सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (11) भाग दो
परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कहावतों पर चर्चा में पिछली बार हमने किन कहावतों पर संगति की थी? (हमने तीन कहावतों पर संगति की थी, “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते,” और “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा।”) पिछली बार हमने नैतिक आचरण की इन तीन अपेक्षाओं और कहावतों के साथ ही ऐसी कहावतों के सार पर भी संगति की थी। नैतिक आचरण की कहावतों के सार के बारे में हमने क्या संगति की थी? (परमेश्वर ने नैतिक आचरण की कहावतों और सत्य के बीच का अंतर बताया था। नैतिक आचरण की कहावतें लोगों के व्यवहार को सीमित करती हैं और उन्हें केवल नियमों के अनुसार चलने पर मजबूर करती हैं, जबकि परमेश्वर के वचनों का सत्य लोगों को वे सत्य सिद्धांत बताता है जो उन्हें समझने चाहिए और अभ्यास के कुछ मार्ग दिखाता है ताकि जब उनके साथ कोई बात हो जाए तो उनके पास अभ्यास करने के लिए सिद्धांत और एक दिशा हो। यही वे पहलू हैं जिनके आधार पर नैतिक आचरण की कहावतें सत्य से अलग हैं।) पिछली बार हमने संगति की थी कि नैतिक आचरण की कहावतों के अनुसार लोगों को मुख्य रूप से कुछ अभ्यास और नियमों का पालन करना आवश्यक है और इनमें लोगों के व्यवहार को सीमित करने के लिए नियमों के इस्तेमाल पर ज्यादा जोर दिया जाता है। जबकि लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ मुख्य रूप से उनके लिए अभ्यास के मार्ग बताती हैं जो इस बात पर आधारित होते हैं कि सामान्य मानवता क्या हासिल कर सकती है, और अभ्यास के इन व्यापक मार्गों को सिद्धांत कहा जाता है। इसका मतलब यह है कि जब भी तुम पर कोई मुसीबत आएगी तो परमेश्वर तुम्हें अभ्यास का सटीक और सकारात्मक मार्ग बताने के साथ-साथ तुम्हें अभ्यास के लिए सिद्धांत, लक्ष्य और दिशा भी बताएगा। वह नहीं चाहता कि तुम नियमों का पालन करो, बल्कि यह चाहता है तुम इन सिद्धांतों के अनुसार चलो। इस तरह लोग सत्य वास्तविकता को जीते हैं और जिस मार्ग पर वे चलेंगे वह सही होगा। आज हम देखेंगे कि नैतिक आचरण की कहावतों के साथ आवश्यक प्रकृति की अन्य समस्याएं क्या हैं। नैतिक आचरण की कई कहावतें न केवल लोगों के विचारों को सीमित करती हैं, बल्कि उनकी सोच को गुमराह और सुन्न भी कर देती हैं। वहीं कुछ और कट्टरपंथी कहावतें भी हैं जो लोगों की जानें ले लेती हैं। उदाहरण के लिए, हमारी पिछली संगति में बताई गई यह भड़कीली कहावत “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” न केवल लोगों के विचारों को नियंत्रित और सीमित करती है, बल्कि उनकी जान भी ले लेती है, वो इस तरह कि वे न सिर्फ अपनी जिंदगी को संजोने में असमर्थ रहते हैं, बल्कि मनमानी वजहों से, आवेग में आकर और लापरवाह तरीके से अपनी जान देने की भी उनकी संभावना रहती है। क्या यह लोगों की जान लेना नहीं है? (बिल्कुल है।) इससे पहले कि लोग यह समझ सकें कि जीवन क्या है और उन्हें जीवन में सही मार्ग मिले, वे थोड़ी-सी दयालुता के बदले मनमाने ढंग से इसे किसी तथाकथित दोस्त के लिए त्याग देते हैं और अपने जीवन को बेकार और निरर्थक मान लेते हैं। यह ऐसी सोच का नतीजा है जो परंपरागत संस्कृति लोगों को सिखाती है। यह देखते हुए कि कैसे नैतिक आचरण की कहावतें लोगों के विचारों को सीमित कर सकती हैं, उनमें एक भी सकारात्मक बात नहीं है, और यह देखते हुए कि कैसे वे मनमाने ढंग से लोगों की जान ले सकती हैं, उनका यकीनन लोगों के लिए कोई सकारात्मक प्रभाव या फायदा नहीं होता है। इसके अलावा, लोग इन विचारों से गुमराह होकर सुन्न पड़ जाते हैं। अपने मिथ्या अभिमान और घमंड की खातिर, और जनमत की निंदा से बचने के लिए उन्हें नैतिक आचरण की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने के लिए मजबूर किया जाता है। लोग पहले से ही नैतिक आचरण की इन विभिन्न कहावतों और विचारों से पूरी तरह से बंधे, बेबस और जकड़े हुए हैं जिससे उनके पास कोई और विकल्प नहीं बचा है। मानवजाति नैतिक आचरण की कहावतों की बेड़ियों में बंधकर जीने को तैयार है और उसके पास ज्यादा सम्मानजनक जीवन जीने, दूसरों के सामने अच्छा दिखने, ऊँचा दर्जा रखने और लोगों से अच्छी बातें सुनने के साथ-साथ चुगली का निशाना बनने से बचने और अपने परिवार का नाम ऊँचा करने की खातिर कोई स्वतंत्र विकल्प नहीं रह गया है। लोगों के इन विचारों और नजरिए के साथ-साथ इन घटनाओं के मद्देनजर, जहाँ वे नैतिक आचरण की कहावतों से नियंत्रित होते हैं, भले ही कुछ हद तक ये कहावतें मानव व्यवहार को सीमित और नियंत्रित करती हैं, लेकिन काफी हद तक वे इन तथ्यों को छिपाती भी हैं कि शैतान लोगों को भ्रष्ट करता है और लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और शैतानी प्रकृतियाँ हैं। वे लोगों के बाहरी व्यवहार से उनकी असलियत को छिपा लेती हैं ताकि वे बाहरी तौर पर सम्मानजनक, सुसंस्कृत, शिष्ट, दयालु, प्रतिष्ठित और इज्जतदार जीवन जी सकें। इसलिए अन्य लोग उनके बाहरी व्यवहार से केवल यह निर्धारित कर सकते हैं कि वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं—जैसे, वे सम्मानित हैं या नीच, अच्छे हैं या बुरे। ऐसी परिस्थितियों में हर कोई नैतिक आचरण की विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर यह देखता और आँकता है कि कोई व्यक्ति अच्छा है या बुरा, मगर कोई भी लोगों के सतही नैतिक आचरण के पीछे के भ्रष्ट सार को नहीं देख सकता, और न ही वह नैतिक आचरण के परदे के पीछे छिपी विभिन्न प्रकार की धूर्तता और दुष्टता को साफ तौर पर देख सकता है। इस तरह लोग नैतिक आचरण का लबादा ओढ़कर अपने भ्रष्ट सार को काफी हद तक छिपा लेते हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि कोई महिला बाहरी तौर पर सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त है, उसे अपने आस-पास के लोगों से प्रशंसा और सराहना मिलती है। वह उचित व्यवहार करती है, शिष्ट है, दूसरों के साथ मेलजोल में विशेष रूप से सहनशील है, द्वेष नहीं रखती है, अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ है, अपने पति की देखभाल और बच्चों की परवरिश करती है, कठिनाइयाँ सह सकती है और अन्य महिलाओं के लिए एक आदर्श मानी जाती है। बाहर से उसमें कोई समस्या नहीं नजर आती लेकिन कोई नहीं जानता कि वह अंदर से क्या और कैसे सोचती है। वह अपनी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ कभी नहीं बताती, न ही इन्हें बताने की हिम्मत करती है। वह ऐसा क्यों करती है? क्योंकि वह खुद को एक ऐसी महिला के रूप में पेश करना चाहती है जो सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त है। अगर वह वास्तव में खुलकर बोलती है और अपने दिल की बात और अपनी कुरूपता को उजागर करती है तो वह एक सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त महिला नहीं रह पाएगी, यहाँ तक कि दूसरे लोग उसकी आलोचना और तिरस्कार करेंगे, इसलिए वह सिर्फ खुद को छिपाती और दिखावा करती है। सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होने के इस बाहरी व्यवहार के पीछे छिपने का मतलब है कि लोग केवल उसके अच्छे कर्मों को देख उसकी प्रशंसा करते हैं, और इस तरह उसने अपना लक्ष्य साध लिया है। लेकिन चाहे वह कैसे भी खुद को छिपाए और दूसरों को धोखा दे, क्या वह वास्तव में उतनी अच्छी है जितना लोग मानते हैं? बिल्कुल नहीं। क्या उसमें वाकई भ्रष्ट स्वभाव है? क्या उसमें भ्रष्टता का सार है? क्या वह कपटी है? अहंकारी है? दुराग्रही है? दुष्ट है? (बिल्कुल।) उसमें यकीनन ये चीजें हैं, पर यह सब छिपी हुई हैं—यह एक तथ्य है। कुछ चीनी ऐतिहासिक हस्तियों को प्राचीन साधु-संतों की तरह पूजा जाता है। यह दावा करने का आधार क्या है? कुछ सीमित, अप्रमाणित अभिलेखों और किंवदंतियों के आधार पर ही साधु-संतों के रूप में उनकी स्तुति की जाती है। सच तो यह है कि कोई नहीं जानता कि वास्तव में उनके मुख्य कार्य और