कार्य और प्रवेश (2)
तुम लोगों का कार्य और प्रवेश काफ़ी ख़राब है; मनुष्य इसे महत्व नहीं देता कि कार्य कैसे करना है, और जीवन-प्रवेश के बारे में तो और भी अव्यवस्थित है। मनुष्य इन्हें वैसे सबक नहीं मानता, जिनसे उसे प्रवेश करना चाहिए; इसलिए, अपने आध्यात्मिक अनुभव में, वस्तुतः मनुष्य केवल खोखली मृगतृष्णा देखता है। जहाँ तक कार्य का संबंध है, तुम लोगों से बहुत ज्यादा की माँग नहीं की जाती, किंतु, परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने वाले एक व्यक्ति के रूप में, तुम्हें परमेश्वर के लिए कार्य करने के अपने सबक सीखने चाहिए, ताकि तुम लोग शीघ्र ही परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हो सको। युगों-युगों से, जिन्होंने कार्य किया उन्हें कार्यकर्ता या प्रेरित कहा गया है, जो परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने वाले लोगों की एक छोटी-सी संख्या को दर्शानेवाले शब्द हैं। हालाँकि, जिस कार्य के बारे में मैं आज बोलता हूँ, वह केवल उन श्रमिकों या प्रेरितों को संदर्भित नहीं करता, बल्कि यह परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने वाले सभी लोगों की ओर निर्देशित है। शायद ऐसे कई लोग हों, जो इसमें बहुत कम रुचि रखते हों, किंतु, प्रवेश के वास्ते, इस मामले से संबंधित सत्य पर चर्चा करना सबसे अच्छा रहेगा।
कार्य के संबंध में, मनुष्य का विश्वास है कि परमेश्वर के लिए इधर-उधर दौड़ना, सभी जगहों पर प्रचार करना और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाना ही कार्य है। यद्यपि यह विश्वास सही है, किंतु यह अत्यधिक एकतरफा है; परमेश्वर इंसान से जो माँगता है, वह परमेश्वर के लिए केवल इधर-उधर दौड़ना ही नहीं है; यह आत्मा के भीतर सेवकाई और पोषण अधिक है। कई भाइयों और बहनों ने इतने वर्षों के अनुभव के बाद भी परमेश्वर के लिए कार्य करने के बारे में कभी नहीं सोचा है, क्योंकि मनुष्य द्वारा कल्पित कार्य परमेश्वर द्वारा की गई माँग के साथ असंगत है। इसलिए, मनुष्य को कार्य के मामले में किसी भी तरह की कोई दिलचस्पी नहीं है, और ठीक इसी कारण से मनुष्य का प्रवेश भी काफ़ी एकतरफा है। तुम सभी लोगों को परमेश्वर के लिए कार्य करने से अपने प्रवेश की शुरुआत करनी चाहिए, ताकि तुम लोग अनुभव के हर पहलू से बेहतर ढंग से गुज़र सको। यही है वह, जिसमें तुम लोगों को प्रवेश करना चाहिए। कार्य परमेश्वर के लिए इधर-उधर दौड़ने को संदर्भित नहीं करता, बल्कि इस बात को संदर्भित करता है कि मनुष्य का जीवन और जिसे वह जीता है, वे परमेश्वर को आनंद देने में सक्षम हैं या नहीं। कार्य परमेश्वर के प्रति गवाही देने और साथ ही मनुष्य के प्रति सेवकाई के लिए मनुष्य द्वारा परमेश्वर के प्रति अपनी निष्ठा और परमेश्वर के बारे में अपने ज्ञान के उपयोग को संदर्भित करता है। यह मनुष्य का उत्तरदायित्व है और इसे सभी लोगों को समझना चाहिए। कोई कह सकता है कि तुम लोगों का प्रवेश ही तुम लोगों का कार्य है, और कि तुम लोग परमेश्वर के लिए कार्य करने के दौरान प्रवेश करने का प्रयास कर रहे हो। