परमेश्वर की सेवकाई के बारे में वचन (अंश 76)
कलीसिया में, किस तरह के लोग सर्वाधिक अहंकारी होते हैं? उनका अभिमान कैसे प्रकट होता है? किन मामलों में उनका अहंकार सबसे अधिक प्रकट होता है? क्या तुम लोग इसका भेद पहचानते हो? कलीसिया में मौजूद सबसे अधिक अहंकारी लोग वास्तव में दुष्ट और मसीह-विरोधी हैं। उनका अहंकार सामान्य लोगों की तुलना में बहुत आगे निकल जाता है, यहां तक कि विवेकहीनता के छोर पर चला जाता है। किन मामलों में यह सबसे आसानी से देखा जा सकता है? उनका अहंकारी स्वभाव तब सर्वाधिक स्पष्ट तौर पर उजागर होता है, जब उनकी काट-छाँट की जाती है। इन मसीह-विरोधियों के कुकर्मों की विकरालता चाहे जितनी भी हो, अगर कोई उनकी काट-छाँट करता है तो वे क्रोधित हो जाते हैं और कहते हैं : “तुम कौन होते हो मेरी आलोचना करने वाले और मुझे भाषण देने वाले? तुम कितने लोगों की अगुवाई कर सकते हो? क्या तुम धर्मोपदेश दे सकते हो? क्या तुम सत्य पर संगति कर सकते हो? अगर तुम मेरी भूमिका में होते तो तुम भी कोई मुझसे बेहतर नहीं होते।” यह तुम लोगों को कैसा लग रहा है? क्या उनमें सत्य को स्वीकारने का जरा-सा भी रवैया है? अगर तुम लोग अपनी काट-छाँट को इस रूप में लोगे तो यह परेशानी पैदा करता है। यह साबित करता है कि तुम लोगों में सत्य वास्तविकताएँ नहीं हैं, और तुम्हारे जीवन स्वभाव में बिल्कुल भी परिवर्तन नहीं हुआ है। क्या इस तरह का नितांत भ्रष्ट, सठिया चुका इंसान एक अगुआ या कार्यकर्ता बन सकता है? क्या ऐसे लोग परमेश्वर की सेवा करने का कर्तव्य निभा सकते हैं? निश्चित रूप से नहीं, क्योंकि ऐसे लोग अगुआ और कार्यकर्ता बनने के योग्य भी नहीं होते हैं। अगुआ और कार्यकर्ता बनने के लिए किसी व्यक्ति के पास कम-से-कम कुछ वास्तविक अनुभव होना चाहिए, उसे कुछ सत्य समझने चाहिए, उसके पास कुछ वास्तविकताएँ होनी चाहिए और उसके पास सबसे बुनियादी स्तर का समर्पण होना चाहिए, यानी, अपनी काट-छाँट होने पर वह कम-से-कम इसे स्वीकार सके—केवल इस प्रकार का व्यक्ति ही अगुआ या कार्यकर्ता बनने के योग्य होता है। अगर किसी व्यक्ति में कोई भी सत्य वास्तविकताएँ नहीं हैं अपनी काट-छाँट होने पर भी वह बहस और प्रतिरोध करता है, सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता और अगर इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर की सेवकाई करता है तो तुम लोगों को क्या लगता है कि क्या होगा? इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसे लोग परमेश्वर का विरोध करेंगे; वे सत्य पर अमल नहीं करेंगे, फिर चाहे वे किसी भी प्रकार का कार्य क्यों न कर रहे हों और वे चीजों को सिद्धांतों के अनुसार तो बिल्कुल नहीं संभालेंगे। इसलिए अगर ऐसे लोग जिनमें कोई भी सत्य वास्तविकता नहीं है, अगुआ या कार्यकर्ताओं की भूमिका लेते हैं तो वे निश्चित रूप से मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल पड़ेंगे और परमेश्वर का प्रतिरोध करेंगे। ऐसा क्यों है कि बहुत सारे अगुआ और कार्यकर्ता अपना थोड़ा-सा कर्तव्य निभाने के बाद ही बेनकाब हो जाते हैं? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि वे प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे की तलाश में रहते हैं, और परिणामस्वरूप वे स्वाभाविक रूप से मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना प्रारंभ कर देते हैं। जहां तक तुम लोगों की बात है, अगर तुम लोगों को एक कलीसिया की जिम्मेदारी दी गई और छह महीने तक किसी ने भी जांच नहीं की, तो तुम लोग अंततः गलत राह पर चल पड़ोगे और मनमर्जी करने लगोगे। अगर तुम लोगों को एक साल के लिए आजाद पंछी की तरह छोड़ दिया गया, तो तुम लोग दूसरे लोगों को भी गुमराह करने लगोगे, और वे सभी केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने पर और