अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए (भाग तीन)
जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे ही परमेश्वर में सच्ची आस्था रखते हैं। उनके अंदर भावनाएँ होती हैं, जो उनके जमीर और विवेक से प्रेरित होती हैं; वे अपने दिल में मानते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं; वे मानते हैं कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही होता है, और लोगों को बचाने और शुद्ध करने के उद्देश्य से करता है। भले ही वह लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो या न हो, यह उनके लिए फायदेमंद होता है। जो लोग परमेश्वर पर सच्चा विश्वास नहीं रखते उनके पास जमीर नहीं होता और उनके पास विवेक भी नहीं होता, और न ही वे जमीर या विवेक होने की परवाह करते हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया हमेशा आधा विश्वास और आधा अविश्वास करने वाला होता है; उनके दिल यह महसूस नहीं कर सकते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। तो परमेश्वर के अस्तित्व के बारे में उनकी सोच क्या होती है? वे अपने दिलों में यह सोचते हैं, “यदि परमेश्वर मौजूद है, तो वह कहाँ है? मुझे तो वह दिख नहीं रहा। मुझे नहीं पता कि परमेश्वर वास्तव में मौजूद है या नहीं। यदि तुम मानते हो कि वह मौजूद है, तो वह है; यदि तुम नहीं मानते, तो वह मौजूद नहीं है।” यह उनकी सोच होती है। फिर भी वे इस बारे में गहराई से विचार करते हैं, सोचते हैं, “इतने सारे लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसकी गवाही दी है। शायद वास्तव में परमेश्वर मौजूद है। मुझे उम्मीद है कि परमेश्वर मौजूद है, क्योंकि फिर मैं स्थिति का लाभ उठा सकता हूँ और आशीष प्राप्त कर सकता हूँ। ऐसा हुआ तो मैं भाग्यशाली हो जाऊँगा।” उनकी मानसिकता भाग्य और जुए वाली है और बस अपने मनोरंजन के लिए इसमें भाग लेना चाहते हैं; उनकी सोच यह होती है कि भले ही उन्हें आशीष न मिले, इस से उनका कोई नुकसान नहीं है, क्योंकि उन्होंने कुछ भी निवेश नहीं किया है। परमेश्वर के अस्तित्व के प्रति उनकी सोच और रवैया यह होता है, “क्या परमेश्वर वास्तव में मौजूद है? मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता। परमेश्वर कहाँ है? मुझे निश्चित रूप से पता नहीं है। क्या ये सभी लोग जिन्होंने गवाही दी है सच्चे हैं? या वे झूठ बोल रहे हैं? मुझे निश्चित रूप से नहीं पता।” उनका दिल इन सभी मुद्दों पर प्रश्नचिह्न लगाता है; वे इसका पता नहीं लगा सकते और इसलिए वे लगातार इस मामले में संदेह करते रहते हैं। परमेश्वर में उनका विश्वास संदेह और गलत सोच के रवैये से दूषित होता है। जब परमेश्वर बात करता है और सत्य व्यक्त करता है, तो उसके वचनों के प्रति उनका रवैया क्या होता है? (संदेह और अविश्वास।) यह उनकी मुख्य सोच नहीं है; तुम लोग इस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं देख रहे हो। क्या वे परमेश्वर के वचन को सत्य मानते हैं? (नहीं।) वे क्या सोचते हैं? “इतने सारे लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़ना पसंद करते हैं, तो फिर मुझे यह दिलचस्प क्यों नहीं लगता? परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और सत्य को समझने से क्या हासिल किया जा सकता है? इसमें फायदा क्या है? क्या तुम वास्तव में स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हो? लोग स्वर्ग का राज्य नहीं देख सकते। मुझे तो यह लगता है कि परमेश्वर पर विश्वास करने का कुछ तो वास्तविक फायदा होना चाहिए; कुछ वास्तविक लाभ तो होना ही चाहिए।” उन्हें इस बात की चिंता होती है कि अगर वे सत्य को नहीं समझेंगे तो उन्हें हटा दिया जाएगा, इसलिए वे कभी-कभी धर्मोपदेश सुन लेते हैं। लेकिन फिर वे चिंतन करते हुए सोचते हैं, “लोग कहते हैं कि परमेश्वर के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य होती है, तो फिर मैं इसे क्यों नहीं सुनता या महसूस नहीं करता? लोग कहते हैं कि परमेश्वर के वचन लोगों को बदल सकते हैं, तो फिर उसके वचनों ने मुझे क्यों नहीं बदला? मैं आज भी देह के आराम के पीछे उतना ही भागता हूँ जितना पहले भागता था; खाना और कपड़े मेरी पसंद हैं; मेरा मिजाज उतना ही खराब है जितना पहले था; जब बड़ा लाल अजगर मुझ पर अत्याचार करता है तो मुझे अभी भी डर लगता है। मेरे अंदर अभी भी आस्था क्यों नहीं है? परमेश्वर लोगों से ईमानदार बनने के लिए कहता है; वह उनसे सत्य और मानवता अपनाने के लिए कहता है। क्या ईमानदार लोग मूर्ख नहीं होते? परमेश्वर लोगों से चाहता है कि वे परमेश्वर का भय मानें और बुराई से दूर रहें, लेकिन कितने लोग वास्तव में ऐसा कर पाते हैं? मनुष्य स्वार्थी प्रकृति का होता है। यदि तुम अपनी मानवीय प्रकृति के पीछे चलोगे, तो तुम्हें सोचना चाहिए कि तुम अपने लिए आशीष कैसे प्राप्त करोगे। तुम्हें खुद को लाभ पहुँचाने के लिए कोई उपाय करना होगा। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए। तुम्हें अपनी नियति अपने हाथों में लेनी चाहिए; तुम्हें अपनी खुशी खुद ढूँढ़नी चाहिए। यह सबसे वास्तविक चीज है। यदि लोग आपस में नहीं लड़ेंगे और अपने लिए चीजें नहीं छीनेंगे और यदि वे शोहरत, लाभ और फायदे के लिए नहीं जी रहे हैं, तो उन्हें कुछ भी नहीं मिलेगा। कोई भी तुम्हारी झोली में लाकर ये चीजें नहीं डालेगा। मन्ना वास्तव में कभी भी स्वर्ग से नहीं गिरता!” ये हैं उनके विचार और सोच, सांसारिक आचरण के उनके फलसफे और वे तर्क और नियम जिनके सहारे वे जीवित हैं। क्या ऐसे विचार और सोच रखने वाले लोग छद्म-विश्वासी होते हैं? यह ठीक वही रवैया है जो छद्म-विश्वासी लोग सत्य के प्रति रखते हैं। उनके दिमाग नहीं जानते कि सत्य क्या है, नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों का अधिकार और सामर्थ्य कहाँ जाहिर होती है और नहीं जानते कि परमेश्वर लोगों के परिणाम की व्यवस्था कैसे करता है। वे सिर्फ सामर्थ्य की पूजा करते हैं और उन लाभों की तलाश करते हैं जो उनके सामने हैं। वे सोचते हैं कि यदि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं तो उन्हें आशीष मिलना चाहिए; और यदि परमेश्वर लोगों को सौभाग्य प्रदान करता है, उनके जीवन को धन और बहुलता से भर देता है और उन्हें एक खुशहाल जीवन देता है, तो केवल तभी यह एक सच्चा मार्ग होगा। उन्हें यह विश्वास नहीं है कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, उन्हें यह विश्वास नहीं है कि परमेश्वर को सभी चीजों पर संप्रभुता प्राप्त है, इस बात को तो छोड़ ही दें कि परमेश्वर के वचन किसी व्यक्ति के स्वभाव या किस्मत को बदल सकते हैं। इसलिए उन्होंने परमेश्वर पर विश्वास करते हुए कभी भी सत्य का अनुसरण नहीं किया है। सारांश यह है कि चूँकि वे परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन और अपने जीवन के लक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं करते, इसलिए परमेश्वर में उनकी आस्था लगातार कमजोर होती जा रही है; उन्हें न तो परमेश्वर के वचनों को पढ़ने में रुचि है और न ही धर्मोपदेश सुनने में; जब सत्य पर संगति हो रही होती है तो वे कई बार सो भी जाते हैं। इससे भी बढ़कर उन्हें यह भी लगता है कि अपना कर्तव्य निभाना एक अतिरिक्त बोझ है और वे बिना किसी फायदे के काम कर रहे हैं। उनके दिल उस जमाने के लिए तरसते हैं जब परमेश्वर का कार्य पूरा होगा, जब परमेश्वर उन्हें अपना फैसला सुना देगा और वे जान जाएँगे कि क्या वे वास्तव में आशीष प्राप्त करेंगे या नहीं। यदि वे यह जान लें कि इस तरह से परमेश्वर पर विश्वास करने से वे कभी भी आशीष प्राप्त नहीं करेंगे, कि उन्हें निश्चित रूप से हटा दिया जाएगा और यह कि वे अभी भी किसी आपदा के कारण मर जाएँगे, तो फिर वे अभी ही पीछे हट सकते हैं। यद्यपि वे कहते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन दिल में उन्हें उसके बारे में संदेह होता है। वे कहते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, लेकिन उनके दिल सत्य में विश्वास नहीं करते। उन्होंने कभी भी परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ा है, और न ही उन्होंने कभी वास्तव में किसी धर्मोपदेश को सुना है। उन्होंने कभी भी सत्य पर संगति नहीं की है, और कभी भी अपने कर्तव्य को निभाते हुए सत्य की खोज नहीं की है; वे केवल अपने स्वयं के प्रयासों का उपयोग करते हैं। यह एक ठेठ छद्म-विश्वासी की पहचान है। वे अविश्वासी लोगों से अलग नहीं हैं।
हालाँकि छद्म-विश्वासी लोग स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर मौजूद है, लेकिन वे सत्य में विश्वास नहीं करते और इसे स्वीकार नहीं करते। वे अपने दिलों में जानते हैं कि परमेश्वर छद्म-विश्वासियों को नहीं बचाता, तो फिर वे परमेश्वर के घर में अपने प्रवास को अधिक समय तक क्यों खींचते हैं? (आशीष पाने के लिए।) वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि वे आशीष प्राप्त कर सकें; यह मामला उनके हितों से जुड़ा है। छद्म-विश्वासियों के दिलों में आशीष प्राप्त करने की अपेक्षा होती है और वे यह मानते हैं कि अंत में यदि वे परमेश्वर में विश्वास करेंगे, उसे स्वीकार करेंगे और उस पर संदेह नहीं करेंगे या उसे नहीं छोड़ेंगे तो वे सौभाग्यशाली