सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (10) भाग एक

पिछली सभा में, हमने नैतिक आचरण की इस कहावत पर संगति कर इसका गहन-विश्लेषण किया था, “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।” क्या अब तुम लोगों के पास परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की विभिन्न कहावतों की वास्तविक समझ है? नैतिक आचरण की ये कहावतें सत्य से किस प्रकार भिन्न हैं? क्या अब तुम यकीन से कह सकते हो कि नैतिक आचरण की ये कहावतें मूल रूप से सत्य नहीं हैं, और ये सत्य का स्थान तो बिल्कुल भी नहीं ले सकती हैं? (हाँ।) तुम्हारे इस यकीन से क्या पता चलता है? (यह कि मेरे पास परंपरागत संस्कृति की इन कहावतों की वास्तविकता को पहचानने की काबिलियत है। पहले, मुझे नहीं पता था कि मेरे हृदय में ये चीजें मौजूद थीं। परमेश्वर की इन कुछ संगतियों और गहन-विश्लेषणों के बाद ही मुझे एहसास हुआ है कि मैं अब तक इन चीजों के प्रभाव में थी, और मैंने हमेशा लोगों और चीजों को परंपरागत संस्कृति के आधार पर देखा है। मुझे यह भी एहसास है कि परंपरागत संस्कृति की ये कहावतें सत्य के बिल्कुल विपरीत हैं, और ये चीजें लोगों को भ्रष्ट बनाती हैं।) इसका यकीन होने पर, सबसे पहले तुम्हें परंपरागत संस्कृति से जुड़ी इन चीजों की थोड़ी पहचान होती है। तुम्हारे पास सिर्फ अवधारणात्मक ज्ञान ही नहीं होता, बल्कि तुम सैद्धांतिक दृष्टिकोण से इन चीजों के सार को भी पहचान सकते हो। दूसरी बात, तुम अब परंपरागत संस्कृति की चीजों से प्रभावित नहीं होते हो, और अपने दिलो-दिमाग से इन चीजों के प्रभाव, बाध्यता और बंधन हटा सकते हो। खास तौर पर विभिन्न चीजों को देखते हुए या विभिन्न समस्याओं का सामना करते हुए, अब तुम इन विचारों और दृष्टिकोणों से प्रभावित और बेबस नहीं होते हो। सामान्य तौर पर, संगति करने से, तुम्हें परंपरागत संस्कृति के इन विचारों और दृष्टिकोणों की थोड़ी पहचान हो गयी है। सत्य समझने का यही परिणाम है। परंपरागत संस्कृति की ये चीजें खोखली, शैतानी फलसफों से भरीं कर्णप्रिय कहावतें हैं, खासकर नैतिक आचरण की ये कहावतें, “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,” और “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।” ये अपने विचारों से इंसानों को लगातार प्रभावित, बेबस और बाध्य करती हैं, और लोगों के नैतिक आचरण में सक्रिय और सकारात्मक भूमिका नहीं निभाती हैं। हालाँकि, अब तुम लोगों को चीजों की थोड़ी पहचान है, पर इन चीजों के प्रभाव को अपने दिल की गहराइयों से पूरी तरह मिटाना मुश्किल है। तुम्हें कुछ समय तक अपने आप को सत्य से परिपूर्ण करके परमेश्वर के वचनों के अनुसार अनुभव करना चाहिए। तभी तुम साफ तौर पर यह देख पाओगे कि ये पाखंडी बातें कितनी ज्यादा हानिकारक, गलत और बेतुकी हैं, और केवल तभी समस्या को जड़ से हल किया जा सकता है। यदि तुम इन गलत विचारों और नजरियों को त्यागना चाहते हो और केवल कुछ धर्म-सिद्धांतों को समझकर अपने आप को उनके प्रभाव, बाध्यता और बंधन से मुक्त करना चाहते हो, तो ऐसा करना बहुत मुश्किल होगा। अब जब तुम लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों की वास्तविकता को कुछ हद तक पहचान पाने में सक्षम हो, तो कम-से-कम तुम्हारे पास कुछ समझ है और तुमने अपनी सोच में थोड़ी प्रगति की है। बाकी इस बात पर निर्भर करता है कि कोई सत्य की खोज कैसे करता है और वह परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को कैसे देखता है, और भविष्य में उसे कैसा अनुभव होता है।

परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की इन कहावतों पर इन संगतियों और गहन-विश्लेषणों के बाद, क्या तुम लोग इन कहावतों के सार को स्पष्ट रूप से देख सकते हो? यदि तुम वास्तव में स्पष्ट रूप से देख सकते हो, तो फिर तुम लोग यह निर्धारित कर सकते हो कि परंपरागत संस्कृति की ये कहावतें सत्य नहीं हैं, न ही ये सत्य का स्थान ले सकती हैं। इतना तो निश्चित है ही, और संगति के जरिए ज्यादातर लोगों ने पहले ही मन ही मन में इसकी पुष्टि कर ली है। तो किसी व्यक्ति को नैतिक आचरण की सभी कहावतों के सार को कैसे समझना चाहिए? यदि कोई इस समस्या का सामना परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार नहीं करता है, तो इसे पहचानने और समझने का कोई और तरीका नहीं है। परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की ये कहावतें कागज पर चाहे कितनी भी अच्छी और सकारात्मक लगें, क्या ये वास्तव में लोगों के क्रियाकलापों और व्यवहार के मापदंड या आचरण के सिद्धांत हैं? (नहीं।) ये कहावतें आचरण की सिद्धांत या मानदंड नहीं हैं। तो वास्तव में ये क्या हैं? नैतिक आचरण की हर कहावत के सार का गहन-विश्लेषण करके क्या तुम लोग यह निष्कर्ष निकाल सकते हो कि नैतिक आचरण के बारे में लोगों के बीच फैली इन कहावतों का सत्य और सार क्या है? क्या तुम लोगों के मन में कभी यह सवाल नहीं उठा? शासक वर्गों की चापलूसी करने वाले, उनका पक्ष लेने वाले और केवल उनकी सेवा करके बेहद प्रसन्न होने वाले उन तथाकथित विचारकों और नैतिकतावादियों के उद्देश्यों को छोड़कर, आओ हम सामान्य मानवता के दृष्टिकोण से इसका विश्लेषण करें। क्योंकि नैतिक आचरण की ये कहावतें सत्य नहीं हैं, न ही वे सत्य का स्थान ले सकती हैं, ये मिथ्या होनी चाहिए। ये निश्चित रूप से सकारात्मक चीजें नहीं हैं—इतना तो तय है। यदि इस तरह से तुम लोग इनकी वास्तविकता को पहचान सकते हो, तो इससे साबित