आचरण कैसे थे। क्या अब तुम लोगों को इन समस्याओं की पूरी समझ है? तुममें से कुछ लोगों को काफी हद तक इसकी गहरी समझ होनी चाहिए क्योंकि तुम लोगों ने बहुत सारे उपदेश सुने हैं और मानव भ्रष्टता के सार और सत्य को बहुत स्पष्ट रूप से देखा है। अगर लोग कुछ सत्यों को समझते हैं तो वे कुछ लोगों, बातों और चीजों को पूरी तरह से समझने में सक्षम होंगे। क्या एक सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त महिला—चाहे उसका बाहरी व्यवहार और नैतिक आचरण कितना ही आदर्श क्यों न हो और चाहे वह खुद को कितनी ही अच्छी तरह से छिपाए और दिखावा करे—अपना अहंकारी स्वभाव दिखाएगी? (बिल्कुल।) वह यकीनन ऐसा करेगी। तो क्या उसमें दुराग्रही स्वभाव है? (बिल्कुल।) वह सोचती है कि वह सही है और उसे लगता है वह सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त और अच्छी इंसान है, जिससे साबित होता है कि वह बहुत दंभी और दुराग्रही है। सच तो यह है कि अंदर से वह अपने असली चेहरे और कमियों को पहचानती है, फिर भी अपने सद्गुणों का ढिंढोरा पीटती है। क्या यह दुराग्रह नहीं है? क्या यह अहंकार नहीं है? इसके अलावा उसका खुद को एक सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त इंसान घोषित करने का उद्देश्य केवल एक अच्छी छाप छोड़ना और अपने परिवार को सम्मान दिलाना है। क्या ऐसे विचार और इरादे बेतुके और दुष्ट नहीं हैं? उसे लोगों से तारीफ मिलती है और वह प्रतिष्ठा कमाती है, लेकिन अंदर से वह अपने इरादों, विचारों और अपनी शर्मनाक करतूतों को लगातार छिपाती रहती है और इनके बारे में किसी को कुछ भी नहीं बताती है। उसे डर है कि लोग उसकी असलियत जान जाएँगे तो उस पर फिकरे कसेंगे, उसकी आलोचना करेंगे और उसे ठुकरा देंगे। यह कैसा स्वभाव है? क्या यह धूर्तता नहीं है? (बिल्कुल।) तो चाहे उसका बाहरी व्यवहार कितना भी सही और सम्मानजनक हो या उसका नैतिक आचरण कितना भी अनुकरणीय क्यों न हो, उसमें वाकई भ्रष्ट स्वभाव है, बात बस इतनी है कि जिन अविश्वासियों ने कभी परमेश्वर के वचन नहीं सुने और जो सत्य को नहीं समझते, वे इसे समझ या जान नहीं सकते हैं। वह अविश्वासियों को तो धोखा दे सकती है लेकिन परमेश्वर के विश्वासियों और सत्य समझने वालों को धोखा नहीं दे सकती है। ऐसा ही है ना? (बिल्कुल।) ऐसा इसलिए है क्योंकि वह शैतान की भ्रष्टता के अधीन रही है और उसमें भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार है। यह एक तथ्य है। चाहे उसका नैतिक आचरण कितना भी आदर्श हो या उसका दर्जा कितना भी ऊँचा हो, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि उसमें भ्रष्ट स्वभाव है और इसे बदला नहीं जा सकता। जब लोग सत्य समझ जाएंगे तो उसकी असलियत भी पहचान लेंगे। हालाँकि, नैतिक आचरण की इन कहावतों का इस्तेमाल शैतान मनुष्यों को गुमराह करने के लिए करता है, और बेशक उनके विचारों को सुन्न और सीमित करने के लिए भी करता है, जिससे वे गलती से यह सोच बैठते हैं कि अगर उन्होंने नैतिक आचरण की इन अपेक्षाओं और मानकों को पूरा किया, तो वे अच्छे लोग हैं और सही मार्ग पर चल रहे हैं। वास्तव में सच इसके विपरीत है। भले ही कुछ लोग नैतिक आचरण की कहावतों के अनुरूप कुछ अच्छे व्यवहार प्रदर्शित करें, वे जीवन में सही मार्ग पर नहीं चल पाए हैं। बल्कि, वे गलत मार्ग पर चल पड़े हैं और पाप में जी रहे हैं। वे पाखंड के मार्ग पर चल पड़े हैं और शैतान के जाल में फंस गए हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों में केवल कुछ अच्छे नैतिक आचरण होने से उनके भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार में जरा-सा भी बदलाव नहीं आएगा। बाहरी नैतिक आचरण केवल सजावट मात्र है, सिर्फ दिखावे के लिए है, उनकी वास्तविक प्रकृति और वास्तविक स्वभाव अभी भी उजागर होगी। शैतान लोगों को उनके व्यवहार और बाहरी स्वरूप के जरिए सीमित और नियंत्रित करता है, जिससे लोग अच्छा व्यवहार करके खुद को छिपाते और दिखावा करते हैं; साथ ही, लोगों के अच्छे व्यवहार का इस्तेमाल करके शैतान यह तथ्य छिपाता है कि उसने मानवजाति को भ्रष्ट कर दिया है, और बेशक वह यह तथ्य भी छिपाता है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव है। एक अर्थ में, शैतान का उद्देश्य लोगों को नैतिक आचरण की इन कहावतों के नियंत्रण के अधीन लाना है ताकि वे अच्छे कर्म ज्यादा और बुरे कर्म कम करें, और ऐसी चीजें तो बिल्कुल न करें जो शासक वर्ग के विरोध में हों। इससे मानवजाति पर शासक वर्ग के प्रभुत्व और नियंत्रण को और अधिक फायदा मिलता है। दूसरे अर्थ में, जब लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों को अपने आचरण और कार्यों के लिए सैद्धांतिक आधार के रूप में स्वीकार लेते हैं, तो वे खुद को सत्य और सकारात्मक चीजों से दूर करने और उनका विरोध करने लगते हैं। बेशक, जब परमेश्वर के कहे वचनों और उन सकारात्मक चीजों या सत्यों की बात आती है जो परमेश्वर लोगों को सिखाता है, तो उनके लिए इसे समझना और समझाना मुश्किल हो जाता है या उनमें सभी प्रकार के प्रतिरोध और धारणाएँ विकसित हो सकती हैं। एक बार जब लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों के अधीन हो जाते हैं, तो उनके लिए परमेश्वर के वचनों और सत्य को स्वीकारना कठिन हो जाता है, और बेशक भ्रष्ट स्वभाव को समझना और उसे बदलना तो और भी अधिक कठिन हो जाता है। इसलिए नैतिक आचरण की विभिन्न कहावतों और विचारों ने परमेश्वर के वचनों को स्वीकारने और समझने को लेकर काफी हद तक लोगों के सामने बाधा खड़ी कर दी है, और बेशक लोग जिस हद तक सत्य स्वीकारते हैं उस पर भी असर डाला है। लोगों में सभी प्रकार के अनुचित और नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण विकसित करने के लिए शैतान नैतिक आचरण की कहावतों को धर्मोपदेश के रूप में इस्तेमाल करने का तरीका अपनाता है ताकि वे इन विचारों और दृष्टिकोणों के आधार पर लोगों और चीजों को देखें और आचरण और कार्य करें। लोग जब नैतिक आचरण की इन कहावतों के पीछे के विचारों को लोगों और चीजों को देखने और अपने आचरण और कार्यों के सैद्धांतिक आधार और मानक के रूप में अपना लेते हैं तो उनका भ्रष्ट स्वभाव बदलना या कम होना तो दूर रहा, इसके उलट यह कुछ हद तक और गंभीर हो जाएगा, और परमेश्वर के प्रति उनका विद्रोह और प्रतिरोध भी और ज्यादा बढ़ जाएगा। इसलिए जब परमेश्वर लोगों को बचाता है, जब उन्हें परमेश्वर के वचन उपलब्ध कराए जाते हैं, तो लोगों के भ्रष्ट स्वभाव नहीं, बल्कि विभिन्न शैतानी फलसफे, नैतिक आचरण की कहावतें और शैतान से आने वाले विभिन्न शैतानी विचार और दृष्टिकोण सबसे बड़ी अड़चन बन जाते हैं। यह शैतान का मानवजाति को भ्रष्ट करने का परिणाम है और यह नैतिक आचरण की विभिन्न कहावतों का भ्रष्ट मनुष्यों पर पड़ने वाला नकारात्मक प्रभाव भी है। नैतिक आचरण की कहावतों का प्रचार और समर्थन करके शैतान वास्तव में यही लक्ष्य हासिल करना चाहता है।
