परमेश्वर की सेवकाई के बारे में वचन (अंश 75)
अपने कार्य में, कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को दो सिद्धांतों पर ध्यान अवश्य देना चाहिए : एक यह कि उन्हें ठीक कार्य व्यवस्थाओं के द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार ही कार्य करना चाहिए, उन सिद्धांतों का कभी भी उल्लंघन नहीं करना चाहिए, और अपने कार्य को अपने विचारों या ऐसी किसी भी चीज़ के आधार पर नहीं करना चाहिए जिसकी वे कल्पना कर सकते हैं। जो कुछ भी वे करें, उन्हें कलीसिया के कार्य के लिए परवाह दिखानी चाहिए, और हमेशा परमेश्वर के घर के हित सबसे पहले रखने चाहिए। दूसरी बात, जो बेहद अहम है, वह यह है कि जो कुछ भी वे करें उसमें पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन का पालन करने के लिए ध्यान अवश्य केन्द्रित करना चाहिए, और हर काम परमेश्वर के वचनों का कड़ाई से पालन करते हुए करना चाहिए। यदि वे अभी भी पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के विरुद्ध जा सकते हैं, या वे जिद्दी बनकर अपने विचारों का पालन करते हैं और अपनी कल्पना के अनुसार कार्य करते हैं, तो उनके कृत्य को परमेश्वर के प्रति एक अति गंभीर विरोध माना जाएगा। प्रबुद्धता और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन से निरंतर मुँह फेरना उन्हें केवल बंद गली की ओर ले जाएगा। यदि वे पवित्र आत्मा के कार्य को गँवा देते हैं, तो वे कार्य नहीं कर पाएँगे, और यदि वे कार्य करने का प्रबंध कर भी लेते हैं, तो वे कुछ पूरा नहीं कर पाएँगे। कार्य करते समय दो मुख्य सिद्धांत ये हैं जिनका पालन अगुआओं और कार्यकर्ताओ को करना चाहिए : एक है कार्य को ऊपर से प्राप्त कार्य प्रबंधनों के अनुसार सटीकता से करना, और साथ ही ऊपर से तय किये गए सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना। और दूसरा सिद्धांत है, पवित्र आत्मा द्वारा अंतर में दिये गए मार्गदर्शन का पालन करना। जब एक बार इन दोनों सिद्धांतों को अच्छी तरह से समझ लेंगे, तो वे अपने काम में आसानी से गलतियाँ नहीं करेंगे। कलीसिया का कार्य करने में तुम लोगों का अनुभव अभी भी सीमित है, जब तुम काम करते हो, तो वह बुरी तरह से तुम्हारे विचारों से दूषित होता है। कभी-कभी, हो सकता है कि तुम पवित्र आत्मा से आए, अपने भीतर के प्रबोधन और मार्गदर्शन को न समझ पाओ; और कभी, ऐसा लगता है कि तुम इसे समझ गये हो परन्तु संभव है कि तुम इसकी अनदेखी कर दो। तुम हमेशा मानवीय रीति से सोचते या निष्कर्ष निकालते हो, जैसा तुम्हें उचित लगता है वैसा करते हो और पवित्र आत्मा के इरादों की बिल्कुल भी परवाह नहीं करते हो। तुम अपने विचारों के अनुसार अपना कार्य करते हो, और पवित्र आत्मा के प्रबोधन को एक किनारे कर देते हो। ऐसी स्थितियां अक्सर होती हैं। पवित्र आत्मा का आन्तरिक मार्गदर्शन लोकोत्तर नहीं है; वास्तव में यह बिल्कुल ही सामान्य है। यानी, अपने दिल की गहराई में तुम्हें लगता है कि कार्य करने का यही उपयुक्त और सर्वोत्तम तरीका है। ऐसा विचार वास्तव में बहुत ही स्पष्ट है; यह गंभीर सोच का परिणाम नहीं है, और कभी-कभी तुम पूरी तरह से नहीं समझ पाते कि तुम्हें इस तरह से कार्य क्यों करना चाहिए। यह पवित्र आत्मा का प्रबोधन ही होता है। ऐसा अक्सर अनुभवी लोगों के साथ होता है। पवित्र आत्मा वह करने के लिए तुम्हारा मार्गदर्शन करता है, जो सर्वाधिक उपयुक्त होता है। तुम इस बारे में नहीं सोचते, बल्कि तुम्हारे मन में ऐसा भाव आता है जो तुम्हें यह एहसास कराता है कि इसे करने का यही बेहतरीन तरीका है, और तुम कारण जाने बिना ही उसे उस ढंग से करना पसंद करते हो। यह पवित्र आत्मा से आ सकता है। इंसान के अपने विचार अक्सर सोचने-विचारने का परिणाम होते हैं और उनमें उनका मत शामिल होता है; वे हमेशा यही सोचते हैं कि इससे उन्हें क्या लाभ और फायदा है; इंसान जो भी कार्य करने का निर्णय लेता है, उसमें ये बातें होती हैं। लेकिन पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में ऐसी कोई मिलावट नहीं होती। पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और प्रबोधन पर सावधानीपूर्वक ध्यान देना बहुत आवश्यक है; विशेषकर तुम्हें मुख्य विषयों में बहुत सावधान रहना होगा ताकि इन्हें समझा जा सके। ऐसे लोग जो अपना दिमाग लगाना पसंद करते हैं, जो अपने विचारों पर ही कार्य करना पसंद करते हैं, बहुत संभव है कि वे ऐसे