतीजा भुगतता है। लोग ऐसा नतीजा नहीं देखना चाहते, न ही वे इसे भुगतने को तैयार होते हैं, पर चूँकि लोग हर तरह की बुरी भावनाओं के बीच रहते हैं, और चूँकि वे गर्ममिजाजी के जाल में उलझे और उससे नियंत्रित होते हैं, जो अक्सर बढ़ती और फूटती रहती है, इसलिए अंततः ऐसे ही परिणाम उत्पन्न होते हैं। मुझे बताओ, क्या गाली-गलौज एक सरल व्यवहार है? हो सकता है, जो गाली-गलौज लोग अपने दैनिक जीवन के दौरान करते हैं, उसका ऐसा बुरा परिणाम न हो—अर्थात्, गाली-गलौज की सभी घटनाओं का ऐसा बुरा परिणाम होना जरूरी नहीं है। फिर भी गाली-गलौज का यही सार होता है। यह व्यक्ति की भावनाओं की निकासी और उसकी गर्ममिजाजी की वृद्धि और विस्फोट है। इसलिए, मनुष्य से परमेश्वर की यह अपेक्षा कि वे दूसरों के साथ गाली-गलौज न करें, उसके लिए निश्चित रूप से लाभदायक है—यह उसे सैकड़ों तरीकों से लाभ पहुँचाती है और हानि एक भी तरीके से नहीं पहुँचाती—और साथ ही, यह परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए इस अपेक्षा को सामने रखने के महत्व का हिस्सा है। दूसरों के साथ गाली-गलौज न करने की अपेक्षा सत्य का अभ्यास या अनुसरण करने के स्तर तक भले न उठ पाए, पर इस तरह की अपेक्षा का पालन मनुष्य को फिर भी करना चाहिए।
क्या लोग केवल आत्म-संयम पर भरोसा करके परमेश्वर की यह अपेक्षा पूरी कर सकते हैं कि उन्हें एक-दूसरे के साथ गाली-गलौज नहीं करनी चाहिए? जब लोगों को गुस्सा आता है, तो बहुत बार वे खुद को रोक नहीं पाते। तो, लोग एक-दूसरे के साथ गाली-गलौज न करने की यह अपेक्षा कैसे पूरी कर सकते हैं? जब तुम किसी के साथ गाली-गलौज करने वाले होते हो, खासकर जब तुम खुद को रोकने में असमर्थ रहते हो, तो तुम्हें जल्दी से प्रार्थना करनी चाहिए। अगर तुम कुछ समय के लिए प्रार्थना करते हो और ईमानदारी से परमेश्वर से विनती करते हो, तो तुम्हारा क्रोध कम होने की संभावना है। उस समय तुम खुद को प्रभावी ढंग से रोकने में सक्षम रहोगे और अपनी भावनाएँ और क्रोध नियंत्रित कर पाओगे। उदाहरण के लिए, कभी-कभी लोग कुछ ऐसा कह सकते हैं जिससे तुम अपमानित महसूस कर सकते हो, या वे तुम्हारी पीठ पीछे तुम्हारी आलोचना कर सकते हैं, या जाने-अनजाने तुम्हें ठेस पहुँचा सकते हैं, या तुम्हारा थोड़ा फायदा उठा सकते हैं, तुम्हारा कुछ चुरा सकते हैं, यहाँ तक कि तुम्हारे अहम हितों को चोट पहुँचा सकते हैं। जब ये चीजें तुम पर आकर पड़ेंगी, तो तुम सोचोगे : “उसने मुझे चोट पहुँचाई, इसलिए मैं उससे नफरत करता हूँ, मैं चिल्लाकर उसे गाली देना चाहता हूँ, मैं उससे बदला लेना चाहता हूँ, यहाँ तक कि मैं उसे मारना भी चाहता हूँ। मैं उसे सबक सिखाने के लिए उसकी पीठ पीछे एक गंदी चाल चलना चाहता हूँ।” क्या यह सब बुरी भावनाओं के कारण नहीं होता है? बुरी भावनाओं का परिणाम यह होता है कि तुम ये चीजें करना चाहोगे। जितना ज्यादा तुम इसके बारे में सोचोगे, उतने ही ज्यादा क्रोधित होगे, और उतना ही ज्यादा तुम सोचोगे कि यह व्यक्ति तुम्हें धौंस दे रहा है और तुम्हारी गरिमा और