हमने अपनी पिछली सभा में मुख्य रूप से नैतिक आचरण की इन तीन कहावतों पर संगति की थी—“एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते,” और “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा।” आज हम इस कहावत पर संगति करेंगे—“धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए।” नैतिक आचरण की यह कहावत भी मानवजाति के बीच भ्रष्ट मनुष्यों के विचारों और नजरिए से आई है। बेशक, अधिक सटीक रूप से यह शैतान द्वारा मानवजाति की भ्रष्टता और भ्रामकता से उत्पन्न होती है। इसका प्रभाव और प्रकृति वही है जो नैतिक आचरण की उन कहावतों की है जिन पर हमने पहले संगति की थी, भले ही इसका नजरिया अलग हो। ये सभी एक जैसे निर्भीक और भव्य कथन हैं, बड़े उत्साही, जोशीले और साहसी। यदि लोगों ने कभी परमेश्वर के वचन नहीं सुने होते और सत्य नहीं समझा होता तो उन्हें लगता कि ये आत्मा को एकदम झकझोर देने वाले और खून में उबाल लाने वाले कथन हैं। इन शब्दों को सुनकर उनमें तुरंत साहस भर जाएगा और वे अपनी मुट्ठियाँ भींच लेंगे। अब और वे शांत नहीं बैठ पाएंगे या अपने आंतरिक उत्साह को काबू में नहीं कर पाएंगे और उन्हें लगेगा कि चीनी संस्कृति और अजगर की भावना यही है। क्या तुम लोग अब भी ऐसा ही महसूस करते हो? (नहीं।) अब ये शब्द सुनकर तुम्हें कैसा महसूस होता है? (अब मुझे लगता है कि ये शब्द अच्छे या सकारात्मक नहीं हैं।) तुम पहले की तुलना में अब अलग क्यों महसूस करते हो? क्या ऐसा इसलिए है कि जब लोग बूढ़े हो जाते हैं और उन्होंने इतना अधिक कष्ट उठाया होता है, तो वे अपनी जवानी और भड़काऊ जोश खो देते हैं? या ऐसा इसलिए है कि जब लोग कुछ सत्यों को समझ जाते हैं तो वे यह पहचान सकते हैं कि नैतिक आचरण की ये कहावतें बहुत खोखली, अवास्तविक और बेकार हैं? (मुख्य रूप से ये कहावतें सत्य के अनुरूप नहीं हैं और अव्यावहारिक भी हैं।) वास्तव में नैतिक आचरण की ये कहावतें बहुत खोखली और अवास्तविक हैं। तो जहाँ तक नैतिक आचरण की इस कहावत की बात है, “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए,” आओ हम इसका विश्लेषण और चीर-फाड़ करके देखें कि इसमें क्या गलत है; हम उन सिद्धांतों पर विचार करेंगे जिन पर हमने पहले संगति की थी ताकि विशेष रूप से इस कहावत के बेतुकेपन और इसमें छिपी शैतान की कपटी साजिशों को उजागर किया जा सके। क्या तुम लोग इसका विश्लेषण करना जानते हो? मुझे इस वाक्य का सटीक अर्थ बताओ। (ये एक मर्दाना, साहसी पुरुष बनने के लिए मेंसियस द्वारा प्रस्तावित तीन मानदंड हैं। इसकी आधुनिक व्याख्या है : कीर्ति और धन किसी का संकल्प भंग नहीं कर सकते, गरीबी और निम्न स्तरीय परिस्थितियां किसी की दृढ़ इच्छा-शक्ति को नहीं बदल सकतीं, और ताकत और हिंसा का भय किसी से समर्पण नहीं करा सकता है।) नैतिक आचरण की जिस कहावत पर हमने पहले बात की थी—“महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए”—वह महिलाओं के लिए है, पर यह जाहिर तौर पर पुरुषों के लिए है। चाहे कीर्ति और धन से भरे जीवन की बात हो, या गरीबी के हालात हों या ताकत और हिंसा का सामना करना हो, हर प्रकार के माहौल में पुरुषों पर अपेक्षाएँ थोपी गई हैं। पुरुषों पर कुल मिलाकर कितनी अपेक्षाएँ थोपी गई हैं? पुरुषों में मजबूत इच्छा-शक्ति होने, दृढ़ संकल्प होने और ताकत और हिंसा के सामने अडिग रहने की अपेक्षा की जाती है। यह सोचो कि ये जो अपेक्षाएं सामने रखी गई हैं क्या सामान्य मानवता से संबंधित हैं और क्या ये वास्तविक जीवन के उस माहौल से संबंधित हैं जिसमें लोग रहते हैं। दूसरे शब्दों में, यह सोचो कि पुरुषों से की गई ये अपेक्षाएं खोखली और अवास्तविक हैं या नहीं। महिलाओं के नैतिक आचरण के लिए परंपरागत संस्कृति की अपेक्षाएं यह हैं कि महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए; “सच्चरित्र” का अर्थ है महिलाओं वाले गुण होना, “दयालु” का अर्थ है दया रखने वाला दिल होना, “सौम्य” का अर्थ है सुसभ्य महिला होना और “नैतिकतायुक्त” का अर्थ है एक नैतिक व्यक्ति होना और अच्छा नैतिक आचरण रखना। ये सभी अपेक्षाएँ एकदम सामान्य हैं। पुरुषों का सच्चरित्र, दयालु, सौम्य या नैतिकतायुक्त होना जरूरी नहीं है जबकि महिलाओं में मजबूत इच्छा-शक्ति और दृढ़ संकल्प होना जरूरी नहीं है और जब भी उनका सामना ताकत और हिंसा से हो तो वे झुक सकें। कहने का मतलब यह है कि नैतिक आचरण की यह अपेक्षा, “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए” महिलाओं को पर्याप्त छूट देती है क्योंकि यह उनके प्रति विशेष रूप से सहनशील और विचारशील है। इस सहनशीलता और विचारशीलता का क्या अर्थ है? क्या उन्हें अलग ढंग से समझा जा सकता है? (यह एक तरह का भेदभाव है।) मुझे भी ऐसा ही लगता है। सच तो यह है कि इसमें महिलाओं के खिलाफ भेदभाव है, खासकर यह मानना कि महिलाओं में मजबूत इच्छा-शक्ति नहीं होती है, वे डरपोक, शर्मीली होती हैं और उनसे केवल बच्चे पैदा करने, अपने पति की देखभाल और बच्चों की परवरिश करने, घरेलू कामकाज संभालने और दूसरों के साथ झगड़ा या गपशप न करने की अपेक्षा की जाती है। उनसे करियर बनाने और मजबूत इच्छाशक्ति रखने की अपेक्षा करना नामुमकिन होगा—वे इसमें असमर्थ हैं। इसलिए दूसरे नजरिए से देखें तो महिलाओं के लिए ये अपेक्षाएँ पूरी तरह से भेदभावपूर्ण और अपमानजनक हैं। नैतिक आचरण की यह कहावत, “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए” पुरुषों के लिए है। इसमें अपेक्षा की जाती है कि पुरुषों में मजबूत इच्छाशक्ति और अविरल संकल्प के साथ-साथ ऐसी मर्दाना और साहसी भावना हो जो ताकत और हिंसा के आगे न झुके। क्या यह अपेक्षा सही है? क्या यह उचित है? पुरुषों के प्रति ये अपेक्षाएँ दर्शाती हैं कि जिस व्यक्ति ने नैतिक आचरण की इस कहावत को प्रस्तावित किया है, वह पुरुषों को बहुत मान देता है क्योंकि पुरुषों के प्रति उसकी अपेक्षाएँ महिलाओं की तुलना में अधिक हैं। इसका मतलब यह समझा जा सकता है कि अपने लैंगिक सार, सामाजिक स्थिति और मर्दाना प्रवृत्ति के मद्देनजर पुरुषों को महिलाओं से ऊपर होना चाहिए। क्या नैतिक आचरण की यह कहावत इसी दृष्टिकोण से तैयार की गई थी? (बिल्कुल।) जाहिर तौर पर यह एक ऐसे समाज की उपज है जिसमें महिला-पुरुषों के बीच असमानता है। इस समाज में महिलाओं के साथ भेदभाव कर पुरुष उन्हें अपमानित करते रहते हैं, महिलाओं के जीवन के दायरे को सीमित करते हैं, महिलाओं के अस्तित्व की अहमियत को नजरअंदाज करते हैं, लगातार अपनी अहमियत बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं, अपना सामाजिक रुतबा बढ़ाते हैं और अपने अधिकारों को महिलाओं के अधिकारों पर हावी होने देते हैं। समाज में इसके प्रभाव और परिणाम क्या हैं? इस समाज पर पुरुषों का शासन और वर्चस्व है। यह एक पुरुष-प्रधान समाज है जिसमें महिलाओं को पुरुषों के नेतृत्व, दमन और नियंत्रण में रहना पड़ता है। साथ ही, पुरुष किसी भी तरह का काम कर सकते हैं जबकि महिलाओं के कामकाज के दायरे को कम और सीमित कर दिया जाता है। पुरुष समाज में सभी अधिकारों का पूरा आनंद ले सकते हैं जबकि महिलाओं को मिलने वाले अधिकारों का दायरा जानबूझकर सीमित किया जाता है। जिस काम को पुरुष नहीं करना चाहते या जिसे करने का विकल्प वे नहीं चुनते या जिसे करने पर उनके साथ भेदभाव किया जाएगा, उन्हें महिलाओं के लिए छोड़ा जा सकता है। उदाहरण के लिए, कपड़े धोना, खाना पकाना, सेवा उद्योग का काम और काफी कम आय और निम्न सामाजिक रुतबे वाले पेशे या ऐसे काम जिनमें लोग भेदभाव करते हैं, महिलाओं के लिए सुरक्षित रखे गए हैं। दूसरे शब्दों में, पेशा चुनने के विकल्प और सामाजिक रुतबे के संदर्भ में पुरुष अपने मर्दाना अधिकारों का पूरा आनंद ले सकते हैं और उन विशेष अधिकारों का आनंद ले सकते हैं जो समाज पुरुषों को देता है। ऐसे समाज में पुरुष पहले स्थान पर हैं जबकि महिलाएँ दूसरे स्थान पर, यहाँ तक कि उन्हें चुनाव करने की छूट बिल्कुल नहीं है, अपनी पसंद चुनने का भी अधिकार नहीं है। वे केवल निष्क्रिय रहकर खुद के चुने जाने की प्रतीक्षा कर सकती हैं और अंत में यह समाज उन्हें निकालकर रास्ते से हटा देता है। इसलिए महिलाओं से इस समाज की अपेक्षाएँ काफी कम हैं जबकि पुरुषों से बहुत सख्त और कठोर अपेक्षाएँ हैं। हालाँकि, चाहे ये पुरुषों के लिए हों या महिलाओं के लिए, नैतिक आचरण की इन अपेक्षाओं को प्रस्तुत करने का इरादा और लक्ष्य लोगों से समाज, राष्ट्र और देश की बेहतर सेवा करवाना और बेशक, आखिर में शासक वर्ग और शासकों की सेवा करवाना है। “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए,” इस कहावत से यह समझना आसान है कि जिस व्यक्ति ने नैतिक आचरण की इस अपेक्षा को प्रस्तुत किया था वह पुरुषों के प्रति पक्षपाती है। उस व्यक्ति की नजर में पुरुषों के पास मजबूत इच्छा-शक्ति, दृढ़ संकल्प और ऐसी भावना होनी चाहिए जो ताकत और हिंसा के आगे न झुके। इन अपेक्षाओं से क्या तुम उस व्यक्ति का उद्देश्य पहचान सकते हो जिसने यह कहावत बनाई थी? इसका उद्देश्य