अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए (भाग दो)
बहुत से लोग कर्तव्य निभाना चाहते हैं और कुछ उन्हें निभाने के लिए तैयार भी होते हैं, लेकिन उन सभी को सत्य का अभ्यास करना इतना कठिन क्यों लगता है? वे उन सत्यों का भी अभ्यास क्यों नहीं कर पाते जिन्हें वे भली-भांति समझते हैं? आखिर यहाँ क्या चल रहा है? क्या तुम लोगों को लगता है कि सत्य का अभ्यास करना कठिन है? (नहीं।) तो फिर तुम लोग इसका अभ्यास क्यों नहीं कर पा रहे? (हमें सत्य पसंद नहीं है।) सत्य को पसंद न करने का संबंध किससे है? (मनुष्य की प्रकृति से।) इसका संबंध मनुष्य की मानवता और प्रकृति से है। जिन लोगों में मानवता नहीं होती, उनका कोई जमीर या विवेक भी नहीं होता, इसलिए वे सत्य से प्रेम नहीं कर सकते और उन्हें लगता है कि इसका कोई ज्यादा उपयोग नहीं है। उनका यह भी मानना होता है कि यदि वे सत्य का अभ्यास करेंगे तो उनका नुकसान होगा और केवल मूर्ख लोग ही ईमानदार बनते हैं, इसलिए उन्हें लगता है कि सत्य का अनुसरण करने की कोई जरूरत नहीं है। उदाहरण के लिए, जब कुछ लोग दूसरों से नाराज हो जाते हैं, तो वे सोचने लगते हैं, “मुझे इससे बदला लेने के लिए कुछ करना होगा और उसे दिखाना होगा कि मैं कितना क्रूर हूँ।” जब उनके दिल में ऐसा विचार आ जाता है, तो क्या उन्हें इस पर अमल करना जरूरी होता है? लोगों के दिलों में बुरे विचार इसलिए पैदा होते हैं क्योंकि उनकी प्रकृति उन पर हावी होती हैं, लेकिन क्या सभी लोग इन विचारों पर कार्य करते हैं और उन पर ध्यान देते हैं? (हर बार ऐसा नहीं होता।) कितनी अलग-अलग परिस्थितियां होती हैं? (कभी-कभी स्थिति इसकी अनुमति नहीं देती है, इसलिए लोग अपने बुरे विचारों पर अमल नहीं कर पाते। वैसे यह भी हो सकता है कि उनके पास जमीर और विवेक हो और वे जानते हों कि उनके विचार बहुत बुरे हैं, और इसलिए वे सचेत रूप से खुद को नियंत्रित करते हैं।) हाँ, कुछ लोग अपने बुरे विचारों पर ध्यान देते हैं और जैसे ही उन्हें उचित अवसर मिलता है, वे खुद को संतुष्ट करने के लिए उनके अनुसार कार्य करते हैं—ये लोग बुरे होते हैं। चाहे एक बुरे व्यक्ति के दिमाग में कैसा भी बुरा विचार हो, उन्हें हमेशा यही लगता है कि उनके विचार सही हैं, और वे हमेशा इसको वास्तविकता में बदलने के अवसर की तलाश करना चाहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि वे अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अपने बुरे विचारों पर कार्रवाई करते हैं, और अपने मन की बुराई को वास्तविकता में बदल देते हैं। वे अतार्किक हैं, वे संयम नहीं बरतते, और वे खुद को नियंत्रित करने के लिए अपने जमीर का उपयोग नहीं करते, और न ही वे अपने कार्यों की उपयुक्तता या परिणामों या उनके द्वारा खुद पर या दूसरों पर पड़ने वाले प्रभाव या होने वाले नुकसान का मूल्यांकन करने के लिए आत्म-चिंतन ही करते हैं। वे इन बातों पर बिलकुल भी ध्यान नहीं देते। वे अपनी मर्जी से कुछ भी करते हैं और फिर यह भी मानते हैं कि : “वैसे वास्तविक मनुष्य को क्रूर होना चाहिए। लोगों को बुरा और क्रूर होना चाहिए क्योंकि यदि वे क्रूर नहीं होंगे तो हर कोई उन्हें तंग करेगा, लेकिन एक बुरे व्यक्ति से हर कोई डरता है।” जितना अधिक वे इस बारे में सोचते हैं, उतना ही उन्हें विश्वास होता जाता है कि ऐसी सोच रखना बिलकुल सही है, और फिर वे इसके अनुसार कार्य करते हैं। क्या ऐसे व्यक्ति का रवैया तर्क शक्ति और जमीर द्वारा नियंत्रित होता है? (बिलकुल नहीं।) इस पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं होता। एक अन्य प्रकार के व्यक्ति को भी इस तरह के विचार आते हैं लेकिन जब उन्हें ऐसे विचार आते हैं तो वे अपनी हताशा को बाहर निकालने के लिए चीजों को तोड़-फोड़ सकते हैं, पर जब कार्य करने का समय आता है, तो वे अपने विचारों को कार्रवाई में नहीं बदलते। वे कार्रवाई क्यों नहीं करते? (क्योंकि उनका जमीर और विवेक उन्हें बुरे कर्म करने से रोक सकता है।) उनके पास जमीर और विवेक होता है और साथ ही सही और गलत को समझने की क्षमता होती है और वे तय कर सकते हैं : “मैं इस तरह कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि इससे मुझे भी और दूसरों को भी नुकसान होगा। मुझे प्रतिशोध का भी सामना करना पड़ सकता है!” वे इस बात का फैसला करने में सक्षम होते हैं कि उनके विचार सही हैं या गलत, या अच्छे हैं या बुरे। गुस्सा शांत होने के बाद वे सोचेंगे : “जहाँ तक संभव हो, मुझे नरमी बरतनी चाहिए। कोई बात नहीं; मैं भविष्य में उस व्यक्ति के साथ बात ही नहीं करूँगा। मैं इस घटना से सबक सीखूँगा और भविष्य में फिर से धोखा न खाने की कोशिश करूँगा। मुझे बदला लेने की कोई जरूरत नहीं है।” इसके बाद वे खुद को संयमित रखेंगे। यह “संयम” किस चीज पर आधारित होता है? इसकी नींव उनके पास जमीर और तर्क शक्ति पर आधारित होती है, जो यह