होता है कि तुमने अपने दिल में सत्य की कुछ हद तक समझ प्राप्त कर ली है और तुम्हें इनकी थोड़ी पहचान हो चुकी है। नैतिक आचरण की ये कहावतें सकारात्मक बातें नहीं हैं, न ही ये लोगों के कार्यों और व्यवहार की मानदंड हैं, और ये लोगों के आचरण के लिए सिद्धांत तो बिल्कुल नहीं हैं, जिनका पालन करना चाहिए, इसलिए इनमें कुछ तो गड़बड़ है। क्या इसकी तह तक जाना सही है? (हाँ।) यदि तुम केवल “नैतिक आचरण” पर विचार करते हो और सोचते हो कि ये कहावतें सही विचार और सकारात्मक बातें हैं, तो तुम गलत हो और तुम इनके झांसे में आकर बहक जाओगे। जो पाखंड है वह कभी भी सकारात्मक चीज नहीं हो सकता। जहाँ तक नैतिक आचरण के विभिन्न प्रदर्शनों और कार्यों का सवाल है, व्यक्ति को यह भेद करना चाहिए कि वे ईमानदारी से और दिल से किए गए हैं या नहीं। यदि वे अनिच्छा से, दिखावे के लिए या किसी खास लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किए जाते हैं, तो ऐसे कार्यों और प्रदर्शनों में समस्या होती है। क्या तुम लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों की वास्तविकता को समझ सकते हो? कौन बता सकता है? (लोगों को गुमराह और भ्रष्ट करने के लिए शैतान नैतिक आचरण से जुड़ी कहावतों का इस्तेमाल करता है, और उन्हें इन कहावतों का पालन करने और इन पर अमल करने के लिए मजबूर करता है, ताकि शैतान अपनी पूजा और अपना अनुसरण करवाने और उन्हें परमेश्वर से दूर रखने के लक्ष्यों को हासिल कर सके। यह लोगों को भ्रष्ट करने के लिए शैतान की तकनीकों और तरीकों में से एक है।) यह नैतिक आचरण की कहावतों का सार नहीं है। यह वह लक्ष्य है जिसे शैतान लोगों को ऐसी कहावतों के सहारे गुमराह करने के लिए हासिल करता है। सबसे पहले, तुम लोगों को स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए कि नैतिक आचरण के बारे में किसी भी प्रकार की कहावत सत्य नहीं है, वह सत्य का स्थान तो बिल्कुल नहीं ले सकती। वे सकारात्मक चीजें भी नहीं हैं। तो वे वास्तव में क्या हैं? यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि नैतिक आचरण के बारे में ये कहावतें विधर्मी भ्रांतियाँ हैं, जिनसे शैतान लोगों को गुमराह करता है। वे अपने आप में ऐसी सत्य वास्तविकता नहीं हैं जो लोगों में होनी चाहिए, न ही वे सकारात्मक चीजें हैं जिन्हें सामान्य मनुष्यों को जीना चाहिए। नैतिक आचरण के बारे में ये कहावतें जालसाजी, ढोंग, झूठ-फरेब और चालबाजियाँ हैं—ये कृत्रिम व्यवहार हैं, और मनुष्य के जमीर और विवेक या उसकी सामान्य सोच से बिल्कुल भी उत्पन्न नहीं होते। इसलिए नैतिक आचरण के संबंध में परंपरागत संस्कृति की तमाम कहावतें बेहूदा, बेतुके पाखंड और भ्रम हैं। इन कुछ संगतियों से, नैतिक आचरण के बारे में शैतान जिन कहावतों को सामने रखता है उनकी आज पूर्णरूपेण निंदा की जाती है। अगर वे सकारात्मक चीजें तक नहीं हैं, तो लोग उन्हें कैसे स्वीकार सकते हैं? लोग इन विचारों और मतों को कैसे जी सकते हैं? कारण यह है कि नैतिक आचरण के बारे में ये कहावतें लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं से बहुत अच्छी तरह मेल खाती हैं। वे प्रशंसा और स्वीकृति दिलाती हैं, इसलिए लोग नैतिक आचरण के बारे में इन कहावतों को दिल से स्वीकारते हैं, और हालाँकि वे इन्हें अमल में नहीं ला सकते, फिर भी वे आंतरिक रूप से इन्हें गले लगाकर उत्साहपूर्वक इनकी आराधना करते हैं। और इस प्रकार, शैतान लोगों को गुमराह करने, उनके दिलों और व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए नैतिक आचरण के बारे में विभिन्न कहावतों का उपयोग करता है, क्योंकि अपने दिलों में लोग नैतिक आचरण के बारे में सभी प्रकार की कहावतों पर आँखें मूंदकर विश्वास रखते हैं और उनकी आराधना करते हैं, और अत्यधिक गरिमा, महानता और दयालुता के झूठे एहसास का दिखावा करके अत्यधिक सम्मान और प्रशंसा पाने का अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए वे सभी इन कथनों का उपयोग करना चाहते हैं। संक्षेप में, नैतिक आचरण के बारे में सभी प्रकार की कहावतें यह अपेक्षा करती हैं कि किसी खास तरह का काम करते हुए लोगों को नैतिक आचरण के क्षेत्र में किसी प्रकार का व्यवहार या मानवीय गुण प्रदर्शित करना चाहिए। ये व्यवहार और मानवीय गुण काफी नेक लगते हैं और श्रद्धेय होते हैं, इसलिए सभी लोग अपने दिलों में इन्हें पाना चाहते हैं। लेकिन उन्होंने इस बात पर विचार नहीं किया होता कि नैतिक आचरण के बारे में ये कहावतें व्यवहार के वे सिद्धांत बिल्कुल नहीं हैं, जिनका सामान्य इंसान को पालन करना चाहिए; इसके बजाय, वे विभिन्न प्रकार के पाखंडी व्यवहार हैं जिनका व्यक्ति स्वाँग कर सकता है। वे जमीर और विवेक के मानकों से अलग जाते हैं, सामान्य मनुष्य की इच्छा के विरुद्ध जाते हैं। शैतान नैतिक आचरण की झूठी और बनावटी कहावतों का उपयोग लोगों को गुमराह करने, उनसे अपनी और उन पाखंडी तथाकथित संतों की आराधना करवाने के लिए करता है, जिससे लोग सामान्य मानवता और मानवीय व्यवहार के मानदंडों को साधारण, सरल, यहाँ तक कि तुच्छ चीजें समझें। लोग इन चीजों का तिरस्कार करते हैं और इन्हें पूरी तरह से बेकार समझते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि शैतान द्वारा समर्थित नैतिक आचरण की कहावतें आँखों को बहुत भाती हैं और मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं से बहुत मेल खाती हैं। हालाँकि, तथ्य यह है कि नैतिक आचरण के बारे में कहावत, चाहे