यह तुलना करने पर ध्यान देंगे कि कौन किससे बेहतर है। अगर तुम लोगों को दो साल के लिए आजाद पंछी की तरह छोड़ दिया जाए, तो तुम लोग दूसरों को अपने पीछे चलाने लगोगे, लोग तुम्हारा आज्ञापालन करेंगे, परमेश्वर का नहीं, और इस तरह से कलीसिया का पतन हो जाएगा और यह धार्मिक हो जाएगी। इसका कारण क्या है? क्या तुम लोगों ने इस सवाल के बारे में सोचा है? जब कोई व्यक्ति कलीसिया की अगुआई इस तरह से कर रहा हो, तो वह किस राह पर चल रहा होता है? मसीह-विरोधियों की राह पर। क्या तुम लोग ऐसे बनोगे? कब तक तुम लोग दूसरों को सत्य का वह थोड़ा-सा भाग पहुंचाते रहोगे जिसे तुम लोग अब समझते हो? क्या तुम परमेश्वर में आस्था के सही मार्ग पर लोगों की अगुवाई कर सकते हो? अगर परमेश्वर के चुने हुए लोग बहुत सारे प्रश्न पूछते हैं, तो क्या तुम लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य पर संगति करते हुए उनका उत्तर देने में सक्षम हो पाओगे? अगर तुम सत्य को नहीं समझते, और केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश दोगे तो तुम्हें कुछ बार सुनने के बाद लोग अघा जाएँगे, और जब तुम शब्दों और धर्म-सिद्धांत का उपदेश देते रहोगे तो वे खुद को इससे विमुख महसूस करेंगे और इसे पहचान जाएँगे—ऐसे में उन्हें उपदेश क्यों देना? अगर तुम समझदार व्यक्ति हो, तो तुम्हें लोगों को धर्म-सिद्धांत का उपदेश देना बंद कर देना चाहिए, तुम्हें लोगों को ऊंचे पद से भाषण देना बंद कर देना चाहिए, तुम्हें सभी के समान धरातल पर खड़ा होना चाहिए, और उनके साथ मिलकर परमेश्वर के वचन खाने-पीने और अनुभव करने चाहिए। ये सभी सूझ-बूझ वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं। जो खास तौर पर अहंकारी और आत्म-तुष्ट होते हैं, वे आसानी से अपना विवेक खो देते हैं, और दूसरों को शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देने पर जोर देते हैं, या वे और अधिक गहरे आध्यात्मिक सिद्धांतों की तलाश करने और सीखने का दिखावा करने का प्रयास करते हैं, और इस प्रकार दूसरों को गुमराह करने वाले लोग बन जाते हैं। इस तरह से व्यवहार करना परमेश्वर का प्रतिरोध करना है। क्या तुम इस बात पर स्पष्ट हो कि अगर तुम इस तरह से उपदेश देते रहे तो क्या दुष्परिणाम होंगे? क्या तुम्हें स्पष्ट तौर पर पता है कि तुम लोगों की अगुआई कर उन्हें कहां ले जाओगे? जब तुम मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलते हो, लोगों को अपने सामने लाते हो और उनसे अपनी पूजा और आज्ञापालन करवाते हो तो यह किस प्रकार की समस्या है? क्या तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए परमेश्वर से मुकाबला नहीं कर रहे हो? यह तो यही बात हुई कि जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करना चाहते थे, परमेश्वर की ओर लौटना चाहते थे और परमेश्वर को प्राप्त करना चाहते थे, उनसे तुम अपना आज्ञापालन करवाकर, उनसे अपनी मर्जी के काम करवाकर और उनसे खुद को परमेश्वर जैसा मनवाकर तुम उन्हें अपने सामने ला रहे हो। और इसका दुष्परिणाम क्या होगा? ये लोग वास्तव में बचाए जाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करना चाहते थे, लेकिन अंततः तुमसे गुमराह हो गए—न सिर्फ उन्हें बचाया नहीं जाएगा, बल्कि वे नरक का दुख भोगेंगे और नष्ट हो जाएँगे। इस तरह से कार्य करके, तुम लोगों को गुमराह कर रहे हो, तुम उन्हें बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हो, तुम उन लोगों को बरबाद कर रहे हो जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। तुम किस अपराध के दोषी हो? तुम उनकी भरपाई कैसे कर सकते हो? तुमने नए विश्वासियों को चालाकी से अपने हाथों में ले लिया, तुमने उन्हें अपनी भेड़ें बना लिया, वे सभी तुम्हारी बात सुनते हैं, वे सभी तुम्हारा अनुसरण करते हैं, और तुम