निर्धारित करने की क्षमता है कि क्या सही है और क्या गलत है, जो उनके आचरण और उनकी पसंद और झुकाव के लिए आधार रेखा है। उनका किस चीज में झुकाव होता है? उन्हें बुराई का बदला बुराई से लेने की तरफ कोई झुकाव नहीं होता, बल्कि वे बुरी चीजें और बुरे काम करने से बचते हैं, इसलिए वे अंततः खुद को नियंत्रित करने का फैसला करते हैं, और अपने विचारों के आधार पर कार्रवाई नहीं करते। वे गुस्सा भी होते हैं और अपने गुस्से में वे कुछ क्रूर चीजें भी करना चाहते हैं या कुछ क्रूर भी कहना चाहते हैं। लेकिन जब कार्रवाई का समय आता है, तो वे पीछे हट जाते हैं, खुद को रोक लेते हैं और कोई कार्रवाई नहीं करते। बुराई केवल उनके विचारों के दायरे तक ही सीमित रहती है, और कार्रवाई या तथ्य नहीं बन पाती। इन दोनों प्रकार के लोगों के दिल में बुरे विचार आते हैं, तो फिर प्रकृति के संदर्भ में इस व्यक्ति में और उसमें क्या अंतर है जिसका उल्लेख पहले किया गया था, यानी जो अपने बुरे विचारों के अनुसार कार्रवाई करता है? (इस तरह के व्यक्ति की प्रकृति बहुत नेक होती है, इसलिए उन्हें बुरे विचार नियंत्रित नहीं कर सकते।) इन दोनों प्रकार के लोगों की प्रकृति में एक अंतर होता है। जब कुछ लोगों की आलोचना की जाती है, पर्दाफाश किया जाता है या जब दूसरे उनकी काट-छाँट करते हैं तो वे घृणा, अवज्ञा और असंतोष से भर जाते हैं, और वे प्रतिशोधात्मक रवैया अपनाते हैं। हालाँकि दूसरी तरह के लोग इन परिस्थितियों का सही और तर्कसंगत ढंग से सामना कर सकते हैं, वे जो कहा गया था अगर वह सच है तो उसे स्वीकार कर सकते हैं, और फिर वे इससे सबक भी सीख सकते हैं, वे समर्पण और स्वीकृति का रवैया अपनाते हैं। इन दोनों में से किस प्रकार के लोग सत्य का अभ्यास कर सकते हैं? (वे जिनके पास जमीर है और जो सत्य को स्वीकार कर सकते हैं और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि ऐसे व्यक्ति में थोड़ा बहुत जमीर होता है? (क्योंकि उनके जमीर का उन पर भी प्रभाव पड़ता है, यह उनके बुरे विचारों को नियंत्रित करता है।) हाँ, यही हो रहा है। उन पर उनके जमीर का प्रभाव पड़ रहा है, यह उन्हें नियंत्रित कर रहा है, उनका मार्गदर्शन कर रहा है, और उनके विचारों को तर्कसंगत बना रहा है; इसका प्रभाव पड़ता है। क्या दूसरे प्रकार के व्यक्ति के जमीर का भी कोई प्रभाव पड़ता है? नहीं पड़ता; इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे लोग बस कभी-कभार इस पर कुछ विचार कर लेते हैं, लेकिन फिर बाद में वे सामान्य रूप से अपने कार्य में लग जाते हैं। उनका जमीर सजावट से ज्यादा कुछ नहीं होता, और प्रभावी रूप से इसका कोई अस्तित्व नहीं होता। इनमें से किस प्रकार के लोगों में अपेक्षाकृत मानवता होती है? (वह जिनके जमीर और विवेक का उन पर प्रभाव पड़ता है।) जिन लोगों पर उनके जमीर का प्रभाव पड़ता है, वे सही और गलत को समझने की क्षमता रखते हैं और अपने बुरे कर्मों को नियंत्रित कर सकते हैं। इस प्रकार का व्यक्ति सत्य का अभ्यास कर सकता है, और सत्य के अनुसरण को हासिल कर सकता है। जब तुम कुछ लोगों को अच्छे काम करने या सत्य सिद्धांतों के अनुसार मामले सँभालने के लिए कहते हो, तो उनके जमीर का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वे वह नहीं करते जो उन्हें सही लगता है, इसके बजाय वे बस वही करते हैं जो उनका दिल करता है। वे गपशप करने, दूसरों पर निर्णय देने, दूसरों की चापलूसी या उनके तलवे चाटने के लिए तैयार होते हैं, और वे यह सब कुछ बिना किसी हिचकिचाहट के करते हैं। तुम लोग किस प्रकार के व्यक्ति हो? (मुझे लगता है कि मैं चापलूस व्यक्ति हूँ।) क्या चापलूस व्यक्ति अपने जमीर और तर्क शक्ति के नियंत्रण में होते हैं? क्या वे सही और गलत के बीच अंतर बता सकते हैं? (मुझे लगता है कि चापलूस व्यक्ति बेशक यह तो बता सकते हैं कि कौन सही है और कौन गलत है, लेकिन उनमें न्याय की भावना की कमी होती है, वे कलीसिया के काम की रक्षा नहीं करते और इसकी तुलना में वे गंभीर स्तर के शैतानी फलसफों के असर में ज्यादा होते हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई मुझसे किसी चीज के बारे में पूछता है, और अगर मैं किसी ऐसे व्यक्ति का जिक्र करता हूँ जो वहाँ मौजूद नहीं है, तो मैं ईमानदारी से बात कर सकता हूँ, लेकिन अगर वे वहाँ मौजूद हैं तो मैं पीछे हट जाता हूँ, और उतना खुल कर बात नहीं करता।) वैसे तो बहुत से लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं या उसका अनुसरण नहीं करते, लेकिन फिर भी वास्तव में उन्हें अपनी विभिन्न अवस्थाओं की कुछ समझ जरूर होती है। फिलहाल इस बारे में भूल जाओ कि अभी इस समय तुम सत्य से प्रेम करते हो या नहीं, या सत्य का अभ्यास कर सकते हो या नहीं; सबसे पहले, धीरे-धीरे अपनी उन भ्रष्ट अवस्थाओं को सुधारने और बदलने की कोशिश करो जिनकी तुम पहचान कर सकते हो। इस प्रकार तुम