सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (11) भाग एक

हर अवधि और हर चरण में कलीसिया में कुछ विशेष चीजें घटित होती हैं जो लोगों की धारणाओं के विपरीत होती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग बीमार हो जाते हैं, अगुआओं और कर्मियों को बदल दिया जाता है, कुछ लोग उजागर करके निकाल दिए जाते हैं, कुछ को जिंदगी और मौत की परीक्षा का सामना करना पड़ता है, कुछ कलीसियाओं में बुरे लोग और मसीह-विरोधी भी होते हैं जो परेशानियाँ खड़ी करते हैं, वगैरह। ये चीजें समय-समय पर होती रहती हैं, लेकिन ये संयोगवश बिल्कुल नहीं होती हैं। ये सभी चीजें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के परिणाम हैं। एक बहुत शांत अवधि में अचानक कई घटनाएं या असामान्य चीजें घटित हो सकती हैं, जो या तो तुम लोगों के आस-पास होंगी या व्यक्तिगत रूप से तुम लोगों के साथ होंगी, और ऐसी घटनाएं लोगों के जीवन की सामान्य व्यवस्था और सामान्य गतिविधि में बाधक बनती हैं। बाहर से, ये चीजें लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं होती हैं, लोग नहीं चाहते कि उनके साथ ऐसी चीजें हों या वे इन्हें घटित होते देखना नहीं चाहते हैं। तो क्या इन चीजों के घटित होने से लोगों को फायदा होता है? लोगों को उनसे कैसे निपटना चाहिए, उनका अनुभव कैसे करना चाहिए और उन्हें कैसे समझना चाहिए? क्या तुम लोगों में से किसी ने इसके बारे में सोचा है? (हमें यह समझना चाहिए कि यह परमेश्वर की संप्रभुता का परिणाम है।) क्या इतना समझ लेना काफी होगा कि यह परमेश्वर की संप्रभुता का परिणाम है? क्या तुमने इससे कोई सबक सीखा है? क्या तुम आगे समझ सकते हो कि परमेश्वर इन सभी चीजों पर कैसे संप्रभुता रखता है? परमेश्वर की संप्रभुता में विशेष रूप से क्या शामिल है? लोगों में ऐसे कौन-से विशिष्ट लक्षण दिखते हैं जिनके बारे में उन्हें जानना और समझना चाहिए? क्या तुम लोगों ने अपने आस-पास घटित घटनाओं से कोई सबक सीखा है? क्या तुम उन्हें परमेश्वर से स्वीकार सकते हो और इनसे कुछ हासिल कर सकते हो? या मन ही मन ये सोचकर बेपरवाह हो जाते हो, “यह सब परमेश्वर की संप्रभुता का परिणाम है, बस परमेश्वर को समर्पित हो जाओ, इसमें ज्यादा सोचने जैसा कुछ भी नहीं है,” और ऐसी सरल चीजें सोचकर इन्हें यूँ ही हाथ से निकल जाने देते हो? इनमें से कौन-सी परिस्थितियाँ तुम लोगों पर लागू होती हैं? कभी-कभी कलीसिया में बड़ी घटनाएँ हो जाती हैं; उदाहरण के लिए, सुसमाचार के कार्य को फैलाने में, अप्रत्याशित रूप से अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं या अचानक कुछ कठिनाइयाँ, विपत्तियाँ, बाधाएँ सामने आती हैं या यहाँ तक कि बाहरी ताकतों की रुकावटों और गड़बड़ी को भी झेलना होता है। कभी-कभी किसी कलीसिया में या अपना कर्तव्य निभा रहे लोगों के बीच कुछ असाधारण घटित हो जाता है। चाहे सामान्य समय हो या असामान्य, क्या तुम लोगों ने कभी घटित होने वाली इन असाधारण चीजों पर विचार किया है? तुम्हारा अंतिम निष्कर्ष क्या था? या ऐसा है कि ज्यादातर समय तुम कुछ समझ ही नहीं पाते हो? कुछ लोग इन चीजों के बारे में बस अंदर ही अंदर सोचते हैं, और इन्हें समझने के लिए सत्य खोजे बिना बस छोटी-सी प्रार्थना कह देते हैं। वे बस यह स्वीकार लेते हैं कि ये चीजें परमेश्वर से आई हैं और बस इतना ही काफी है। क्या यह काम में लापरवाही नहीं है? ज्यादातर लोग बस जैसे-तैसे काम करते हैं। और जब बहुत कम काबिलियत वाले लोग इन चीजों का सामना करते हैं, तो उन्हें कुछ समझ नहीं आता और वे उलझन में पड़ जाते हैं; वे बड़ी आसानी से परमेश्वर के प्रति धारणाएँ और गलतफहमियाँ पाल सकते हैं, और परमेश्वर की संप्रभुता और आयोजन को लेकर संदेह कर सकते हैं। लोगों के पास पहले ही परमेश्वर की कोई समझ नहीं थी, और जब उनका सामना कुछ ऐसी चीजों से होता है जो उनकी धारणाओं के विपरीत होती हैं, तो वे सत्य नहीं खोजते या दूसरों के साथ संगति नहीं करते, बल्कि केवल अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर उनसे पेश आते हैं, और आखिर में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, “ये चीजें परमेश्वर की ओर से आई हैं या नहीं, यह अभी भी निश्चित नहीं है” और फिर वे परमेश्वर के बारे में आशंकाएँ पालने और यहाँ तक कि उसके वचनों पर भी संदेह करने लगते हैं। इस कारण, परमेश्वर को लेकर उनके संदेह, अटकलें और सावधानी अधिक से अधिक गंभीर हो जाती है, और वे अपने कर्तव्य निर्वहन की प्रेरणा खो देते हैं। वे कष्ट सहना और त्याग करना नहीं चाहते, वे ढीले पड़ जाते हैं, और प्रतिदिन जैसे-तैसे अपना काम निकालते हैं। कुछ विशेष घटनाओं का अनुभव करने के बाद, जो थोड़ा सा उत्साह, संकल्प और इच्छा उनमें पहले थी, वह भी गायब हो जाती है, उनके मन में बस भविष्य के लिए अपनी योजनाएँ बनाने और अपना रास्ता निकालने के ख्याल बाकी रह जाते हैं। ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं हैं। चूँकि लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और उसे खोजते नहीं, इसलिए जब भी उनके साथ कोई बात हो जाती है तो वे इसे कभी भी परमेश्वर से स्वीकार करना सीखे बिना अपने नजरिये से देखते हैं। वे जवाब पाने के लिए परमेश्वर के वचनों में सत्य नहीं खोजते हैं, और वे इन चीजों पर संगति करके इन्हें हल करने के लिए ऐसे लोगों को भी नहीं खोजते जो सत्य को समझते हों। बल्कि, वे अपने साथ हुई बातों को समझने और उनका आकलन करने के लिए हमेशा दुनिया से निपटने के अपने ज्ञान और अनुभव का उपयोग करते हैं। और अंतिम परिणाम क्या निकलता है? वे खुद को एक अजीब स्थिति में फँसा लेते हैं जहाँ से निकलने का कोई रास्ता नहीं होता है—सत्य नहीं खोजने का यही परिणाम होता है। कुछ भी संयोग से नहीं होता, हर चीज पर परमेश्वर