अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए (भाग एक)
बहुत से लोगों को सिर्फ एक-दो साल या सिर्फ तीन से पाँच साल तक अपने कर्तव्यों को निभाने के बाद हटा दिया जाता है। इसका मुख्य कारण क्या है? यह कहा जा सकता है कि इसका मुख्य कारण यह है कि उन लोगों के पास जमीर या विवेक नहीं होता और उनमें मानवता की कमी होती है। वे लोग न केवल सत्य को स्वीकार नहीं करते, बल्कि वे विघ्न-बाधाएँ भी पैदा करते हैं, और वे बेपरवाही से अपने कर्तव्यों को निभाते हैं। वे कभी सत्य को नहीं सुनते, चाहे उनके साथ कैसी भी संगति की जाए, और जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे अनुपालन नहीं करते और विरोध करते हैं। अंत में उन्हें बाहर करने और हटाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता। यह व्यवहार किस समस्या को दर्शाता है? अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए लोगों में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए; इनके बिना उनके लिए डटे रहना मुश्किल होगा। जिन लोगों के पास जमीर और विवेक नहीं होता, उनमें मानवता भी नहीं होती और वे सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते, इसलिए परमेश्वर उन्हें बचा नहीं सकता और भले ही वे श्रम करें, वे पर्याप्त रूप से श्रम नहीं कर पाएँगे। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसके बारे में तुम्हें स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए। जब तुम भविष्य में बिना जमीर और विवेक वाले लोगों का सामना करो—यानी ऐसे लोग जिन में मानवता नहीं है—तो तुम्हें जल्द से जल्द उन्हें हटा देना चाहिए।
कुछ लोग अपने कर्तव्यों को निभाते समय बिल्कुल भी जिम्मेदारी से काम नहीं करते हैं, और हमेशा बेपरवाही करते हैं। हालाँकि वे जानते हैं कि समस्या क्या है, लेकिन फिर भी वे उसका समाधान तलाश नहीं करना चाहते, और वे लोगों को नाराज करने से डरते हैं, इसलिए वे अपने कामों में जल्दबाजी करते हैं, जिसका नतीजा यह निकलता है कि उन्हें वह काम दोबारा करना पड़ता है। चूँकि तुम इस कर्तव्य को निभा रहे हो, इसलिए तुम्हें ही इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। तुम इस बात को गंभीरता से क्यों नहीं लेते हो? तुम इतने असावधान क्यों हो? और जब तुम इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हो तो क्या तुम अपनी जिम्मेदारियों में लापरवाही करते हो? चाहे प्राथमिक जिम्मेदारी कोई भी अपने सिर ले, लेकिन अपने आसपास बाकी चीजों पर नजर रखने के लिए सब जिम्मेदार हैं, हर किसी को यह बोझ उठाना चाहिए और हर किसी में जिम्मेदारी की यह भावना होनी चाहिए—लेकिन तुम लोगों में से कोई भी ध्यान नहीं देता, तुम सचमुच बेपरवाह हो, तुम में बिल्कुल भी वफादारी नहीं है, तुम लोग अपने कर्तव्यों में लापरवाही करते हो! ऐसा नहीं है कि तुम लोग समस्या से अनजान हो बल्कि बात यह है कि तुम जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं होते, और जब तुम कोई समस्या देखते हो, तो तुम इस मामले पर कोई ध्यान नहीं देना चाहते, तुम “काफी है” पर समझौता कर लेते हो। क्या इस तरह से बेपरवाही करना परमेश्वर को धोखा देने का प्रयास नहीं है? यदि जब मैं तुम लोगों के साथ सत्य के बारे में काम करूँ और संगति करूँ, और मुझे लगे कि “काफी है” को स्वीकार किया जा सकता है, तो फिर तुम लोगों में से हर एक की काबिलियत और लक्ष्य के अनुरूप, तुम लोग आखिर उससे क्या हासिल कर सकते हो? यदि मेरा रवैया भी तुम लोगों जैसा होता, तो तुम लोग कुछ भी हासिल नहीं कर सकते थे। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? इसका एक पहलू यह है कि तुम लोग ईमानदारी से कुछ भी नहीं करते, और दूसरा पहलू यह है कि तुम लोगों में काबिलियत की बहुत कमी है, तुम काफी सुन्न हो। इसका कारण यह है कि मेरी नजर में अपनी खराब काबिलियत के साथ तुम लोग बहुत सुन्न हो, और सत्य के प्रति प्रेम नहीं रखते, और सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो, जिसके बारे में मुझे विस्तार से बताना चाहिए। मुझे हर बात स्पष्ट करके बतानी चाहिए, और अपने भाषण में उन्हें टुकड़े-टुकड़े करके बताना चाहिए, और हर पहलू से और हर तरह से इन चीजों के बारे में बात करनी चाहिए। केवल तभी तुम लोगों को कुछ समझ आएगा। यदि मैं तुम लोगों के साथ बेपरवाह होता, और अपनी मर्जी के मुताबिक किसी भी विषय पर बात करता, न उस पर विचार करता और न कष्ट उठाता, दिल से बात न करता, जब मेरा मन न होता तो न बोलता, तो तुम लोग क्या हासिल कर सकते थे? तुम लोगों की जितनी काबिलियत है, तुम लोग कभी भी सत्य को नहीं समझ पाते। तुम कुछ भी हासिल नहीं कर पाते, उद्धार पाना तो बहुत दूर की बात है। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता, बल्कि मैं विस्तार से बताऊँगा। मुझे विस्तार में बात करनी होगी और हर तरह के व्यक्ति की स्थिति, सत्य के प्रति लोगों के रवैये और हर प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव के बारे में उदाहरण देना होगा; तभी तुम लोग जान पाओगे कि मैं क्या कह रहा हूँ, और जो सुन रहे हो उसे समझ पाओगे। मैं चाहे सत्य के किसी भी पहलू पर संगति करूँ, मैं विभिन्न साधनों के माध्यम से बोलता हूँ, वयस्कों और बच्चों से उन्हीं की शैली में संगति करता हूँ, तर्क और कहानियों के रूप में बताता हूँ, सिद्धांत और अभ्यास का उपयोग करता हूँऔर अनुभवों की बात करता हूँ, ताकि लोग सत्य समझकर वास्तविकता में प्रवेश करें। इस तरह, जिनमें क्षमता है और जिनके पास दिल है, उनके पास सत्य समझने, स्वीकारने और बचाए जाने का मौका होगा। लेकिन अपने कर्तव्य के प्रति तुम लोगों का रवैया हमेशा अनमने बने रहने का और धीरे-धीरे काम करने का रहता है, और तुम्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता कि तुम्हारे कारण कितना विलंब हो रहा है। तुम समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की खोज के लिये आत्म-चिंतन नहीं करते, तुम इस पर जरा भी विचार नहीं करते कि परमेश्वर की गवाही देने के लिए अपने कर्तव्य को ठीक से कैसे निभाना है। इसे अपने काम में लापरवाह होना कहते हैं। इस तरह तुम लोगों के जीवन का विकास बहुत धीमी गति से होता है लेकिन तुम्हें इस बात से परेशानी नहीं होती कि तुमने कितना समय बर्बाद कर दिया। वास्तव में, यदि तुम लोग अपना कर्तव्य ईमानदारी और जिम्मेदारी से निभाओ, तो तुम लोग पांच-छह साल में ही अपने अनुभवों की बात करने लगोगे और परमेश्वर की गवाही दोगे, और विभिन्न कार्य प्रभावशाली ढंग से किया जाएगा। लेकिन तुम लोग परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होने को तैयार नहीं हो और न ही तुम सत्य पर चलने का प्रयास करते हो। कुछ चीजें हैं जिन्हें कैसे करना है यह तुम लोग नहीं जानते, इसलिए मैं तुम्हें सटीक निर्देश देता हूँ। तुम लोगों को सोचना नहीं