बन जाएँगे। नतीजतन, इस “आस्था” से लैस हो कर वे परमेश्वर के घर में अपने पैर जमा लेते हैं, और फिर कोई भी चीज उन्हें वहाँ से निकलने के लिए नहीं मना सकती। अपने मन में तो वे सब कुछ समझते हैं और वे जरा भी मूर्ख नहीं हैं; बात सिर्फ इतनी है कि वे सत्य को नहीं समझते। उनका मानना है कि जब तक वे कोई बुरे काम नहीं कर रहे या कलीसिया के कार्य में बाधा नहीं डाल रहे, तब तक उन्हें कलीसिया से बाहर नहीं निकाला जाएगा या निष्कासित नहीं किया जाएगा, और यह कि परमेश्वर का कार्य समाप्त होने तक अपना समय पूरा करके वे अंत में विजेता साबित होंगे और आशीष प्राप्त करेंगे। उन्होंने अपने हिसाब से सब सोच रखा है, लेकिन एक चीज ऐसी है जिसे वे बदल नहीं सकते : चूँकि वे इस बात पर विश्वास नहीं करते कि देहधारी परमेश्वर ही एकमात्र सच्चा परमेश्वर है, और वे हर चीज के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता पर संदेह करते हैं, वे कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे। अंत में उन लोगों के साथ क्या होता है जो सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते? (उन्हें हटा दिया जाता है।) हाँ, उन सब को हटा दिया जाता है। ये छद्म-विश्वासी सत्य में दिलचस्पी नहीं रखते बल्कि हमेशा आशीष पाने की आशा पालते रहते हैं। परमेश्वर की धार्मिकता के बारे में उनकी समझ और परिभाषा उनकी अपनी कल्पनाओं और अपेक्षाओं से दूषित होती है और वे डूबते को तिनके के सहारे की तरह अपने प्यारे जीवन को बचाने के लिए “परमेश्वर धार्मिक है” जैसे वाक्यांश से चिपके रहते हैं। इसका क्या अर्थ है कि वे अपने प्यारे जीवन को बचाने के लिए इस वाक्यांश से चिपके हुए हैं? इसका अर्थ यह है कि वे हमेशा परमेश्वर की धार्मिकता के बारे में पक्षपात करते हैं और गलत अनुमान लगाते हैं। वे सोचते हैं, “हे परमेश्वर, चूँकि तुम धार्मिक हो, इसलिए मैं जो कुछ भी करता हूँ, तुम्हें इस धार्मिकता के आधार पर ही उससे निपटना चाहिए। मैंने कोई बुराई नहीं की है, न ही मैंने विघ्न-बाधाएँ डाली हैं, इसलिए तुम्हें मुझ पर भरपूर दया करनी चाहिए और मुझे जीवित रहने देना चाहिए।” यह वह तिनका है जिससे वे अपने प्यारे जीवन के लिए चिपके हुए हैं। क्या उनका यह विचार निष्पक्ष और वास्तविक है? (यह अवास्तविक है।) यह अवास्तविक क्यों है? वे पूरी तरह से परमेश्वर की धार्मिकता में विश्वास नहीं करते, वे अपनी किस्मत आजमाने की मानसिकता के साथ उस पर दाँव लगाना चाहते हैं और यह आशा करते हैं कि परमेश्वर उनकी इच्छाओं को पूरा करेगा। क्या यह केवल खयाली पुलाव पकाना नहीं है? वे यह नहीं जानते कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव कैसा होता है, वे सत्य की खोज नहीं करते, और वे परमेश्वर को जानने की कोशिश नहीं करते और वे विशेष रूप से परमेश्वर के वचन की खोज भी नहीं करते। वे बस इस खयाली पुलाव की सोच के कारण विश्वास कर रहे होते हैं, और उनमें अपनी किस्मत आजमाने का गुण भी होता है। वे इस तरह से क्यों सोच पाते हैं? क्योंकि उन्हें इससे लाभ होता है : यह तिनका उनकी अंतिम जीवन रेखा होता है; यह वह आखिरी उम्मीद है जिस पर उन्होंने अपना सारा दाँव लगा दिया है। इस आशा के साथ अपने जीवन को दाँव पर लगाकर क्या वे हारने की उम्मीद करते हैं? (नहीं।) जब लोग दाँव लगाते हैं, तो वे आमतौर पर जीतने की उम्मीद करते हैं, तो इन लोगों को किस चीज से चिपके रहने की जरूरत है ताकि उन्हें लगे कि वे जीत सकते हैं, और वे सुनिश्चित हो सकें कि वे जरूर जीतेंगे? वह यह वाक्यांश होता है : “परमेश्वर धार्मिक है।” क्या ये छद्म-विश्वासी जो कहते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है, वास्तव में विश्वास करते हैं कि वह धार्मिक है? क्या वे वास्तव में यह विश्वास करते हैं कि वह प्रत्येक व्यक्ति को उनके कार्यों के अनुसार प्रतिफल देगा? क्या परमेश्वर की सच्ची धार्मिकता वैसी ही धार्मिकता है जैसी वे समझते हैं? (ऐसा नहीं है।) क्या वे जानते हैं कि यह ऐसी नहीं है? (वे जानते हैं।) तो वे अभी भी यह क्यों कहते रहते हैं कि “परमेश्वर धार्मिक है”? उनके इस वाक्यांश में क्या अर्थ छिपा होता है? इसके पीछे उनके क्या इरादे होते हैं? (वे परमेश्वर से अपनी मांगें पूरी करवाने और खुद को जीवित रहने देने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए इन वचनों का उपयोग करना चाहते हैं।) हाँ, इस वाक्यांश के पीछे एक उद्देश्य होता है : वे इसके माध्यम से परमेश्वर से जबरदस्ती करने की कोशिश कर रहे हैं। इन वचनों को कहने से उनका तात्पर्य यह होता है : “क्या तुम धार्मिक नहीं हो? मैंने