का शासन है। हालाँकि लोग इसे सैद्धांतिक रूप से समझ और स्वीकार सकते हैं, फिर भी लोगों को परमेश्वर की संप्रभुता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? लोगों को यही सत्य खोजना और समझना चाहिए, और विशेष रूप से इसका अभ्यास करना चाहिए। यदि लोग केवल सैद्धांतिक रूप से परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकारते हैं, पर इसकी वास्तविक समझ नहीं रखते, और उनकी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं का समाधान नहीं हुआ है, तो चाहे उन्होंने कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, और चाहे उन्होंने कितनी ही चीजों का अनुभव किया हो, वे अंत में सत्य प्राप्त नहीं कर पाएँगे। यदि लोग सत्य नहीं खोजते हैं, तो वे परमेश्वर के कार्य को नहीं जान सकते। वे जितनी अधिक चीजों का अनुभव करेंगे, परमेश्वर के बारे में उनकी धारणाएँ उतनी ही अधिक होंगी, वे उससे उतना ही अधिक सवाल करेंगे और बेशक, परमेश्वर को लेकर उनकी अटकलें, गलतफहमी और सावधानी और भी अधिक गंभीर हो जाएगी। सच तो यह है कि जो कुछ भी होता है वह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था का परिणाम है। परमेश्वर का इन सभी चीजों को करने का उद्देश्य और महत्व उसके बारे में तुम्हारी गलतफहमी और संदेह को बढ़ाना नहीं है, बल्कि तुम्हारे मन की धारणाओं और कल्पनाओं के साथ-साथ परमेश्वर के प्रति तुम्हारे संदेह, गलतफहमी, सावधानी और साथ ही ऐसी अन्य नकारात्मक चीजों को दूर और हल करना है। यदि तुम समस्याएँ आने पर समय रहते उन्हें हल नहीं करते हो, तो जब ये समस्याएँ तुम्हारे अंदर इकट्ठा हो जाएँगी और अधिक से अधिक गंभीर बन जाएँगी, और तुम्हारा उत्साह या संकल्प कर्तव्य निभाने में तुम्हारा साथ देने के लिए पहले से ही काफी नहीं है, तो तुम नकारात्मकता में गिर जाओगे, यहाँ तक कि तुम पर परमेश्वर को छोड़ देने का खतरा बन जाएगा, और यकीनन तुम दृढ़ नहीं रह सकोगे। अब, कुछ लोग ना चाहते हुए भी अपने कर्तव्य निभाने की थोड़ी-सी कोशिश करते हैं, पर यह सिर्फ आशीष पाने के लिए है, वे सत्य नहीं खोजते, और जब उन पर कोई मुसीबत आती है तो वे नकारात्मक हो जाते हैं। सत्य नहीं खोजने वाले लोग ऐसे ही होते हैं। क्योंकि वे दर्शनों के सत्य को लेकर पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं, और उनके पास परमेश्वर के कार्य की वास्तविक समझ नहीं है, तो यदि वे अपने कर्तव्य निभाते और परमेश्वर के लिए खुद को खपाते भी हैं, तो उनका दिल मजबूत नहीं होता, और जो थोड़े-बहुत सिद्धांत वे समझते हैं, वे उन्हें लंबे समय तक बचा नहीं पाते और वे गिर पड़ते हैं। यदि लोग नियमित रूप से सभा नहीं करते, उपदेश नहीं सुनते या अपनी समस्याएँ हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, तो वे दृढ़ रहने में असमर्थ होंगे। इसलिए, जो लोग कर्तव्य निभाते हैं उनके लिए नियमित रूप से सत्य पर संगति करना जरूरी है, और जब भी उनके साथ कोई बात हो जाती है और वे धारणाएँ पालने लगते हैं, तो उन्हें समय रहते सत्य खोजकर इसे हल करना चाहिए। केवल इसी तरह से वे अपने कर्तव्य पालन में वफादार बने रहकर अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करना सुनिश्चित कर सकते हैं।

परमेश्वर में विश्वास का मार्ग पथरीला और ऊबड़-खाबड़ है। यह परमेश्वर द्वारा नियत किया गया है। चाहे कुछ भी हो, चाहे वह लोगों की इच्छा के अनुरूप या उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो या नहीं, या वे उसके बारे में पहले से जान सकते हैं या नहीं, उसके घटित होने को परमेश्वर की संप्रभुता और उसके आयोजन से अलग नहीं किया जा सकता। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह इस मायने में विशेष अर्थ रखता है कि वह लोगों को उससे सबक लेने और परमेश्वर की संप्रभुता जानने देता है। परमेश्वर की संप्रभुता जानने का लक्ष्य यह नहीं है कि लोगों को परमेश्वर का विरोध करना चाहिए, न ही यह है कि परमेश्वर को समझने के बाद लोगों के पास उसके साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए अधिक शक्ति और पूँजी होनी चाहिए। बल्कि, यह है कि जब चीजें उन पर पड़ती हैं, तो लोगों को उन्हें परमेश्वर से ग्रहण करना सीखना चाहिए, इसे समझने के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए, और फिर सच्चा समर्पण हासिल करने के लिए सत्य का अभ्यास करना चाहिए और परमेश्वर में सच्चा विश्वास विकसित करना चाहिए। क्या तुम लोग इसे समझते हो? (हाँ।) तो, तुम लोग इसे कैसे व्यवहार में लाते हो? क्या ऐसी चीजों के संबंध में तुम लोगों के अभ्यास का मार्ग सही है? क्या तुम अपने ऊपर पड़ने वाली हर चीज समर्पण वाले हृदय और सत्य की खोज करने के दृष्टिकोण के साथ लेते हो? अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है, तो तुम ऐसी मानसिकता से युक्त होगे। तुम पर जो कुछ भी पड़ेगा, तुम उसे परमेश्वर से स्वीकार करोगे, और तुम सत्य की खोज करते रहोगे और उसके इरादों को समझोगे, और लोगों और चीजों को उसके वचनों के आधार पर देखोगे। खुद पर पड़ने वाली सभी चीजों में तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर उसे जानने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होगे। यदि तुम सत्य खोजने वालों में से नहीं हो, तो चाहे तुम पर कोई भी मुसीबत आए, तुम उससे परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं निपटोगे, और न ही सत्य खोजोगे। तुम परिणाम के तौर पर कोई भी सत्य हासिल किए बिना बस लापरवाही करते रहोगे। परमेश्वर लोगों को सत्य की खोज करने, उसके कर्मों को समझने और उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को देखने के लिए प्रशिक्षित करने के इरादे से ऐसी कई चीजों की व्यवस्था करके पूर्ण बनाता है जो उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होती हैं, ताकि उनका जीवन धीरे-धीरे विकसित होता रहे। ऐसा क्यों है कि जो सत्य का अनुसरण करते हैं वे परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं, सत्य प्राप्त करते हैं और परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाते हैं, जबकि जो सत्य का अनुसरण नहीं करते उन्हें निकाल दिया जाता है? इसका कारण यह है कि सत्य का अनुसरण करने वाले किसी भी मुसीबत में सत्य को खोज सकते हैं, इसलिए उनके पास पवित्र आत्मा का कार्य और प्रबोधन होता है, वे सत्य का अभ्यास करके परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं और उसके द्वारा पूर्ण बनाए जा सकते हैं; जबकि जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, उन्हें लगता है कि परमेश्वर का कार्य उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं है, फिर भी वे सत्य खोजकर इसे ठीक नहीं करते हैं; यहाँ तक कि वे नकारात्मक होकर शिकायत भी कर सकते हैं। समय बीतने के साथ परमेश्वर को लेकर उनकी धारणाएँ बढ़ती जाती हैं और वे उस पर संदेह करना और उसे नकारना शुरू कर देते हैं। नतीजतन, उन्हें परमेश्वर के कार्य द्वारा त्याग कर निकाल दिया जाता है। यही वजह है कि लोगों को सत्य के प्रति नकारात्मक और निष्क्रिय रवैया अपनाने के बजाय इसे खोजने, इसका अभ्यास करने और परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के लिए उन्हें कई चीजों का सामना करना होगा और उन सभी को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना होगा; साथ ही चिंतन-मनन करने, सत्य की खोज करने और उस पर संगति करने में अधिक समय लगाना होगा ताकि वे परमेश्वर के कार्य को जान सकें और इसके साथ तालमेल बिठा सकें। केवल इसी तरह वे सत्य को समझ सकते हैं, दिन-ब-दिन इसकी गहराई में जा सकते हैं और केवल इसी तरह से परमेश्वर के वचन और सत्य के सारे पहलू लोगों में जड़ें जमा सकते हैं। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने को वास्तविक जीवन से अलग नहीं किया जा सकता है, फिर परमेश्वर द्वारा निर्धारित विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों के परिवेश से इसे अलग करना तो दूर की बात है, वरना लोग सत्य समझने और इसे हासिल करने में सक्षम नहीं होंगे। ज्यादातर लोग नहीं जानते कि कोई समस्या आने पर परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करना चाहिए। वे नहीं जानते कि अपनी धारणाओं और कल्पनाओं को हल करने के लिए सत्य कैसे खोजें या अपनी गलत समझ और बेतुके विचारों को कैसे ठीक करें। इस कारण वे कई चीजों का अनुभव करने के बावजूद सत्य समझ नहीं पाते और उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता—यह समय की बर्बादी है। चाहे उन पर कोई भी समस्या आए, आखिर में लोगों को परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने का अभ्यास करना चाहिए। इस समर्पण का मतलब यह नहीं है कि लोगों को नकारात्मक रूप से, निष्क्रिय रूप से या अंतिम उपाय के रूप में समर्पण करना चाहिए, बल्कि यह है कि उनके पास एक सकारात्मक, सक्रिय इरादा और सत्य का अभ्यास करने का एक मार्ग है। परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने का क्या अर्थ है? इसका मतलब यह है कि परमेश्वर चाहे कोई भी व्यवस्था करे, तुम पर कोई भी समस्या आए, परमेश्वर को यह करने दो और उसके प्रति समर्पित होना सीखो। कोई इच्छा या व्यक्तिगत योजना मत रखो और चीजों को अपने तरीके से करने की कोशिश मत करो। जिन चीजों को लोग पसंद करते हैं, जिनका अनुसरण करते हैं और जिनकी चाहत रखते हैं, वे सभी बेतुकी और बेकार चीजें हैं। लोग परमेश्वर के खिलाफ बहुत अधिक विद्रोह करते हैं। वह लोगों से पूरब की ओर जाने को कहता है तो वे पूरब की ओर नहीं जाना चाहते। अगर वे अनिच्छा से समर्पण करते भी हैं तो अंदर ही अंदर पश्चिम की ओर जाने के बारे में सोचते हैं। यह सच्चा समर्पण नहीं है। सच्चे समर्पण का मतलब है कि जब परमेश्वर तुम्हें पूरब की ओर जाने के लिए कहे तो तुम्हें पूरब की ओर जाना चाहिए और उत्तर-दक्षिण या पश्चिम की ओर जाने के सभी विचार त्यागकर खारिज कर देने चाहिए, तुम्हें दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम होकर परमेश्वर के दिखाए मार्ग और दिशा में चलकर अभ्यास करना चाहिए। समर्पण का यही मतलब है। समर्पण का अभ्यास करने के सिद्धांत क्या हैं? ये हैं, परमेश्वर के वचन सुनकर समर्पण करना और उसके कहे अनुसार अभ्यास करना। अपने खुद के इरादे मत पालो और मनमौजी भी मत बनो। चाहे तुम परमेश्वर के वचनों को स्पष्ट रूप से समझते हो या नहीं, तुम्हें विनम्रतापूर्वक उन्हें अभ्यास में लाना चाहिए और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार काम करना चाहिए। अभ्यास और अनुभव की प्रक्रिया से तुम अनायास ही सत्य समझ जाओगे। यदि तुम कहते हो कि तुमने समर्पण कर दिया है, पर कभी भी अपनी आंतरिक योजनाओं और इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह नहीं कर पाते तो क्या यह “कहना कुछ और सोचना कुछ और” नहीं है? (बिल्कुल।) यह सच्चा समर्पण नहीं है। यदि तुम सच्चा समर्पण नहीं करते हो तो कोई मुसीबत आने पर तुम्हारे मन में परमेश्वर से कई अपेक्षाएं होंगी, और अंदर-ही-अंदर तुम परमेश्वर से अपनी अपेक्षाओं को पूरा करने को लेकर अधीर रहोगे। यदि परमेश्वर वैसा नहीं करता जैसा तुम चाहते हो, तो तुम बहुत पीड़ित और परेशान रहोगे, तुम्हें बहुत कष्ट सहना पड़ेगा, और तुम परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं और अपने लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित माहौल के प्रति समर्पित नहीं हो पाओगे। ऐसा क्यों है? क्योंकि तुम हमेशा अपनी अपेक्षाएं और इच्छाएं रखते हो, अपने व्यक्तिगत