है, तुम्हें बस सुनना है और काम शुरू कर देना है। बस तुम्हें इतनी-सी जिम्मेदारी उठानी है—पर तुम लोगों से यह भी नहीं होता है। तुम लोगों की वफादारी कहाँ है? यह कहीं दिखाई नहीं देती! तुम लोग सिर्फ कर्णप्रिय बातें करते हो। मन ही मन में तो तुम लोग जानते हो कि तुम्हें क्या करना चाहिए, लेकिन तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते। यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह है, इसके मूल में सत्य से प्रेम का अभाव है। दिल ही दिल में तुम लोग अच्छी तरह जानते हो कि सत्य के अनुसार कैसे कार्य करना है—लेकिन तुम इसे अभ्यास में नहीं लाते। यह एक गंभीर समस्या है; तुम सत्य का अभ्यास करने के बजाय उसे घूरते रहते हो। तुम परमेश्वर के आगे समर्पण करने वाले इंसान बिल्कुल भी नहीं हो। परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हें कम-से-कम सत्य खोजना चाहिए और उसका अभ्यास करना चाहिए और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। यदि तुम अपने कर्तव्य निर्वहन में सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, तो फिर इसका अभ्यास कहाँ करोगे? और यदि तुम किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं करते हो, तो तुम छद्म-विश्वासी हो। यदि तुम लोग सत्य नहीं स्वीकारते—सत्य का अभ्यास तो बिल्कुल नहीं करते—और परमेश्वर के घर में बस निरुद्देश्य कार्य करते हो, तो असल में तुम्हारा मकसद क्या है? क्या तुम परमेश्वर के घर को अपना सेवानिवृत्ति का घर या खैरात घर बनाना चाहते हो? यदि ऐसा सोच रहे हो, तो यह तुम्हारी भूल है—परमेश्वर का घर मुफ्तखोरों और उड़ाने-खाने वाले लोगों के लिए नहीं है। जिन लोगों की मानवता अच्छी नहीं है, जो खुशी-खुशी अपना कर्तव्य नहीं निभाते, जो कर्तव्य निभाने योग्य नहीं हैं, उन सबको साफ किया जाना चाहिए; जो छद्म-विश्वासी सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते, उन्हें हटा देना चाहिए। कुछ लोग सत्य समझते तो हैं लेकिन कर्तव्य निभाते हुए उसे अमल में नहीं ला पाते। समस्या देखकर भी वे उसका समाधान नहीं करते और भले ही वे जानते हों कि यह उनकी जिम्मेदारी है, वे उसे अपना सर्वस्व नहीं देते। जिन जिम्मेदारियों को तुम निभाने के काबिल होते हो, जब तुम उन्हें नहीं निभाते हो, तो तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का क्या मूल्य या प्रभाव रह जाता है? क्या इस तरह से परमेश्वर में विश्वास रखना सार्थक है? अगर कोई व्यक्ति सत्य समझकर भी उस पर अमल नहीं करता, उन कठिनाइयों को सह नहीं पाता जो उसे सहनी चाहिए, तो ऐसा व्यक्ति कर्तव्य निभाने योग्य नहीं होता। कुछ लोग सिर्फ पेट भरने के लिए कर्तव्य निभाते हैं। वे भिखारी होते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे परमेश्वर के घर में कुछ काम करेंगे, तो उनके रहने और जीविका का ठिकाना हो जाएगा, बिना नौकरी के ही उनके लिए हर चीज की व्यवस्था हो जाएगी। क्या ऐसी सौदेबाजी जैसी कोई चीज होती है? परमेश्वर का घर आवारा लोगों की व्यवस्था नहीं करता। यदि कोई व्यक्ति सत्य का थोड़ा भी अभ्यास नहीं करता, और जो अपने कर्तव्य निर्वहन में लगातार लापरवाह रहता है और खुद को परमेश्वर का विश्वासी कहता है, तो क्या परमेश्वर उसे स्वीकारेगा? ऐसे तमाम लोग छद्म-विश्वासी होते हैं और जैसा कि परमेश्वर उन्हें समझता है, वे कुकर्मी होते हैं।