धीरे-धीरे सही रास्ते पर आ जाओगे। सबसे पहले उन चीजों को बदलने से शुरुआत करो जिनके बारे में तुम्हें पता है—इसका मतलब है, वे चीजें जिन्हें तुम्हारा जमीर और तर्क शक्ति समझ सकती है, या फिर गलत अवस्थाएँ, बयान, विचार और दृष्टिकोण जिन्हें तुम्हारा दिमाग समझ और पहचान सकता है—इन चीजों को बदलने से शुरू करो जिन्हें तुम समझ सकते हो। अगर तुम पहले इन चीजों को बदल पाते हो तो तुम्हें काफी कुछ प्राप्त होगा। कम से कम तुम एक ऐसे व्यक्ति तो बन जाओगे जिसके पास जमीर और विवेक है, तुम तर्कसंगत ढंग से कार्य करोगे, तुम अपनी गलत अवस्थाओं को समझने में सक्षम होगे, और तुम सत्य की ओर प्रयास कर सकोगे। इस प्रकार तुम सिद्धांतों के अनुसार चीजें सँभालने और सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने में सक्षम होगे। फिर तुम मानक के अनुसार अपना कर्तव्य निभा रहे होगे। यदि तुम सत्य को समझकर अपने कर्तव्य को निभाने में आने वाली समस्याओं को हल कर पाए, तो तुम्हें कम कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। उदाहरण के लिए, मान लो अतीत में तुम्हारे दिल में हमेशा कोई ऐसी बात होती थी, जो तुम्हें खुलकर बोलने से रोकती थी, इसलिए तुमने कभी भी दूसरों में नजर आने वाली समस्याओं की तरफ सीधे तौर पर इशारा नहीं किया। इसके बजाय तुम हमेशा इधर-उधर की चिकनी-चुपड़ी बातें करते रहे, क्योंकि तुम दूसरों को चोट पहुँचाने से डरते थे और तुम हमेशा गर्व, भावनाओं और आपसी संबंधों के बारे में सोचते रहते थे। लेकिन अब जब कोई समस्या हो तुम इधर-उधर की बातें नहीं करते; जब समस्या होती है तो तुम इसके बारे में सीधे और स्पष्ट रूप से बात करते हो, और तुम दूसरों की समस्याओं की तरफ इशारा करते हो, और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करते हो। अब तुम्हारे दिल में कोई चिंता या कठिनाई नहीं है, और अब जब भी तुम अपना मुँह खोलते हो तो सीधे दिल से बात करते हो, और तुम किसी भी अन्य कारक से प्रभावित या उसके कारण मजबूर नहीं होते। अब तुम जान गए हो कि तुम्हें अपने कार्यों में सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, तुम सांसारिक आचरण के फलसफों के सहारे नहीं रह सकते और तुम्हें अपना अहंकार त्यागकर सिद्धांतों पर कायम रहना चाहिए। ये बातें और अधिक स्पष्ट होती जाती हैं और तुम्हारे अहंकार का तुम पर अब उतना गहरा प्रभाव नहीं पड़ता, और तुम अपने अहंकार या भावनाओं से मजबूर हुए बिना बात कर सकते हो। तुम अब निष्पक्ष होकर बात कर सकते हो और अब अपने दिल में असहज महसूस नहीं करते। दूसरे शब्दों में कहें, तो अब ऐसी बहुत कम चीजें हैं जो तुम्हें परेशान कर सकती हैं; तुम उनसे बाहर आ जाते हो, तुम उन्हें जाने देते हो और तुम उनके नियंत्रण से मुक्त हो। जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते और बात करते हो, तो तुम भ्रष्ट स्वभावों से मजबूर नहीं होगे, और तुम्हारे दिल को और अधिक कष्ट नहीं पहुँचेगा। बल्कि तुम्हें यह सब पूरी तरह से स्वाभाविक लगेगा, तुम्हारा जमीर शांति महसूस करेगा और तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे सभी कार्य वैसे ही हैं जैसे उन्हें होना चाहिए। तुम्हारी अभिव्यक्ति और कार्य स्वाभाविक होंगे और तुम्हें केवल कुछ मामूली कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। क्या यह बदलाव नहीं है?
लोगों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना और दूसरों से पेश आना चाहिए; यह मानवीय आचरण का सबसे बुनियादी सिद्धांत है। अगर लोग मानवीय आचरण के सिद्धांत नहीं समझेंगे तो वे सत्य का पालन कैसे कर सकते हैं? सत्य का पालन करना खोखले शब्द बोलना या नारे लगाना नहीं होता। बल्कि इसका मतलब यह होता है कि, जीवन में व्यक्ति का सामना चाहे किसी भी व्यक्ति से हो, अगर यह इंसानी आचरण के सिद्धांत, घटनाओं पर दृष्टिकोण या कर्तव्य निर्वहन के मामले से जुड़ा हो, तो उन्हें विकल्प चुनना होता है, और उन्हें सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में आधार और सिद्धांत तलाशने चाहिए और फिर पालन का मार्ग खोजना चाहिए। इस तरह अभ्यास कर सकने वाले लोग वे हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। कितनी भी बड़ी मुसीबतें आने पर, इस तरह सत्य के मार्ग पर चल पाना, पतरस के मार्ग पर चलना, सत्य का अनुसरण करना है। उदाहरण के तौर पर : लोगों से संवाद करते समय किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? शायद तुम्हारा मूल दृष्टिकोण यह है कि “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,” और यह कि तुम्हें हर किसी के साथ बनाए रखनी चाहिए, दूसरों को अपमानित नहीं करना चाहिए, और किसी को नाराज नहीं करना चाहिए, जिससे दूसरों के साथ अच्छे संबंध बनाए जा सकें। इस दृष्टिकोण से बंधे हुए जब तुम देखते हो कि दूसरे कोई गलत काम कर रहे हैं या सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं, तो तुम चुप रहते हो। तुम किसी को नाराज करने के बजाय कलीसिया के काम का नुकसान होने दोगे। तुम हर किसी के साथ बनाए रखना चाहते हो, चाहे वे कोई भी हो। जब तुम बात करते हो तो तुम केवल मानवीय भावनाओं और अपमान से बचने के बारे में सोचते हो और तुम दूसरों को खुश करने के लिए हमेशा मीठी-मीठी बातें करते हो। अगर तुम्हें पता भी चले कि किसी में कोई समस्याएँ हैं, तो तुम उन्हें सहन करने का चुनाव करते हो और बस उनकी पीठ पीछे उनके बारे में बातें करते हो, लेकिन उनके सामने तुम शांति बनाए रखते हो और अपने संबंध बनाए रखते हो। तुम इस तरह के आचरण के बारे में क्या सोचते हो? क्या यह चापलूस व्यक्ति का आचरण नहीं है? क्या यह धूर्तता भरा आचरण नहीं है? यह मानवीय आचरण के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। क्या ऐसे आचरण करना नीचता नहीं है? जो इस तरह से कार्य करते हैं वे अच्छे लोग नहीं होते, यह नेक लोगों का आचरण नहीं है। चाहे तुमने कितना भी दुःख सहा हो, और चाहे तुमने कितनी भी कीमतें चुकाई हों, अगर तुम सिद्धांतहीन आचरण करते हो, तो तुम इस मामले में असफल हो गए हो और परमेश्वर के समक्ष तुम्हारे आचरण को मान्यता नहीं मिलेगा, उसे याद नहीं रखा जाएगा और स्वीकार नहीं किया जाएगा। इस समस्या का एहसास होने पर क्या तुम परेशान होते हो? (हाँ।) इस परेशानी से क्या साबित होता है? इससे यह साबित होता है कि तुम्हें अभी भी सत्य से प्रेम है, और तुम्हारे पास ऐसा दिल है जो सत्य से प्रेम करता है और तुम में सत्य से प्रेम करने की इच्छा है। इससे साबित होता है कि तुम्हारी अंतरात्मा अभी भी जागरूक है, और तुम्हारी अंतरात्मा पूरी तरह से मरी नहीं है। चाहे तुम कितने भी गहराई से भ्रष्ट हो या तुम्हारे कितने भी भ्रष्ट स्वभाव हों, तुम्हारी मानवता में अभी भी एक ऐसा सार है जो सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करता है। जब तक तुम्हारे अंदर जागरूकता है और तुम्हें पता है कि तुम्हारी मानवता, स्वभाव, कर्तव्य का पालन करने और परमेश्वर के साथ व्यवहार करने में क्या समस्याएँ हैं, और तुम इस बात से भी जागरूक हो कि तुम्हारे शब्द और कार्य कब विचारों, रुख और रवैये को प्रभावित करते हैं, और तुम यह महसूस कर सकते हो कि तुम्हारे विचार गलत हैं, कि वे सत्य या परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं हैं लेकिन उन्हें छोड़ना भी आसान नहीं है, और तुम सत्य का अभ्यास करना चाहते हो लेकिन नहीं कर पाते, और तुम्हारा दिल पीड़ा से जूझ रहा है और उत्पीड़ित है और तुम खुद को कर्जदार महसूस करते हो—तो यह ऐसी मानवता को दर्शाता है जिसे सकारात्मक चीजों से प्यार है। यह अंतरात्मा की जागरूकता है। अगर तुम्हारी मानवता में अंतरात्मा की जागरूकता है और उसका एक हिस्सा सत्य और सकारात्मक चीजों को पसंद करता है, तो तुम्हारे अंदर ऐसी भावनाएँ होंगी। इन भावनाओं का होना यह साबित करता है कि तुम्हारे पास सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच अंतर करने की क्षमता है, और यह कि तुम इन चीजों के प्रति उपेक्षा या उदासीनता की भावना नहीं रखते; तुम सुस्त नहीं हो या तुम में जागरूकता की कमी नहीं है, बल्कि तुम्हारे अंदर जागरूकता है। और चूँकि तुम्हारे अंदर जागरूकता है, इसलिए तुम्हारे पास सही और गलत, और सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच अंतर करने की क्षमता है। अगर तुम्हारे अंदर जागरूकता और यह क्षमता है, तो क्या तुम्हारे लिए इन नकारात्मक चीजों, इन गलत विचारों, और भ्रष्ट स्वभावों से घृणा करना आसान नहीं होगा? तुलनात्मक रूप से यह आसान होगा। अगर तुम सत्य को समझते हो, तो तुम निश्चित रूप से नकारात्मक चीजों और दैहिक वस्तुओं से घृणा कर सकोगे, क्योंकि तुम्हारे पास सबसे न्यूनतम और मूलभूत चीज होगी : अंतरात्मा की जागरूकता। अंतरात्मा की जागरूकता होना उतना ही मूल्यवान है, जितना सच और झूठ के बीच भेद करने की क्षमता का होना मूल्यवान है और जब सकारात्मक चीजों से प्यार करने की बात आए तो न्याय की भावना होना मूल्यवान है। ये तीन चीजें सामान्य मानवता में सबसे अधिक वांछनीय और मूल्यवान हैं। अगर तुम्हारे पास ये तीन चीजें हैं, तो तुम निश्चित रूप से सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो पाओगे। यहाँ तक कि अगर तुम्हारे पास इनमें से केवल एक या दो चीजें ही हैं, फिर भी तुम कई सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो जाओगे। चलो हम अंतरात्मा की जागरूकता पर नजर डालते हैं। उदाहरण के लिए अगर तुम्हारा सामना किसी ऐसे बुरे व्यक्ति से होता है जो कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा डालता है, तो क्या तुम इसे पहचान पाओगे? क्या तुम प्रत्यक्ष बुरे कर्मों को चुन सकते हो? बिल्कुल चुन सकते हो। बुरे लोग खराब चीजें करते हैं, और