चरित्र अपमानित हुए हैं। तुम अंदर से असहज महसूस करोगे और बदला लेना चाहोगे। क्या यह वह उग्र आवेग नहीं है, जो इन नकारात्मक भावनाओं ने तुममें पैदा किया है? (यह वही है।) बदला लेने की तुम्हारी यह इच्छा किस तरह का व्यवहार है? क्या तुम क्रोध प्रकट करने वाले नहीं हो? ऐसे समय तुम्हें खुद को शांत रखना चाहिए; सबसे पहले, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, खुद पर संयम रखना चाहिए, सत्य का चिंतन और खोज करनी चाहिए, और बुद्धिमानी से पेश आना चाहिए। यह उस स्थिति से बचने का एकमात्र तरीका है, जिसमें तुम उत्तेजित हो जाते हो, और जिसमें तुम्हारे भीतर घृणा, भावनाएँ और क्रोध पैदा होता है। कुछ लोग कह सकते हैं : “अगर दो लोग पूरे दिन एक-साथ काम करते हैं, तो इस तरह की स्थिति से बचने का कोई उपाय नहीं है।” अगर तुम इस स्थिति से बच न भी सको, तो भी तुम्हें प्रतिशोध नहीं लेना चाहिए, तुम्हें संयमित रहना चाहिए। तुम संयमित कैसे रह सकते हो? सबसे पहले, तुम्हें मन ही मन सोचना चाहिए : “अगर मैं प्रतिशोध लूँगा, तो निश्चित रूप से परमेश्वर इससे प्रसन्न नहीं होगा, इसलिए मैं ऐसा नहीं कर सकता। नफरत, बदला और घिन ये सभी वे चीजें हैं, जो परमेश्वर को नापसंद हैं।” परमेश्वर को ये चीजें पसंद नहीं हैं, लेकिन तुम फिर भी इन्हें करना चाहते हो और खुद को नियंत्रित नहीं कर पाते। तुम्हें इसका समाधान कैसे करना चाहिए? स्वाभाविक रूप से, तुम्हें परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए; अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करोगे, तो तुम इसका समाधान नहीं कर पाओगे। इसके अलावा, अगर तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और तुम बहुत क्रोधी हो, और तुम वाकई अपनी भावनाएँ और क्रोध नियंत्रित नहीं कर पाते और बदला लेना चाहते हो, तो भी तुम्हें उस व्यक्ति को गाली देने के लिए अपना मुँह बिल्कुल नहीं खोलना चाहिए। तुम जहाँ भी हो, वहाँ से जा सकते हो और किसी अन्य को हस्तक्षेप करके स्थिति सुलझाने दे सकते हो। तुम्हें चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के वचनों के कुछ प्रासंगिक वाक्यांशों का पाठ करना चाहिए। इस तरह परमेश्वर से प्रार्थना करो, तुम्हारा क्रोध धीरे-धीरे दूर हो जाएगा। तुम्हें एहसास होगा कि लोगों के साथ गाली-गलौज करने से समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता और यह भ्रष्टता का प्रकाशन होगा, और यह सिर्फ परमेश्वर को शर्मिंदा ही कर सकता है। क्या इस तरह प्रार्थना करने से तुम्हारी समस्या का समाधान नहीं होगा? तुम लोग इस समाधान के बारे में क्या सोचते हो? (यह अच्छा है।) यह सब परमेश्वर द्वारा प्रस्तुत इस व्यावहारिक नियम पर मेरी संगति के लिए है : “दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करो।”