बहुत सारी कीमतें चुकाई हैं, इसलिए तुम्हें अपनी धार्मिकता के अनुसार कार्य करना चाहिए। मैंने बहुत जतन किए हैं और बहुत कष्ट सहे हैं, अब मुझे कैसे आशीष मिलना चाहिए?” यह जबरदस्ती, जबरन वसूली, और चीख-पुकार करना है। वे सोचते हैं कि वे किसी व्यक्ति के साथ जबरदस्ती कर रहे हैं और खुशामद कर रहे हैं, और यह कि ऐसा करके वे आशीष प्राप्त कर सकते हैं और जो चाहें वो प्राप्त कर सकते हैं। क्या परमेश्वर वास्तव में कभी इस तरह से कार्य करेगा? नहीं, वह ऐसा कभी नहीं करेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे इस बात पर विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर मौजूद है, और वे उसके स्वभाव में विश्वास नहीं करते और निश्चित रूप से वे यह विश्वास नहीं करते कि उसका वचन सत्य है और इसलिए है कि वे खुल्लम-खुल्ला परमेश्वर के खिलाफ चीख-पुकार करने की हिम्मत करते हैं और परमेश्वर से झगड़ते हैं और इस तरह से दाँव लगाने का साहस करते हैं। ये ठीक इस कारण है कि वे छद्म-विश्वासी हैं, इसीलिए वे ऐसी चीजें करते हैं। छद्म-विश्वासी लोग इसी तरह से व्यवहार करते हैं और समय-समय पर यह कहते हैं, “मैंने जो इतना कष्ट सहा है तो उसके बदले आखिर मुझे क्या मिला?” या “परमेश्वर धार्मिक है और मुझे परमेश्वर पर आस्था है, लोगों पर नहीं।” छद्म-विश्वासी अक्सर ऐसी बातें करते हैं, इस प्रकार का स्वभाव प्रकट करते हैं, और इन व्यवहारों को प्रदर्शित करते हैं; यह परमेश्वर के प्रति उनका रवैया होता है। वे परमेश्वर के अस्तित्व में तो विश्वास नहीं करते लेकिन फिर भी प्रयास करके और कीमत चुका कर उसका समर्थन प्राप्त करना चाहते हैं, और परमेश्वर से जबरदस्ती करने और उस पर आरोप लगाने के लिए परमेश्वर के वचनों, शब्दों और धर्म-सिद्धांतों और इन मतों का उपयोग करना चाहते हैं, ताकि वे आशीष प्राप्त करने के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। लेकिन क्या वे इस तरह की खयाली पुलाव वाली सोच रख कर गलती नहीं कर रहे हैं? क्या उनका यह दाँव अंत में रंग लाएगा? (नहीं लाएगा।) और क्या उन्हें पता है कि वे हार जाएँगे? क्या वे जानते हैं कि वे शर्त लगा रहे हैं और दाँव खेल रहे हैं? (वे जानते हैं।) तुम लोग गलत हो। वे बिल्कुल भी नहीं जानते और उन्हें लगता है कि उनकी आस्था सच्ची है। उन्हें क्यों लगता है कि उनकी आस्था सच्ची है? मुझे बताओ कि लोग इन दशाओं और स्वभावों को कैसे पहचान सकते हैं? यदि वे अविश्वासियों की दुनिया में रहते हैं और पारंपरिक संस्कृति के कुछ क्लासिक साहित्य का अध्ययन करते हैं जैसे “कन्फ्यूशियस का सूक्ति संग्रह” और “ताओ ते चिंग,” तो क्या वे इन व्यवहारों और सार को पहचान पाएँगे? (नहीं।) वे ऐसा कभी नहीं कर पाएँगे। अपनी प्रकृति सार में मौजूद इन समस्याओं को पहचानने में सक्षम होने के लिए लोगों को क्या करना होगा? (परमेश्वर के वचन को स्वीकार करना होगा।) सबसे पहले तो उन्हें परमेश्वर के वचन और सत्य को स्वीकार करना चाहिए। उनमें आस्था होनी चाहिए कि परमेश्वर के सभी वचन सही हैं, उन्हें परमेश्वर के वचन को स्वीकार करना चाहिए और इसे एक प्रकार का दर्पण मानना चाहिए जिसमें वे खुद की तुलना कर सकते हैं। केवल तभी वे उन दशाओं और दृष्टिकोणों को पहचान सकते हैं, जिन्हें उन्होंने अपने भीतर आश्रय दिया हुआ है, और उन भ्रष्ट स्वभावों की समस्या को पहचान सकते हैं जो उनकी प्रकृति में मौजूद है। यदि वे सत्य को स्वीकार नहीं करते या परमेश्वर के वचन को सत्य नहीं मानते, तो क्या उन्हें यह दर्पण मिलेगा? (नहीं।) उन्हें यह कभी नहीं मिलेगा। जब वे इतना खुल्लम-खुल्ला अपने दिल की गहराई में परमेश्वर का विरोध करते हैं और उसके विरुद्ध चीख-पुकार करते हैं, तो क्या वे महसूस कर सकते हैं कि यह एक समस्या है? उन्हें कभी भी इसका एहसास नहीं होगा। वे समझते हैं कि उनके सोचने और कार्य करने का तरीका सही, उचित और निष्पक्ष है। वे उसी तरह कार्य करते हैं जैसे वे हमेशा से करते आए हैं, और वैसे ही विश्वास करते हैं जैसे वे हमेशा करते आए हैं, और उन्हें अपने किसी भी मौजूदा दृष्टिकोण का विश्लेषण करने या उसे छोड़ने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती, और उन्हें परमेश्वर के वचन की काट-छाँट, न्याय, ताड़ना या प्रकाशन को स्वीकार करने का कोई उपयोग नहीं दिखता। वे अपने लिए जीते हैं और अपनी अंदरूनी दुनिया में रहते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं वह परमेश्वर के वचन से संबंधित नहीं है। वे जिस तरह चाहें वैसे सोचते हैं और वे जिस चीज पर भी विश्वास करते हैं या जो भी सोचते हैं उसे सही मानते हैं, उसे सत्य