इस समाज में उपयोगी और मजबूत इरादों वाले पुरुषों को समाज, राष्ट्र और देश की बेहतर सेवा करने और आखिरकार सत्ता में बैठे लोगों की बेहतर सेवा करने में सक्षम बनाना और इस समाज में पुरुषों की अहमियत और कामकाज को बेहतर ढंग से सामने लाना था। ऐसे लोगों को ही मर्दाना और साहसी कहा जा सकता है। अगर लोग इन अपेक्षाओं को पूरा करने में नाकामयाब रहते हैं तो इन नैतिकतावादियों और शासकों की नजर में उन्हें मर्दाना और साहसी नहीं कहा जाएगा, बल्कि उन्हें औसत दर्जे के लोग और अछूत कहा जाएगा और उनके साथ भेदभाव होगा। कहने का मतलब यह है कि अगर किसी व्यक्ति के पास मजबूत इच्छा-शक्ति, दृढ़ संकल्प और ऐसी भावना नहीं है जो उनकी अपेक्षा के अनुसार ताकत और हिंसा के सामने न झुके, बल्कि वह बिना किसी उपलब्धियों वाला एक साधारण, औसत दर्जे का व्यक्ति है, केवल अपना जीवन जी सकता है और समाज, देश और राष्ट्र के लिए अपना योगदान नहीं दे सकता और शासकों, देश या राष्ट्र द्वारा किसी महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है, तो समाज ऐसे व्यक्ति को नहीं स्वीकारेगा और उसे अहमियत नहीं देगा, और न ही सत्ता में बैठे लोग उसे कोई महत्व देंगे और शासकों या नैतिकतावादियों द्वारा उसे पुरुषों के बीच एक औसत दर्जे का, अछूत और नीच व्यक्ति माना जाएगा। यही बात है ना? (बिल्कुल।) क्या तुम लोग इस कहावत से सहमत हो? क्या यह कहावत उचित है? क्या यह पुरुषों के लिए उचित है? (नहीं, यह अनुचित है।) क्या पुरुषों को अपना लक्ष्य पूरी दुनिया, देश और राष्ट्र के लिए महान कार्यों को ही बनाना चाहिए? क्या वे महज सामान्य, कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति नहीं हो सकते? क्या वे रो नहीं सकते, प्रेम नहीं कर सकते, छोटी-मोटी स्वार्थी मंशाएँ नहीं पाल सकते या अपने प्रियजनों के साथ एक साधारण जीवन नहीं जी सकते? क्या मर्दाना और साहसी कहलाने के लिए यह जरूरी है कि वे पूरी दुनिया को अपना लक्ष्य बनाएँ? क्या उन्हें पुरुष माने जाने के लिए मर्दाना और साहसी कहलाना जरूरी है? क्या पुरुष की परिभाषा यह है कि तुम्हें मर्दाना और साहसी होना चाहिए? (नहीं।) ये विचार पुरुषों का अपमान हैं, ये पुरुषों पर व्यक्तिगत हमले के समान हैं। क्या तुम लोगों में से कोई भी ऐसा महसूस करता है? (हाँ।) क्या पुरुषों में मजबूत इच्छा-शक्ति न होना ठीक है? क्या पुरुषों में दृढ़ संकल्प न होना ठीक है? जब लोग ताकत और हिंसा के खिलाफ खड़े होते हैं तो क्या जीवित रहने के लिए उनका किसी के सामने झुकना और समझौता करना ठीक है? (बिल्कुल, ठीक है।) क्या पुरुषों के पास वह सब न होना भी ठीक है जो महिलाओं के पास नहीं है? क्या पुरुषों के लिए यह ठीक है कि वे मर्दाना और साहसी न होने के लिए खुद को कोसने की बजाय महज सामान्य इंसान बनकर रहें? (हाँ, यह ठीक है।) इस तरह, लोग मुक्त हो जाएँगे, इंसान होने का मार्ग और भी व्यापक हो जाएगा और लोग जीवन में इतने थके हुए नहीं होंगे, बल्कि सामान्य रूप से जिंदगी जी सकेंगे।
अभी भी ऐसे बहुत से देश हैं जहाँ परंपरागत संस्कृति के विचार, जैसे कि “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए” लोगों को सीमित करते हैं। ये देश अभी भी पुरुष-प्रधान समाज हैं जिनमें पुरुष ही निर्णय लेते हैं, और परिवार से लेकर समाज तक और पूरे देश पर शासन करते हैं; वे हर जगह प्राथमिकता लेते हैं, वे हर परिस्थिति में जीतते हैं, और हर बात में खुद को श्रेष्ठ समझते हैं। इसी के साथ, ऐसे समाज, राष्ट्र और देश पुरुषों से ऊँची अपेक्षाएँ रखते हैं, जो उन पर बहुत अधिक दबाव डालती हैं और इससे कई प्रतिकूल परिणाम सामने आते हैं। कुछ पुरुष जो अपनी नौकरी खो देते हैं वे इस बारे में अपने परिवार को बताने की हिम्मत तक नहीं कर पाते। दिन-ब-दिन वे कंधे पर बैग टांगकर नौकरी पर जाने का नाटक करते हैं, लेकिन वास्तव में वे बाहर निकलकर सड़कों पर भटकते रहते हैं। कभी-कभी वे देर रात घर आते हैं और अपने परिवार वालों से झूठ भी बोलते हैं कि वे दफ्तर में ओवरटाइम कर रहे हैं। फिर अगले दिन, वे सड़कों पर भटकते हुए दिखावा करना जारी रखते हैं। परंपरागत संस्कृति के इन विचारों के साथ-साथ पुरुषों की सामाजिक जिम्मेदारियाँ और समाज में उनकी स्थिति, उन पर पड़ने वाले दबाव और यहाँ तक कि उनके अपमान का स्रोत भी बन जाती है, और यह पुरुषों की मानवता को विकृत कर देती है, जिससे कई लोग चिड़चिड़े, उदास महसूस करने लगते हैं और कठिनाइयों से घिर जाने पर अक्सर टूटने के कगार पर पहुँच जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वे सोचते हैं कि वे पुरुष हैं, तो उन्हें अपना परिवार चलाने के लिए पैसा कमाना चाहिए, एक पुरुष होने की अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, पुरुषों को रोना या दुखी होना नहीं चाहिए और बेरोजगार भी नहीं होना चाहिए, बल्कि उन्हें समाज का स्तंभ और परिवार की रीढ़ होना चाहिए। जैसा कि अविश्वासी कहते हैं, “पुरुष आसानी से आँसू नहीं बहाते,” पुरुष में कमजोरियाँ नहीं होनी चाहिए, ना ही उसमें कोई कमी होनी चाहिए। ये विचार और नजरिये नैतिकतावादियों द्वारा पुरुषों को गलत तरीके से वर्गीकृत करने और लगातार पुरुषों का दर्जा ऊँचा उठाने के कारण उत्पन्न हुए हैं। ये विचार और नजरिये न केवल पुरुषों को हर तरह की परेशानी, खीज और पीड़ा में डालते हैं, बल्कि उनके मन में बेड़ियाँ भी बन जाते हैं, जिससे समाज में उनका ओहदा, स्थिति और मेलजोल का तरीका भी बेहद असहज हो जाता है। जैसे-जैसे पुरुषों पर दबाव बढ़ता है, उन पर इन विचारों और नजरियों का नकारात्मक प्रभाव भी बढ़ता है। कुछ पुरुष तो समाज में पुरुषों की स्थिति की गलत व्याख्या के कारण खुद को महान पुरुषों की श्रेणी में रख लेते हैं, वे सोचते हैं कि पुरुष महान और महिलाएं मामूली हैं, और इसलिए पुरुषों को हर चीज में अगुआई करना और घर का मुखिया बनना चाहिए, और जब चीजें सही तरह से ना चलें, तो वे महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा तक कर सकते हैं। ये सभी समस्याएं मानवजाति द्वारा पुरुषों को गलत तरीके से वर्गों में बांटने से संबंधित हैं, है ना? (हाँ।) तुम देख सकते हो कि दुनिया के ज्यादातर देशों में, पुरुषों की सामाजिक स्थिति महिलाओं की तुलना में ऊँची है, खासकर परिवार में। पुरुषों को काम पर जाने और पैसे कमाने के अलावा कुछ नहीं करना होता है, जबकि महिलाएँ घर के सभी काम करती हैं, चाहे यह कितना भी थकाऊ या कठिन हो, वे इस बारे में बहस या शिकायत नहीं कर सकती हैं, न ही दूसरों को बताने की हिम्मत करती हैं। महिलाओं की स्थिति किस हद तक नीची है? उदाहरण के लिए, खाने की मेज पर सबसे स्वादिष्ट भोजन पहले पुरुषों को मिलता है, जबकि महिलाएँ दूसरे नंबर पर आती हैं, और परिवार के पंजीकरण दस्तावेजों में पुरुष को घर का मुखिया और महिला को परिवार की सदस्या माना जाता है। इन छोटी-छोटी बातों से ही हम पुरुषों और महिलाओं के दर्जे में असमानता देख सकते हैं। लिंग भेद के कारण पुरुषों और महिलाओं के बीच श्रम का विभाजन अलग-अलग है, लेकिन क्या परिवार में पुरुषों और महिलाओं के दर्जे में इतनी बड़ी असमानता अनुचित नहीं है? क्या यह परंपरागत संस्कृति की शिक्षा का परिणाम नहीं है? समाज में, केवल महिलाएँ ही यह नहीं सोचतीं कि पुरुष अधिक विशिष्ट और श्रेष्ठ हैं, बल्कि पुरुष भी सोचते हैं कि वे महिलाओं की तुलना में श्रेष्ठ और उच्च श्रेणी के हैं, क्योंकि पुरुष समाज, राष्ट्र और देश में मूल्यों का अधिक निर्माण कर सकते हैं और अपनी काबिलियत का अधिक इस्तेमाल कर सकते हैं, जबकि महिलाएँ ऐसा नहीं कर सकती हैं। क्या यह तथ्यों को घुमा देना नहीं है? तथ्यों को इतना घुमा क्यों दिया गया? क्या इसका सीधा संबंध सामाजिक शिक्षा और परंपरागत संस्कृति के प्रभाव और उनके द्वारा विचारों को मन में बैठाने से है? (हाँ।) इसका सीधा संबंध परंपरागत संस्कृति की शिक्षा से है। चाहे वास्तविक समाज की बात हो या किसी राष्ट्र या देश की, मानवजाति के बीच