जो लोग वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे अपनी लाभ-हानि की गणना किए बिना स्वेच्छा से अपने कर्तव्य निभाते हैं। चाहे तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो या नहीं, तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते समय अपने अंतःकरण और विवेक पर निर्भर होना चाहिए और सच में प्रयास करना चाहिए। प्रयास करने का क्या मतलब है? यदि तुम केवल कुछ सांकेतिक प्रयास करने और थोड़ी शारीरिक कठिनाई झेलने से संतुष्ट हो, लेकिन अपने कर्तव्य को बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेते या सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते, तो यह बेमन से काम करना है—इसे वास्तव में प्रयास करना नहीं कहते। प्रयास करने का अर्थ है उसे पूरे मन से करना, अपने दिल में परमेश्वर का भय मानना, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहना, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने और उसे आहत करने से डरना, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए किसी भी कठिनाई को सहना : यदि तुम्हारे पास इस तरह से परमेश्वर से प्रेम करने वाला दिल है, तो तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा पाओगे। यदि तुम्हारे मन में परमेश्वर का भय नहीं है, तो अपने कर्तव्य का पालन करते समय, तुम्हारे मन में दायित्व वहन करने का भाव नहीं होगा, उसमें तुम्हारी कोई रुचि नहीं होगी, अनिवार्यतः तुम अनमने रहोगे, तुम चलताऊ काम करोगे और उससे कोई प्रभाव पैदा नहीं होगा—जो कि कर्तव्य का निर्वहन करना नहीं है। यदि तुम सच में दायित्व वहन करने की भावना रखते हो, कर्तव्य निर्वहन को निजी दायित्व समझते हो, और तुम्हें लगता है कि यदि तुम ऐसा नहीं समझते, तो तुम जीने योग्य नहीं हो, तुम पशु हो, अपना कर्तव्य ठीक से निभाकर ही तुम मनुष्य कहलाने योग्य हो और अपनी अंतरात्मा का सामना कर सकते हो—यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय दायित्व की ऐसी भावना रखते हो—तो तुम हर कार्य को निष्ठापूर्वक करने में सक्षम होगे, सत्य खोजकर सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाओगे और इस तरह अच्छे से अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे। अगर तुम परमेश्वर द्वारा सौंपे गए मिशन, परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो त्याग किए हैं और उसे तुमसे जो अपेक्षाएँ हैं, उन सबके योग्य हो, तो इसी को वास्तव में प्रयास करना कहते हैं। अब क्या तुम समझे? अगर तुम अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में बेमन से काम करते हो और परिणाम प्राप्त करने की बिल्कुल भी प्रयास नहीं करते, तो तुम पाखंडी हो, भेड़ के वेश में एक भेड़िया हो। तुम लोगों को छल सकते हो, पर तुम परमेश्वर को बेवकूफ़ नहीं बना सकते। यदि कर्तव्य को करते समय, कोई सच्चा मूल्य न हो, तुम्हारी कोई निष्ठा न हो, तो यह मानक के अनुसार नहीं है। यदि तुम परमेश्वर में अपनी आस्था और अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए सचमुच प्रयास नहीं करते; यदि तुम हमेशा बिना मन लगाए काम करते हो और अपने कामों में लापरवाह रहते हो, उस अविश्वासी की तरह जो अपने मालिक के लिए काम करता है; यदि तुम केवल नाम-मात्र के लिए प्रयास करते हो, अपना दिमाग इस्तेमाल नहीं करते, किसी तरह हर दिन यूँ ही गुजार देते हो, उन समस्याओं को देखकर उनसे आँखें फेरते हो, परेशानी में फँसे