वास्तव में मन-ही-मन सोचते हो : “मैं अब शक्तिशाली हूँ; इतने सारे लोग मेरी बात सुनते हैं, और कलीसिया मेरे इशारे पर चलती है।” मनुष्य के अंदर मौजूद विश्वासघात की यह प्रकृति अनजाने में तुम्हारे द्वारा परमेश्वर को नाममात्र का बना देती है, और तब तुम स्वयं कोई धर्म या संप्रदाय बना लेते हो। विभिन्न धर्म और संप्रदाय कैसे उत्पन्न होते हैं? वे इसी तरह से बनते हैं। प्रत्येक धर्म और संप्रदाय के अगुआओं को देखो—वे सभी अहंकारी और आत्म-तुष्ट हैं, और बाइबल की उनकी व्याख्या में संदर्भ का अभाव है और वे अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार चलते हैं। वे सभी अपना काम करने के लिए प्रतिभा और ज्ञान पर भरोसा करते हैं। यदि वे बिल्कुल भी उपदेश न दे पाते तो क्या लोग उनका अनुसरण करते? कुछ भी हो, उनके पास कुछ ज्ञान तो है ही और वे धर्म-सिद्धांत के बारे में थोड़ा-बहुत बोल सकते हैं, या वे जानते हैं कि दूसरों का मन कैसे जीता जाए और कुछ चालों का उपयोग कैसे करें। इन चीजों के माध्यम से वे लोगों को धोखा देते हैं और उन्हें अपने सामने ले आते हैं। नाममात्र के लिए, वे लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, लेकिन वास्तव में वे इन अगुआओं का अनुसरण करते हैं। जब वे उन लोगों का सामना करते हैं जो सच्चे मार्ग का प्रचार करते हैं, तो उनमें से कुछ कहेंगे, “हमें परमेश्वर में अपने विश्वास के मामले में हमारे अगुआ से परामर्श करना है।” देखो, परमेश्वर में विश्वास करने और सच्चा मार्ग स्वीकारने की बात आने पर कैसे लोगों को अभी भी दूसरों की सहमति और मंजूरी की जरूरत होती है—क्या यह एक समस्या नहीं है? तो फिर, वे सब अगुआ क्या बन गए हैं? क्या वे फरीसी, झूठे चरवाहे, मसीह-विरोधी, और लोगों के सही मार्ग को स्वीकारने में अवरोध नहीं बन चुके हैं? इस तरह के लोग पौलुस जैसे ही हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूं? बाइबल में पौलुस के धर्मपत्र दर्ज हैं और दो हजार वर्षों से प्रचलित होते रहे हैं। अनुग्रह के पूरे युग के दौरान, प्रभु पर विश्वास करने वाले लोग, अक्सर पौलुस के शब्दों को पढ़ते थे और उन्हें अपनी कसौटी मानते थे—कष्ट सहना, अपने शरीर को वश में करना और अंततः धार्मिकता का ताज हासिल करना...। सभी लोग पौलुस के शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के अनुसार परमेश्वर में विश्वास करते थे। इन दो हजार वर्षों में बहुत से लोगों ने पौलुस का अनुकरण किया है, उसकी आराधना की और उसका अनुसरण किया। उन्होंने पौलुस के वचनों को एक धर्मग्रंथ की तरह माना। उन्होंने प्रभु यीशु के वचनों की जगह पौलुस के शब्दों को दे दी और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने में असफल रहे। क्या यह मार्ग से भटकाव नहीं है? यह बहुत बड़ा भटकाव है। अनुग्रह के युग के दौरान लोग परमेश्वर के इरादों को कितना समझ पाए? आखिर जो लोग उस समय यीशु का अनुसरण करते थे, उनकी संख्या कम थी, और जो लोग उसे जानते थे उनकी संख्या तो और भी कम थी—यहाँ तक कि उसके शिष्य भी उसे सच में नहीं जानते थे। अगर लोगों को बाइबल में थोड़ी-सी रोशनी भी दिखती है तो यह नहीं समझा जाना चाहिए कि यह परमेश्वर के इरादों का प्रतिनिधित्व करती है, और थोड़े-से प्रबोधन को परमेश्वर का ज्ञान तो और भी नहीं समझा जाना चाहिए। सभी लोग अहंकारी और दम्भी हैं, और वे परमेश्वर को अपने दिल में नहीं रखते हैं। थोड़ा-सा सिद्धांत समझने के बाद, वे अपने दम पर नया काम शुरू कर देते हैं, जिसके कारण कई संप्रदाय बन जाते हैं। अनुग्रह के युग में परमेश्वर मानव के साथ बिल्कुल भी सख्त नहीं था। यीशु के नाम पर बने सभी धर्मों और संप्रदायों में कुछ न कुछ पवित्र आत्मा का कार्य था; जब तक इसमें कोई भी दुष्टात्मा नहीं काम कर रही थी, तब तक पवित्र आत्मा किसी भी कलीसिया