वह जो भी हो, एक ऐसा सिद्धांत है जिसका लोगों को अपने व्यवहार या दुनिया में अपने लेनदेन में पालन करना चाहिए। सोचो—क्या ऐसा नहीं है? सार में, नैतिक आचरण की कहावतें लोगों से सिर्फ सतही रूप से ज्यादा सम्मानजनक, नेक जीवन जीने के लिए कहती हैं, जिससे दूसरे उनकी आराधना या प्रशंसा करें, उन्हें नीचा न दिखाएँ। इन कहावतों का सार दर्शाता है कि ये सिर्फ लोगों से यह अपेक्षा करती हैं कि वे अच्छे व्यवहार के जरिये अच्छा नैतिक आचरण प्रदर्शित करें, जिससे भ्रष्ट मनुष्यजाति की महत्वाकांक्षाएँ और फालतू इच्छाएँ छिपाई और नियंत्रित की जा सकें, मनुष्य के बुरे और घिनौने प्रकृति सार के साथ-साथ विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों की अभिव्यक्तियों पर पर्दा डाला जा सके। ये सतही रूप से अच्छे व्यवहार और अभ्यासों के जरिये व्यक्ति का व्यक्तित्व उभारने के लिए हैं, दूसरों के मन में उनकी छवि निखारने और उनके बारे में व्यापक दुनिया का अनुमान सँवारने के लिए हैं। ये बिंदु दर्शाते हैं कि नैतिक आचरण की कहावतों का उद्देश्य मनुष्य के आंतरिक विचारों, नजरियों, लक्ष्यों और इरादों, उसके घृणित चेहरे और उसके प्रकृति सार को सतही व्यवहार और अभ्यासों से छिपाना है। क्या ये चीजें सफलतापूर्वक छिपाई जा सकती हैं? क्या इन्हें छिपाने की कोशिश करने से ये और ज्यादा स्पष्ट नहीं हो जातीं? लेकिन शैतान इसकी परवाह नहीं करता। उसका उद्देश्य भ्रष्ट मनुष्य का घिनौना चेहरा ढकना, मनुष्य की भ्रष्टता का सत्य छिपाना है। इसलिए, शैतान लोगों को खुद को छिपाने के लिए नैतिक आचरण की स्वभावजन्य अभिव्यक्तियाँ अपनाने के लिए प्रेरित करता है, जिसका अर्थ है कि वह नैतिक आचरण के नियमों और व्यवहारों का उपयोग कर मनुष्य का रूप साफ-सुथरा बनाता है, मनुष्य के मानवीय गुण और व्यक्तित्व उभारता है, ताकि वे दूसरों से सम्मान और प्रशंसा पा सकें। मूल रूप से, नैतिक आचरण के बारे में ये कहावतें व्यक्ति की स्वभावजन्य अभिव्यक्तियों और नैतिक मानकों के आधार पर निर्धारित करती हैं कि वह नेक है या नीच। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति परोपकारी है या नहीं, यह इस बात को दिखाने पर निर्भर करता है कि वह दूसरों की खातिर अपने हित त्याग सकता है या नहीं। यदि वह इसे अच्छी तरह से प्रदर्शित करता है, खुद को अच्छी तरह से छिपाता है, और खुद को विशेष रूप से सराहनीय दिखाता है, तो ऐसे व्यक्ति को ईमानदार और गरिमापूर्ण और दूसरों की नजर में विशेष रूप से उच्च नैतिक मानकों वाला व्यक्ति माना जाएगा, और राज्य उसे नैतिकता की मिसाल होने के लिए इनाम के तौर पर एक तमगा प्रदान करेगा, ताकि दूसरे लोग उससे सीखें, उसकी पूजा करें, और उसकी बराबरी करें। तो, यह कैसे आँका जाना चाहिए कि कोई महिला अच्छी है या दुष्ट? ऐसा इस बात पर गौर करके किया जा सकता है कि उस महिला के अपने समुदाय के भीतर प्रदर्शित विभिन्न व्यवहार इस कहावत के अनुरूप हैं या नहीं “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए।” यदि वह सच्चरित्र, दयालु और विनम्र होकर, हर मामले में इनका अनुपालन करती है, बुजुर्गों के प्रति अत्यधिक सम्मान दिखाती है, जन-हित के लिए तत्परता से समझौता कर सकती है, बेहद धैर्यवान बनकर और लोगों के खिलाफ बातें किए बिना या दूसरों से बहस किए बिना, कठिनाइयों को सहन करने में सक्षम है; और अपने सास-ससुर का सम्मान करती है, अपने पति और बच्चों की अच्छी देखभाल करती है, कभी अपने बारे में नहीं सोचती, बदले में कभी कुछ नहीं मांगती, न ही दैहिक सुखों का आनंद लेती है वगैरह, तो वह वास्तव में एक सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त महिला है। लोग महिलाओं के नैतिक आचरण को आँकने के लिए इन बाहरी व्यवहारों का उपयोग करते हैं। किसी व्यक्ति के सतही तौर-तरीकों और व्यवहार के जरिये उसकी अहमियत, अच्छाई और बुराई को मापना गलत और अव्यावहारिक है। इस तरह के दावे करना भी गलत, भ्रामक और बेतुका है। यह नैतिक आचरण की कहावतों की मूल समस्या है जो लोगों में उजागर होती है।

ऊपर दिए गए विभिन्न पहलुओं की रोशनी में क्या परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की ये कहावतें वास्तव में आचरण संबंधी सिद्धांत हैं? (नहीं।) ये सामान्य मानवता की जरूरतों को बिल्कुल भी पूरा नहीं करती हैं, बल्कि इसके बिल्कुल विपरीत हैं। ये मानवजाति को न तो आचरण के सिद्धांत देती हैं, न ही लोगों के कार्यों और व्यवहार के सिद्धांत देती हैं। बल्कि ये लोगों को खुद को छिपाने, खुद पर पर्दा डालने, और दूसरों के सामने खास तरीके से आचरण और व्यवहार करने को कहती हैं, ताकि उन्हें अत्यधिक सम्मान और प्रशंसा मिले; इनका मकसद लोगों को सही आचरण या सही व्यवहार करने का तरीका सिखाना नहीं है, बल्कि उन्हें दूसरों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जीना और उनकी प्रशंसा और मान्यता प्राप्त करना सिखाना है। यह परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप बिल्कुल नहीं है, वह चाहता है कि लोग दूसरों की सोच की परवाह किए बिना सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार और कार्य करें, और केवल परमेश्वर की स्वीकृति पाने पर ध्यान केंद्रित करें। नैतिक आचरण की कहावतें लोगों के विचारों और नजरियों से संबंधित समस्याओं को हल करने या उनके मानवीय प्रकृति सार के बारे में नहीं हैं, बल्कि लोगों से उनके व्यवहार, अभ्यास और दिखने में सभ्य और कुलीन होने की अपेक्षा के बारे में