मानते हैं। परमेश्वर के वचन के प्रति उनके इस रवैये के आधार पर वे अपने दिल की गहराई में मौजूद समस्याओं को कभी नहीं पहचानेंगे। जब वे कीमतें चुकाते हैं और हर दिन दौड़-भाग करते हैं, तो वे यह सारी दौड़-भाग किसके लिए और किस लिए करते हैं? उनके इस व्यवहार को कौन चलाता है? उनकी प्रेरणा क्या होती है? एक तरह से उनकी परमेश्वर में कोई सच्ची आस्था नहीं होती, लेकिन वे किस्मत आजमाने की मानसिकता के चलते उस पर दाँव लगाना चाहते हैं। दूसरी तरफ आशीष प्राप्त करने की इच्छा उन पर हावी होती है। जब भी वे आशीष प्राप्त करने और परमेश्वर का आश्वासन प्राप्त करने के बारे में सोचते हैं, तो वे और अधिक उत्साह से दौड़-भाग करने लगते हैं। उनके दिल की गहराई में खुशी छा जाती है और कुछ लोग यह सोचकर उत्साहित हो जाते हैं और आँसू बहाने लगते हैं कि परमेश्वर उन्हें बहुत कुछ देता है और वह कितना प्यारा है। क्या ये गलत धारणाएँ नहीं हैं? ये दशाएँ और भावनाएँ वैसी ही प्रतीत होती हैं जैसी सत्य का अनुसरण करने वाले लोग परमेश्वर की मार, अनुशासन और फटकार का अनुभव करते समय अपने दिल की गहराई में महसूस करते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे आँसू भी बहाते हैं और परमेश्वर का धन्यवाद भी करते हैं, लेकिन ये दो प्रकार के लोग अपनी प्रकृति में किस तरह से भिन्न हैं? जब सत्य का अनुसरण करने वालों को दर्द और पीड़ा का सामना करना पड़ता है, तो ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे खुद को परमेश्वर के प्रति कर्जदार और परमेश्वर के वादों और आशीषों के अयोग्य महसूस करते हैं। वे बहुत खुश होते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें पहले ही बहुत कुछ दिया है, लेकिन अपने दिल की गहराई में वे परेशान होते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि उन्होंने पर्याप्त नहीं किया है और वे परमेश्वर के प्रति ऋणी हैं। वे कई बार उत्साहित हो जाते हैं और आँसू बहाने लगते हैं, लेकिन होता यह है कि वे परमेश्वर के अनुग्रह, दया और सहनशीलता के लिए उसका धन्यवाद कर रहे होते हैं। जब वे देखते हैं कि कैसे परमेश्वर उनके अपराधों या उनकी विद्रोहशीलता और भ्रष्टता को नजरअंदाज करता है और फिर भी उनके प्रति दया और सहनशीलता दिखाता है, और उनका मार्गदर्शन करता है, उन्हें अनुग्रह देता है, तो वे वास्तव में अपने दिल की गहराई में खुद को कर्जदार और दुखी महसूस करते हैं। वे एक पछतावा और पश्चात्ताप करने वाली स्थिति में होते हैं और इस बारे में सोचने की हिम्मत भी नहीं करते कि उन्हें आशीष प्राप्त करने की आशा रखनी भी चाहिए या नहीं, क्योंकि वे अयोग्य महसूस करते हैं। छद्म-विश्वासियों के आँसुओं की क्या प्रकृति होती है? मैं तुम लोगों को उनकी विशेषताएँ बता देता हूँ और तुम लोग देखना कि यह सटीक है या नहीं। जब उनके साथ कोई चीज घटित होती है और वे पवित्रात्मा के महान कार्य और परमेश्वर द्वारा दिए गए अनुग्रह को देखते हैं, जब वे पवित्रात्मा द्वारा प्रेरित होते हैं, और परमेश्वर उनका मार्गदर्शन करता और उन्हें प्रबुद्ध करता है, और जब उनका काम सफल होता है तो वे काफी खुशी महसूस करते हैं और अपने दिल की गहराई में वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं : “हे परमेश्वर, तुम्हारे आशीर्वाद और मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद। सारी महिमा तुम्हारी ही है।” वे अपने दिल की गहराई में खुद से बहुत प्रसन्न होते हैं और सोचते हैं : “परमेश्वर ने अभी भी मुझे नहीं छोड़ा है। मैं एक छद्म-विश्वासी की तरह सोचा करता था कि मैं सचमुच परमेश्वर में विश्वास नहीं करता, लेकिन अब मैं देख रहा हूँ परमेश्वर ने अभी भी मुझ पर अपना आशीष बनाए रखा है, और उसने मुझे छोड़ा नहीं है। इसका अर्थ यह है कि आशीष और एक सुंदर मंजिल प्राप्त करने की मेरी आशा और संभावनाएँ और अधिक बढ़ रही हैं। ऐसा लगता है कि परमेश्वर पर विश्वास करने का मेरा निर्णय सही था; मुझे परमेश्वर ने चुना है।” जब उन्हें ऐसे विचार आते हैं, तो क्या वे खुद को कर्जदार महसूस करते हैं? क्या वे खुद को समझते हैं? क्या वे वास्तव में अपनी शैतानी प्रकृति और घमंडी स्वभावों से नफरत करते हैं? (वे नहीं करते।) क्या वे परमेश्वर द्वारा उन पर किए गए कार्य के लिए सच्चे दिल से आभारी होते हैं? (वे नहीं होते।) जब वे दिखावे के लिए ही बनावटी आभार व्यक्त करते हैं, तब भी अपने दिल की गहराई में यही सोचते हैं कि, “यह निश्चित रूप से सत्य है कि परमेश्वर ने मुझे चुना है। अगर उसने मुझे नहीं चुना होता तो फिर मैं उस पर विश्वास कैसे करता?” अंत में वे इसे अपने सहन