अच्छे लोग अच्छी चीजें करते हैं; औसत व्यक्ति एक नजर में अंतर बता सकता है। अगर तुम्हारे अंदर अंतरात्मा की जागरूकता है तो क्या तुम्हारे अंदर भावनाएँ और विचार नहीं होंगे? अगर तुम्हारे अंदर विचार और भावनाएँ हैं, तो तुम्हारे पास सत्य का अभ्यास करने के लिए सबसे बुनियादी बातों में से एक है। अगर तुम बता सकते हो और महसूस कर सकते हो कि यह व्यक्ति बुराई कर रहा है, और इसकी पहचान करने के बाद उस व्यक्ति को उजागर कर सकते हो, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इस मामले को समझने में मदद कर सकते हो, तो क्या यह समस्या हल नहीं हो जाएगी? क्या यही सत्य का अभ्यास और सिद्धांतों पर चलना नहीं है? यहाँ सत्य का अभ्यास करने के लिए कौन से तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं? (बुराई को उजागर करना, इसकी रिपोर्ट करना और रोकना।) सही। इस तरह से काम करना सत्य का अभ्यास करना होता है, और ऐसा करके ही तुम अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करोगे। अगर तुम इस तरह की स्थितियों का सामना करने पर अपनी समझ के अनुसार सत्य सिद्धांतों के अनुरूप काम करते हो, तो यह सत्य का अभ्यास करना और सिद्धांतों के साथ काम करना है। लेकिन अगर तुम्हारे अंदर अंतरात्मा की जागरूकता न हो और तुम बुरे लोगों को बुराई करते देखो, तो क्या तुम्हें इसके प्रति जागरूकता होगी? (मुझे नहीं होगी।) और बिना जागरूकता वाले लोग इसके बारे में क्या सोचेंगे? “अगर वह व्यक्ति बुराई करता है तो मुझे इससे क्या? वह मेरा तो कोई नुकसान नहीं कर रहा, तो मैं उसे नाराज क्यों करूँ? क्या ऐसा करना सच में आवश्यक है? इससे मुझे क्या लाभ होगा?” क्या इस तरह के लोग बुरे लोगों की बुराई उजागर करते हैं, उनकी रिपोर्ट करते हैं और बुराई करने से उन्हें रोकते हैं? निश्चित रूप से नहीं। वे सत्य को समझते तो हैं लेकिन इसका अभ्यास नहीं कर सकते। क्या ऐसे लोगों के पास अंतरात्मा और विवेक होता है? उनके पास न तो अंतरात्मा होती है और न ही विवेक। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि वे सत्य को समझते तो हैं लेकिन इसका अभ्यास नहीं करते; इसका मतलब है कि उनके पास न तो अंतरात्मा है और न ही तर्क और वे परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर रहे हैं। वे केवल अपने हितों को नुकसान से बचाने पर ध्यान देते हैं; उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं होती कि कलीसिया के काम का नुकसान हो रहा है या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हितों को क्षति पहुँच रही है। वे केवल खुद की रक्षा करने की कोशिश करते हैं, और अगर उन्हें समस्याएँ दिखती हैं, तो वे उन्हें अनदेखा कर देते हैं। यहाँ तक कि जब वे किसी को बुराई करते हुए देखते भी हैं, तो वे उस पर ध्यान नहीं देते और सोचते हैं कि जब तक इस से उनके हितों को कोई नुकसान नहीं पहुँच रहा, यह ठीक है। दूसरे चाहे जो भी करें, उन्हें उस से कोई लेना-देना नहीं होता; उनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं होती और उनकी अंतरात्मा का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इन अभिव्यक्तियों के आधार पर क्या इन लोगों में मानवता है? अंतरात्मा और तर्क से रहित व्यक्ति मानवता से रहित होता है। अंतरात्मा और तर्क से रहित सभी लोग बुरे होते हैं : वे मनुष्यों के भेष में जानवर हैं, जो हर प्रकार की बुरी चीजें करने में सक्षम होते हैं।
क्या वह व्यक्ति जिसके अंदर अंतरात्मा की जागरूकता नहीं है, अच्छे कर्मों और बुरी चीजों के बीच के फर्क को पहचानने में सक्षम होता है? क्या उसके पास अच्छे-बुरे और सही-गलत के बीच की कोई अवधारणा होती है? (नहीं।) तो वह अन्य लोगों से व्यवहार कैसे करता है? वह भ्रष्ट मानव जाति को कैसे देखता है? उसका मानना होता है कि संपूर्ण मानव जाति खराब है, और वह स्वयं मानव जाति में सबसे खराब नहीं है और अधिकांश लोग उससे भी ज्यादा खराब हैं। अगर तुम उससे कहोगे कि लोगों में अंतरात्मा और तर्क शक्ति होनी चाहिए, और लोगों को अच्छे कर्म करने चाहिए, तो वह कहेगा कि यह झूठ है और इस पर विश्वास नहीं करेगा। ऐसे लोग जिनके अंदर अंतरात्मा की जागरूकता नहीं है, वे इसीलिए सत्य के अभ्यास का अर्थ और मूल्य कभी नहीं जान पाएँगे। तो क्या इस प्रकार के व्यक्ति को सत्य से प्रेम करवा पाना संभव है? (नहीं।) उनके प्रकृति सार में ऐसा कुछ भी नहीं है कि वे सत्य से प्रेम कर पाएँ, इसलिए वे कभी भी सत्य से प्रेम करने में सक्षम नहीं हो पाएँगे। इस तरह का व्यक्ति कभी भी नहीं समझ पाएगा कि सत्य क्या है, क्या अच्छा है या बुराई क्या है। अपने मन में उन्हें सकारात्मक चीजें नकारात्मक लगती हैं और नकारात्मक चीजें सकारात्मक लगती हैं; दोनों धारणाएँ आपस में उलझ जाती हैं। अपने कार्यों को वे किन सिद्धांतों के आधार पर करते हैं? वे सही और गलत या अच्छे