विचार त्याग नहीं पाते और सभी फैसले खुद ही लेना चाहते हो। इसलिए जब भी तुम्हारा सामना ऐसी चीजों से होता है जो तुम्हारी धारणाओं के विपरीत हैं तो तुम समर्पण नहीं कर पाते और तुम्हारे लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना कठिन हो जाता है। वैसे तो लोग सैद्धांतिक रूप से जानते हैं कि उन्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण कर अपने विचार त्याग देने चाहिए, लेकिन वे इन्हें त्याग नहीं पाते और लगातार इस बात से डरे रहते हैं कि वे फायदे में नहीं रहेंगे और नुकसान उठाना पड़ेगा। तुम्हीं बताओ, क्या यह उन्हें बड़ी मुसीबत में नहीं डाल रहा? क्या तब उनकी पीड़ा नहीं बढ़ जाती है? (हाँ।) यदि तुम सब कुछ छोड़ सकते हो, उन मनपसंद चीजों और अपेक्षाओं को त्याग सकते हो जो परमेश्वर के इरादों के विपरीत हैं, यदि तुम सक्रिय रूप से और अपनी इच्छा से उन्हें त्याग सकते हो और परमेश्वर के सामने शर्तें नहीं रखते, बल्कि परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने को तैयार रहते हो, तो तुम्हारी कठिनाइयाँ और बाधाएँ बहुत छोटी होंगी। यदि परमेश्वर के प्रति किसी व्यक्ति के समर्पण में बाधाएँ कम हो जाती हैं तो क्या उनकी पीड़ा कम नहीं हो जाएगी? जैसे-जैसे उसकी पीड़ा कम होगी, उसका वह कष्ट भी बहुत कम हो जाएगा जो बेकार में उठाना पड़ता है। क्या तुम लोग आगे बढ़कर इस तरह से अनुभव करोगे? शायद अभी नहीं। जब कुछ लोग किसी को कठिनाइयों का सामना करते देखते हैं तो वे तुरंत खुद को उस व्यक्ति के स्थान पर रखकर उसके बारे में सोचते हैं। जब भी वे किसी को किसी प्रकार की पीड़ा, बीमारी, क्लेश या विपत्ति का सामना करते देखते हैं तो वे तुरंत अपने बारे में सोचकर आशंकित होते हैं, “अगर मेरे साथ ऐसा होता तो मैं क्या करता? इससे पता चलता है कि विश्वासी अभी भी इन चीजों का सामना कर सकते हैं और ऐसी पीड़ा झेल सकते हैं। तो वास्तव में परमेश्वर कैसा परमेश्वर है? यदि परमेश्वर उस शख्स की भावनाओं के प्रति इतनी ही बेरुखी दिखाता है तो क्या वह मेरे साथ भी वैसा ही व्यवहार करेगा? इससे पता चलता है कि परमेश्वर विश्वसनीय नहीं है। किसी भी जगह और किसी भी समय वह लोगों के लिए एक अनपेक्षित माहौल बनाता है और उन्हें लगातार शर्मनाक स्थितियों में और किसी भी परिस्थिति में डाल सकता है।” वे डरते हैं कि यदि वे विश्वास के मार्ग से हटे तो आशीष से वंचित रहेंगे, यदि विश्वास करना जारी रखते हैं तो आपदा का सामना करना पड़ेगा। इस वजह से परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना करते हुए लोग बस यही कहते हैं, “परमेश्वर, मैं तुमसे आशीष देने की विनती करता हूँ” और यह कहने की हिम्मत नहीं करते, “परमेश्वर, मेरी परीक्षा लो, मुझे अनुशासित करो और जैसा तुम चाहो वैसा करो, मैं इसे स्वीकार करने को तैयार हूँ”—वे इस तरह प्रार्थना करने का साहस नहीं करते। कुछ बाधाओं और विफलताओं का अनुभव करने के बाद लोगों का संकल्प और साहस कम हो जाता है, उनमें परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव, उसकी ताड़ना और न्याय और उसकी संप्रभुता की अलग “समझ” होती है और वे परमेश्वर को लेकर सावधान भी हो जाते हैं। इस तरह लोगों और परमेश्वर के बीच एक दीवार खड़ी हो जाती है, एक अलगाव बन जाता है। क्या लोगों में ये मनोदशाएँ होना सही है? (नहीं।) तो क्या ये मनोदशाएँ तुम लोगों के भीतर विकसित होती हैं? क्या तुम इन मनोदशाओं में रहते हो? (हाँ।) ऐसी समस्याओं को कैसे हल किया जाना चाहिए? क्या सत्य न खोजना ठीक है? यदि तुम सत्य नहीं समझते और विश्वास नहीं करते तो तुम्हारे लिए अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करना कठिन होगा, और जब भी विपत्तियों और आपदाओं से तुम्हारा सामना होगा, चाहे वे प्राकृतिक हों या मानव निर्मित, तुम गिर जाओगे।

अय्यूब ने अपने परीक्षण के बाद ये शब्द कहे : “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। आजकल बहुत-से लोग इस वाक्य का पाठ करना सीखते हैं और इसे स्पष्टता से दोहराते हैं। लेकिन जब भी वे इसका पाठ करते हैं तो यह सोचते हैं कि यहोवा सिर्फ देता है, लेकिन वे इस पर कभी विचार नहीं करते कि जब यहोवा छीन लेगा तो क्या होगा और तब लोग किस प्रकार की पीड़ा, कठिनाई और अजीब दुर्दशा का अनुभव करेंगे, या कैसे माहौल के अनुसार लोगों का हृदय परिवर्तन होगा। वे कभी इस पर दोबारा विचार नहीं करते, बस यही दोहराते रहते हैं कि “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है,” यहाँ तक कि इस वाक्य का एक नारे और धर्म-सिद्धांत के रूप में इतना अधिक उपयोग करते हैं कि वे हर अवसर पर इसे तोते की तरह दोहराते रहते हैं। हर व्यक्ति अपने मन में, बस उन सभी अनुग्रहों, आशीषों और वादों की बातें सोचता रहता है जो यहोवा लोगों को देता है, लेकिन वे इस बारे में कभी नहीं सोचते—या कल्पना भी नहीं कर सकते हैं—कि जब यहोवा इन सभी चीजों को वापस ले लेगा तो उनकी क्या हालत होगी। परमेश्वर में विश्वास रखने वाला हर व्यक्ति केवल परमेश्वर के अनुग्रह, आशीष और वादों को स्वीकारने के लिए तैयार है, और केवल उसकी दया और करुणा को स्वीकारना चाहता है। कोई भी परमेश्वर की ताड़ना और न्याय, उसके परीक्षण और शोधन या उसके द्वारा वंचित किए जाने को स्वीकारने की प्रतीक्षा या तैयारी नहीं करता है; एक भी व्यक्ति परमेश्वर के न्याय और ताड़ना, उसके द्वारा वंचित किए जाने या उसके शाप को स्वीकारने के लिए तैयारी नहीं करता है। लोगों और परमेश्वर के बीच यह रिश्ता सामान्य है या असामान्य? (असामान्य।) तुम इसे असामान्य क्यों कहते हो? इसमें कहाँ कमी रह जाती है? इसमें कमी यह है कि लोगों के पास सत्य नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों के पास बहुत सारी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, वे