अधिक हैं—भले ही यह छद्म रूप हो। दूसरे शब्दों में, परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कहावतों के जरिये लोगों से जो अपेक्षाएं की जाती हैं, वे लोगों के सार पर आधारित नहीं होती हैं, और वे विवेक और बुद्धि के हासिल करने योग्य लक्ष्यों पर तो बिल्कुल भी ध्यान नहीं देती हैं। साथ ही, ये इस वस्तुगत तथ्य के उलट भी हैं कि लोगों के भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, वे सभी स्वार्थी और घृणित होते हैं, और ये लोगों को उनके व्यवहार और तौर-तरीकों के संदर्भ में ऐसी-वैसी चीजें करने के लिए मजबूर करती हैं। इसलिए, ये चाहे किसी भी दृष्टिकोण से लोगों से अपेक्षाएं रखें, ये मूल रूप से लोगों को भ्रष्ट स्वभावों के बंधन और बाध्यता से मुक्त नहीं कर सकती हैं, न ही ये लोगों के सार की समस्या का समाधान कर सकती हैं; दूसरे शब्दों में, ये लोगों के भ्रष्ट स्वभावों की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती हैं। इस वजह से, ये लोगों के आचरण के सिद्धांतों और दिशा को नहीं बदल सकती हैं, न ही ये लोगों को यह समझा सकती हैं कि कैसा आचरण करना है, दूसरों के साथ कैसे पेश आना है या पारस्परिक संबंधों में सकारात्मक पहलू से कैसे निपटना है। दूसरे नजरिये से कहें, तो नैतिक आचरण की कहावतें लोगों को सौंपा गया एक प्रकार का नियम और व्यवहार संबंधी बाधा हैं। हालाँकि ये चीजें सभी रूपों में बहुत अच्छी लगती हैं, लेकिन ये अनजाने में लोगों की सोच और विचारों को प्रभावित करती हैं, उन्हें बाधित और बाध्य करती हैं, जिसके परिणाम स्वरूप लोग आचरण और व्यवहार के सही सिद्धांत और मार्ग नहीं खोज पाते हैं। इस संदर्भ में, लोगों के पास परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरिये के प्रभाव को अनिच्छापूर्वक स्वीकारने के अलावा और कोई चारा नहीं होता, और इन भ्रामक विचारों और नजरिये के प्रभाव में वे अनजाने में आचरण के सिद्धांत, लक्ष्य और दिशा खो देते हैं। इससे भ्रष्ट इंसान अंधकार में गिर जाते हैं, रोशनी खो देते हैं, और वे झूठ, दिखावे और चालबाजी पर निर्भर होकर केवल शोहरत और व्यक्तिगत लाभ के पीछे भागते रहते हैं। उदाहरण के लिए, जब तुम देखते हो कि किसी व्यक्ति को मदद की जरूरत है, तो तुरंत सोचते हो, “उचित आचरण का अर्थ है दूसरों की मदद करने में खुशी पाना। यह लोगों के आचरण का बुनियादी सिद्धांत और नैतिक मानक है,” और इसलिए तुम सहज रूप से उस व्यक्ति की मदद करोगे। उसकी मदद करने के बाद तुम्हें लगता है कि इस तरह आचरण करके तुम नेक इंसान बन गए हो और तुम्हारे पास थोड़ी मानवता है, और तुम अनायास ही खुद को नेक इंसान, श्रेष्ठ चरित्र वाला व्यक्ति, गरिमामय और चरित्रवान व्यक्ति, और सहज ही सम्मान पाने लायक व्यक्ति मानकर अपनी प्रशंसा भी करते हो। यदि तुम उसकी मदद नहीं करते हो तो सोचते हो, “ओह, मैं एक अच्छा इंसान नहीं हूँ। जब भी मैं किसी ऐसे व्यक्ति से मिलता हूँ जिसे मदद की जरूरत होती है और मैं मदद करने के बारे में सोचता हूँ, तो मैं हमेशा अपने हितों के बारे में सोचने लगता हूँ। मैं कितना स्वार्थी इंसान हूँ!” तुम अनजाने में खुद को आँकने, खुद को नियंत्रित करने और सही-गलत का मूल्यांकन करने के लिए “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ” के वैचारिक दृष्टिकोण का इस्तेमाल करोगे। जब तुम इस कहावत पर अमल नहीं कर पाओगे, तो खुद से घृणा करोगे या खुद को हीन भावना से देखोगे और कुछ हद तक असहज महसूस करोगे। तुम उन लोगों को प्रशंसा और सराहना की नजरों से देखोगे जो दूसरों की मदद करने में खुशी पाते हैं, तुम्हें लगेगा कि वे तुमसे ज्यादा नेक, तुमसे ज्यादा गरिमामय और तुमसे ज्यादा चरित्रवान हैं। हालाँकि, ऐसे मामलों में परमेश्वर की अपेक्षाएँ भिन्न होती हैं। परमेश्वर की अपेक्षाएँ ये हैं कि तुम उसके वचनों और सत्य सिद्धांतों का पालन करो। नैतिक आचरण के संबंध में लोगों को किस प्रकार अभ्यास करना चाहिए? परंपरागत नैतिक और सांस्कृतिक नजरियों का पालन करके या परमेश्वर के वचनों का पालन करके? सबको इस विकल्प का सामना करना पड़ता है। क्या तुम अब उन सत्य सिद्धांतों को साफ तौर पर जान चुके हो जो परमेश्वर लोगों को सिखाता है? क्या तुम उन्हें समझते हो? तुम उनका कितनी अच्छी तरह पालन करते हो? उनका पालन करते समय, तुम किन विचारों और नजरिये से प्रभावित और बाधित होते हो, और कौन से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होते हैं? तुम्हें इस तरह से आत्म-चिंतन करना चाहिए। परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कहावतों का कितना सार तुम अपने दिल में स्पष्ट रूप से देख सकते हो? क्या तुम्हारे दिल में परंपरागत संस्कृति का अभी भी कोई स्थान है? ये सभी समस्याएं हैं जिन्हें लोगों को हल करना चाहिए। जब तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो जाता है, और तुम बिना कोई समझौता किए पूरी तरह से सत्य के प्रति समर्पण करने और परमेश्वर के वचनों का पालन करने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम जो अभ्यास करते हो वह पूरी तरह से सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होता है। तुम फिर कभी भ्रष्ट स्वभावों के सामने बेबस नहीं रहोगे या परंपरागत संस्कृति के नैतिक विचारों और नजरिये से बंधे नहीं रहोगे, और परमेश्वर के वचनों को सटीक रूप से अभ्यास में लाने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम रहोगे। यही वे सिद्धांत हैं जिनसे