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का अर्थ मात्र यह नहीं है कि तुम जानते हो कि उसके वचन को कैसे खाएँ और पीएँ; बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि तुम लोगों को यह जानना चाहिए कि परमेश्वर की गवाही कैसे दें और परमेश्वर की सेवा करने तथा मनुष्य की सेवकाई और आपूर्ति करने में सक्षम कैसे हों। यही कार्य है, और यही तुम लोगों का प्रवेश भी है; इसे ही हर व्यक्ति को संपन्न करना चाहिए। कई लोग हैं, जो केवल परमेश्वर के लिए इधर-उधर दौड़ने, और हर जगह उपदेश देने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, किंतु अपने व्यक्तिगत अनुभव को अनदेखा करते हैं और आध्यात्मिक जीवन में अपने प्रवेश की उपेक्षा करते हैं। यही कारण है कि परमेश्वर की सेवा करने वाले लोग परमेश्वर का विरोध करने वाले बन जाते हैं। इन लोगों ने, जो कई वर्षों से परमेश्वर की सेवा और मनुष्य की सेवकाई कर रहे हैं, कार्य करने और उपदेश देने को ही प्रवेश मान लिया है, और किसी ने भी अपने व्यक्तिगत आध्यात्मिक अनुभव को महत्वपूर्ण प्रवेश के रूप में नहीं लिया है। इसके बजाय, उन्होंने पवित्र आत्मा के कार्य से प्राप्त प्रबुद्धता को दूसरों को सिखाने के लिए पूँजी के रूप में लिया है। उपदेश देते समय उन पर बहुत जिम्मेदारी होती है और वे पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करते हैं, और इसके माध्यम से वे पवित्र आत्मा की वाणी निकालते हैं। उस समय, जो लोग कार्य करते हैं, वे आत्मतुष्टि से भर जाते हैं, मानो पवित्र आत्मा का कार्य उनका व्यक्तिगत आध्यात्मिक अनुभव बन गया हो; उन्हें लगता है कि उनके द्वारा बोले गए सभी वचन उनके स्वयं के हैं, लेकिन फिर मानो उनका स्वयं का अनुभव उतना स्पष्ट नहीं होता, जितना उन्होंने वर्णन किया होता है। और तो और, बोलने से पहले उन्हें आभास भी नहीं होता कि क्या बोलना है, किंतु जब पवित्र आत्मा उनमें कार्य करता है, तो उनके वचन अनवरत रूप से धाराप्रवाह बह निकलते हैं। एक बार जब तुम इस तरह उपदेश दे लेते हो, तो तुम्हें लगता है कि तुम्हारा वास्तविक आध्यात्मिक कद उतना छोटा नहीं है, जितना तुम मानते थे, और उस स्थिति में, जब पवित्र आत्मा तुम्हारे भीतर कई बार कार्य कर लेता है, तुम यह निश्चित कर लेते हो कि तुम्हारे पास पहले से ही आध्यात्मिक कद है और ग़लती से यह मान लेते हो कि पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा स्वयं का प्रवेश और तुम्हारा स्वयं का अस्तित्व है। जब तुम लगातार इस तरह अनुभव करते हो, तो तुम अपने स्वयं के प्रवेश के बारे में सुस्त हो जाते हो, अनजाने ही आलस्य में फिसल जाते हो, और अपने स्वयं के प्रवेश को महत्व देना बंद कर देते हो। इसलिए, दूसरों की सेवकाई करते समय तुम्हें अपने आध्यात्मिक कद और पवित्र आत्मा के कार्य के बीच स्पष्ट रूप से अंतर करना चाहिए। यह तुम्हारे प्रवेश को बेहतर तरीके से सुगम बना सकता है और तुम्हारे अनुभव को लाभ पहुँचा सकता है। जब मनुष्य पवित्र आत्मा के कार्य को अपना व्यक्तिगत अनुभव मान लेता है, तो यह भ्रष्टता का स्रोत बन जाता है। इसीलिए मैं कहता हूँ, तुम लोग जो भी कर्तव्य करो, तुम लोगों को अपने प्रवेश को एक महत्वपूर्ण सबक समझना चाहिए।