भटकाने वाली जो भी समस्याएँ सामने आती हैं, वे सभी मुट्ठी भर समाजशास्त्रियों या शासकों द्वारा समर्थित कुछ गलत विचारों के कारण होती हैं, और वे सीधे तौर पर किसी समाज, राष्ट्र या देश के नेताओं द्वारा समर्थित गलत विचारों से संबंधित होती हैं। यदि वे जिन विचारों और नजरियों का समर्थन करते हैं वे अधिक सकारात्मक और सत्य के करीब हों, तो मानवजाति के बीच समस्याएँ अपेक्षाकृत कम होंगी; यदि वे जिन विचारों का समर्थन करते हैं वे विकृत हों और मानवता को गलत ढंग से पेश करते हों, तो समाज के भीतर, किसी जातीय समूह या किसी देश के भीतर भटकाने वाली कई असामान्य चीजें घटित होंगी। यदि समाजशास्त्री पुरुषों के अधिकारों का समर्थन करते हैं, पुरुषों की अहमियत को बढ़ाते हैं, और महिलाओं की अहमियत और गरिमा को कम करते हैं, तो जाहिर तौर पर इस समाज में, पुरुषों और महिलाओं के सामाजिक दर्जे में भारी असमानता होगी; साथ ही, पेशे, सामाजिक स्थिति और सामाजिक कल्याण में अंतर जैसी विभिन्न असमानताएँ भी होंगी, और परिवार में पुरुषों और महिलाओं के दर्जे में भी बहुत असमानता होगी और श्रम का विभाजन भी पूरी तरह भिन्न होगा—यह सब भटकाव ही है। भटकाने वाली इन समस्याओं के सामने आने का संबंध उन लोगों से है जो इन विचारों और नजरियों का समर्थन करते हैं और ऐसा इन राजनेताओं और समाजशास्त्रियों के कारण होता है। यदि मानवजाति के पास शुरू से ही इन मामलों पर सही दृष्टिकोण और सही कहावतें होतीं, तो विभिन्न देशों या राष्ट्रों में भटकाव की इन समस्याओं में काफी कमी आ जाती।
हमने अभी जिस विषय पर संगति की है उसके आधार पर, पुरुषों के साथ व्यवहार के लिए सही दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? सामान्य इंसान कहलाने के लिए पुरुषों में किस प्रकार का व्यवहार, मानवता, अनुसरण और सामाजिक दर्जा होना चाहिए? पुरुषों को अपनी सामाजिक जिम्मेदारियाँ कैसे निभानी चाहिए? लिंग भेद के अलावा, क्या पुरुषों और महिलाओं के बीच उनकी सामाजिक जिम्मेदारी और सामाजिक दर्जे के संदर्भ में भी अंतर होना चाहिए? (नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए।) तो पुरुषों के साथ ऐसा व्यवहार कैसे किया जाए जो सही, निष्पक्ष, मानवीय और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हो? हमें अभी यही बात समझनी चाहिए। तो फिर, आओ इस बारे में बात करें कि पुरुषों के साथ वास्तव में कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। क्या पुरुषों और महिलाओं की सामाजिक जिम्मेदारियों में अंतर किया जाना चाहिए? क्या पुरुषों और महिलाओं का सामाजिक दर्जा समान होना चाहिए? क्या पुरुषों का दर्जा अनावश्यक रूप से ऊँचा उठाना और महिलाओं को कमतर आँकना उचित है? (नहीं, यह अनुचित है।) तो फिर, पुरुषों और महिलाओं के सामाजिक दर्जे को निष्पक्ष और तर्कसंगत ढंग से कैसे देखा जाए? इसके क्या सिद्धांत हैं? (यह कि पुरुष और महिलाएँ समान हैं और उनके साथ निष्पक्ष व्यवहार किया जाना चाहिए।) निष्पक्ष व्यवहार सैद्धांतिक आधार है, लेकिन इसे इस तरह से व्यवहार में कैसे लाया जाए जो निष्पक्षता और तर्कसंगतता को दर्शाता हो? क्या इसका व्यावहारिक समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है? सबसे पहले, हमें यह निर्धारित करना होगा कि पुरुषों और महिलाओं का दर्जा समान है—यह निर्विवाद है। इसलिए, पुरुषों और महिलाओं के बीच श्रम का सामाजिक विभाजन भी एक जैसा होना चाहिए, और उन्हें उनकी काबिलियत और कार्य करने की क्षमता के अनुसार देखा और व्यवस्थित किया जाना चाहिए। खास तौर पर जब मानव अधिकारों की बात आती है तो महिलाओं को भी उन चीजों का लाभ मिलना चाहिए जिनका पुरुष आनंद ले सकते हैं, ताकि समाज में पुरुषों और महिलाओं का एक समान दर्जा सुनिश्चित हो सके। चाहे महिला हो या पुरुष, जो कोई भी काम कर सकता है या जो अगुआ बनने में सक्षम है, उसे यह मौका दिया जाना चाहिए। इस सिद्धांत के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है? (अच्छा है।) यह पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता को दर्शाता है। उदाहरण के लिए, यदि दो पुरुष और दो महिलाएँ अग्निशामक दल में भर्ती के लिए आवेदन कर रही हैं, तो किसे काम पर रखा जाना चाहिए? इसके लिए निष्पक्ष व्यवहार ही सैद्धांतिक आधार और सिद्धांत है। तो फिर, वास्तव में यह कैसे किया जाना चाहिए? जैसा कि मैंने अभी कहा, अपनी क्षमता और काबिलियत के अनुसार जो भी इस काम को करने में सक्षम है उसे यह काम करने दो। बस इसी सिद्धांत के अनुसार, यह देखते हुए लोगों को चुनो कि उनमें से कौन शारीरिक रूप से स्वस्थ है और बेडौल नहीं है। अग्निशमन का काम आपात स्थिति में तेजी से काम करने का है। यदि तुम कछुए या बूढ़ी गाय की तरह बहुत बेडौल, मंदबुद्धि और सुस्त हो, तो चीजों में देरी करोगे। काबिलियत, क्षमता, अनुभव, अग्निशमन के काम में सक्षमता वगैरह के संदर्भ में हरेक उम्मीदवार की विशेषताओं का पता लगाने के बाद, निष्कर्ष यह निकला कि इस काम के लिए एक पुरुष और एक महिला उपयुक्त मिली : पुरुष लंबा है, शारीरिक रूप से मजबूत है, उसके पास इस काम का अनुभव है, और उसने कई बार आग बुझाने और लोगों को बचाने के काम में भाग लिया है; महिला फुर्तीली है, उसने कठोर प्रशिक्षण लिया है, वह आग बुझाने और उससे संबंधित काम की प्रक्रियाओं के बारे में जानकार है, उसमें काबिलियत है, और उसने दूसरे कामों में भी खुद को साबित किया है और इनाम जीते हैं। तो, आखिर में, दोनों को चुन लिया जाता है। क्या यह सही है? (हाँ।) इसे कहते हैं बिना किसी का पक्ष लिए सबसे अच्छे उम्मीदवार को चुनना। इसका मतलब है, इस प्रकार के व्यक्ति को चुनते समय, यह नियम ध्यान में मत रखो कि उसे पुरुष होना चाहिए या महिला—पुरुष और महिलाएँ बिल्कुल एक समान हैं, और जो भी इस काम को करने के काबिल है वो यह काम करेगा। इसलिए, किसी काम के लिए एक महिला को चुनना है या पुरुष को, यह फैसला लेते समय निष्पक्ष व्यवहार के सर्वोपरि सिद्धांत के अलावा, जो विशिष्ट सिद्धांत अभ्यास में लाया जाना चाहिए वह है कि जो भी काबिल और काम करने में सक्षम है, उसे काम करने देना चाहिए, चाहे वह पुरुष हो या महिला। ऐसा करने से, अब तुम इस विचार से बेबस या बाध्य नहीं हो कि “पुरुष महिलाओं से श्रेष्ठ हैं,” और कोई भी पुराना विचार इस मामले पर तुम्हारे फैसले या चुनाव को प्रभावित नहीं करेगा। तुम्हारे दृष्टिकोण से, जो कोई भी इस काम को करने में सक्षम है, उसे यह काम करने दिया जाना चाहिए, चाहे वह पुरुष हो या महिला—क्या यह निष्पक्ष होना नहीं है? सबसे पहली बात, किसी मामले को संभालते समय, तुम्हारे मन में पुरुषों या महिलाओं के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं है। तुम मानते हो कि कई उत्कृष्ट और प्रतिभाशाली महिलाएँ हैं, और तुम ऐसी कई महिलाओं को जानते भी हो। इसलिए, तुम्हारी अंतर्दृष्टि तुम्हें यकीन दिलाती है कि महिलाओं की काम करने की क्षमता पुरुषों की तुलना में कम नहीं है, और समाज में महिलाओं की अहमियत भी पुरुषों की तुलना में कम नहीं है। जब तुम्हारे पास यह अंतर्दृष्टि और समझ आ जाएगी, तो तुम भविष्य में कोई भी काम करते समय इस तथ्य के आधार पर सटीक निर्णय लोगे और सही विकल्प चुनोगे। दूसरे शब्दों में, यदि तुम किसी के प्रति पक्षपात नहीं करते, और कोई लैंगिक पूर्वाग्रह नहीं रखते, तो इस संबंध में तुम्हारी मानवता अपेक्षाकृत सामान्य होगी, और तुम निष्पक्ष तरीके से काम कर सकोगे। परंपरागत संस्कृति में पुरुषों के महिलाओं से श्रेष्ठ माने जाने की बाधाएँ दूर होंगी, तुम्हारे विचार अब सीमित नहीं रहेंगे, और तुम परंपरागत संस्कृति के इस पहलू से प्रभावित नहीं होगे। संक्षेप में, समाज में विचार या परंपराओं की प्रचलित प्रवृत्तियाँ चाहे जो भी हों, तुम पहले ही इन रूढ़ियों को पार कर चुके होगे, और अब तुम उनसे सीमित और प्रभावित नहीं होगे, बल्कि तथ्यों और सच का सामना कर सकोगे। बेशक, इससे भी बेहतर यह है कि तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार लोगों और चीजों को देख सकते हो, आचरण और कार्य कर सकते हो, जिसका नतीजा यह होगा कि “पुरुषों को मर्दाना और साहसी होना चाहिए, जबकि महिलाओं को शर्मीली होना चाहिए” जैसे विचार और दृष्टिकोण तुम्हारे मन में नहीं होंगे। तो, क्या मनुष्यों के बीच तुम्हारे विचार और दृष्टिकोण अधिक प्रगतिशील हैं? (हाँ।) तुलनात्मक रूप से कहें, तो यह प्रगति है। चाहे पुरुष हो या महिला, बूढ़ा हो या जवान, तुम्हारे पास आने पर उन सबके साथ निष्पक्ष व्यवहार होगा। वास्तव में, यह लोगों को नुकसान पहुँचाने के बजाय उन्हें शिक्षित करना है। यदि तुम अभी भी परंपरागत संस्कृति के विचारों से चिपके हुए हो और यह दावा करते हो कि “प्राचीन काल से, पुरुषों को महिलाओं की तुलना में ऊँचा दर्जा प्राप्त है, और जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं की तुलना में उत्कृष्ट और प्रतिभाशाली पुरुष अधिक हैं। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि पुरुष महिलाओं की तुलना में ज्यादा मजबूत हैं, और समाज में पुरुषों की अहमियत महिलाओं की तुलना में ज्यादा है। यदि समाज में उनकी अहमियत ज्यादा है, तो क्या उनका सामाजिक दर्जा भी ऊँचा नहीं होना चाहिए? इसलिए, इस समाज में, अंतिम फैसला पुरुषों को लेना चाहिए और वर्चस्व वाला ओहदा हासिल करना चाहिए, जबकि महिलाओं को पुरुषों की बात सुननी चाहिए, और उनके द्वारा नियंत्रित और शासित होना चाहिए”—तो इस प्रकार की सोच बहुत पिछड़ी और पतनशील है, और सत्य सिद्धांतों के जरा भी अनुरूप नहीं है। यदि तुम्हारे विचार और नजरिये इसी प्रकार के हैं, तो तुम केवल महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करोगे, उन्हें दबाओगे, और सामाजिक विचारधाराओं द्वारा निंदित होकर निकाल दिए जाओगे। महिला-पुरुषों के बीच समानता एक सही दृष्टिकोण है जिसे दुनिया भर में पहले ही मान्यता प्राप्त है, और यह पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार किया जाना चाहिए, पुरुषों को ऊँची दृष्टि से और महिलाओं को नीची दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए, और महिलाओं की अहमियत को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए, न ही उनकी कार्य क्षमता और काबिलियत को अनदेखा किया जाना चाहिए। यह पहले से ही हर देश की जागरूक आबादी के बीच मौलिक आम सहमति है। यदि तुम्हारे प्रमुख विचार अभी भी परंपरागत संस्कृति से प्रभावित हैं, और तुम्हें अभी भी लगता है कि पुरुष विशिष्ट हैं जबकि महिलाएँ निचले दर्जे की हैं, तो कोई भी काम करते समय तुम्हारी दृष्टि और तुम्हारी पसंद पुरुषों के पक्ष में होगी, और तुम महिलाओं की तुलना में पुरुषों को ज्यादा अवसर दोगे। तुम सोचोगे कि भले ही कुछ पुरुष थोड़े कम सक्षम हों, फिर भी वे महिलाओं की तुलना में अधिक मजबूत हैं, और पुरुष जो कर सकते हैं महिलाएँ उसकी बराबरी या उसे हासिल नहीं कर सकती हैं। यदि तुम्हारी सोच ऐसी है, तो तुम्हारा दृष्टिकोण पक्षपाती होगा, और तुम्हारे सोचने के तरीके की वजह से तुम्हारा फैसला और अंतिम निर्णय एकतरफा होगा। उदाहरण के लिए, अग्निशमन दल में भर्ती को लेकर हमने अभी जो बात कही थी, उसे लेकर तुम पशोपेश में हो और सोच रहे हो “क्या महिलाएँ सीढ़ियाँ चढ़ सकती हैं? महिलाएँ कितनी ताकत लगा सकती हैं? किसी महिला की फुर्ती का क्या उपयोग है? भले ही उसने कठोर प्रशिक्षण लिया हो, मगर इसका कोई फायदा नहीं है।” लेकिन फिर तुम लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने के बारे में सोचते हो, तो आखिर में दो पुरुषों और एक महिला को चुन लेते हो। सच तो यह है कि इस मामले में एक महिला को चुनकर तुम लापरवाही से काम कर रहे हो और उसे खुश करने और उसका मान बचाने के लिए अच्छा काम करने का दिखावा कर रहे हो। काम करने के इस तरीके के बारे में क्या ख्याल है? न केवल तुम इस तरह से लोगों को चुनते हो, बल्कि काम सौंपते समय, तुम ऐसा दृष्टिकोण भी अपनाते हो जो महिला को कमतर आँकता है, यहाँ तक कि उसे छोटे और हल्के काम सौंपते हो। तुम अभी भी सोचते हो कि तुममें मानवीय भावना है और तुम एक महिला को प्राथमिकता देकर उसकी देखभाल और सुरक्षा कर रहे हो। सच तो यह है कि एक महिला के दृष्टिकोण से, तुमने उसके आत्मसम्मान को बहुत ठेस पहुँचाई है। तुमने ऐसा कैसे किया? क्योंकि तुम सोचते हो कि महिलाएँ कमजोर और अतिसंवेदनशील हैं, कि महिलाएँ शर्मीली और पुरुष मर्दाना हैं, इसलिए महिलाओं की रक्षा की जानी चाहिए। ऐसे विचार कहाँ से आए? क्या यह परंपरागत संस्कृति के प्रभाव के कारण है? (हाँ।) समस्या की जड़ यहीं है। लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने के बारे में चाहे तुम जो भी कहो, तुम्हारे कामों से स्पष्ट है कि तुम यकीनन अभी भी परंपरागत संस्कृति में इस विचार से बंधे और सीमित हो कि “पुरुष महिलाओं से श्रेष्ठ हैं।” तुम्हारे कार्यों से स्पष्ट है कि तुमने खुद को इस विचार से मुक्त नहीं किया है। क्या ऐसा है? (हाँ।) यदि तुम खुद को इन बंधनों से मुक्त करना चाहते हो, तो तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, इन विचारों के सार को पूरी तरह से समझना चाहिए, और परंपरागत संस्कृति के इन विचारों के प्रभाव या नियंत्रण में काम नहीं करना चाहिए। तुम्हें उन्हें हमेशा के लिए पूरी तरह से त्याग कर उनसे विद्रोह कर देना चाहिए और परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों के अनुसार लोगों और चीजों को नहीं देखना चाहिए, न उसके अनुसार आचरण और कार्य करना चाहिए; न ही परंपरागत संस्कृति के आधार पर कोई फैसला लेना और चुनाव करना चाहिए, बल्कि परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार लोगों और चीजों को देखना चाहिए, उनके अनुसार आचरण और कार्य करना चाहिए। इस तरह, तुम सही मार्ग पर चलोगे, और परमेश्वर द्वारा स्वीकृत एक सच्चे सृजित प्राणी होगे। वरना, तुम शैतान के नियंत्रण में ही रहोगे और शैतान की सत्ता में जीते रहोगे, और तुम परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं जी पाओगे : ये इस मामले के तथ्य हैं।
तो क्या अब तुम लोग नैतिक आचरण के बारे में इस कहावत का सार समझते हो, “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए”? और क्या तुम उस सामाजिक संदर्भ को भी समझते हो जिसमें यह कहावत बनाई गई थी? (बिल्कुल।) पुरुषों की सामाजिक स्थिति में सुधार लाने और उन्हें बड़े अधिकार दिलाने के लिए उनसे उच्च अपेक्षाएं रखना, लोगों के मन में पुरुषों की छवि बनाना और उस छवि को मर्दानगी और साहस का स्वरूप देना जरूरी है। यही वह छवि है जो इस कहावत से व्यक्त होती है “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए” जिसके बारे में लोग बात करते हैं। नैतिक आचरण की इस कहावत को सामने रखने वाले नैतिकतावादियों का एक पहलू लोगों को यह बताना है कि जो लोग इस कहावत पर खरे उतरते हैं, वे असली मर्दाना पुरुष हैं, यानी वे लोगों को पुरुष की परिभाषा बता रहे हैं; दूसरा पहलू यह है कि वे इस बात का समर्थन कर रहे हैं कि पुरुषों को मजबूती से खड़े होकर समाज में अपनी मौजूदगी दिखानी चाहिए, अपरंपरागत होने का दिखावा करना चाहिए, अपनी सामाजिक स्थिति पर मजबूत पकड़ हासिल करनी चाहिए और सामाजिक मुख्यधारा पर अधिकार जमाना चाहिए। यह सोच कि “पुरुष महिलाओं से श्रेष्ठ हैं” अब तक कायम है। भले ही कुछ देशों या जातियों ने इस संबंध में सुधार किया है, फिर भी ऐसी सोच कई अन्य देशों और राष्ट्रों में मजबूती से फैली हुई है, जहाँ यह अभी भी राष्ट्रीय और सामाजिक रुझानों को नियंत्रित कर उन पर हावी रहती है और समाज में महिला-पुरुषों के बीच श्रम विभाजन के साथ-साथ उनकी सामाजिक स्थिति और सामाजिक मूल्य पर भी हावी है; आज के जमाने में भी ज्यादा कुछ नहीं बदला है। कहने का मतलब यह है कि कई देशों और राष्ट्रों में अभी भी महिलाओं के साथ भेदभाव कर उन्हें बाहर रखा जाता है। यह बहुत ही निराशाजनक बात है और दुनिया की सबसे बड़ी असमानता है। कोई देश या राष्ट्र प्रगतिशील है या पिछड़ा, इसकी स्पष्ट निशानी यह है कि वहाँ महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है या नहीं और उन्हें बाहर रखा जाता है या नहीं या वे पुरुषों के बराबर हैं या नहीं।