विश्वासियों के आचरण और कार्यों की सूचना मिलनी चाहिए। जब तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने, परमेश्वर के वचनों का पालन करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम होगे, तो तुम न केवल अच्छे नैतिक आचरण वाले व्यक्ति होगे, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति भी होगे जो परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर सकता है। जब तुम आचरण के सिद्धांतों और सत्य का अभ्यास करते हो, तो तुम्हारे पास न केवल नैतिक आचरण के मानक होते हैं, बल्कि तुम्हारे आचरण में सत्य सिद्धांत भी होते हैं। क्या सत्य सिद्धांतों का पालन करने और नैतिक आचरण के मानदंडों का पालन करने में कोई अंतर है? (हाँ।) उनमें क्या अंतर है? नैतिक आचरण की अपेक्षाओं का पालन करना केवल व्यावहारिक अभ्यास और अभिव्यक्ति है, जबकि सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना भी बाहर से भले ही एक अभ्यास लगे लेकिन यह अभ्यास सत्य सिद्धांतों का पालन करता है। इस दृष्टिकोण से, सत्य सिद्धांतों का पालन करने का संबंध उस आचरण और उस मार्ग से है जिस पर लोग चलते हैं। इसका मतलब यह है कि यदि तुम सत्य का अभ्यास करते हो और परमेश्वर के वचनों में मौजूद सत्य सिद्धांतों का पालन करते हो, तो यह सही मार्ग पर चलना है, जबकि परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की अपेक्षाओं का पालन करना केवल व्यवहार का प्रदर्शन है, बिल्कुल नियमों के पालन की तरह। इसका संबंध सत्य सिद्धांतों से नहीं है, न ही यह उस मार्ग से संबंधित है जिस पर लोग चलते हैं। क्या तुम मेरी बात समझ पा रहे हो? (हाँ।) एक उदाहरण देता हूँ। जैसे, नैतिक आचरण की यह कहावत है, “दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दो,” इसमें किसी भी समय और कैसी भी स्थिति में लोगों से यह अपेक्षा की जाती है कि “छोटे हितों को त्याग दो और बड़े हित हासिल करो”। अविश्वासियों के बीच, यह एक ऐसी शैली है जिसे नेक चरित्र और पक्के ईमान का होना कहा जाता है। “छोटे हितों को त्याग दो और बड़े हित हासिल करो”—कितनी बड़ी लफ्फाजी है! दयनीय बात यह है कि नेक चरित्र और पक्के ईमान का होना केवल एक शैली जैसा लगता है, न कि कोई सत्य सिद्धांत जिसका लोगों को अपने आचरण में पालन करना चाहिए। सच तो यह है कि “छोटे हितों को त्याग दो और बड़े हित हासिल करो” और लोगों को दूसरों की खातिर अपने हित त्याग देने के लिए प्रेरित करने की कहावतों का अंतिम लक्ष्य वास्तव में यह पक्का करना है कि दूसरे उनकी सेवा करें। लोगों के लक्ष्यों और इरादों के दृष्टिकोण से, इस कहावत से शैतानी फलसफों की बू आती है और इसमें लेन-देन का गुण निहित है। इससे क्या तुम यह निर्धारित कर सकते हो कि “छोटे हितों को त्याग दो और बड़े हित हासिल करो” की कहावत में सत्य सिद्धांत मौजूद हैं या नहीं? इसमें बिल्कुल भी नहीं हैं! यह आचरण का सिद्धांत कतई नहीं है, यह पूरी तरह से शैतानी फलसफा है, क्योंकि लोगों का अपने छोटे हितों को त्यागने का मकसद अपने बड़े हित को हासिल करना है। चाहे ऐसा अभ्यास नेक हो या बुरा, यह सिर्फ एक नियम है जो लोगों को बांधता है। यह उचित प्रतीत होता है, लेकिन यह मूलतः निरर्थक और बेतुका है। इसमें यह अपेक्षा की जाती है कि चाहे खुद पर कोई भी मुसीबत आ जाए, तुम्हें दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने होंगे। चाहे तुम इसे करना चाहते हो या नहीं, या चाहे तुम ऐसा कर सकते हो या नहीं, और माहौल कैसा भी हो, तुम्हें बस दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने होंगे। यदि तुम “छोटे हितों का त्याग करने” में सक्षम नहीं होते हो, तो “बड़े हित हासिल करो” का वाक्यांश तुम्हें लुभाने के लिए है, ताकि भले ही तुम दूसरों की खातिर अपने हित त्याग न सको, फिर भी तुम्हारे मन में इसकी लालसा बनी रहे। “बड़े हित हासिल करो” के विचार से लोगों को बहकाया जाता है। ऐसी परिस्थितियों में सही विकल्प चुनना कठिन होता है। तो क्या दूसरों की खातिर अपने हित त्यागना आचरण का सिद्धांत है? क्या इससे सकारात्मक परिणाम प्राप्त हो सकते हैं? हरेक व्यक्ति खुद पर बहुत अच्छी तरह से पर्दा डालता है, और अत्यधिक बड़प्पन, गरिमा और चरित्र का प्रदर्शन करता है, लेकिन अंत में परिणाम क्या होता है? केवल इतना ही कहा जा सकता है कि इससे कुछ नहीं होगा, क्योंकि ऐसा करने से दूसरे लोगों की सराहना तो मिल सकती है, लेकिन सृष्टिकर्ता की स्वीकृति नहीं मिल सकती। ऐसा कैसे होता है? क्या यह हरेक व्यक्ति द्वारा परंपरागत संस्कृति की नैतिक आचरण संबंधी कहावतों का पालन करने और शैतानी फलसफों का अनुसरण करने का परिणाम है? यदि हर कोई परमेश्वर के वचनों को स्वीकारे, सही विचारों और नजरिये को स्वीकारे, सत्य सिद्धांतों पर कायम रहे और जीवन में उस दिशा की ओर चले जिसका मार्गदर्शन परमेश्वर करता है, तो लोगों के लिए जीवन में सही मार्ग पर चलना आसान हो जाएगा। क्या दूसरों की खातिर अपने हितों का त्याग करने की तुलना में इस तरह से अभ्यास करना बेहतर है? इस तरह से अभ्यास करने का मतलब सत्य सिद्धांतों का पालन करना और पाखंड के रास्ते पर शैतान का अनुसरण करने के बजाय परमेश्वर के वचनों के अनुसार रोशनी में रहना है। शैतानी फलसफों और परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कहावतों से मिले विभिन्न विचारों को त्यागकर, और सत्य को स्वीकार कर परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जीने से ही कोई व्यक्ति वास्तविक इंसान की तरह जीवन जी सकता है और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकता है।