लगातार परमेश्वर को गलत समझते हैं और सत्य खोजकर इन चीजों को ठीक नहीं करते हैं—इससे समस्याएँ उत्पन्न होने की संभावना सबसे अधिक होती है। विशेष रूप से, लोग केवल आशीष पाने के लिए ही परमेश्वर में विश्वास करते हैं। वे परमेश्वर के साथ बस सौदा करना चाहते हैं, उससे चीजों की मांग करते हैं, पर वे सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। यह बहुत ही खतरनाक है। जैसे ही उनका सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो उनकी धारणाओं के विपरीत है तो उनमें तुरंत परमेश्वर को लेकर धारणाएं, शिकायतें और गलतफहमियां विकसित हो जाती हैं और वे उसे धोखा देने की हद तक भी जा सकते हैं। क्या इसके परिणाम गंभीर होते हैं? ज्यादातर लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हुए किस मार्ग पर चलते हैं? भले ही तुम लोगों ने बहुत सारे उपदेश सुने होंगे और महसूस किया होगा कि तुम बहुत-से सत्यों को समझ गए हो, पर सच तो यह है कि तुम लोग अभी भी केवल भरपेट रोटियाँ खाने के लिए परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर चल रहे हो। यदि तुम्हारा मन पहले से ही न्याय और ताड़ना, परीक्षणों और शोधन को स्वीकारने के लिए तैयार है और तुमने मानसिक रूप से खुद को आपदा झेलने के लिए भी तैयार कर लिया है, और यदि तुमने परमेश्वर के लिए खुद को कितना ही खपाया हो और अपना कर्तव्य निभाने में कितने ही त्याग किए हो, तुम्हें वास्तव में अय्यूब जैसे परीक्षणों का सामना करना पड़ा हो, और परमेश्वर ने तुमसे तुम्हारी सारी संपत्ति छीन ली हो, यहाँ तक कि तुम्हारा जीवन खत्म होने के कगार पर हो, तब तुम क्या करोगे? तुम्हें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं से कैसे निपटना चाहिए? तुम्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए? परमेश्वर ने तुम्हें जो भी काम सौंपा है, उससे तुम कैसे निपटोगे? क्या तुम्हारे पास सही समझ और सही दृष्टिकोण है? इन प्रश्नों का उत्तर देना आसान है या नहीं? यह तुम लोगों के सामने खड़ी की गई एक बड़ी बाधा है। क्योंकि यह एक बाधा और समस्या है, तो क्या इसका समाधान नहीं किया जाना चाहिए? (बिल्कुल किया जाना चाहिए।) इसका समाधान कैसे करें? क्या इसे सुलझाना आसान है? मान लो कि इतने साल तक परमेश्वर में विश्वास रखने, परमेश्वर के इतने सारे वचन पढ़ने, इतने सारे उपदेश सुनने और इतने सारे सत्य समझने के बाद तुम पहले से ही परमेश्वर को सब कुछ आयोजित करने देने के लिए तैयार हो, फिर चाहे वे आशीषें हों या आपदाएँ। और मान लो कि अपनी इच्छाएँ त्यागने और खुद को खपाने, अपने त्यागों और जीवनभर की मेहनत के बावजूद तुम्हें बदले में सिर्फ परमेश्वर का शाप मिलता है या वह तुम्हें वंचित कर देता है। तब भी अगर तुम शिकायत नहीं करते, तुम्हारी अपनी कोई इच्छा या अपेक्षा नहीं रहती, बल्कि तुम केवल परमेश्वर के प्रति समर्पण करना और खुद को उसके आयोजनों की दया पर रखना चाहते हो, और तुम्हें लगता है कि परमेश्वर की संप्रभुता के बारे में थोड़ी-सी भी समझ और थोड़ा-सा भी समर्पण तुम्हारे जीवन को सार्थक बनाता है—यदि तुम्हारे पास ऐसा सही दृष्टिकोण है तो क्या तब कुछ कठिनाइयों को हल करना आसान नहीं है? क्या अब तुम लोगों को परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का सच्चा ज्ञान है? क्या तुम्हारे दिल की गहराई में अभी भी अपने निजी भविष्य और भाग्य के लिए योजनाएं हैं? क्या तुम सब कुछ छोड़कर ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपा सकते हो? क्या तुमने इन समस्याओं पर सावधानी से चिंतन और विचार करने में समय और मेहनत खर्च की है? या क्या तुमने सत्य समझने और परमेश्वर की संप्रभुता को जानने के लिए कुछ चीजों का अनुभव किया है? यदि तुमने ऐसी व्यावहारिक समस्या के बारे में कभी नहीं सोचा है कि परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोगों को उसकी संप्रभुता और सृष्टिकर्ता के आयोजनों और व्यवस्थाओं से कैसे निपटना चाहिए, जो कि तुम लोगों के सामने सबसे बड़ी समस्या भी है, और तुम लोगों को इसका एहसास तक नहीं है कि यह दर्शन का सबसे बड़ा सत्य है, तो फिर अगर किसी दिन कोई बड़ी घटना या आपदा घटित हुई, तब क्या तुम अपनी गवाही पर दृढ़ रह सकोगे? यह कहना मुश्किल है, और यह अभी भी एक अज्ञात कारक है, है ना? (बिल्कुल।) क्या इस समस्या पर अच्छी तरह से चिंतन नहीं करना चाहिए? (करना चाहिए।) तुम लोगों के पास उस भविष्य का सामना करने के लिए पर्याप्त आध्यात्मिक कद कैसे हो सकता है जिसकी तुम कल्पना नहीं कर सकते? परमेश्वर द्वारा निर्धारित माहौल में तुम अपनी गवाही में कैसे दृढ़ रह सकते हो? क्या इस समस्या पर गंभीरता से विचार और चिंतन नहीं किया जाना चाहिए? यदि तुम लगातार यह सोचते हो, “मैं प्रकृति से एक अच्छा इंसान हूँ, और मैंने परमेश्वर के अनुग्रह, आशीषों और सुरक्षा का भरपूर आनंद लिया है। जब दूसरों को कठिनाई का सामना करना पड़ता है तो वे असहाय स्थिति में होते हैं, लेकिन जब भी मुझे कठिनाई का सामना करना पड़ता है तो मेरे पास परमेश्वर का पोषण, मार्गदर्शन और सहायता होती है। अब मैं अपना कर्तव्य निभाने में कठिनाइयाँ सहने और त्याग करने में सक्षम हूँ, परमेश्वर में मेरी आस्था अधिक मजबूत हो गई है और मैं एक महत्वपूर्ण कर्तव्य भी पूरा कर रहा हूँ। मुझे एहसास है कि परमेश्वर मुझ पर विशेष रूप से दयालु है, और मेरे पास उसकी सुरक्षा और आशीष है। यदि मैं ऐसा करता रहता हूँ तो भले ही भविष्य में मुझे कुछ ताड़ना, न्याय, परीक्षण और शोधन का सामना करना पड़े, मैं इन्हें सह लूँगा। अंत में मैं यकीनन उन लोगों में से एक रहूँगा जिन्हें आशीष मिलेगी, परमेश्वर मुझे जरूर अपने राज्य में ले जाएगा और मैं वो दिन जरूर देखूँगा जब परमेश्वर का महिमागान