लोगों के प्रति उदासीन रहते हो, और विवेक शून्य तरीके से हर उस बात को ख़ारिज करते हो जो तुम्हारे व्यक्तिगत लाभ की नहीं—तो क्या यह समस्या नहीं है? ऐसा कोई व्यक्ति परमेश्वर के घर का सदस्य कैसे हो सकता है? ऐसे लोग अविश्वासी होते हैं; वे परमेश्वर के घर के नहीं हो सकते। परमेश्वर उनमें से किसी को भी स्वीकार नहीं करता। तुम सच्चे हो या नहीं, तुमने प्रयास किया हो या नहीं, परमेश्वर इन बातों का हिसाब रखता है और इस बात को तुम भी अच्छी तरह जानते हो। तो क्या तुमने कभी सचमुच अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास किया है? क्या तुमने इसे गंभीरता से लिया है? क्या तुमने इसे अपना दायित्व, अपनी बाध्यता माना है? क्या तुमने इसकी जिम्मेदारी ली है? तुम्हें इन मामलों पर ठीक से विचार कर इन्हें जानना चाहिए, जिससे तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में जो समस्याएँ आ रही हैं, उन्हें दूर करना आसान हो जाएगा, यह तुम्हारे जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद होगा। यदि तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए हमेशा गैर-जिम्मेदार बने रहोगे, और समस्याओं के पता लगने पर उनके बारे में अगुआओं और कर्मियों को नहीं बताओगे, न ही उन्हें अपने दम पर हल करने के लिए सत्य खोजोगे और यही सोचते रहोगे कि “परेशानी जितनी कम हो उतना अच्छा है,” हमेशा सांसारिक आचरण के फलसफों के सहारे जिओगे, अपने कर्तव्य को निभाते समय अनमने बने रहोगे, कोई निष्ठा नहीं रखोगे, काट-छाँट के समय सत्य नहीं स्वीकारोगे—यदि तुम इस तरह से अपना कर्तव्य निभाओगे, तो तुम खतरे में हो; तुम श्रमिकों में से एक हो। श्रमिक परमेश्वर के घर के सदस्य नहीं होते, बल्कि कर्मचारी, भाड़े के मजदूर होते हैं, जिन्हें काम समाप्त होते ही हटा दिया जाएगा और वे स्वाभाविक रूप से तबाही में जा गिरेंगे। परमेश्वर के घर के लोग अलग हैं; जब वे अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो यह धन के लिए या प्रयास करने या आशीषों के लिए नहीं होता। वे सोचते हैं, “मैं परमेश्वर के घर का सदस्य हूँ। जो मामले परमेश्वर के घर से सरोकार रखते हैं, वे मुझसे सरोकार रखते हैं। परमेश्वर के घर के मामले मेरे मामले हैं। मुझे अपना दिल परमेश्वर के घर में लगाना चाहिए।” इस वजह से वे हर उस मामले में अपना दिल लगाते हैं, जो परमेश्वर के घर से सरोकार रखता है, और उसकी जिम्मेदारी लेते हैं। वे हर उस चीज की जिम्मेदारी लेते हैं, जिसे वे सोच और देख सकते हैं। वे उन चीज़ों पर नज़र रखते हैं जिन्हें संभालने की ज़रूरत होती है, और वे मामले को दिल से लेते हैं। ये परमेश्वर के घर के लोग हैं। क्या तुम लोग भी ऐसे ही हो? (नहीं।) अगर तुम केवल दैहिक सुख-सुविधाओं के पीछे लालायित रहते हो, परमेश्वर के घर में ऐसी चीजें हैं जिन्हें संभालने की जरूरत है, तेल की बोतल गिरने पर उसे उठाते नहीं, और तुम्हारा दिल जानता है कि समस्या है लेकिन तुम उसे हल नहीं करना चाहते, तो तुम परमेश्वर के घर को अपना नहीं मानते। क्या तुम लोग ऐसे ही हो? अगर ऐसा है, तो तुम लोग इतने नीचे गिर गए हो कि तुममें और अविश्वासियों में कोई भेद नहीं है। अगर तुम पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम लोगों को परमेश्वर के घर के बाहर माना जाना चाहिए; तुम्हें किनारे करके हटा दिया जाना चाहिए। तथ्य यह है कि परमेश्वर अपने दिल में तुम लोगों को अपने परिवार के