व्यक्ति परमेश्वर की इच्छा पूरी करने, परमेश्वर की पसंद के सभी लोगों को उसके सामने लेकर आने, मनुष्य को परमेश्वर के समक्ष लाने, और मनुष्य को पवित्र आत्मा के कार्य और परमेश्वर के मार्गदर्शन से परिचित कराने के लिए कार्य करता है, और इस प्रकार वह परमेश्वर के कार्य के परिणामों को पूरा करता है। इसलिए, यह अनिवार्य है कि तुम लोग कार्य के सार के संबंध में पूरी तरह से स्पष्ट रहो। ऐसे व्यक्ति के रूप में, जिसका परमेश्वर द्वारा उपयोग किया जाता है, हर मनुष्य परमेश्वर के लिए कार्य करने के योग्य है, अर्थात्, हर एक के पास पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए जाने का अवसर है। किंतु एक बात का तुम लोगों को अवश्य एहसास होना चाहिए : जब मनुष्य परमेश्वर द्वारा आदेशित कार्य करता है, तो मनुष्य को परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने का अवसर दिया गया होता है, किंतु मनुष्य द्वारा जो कहा और जाना जाता है, वह पूर्णतः मनुष्य का आध्यात्मिक कद नहीं होता। तुम लोग जो कर सकते हो, वह यह है कि अपने कार्य के दौरान बेहतर ढंग से अपनी कमियों के बारे में जानो, और पवित्र आत्मा से अधिक प्रबुद्धता प्राप्त करो। इस प्रकार, तुम लोग अपने कार्य के दौरान बेहतर प्रवेश प्राप्त करने में सक्षम होगे। यदि मनुष्य परमेश्वर से प्राप्त मार्गदर्शन को अपना स्वयं का प्रवेश और अपने में अंतर्निहित चीज़ समझता है, तो मनुष्य का आध्यात्मिक कद विकसित होने की कोई संभावना नहीं है। पवित्र आत्मा मनुष्य में प्रबुद्धता का जो कार्य करता है, वह तब घटित होता है जब मनुष्य एक सामान्य स्थिति में होता है; ऐसे समय पर, मनुष्य प्रायः स्वयं को प्राप्त होने वाली प्रबुद्धता को अपना वास्तविक अध्यात्मिक कद समझने की ग़लती कर बैठता है, क्योंकि जिस रूप में पवित्र आत्मा प्रबुद्ध करता है, वह अत्यंत सामान्य होता है, और वह मनुष्य के भीतर जो अंतर्निहित है, उसका उपयोग करता है। जब लोग कार्य करते और बोलते हैं, या जब वे प्रार्थना या अपनी आध्यात्मिक भक्ति कर रहे होते हैं, तो एक सत्य अचानक उन पर स्पष्ट हो जाएगा। लेकिन वास्तव में, मनुष्य जो देखता है, वह केवल पवित्र आत्मा द्वारा प्रदान की जाने वाली प्रबुद्धता होती है (स्वभावत:, यह प्रबुद्धता मनुष्य के सहयोग से जुड़ी है) और वह मनुष्य का सच्चा आध्यात्मिक कद प्रस्तुत नहीं करती। अनुभव की एक अवधि के बाद, जिसमें मनुष्य कुछ कठिनाइयों और परीक्षणों का सामना करता है, ऐसी परिस्थितियों में मनुष्य का वास्तविक आध्यात्मिक कद प्रत्यक्ष हो जाता है। केवल तभी मनुष्य को पता चलता है कि मनुष्य का आध्यात्मिक कद बहुत बड़ा नहीं है, और मनुष्य का स्वार्थ, व्यक्तिगत हित और लालच सब उभर आते हैं। केवल इस तरह के अनुभवों के कई चक्रों के बाद ही कई ऐसे लोग, जो अपनी आत्माओं के भीतर जाग गए होते हैं, महसूस करते हैं कि अतीत में जो उन्होंने अनुभव किया था, वह उनकी अपनी वास्तविकता नहीं थी, बल्कि पवित्र आत्मा से प्राप्त एक क्षणिक रोशनी थी, और मनुष्य को केवल यह रोशनी प्राप्त हुई थी। जब पवित्र आत्मा मनुष्य को सत्य को समझने के लिए प्रबुद्ध करता है, तो ऐसा प्रायः, यह समझाए बिना कि चीज़ें किस तरह घटित हुई हैं या किस ओर कहाँ जा रही हैं, स्पष्ट और विशिष्ट तरीके से होता है। अर्थात्, इस प्रकाशन में मनुष्य की कठिनाइयों को शामिल करने के बजाय वह सत्य को सीधे प्रकट करता है। जब मनुष्य प्रवेश की प्रक्रिया में कठिनाइयों