किए सभी कष्टों और अपने द्वारा चुकाई गई कीमतों का उचित बदला बताते हैं और वे सोचते हैं कि उन्हें व्यावहारिक तौर पर आशीष प्राप्त करने का आश्वासन दिया गया है। वे खुद को परमेश्वर के प्रति कर्जदार महसूस नहीं करते, उनमें खुद की समझ नहीं होती, और उनके दिल में परमेश्वर के प्रति सच्चा आभार और भी कम होता है, जबकि दूसरी तरफ आशीष प्राप्त करने की उनकी इच्छा और भी अधिक तीव्र हो जाती है। जिन लोगों की आशीष प्राप्त करने की इच्छा और भी अधिक बढ़ जाती है और जो लोग जो खुद को आशीष प्राप्त करने, परमेश्वर का आश्वासन प्राप्त करने और परमेश्वर के निर्देशन और मार्गदर्शन के योग्य नहीं समझते, उनके बीच क्या अंतर होता है? एक पीछे हट रहा होता है, लड़ना नहीं चाहता और खुद को आशीष प्राप्त करने योग्य नहीं समझता, जबकि दूसरा हमेशा लड़ने के लिए तैयार रहता है, हमेशा यही योजना बनाता और हिसाब-किताब करता रहता है कि वह परमेश्वर के साथ हिसाब कैसे चुकता करे, वे सोचते हैं : “मैं इतने वर्षों से विश्वासी रहा हूँ और मैंने बहुत कष्ट सहा है, तो फिर अब मेरे आशीष प्राप्त करने की कितनी संभावना है? क्या परमेश्वर भविष्य में मुझे आशीष देगा?” इन दोनों के बीच फर्क साफ है : एक लड़ रहा है, जबकि दूसरा खुद को योग्य नहीं समझता। इन दोनों प्रकार के लोगों में से किसके पास जमीर और विवेक है? (वह जो खुद को आशीष के योग्य नहीं समझता।) वह जो खुद को आशीष के योग्य नहीं समझता, वह वास्तविक स्थिति को समझता है। उन्हें लगता है कि एक मामूली सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के सामने आशीष प्राप्त करने के योग्य नहीं है। वे खुद को कर्जदार और पश्चात्तापी महसूस करते हैं, जबकि उनमें सच्ची समझ भी होती है, और इससे भी बढ़कर उनके दिल की गहराई में परमेश्वर के प्रति वास्तविक आभार होता है। उन्हें अपना असली मुकाम मिल गया है। दूसरे प्रकार के लोग लड़ रहे हैं : वे एक मंजिल के लिए, हैसियत के लिए और आशीष के लिए लड़ रहे हैं। इन सभी कष्टों को सहने और इन सभी कीमतों को चुकाने के पीछे उनका लक्ष्य क्या है? वे ये चीजें आशीष और मंजिल के बदले करते हैं। वे अपनी मेहनत के बदले में परमेश्वर से इनाम पाने की उम्मीद रखते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की नजरों में एक सच्चा सृजित प्राणी है? क्या यह वह सृजित प्राणी है जिसे परमेश्वर चाहता है? (नहीं।) क्या परमेश्वर ने कभी ऐसा कहा है कि आशीष या इनाम प्राप्त करने का एकमात्र तरीका उनके लिए लड़ना होता है? (नहीं।) तो परमेश्वर लोगों से क्या अपेक्षा करता है? (यह कि हम ईमानदारी और सच्चाई से आचरण करके सृजित प्राणी की तरह अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाएँ।) (यह कि हम लोग ईमानदार बनें।) ये कुछ ठोस मांगें हैं, और मांगें क्या हैं? (यह कि हम अपने कार्यों में परमेश्वर के वचन और मांगों का पालन करें।) (यह कि हम जितना भी सत्य जानते हैं उसका अभ्यास करें।) ये असल उद्देश्य नहीं हैं। तुम लोग मामले की जड़ को ही छोड़ रहे हो। तुम लोग अभी भी नहीं जानते कि परमेश्वर लोगों से असल में क्या अपेक्षा रखता है। वास्तव में उसकी अपेक्षाएँ काफी आसान हैं : उसके वचन को सुनो और उसके प्रति समर्पण करो। ये अपेक्षाएँ हैं। परमेश्वर के वचन सुनने का अर्थ लोगों के लिए अपेक्षाओं को अभ्यास में लाना होता है। जिन अपेक्षाओं का तुम लोगों ने अभी उल्लेख किया है, वास्तव में उनके अलावा और भी बहुत सी अपेक्षाएँ होती हैं। परमेश्वर के प्रति समर्पण को लेकर क्या? तुम हमेशा परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते, लेकिन क्या तुम उसके प्रति समर्पण करने में समर्थ हो? इसका संबंध सृष्टिकर्ता के प्रति सृजित प्राणी के रवैये से होता है। कभी-कभी हो सकता है कि परमेश्वर के वचन को पढ़ने के बाद शायद तुम उसे न समझो, क्योंकि वह तुम्हें केवल एक आदेश देता है—क्या तुम इसे सुनते हो? तुम्हें यह पूछे बिना इसे सुनना चाहिए कि यह सही है या गलत, या इसके पीछे कारण क्या है। जो कुछ भी परमेश्वर तुमसे कहता या बताता है, या तुम्हें करने के लिए कहता है, तुम्हें उसे अवश्य सुनना चाहिए; यही समर्पण है। जब तुम ऐसा समर्पण प्राप्त कर लोगे तो ही तुम परमेश्वर की नजर में सृजित प्राणी माने जाओगे। परमेश्वर के वचन को सुनना और उसके प्रति समर्पण करना : ये लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ हैं। एक और वाक्यांश है : परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना। इस “अनुसरण करने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है परमेश्वर के वचन के अनुसार अभ्यास