पर कार्य कर सकता था, ताकि अधिकतर लोग परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेने में सक्षम हों। अतीत में, परमेश्वर, लोगों के साथ सख्त नहीं था, भले ही परमेश्वर पर उनका विश्वास सच्चा रहा हो या नहीं, इससे फर्क नहीं पड़ता था कि वे दूसरों का अनुसरण करते थे, या सत्य का अनुसरण नहीं करते थे, क्योंकि उसने पहले ही यह निर्धारित कर दिया था कि अंतिम चरण में, उसके द्वारा पूर्वनिर्धारित और चुने गए लोगों को उसके सामने आना ही होगा और उसके न्याय को स्वीकारना ही होगा। परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने के बाद, अगर लोग अभी भी दूसरों की उपासना और अनुसरण कर रहे हैं, अगर वे सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, बल्कि आशीष और ताज पाना चाहते हैं तो यह क्षमा करने योग्य नहीं है। ऐसे लोगों का अंत बिल्कुल पौलुस की तरह ही होगा। मैं अक्सर पौलुस और पतरस के उदाहरण का प्रयोग क्यों करता हूँ? ये दो मार्ग हैं। परमेश्वर पर विश्वास करने वाले या तो पतरस के मार्ग का अनुसरण करते हैं या पौलुस के मार्ग का। केवल ये ही दो मार्ग हैं। चाहे तुम अनुयायी हो या अगुआ, दोनों के लिए बात एक ही है। अगर तुम पतरस के मार्ग पर नहीं चल सकते तो तुम पौलुस के मार्ग पर चल रहे हो। यह अपरिहार्य है; कोई तीसरा रास्ता नहीं है। जो लोग परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते, वे परमेश्वर को नहीं जानते, जो सत्य को समझने का प्रयास नहीं करते और जो परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से समर्पण नहीं कर पाते, उनका अंत बिल्कुल पौलुस की ही तरह होना चाहिए। यदि तुम परमेश्वर को जानने या परमेश्वर के इरादों को समझने का प्रयास नहीं करते और केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने और आध्यात्मिक सिद्धांतों का उपदेश दे पाने का प्रयास करते हो तो तुम केवल परमेश्वर का प्रतिरोध कर उसे धोखा दे सकते हो, क्योंकि मानव की प्रकृति ही परमेश्वर का प्रतिरोध करने की है। जो चीजें सत्य से मेल नहीं खातीं वे निश्चित रूप से मनुष्य की इच्छा से उत्पन्न हुई हैं। जो कुछ भी मनुष्य की इच्छा से उत्पन्न होता है, चाहे वह मनुष्य की नजर में अच्छा हो या बुरा, परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी पैदा करता है। कुछ लोग सोचते हैं कि भले ही वे कुछ मामलों में सत्य के अनुसार कार्य नहीं करते हैं, पर वे कुछ बुरा नहीं कर रहे हैं या परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे हैं। क्या यह सही है? यदि तुम सत्य के अनुसार कार्य नहीं करते हो तो तुम निश्चित रूप से सत्य का उल्लंघन कर रहे हो और सत्य का उल्लंघन करना अनिवार्य रूप से परमेश्वर का प्रतिरोध करना है; यह बस गंभीरता का एक अलग स्तर है। भले ही तुम्हें परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले व्यक्ति के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है, फिर भी परमेश्वर तुम्हें स्वीकृति नहीं देगा क्योंकि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते और तुम केवल ऐसे काम करते हो जो सत्य से संबंधित नहीं हैं, और तुम केवल अपनी मर्जी के मुताबिक काम करते हो। भले ही सत्य का अनुसरण न करने वाले लोग कोई बुराई न करें, पर क्या वे अपने भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकेंगे? यदि वे अपने भ्रष्ट स्वभावों से छुटकारा नहीं पा सकते हैं तो वे अभी भी उन भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार ही जी रहे हैं। भले ही वे परमेश्वर का प्रतिरोध करने के लिए कुछ भी न करें, फिर भी वे संभवतः परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर सकते, और परमेश्वर ऐसे लोगों को स्वीकृति नहीं देगा।
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