ऊपर की गई संगति के आधार पर क्या तुम लोग नैतिक आचरण की कहावतों के सार के बारे में किसी नतीजे पर पहुँचे हो? नैतिक आचरण के बारे में ये विभिन्न कहावतें केवल नियम और परंपराएं हैं जो लोगों के विचारों, नजरिये और बाहरी व्यवहार को सीमित करती हैं। ये आचरण के सिद्धांत या मानदंड तो बिल्कुल नहीं हैं, और ये ऐसे सिद्धांत भी नहीं हैं कि तमाम तरह के लोगों, मामलों और चीजों का सामना करते हुए इनका पालन किया जाए। तो फिर लोगों को किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? क्यों न हम इस विषय पर संगति करें? कुछ लोग कहते हैं : “लोगों को जिन सत्य सिद्धांतों का पालन करना चाहिए उनमें और नैतिक आचरण की कहावतों के नियमों-परंपराओं में क्या अंतर है?” तुम्हीं बताओ, क्या कोई अंतर है? (बिल्कुल है।) वे किस मामले में अलग हैं? नैतिक आचरण की कहावतें केवल नियम और परंपराएं हैं जो लोगों के विचारों, नजरिये और व्यवहार पर अंकुश लगाती हैं। लोगों के सामने आने वाले विभिन्न मामलों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने लोगों पर ऐसी अपेक्षाएं थोप दी हैं जो उनके व्यवहार को सीमित कर उनके हाथ-पैर बाँध देती हैं, और उन्हें विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों से निपटने के लिए सही सिद्धांत और सही रास्ते खोजने देने के बजाय उनसे ऐसे-वैसे काम कराती हैं। वहीं, सत्य सिद्धांत इससे अलग हैं। परमेश्वर के वचन लोगों से जो बहुआयामी अपेक्षाएँ रखते हैं, वे नियम-विनियम या परंपराएँ नहीं हैं, और ये ऐसी कहावतें तो बिल्कुल नहीं हैं जो लोगों के विचार और व्यवहार पर अंकुश लगाएं। बल्कि, ये वचन लोगों को सत्य सिद्धांत बताते हैं जिन्हें उनको समझना चाहिए और हर तरह के माहौल में और कोई भी समस्या आने पर उनका पालन करना चाहिए। तो, ये सिद्धांत आखिर हैं क्या? मैं यह क्यों कहता हूँ कि परमेश्वर के वचन ही सत्य या सत्य सिद्धांत हैं? क्योंकि परमेश्वर के वचन लोगों से जो विभिन्न अपेक्षाएँ रखते हैं उन्हें सामान्य मानवता से प्राप्त किया जा सकता है, जहाँ तक लोगों से यह अपेक्षा की जाती है कि जब भी उन पर कोई मुसीबत आए, तो वे भावनाओं, इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं और अपने भ्रष्ट स्वभावों से प्रभावित और बेबस न हों, बल्कि परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करें, यह ऐसा सिद्धांत है जिसका पालन करने में लोग सक्षम हैं। परमेश्वर के वचनों के सत्य सिद्धांत सही दिशा और लक्ष्य बताते हैं जिसका लोगों को पालन करना चाहिए, और वे वह मार्ग भी हैं जिस पर लोगों को चलना चाहिए। परमेश्वर के वचनों के सिद्धांत न केवल लोगों की अंतरात्मा और विवेक को सामान्य रूप से कार्य करने देते हैं, बल्कि वे स्वाभाविक रूप से सत्य के सिद्धांतों को नींव से यानी लोगों की अंतरात्मा और विवेक से जोड़ते हैं। ये सत्य के ऐसे मानक हैं जिन पर अंतरात्मा और विवेक वाले लोग चल सकते हैं और उन्हें पूरा कर सकते हैं। जब लोग परमेश्वर के वचनों के इन सिद्धांतों का पालन करते हैं, तो इससे उनकी नैतिकता और निष्ठा नहीं बढ़ती है, और न ही उनकी मानवीय गरिमा की रक्षा होती है। बल्कि वे जीवन में सही मार्ग पर चल पड़ते हैं। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के इन सत्य सिद्धांतों का पालन करता है, तो उसके पास न केवल एक सामान्य व्यक्ति की अंतरात्मा और विवेक होता है, बल्कि अंतरात्मा और विवेक रखने की नींव पर, वह अपने आचरण के संबंध में और अधिक सत्य सिद्धांतों को समझने लगता है। सरल शब्दों में कहें, तो वे आचरण के सिद्धांतों को समझ जाते हैं, यह जान लेते हैं कि लोगों और चीजों को देखते समय और अपने आचरण और कार्य में किन सत्य सिद्धांतों का उपयोग करना है, और अब वे अपनी भावनाओं, इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं और भ्रष्ट स्वभावों से नियंत्रित और प्रभावित नहीं होते हैं। इस तरह, वे बिल्कुल एक सामान्य व्यक्ति की तरह जीवन जीने लगते हैं। परमेश्वर द्वारा बताए गए ये सत्य सिद्धांत मूल रूप से लोगों को नियंत्रित करने वाले और उन्हें पाप मुक्त होने से रोकने वाले भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को हल करते हैं, ताकि लोग अब और भावनाओं, इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं और भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित होकर अपना पुराना जीवन जीते न रहें। और इनकी जगह कौन लेता है? परमेश्वर के वचनों का मानक और सत्य सिद्धांत व्यक्ति का जीवन बन जाते हैं। आम तौर पर, एक बार जब लोग उन सत्य सिद्धांतों का पालन करना शुरू कर देते हैं जिनका मानवजाति को पालन करना चाहिए, तो वे देह की विभिन्न परेशानियों में नहीं जीते। और सटीक ढंग से कहें तो लोग अब शैतान के भ्रामक तरीकों, छल-कपट और नियंत्रण में नहीं जीते हैं। विशेष रूप से वे अब जीवन जीने के उन असंख्य विचारों, दृष्टिकोणों और सांसारिक आचरण के फलसफों के बंधन और नियंत्रण में नहीं रहते हैं जो शैतान लोगों के मन में बैठाता है। इसके बजाय वे न केवल गरिमा और निष्ठा के साथ जीते हैं, बल्कि स्वतंत्र रूप से और सामान्य लोगों की समानता के साथ भी जीते हैं, जो कि असल में सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में सृजित प्राणियों के समान जीना है। यही परमेश्वर के वचनों और सत्य और परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण की कहावतों के बीच मूलभूत अंतर है।