अभी हमने इस बारे में संगति की कि परमेश्वर के बनाए महिला-पुरुषों से कैसा व्यवहार करना चाहिए और उनके प्रति हमें क्या सही दृष्टिकोण रखना चाहिए। महिला-पुरुष दोनों में ही सामान्य मानवता होती है और वे सामान्य मानवीय बुद्धि और विवेक से संपन्न होते हैं—ये चीजें महिला-पुरुष दोनों में पाई जाती हैं। लिंग भेद के अलावा, महिला और पुरुष अपनी सोच, प्रवृत्ति, विभिन्न मामलों पर अपनी प्रतिक्रिया, अपनी काबिलियत और क्षमता और अन्य प्रकार के पहलुओं के मामले में दरअसल एक समान हैं। भले ही यह नहीं कहा जा सकता कि वे बिल्कुल समान हैं लेकिन वे कमोबेश एक जैसे ही हैं। उनके जीवन की आदतें और जीवन जीने के नियमों के साथ-साथ समाज, सांसारिक रुझानों, लोगों, घटनाओं, चीजों और परमेश्वर की सभी रचनाओं के प्रति उनके विचार, दृष्टिकोण और नजरिये एक समान हैं; इसके अलावा, उनकी शारीरिक और मानसिक प्रतिक्रियाओं सहित कुछ विशेष मामलों पर उनकी प्रतिक्रियाएँ भी एक समान होती हैं। ये चीजें एक समान क्यों हैं? क्योंकि महिला-पुरुष दोनों को एक ही सृष्टिकर्ता ने बनाया है और उनके जीवन की साँस, उनकी स्वतंत्र इच्छा, वे सभी विभिन्न गतिविधियाँ जो वे कर सकते हैं, उनकी दिनचर्या वगैरह, सभी सृष्टिकर्ता से आती हैं। इन घटनाओं को देखते हुए लैंगिक भेद और कुछ अलग-अलग चीजों या उन पेशेवर कौशल को छोड़कर जिनमें वे माहिर हैं, महिला-पुरुषों के बीच कोई असमानता नहीं है। उदाहरण के लिए, कई काम जो पुरुष कर सकते हैं वे महिलाएं भी कर सकती हैं। कई महिलाएं वैज्ञानिक, पायलट और अंतरिक्ष यात्री हैं, कई महिला राष्ट्रपति और सरकारी अधिकारी भी हैं, जो साबित करता है कि लैंगिक भेद के बावजूद महिला-पुरुष जो काम कर सकते हैं वे कमोबेश एक समान हैं। जब शारीरिक सहनशीलता और भावनाओं को व्यक्त करने की बात आती है, तो पुरुष और महिलाएं कमोबेश एक जैसी ही होती हैं। जब किसी महिला का रिश्तेदार मरता है, तो वह उसके शोक में रो-रोकर अधमरी हो जाती है; जब किसी पुरुष के माता-पिता या प्रेमिका की मौत होती है, तो वह भी इतनी जोर से विलाप करता है कि धरती हिल जाती है; जब महिलाओं को तलाक का सामना करना पड़ता है, तो वे निराश, उदास और दुखी हो जाती हैं, और आत्महत्या की कोशिश भी कर सकती हैं, वहीं पत्नी छोड़कर चली जाए तो पुरुष भी उदास हो जाएंगे, और कुछ तो बिस्तर में मुँह छिपाकर रोएंगे भी। क्योंकि वे पुरुष हैं, वे दूसरों के सामने इस पीड़ा की शिकायत करने की हिम्मत नहीं करते और उन्हें बाहर से मजबूत होने का दिखावा करना पड़ता है, लेकिन जब आस-पास कोई नहीं होता है, तो वे भी एक सामान्य व्यक्ति की तरह रोते हैं। जब भी कुछ विशेष चीजें घटित होती हैं, तो महिला-पुरुष दोनों ही उम्मीद के मुताबिक भावुक हो जाते हैं, चाहे इसका मतलब रोना हो या हँसना। इसके अलावा, परमेश्वर के घर में विभिन्न कर्तव्य निभाने और काम करने वाले कर्मियों में महिलाओं को प्रोन्नत होने, प्रशिक्षित होने और महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त होने के अवसर मिलते हैं, जबकि पुरुषों के पास भी तरक्की पाने, प्रशिक्षित होने और महत्वपूर्ण कार्य सौंपे जाने के समान अवसर होते हैं—ये अवसर एक समान और बराबर होते हैं। महिलाओं के दैनिक जीवन में और उनके कर्तव्य निर्वहन में दिखने वाली विभिन्न प्रकार की भ्रष्टता पुरुषों में दिखने वाली भ्रष्टता से अलग नहीं है। यहां तक कि महिलाओं में भी कुछ कुकर्मी और मसीह-विरोधी हैं जो कलीसिया के कार्य में बाधा डालती हैं और गड़बड़ी पैदा करती हैं—पुरुषों में भी ऐसा ही होता है न? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों के भ्रष्ट स्वभाव एक जैसे हैं। यदि वे बुरे लोग हैं जो कुकर्म करते हैं, कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा कर बाधा डालते हैं और अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें बाहर निकाले जाते समय क्या महिला-पुरुषों के बीच कोई अंतर किया जाएगा? नहीं, सबको एक ही तरह से बाहर निकाला जाएगा। क्या तुम लोगों को लगता है कि बाहर निकाले जाने वालों में महिलाओं से ज्यादा पुरुष हैं? दोनों लगभग एक समान हैं। जो कुकर्म करते हैं, गड़बड़ी कर बाधा डालते हैं और मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों में गिने जाते हैं, वे चाहे महिलाएँ हों या पुरुष, उन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “महिलाएं गड़बड़ी पैदा करने और बाधा डालने वाले काम नहीं कर सकतीं, महिलाओं के लिए ऐसे काम करना कितना शर्मनाक होगा, महिलाओं को अपनी गरिमा बनाए रखने की चिंता अधिक करनी चाहिए! मामूली महिलाएं इतने बड़े कुकर्म कैसे कर सकती हैं? वे ऐसा नहीं कर सकतीं, उन्हें पश्चात्ताप का मौका देना चाहिए। पुरुष निर्भीक होते हैं, वे बुरे काम करने के लिए पैदा हुए हैं, वे मसीह-विरोधी होने और कुकर्म करने के लिए ही पैदा हुए हैं। भले ही वे कोई छोटा कुकर्म करें, औ र भले ही हमें परिस्थितियों की स्पष्ट समझ न हो, फिर भी उन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए।” क्या परमेश्वर का घर ऐसा करता है? (नहीं।) परमेश्वर का घर ऐसा नहीं करता। परमेश्वर का घर सिद्धांतों के आधार पर लोगों को हटाता है। वह महिला-पुरुषों के बीच अंतर नहीं करता है, और उसे महिलाओं या पुरुषों की गरिमा बचाने की फिक्र नहीं रहती है, बल्कि वह सबके साथ निष्पक्ष व्यवहार करता है। यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसने कोई कुकर्म किया है और तुम पर बाहर निकाले जाने और निलंबित किए जाने के सिद्धांत लागू होते हैं तो परमेश्वर का घर तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार हटा देगा; यदि तुम ऐसी महिला हो जिसने बाधा डाली है और गड़बड़ी पैदा की है, और तुम एक बुरी इंसान और मसीह-विरोधी हो, तो तुम्हें भी इसी तरह बाहर निकाला या निलंबित किया जाएगा; सिर्फ एक महिला होने के नाते और आँसू बहाने के कारण तुम्हें छोड़ा नहीं जाएगा। परमेश्वर के घर को सिद्धांतों के अनुसार चीजों को संभालना चाहिए। महिला विश्वासियाँ आशीष पाने के पीछे भागती हैं और आशीष पाने की इच्छा और मंशा रखती हैं। और क्या पुरुष भी ऐसा करते हैं? हाँ, बिल्कुल, इसी तरह पुरुषों में भी आशीष पाने की महत्वाकांक्षा और इच्छा महिलाओं से कम नहीं होती है। परमेश्वर के प्रति किसका प्रतिरोध ज्यादा गंभीर है, पुरुषों का या महिलाओं का? दोनों एक जैसे ही हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कहेंगे : “आखिरकार मैं अब सत्य समझ गया हूँ, महिला-पुरुष दोनों ही समान रूप से भ्रष्ट हैं! मैं सोचता था कि पुरुष मर्दाना और साहसी होते हैं, उन्हें खुद को सज्जन व्यक्ति के रूप में पेश करना चाहिए, हर काम ईमानदारी से, सम्मानित तरीके से और निष्कपट होकर करना चाहिए; एकदम महिलाओं से विपरीत, जो छोटी सोच रखती हैं, छोटी-छोटी बातों पर बखेड़ा खड़ा करती हैं, लगातार लोगों के पीठ पीछे चुगली करती हैं और निष्कपट होकर काम नहीं करती हैं। लेकिन मैंने यह नहीं सोचा था कि आधे से ज्यादा बुरे लोग पुरुष ही हैं और वे जो बुरी चीजें करते हैं वे और भी बड़ी और अधिक संख्या में होती हैं।” अब तुम इन बातों को समझ गए हो। संक्षेप में, चाहे महिला हो या पुरुष, हर किसी का भ्रष्ट स्वभाव एक जैसा ही है, बस लोगों की मानवता अलग-अलग है—महिला-पुरुषों को देखने का यही एकमात्र उचित तरीका है। क्या इस दृष्टिकोण में कोई पक्षपात है? (नहीं।) क्या यह इस विचार से प्रभावित है कि पुरुष महिलाओं से श्रेष्ठ हैं? (नहीं।) यह इन बातों से बिल्कुल भी प्रभावित नहीं है। कोई व्यक्ति अच्छा है या बुरा, यह पता लगाने के लिए हमें पहले यह नहीं देखना चाहिए कि वह महिला है या पुरुष, बल्कि उसकी मानवता देखनी चाहिए और फिर उसके भ्रष्ट स्वभाव के तमाम पहलुओं की अभिव्यक्तियों के आधार पर उसके सार का आकलन करना चाहिए—लोगों के साथ उचित व्यवहार करने का यही तरीका है।
हमने पीछे जिन घटनाओं के बारे में संगति की है, उन्हें देखते हुए महिला-पुरुषों में लैंगिक भेद के अलावा कोई अंतर नहीं है, फिर चाहे बात उनकी सहज प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति की हो या उनके विभिन्न भ्रष्ट स्वभाव उजागर होने या फिर उनकी प्रकृति सार की ही हो। लोगों के शारीरिक सार और उनके स्वभाव के साथ-साथ उनकी सहज प्रवृत्ति, इच्छाशक्ति और स्वतंत्र इच्छा के संदर्भ में जो परमेश्वर ने लोगों को बनाते समय उन्हें प्रदान की थी, लोगों के बीच कोई अंतर नहीं है। इसलिए महिला-पुरुषों को उनकी शक्ल-सूरत के आधार पर नहीं, बल्कि परमेश्वर के वचनों के आधार पर देखना चाहिए; परंपरागत संस्कृति के विचारों के आधार पर देखने का तो सवाल ही नहीं है जिन्हें यह दुनिया लोगों को सिखाती है। उन्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर क्यों देखना चाहिए? उन्हें परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों के आधार पर क्यों नहीं देखना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं : “मानव इतिहास की सहस्राब्दियों के दौरान किताबों में बहुत सारे दावे किए गए हैं और लेख लिखे गए हैं। क्या मानवजाति का कोई भी विचार और कहावत सही नहीं है? क्या उनमें कोई भी सत्य नहीं है?” ये शब्द बेतुके क्यों हैं? मनुष्य सृजित प्राणियों में गिने जाते हैं, उन्हें सहस्राब्दियों से शैतान भ्रष्ट करता आया है और वे शैतानी स्वभाव से भरे हुए हैं, इसी कारण मानव समाज में ऐसा अज्ञान और बुराई है। कोई भी स्पष्ट रूप से मूल कारण नहीं देख पाता या शैतान को नहीं पहचान पाता या वास्तव में परमेश्वर को नहीं जान पाता है। इसलिए भ्रष्ट मानवजाति के विचार सत्य के अनुरूप नहीं हैं और केवल सृष्टिकर्ता ही इस बारे में सब कुछ जानता है। यह एक प्रामाणिक तथ्य है। सत्य केवल परमेश्वर के वचनों से ही प्राप्त किया जा सकता है, जबकि मानव संसार की संस्कृति शैतान की भ्रष्टता से बनी है। लोगों ने कभी भी परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं किया और कोई भी परमेश्वर को नहीं जान सकता है, इसलिए मानवजाति की परंपरागत संस्कृति में सत्य उत्पन्न करना असंभव है, क्योंकि सभी सत्य परमेश्वर से आते हैं और मसीह द्वारा व्यक्त किए जाते हैं। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के कारण सभी मनुष्यों में शैतानी प्रकृति और स्वभाव हैं। वे सभी मशहूर व्यक्तियों और महान हस्तियों की भक्ति कर शैतान का अनुसरण करते हैं। कुछ चीजों को देखते या परिभाषित करते समय मनुष्य के अपने छिपे हुए मंसूबे और उद्देश्य होते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये मंसूबे और उद्देश्य किसके लिए काम करते हैं या इनका असली मकसद क्या है, सभी भ्रष्ट स्वभावों से नियंत्रित हैं। इसलिए भ्रष्ट मनुष्य जो चीजें परिभाषित करते हैं और जिन विचारों की पैरवी करते हैं वे शैतान की कपटी साजिशों से प्रभावित हैं। यह इसका एक पहलू है। निष्पक्ष दृष्टिकोण से दूसरा पहलू यह है कि मनुष्य चाहे कितने भी सक्षम क्यों न हों, सृजित मनुष्यों के कार्यों, सहज ज्ञान और सार को कोई नहीं समझता है। चूँकि मनुष्य को किसी व्यक्ति ने नहीं बनाया है, न कुछ तथाकथित महान व्यक्तियों, दुष्ट राजाओं, शैतान या बुरी आत्माओं ने बनाया है, इसलिए लोगों की सहज प्रवृत्तियों, कार्यों और सार को मनुष्य बिल्कुल भी नहीं समझते हैं। तो फिर लोगों की सहज प्रवृत्ति, कार्य और सार को सबसे अच्छी तरह कौन जानता है? सृष्टिकर्ता ही सबसे अच्छी तरह जानता है। जिसने भी मनुष्यों को बनाया है वह उनके कार्यों, सहज प्रवृत्ति और सार को सबसे अच्छी तरह जानता है और बेशक वह इंसानों को परिभाषित करने और महिला-पुरुषों का मूल्य, सार और उनकी पहचान निर्धारित करने के लिए सबसे योग्य है। क्या यह एक निष्पक्ष तथ्य नहीं है? (बिल्कुल।) परमेश्वर मनुष्यों को बनाने के लिए जिस चीज का उपयोग करता है, उन्हें बनाते समय जो सहज प्रवृत्तियाँ प्रदान करता है, उनके शरीर के कार्य और नियम, वे क्या करने के लिए उपयुक्त हैं या क्या करने के लिए उपयुक्त नहीं हैं, यहां तक कि उनका जीवनकाल कितना लंबा होना चाहिए—यह सब परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित है। परमेश्वर ही अपने बनाए सृजित मनुष्यों को सबसे अच्छी तरह समझता है, और सृजित मानवजाति के बारे में उससे अधिक और कोई नहीं समझता। क्या यह तथ्य नहीं है? (बिल्कुल।) इसलिए, मनुष्य को परिभाषित करने और महिला-पुरुषों की पहचान, उनकी स्थिति, मूल्य और कार्य के साथ-साथ लोगों को जिस सही मार्ग पर चलना चाहिए, यह सब निर्धारित करने के लिए परमेश्वर सबसे अधिक योग्य है। परमेश्वर सबसे अच्छी तरह जानता है कि उसके बनाए मनुष्यों को क्या चाहिए, वे क्या हासिल कर सकते हैं और क्या कुछ उनकी काबिलियत के दायरे में है। दूसरे नजरिये से देखें तो सृजित मनुष्य को सृष्टिकर्ता के कहे वचनों की सबसे अधिक जरूरत है। परमेश्वर ही निजी तौर पर मनुष्यों की अगुआई, उनका भरण-पोषण और चरवाही कर सकता है। भ्रष्ट मानवजाति के बारे में वो सभी कहावतें भ्रामक हैं जो परमेश्वर की ओर से नहीं आती हैं, खासकर परंपरागत संस्कृति की वो कहावतें जो लोगों को गुमराह, सुन्न, सीमित कर यकीनन एक प्रकार की बाधा और नियंत्रण का काम करती हैं। एक और पहलू यह है कि परमेश्वर ने मनुष्यों को बनाया है और परमेश्वर की सबसे बड़ी चिंता यह है कि वे जीवन में सही मार्ग पर चल सकते हैं या नहीं। जबकि समाज, राष्ट्र और देश निम्न वर्गों के जीवन की परवाह किए बिना केवल शासक वर्ग के हितों और राजनीतिक शासन की स्थिरता पर ध्यान देते हैं। इस वजह से कुछ चरम और अराजक चीजें घटित होती हैं। वे लोगों को वो सही मार्ग नहीं दिखाते जिससे लोग मूल्य और स्पष्टता का जीवन जी सकें और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकें; बल्कि वे अपने शासन, अपने करियर और अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को पूरा करने के लिए लोगों का शोषण करना चाहते हैं। चाहे वे कोई भी दावा करें या कोई भी विचार और नजरिया सामने रखें, इन सबका उद्देश्य लोगों को गुमराह करना, उनके विचारों को सीमित करना और मानवजाति को नियंत्रित करना है ताकि लोग उनकी सेवा करें और उनके प्रति वफादार रहें। वे मानवजाति के भविष्य या संभावनाओं पर विचार नहीं करते, न ही यह सोचते हैं कि लोग बेहतर ढंग से कैसे गुजर-बसर कर सकते हैं। लेकिन परमेश्वर जो करता है वह पूरी तरह से अलग है, यानी परमेश्वर जो करता है वह उसकी योजना के अनुसार होता है। वह मनुष्यों को बनाने के बाद अधिक सत्य और सिद्धांत समझने में उनका मार्गदर्शन करता है ताकि वे ठीक से आचरण कर सकें और उन्हें शैतान द्वारा मानवजाति की भ्रष्टता के वास्तविक तथ्य स्पष्ट रूप से दिखाता है। इस बुनियाद पर, इन सत्य सिद्धांतों के अनुसार जिन्हें परमेश्वर लोगों को सिखाता है और उन्हें फटकारने के लिए उपयोग करता है, वे जीवन में सही मार्ग पर चलने में सक्षम होते हैं।
परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण के ये नियम और दस्तूर बहुत व्यापक हैं और सभी प्रकार के पहलुओं से लोगों की सोच को प्रभावित, गुमराह और सीमित करते हैं। आज हमने महिला-पुरुषों के संबंध में परंपरागत संस्कृति की कुछ विकृत कहावतों और विचारों पर संगति की है, जिन्होंने लैंगिकता के बारे में लोगों के सही विचारों को काफी हद तक प्रभावित कर महिला-पुरुषों को बहुत-सी बेड़ियों, बंधनों, बाधाओं, भेदभाव और इसी तरह की अन्य सीमाओं के अधीन कर दिया है। ये सभी ऐसे तथ्य हैं जिन्हें लोग देख सकते हैं और यही लोगों पर परंपरागत संस्कृति के प्रभाव और दुष्परिणाम भी हैं।
14 मई 2022
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