होगा!” इस तरह की सोच के बारे में क्या ख्याल है? तुम्हें लगता है कि तुम अलग हो, परमेश्वर तुम पर विशेष अनुग्रह करता है और अगर परमेश्वर किसी को निकालेगा या त्यागेगा, तो वह तुम नहीं होगे। क्या ये विचार सही हैं? (नहीं।) ये सही क्यों नहीं हैं? (इस तरह से सोचना सामान्य नहीं है।) क्या ये शब्द परमेश्वर के बारे में वास्तविक ज्ञान दर्शाते हैं? या फिर क्या यह बहुत अधिक व्यक्तिपरक और काल्पनिक होना है? क्या ऐसे विचार रखने वाले लोग सत्य का अनुसरण करने वालों में से हैं? (नहीं।) तो क्या वे सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं? (नहीं।) क्या वे परमेश्वर की ताड़ना, न्याय, परीक्षण और शोधन और यहाँ तक कि उसके शाप स्वीकारने के लिए तैयार हैं? (नहीं।) जब उन लोगों को परमेश्वर की ताड़ना, न्याय, परीक्षण और शोधन का सामना करना होगा तो वे क्या करेंगे? क्या उनके मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ या शिकायतें विकसित होंगी? क्या वे इन चीजों को परमेश्वर से स्वीकार कर सच्चा समर्पण कर सकते हैं? (नहीं।) कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि इसे हासिल करना मुश्किल होगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे केवल अनुग्रह पाने या भरपेट रोटियाँ खाने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर में क्रोध और प्रताप भी है और परमेश्वर के स्वभाव को नाराज नहीं किया जा सकता। परमेश्वर सभी के साथ उचित व्यवहार करता है, और जब किसी सृजित प्राणी की बात आती है, तो परमेश्वर के स्वभाव में करुणा और प्रेम के साथ-साथ प्रताप और क्रोध भी होता है। हरेक व्यक्ति के साथ परमेश्वर के व्यवहार में उसके धार्मिक स्वभाव की करुणा, प्रेम, प्रताप और क्रोध बदलता नहीं है। परमेश्वर कभी भी केवल गिने-चुने लोगों पर दया और प्रेम और केवल दूसरों पर प्रताप और क्रोध नहीं दिखाएगा। परमेश्वर ऐसा कभी नहीं करेगा क्योंकि वह धार्मिक परमेश्वर है और सबके साथ निष्पक्ष रहता है। परमेश्वर की करुणा, प्रेम, प्रताप और क्रोध सभी के लिए है। परमेश्वर लोगों को अनुग्रह और आशीष दे सकता है और उनकी सुरक्षा कर सकता है। साथ ही साथ, परमेश्वर लोगों का न्याय करके और उन्हें ताड़ना और शाप देकर उनसे वो सब कुछ छीन भी सकता है जो उसने उन्हें दिया है। परमेश्वर लोगों को बहुत कुछ देता है, पर वह उनसे सब कुछ छीन भी सकता है। यह परमेश्वर का स्वभाव है और उसे सबके साथ यही करना चाहिए। इसलिए यदि तुम सोचते हो, “मैं परमेश्वर की नजरों में खास हूँ, उसकी आँखों का तारा हूँ। वह मेरा न्याय करके मुझे ताड़ना बिल्कुल नहीं दे सकता और किसी हाल में मुझसे वह सब नहीं छीनेगा जो उसने मुझे दिया है, ऐसा हुआ तो मैं परेशान और व्यथित हो जाऊँगा” तो क्या यह सोच गलत नहीं है? क्या यह परमेश्वर के बारे में धारणा नहीं है? (बिल्कुल है।) तो इन सत्यों को समझने से पहले, क्या तुम केवल परमेश्वर के अनुग्रह, करुणा और प्रेम का आनंद उठाने के बारे में नहीं सोचते रहते? इस वजह से तुम बार-बार यह भूल जाते हो कि परमेश्वर प्रतापी और क्रोधी भी है। भले ही तुम्हारे होठ कहते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है और जब वह तुम पर करुणा और प्रेम दिखाता है तो तुम उसका धन्यवाद और उसकी स्तुति करने में सक्षम हो, और जब परमेश्वर तुम्हारा न्याय करने और ताड़ना देने में तुम पर प्रताप और क्रोध दिखाता है तो तुम बहुत परेशान हो जाते हो। तुम सोचते हो, “काश ऐसा परमेश्वर होता ही नहीं। काश परमेश्वर ने मेरे साथ ये सब न किया होता, काश परमेश्वर मुझे निशाना न बनाता, काश परमेश्वर का इरादा ऐसा नहीं होता, काश ये सब दूसरों के साथ होता। क्योंकि मैं एक दयालु व्यक्ति हूँ, मैंने कुछ भी बुरा नहीं किया है और मैंने कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने की भारी कीमत चुकाई है इसलिए परमेश्वर को इतना निर्दयी नहीं होना चाहिए। मुझे परमेश्वर की करुणा और प्रेम के साथ-साथ उसके प्रचुर अनुग्रह और आशीष का आनंद लेने का हकदार और योग्य होना चाहिए। परमेश्वर मेरा न्याय नहीं करेगा या मुझे ताड़ना नहीं देगा, न ही उसके पास ऐसा करने वाला दिल है।” क्या यह महज मनमानी और गलत सोच है? (हाँ।) यह किस तरह से गलत है? यहाँ गलत बात यह है कि तुम खुद को एक सृजित प्राणी, सृजित मानवता का सदस्य नहीं मानते। तुम गलती से खुद को सृजित मानवता से अलग करके एक विशेष समूह या अलग प्रकार का सृजित प्राणी मानते हो, खुद को एक विशेष दर्जा दे देते हो। क्या यह अहंकारी और दंभी होना नहीं है? क्या यह विवेकहीन होना नहीं है? क्या यह वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला व्यक्ति है? (नहीं।) बिल्कुल नहीं।

परमेश्वर के परिवार में भाई-बहनों के बीच तुम्हारा रुतबा या स्थान चाहे कितना भी ऊँचा हो या तुम्हारा कर्तव्य कितना भी महत्वपूर्ण हो और तुम्हारी प्रतिभा और योगदान कितना ही महान हो या तुमने कितने ही लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया हो, परमेश्वर की नजर में तुम एक सृजित प्राणी ही हो, एक सामान्य सृजित प्राणी, और तुमने खुद को जो महान पदवियाँ और उपाधियाँ दी हैं उनका कोई अस्तित्व नहीं है। यदि तुम हमेशा उन्हें ताज या पूंजी की तरह मानते हो जो तुम्हें एक विशेष समूह से संबंधित होने या एक विशेष हस्ती बनाता है तो ऐसा करके तुम परमेश्वर के विचारों का विरोध और प्रतिरोध करते हो और परमेश्वर के साथ मेल नहीं खाते हो। इसके परिणाम क्या होंगे? क्या यह तुम्हें उन कर्तव्यों का विरोध करने के लिए प्रेरित करेगा जिन्हें एक सृजित प्राणी को निभाना चाहिए? परमेश्वर की नजर में तुम एक सृजित प्राणी हो, पर खुद को ऐसा नहीं मानते। क्या तुम सचमुच ऐसी मानसिकता के साथ परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हो? तुम