मार्गदर्शन और प्रबोधन में चूक जाएँ। उपयुक्त अगुआ और कर्मी ऐसे लोग होते हैं जिनमें पवित्र आत्मा का कार्य होता है, जो हर पल पवित्र आत्मा के कार्य पर ध्यान देते हैं, जो पवित्र आत्मा के प्रति समर्पण करते हैं, परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखते हैं, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहते हैं और बिना थके सत्य खोजते हैं। परमेश्वर को सन्तुष्ट करने और सही ढंग से उसकी गवाही देने के लिये तुम्हें अक्सर अपनी मंशाओं और अपने कर्तव्य में मिलावटी तत्वों पर आत्मचिंतन करना चाहिए, और फिर ध्यान से यह देखने का प्रयास करना चाहिये कि तुम्हारा कार्य इंसानी विचारों से कितना प्रेरित है, और कितना पवित्र आत्मा के प्रबोधन से उत्पन्न हुआ है, और कितना परमेश्वर के वचन के अनुसार है। तुम्हें निरन्तर और हर परिस्थिति में अपनी कथनी-करनी पर विचार करते रहना चाहिये कि वे सत्य के अनुरूप हैं या नहीं। अक्सर इस तरह का अभ्यास करना तुम्हें परमेश्वर की सेवा के लिये सही रास्ते पर ले जाएगा। परमेश्वर के इरादों के अनुरूप उसकी सेवा करने के लिए, सत्य वास्तविकताओं का होना आवश्यक है। सत्य को समझकर ही लोग भेद करने के काबिल बनते हैं और वे यह पहचानने के योग्य होते हैं कि उनके अपने विचारों से क्या उत्पन्न होता है और इंसानी मंशाओं से क्या उत्पन्न होता है। वे मानवीय अशुद्धता को पहचानने के योग्य हो जाते हैं, और यह भी पहचान पाते हैं कि सत्य के अनुसार कार्य करना क्या होता है। भेद कर पाने के बाद ही यह सुनिश्चित हो सकता है कि वे सत्य को अभ्यास में ला सकते हैं और पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हो सकते हैं। सत्य को समझे बिना लोगों के लिए भेद कर पाना असंभव है। एक भ्रमित व्यक्ति शायद आजीवन परमेश्वर पर विश्वास करे, लेकिन यह नहीं समझ पाता कि अपनी भ्रष्टता को प्रकट करने का क्या अर्थ होता है या परमेश्वर का विरोध करने का क्या अर्थ होता है, क्योंकि वह सत्य को नहीं समझता; उसके मन में वह विचार ही मौजूद नहीं है। सत्य बेहद निम्न काबिलियत वाले लोगों की पहुँच से बाहर होता है; तुम उनके साथ किसी भी प्रकार से संगति करो, फिर भी वे नहीं समझते। ऐसे लोग भ्रमित होते हैं। इस प्रकार के भ्रमित लोग परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकते; वे थोड़ी-सी मजदूरी ही कर सकते हैं। अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अपने कर्तव्य अच्छे से निभाने हैं, तो उनकी काबिलियत बहुत खराब नहीं होनी चाहिए। कम-से-कम उनमें आध्यात्मिक समझ तो होनी ही चाहिए और उन्हें चीजों को विशुद्ध रूप से समझना चाहिए, ताकि वे आसानी से सत्य को समझकर उसका अभ्यास कर सकें। कुछ लोगों का अनुभव बहुत उथला होता है, इसलिए कभी-कभी उनकी सत्य की समझ में विकृतियाँ होती हैं और उनकी गलतियाँ करने की संभावना होती है। जब उनकी समझ में विकृतियाँ होती हैं तो वे सत्य का अभ्यास करने योग्य नहीं रहते। जब लोगों की सत्य की समझ में विकृतियाँ होती हैं तो संभावना है कि वे विनियमों के अनुसार चलेंगे और जब वे विनियमों के अनुसार चलते हैं तो गलतियाँ करना आसान होता है और वे सत्य के अभ्यास के योग्य नहीं रहते। जब समझ में विकृतियाँ होती हैं तो मसीह-विरोधियों के हाथों गुमराह और इस्तेमाल होना भी आसान होता है। इसलिए समझ में विकृतियों के कारण बहुत-सी गलतियाँ हो सकती हैं। इसके परिणामस्वरूप, वे न केवल अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने में असफल हो जाएंगे, वे आसानी से भटक भी सकते हैं, जो परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को हानि पहुँचाता है। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने का क्या महत्व रह जाता है? वे ऐसे लोग बन गए हैं जो बस कलीसिया के काम को बाधित और अस्तव्यस्त करते हैं। इसके अलावा, इन असफलताओं से सबक सीखने चाहिए। परमेश्वर के सौंपे गए कार्य को करने के लिए अगुआ और कार्यकर्ताओं को ये दो सिद्धांत समझने चाहिए : कर्तव्य निभाते समय ऊपरवाले की कार्य व्यवस्था का कड़ाई से पालन करना और परमेश्वर के वचनों के अनुसार पवित्र आत्मा के किसी भी मार्गदर्शन पर ध्यान देकर इसके प्रति समर्पण करना। जब इन दोनों सिद्धांतों को समझ लिया जाएगा, तभी किसी व्यक्ति का कार्य कारगर हो सकता है और परमेश्वर के इरादे पूरे हो सकते हैं।
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