का सामना करता है, और फिर पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता को शामिल करता है, तो यह मनुष्य का वास्तविक अनुभव बन जाता है। उदाहरण के लिए, एक अविवाहित बहन ने संगति के दौरान इस प्रकार कहा : "हम महिमा और समृद्धि की चाह नहीं रखते या पति-पत्नी के बीच के प्रेम की खुशी के लिए नहीं ललचाते; हम केवल एक पवित्र और एकनिष्ठ हृदय परमेश्वर को समर्पित करने की अभिलाषा रखते हैं।" वह कहती गई : "जब लोग शादी कर लेते हैं, तो बहुत-कुछ है जो उन्हें घेर लेता है, और परमेश्वर के प्रति उनके हृदय का प्यार वास्तविक नहीं रहता। उनका हृदय हमेशा अपने परिवार और अपने जीवन-साथी के साथ व्यस्त रहता है, और इसलिए उनका आंतरिक जगत और अधिक जटिल हो जाता है...।" जब वह बोल रही थी, तो ऐसा लगता था मानो उसके मुख से वही निकल रहा है, जो वह अपने हृदय में सोच रही है; उसके वचन प्रबल और सशक्त थे, मानो उसने जो कुछ कहा, वह उसके हृदय की गहराई से आया हो, और मानो स्वयं को पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित करना उसकी उत्कट इच्छा थी और उसे आशा थी कि उसके जैसे भाई-बहन भी यही संकल्प साझा करेंगे। कहा जा सकता है कि इस क्षण संकल्प और प्रेरित होने की तुम्हारी भावना पूरी तरह से पवित्र आत्मा के कार्य से आते हैं। जब परमेश्वर के कार्य की पद्धति बदलती है, तो तुम्हारी आयु भी कुछ वर्ष बढ़ चुकी होती है; तुम देखती हो कि तुम्हारी सभी सहपाठिनों और हमउम्र सखियों के पति हैं, या तुम सुनती हो कि विवाह करने के बाद अमुक-अमुक को उसका पति शहर में ले गया और उसे वहाँ नौकरी मिल गई। जब तुम उसे देखती हो, तो यह देखकर ईर्ष्या महसूस करने लगती हो कि किस तरह वह सिर से पाँव तक आकर्षण और शान से भरी है; और जब वह तुमसे बात करती है, तो उसमें एक महानगरीय प्रवृत्ति होती है और देहाती गँवारूपन का कोई संकेत नहीं मिलता। यह देखकर तुम्हारी भावनाओं में हलचल मच जाती है। हमेशा खुद को परमेश्वर के लिए खपाने के कारण तुम्हारे पास कोई परिवार या आजीविका नहीं है, और तुमने बहुत निपटान सहा है; कुछ समय पहले तुमने मध्य आयु में प्रवेश कर लिया, और तुम्हारी युवावस्था बहुत पहले चुपचाप फिसल गई, मानो तुम किसी सपने में रही हो। अब आज की स्थिति में आकर तुम नहीं जानती हो कि कहाँ बसना है। इस क्षण तुम विचारों के बवंडर में फँस जाती हो, मानो तुमने अपने होशो-हवास खो दिए हों। बिलकुल अकेले और सो पाने में असमर्थ, पूरी लंबी रात जागकर काटते हुए, अनजाने ही तुम अपने संकल्प और परमेश्वर के प्रति अपनी गंभीर प्रतिज्ञाओं के बारे में सोचना शुरू कर देती हो, कि क्यों फिर भी तुम ऐसी दुःखद स्थिति में पड़ गई हो? अनजाने ही तुम्हारे मूक आँसू बहने लगते हैं और तुम्हें हृदयविदारक पीड़ा महसूस होती है। प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आते हुए तुम्हें याद आता है, जिन दिनों तुम परमेश्वर के साथ थीं, तो कितनी अंतरंग और अविभाज्य रूप से उसके निकट थीं। तुम्हारी आँखों के सामने एक के बाद एक दृश्य तैरता है, और उस दिन जो शपथ तुमने ली थी, वह एक बार फिर तुम्हारे कानों में बजने लगती है, "क्या परमेश्वर मेरा एकमात्र अंतरंग नहीं है?" इस समय तक तुम पहले ही सुबकियों में डूब चुकी होगी : "परमेश्वर! प्यारे