और बुरे के बीच कोई फर्क नहीं करते, और वे प्रतिशोध या इनाम की परवाह नहीं करते; वे जो भी करते या कहते हैं, वह सिर्फ उनके फायदे के लिए होना चाहिए। जहाँ तक उनके दृष्टिकोण की बात है, वे अपने हितों को साधने के लिए परिवेश के हिसाब से बदलते रहते हैं। वे उन दृष्टिकोणों पर कायम रहते हैं, जो तब तक उनके हित साधने में मदद करेंगे, जब तक वे अपने लक्ष्य और इच्छाएँ प्राप्त न कर लें। क्या इस प्रकार की मानवता वाले, इस प्रकृति सार वाले व्यक्ति के लिए सत्य का अभ्यास करना संभव है? (नहीं।) सत्य का अभ्यास करने के लिए व्यक्ति में कौन से गुण होने चाहिए? (अंतरात्मा की जागरूकता, सही और गलत के बीच फर्क समझने की क्षमता, और न्याय और सकारात्मक चीजों से प्रेम करने वाला दिल होना चाहिए।) तुम लोगों के पास इनमें से कौन से गुण हैं? इन तीनों में से सही और गलत के बीच के फर्क को समझने की क्षमता हासिल करना और न्याय और सकारात्मक चीजों से प्यार करना शुरू करना थोड़ा कठिन हो सकता है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, उनके लिए इन दो चीजों को प्राप्त करना बहुत मुश्किल है। लेकिन अंतरात्मा और विवेक रखने वाले लोगों को कम से कम अपनी अंतरात्मा और विवेक के अनुसार कार्य करने चाहिए, दूसरों को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए, अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए दूसरों को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए और बुरे और अविवेकपूर्ण काम नहीं करने चाहिए। इस तरह उनकी अंतरात्माएँ शांति से रह सकती हैं। यदि वे परमेश्वर पर सच्चा विश्वास रखते हैं, तो उन्हें कम से कम ईमानदार होना चाहिए और वे जो कुछ भी करते हैं उसमें अपनी अंतरात्मा और विवेक के अनुरूप होना चाहिए। अच्छा इंसान बनने के लिए ये मानक जरूरी हैं। अगर उनमें थोड़ी सी भी काबिलियत है और वे सत्य को समझ सकते हैं, तो यह और भी बेहतर है; तब वे अपने हर काम में सत्य की तलाश कर सकते हैं, और सिद्धांतों के उल्लंघन के लिए अपने कार्यों पर लगातार आत्म-चिंतन करते रह सकते हैं। अपने हृदय की गहराई में क्या तुम्हारे पास खुद के मूल्यांकन का कोई मानक है? यदि तुम कुछ गलत करते हो या सिद्धांतों का उल्लंघन करते हो, यदि तुम बेपरवाही दिखाते हो, या तुम अपने दैहिक संबंधों की रक्षा करते हो, तो क्या तुम्हें इस बारे में पता होता है? यदि ऐसा है, तो तुम में थोड़ी बहुत अंतरात्मा है। यदि तुम में अंतरात्मा की जागरूकता नहीं है, तो तुम मुश्किल में हो। यदि तुम उद्धार की आशा रखते हो तुम में अंतरात्मा की जागरूकता होनी चाहिए; यदि तुम्हारे पास यह भी नहीं है, तो तुम लोग खतरे में हो, क्योंकि परमेश्वर उन लोगों को नहीं बचाता जिनमें मानवता नहीं होती। अंतरात्मा की जागरूकता तुम्हें मानवता के भीतर कैसे प्रभावित करती है? इसका प्रभाव यह होगा कि तुम जो भी व्यक्तिगत अनुभव करते हो, जो अपनी आँखों से देखते हो, और जो अपने कानों से सुनते हो, जो तुम सोचते हो, जो करने का इरादा करते हो और जो कर चुके हो, उनके सही और गलत होने का आकलन करने के लिए तुम अपनी अंतरात्मा का उपयोग करोगे। तुम्हारे आचरण और कार्य सिद्धांतों में कम से कम एक आधार रेखा होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो बहुत उत्साह के साथ अनुसरण करता है, लेकिन बहुत भोला और निष्कपट भी है, और तुम लगातार उसे कमतर समझते हो, लगातार उसे परेशान करना चाहते हो और अपने शब्दों से उसे चिढ़ाते हो और उसका मजाक बनाते हो। तुम्हारे मन में यह ख्याल आते रहते हैं, और तुम कभी-कभार ऐसा व्यवहार प्रकट भी करते हो—तो क्या तुम्हारा दिल इसके प्रति जागरूक होगा? क्या तुम जान पाओगे कि ये विचार और कार्य गलत और भद्दे हैं? क्या तुम्हें अपने कार्यों की प्रकृति का एहसास होगा? (हाँ।) यदि ऐसा है तो इसका मतलब तुम में अंतरात्मा की जागरूकता है। यदि तुम में यह फर्क करने की क्षमता नहीं है कि लोगों, घटनाओं और चीजों के बारे में तुम्हारे विचार, या तुम्हारे दिल की गहराई में पनप रहे विचार भद्दे हैं या वे सुंदर और अच्छे हैं, यदि तुम्हारे दिल में मूल्यांकन का कोई मानक नहीं है, तो तुम में कोई मानवता नहीं है। जिन लोगों में अंतरात्मा नहीं होती उनमें मानवता भी नहीं होती। अगर तुम बुनियादी मानवता भी नहीं जानते, तो तुम्हारा कोई मूल्य नहीं है और तुमको नहीं बचाया जा सकता। परमेश्वर ने यहूदा को ही क्यों चुना कि वह प्रभु को धोखा दे? उसने यहूदा की प्रकृति के अनुसार ऐसा किया। यहूदा का स्वभाव ही ऐसा था कि वह अपने लाभ के लिए अपने स्वामी को भी धोखा दे देता, और परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। यहूदा पैसे चुराने में सक्षम था, तो क्या उसकी कोई अंतरात्मा थी? (नहीं।) यह अंतरात्मा न होने का उदाहरण है। विशेष रूप से यह बात कि यहूदा ने जो धन चुराया था वह प्रभु से संबंधित था, कि वह