हमेशा मनमाने ढंग से सोचते हो, “परमेश्वर को मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, वह कभी भी मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता।” क्या इससे परमेश्वर के साथ टकराव पैदा नहीं होता? जब परमेश्वर तुम्हारी धारणाओं, मानसिकता और जरूरतों के विपरीत कार्य करेगा तो तुम्हारा दिल क्या सोचेगा? परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जैसे माहौल बनाए हैं तुम उनसे कैसे निपटोगे? क्या तुम समर्पण करोगे? (नहीं।) तुम समर्पण नहीं कर पाओगे और तुम निश्चित रूप से विरोध, प्रतिरोध और शिकायत करोगे, असंतोष दिखाओगे, अपने दिल में बार-बार इस पर विचार करते हुए सोचोगे, “मगर परमेश्वर तो मेरी रक्षा करता था और मेरे साथ कृपापूर्ण व्यवहार करता था। वह अब क्यों बदल गया है? मैं अब और नहीं जी सकता!” फिर तुम चिड़चिड़े होकर असामान्य व्यवहार करने लगते हो। यदि तुम अपने घर में माता-पिता के साथ ऐसा व्यवहार करते हो तो यह क्षमा योग्य होगा और वे तुम्हारे साथ कुछ नहीं करेंगे। लेकिन यह परमेश्वर के घर में स्वीकार्य नहीं है। क्योंकि तुम बालिग हो और एक विश्वासी भी हो, यहाँ तक कि अन्य लोग भी तुम्हारी बकवास सुनने के लिए खड़े नहीं होंगे—क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर ऐसा व्यवहार बर्दाश्त करेगा? क्या उसके साथ ऐसा करने पर वह तुम्हें माफ कर देगा? नहीं, वह ऐसा नहीं करेगा। क्यों नहीं करेगा? परमेश्वर तुम्हारा माता-पिता नहीं है, वह परमेश्वर है, सृष्टिकर्ता है, और सृष्टिकर्ता कभी भी किसी सृजित प्राणी को चिड़चिड़े और विवेकहीन होने या अपने सामने नखरे दिखाने की अनुमति नहीं देगा। जब परमेश्वर तुम्हें ताड़ना देता है, तुम्हारा न्याय करता है, तुम्हारी परीक्षा लेता है या तुमसे चीजें छीन लेता है, तुम्हें प्रतिकूल परिस्थिति में डालता है, तो वह सृष्टिकर्ता के साथ व्यवहार में एक सृजित प्राणी का रवैया देखना चाहता है, वह देखना चाहता है कि सृजित प्राणी कौन-सा मार्ग चुनता है, और वह तुम्हें कभी भी चिड़चिड़े और विवेकहीन होने या बेतुके बहाने बनाने की अनुमति नहीं देगा। इन चीजों को समझने के बाद क्या लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए कि सृष्टिकर्ता जो कुछ भी करता है उससे कैसे निपटा जाए? सबसे पहले लोगों को सृजित प्राणियों के रूप में अपना उचित स्थान ग्रहण करना चाहिए और सृजित प्राणियों के रूप में अपनी पहचान स्वीकारनी चाहिए। क्या तुम यह स्वीकार सकते हो कि तुम एक सृजित प्राणी हो? यदि तुम इसे स्वीकार कर सकते हो, तो तुम्हें एक सृजित प्राणी के रूप में अपना उचित स्थान संभालना चाहिए और सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए और यदि तुम थोड़ा कष्ट उठाते भी हो, तो तुम्हें शिकायत नहीं करनी चाहिए। समझदार व्यक्ति होने का यही मतलब है। यदि तुम यह नहीं सोचते कि तुम एक सृजित प्राणी हो, बल्कि मानते हो कि तुम्हारे पास पदवी और सिर पर प्रभामंडल है, और तुम एक रुतबे वाले व्यक्ति, एक महान अगुआ, संचालक, संपादक या परमेश्वर के परिवार में निर्देशक हो, और तुमने परमेश्वर के परिवार के कार्य में महान योगदान दिया है—यदि तुम ऐसा सोचते हो तो तुम एकदम विवेकहीन और निहायत ही बेशर्म व्यक्ति हो। क्या तुम लोग रुतबा, स्थान और अहमियत रखने वाले व्यक्ति हो? (हम ऐसे नहीं हैं।) तो फिर तुम क्या हो? (मैं एक सृजित प्राणी हूँ।) सही कहा, तुम बस एक सामान्य सृजित प्राणी हो। लोगों के बीच तुम अपनी योग्यताओं का प्रदर्शन कर सकते हो, बड़े होने का फायदा उठा सकते हो, अपने योगदानों के बारे में डींगें हाँक सकते हो या अपनी बहादुरी के कारनामों के बारे में बात कर सकते हो। लेकिन परमेश्वर के समक्ष इन चीजों का कोई अस्तित्व नहीं है, और तुम्हें कभी भी उनके बारे में बात नहीं करनी चाहिए, या उनका दिखावा नहीं करना चाहिए, या खुद के बहुत अनुभवी होने का घमंड नहीं करना चाहिए। यदि तुम अपनी योग्यताओं का दिखावा करोगे तो चीजें उलट-पुलट हो जाएंगी। परमेश्वर तुम्हें एकदम विवेकहीन और बेहद अहंकारी मानेगा। तुम्हारे अस्वीकार और नफरत के कारण वह तुम्हें किनारे कर देगा, फिर तुम मुसीबत में पड़ जाओगे। तुम्हें सबसे पहले एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी पहचान और स्थिति को स्वीकारना होगा। दूसरों के बीच तुम्हारा रुतबा चाहे जैसा भी हो, या तुम्हारा स्थान कितना ही खास हो, या तुम्हारे पास कितनी भी खूबियाँ हों, या चाहे परमेश्वर ने तुम्हें किसी प्रकार की विशेष प्रतिभा दी हो, ताकि तुम लोगों के बीच श्रेष्ठ होने का आनंद ले सको—जब तुम परमेश्वर के सामने आते हो, तो इन चीजों का कोई मूल्य या महत्व नहीं होता है। इसलिए, तुम्हें दिखावा नहीं करना चाहिए, बल्कि परमेश्वर के समक्ष विनम्र होकर बस एक सृजित प्राणी बनना चाहिए। परमेश्वर के समक्ष तुम केवल सृजित मानवता के सदस्य हो। चाहे तुम कितने भी मशहूर हो, कितने भी प्रतिभाशाली या गुणी हो, और चाहे लोगों के बीच तुम्हारी कोशिशें कितनी भी महान क्यों न हों, परमेश्वर के सामने ये चीजें जिक्र करने लायक भी नहीं हैं, दिखावा करना तो दूर की बात है और तुम्हें बस एक सृजित प्राणी के रूप में अपना सही स्थान स्वीकार लेना चाहिए। यह पहली बात है। दूसरी बात यह है कि अंदर से परमेश्वर की ताड़ना और न्याय का विरोध करके और उसे ठुकराते हुए या तुम्हारे लिए परमेश्वर के परीक्षणों और शोधन से डरकर, केवल परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों का आनंद लेने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। ये डर और विरोध किसी काम का नहीं है। कुछ लोग कहते हैं : “यदि मैं परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन को स्वीकारने के लिए तैयार हूँ तो क्या मैं इन कष्टों