मैंने अभी-अभी उन अच्छे व्यवहारों पर संगति की, जिन्हें परमेश्वर लोगों से बनाए रखने के लिए कहता है, वे क्या हैं? (संतों जैसी शालीनता रखना, लंपट न होना, संयमित रहना, असामान्य वस्त्र न पहनना, दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करना, धूम्रपान या मद्यपान न करना, मूर्ति-पूजा न करना, अपने माता-पिता का सम्मान करना, चोरी न करना, दूसरों की संपत्ति का गबन न करना, व्यभिचार न करना और झूठी गवाही न देना।) हाँ, ये सभी सही हैं। मुझे बताओ, क्या कानून में रखी गई अपेक्षाएँ, जैसे चोरी न करना और दूसरों का फायदा न उठाना, अब भी मान्य हैं? क्या वे अभी भी प्रभावी हैं? (वे अभी भी मान्य और प्रभावी हैं।) तो फिर, अनुग्रह के युग की आज्ञाओं के बारे में क्या खयाल है? (वे भी अभी भी मान्य हैं।) तो, परमेश्वर ने ये विशिष्ट अपेक्षाएँ क्यों सामने रखीं? ये विशिष्ट अपेक्षाएँ मनुष्य के अभ्यास के किस पहलू को छूती हैं? अगर परमेश्वर ने ये अपेक्षाएँ सामने नहीं रखी होतीं, तो क्या लोग इन चीजों को समझ पाते? (वे नहीं समझ पाते।) लोग इन्हें नहीं समझ पाते। मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए परमेश्वर ने जो विशिष्ट अपेक्षाएँ सामने रखी हैं, वे असल में सामान्य मानवता को जीने से संबंधित हैं। ये विशिष्ट अपेक्षाएँ सामने रखने का उद्देश्य लोगों को सकारात्मक और नकारात्मक चीजों को सटीक रूप से समझने और पहचानने में सक्षम बनाना था, और यह भी कि क्या सही है और क्या गलत; यह लोगों को यह सिखाने के लिए था कि व्यभिचार एक नकारात्मक चीज है, कि यह शर्मनाक है, परमेश्वर इससे घृणा करता है, मनुष्य इसका तिरस्कार करता है, और लोगों को इस मामले में खुद को संयमित रखना चाहिए, कि उन्हें यह कार्य नहीं करना चाहिए, या इस संबंध में गलतियाँ नहीं करनी चाहिए; यह लोगों को यह सिखाने के लिए भी था कि दूसरों का फायदा उठाना, चोरी करना आदि जैसे सभी व्यवहार नकारात्मक चीजें हैं, जो लोगों को नहीं करनी चाहिए। अगर तुम्हें ये चीजें करना पसंद है, और तुमने ये चीजें की हैं, तो तुम अच्छे इंसान नहीं हो। व्यक्ति अच्छी और बुरी मानवता वाले व्यक्ति के बीच या सकारात्मक और नकारात्मक व्यक्ति के बीच अंतर कैसे कर सकता है? सबसे पहले, तुम्हें इस बात की पुष्टि करनी चाहिए—लोगों को सिर्फ परमेश्वर के वचनों के आधार पर ही सटीक रूप से पहचाना जा सकता है और उसी आधार पर सकारात्मक और नकारात्मक लोगों में अंतर किया जा सकता है। लोगों को सिर्फ उन अपेक्षाओं और मानकों के आधार पर ही स्पष्ट रूप से पहचाना और समझा जा सकता है, जो परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए सामने रखे हैं। मैं एक उदाहरण देता हूँ : अगर किसी व्यक्ति में चोरी की प्रवृत्ति है और वह दूसरे लोगों की चीजें चुराना पसंद करता है, तो उसकी मानवता कैसी है? (बुरी।) चोरी करना बहुत बुरा काम है, इसलिए जो लोग चोरी करते हैं, वे बुरे लोग होते हैं। अन्य सभी लोग उनसे सावधान रहते हैं, उनसे दूर रहते हैं और उन्हें चोर समझते हैं। लोगों के मन में, चोर नकारात्मक चरित्र होते हैं, चोरी नकारात्मक चीज और पापपूर्ण व्यवहार है। तो क्या इसकी पुष्टि नहीं हो गई? यह रहा एक और उदाहरण : मान लो कोई व्यभिचारी है, और कुछ लोग नहीं