करना, उसके वचन के अनुसार जीना और एक ऐसा व्यक्ति बनना जो उसका मार्ग का अनुसरण करता है। उसका मार्ग क्या है? उसका वचन ही उसका मार्ग है। वास्तव में, “परमेश्वर के वचन को सुनना और उसके प्रति समर्पण करना” और “परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना” दोनों का एक ही अर्थ है, और परमेश्वर इसी प्रकार का व्यक्ति चाहता है। क्या परमेश्वर ने कभी लोगों को यह कहा है, “तुम्हें मेरे वचन सुनने की आवश्यकता नहीं है। तुम केवल आशीष प्राप्त करने के पीछे भाग सकते हो। कभी मत भूलो कि तुम्हें आशीष मिल सकता है। यह उद्देश्य पाने के लिए तुम्हें सब कुछ त्याग देना चाहिए, अधिक कठिनाइयाँ सहनी चाहिए, अधिक कीमतें चुकानी चाहिए और अधिक दौड़-भाग करनी चाहिए”? क्या परमेश्वर की ये अपेक्षाएँ हैं? क्या उसने अपने वचन में कहीं इनका उल्लेख किया है? (नहीं।) क्या वो वचन सत्य हैं? (नहीं।) क्या छद्म-विश्वासी लोगों के लिए इन वचनों को सत्य मानना विद्रोह नहीं है? जब वे इन वचनों को सत्य मान रहे होते हैं तो क्या चल रहा होता है? वे इन वचनों से लाभ उठा सकते हैं क्योंकि ये वास्तव में उनकी खोज और उनकी महत्वाकांक्षा हैं। क्या वे अपने दिलों में इस बात पर ध्यान देते हैं कि परमेश्वर लोगों से क्या अपेक्षा रखता है? क्या वे इन अपेक्षाओं का पालन कर सकते हैं या उन्हें पूरा कर सकते हैं? (वे नहीं कर सकते।) क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि जैसे ही वे ये अपेक्षाएँ पूरी करते हैं—परमेश्वर के वचन सुनना और उसके प्रति समर्पण करना—तो इसका अर्थ यह होगा कि उन्हें आशीष प्राप्त करने की अपनी इच्छा और यह विचार त्यागना होगा कि उन्हें आशीषों और इनामों के पीछे भागने का अधिकार है। आशीष और इनाम पाना उनके जीवन का आधार है, तो क्या वे उन्हें छोड़ने के लिए सहमत होंगे? (नहीं।) ये चीजें ही उनका जीवन हैं, इसलिए यदि वे इन्हें छोड़ देते हैं, तो वे अपनी आत्मा खो देंगे और उनके जीवन का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। वे आशीष प्राप्त करने के लिए जीते हैं, इसलिए यदि तुम उन्हें आशीष प्राप्त करना छोड़ने के लिए कहोगे, तो तुम उन्हें अपने आचरण के सिद्धांतों और नीति के खिलाफ जाने और खुद के खिलाफ विद्रोह के लिए कह रहे होगे, इसलिए वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते। इसका अर्थ यह है कि उनसे सत्य का अभ्यास करने, परमेश्वर के वचन को सुनने और उसके समर्पण के लिए कहना, यह उनके लिए एक बूढ़ी गाय को पेड़ पर चढ़ाने से भी ज्यादा कठिन कार्य है। उनकी प्रकृति ही बताती है कि वे ये चीजें नहीं कर सकते।
क्या तुम लोग आशीष प्राप्त करने की इच्छा और इरादे के साथ जीना चाहते हो या तुम व्यावहारिक और वास्तविक दृष्टिकोण के साथ अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहते हो, एक सक्षम सृजित प्राणी और ऐसा व्यक्ति बनना चाहते हो जो परमेश्वर के वचन को सुनता है और उसके प्रति समर्पण करता है? तुम लोग किस तरह के व्यक्ति बनना चाहते हो? (मैं व्यावहारिक और वास्तविक दृष्टिकोण वाला सृजित प्राणी बनना चाहती हूँ।) कुछ लोग ऐसा करने के लिए तैयार नहीं होते। वे कहते हैं : “यह तो बहुत दमनकारी जीवन है। मैं इससे बेहतर मरना पसंद करूँगा या विश्वास करना बंद कर दूँगा। थोड़ी सी आशीष की इच्छा और महत्वाकांक्षा के बिना लोगों के पास कोई प्रेरणा नहीं रहती। मैं तो इस तरह से कभी नहीं रह सकता; यह बहुत दमनकारी जीवन है।” क्या तुम लोगों में से कोई ऐसा है? (हे परमेश्वर, मैं कभी-कभी ऐसा सोचता हूँ। समय-समय पर मेरी भी यही दशा होती है।) क्या ये दशाएँ सामान्य हैं? क्या ये अक्सर रहती हैं या कभी-कभार? क्या ज्यादा प्रबल होती हैं : आशीष प्राप्त करने की तुम लोगों की इच्छा या एक सृजित प्राणी बनने की तुम्हारी इच्छा? क्या आशीष प्राप्त करने की किसी भी इच्छा को छोड़ने और व्यावहारिक और वास्तविक दृष्टिकोण के साथ अपने कर्तव्य निभाने के इस विचार की वजह से तुम में से कोई खुद को पिचके हुए गुब्बारे जैसा महसूस करता है, मानो तुम्हारे जीवन का कोई अर्थ नहीं है और तुम्हें किसी भी चीज में कोई दिलचस्पी नहीं है और तुम अपनी ऊर्जा वापस नहीं ला सकते? (सुनकर लगता है जैसे यह मेरे बारे में है।) तो क्या यह दशा गंभीर है? क्या तुम आशीष प्राप्त करने की कभी-कभार मामूली इच्छा महसूस करते हो, या यह तुम्हारा रोज का काम है? इनमें से क्या है? क्या तुम लोगों को अभी पता है कि तुम एक सच्चे विश्वासी हो या छद्म-विश्वासी? यदि तुम्हें लगता है कि तुम्हारी सभी दशाएँ और व्यवहार एक सच्चे विश्वासी वाले हैं, न कि एक छद्म-विश्वासी