से बच सकता हूँ?” परमेश्वर ये सभी चीजें इस आधार पर नहीं करता कि तुम उसे पसंद करते हो या नहीं, या यह तुम्हारी व्यक्तिपरक इच्छा या तुम्हारी पसंद के अनुसार है या नहीं, बल्कि वह सब कुछ अपनी इच्छाओं, अपनी सोच और अपनी योजनाओं के अनुसार करता है। इसलिए एक सृजित प्राणी के रूप में परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष को स्वीकारने के अलावा, तुम्हें अपने हृदय में परमेश्वर के वचनों की ताड़ना, न्याय, परीक्षण और शोधन को वास्तव में स्वीकारने और उनका अनुभव करने में भी सक्षम होना चाहिए। कुछ लोग कहेंगे : “क्या तुम्हारा मतलब यह है कि परमेश्वर कहीं भी और किसी भी समय लोगों पर अनुग्रह दिखा सकता है, मगर परमेश्वर की ताड़ना, न्याय, परीक्षण, शोधन और आपदाएँ भी लोगों पर कहीं भी और किसी भी समय आ सकती हैं?” क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर की ताड़ना, न्याय, परीक्षण और शोधन लोगों के सिर पर मनमाने ढंग से आ पड़ेगा जिससे उन्हें बचाव करना असंभव हो जाएगा? (ऐसा नहीं होगा।) बिल्कुल नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। भ्रष्ट मनुष्य परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के योग्य नहीं हैं—तुम लोगों को इसके बारे में पता होना चाहिए। लेकिन तुम्हें यह भी समझना चाहिए कि परमेश्वर का तुम्हें प्रकाशित और उजागर करना, अनुशासित करना, ताड़ना देना और उसका न्याय, परीक्षण और शोधन, यहाँ तक कि उसका तुम्हें शाप देना भी तुम्हारे आध्यात्मिक कद, तुम्हारी परिस्थितियों और यकीनन तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर आधारित है। यदि परमेश्वर तुम्हें स्वीकारता है तो उसका न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन उचित समय से तुम पर पड़ेगा। परमेश्वर में अपने विश्वास के दौरान, उसकी आशीषें और अनुग्रह के साथ ही उसके प्रकाशन, ताड़ना, अनुशासन, न्याय, परीक्षण और शोधन जैसी चीजें हर समय और सभी जगहों पर तुम्हारे साथ रहती हैं। बेशक हर समय और सभी जगह का मतलब उचित मात्रा में, सही समय पर और परमेश्वर की योजना के आधार पर है। यह लोगों के साथ मनमाने ढंग से नहीं होता है और इसका मतलब यह नहीं है कि जैसे ही लोग सावधानी बरतना बंद करेंगे, तो अचानक उन पर कोई बड़ी आपदा आ जाएगी। ऐसा बिल्कुल नहीं है। यदि तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद नहीं है और परमेश्वर ने तुम्हें लेकर अब तक कोई योजना नहीं बनाई है तो चिंता मत करो, मुमकिन है कि केवल परमेश्वर का अनुग्रह, आशीष और उसकी मौजूदगी तुम्हारे साथ है। यदि तुम्हारे पास पर्याप्त आध्यात्मिक कद नहीं है या तुम विशेष रूप से प्रतिरोधी हो और परमेश्वर की ताड़ना, न्याय, परीक्षणों और शोधन से डरते हो तो परमेश्वर तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध तुम पर ये चीजें नहीं थोपेगा, इसलिए तुम्हें इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। ये चीजें घटित हों या न हों, लोगों को परमेश्वर के कार्य को जानना चाहिए और उसके इरादों को समझना चाहिए। परमेश्वर के वचनों के सही ज्ञान से ही लोगों का दृष्टिकोण सही हो सकता है, उनकी स्थिति सामान्य हो सकती है, और कोई भी मुसीबत आने पर वे उसका सामना कर सकते हैं। क्या अब तुम लोग परमेश्वर की ताड़ना, न्याय, परीक्षण और शोधन स्वीकारने के लिए तैयार हो? क्या तुम लोग इन्हें स्वीकारना चाहते हो? (हाँ, जरूर।) तुमने मुँह से “हाँ” तो कह दिया, पर तुम्हारा दिल अब भी बहुत भयभीत है। यदि हाँ कहने के तुरंत बाद तुम पर अचानक कोई आपदा आ पड़े तो तुम उससे कैसे निपटोगे? क्या तुम फूट-फूटकर रोने लगोगे? क्या तुम मौत से डरोगे? क्या तुम्हें आशीष न मिलने की चिंता सताएगी? क्या तुम्हें इस बात की चिंता होगी कि तुम वह दिन नहीं देख पाओगे जब परमेश्वर का महिमागान होगा? जब लोगों पर मुसीबत आती है तो वे इन्हीं समस्याओं का सामना करते हैं। संक्षेप में, यदि कोई व्यक्ति परीक्षणों और विपत्तियों के बीच दृढ़ रहना चाहता है तो उसके पास दो चीजें होनी चाहिए। सबसे पहले, एक सृजित प्राणी के रूप में अपना उचित स्थान पहचानो। तुम्हारे दिल में यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि तुम एक सामान्य सृजित प्राणी हो, भ्रष्ट मानवता के बीच एक सामान्य व्यक्ति हो, तुम असाधारण या विशेष नहीं हो और तुम्हें एक सृजित प्राणी के रूप में अपना उचित स्थान संभालना चाहिए। दूसरा, तुम्हारे पास परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला एक सच्चा दिल होना चाहिए और तुम्हें हर समय परमेश्वर से आशीष, अनुग्रह के साथ ही ताड़ना, न्याय, परीक्षण और शोधन स्वीकारने के लिए तैयार रहना चाहिए। जैसा कि अय्यूब ने कहा, “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” (अय्यूब 2:10) और “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। यह एक तथ्य है और यह तथ्य कभी नहीं बदलेगा। तुम समझ रहे हो, है ना? (बिल्कुल।) यदि तुम्हारे पास ये दो चीजें होंगी, तो तुम आसानी से दृढ़ रहने और सामान्य आपदाओं और विपत्तियों से उबरने में सक्षम होगे। हालाँकि, ऐसा हो सकता है कि तुम मजबूत और शानदार गवाही न दे पाओ, पर कम-से-कम तुम भटकोगे नहीं, ठोकर नहीं खाओगे, या धोखा नहीं दोगे। तब क्या तुम सुरक्षित नहीं होगे? (सुरक्षित रहूँगा।) फिर तुम लोगों को इन दो चीजों के अनुसार अभ्यास कर देखना चाहिए कि इसे हासिल करना आसान है या नहीं और क्या तुम उन्हें अपने दिल की गहराई से स्वीकार सकते हो या नहीं। इन चीजों को जानने के बाद कुछ परीक्षणों का सामना करते हुए तुम लोग इन सबको कितने अलग तरीके से देखोगे और समझोगे, यह तुम्हारा अपना मामला है। इस विषय पर हमारी संगति यहीं समाप्त होती है।

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