आज की संगति का विषय कुछ हद तक गहरा है। इसे सुनने के बाद तुम लोगों को कुछ देर तक इस पर चिंतन-मनन करना चाहिए, इसे अपने अंदर समाहित होने देना चाहिए और देखना चाहिए कि जो कहा गया है वह तुम्हारी समझ में आता है या नहीं। इस संगति से, क्या तुम लोग नैतिक आचरण की कहावतों और सत्य के बीच का अंतर समझ गए हो? मुझे एकदम सरल भाषा में बताओ : नैतिक आचरण की कहावतों का सार क्या है? (नैतिक आचरण की कहावतें केवल नियम और परंपराएं हैं, जो लोगों के विचारों और व्यवहारों पर अंकुश लगाती हैं, वे आचरण के सिद्धांत और मानक नहीं हैं।) सही कहा। परंपरागत संस्कृति में कोंग रोंग[क] द्वारा बड़ी नाशपातियाँ त्याग दिए जाने की एक कहानी है। तुम लोगों को क्या लगता है : क्या कोंग रोंग जैसा न हो सकने वाला व्यक्ति अच्छा इंसान नहीं होता? लोग सोचा करते थे कि जो कोई कोंग रोंग जैसा हो सकता है, वह चरित्रवान और दृढ़ निष्ठा वाला, दूसरों की खातिर अपने हित त्याग देने वाला—अच्छा इंसान होता है। क्या इस ऐतिहासिक कहानी का कोंग रोंग एक आदर्श व्यक्ति है, जिसका सभी ने अनुसरण किया है? क्या लोगों के दिलों में इस किरदार की कोई खास जगह है? (हाँ।) उसका नाम नहीं, बल्कि उसके विचार और अभ्यास, उसकी नैतिकता और व्यवहार लोगों के दिलों में जगह बनाते हैं। लोग ऐसी प्रथाओं का सम्मान और अनुमोदन करते हैं, और वे आंतरिक रूप से कोंग रोंग के नैतिक आचरण की प्रशंसा करते हैं। इसलिए, अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखो जो दूसरों की खातिर अपने हित त्याग नहीं सकता है, जो कोंग रोंग की तरह बड़ी नाशपातियाँ नहीं दे सकता है, तो तुम अंदर-ही-अंदर उससे चिढ़ जाओगे और उसके बारे में नीची राय रखोगे। तो क्या तुम्हारी चिढ़ और उसके बारे में नीची राय रखना सही है? इनका जरूर कोई आधार होगा। सबसे पहले, तुम सोचते हो : “कोंग रोंग इतना छोटा होकर भी बड़ी नाशपातियाँ त्याग देने में सक्षम था, वहीं इतने बड़े होकर भी तुम इतने स्वार्थी हो,” और अंदर-ही-अंदर तुम उसके बारे में नीचा सोचते हो। तो क्या तुम्हारी नीची सोच और चिढ़ कोंग रोंग की बड़ी नाशपातियाँ त्याग देने की कहानी पर आधारित हैं? (हाँ।) क्या लोगों को इस आधार पर आँकना सही है? (नहीं।) यह क्यों सही नहीं है? क्योंकि जिस आधार से तुम लोगों और चीजों को देखते हो, उसका मूल और प्रारंभिक बिंदु ही गलत है। लोगों और चीजों को आँकने के मानक के तौर पर तुम्हारा प्रारंभिक बिंदु, कोंग रोंग द्वारा बड़ी नाशपातियों के त्याग को लेना है, लेकिन यह दृष्टिकोण और आँकने का तरीका गलत है। वे किस प्रकार गलत हैं? वे इस मायने में गलत हैं क्योंकि तुम मानते हो कि कोंग रोंग की कहानी के पीछे का विचार सही है, और तुम इसे लोगों और चीजों को आँकने के लिए एक सकारात्मक वैचारिक दृष्टिकोण के रूप में लेते हो। जब तुम इस तरह से आँकते हो, तो अंत में तुम्हें यह परिणाम मिलता है कि अधिकांश लोग अच्छे नहीं हैं। क्या इस तरह आँकने के परिणाम सटीक हैं? (नहीं, वे सटीक नहीं हैं।) वे सटीक क्यों नहीं हैं? क्यों तुम्हारे आँकने के मानदंड गलत हैं। यदि कोई परमेश्वर के दिए तरीकों और सिद्धांतों का इस्तेमाल करे, तो उसे ऐसे व्यक्ति को कैसे आँकना चाहिए? इस बात पर विचार करके कि क्या वह व्यक्ति परमेश्वर के घर के हितों को कायम रखता है, क्या वह परमेश्वर के पक्ष में हैं, क्या उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, और क्या वह अपने हर काम में सत्य सिद्धांत खोजता है : केवल इन पहलुओं के आधार पर आँकना ही सबसे सटीक है। अगर यह व्यक्ति जब कभी मुसीबत आने पर प्रार्थना करता है, सत्य खोजता है और सबके साथ इस बारे में चर्चा करता है और—भले ही कभी-कभी वह परोपकारी होने में सक्षम नहीं हो और थोड़ा-बहुत स्वार्थी हो—यदि उसके कर्म परमेश्वर की अपेक्षाओं के सामने मूल रूप से पर्याप्त हैं, तो वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य स्वीकार सकता है, और सही मार्ग पर चल रहा है। तो यह निष्कर्ष किस बात पर आधारित है? (यह परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं पर आधारित है।) तो क्या यह निष्कर्ष सटीक है? यदि तुम कोंग रोंग द्वारा बड़ी नाशपातियाँ त्याग देने के वैचारिक दृष्टिकोण का उपयोग करके आँकते हो, तो यह उससे कहीं ज्यादा सटीक है। कोंग रोंग की कहानी का वैचारिक नजरिया लोगों के अस्थायी व्यवहार और तौर-तरीकों को आँकता है, लेकिन परमेश्वर लोगों से इस व्यक्ति के सार के साथ-साथ सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति उसके दृष्टिकोण को आँकने की अपेक्षा करता है। तुम नैतिक आचरण की कहावतों का उपयोग किसी एक घटना में व्यक्ति के अस्थायी व्यवहार या उसके कर्मों या उसके अस्थायी खुलासों को आँकने के लिए करते हो। यदि तुम किसी व्यक्ति के आंतरिक गुणों को आँकने के लिए उनका उपयोग करो, तो यह सटीक नहीं होगा, क्योंकि नैतिक आचरण की कहावतों का उपयोग करके किसी व्यक्ति के आंतरिक गुणों को आँकना गलत सिद्धांतों का उपयोग करके उन्हें आँकना है, और तुम्हें जो परिणाम मिलेगा वह सही नहीं होगा। अंतर व्यक्ति के बाहरी व्यवहार में नहीं, बल्कि उसकी प्रकृति और सार में है। इसलिए, नैतिक आचरण की कहावतों का उपयोग करके लोगों को आँकना मूल रूप से गलत है। केवल सत्य सिद्धांतों का उपयोग करके लोगों को आँकना ही सटीक है। क्या तुम्हें मेरी बात समझ आई?