ऐसी चीज थी जिसमें पूरी तरह अंतरात्मा और विवेक की कमी थी; वह राक्षस था, जिसे किसी भी तरह बुरी चीजें करने से नहीं रोका गया था। उसमें अंतरात्मा की जागरूकता नहीं थी और वह खुद को रोक नहीं सकता था, इसलिए वह चोरी-छिपे परमेश्वर को मिली भेंटें खर्च करने में सक्षम था। यदि कोई व्यक्ति चोरी-छिपे परमेश्वर की भेंटें खर्च कर सकता है, तो उसमें किस प्रकार की मानवता है? (बुरे व्यक्ति की मानवता है।) उसमें कोई मानवता नहीं है। मानवता न होने का पहला लक्षण अंतरात्मा की जागरूकता न होना और अपने किए किसी भी कार्य में अपनी अंतरात्मा के हिसाब से संचालित न होना है। यहूदा के पास यह सबसे बुनियादी चीज भी न थी, जिसका अर्थ यह है कि उसमें कोई मानवता नहीं थी, इसलिए उसके लिए ऐसा कुछ करना आसान था। इसलिए परमेश्वर का यहूदा को चुनना कि वह प्रभु को धोखा दे और उससे यह सेवा प्रदान करवाना, सबसे उपयुक्त फैसला था; इसमें परमेश्वर का कोई भी सामान बर्बाद नहीं हुआ, परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही ही होता है। जब यहूदा ने पैसों की थैली से पैसे चुराए, और किसी को इसके बारे में पता नहीं चला, तो उसे विश्वास हो गया कि परमेश्वर ने उसे ऐसा करते हुए नहीं देखा है। उसमें अंतरात्मा की जागरूकता नहीं थी और उसे लगा किसी को भी पता नहीं चला और इसका परिणाम क्या हुआ? उसने प्रभु को धोखा देने, प्रभु के साथ विश्वासघात करने का गंभीर पाप किया और युगों-युगों तक एक पापी के रूप में जाना गया। फिर उसने खुद को फांसी लगा ली और पेट फटने से उसकी मौत हो गई। क्या ऐसे व्यक्ति पर दया करनी चाहिए? जिस जानवर में कोई मानवता नहीं है और जिसे इस तरह से दंडित किया गया हो उस पर बिल्कुल भी दया नहीं की जानी चाहिए।
जिन लोगों में मानवता होती है वह हर काम अपनी अंतरात्मा और विवेक के अनुसार करते हैं। कम से कम उनके आचरण की आधार रेखा उनकी अंतरात्मा द्वारा निर्धारित मानक से नीचे नहीं गिरेगी। यदि उन्हें पता चल जाता है कि कुछ करना गलत है, तो वे अपने व्यवहार पर नियंत्रण रख पाएँगे। अंतरात्मा लोगों को कार्य करने का उपयुक्त तरीका बता सकती है, इसलिए अंतरात्मा वाले लोग अपनी अंतरात्मा के आधार पर बोलने और कार्य करने में सक्षम होते हैं। विश्वासी बनने के बाद लोगों की अंतरात्मा पहले जैसे ही अपनी भूमिका निभाती रहती है। तो जब ऐसी कई चीजें होती हैं जिन्हें वो स्पष्ट रूप से देख नहीं सकते, तब भी वे कम से कम अपनी अंतरात्मा के आधार पर उन चीजों तक पहुँच सकते हैं और उन्हें सँभाल सकते हैं। यदि इस आधार पर वे सत्य को समझते हैं, तो वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजों को सँभालेंगे; उनकी अंतरात्मा को इस बात का एहसास होगा कि उनका कार्य सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं, और इसका उन पर प्रभाव पड़ेगा। यदि लोग सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और अपने दैहिक हितों की रक्षा करते हैं तो यह उनके भ्रष्ट स्वभावों के प्रभुत्व के कारण होता है जो उन पर हावी होते हैं, और जिनके पास अंतरात्मा है उन्हें इस बारे में पता होना चाहिए। यदि कोई सत्य को समझता है लेकिन उसका अभ्यास नहीं करता, तो क्या उसकी अंतरात्मा उसे इसका दोष देती है? क्या उनका दिल सुकून पा सकता है? सभी लोग इसका अनुभव करने में सक्षम हैं। क्या तुम लोगों के रोजमर्रा के जीवन में चाहे तुम लोगों के साथ व्यवहार कर रहे हो या कोई काम कर रहे हो, क्या तुम्हारी अंतरात्मा की जागरूकता स्पष्ट रहती है? क्या तुम कभी-कभी ऋणी या निंदा महसूस करते हो? क्या तुम्हें कभी-कभी आंतरिक बेचैनी और आरोप या आंतरिक दर्द और संघर्ष महसूस होता है? क्या तुम लोगों के मन में ऐसी भावनाएँ आई हैं? यदि ऐसा है, तो यह इतनी बुरी बात नहीं है, लेकिन यदि ऐसा नहीं है, तो तुम लोग खतरे में हो। चाहे तुम कोई भी हो, यदि तुम्हारे भीतर अंतरात्मा की जागरूकता नहीं है, तो तुम परमेश्वर पर सच्चा विश्वास नहीं रखते। कुछ लोग पूछते हैं, “किसी के विश्वास की सच्चाई या झूठ को जानने से इसका क्या लेना-देना है?” तुम लोगों के हिसाब से इन दोनों के बीच क्या संबंध है? (जब कोई ऐसा व्यक्ति जिसमें अंतरात्मा की जागरूकता होती है, कुछ गलत करता है, तो उसे आत्म-निंदा, दुख, पश्चात्ताप और ऋणी होने की भावना महसूस होती है वे सब परमेश्वर की देन होती हैं। यह तथ्य कि वे परमेश्वर की निंदा को महसूस करने में सक्षम हैं, यह दर्शाता है कि वे अपने दिल में परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकार करते हैं। कुछ लोगों में यह जागरूकता बिल्कुल भी नहीं होती, जो यह इंगित करता है कि वे अपने दिल में बिल्कुल भी विश्वास नहीं रखते कि परमेश्वर हर चीज की जाँच-पड़ताल कर रहा है। जब वे कुछ गलत करते हैं, तो उन्हें ऐसा नहीं लगता कि वे ऋणी हैं; उनमें इस प्रकार की जागरूकता नहीं होती।) यह आंशिक रूप से सही