सदस्य मानना चाहता है, लेकिन तुम लोग सत्य नहीं स्वीकारते, और अपने कर्तव्य निभाने में हमेशा अनमने और गैर-जिम्मेदार रहते हो। तुम लोग पश्चात्ताप नहीं करते, चाहे सत्य के बारे में तुम्हारे साथ कैसे भी संगति की जाए। यह तुम लोग हो, जिन्होंने खुद को परमेश्वर के घर के बाहर रखा है। परमेश्वर तुम लोगों को बचाना और अपने परिवार के सदस्यों में बदलना चाहता है, लेकिन तुम लोग इसे स्वीकार नहीं करते। तो तुम लोग उसके घर के बाहर हो; तुम अविश्वासी हो। जो कोई सत्य को लेशमात्र भी नहीं स्वीकारता, उसे केवल वैसे ही सँभाला जा सकता है, जैसे किसी अविश्वासी को सँभाला जाता है। तुम ही हो, जिन्होंने अपना परिणाम और स्थिति स्थापित की है। तुमने उसे परमेश्वर के घर के बाहर स्थापित किया है। इसके लिए तुम्हारे अलावा और कौन दोषी है? मैंने देखा है कि बहुत से लोग बेजान जानवरों की तरह होते हैं : दिन-ब-दिन उन्हें केवल खाना और काम करना ही आता है, वे कभी भी परमेश्वर के वचन को नहीं खाते या पीते, और वे कभी भी सत्य पर संगति नहीं करते। वे इस जीवन में आध्यात्मिक मामलों के बारे में कुछ भी नहीं समझते, और हर समय अविश्वासियों की तरह जीते हैं; वे मनुष्य के भेस में छिपे हुए जानवर हैं। ऐसे लोग पूरी तरह से बेकार हैं, और उन्हें श्रम करने के लिए भी उपयोग नहीं किया जा सकता। वे रद्दी माल की तरह हैं, उन्हें हटा देना चाहिए और तुरंत कहीं दूर भेज देना चाहिए, और उनमें से किसी को भी रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। जो लोग सच में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, और वे ऐसे लोग होते हैं जो इस बात की परवाह किए बिना समर्पण करते हैं कि उनके साथ सत्य पर संगति कैसे की गई है, या उनकी काट-छाँट कैसे की गई है; वे ऐसे लोग हैं जिनके पास यह विवेक है, और जो अपने कर्तव्य को निभाते समय बात सुनते हैं और समर्पण करते हैं। चाहे वे किसी भी कर्तव्य को निभा रहे हों, वे अपने ऊपर जिम्मेदारी लेने, कार्य को ठीक तरह से करने और इस काम को करने में सक्षम होते हैं। केवल इस प्रकार के लोग ही मानव कहलाने के योग्य हैं, और केवल यही लोग परमेश्वर के घर के सदस्य हैं। जो लोग श्रम करते हैं वे केवल मुफ्तखोर होते हैं, परमेश्वर उनका तिरस्कार करता है, वे भाई-बहन नहीं होते, और वे छद्म-विश्वासी होते हैं। यदि तुम उनके साथ भाई-बहनों जैसा व्यवहार करोगे तो तुम अंधे और मूर्ख हो। अब समय आ गया है कि हर किसी को अपनी तरह के समूह में रखा जाए। यह वह समय है जब परमेश्वर लोगों को बेनकाब करता है और उन्हें हटाता है। यदि तुम लोग परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो, तो तुम्हें सत्य का अच्छी तरह से अनुसरण करना चाहिए और अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाना चाहिए। यदि तुम इस बारे में अपनी अनुभवात्मक गवाही साझा कर सकते हो तो इस से साबित होता है कि तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति हो, और यह कि तुम्हारे पास कुछ सत्य वास्तविकताएँ हैं। लेकिन यदि तुम अपनी कोई भी अनुभवात्मक गवाही साझा नहीं कर सकते, तो तुम एक श्रमिक हो और तुम्हारे हटाए जाने का खतरा है। यदि तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाते हो और जिम्मेदार और वफादार हो, तो तुम एक वफादार श्रमिक हो और तुम रह सकते हो। जो भी वफादार श्रमिक नहीं है, उसे हटा दिया जाएगा। इसलिए केवल अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने से ही तुम परमेश्वर के घर में अडिग रह सकते हो, और आपदा से बचाए जा सकते हो। अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाना बहुत महत्वपूर्ण है। कम से कम परमेश्वर के घर के लोग ईमानदार लोग हैं। वे ऐसे लोग हैं जो अपने कर्तव्य के मामले में भरोसेमंद हैं, जो परमेश्वर के आदेश को स्वीकार कर सकते हैं, और वफादारी से अपना कर्तव्य निभा सकते हैं। यदि लोगों में सच्ची आस्था, जमीर और विवेक नहीं है, और यदि उनमें परमेश्वर के प्रति डर मानने वाला दिल और समर्पण नहीं है, तो वे कर्तव्यों को निभाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं। भले ही वे अपना कर्तव्य निभाते हैं, लेकिन ऐसा करते समय वे लापरवाही से काम लेते हैं। वे लोग श्रमिक हैं—ऐसे लोग जिन्होंने सच्चे दिल से पश्चात्ताप नहीं किया है। इस तरह के श्रमिकों को आज नहीं तो कल हटा दिया जाएगा। केवल वफादार श्रमिकों को ही बख्शा जाएगा। यद्यपि वफादार श्रमिकों के पास सत्य वास्तविकताएँ नहीं होतीं, उनके पास जमीर और विवेक होता है, वे ईमानदारी से अपने कर्तव्यों को निभाने में सक्षम होते हैं और परमेश्वर उन्हें बख्श देता है। जिनके पास सत्य वास्तविकताएँ होतीं हैं और जो परमेश्वर की शानदार गवाही दे सकते हैं, वे उसके लोग हैं, और उन्हें भी बख्श दिया जाएगा और उसके राज्य में लाया जाएगा।
फिलहाल अपने कर्तव्यों के प्रति तुम लोगों के दृष्टिकोण, काम करने में तुम्हारी दक्षता और तुम्हारे कर्तव्यों में तुम्हें मिलने वाले फल को देखें, तो तुम लोग अभी भी ठीक से अपने कर्तव्य नहीं निभा रहे हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम लोग बहुत बेपरवाह हो और तुम बहुत सारे काम लापरवाही से बिना किसी उत्साह के करते हो; तुम बहुत सारे मामलों में ध्यान नहीं देते, और विनियमों का पालन करने का बहुत दिखावा करते हो। इसका कारण क्या है? क्या इसका संबंध तुम्हारी काबिलियत और लक्ष्य से है? काबिलियत की कमी वाले लोग और अव्यवस्थित लोग इसी तरह से अपने कर्तव्य निभाते हैं, और जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे भी इसी तरह अपने कर्तव्य निभाते हैं। तो फिर तुम लोग वास्तव में किसका अनुसरण कर रहे हो? क्या तुम लोग सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हो? (नहीं।) यह बात पूरी तरह से स्पष्ट है कि तुम लोग सत्य का अनुसरण करने वाले लोग नहीं हो। तुम सभी लोगों के वर्तमान आध्यात्मिक कद को देखते हुए तो यही लगता है कि चाहे सत्य के बारे में तुम्हारी समझ कितनी ही गहरी या सतही क्यों न हो, जितनी भी तुम्हें समझ है तुम्हें उसके मुताबिक अभ्यास करना चाहिए—क्या तुम्हारे लिए यह करना आसान है? तुम्हारे बाहरी वातावरण और व्यक्तिपरक कारकों के आधार पर तुम सब को यह करने में कुछ कठिनाइयाँ आ रही हैं। हालाँकि तुम लोग बुरे भी नहीं हो, तुम मसीह विरोधी नहीं हो, और तुम्हारी मानवता उतनी बुरी भी नहीं है। इसके अलावा बेशक तुम में से अधिकांश लोग औसत काबिलियत रखते हैं, लेकिन फिर भी तुम्हें सत्य समझ आ सकता है। इससे तय होता है कि सत्य का अनुसरण करना तुम लोगों के लिए ज्यादा कठिन नहीं होगा। कुछ गहरे सत्य तुम लोगों को समझ न भी आएँ, लेकिन यदि मैं उनके बारे में स्पष्ट रूप से और विस्तारपूर्वक बात करूँ तो तुम लोग उन्हें समझकर पकड़ पाओगे। चाहे तुम लोगों की समझ कितनी ही गहरी या सतही क्यों न हो, जब तक तुम सत्य