नैतिक आचरण की कहावतों का सार यह है कि ये ऐसे नियम और परंपराएं हैं जो लोगों के व्यवहार और विचारों को नियंत्रित करती हैं। कुछ हद तक ये लोगों की सोच को सीमित और नियंत्रित करती हैं, और सामान्य मानवता की सोच की कुछ सही अभिव्यक्तियों और सामान्य अपेक्षाओं पर अंकुश लगाती हैं। बेशक यह भी कहा जा सकता है कि कुछ हद तक ये सामान्य मानवता के बचे रहने के कुछ नियमों का उल्लंघन करती हैं, और सामान्य लोगों को उनकी मानवीय आवश्यकताओं और अधिकारों से भी वंचित करती हैं। उदाहरण के लिए, यह पुरानी कहावत “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए” महिलाओं के मानव अधिकारों में जबरन दखल देकर उन्हें खत्म करती है। इससे संपूर्ण मानव समाज में महिलाओं की क्या भूमिका रह जाती है? वे गुलाम बनाए जाने की भूमिका निभाती हैं। यही बात है न? (हाँ।) इस दृष्टिकोण से नैतिक आचरण की इन कहावतों के नियमों और परंपराओं ने मानवीय विचारों को नष्ट कर दिया है, सामान्य मानवता की विभिन्न आवश्यकताओं को छीन लिया है, और साथ ही सामान्य मानवता के विभिन्न विचारों की मानव अभिव्यक्ति को संकुचित कर दिया है। नैतिक आचरण की ये कहावतें मूल रूप से सामान्य लोगों की जरूरतों के आधार पर नहीं बनाई गई हैं, न ही ये उन मानकों पर आधारित हैं जिन्हें सामान्य लोग पूरा कर सकते हैं, बल्कि ये सभी कहावतें लोगों की कल्पनाओं और महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के आधार पर बनाई गई हैं। नैतिक आचरण की ये कहावतें न केवल लोगों के विचारों को बाधित और सीमित करती हैं और उनके व्यवहार पर अंकुश लगाती हैं, बल्कि वे लोगों को झूठी और काल्पनिक चीजों की पूजा करने और उनके पीछे भागने के लिए भी प्रेरित करती हैं। लेकिन लोग उन्हें हासिल नहीं कर सकते, इसलिए वे केवल दिखावा करके खुद को छिपाने और खुद पर पर्दा डालने की कोशिश करते हैं, ताकि वे एक सुसभ्य, आदर्श जीवन जी सकें, ऐसा जीवन जो बहुत सम्मानजनक लगता है। लेकिन सच तो यह है कि नैतिक आचरण के इन विचारों और नजरिये के प्रभाव में रहने का मतलब है कि मानवता के विचार विकृत और सीमित हो गए हैं, और लोग इन भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों के नियंत्रण में रहकर असामान्य और पथभ्रष्ट रूप से जीते हैं, क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।) लोग इस तरह जीना नहीं चाहते हैं, और वे ऐसा करना भी नहीं चाहते, लेकिन वे इन वैचारिक जंजीरों की बाधाओं से मुक्त नहीं हो सकते। उनके पास न चाहते हुए भी और अनजाने में इन विचारों और नजरिये के प्रभाव और दायरे में रहने के सिवाय और कोई चारा नहीं है। साथ ही, जनमत के दबाव और अपने हृदय में बसे इन विचारों और नजरिये के कारण उनके पास एक के ऊपर एक पाखंड के मुखौटे पहनकर इस दुनिया में एक घृणित जीवन को घिसटते हुए जीने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। मानवजाति के लिए नैतिक आचरण की कहावतों का यही दुष्परिणाम है। क्या तुम लोगों को समझ आया? (बिल्कुल।) नैतिक आचरण की इन कहावतों पर हम जितनी अधिक संगति और गहन-विश्लेषण करेंगे, उतना ही लोग उन्हें स्पष्ट रूप से समझ सकेंगे और उतना ही अधिक उन्हें महसूस होगा कि परंपरागत संस्कृति में मौजूद ये तमाम कहावतें सकारात्मक चीजें नहीं हैं। इन्होंने हजारों वर्षों से मनुष्यों को गुमराह किया है और उन्हें इस हद तक नुकसान पहुँचाया है कि परमेश्वर के वचनों को सुनने और सत्य को समझने के बाद भी वे अभी तक परंपरागत संस्कृति के इन विचारों और नजरिये के प्रभाव से खुद को मुक्त नहीं कर पाए हैं, और यहाँ तक कि इनके लिए ऐसी आकांक्षा रखते हैं मानो ये कोई सकारात्मक चीजें हों। बहुत-से लोग इन्हें सत्य के विकल्प के तौर पर भी उपयोग करते हैं, और सत्य के रूप में इनका अभ्यास करते हैं। आज की संगति से क्या तुम लोगों को परंपरागत पारंपरिक संस्कृति में मौजूद नैतिक आचरण की इन कहावतों की ज्यादा अच्छी और सटीक समझ प्राप्त हुई? (हाँ।) अब जब तुम्हें उनकी कुछ समझ हो गई है, तो आओ हम नैतिक आचरण की अन्य कहावतों पर संगति जारी रखें।

फुटनोट :

क. कोंग रोंग एक प्रसिद्ध चीनी कहानी का पात्र है, जिसके जरिये परंपरागत रूप से बच्चों को शिष्टाचार और भाइयों के प्रेम के मूल्यों की शिक्षा दी जाती है। कहानी यह है कि जब चार-वर्षीय कोंग रोंग के परिवार को नाशपातियों की टोकरी मिली, तो कैसे उसने अपने बड़े भाइयों को बड़ी-बड़ी नाशपातियाँ दीं और खुद सबसे छोटी नाशपाती ली।

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