जानते कि यह सकारात्मक चीज है या नकारात्मक—तो उनके लिए इसे सटीक रूप से मापने का एकमात्र तरीका परमेश्वर के वचनों के अनुसार मापना है, क्योंकि सिर्फ परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। व्यभिचार के कृत्य के बारे में कानूनी प्रणालियाँ और नैतिकता अब चाहे जो भी नए दावे करे, वे सत्य नहीं हैं। परमेश्वर द्वारा कहे गए वचन, “व्यभिचार न करो,” सत्य हैं, और सत्य कभी नहीं मिटेगा। जिस क्षण से परमेश्वर ने यह अपेक्षा सामने रखी, “व्यभिचार न करो,” सभी लोगों को व्यभिचारियों का तिरस्कार करना और उनसे दूर रहना शुरू कर देना चाहिए था। ऐसे लोगों में मानवता नहीं होती, और, कम से कम, अगर तुम उन्हें मानवता के परिप्रेक्ष्य से मापो, तो वे अच्छे लोग नहीं होते। जो भी व्यक्ति इस तरह के व्यवहार में संलग्न है और जिसमें इस तरह की मानवता है, वह शर्मनाक है, मनुष्य उनसे घृणा करते हैं, समूहों के भीतर उन्हें हेय दृष्टि से देखा और तिरस्कृत किया जाता है, और जनसाधारण उन्हें नकार देता है। परमेश्वर के वचनों के आधार पर हम पुष्टि कर सकते हैं कि व्यभिचार एक नकारात्मक चीज है, और जो लोग ऐसा करते हैं, वे नकारात्मक व्यक्ति होते हैं। समाज की प्रवृत्तियाँ चाहे कितनी भी बुरी क्यों न हो जाएँ, व्यभिचार और परस्त्रीगमन नकारात्मक चीजें हैं, और जो लोग इनमें संलग्न हैं, वे नकारात्मक व्यक्ति हैं। यह बिल्कुल निश्चित है और तुम्हें इसे समझना चाहिए; तुम्हें समाज की बुरी प्रवृत्तियों से भटकना या बहकना नहीं चाहिए। इनके अलावा, कुछ और विशिष्ट अपेक्षाएँ हैं : परमेश्वर लोगों से कहता है कि मूर्ति-पूजा न करो, अपने माता-पिता का सम्मान करो, दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करो, संतों जैसी शालीनता रखो, इत्यादि। ये तमाम विशिष्ट अपेक्षाएँ वे मानक हैं, जिनके द्वारा परमेश्वर मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करता है। दूसरे शब्दों में, लोगों को सत्य प्रदान करने से पहले परमेश्वर ने उन्हें सिखाया कि कौन-से कार्य सही और सकारात्मक हैं और कौन-से गलत और नकारात्मक, उसने उन्हें बताया कि अच्छा इंसान कैसे बनें और सामान्य मानवता वाला व्यक्ति बनने के लिए उनमें कौन-से अच्छे व्यवहार होने चाहिए, और साथ ही एक सामान्य मानवता वाले व्यक्ति के रूप में उन्हें कौन-सी चीजें करनी चाहिए और कौन-सी नहीं, ताकि वे सही चुनाव कर सकें। मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने वाली ये सभी माँगें ऐसी चीजें हैं, जिन्हें हर सामान्य व्यक्ति को वास्तव में जीना चाहिए, और वह आधार हैं जिस पर हर व्यक्ति वास्तव में अपने सामने आने वाली सभी चीजों का मुकाबला करता है और उन्हें सँभालता है। उदाहरण के लिए, मान लो तुम देखते हो कि किसी अन्य व्यक्ति के पास कुछ अच्छा है और तुम उसे हथियाना चाहते हो, लेकिन फिर सोचते हो : “परमेश्वर कहता है कि दूसरे लोगों की चीजें चुराना गलत है, उसने कहा था कि हमें चोरी नहीं करनी चाहिए या दूसरों का फायदा नहीं उठाना चाहिए, इसलिए मैं