है। और कुछ? (अंतरात्मा वाले व्यक्ति स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर है, और जब वे कुछ गलत करते हैं, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना, आत्म-चिंतन करना जानते हैं और समस्या को हल करने के लिए सत्य की खोज करते हैं। जब अंतरात्मा रहित कोई व्यक्ति किसी समस्या का सामना करता है, तो उस पर अंतरात्मा का प्रभाव नहीं पड़ता; उसके दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं होती, और वह समस्या को हल करने के लिए सत्य की खोज नहीं करता। वह मानता ही नहीं कि सत्य वह चीज है जिसकी उसे जरूरत है, इसलिए वह सत्य का अभ्यास करने की कोशिश ही नहीं करता। जो लोग परमेश्वर पर विश्वास रखते हैं लेकिन सत्य के अभ्यास का प्रयास नहीं करते, वे छद्म-विश्वासी लोग हैं।) सच्ची आस्था वाले व्यक्ति को चाहे किसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़े, वे परमेश्वर की जाँच को स्वीकार कर सकते हैं, और इस तरह उनकी अंतरात्मा को एहसास होता है कि क्या सही है और क्या गलत, या क्या अच्छा है और क्या बुरा। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें विश्वास होता है कि परमेश्वर का अस्तित्व है और वे उसके वचनों पर विश्वास रखते हैं। वे परमेश्वर के जिन वचनों को सुनते हैं, उन्हें अपने दिल में रखते हैं, जो तब उनके स्वयं के आचरण और दुनिया के साथ उनके व्यवहार और उनके द्वारा किए जाने वाले उनके मूल्यांकन के मानक के रूप में कार्य करते हैं। यह मानक क्या है? चाहे वे सत्य को समझते हों या नहीं, वे अधिकांश समय परमेश्वर के वचन को अपने मानक के रूप में रखते हैं, क्योंकि वे परमेश्वर पर विश्वास रखते हैं, उनका मानना होता है कि उसका अस्तित्व है, और उन्हें विश्वास होता है कि उसके वचन सत्य हैं। चूँकि वह परमेश्वर के वचन को सत्य मानते हैं, तो जब उनका समस्याओं से सामना होता है, तो स्वाभाविक रूप से उनसे निपटने के लिए वे उसके वचनों का उपयोग करते हैं। कम से कम उन्हें इस बात का ज्ञान होता है कि उनके अपने विचार और धारणाएँ सत्य नहीं हैं। इसलिए समस्याओं से सामना होते समय उनकी अंतरात्मा की जागरूकता उन्हें बताती है कि परमेश्वर के वचनों को आधार के रूप में लेना चाहिए, और यदि वे ऐसा नहीं कर पाते और उसे अभ्यास में नहीं ला पाते, तो उनकी अंतरात्मा को आराम नहीं पहुँचेगा और वे अशांत महसूस करेंगे। उदाहरण के लिए लोगों को यह कैसे पता चलता है कि दूसरों के साथ दैहिक संबंधों की रक्षा करना, आराम का आनंद लेना और चापलूस होना नकारात्मक चीजें होती हैं? (यह परमेश्वर के वचन में उजागर हुआ है।) हाँ, यदि तुम उन चीजों को परमेश्वर के वचन के अनुसार मापते हो, तो वे सभी नकारात्मक चीजें हैं, भ्रष्ट स्वभावों का प्रकाशन हैं, और लोगों की प्रकृतियों के कारण उत्पन्न होती हैं। जब लोग इस तरह की चीजें प्रकट करते हैं, तो क्या वे अपने दिल में खुशी और आनंद महसूस करते हैं, या परेशान और पीड़ित महसूस करते हैं? वे आंतरिक संघर्ष और परेशानी महसूस करते हैं, जैसे कोई उन्हें भीतर से काट रहा हो। हर बार जब वे ऐसी चीजों का सामना करते हैं, जब वे उन्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार सँभाल नहीं पाते, या अपनी भावनाओं की बाधाओं को तोड़ नहीं पाते तो उन्हें पीड़ा महसूस होती है। ये दर्द कैसे घटित होता है? यह उस स्थिति में घटित होता है जब लोगों में अंतरात्मा की जागरूकता होती है और वे परमेश्वर के वचन के सत्य को समझते हैं। जब यह सारा दर्द, निंदा और आरोप उनके दिल में उठता है, तो अपने दिल की गहराई में वे खुद से नफरत और घृणा महसूस करने लगते हैं, और यहाँ तक कि खुद को तिरस्कार की नजर से देखने लगते हैं, कहते हैं, “मैं एक अच्छी बात कह सकता हूँ, यह कहते हुए कि मैं परमेश्वर से प्रेम करना और परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहता हूँ, और मैं इन बातों का जोर-शोर से प्रचार करता हूँ, लेकिन जब चीजें मुझ पर आ पड़ती हैं, तो मैं हमेशा खुद के गौरव के बारे में सोचता हूँ। चाहे मैं कितनी भी कोशिश करूँ, मैं इस बाधा को नहीं तोड़ पाता। मुझे दूसरों को नाराज करना अच्छा नहीं लगता, लेकिन मैं लगातार परमेश्वर को नाराज कर रहा हूँ।” समय के साथ वे अपने दिल की गहराई में अपने बारे में एक राय विकसित कर लेते हैं—वह क्या है? वे नहीं सोचते कि वे अच्छे लोग हैं; वे जानते हैं कि वे कई बुरी चीजें करने में सक्षम हैं, और वे देखते हैं कि वे अच्छे होने का दिखावा कर सकते हैं, और वे पाखंडी हैं। इन परिस्थितियों में वे खुद को नकारना शुरू कर देते हैं, और खुद पर विश्वास नहीं करते हैं। ये परिणाम कैसे प्राप्त होते हैं? वे परिणाम परमेश्वर के वचन को समझने के आधार पर हासिल किए जाते हैं जब उनकी अंतरात्मा जागरूक होती हैं और वे अपना उद्देश्य पूरा करते हैं।
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