परमेश्वर! मैं पहले ही तुझे अपना हृदय पूरी तरह से दे चुकी हूँ। मैं हमेशा के लिए तेरा होने का वादा करती हूँ, और मैं बिना डिगे आजीवन तुझे प्यार करती रहूँगी...।" जब तुम उस चरम पीड़ा में संघर्ष करती हो, केवल तभी तुम वास्तव में समझती हो कि परमेश्वर कितना प्यारा है, और केवल तभी तुम्हें स्पष्ट रूप से पता चलता है : मैंने बहुत पहले ही अपना सब-कुछ परमेश्वर को दे दिया था। इस तरह के झटके को झेलने के बाद, तुम ऐसे मामलों में और अधिक परिपक्व हो जाती हो और देखती हो कि उस समय पवित्र आत्मा के कार्य जैसी कोई चीज़ मनुष्य के पास नहीं थी। इस बिंदु के बाद अपने अनुभवों में तुम प्रवेश के इस पहलू में अब और विवश नहीं होओगी; यह ऐसा है, मानो तुम्हारे घावों ने तुम्हारे प्रवेश को बहुत लाभान्वित किया हो। जब भी तुम ऐसी परिस्थितियों का सामना करोगी, तुम्हें तुरंत उस दिन बहाए अपने आँसू याद आ जाएँगे, मानो अलगाव के बाद परमेश्वर के साथ तुम्हारा पुनर्मिलन हो रहा हो, और तुम्हें लगातार डर लग रहा हो कहीं परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध फिर से न टूट जाए और तुम्हारे और परमेश्वर के बीच भावनात्मक लगाव (सामान्य संबंध) खराब न हो जाए। यह तुम्हारा कार्य और तुम्हारा प्रवेश है। इसलिए, जब तुम लोगों को पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त हो, तो उसी समय तुम्हें, यह देखते हुए कि वास्तव में पवित्र आत्मा का कार्य क्या है और तुम लोगों का प्रवेश क्या है, और साथ ही अपने प्रवेश में पवित्र आत्मा के कार्य को शामिल करते हुए, तुम लोगों को अपने प्रवेश पर और अधिक ध्यान देना चाहिए, ताकि तुम लोग पवित्र आत्मा द्वारा अन्य अनेक तरीकों से पूर्ण बनाए जा सको और पवित्र आत्मा के कार्य का सार तुम लोगों में गढ़ा जा सके। पवित्र आत्मा के कार्य के अपने अनुभव के दौरान तुम लोग पवित्र आत्मा को और साथ ही स्वयं को भी जान जाओगे, और इतना ही नहीं, क्या पता गहन कष्टों के कितने दौरों के बीच तुम लोग परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध विकसित कर लोगे, और तुम्हारे और परमेश्वर के बीच का संबंध दिन-ब-दिन घनिष्ठ होता जाएगा। काट-छाँट और शुद्धिकरण की असंख्य घटनाओं के बाद तुम लोगों में परमेश्वर के प्रति एक सच्चा प्यार विकसित हो जाएगा। यही कारण है कि तुम लोगों को यह महसूस करना चाहिए कि कष्ट, दंड और क्लेशों से डरना नहीं है; डरने की बात तो केवल पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करना किंतु प्रवेश न करना है। जब परमेश्वर का कार्य पूरा होने का दिन आएगा, तो तुम लोगों का परिश्रम व्यर्थ हो जाएगा; भले ही तुमने परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर लिया होगा, किंतु तुम लोग पवित्र आत्मा को नहीं जान पाए होगे या तुम लोगों ने स्वयं प्रवेश नहीं किया होगा। पवित्र आत्मा द्वारा मनुष्य में की जाने वाली प्रबुद्धता मनुष्य के जुनून को बनाए रखने के लिए नहीं है, बल्कि मनुष्य के प्रवेश के लिए एक मार्ग खोलने के लिए है, और साथ ही मनुष्य को पवित्र आत्मा को जानने देने और इस बिंदु से परमेश्वर के लिए श्रद्धा और भक्ति की भावनाएँ विकसित करने के लिए है।
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