को समझ रहे हो और जब तक तुम्हारे पास मार्ग है, तब तक तुम्हें पता होगा कि अभ्यास कैसे करना है। यह सत्य की खोज करने और इसका अभ्यास करने की एक बुनियादी शर्त है, और यह एक ऐसी शर्त है जिसे तुम सब लोग पूरा करते हो। इसके अनुसार तुम लोगों को सत्य का अनुसरण करने और उसका अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए। तो फिर तुम लोग अभी तक सत्य का अभ्यास क्यों नहीं कर पाए हो? क्या तुम्हारे रास्ते में कोई बाधा है? कोई भी बाधा नहीं होनी चाहिए, और तुम सभी लोगों को सत्य का अभ्यास करने और अपने कर्तव्यों के दायरे के अंतर्गत सिद्धांतों के अनुसार काम करने में सक्षम होना चाहिए। तुम्हारे पास यह एक अद्भुत अवसर है लेकिन फिर भी तुम लोग इसे प्राप्त नहीं कर पा रहे? इस से क्या पता चलता है? सबसे पहले इससे पता चलता है कि तुम सत्य को पसंद नहीं करते और इसमें रुचि नहीं रखते। दूसरी बात, यह दर्शाता है कि तुम्हें इस चीज की सच्ची समझ नहीं है कि सत्य का अनुसरण और इसका अभ्यास कैसे करना है, और यह कि तुम में इस बात की भी ज्यादा समझ नहीं है कि सत्य का अभ्यास करने का अर्थ क्या है, सत्य का अभ्यास करने का महत्व और मूल्य क्या है, और सत्य का अभ्यास करना क्यों बहुमूल्य है। इन बातों को समझे बिना तुम सत्य में और सत्य का अभ्यास करने में दिलचस्पी के बगैर इन चीजों में बस भ्रमित रहते हो, और फिर भी तुम मन ही मन यही सोच रहे हो, “सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने और सत्य का अभ्यास करने का क्या फायदा है?” तुम्हारे ऐसे विचारों से साबित होता है कि तुम सत्य की कीमत नहीं जानते, तुम ने अभी तक सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने और सत्य का अभ्यास करने के फायदों का व्यक्तिगत रूप से अनुभव नहीं किया है, और यह कि तुम्हें उनके महत्व का कोई एहसास नहीं है, इसलिए सत्य का अभ्यास करने में तुम्हारी रुचि नहीं है। बेशक तुम कुछ हद तक उपदेश सुनने में रुचि रखते हो और तुम्हारे अंदर थोड़ी जिज्ञासा भी है, लेकिन जब भी सत्य का अभ्यास करने की बात आती है, तो तुम ज्यादा रुचि नहीं दिखाते। कुछ लोग उपदेशों को सुनने और परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए तो तैयार रहते हैं, और वे अपने कार्य करते समय सत्य का अभ्यास करने के लिए भी तैयार होते हैं, लेकिन जब सच में सत्य का अभ्यास करने का समय आता है, तो वे पीछे रह जाते हैं। सांसारिक आचरण की उनकी प्राथमिकताएँ और फलसफे उभरकर सामने आ जाते हैं, और उनके भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो जाते हैं, जैसे आलस्य, आराम की हवस, धूर्तता और रुतबा पाने के लिए होड़। वे अपने कर्तव्यों के मामले में पूरी तरह से गैर जिम्मेदार होते हैं, और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपने मामले बिल्कुल नहीं सँभालते। वे केवल कड़ी मेहनत करते हैं और अपना काम करते हैं, और जब तक उन्हें कोई कष्ट नहीं होता वे संतुष्ट रहते हैं, और वे किसी भी मामले के बारे में विवेकशील नहीं होते। वे तब भी आत्म-चिंतन नहीं करते जब उन्हें पता होता है कि उन्होंने अपने कर्तव्यों को ठीक से नहीं निभाया है, इसके बजाय वे बेपरवाह तरीके से अपने कर्तव्यों को निभाते रहते हैं। लंबी अवधि के दौरान वे सुस्त, मंद-बुद्धि बन जाते हैं और उदासीन हो जाते हैं। यह दशा एक श्रमिक की होती है।
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