दूसरों की चीजें नहीं चुराऊँगा।” क्या तब चोरी करने के व्यवहार पर लगाम नहीं लगी? और संयमित रहने के साथ-साथ क्या तुम्हारा व्यवहार भी नियंत्रित नहीं हुआ है? परमेश्वर द्वारा इन अपेक्षाओं को सामने रखने से पहले, जब लोग किसी अन्य व्यक्ति के पास कुछ अच्छा देखते थे, तो वे उसे हथिया लेना चाहते थे। वे यह नहीं सोचते थे कि ऐसा करना गलत या शर्मनाक है, या परमेश्वर इससे घृणा करता है, या यह एक नकारात्मक चीज है, या यह पाप है; वे इन चीजों को नहीं जानते थे, उनमें ये अवधारणाएँ नहीं थीं। जब परमेश्वर ने यह अपेक्षा सामने रखी, “चोरी मत करो,” तब लोगों को इस तरह के काम करने के लिए एक मानसिक सीमा प्रदान की गई, और इस सीमा के जरिये उन्होंने सीखा कि चोरी करने और चोरी न करने में अंतर है। चोरी करना कुछ नकारात्मक करने, कुछ बुरा या दुष्टतापूर्ण करने के समान है, और यह शर्मनाक है। चोरी न करना मानवता की नैतिकता का पालन करना है और इसमें मानवता है। मनुष्य के व्यवहार के संबंध में परमेश्वर की माँगें न सिर्फ लोगों के नकारात्मक व्यवहार और नजरियों का समाधान करती हैं, बल्कि वे मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित भी करती हैं, और लोगों को सामान्य मानवता के साथ जीने, सामान्य व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ रखने और कम से कम, लोगों की तरह, सामान्य लोगों जैसा दिखने में सक्षम बनाती हैं। मुझे बताओ, क्या ये अपेक्षाएँ, जो परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए रखी हैं, बहुत अर्थपूर्ण नहीं हैं? (हैं।) वे अर्थपूर्ण हैं। लेकिन, मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने वाली ये विशिष्ट अपेक्षाएँ अभी भी उन सत्यों से काफी दूर हैं, जिन्हें परमेश्वर अभी व्यक्त कर रहा है, और उन्हें सत्य के स्तर तक नहीं उठाया जा सकता। ऐसा इसलिए है कि, बहुत समय पहले, व्यवस्था के युग के दौरान, ये अपेक्षाएँ सिर्फ कानून थीं जो मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करती थीं, यह परमेश्वर द्वारा लोगों को यह बताने के लिए सबसे सरल और सीधी भाषा का उपयोग था कि उन्हें कौन-सी चीजें करनी चाहिएँ और कौन-सी नहीं, और वह इसके लिए कुछ नियम बना रहा था। अनुग्रह के युग में, ये अपेक्षाएँ सिर्फ आज्ञाएँ थीं, और वर्तमान समय में, सिर्फ यह कहा जा सकता है कि ये व्यक्ति द्वारा अपना व्यवहार मापने और चीजों का मूल्यांकन करने की मानदंड हैं। हालाँकि ये मानदंड सत्य के स्तर तक नहीं उठाए जा सकते, और उनके और सत्य के बीच एक निश्चित दूरी है, फिर भी वे मनुष्य द्वारा सत्य के अनुसरण और अभ्यास के लिए एक आवश्यक पूर्व-शर्त हैं। जब व्यक्ति इन नियमों, इन कानूनों और आज्ञाओं, इन अपेक्षाओं और व्यवहार संबंधी मानदंडों का पालन करता है, जिन्हें परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए स्थापित किया है, तो यह कहा जा सकता है कि वे सत्य का अभ्यास और अनुसरण करने की बुनियादी पूर्व-शर्तें पूरी करते हैं। अगर कोई व्यक्ति धूम्रपान और मद्यपान