वाले, और यह कि तुम वास्तव में परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हो और उसके वचन को स्वीकार करने के लिए तैयार हो, लेकिन तुम्हारी बस कुछ महत्वाकांक्षाएँ हैं और तुम्हें थोड़ा बहुत घमंड है, और तुम आशीष प्राप्त करने की आशा करते हो, तो यह कोई समस्या नहीं है; तुम अभी भी बचाए जा सकते हो और अभी भी बदल सकते हो। यदि तुम एक छद्म-विश्वासी हो और तुम्हारे दिल में आशीष प्राप्त करने की बहुत प्रबल इच्छा है, तो फिर तुम परेशानी में हो। इस तरह के लोग किस मार्ग की तरफ बढ़ रहे हैं? (एक मसीह विरोधी के मार्ग पर।) यदि वे मसीह विरोधी के मार्ग की ओर बढ़ने में सक्षम हैं, तो अंततः परमेश्वर के साथ उनका संबंध किस हालत में समाप्त होगा? (परमेश्वर के विरोध की हालत में।) क्या तुम लोग वहाँ तक जाने में सक्षम हो, परमेश्वर के विरोध की हद तक? (मैं उसका विरोध नहीं करना चाहता।) उसका विरोध न करना केवल तुम्हारी इच्छा है। क्या ये चीजें तुम्हारे प्रकृति सार का हिस्सा हैं? क्या तुम्हारे लिए इस रास्ते पर चलना संभव होगा? (यदि मैं सत्य के संबंध में प्रयास न करूँ, तो मैं आसानी से उस मार्ग पर जा सकता हूँ, लेकिन यदि मैं इसके प्रति सचेत रहूँ और खुद को बदलना चाहूँ, अपने मार्ग को बदलना चाहूँ और इस मार्ग पर न चलना चाहूँ, तो मैं कुछ बेहतर कर सकता हूँ।) इसके प्रति सचेत होना इस बात का संकेत है कि तुम्हारे दिल में अभी भी थोड़ी जागरूकता है, यह कि तुम्हारे अंदर अभी भी कुछ तमन्ना है और तुम अभी भी सत्य की ओर प्रयास करना चाहते हो, लेकिन भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे दिल की गहराई में जड़ें जमाए हुए हैं, इसलिए वहाँ हमेशा संघर्ष चलता रहता है। सत्य की ओर उठाए जाने वाले हर कदम के साथ और हर बार जब तुम सत्य को स्वीकार करते हो, तो तुम लोगों के दिल में संघर्ष चल रहा होता है, और तुम लोग लगातार संघर्ष के काल में जी रहे होते हो। नए विश्वासियों के साथ ऐसा ही होता है। संघर्ष होना काफी सामान्य बात है और जो लोग सत्य का अनुसरण करना चाहते हैं उनके लिए यह अनिवार्य है। जब वे लोग सत्य को प्राप्त कर लेते हैं, जब शैतान पराजित हो जाता है, जब उनके शैतानी स्वभाव, फलसफे और तर्क नष्ट हो जाते हैं, और जब सत्य जीत रहा होता है और उनके दिलों पर कब्जा कर लेता है तो यह संघर्ष अपने निष्कर्ष पर पहुँचता है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, जो अपने शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते हैं, जिन्हें लगता है कि उनके दिल में सब ठीक है और वहाँ कोई संघर्ष नहीं है। वे भावनाहीन और मंदबुद्धि हैं, वे मृतकों में से एक हैं; जो लोग भी सत्य को स्वीकार नहीं करते वे मर चुके हैं। अपने दिल में संघर्ष होने का क्या लाभ होता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारे आधे विचार नकारात्मक और आधे सकारात्मक हैं, तो यह सकारात्मक विचार तुम्हें संघर्ष समाप्त होने के बाद सत्य का अनुसरण करने वाले मार्ग पर चलने का चयन करने का मौका देंगे, जिसका अर्थ है कि तुम्हारे पास बचाए जाने की 50/50 उम्मीद होगी। नकारात्मक विचार तुम्हें द्वंद्व के दौरान अपने देह के खयाल और विचारों का पालन करने या अपने खुद के इरादों, प्रेरणाओं और दृष्टिकोणों का पालन करने को मजबूर कर सकते हैं। इस कारण तुम मसीह विरोधी के मार्ग पर जा सकते हो, और परमेश्वर के विरोध के मार्ग पर चल सकते हो। हालाँकि यदि सत्य के लिए तुम्हारे दिल में ज्यादा प्रेम है और तुम सत्य को स्वीकार करने और शैतान के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हो, तो तुम्हारे लिए उद्धार पाने के मौके भी बहुत अधिक हैं। यह इस बात से तय होता है कि क्या तुम सत्य को स्वीकार कर सकते हो और अपने भ्रष्ट स्वभावों को स्वच्छ करने के लिए इसका उपयोग कर सकते हो या नहीं। यह पूरी तरह से तुम पर निर्भर करता है, इस बारे में कोई और तुम्हारी मदद नहीं कर सकता; यह तुम्हारा अपना मामला है। तुम सत्य से प्रेम करते हो या नहीं, यह तुम्हारा अपना मामला है और जब तुम्हारे दिल की गहराई में कोई संघर्ष चलता है, तो कोई भी यह तय करने में तुम्हारी मदद नहीं कर सकता कि अंत में क्या तुम सत्य को चुनोगे या अपनी स्वार्थी इच्छाओं को संतुष्ट करोगे, यह तुम्हारा अपना आंतरिक मामला है। दूसरे केवल संगति और परामर्श के माध्यम से तुम्हारा मार्गदर्शन कर सकते हैं; हालाँकि अंत में तुम जो रास्ता चुनते हो वह किसी और का मामला नहीं बल्कि तुम्हारा मामला है। हर किसी को यह बात समझ लेनी चाहिए।
22 अगस्त 2019
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