करता है, अगर उसका व्यवहार लंपट है और वह व्यभिचार करता है, दूसरे लोगों का फायदा उठाता है और अक्सर चोरी करता है, और तुम कहते हो, “यह व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है और यह निश्चित रूप से उसका अभ्यास कर उद्धार प्राप्त कर सकता है,” तो क्या इस कथन में दम होगा? (नहीं होगा।) इसमें दम क्यों नहीं होगा? (वह व्यक्ति परमेश्वर की सबसे बुनियादी अपेक्षाएँ भी पूरी करने में सक्षम नहीं है, वह संभवतः सत्य का अभ्यास नहीं कर सकता, और अगर कोई कहता है कि उसे सत्य से प्रेम है, तो यह झूठ होगा।) यह सही है। इस व्यक्ति में सबसे बुनियादी स्तर का आत्म-संयम भी नहीं है। इसका निहितार्थ यह है कि उसके पास जमीर और विवेक की वह सबसे बुनियादी मात्रा भी नहीं है, जो व्यक्ति में होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, इस व्यक्ति में सामान्य मानवता का जमीर और विवेक नहीं है। जमीर और विवेक न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि इस व्यक्ति ने परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन, परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए रखी गई अपेक्षाएँ और परमेश्वर द्वारा स्थापित किए गए नियम सुने तो हैं, पर उन्हें गंभीरता से बिल्कुल नहीं लिया है। परमेश्वर कहता है कि दूसरे लोगों का सामान चुराना बुरा है और लोगों को चोरी नहीं करनी चाहिए, और यह व्यक्ति आश्चर्य करता है : “लोगों को चोरी क्यों नहीं करने दी जाती? मैं बहुत गरीब हूँ, अगर मैं चोरी न करूँ तो कैसे जी पाऊँगा? अगर मैं चीजें न चुराऊँ या दूसरे लोगों का फायदा न उठाऊँ, तो क्या मैं अमीर बन सकता हूँ?” क्या उसमें सामान्य मानवता के जमीर और विवेक की कमी नहीं है? (बेशक है।) वह परमेश्वर द्वारा मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए सृजित माँगें पूरी करने में असमर्थ है, इसलिए वह ऐसा व्यक्ति नहीं है, जिसमें सामान्य मानवता होती है। अगर कोई कहे कि जिस व्यक्ति में सामान्य मानवता नहीं है वह सत्य से प्रेम करता है, तो क्या यह संभव है? (यह संभव नहीं है।) वह सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता, और हालाँकि परमेश्वर कहता है कि लोगों को चोरी या व्यभिचार नहीं करना चाहिए, फिर भी वह ये अपेक्षाएँ पूरी करने में असमर्थ है और परमेश्वर के इन वचनों से विमुख हो चुका है—तो क्या वह सत्य से प्रेम करने में सक्षम है? सत्य इन व्यवहार संबंधी मानदंडों से कहीं ज्यादा ऊँचा है—क्या वह उसे प्राप्त कर सकता है? (नहीं।) सत्य कोई साधारण व्यवहार संबंधी मानदंड नहीं है, यह सिर्फ लोगों द्वारा पाप करते समय सत्य के बारे में सोचने या मनमाने और लापरवाह हो जाने, और फिर संयमित हो जाने, और अब पाप न करने या मनमाने ढंग से और लापरवाही से कार्य न करने का मामला नहीं है। सत्य सिर्फ इस सरल तरीके से लोगों के व्यवहार को नियंत्रित नहीं करता—सत्य व्यक्ति का जीवन बन सकता है और व्यक्ति से संबंधित हर चीज पर हावी हो सकता है। जब लोग सत्य को अपने जीवन के रूप में स्वीकारते हैं, तो यह उनके द्वारा परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने, सत्य को जानने और सत्य का अभ्यास करने से प्राप्त होता है। जब लोग सत्य स्वीकारते हैं, तो उनके भीतर एक संघर्ष पैदा होता है और उनके भ्रष्ट स्वभावों के प्रकट होने की संभावना रहती है। जब लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने के लिए सत्य का उपयोग करने में सक्षम होते हैं, तो सत्य उनका जीवन और वह सिद्धांत बन सकता है, जिसके द्वारा वे आचरण करते और जीते हैं। यह ऐसी चीज है, जिसे सिर्फ सत्य से प्रेम करने वाले और मानवता रखने वाले लोग ही प्राप्त कर सकते हैं। क्या वे लोग, जो सत्य से प्रेम नहीं करते और जिनमें मानवता का अभाव है, इस स्तर तक पहुँच सकते हैं? (नहीं।) सही है, चाहकर भी वे इस स्तर तक नहीं पहुँच सकते।
अगर हम इन अपेक्षाओं पर नजर डालें, जो परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए सृजित की हैं, तो क्या परमेश्वर द्वारा बोले गए तमाम वचनों और उसके द्वारा रखी गई तमाम विशिष्ट शर्तों में से कोई अनावश्यक है? (नहीं।) क्या वे सार्थक हैं? क्या उनका कोई मूल्य है? (हाँ।) क्या लोगों को उनका पालन करना चाहिए? (हाँ।) यह सही है, लोगों को उनका पालन करना चाहिए। और साथ ही, उनका पालन करते हुए लोगों को वे कथन त्याग देने चाहिए, जो पारंपरिक संस्कृति ने उन्हें सिखाए हैं, जैसे सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना, इत्यादि। उन्हें परमेश्वर द्वारा मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए रखी गई प्रत्येक अपेक्षा का पालन करना चाहिए और सख्ती से परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण करना चाहिए। उन्हें परमेश्वर द्वारा रखी गई तमाम अपेक्षाओं का बारीकी से पालन करते हुए सामान्य मानवता को जीना चाहिए, और स्वाभाविक रूप से, उन्हें सख्ती से इन अपेक्षाओं के अनुसार लोगों और चीजों का मूल्यांकन और अपना आचरण और कार्य करना चाहिए। हालाँकि ये अपेक्षाएँ सत्य के मानकों पर खरी नहीं उतरतीं, फिर भी वे सब परमेश्वर के वचन हैं, और चूँकि वे परमेश्वर के वचन हैं, इसलिए उनका लोगों पर सकारात्मक और सक्रिय मार्गदर्शक प्रभाव हो सकता है। मैंने सत्य के अनुसरण को कैसे परिभाषित किया था? पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना। परमेश्वर के वचनों में बहुत-सी चीजें शामिल हैं। कभी-कभी उसके वचनों का एक वाक्यांश सत्य का एक तत्त्व दर्शा देता है। कभी-कभी सत्य का एक तत्त्व प्रस्तुत करने के लिए कई वाक्यांश या एक अनुच्छेद आवश्यक होता है। कभी-कभी सत्य का एक तत्त्व व्यक्त करने के लिए एक पूरा अध्याय आवश्यक होता है। सत्य सरल प्रतीत होता है, परंतु वास्तव में यह बिल्कुल भी सरल नहीं है। सत्य को व्यापक अर्थों में वर्णित करें तो, परमेश्वर ही सत्य है। परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, परमेश्वर के वचन विशाल हैं और उनमें बहुत सारी सामग्री शामिल है, और वे सभी सत्य की अभिव्यक्तियाँ हैं। उदाहरण के लिए, परमेश्वर ने जो कानून और आज्ञाएँ निर्धारित की हैं, और साथ ही व्यवहार संबंधी जो अपेक्षाएँ परमेश्वर ने इस नए युग में सामने रखी हैं, वे सब परमेश्वर के वचन हैं। हालाँकि इनमें से कुछ वचन सत्य के स्तर तक नहीं पहुँचते, और हालाँकि वे सत्य की श्रेणी में नहीं आते, फिर भी वे सकारात्मक चीजें हैं। हालाँकि वे सिर्फ ऐसे वचन हैं, जो मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करते हैं, फिर भी लोगों को उन पर कायम रहना चाहिए। लोगों में, कम से कम, इस तरह के व्यवहार होने चाहिए, और उन्हें इन मानकों से कम नहीं होना चाहिए। इसलिए, लोगों और चीजों के बारे में व्यक्ति के विचार और उनका आचरण और कार्यकलाप परमेश्वर के इन वचनों पर आधारित होने चाहिए। लोगों को उनका पालन करना चाहिए, क्योंकि वे परमेश्वर के वचन हैं; सभी को परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना चाहिए, क्योंकि वे परमेश्वर के वचन हैं। क्या यह सही नहीं है? (है।) मैंने पहले इस जैसा कुछ कहा है : परमेश्वर जो कहता है वही उसका मतलब होता है, वह जो कहता है वही होता है और वह जो करता है वो हमेशा कायम रहेगा, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर के वचन कभी नहीं मिटेंगे। वे क्यों नहीं मिटेंगे? क्योंकि चाहे परमेश्वर कितने भी वचन बोले, और चाहे परमेश्वर उन्हें कभी भी बोले, वे सब सत्य हैं और वे कभी नहीं मिटते। यहाँ तक कि जब दुनिया एक नए युग में प्रवेश करेगी, तब भी परमेश्वर के वचन नहीं बदलेंगे, और वे नहीं मिटेंगे। मैं यह क्यों कहता हूँ कि परमेश्वर के वचन मिटते नहीं? क्योंकि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और जो सत्य है वह कभी नहीं बदलेगा। इसलिए, वे सभी नियम और आज्ञाएँ, जिन्हें परमेश्वर ने सामने रखा और कहा है, और वे सभी विशिष्ट अपेक्षाएँ जो उसने मनुष्य के व्यवहार के संबंध में सामने रखी हैं, कभी नहीं मिटेंगी। परमेश्वर के वचनों में की गई प्रत्येक अपेक्षा सृजित मनुष्य के लिए लाभदायक है, वे सब मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करती हैं, और वे सामान्य मानवता को जीने, और लोगों को कैसे आचरण करना चाहिए, इसके संबंध में शिक्षाप्रद और मूल्यवान हैं। ये सभी वचन लोगों को बदल सकते हैं और उन्हें सच्चे इंसान की तरह जीने लायक बना सकते हैं। इसके विपरीत, अगर लोग परमेश्वर के इन वचनों और परमेश्वर द्वारा मनुष्य से की गई अपेक्षाओं को नकारते हैं, और इसके बजाय, अच्छे व्यवहार से संबंधित उन कथनों का पालन करते हैं जिन्हें मनुष्य ने सामने रखा है, तो वे बड़े खतरे में हैं। न सिर्फ उनमें अधिकाधिक मानवता और विवेक नहीं होगा, बल्कि वे अधिकाधिक धोखेबाज और नकली भी हो जाएँगे, और वे चालाकी करने में और ज्यादा सक्षम हो जाएँगे, और जिस मानवता को वे जिएँगे, उसमें और ज्यादा चालाकी शामिल होगी। वे न सिर्फ दूसरे लोगों को धोखा देंगे, बल्कि परमेश्वर को भी धोखा देने का प्रयास करेंगे।
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