परमेश्वर की सेवकाई के बारे में वचन (अंश 72)
अगुआ के रूप में कार्य करने वाले लोगों को काम पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए या सदैव अपने रुतबे पर ध्यान केन्द्रित नहीं करना चाहिए, न ही उन्हें अपने लिए उच्च मानक तय कर फिर हर किसी की समस्याएँ हल करने के लिए हर संभव तरीका सोचने में लगे रहना चाहिए ताकि हर कोई यह जान ले : “मैं अगुआ हूँ, मेरे पास यह पद है, यह रुतबा है, और मेरे पास भी यह काबिलियत है, यह योग्यता है। और चूँकि मैं तुम्हारी अगुआई कर सकता हूँ, इसलिए मैं तुम्हारा पोषण भी कर सकता हूँ।” यह परेशानी की बात है कि वे ऐसे शब्द बोल पा रहे हैं। यह किस तरह से परेशानी भरा है? यदि तुम्हारी दिशा गलत है और यदि तुम्हारे पास अपने मामले संभालने को लेकर कोई सिद्धांत नहीं है, तो फिर तुम जो कुछ भी करते हो वह गलत होगा और भटकाव पैदा करेगा। यदि तुम्हारी प्रेरणा गलत है, तो तुम जो कुछ भी करते हो वह गलत होगा। सत्य खोजने, सत्य को समझने, दर्शनों के सत्य के सार को समझने और सिद्धांतों के इस पहलू में महारत पाने पर ध्यान केन्द्रित करो—यह सही है। अगर तुम अपने ऊपर मुसीबतें आने पर या समस्याओं से निपटते हुए इन सीमाओं को नहीं लाँघते हो तो तुम दूसरों की मदद करने और उनकी कठिनाइयाँ हल करने में सक्षम रहोगे, और तुम एक योग्य अगुआ बनोगे। लेकिन, यदि तुम सिर्फ कुछ धर्म-सिद्धांत समझते हो और खुद को केवल उन्हीं से सुसज्जित करते हो, उपदेश अधिक सुनते हो और अगुआई करने के लिए कुछ और वचन रट लेते हो, और यदि तुम किसी व्यक्ति की समस्याएँ हल करने के प्रयास में सिर्फ कुछ सिद्धांत और वचन पेश कर पाते हो, और परिणामस्वरूप, उसकी किसी भी समस्या को हल नहीं करते हो, तो फिर तुम्हारे पास अगुआ होने की वास्तविकता नहीं है, और तुम सिर्फ एक खाली ढांचा हो। यह किस तरह का अगुआ है? (झूठा अगुआ।) यह झूठा अगुआ है। तुम वास्तविक कार्य करने में असमर्थ हो। भले ही कोई किसी झूठे अगुआ को उजागर न करे और उसके बारे में सूचना न दे, लेकिन ऐसे में कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन प्रगति नहीं करेगा, समस्याएँ इकट्ठी होती जाएँगी, और झूठे अगुआ को दोष अपने सिर पर लेना पड़ेगा और पद छोड़ना पड़ेगा। यदि तुम एक झूठे अगुआ हो, तो तुम्हारा पद चाहे कितना ही ऊँचा हो, तुम झूठे अगुआ ही रहोगे। अब, तुम चाहे वास्तविक कार्य कर सकते हो या नहीं और तुम झूठे अगुआ हो या नहीं—ये सबसे महत्वपूर्ण बातें नहीं हैं। तो, सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है? अब तुम्हें जल्दी से सत्य का अनुसरण कर जीवन प्रवेश पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। एक बार जब तुम जीवन प्रवेश कर लेते हो, अपना स्वभाव बदल लेते हो, परमेश्वर के इरादे समझ लेते हो और अपनी गलत दशाएँ दूर करने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम्हारे लिए दूसरों की समस्याएँ हल करना आसान हो जाएगा। एक बार जब तुमने सत्य समझ लिया और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया, तो क्या तुम्हें तब भी यह डर होगा कि तुम दूसरों की समस्याएँ हल नहीं कर सकते? तुम्हें यह चिंता नहीं करनी पड़ेगी कि तुम अच्छी तरह से अगुआई कर सकते हो या नहीं। यदि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है, तो तुम स्वाभाविक रूप से अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और वास्तविक समस्याएँ हल करने में सक्षम हो जाओगे। तुम्हें यह अच्छी तरह समझ लेना होगा। यदि तुम इसे अच्छी तरह से नहीं समझते हो, और एक अगुआ के रूप में हमेशा अपने रुतबे की रक्षा करना चाहते हो, और यदि परमेश्वर के चुने हुए लोगों के दिलों में अपनी अच्छी छवि बनाना चाहते हो, तो तुम्हारा इरादा गलत है, और तुम अपने आप कलंक लेकर असफल हो जाओगे। यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्रेम करता है और अपने जीवन प्रवेश पर ध्यान केन्द्रित करता है, और तुम अपनी मानवीय महत्वाकांक्षाओं, इच्छाओं और गलत खोजों को छोड़ देते हो, और इन चीजों से विवश नहीं होते हो, तो तुम सत्य का अनुसरण करने में सक्षम रहोगे, और तुम समय के साथ सहज रूप से सत्य के प्रत्येक पहलू को समझने में सक्षम हो जाओगे। इस तरह, जब दूसरों की मदद करने की बात आएगी तो तुम मगन होकर यह काम करोगे और तुम्हें इसमें कोई कठिनाई नहीं होगी। इसलिए, तुम्हें अपने रुतबे की रक्षा नहीं करनी चाहिए। यह एक खाली ढाँचा है। यह बेकार है। इससे तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा, और यह तुम्हें सत्य को समझने में भी सहायता नहीं करेगा। यही नहीं, इसके कारण तुम कई गलतियाँ कर सकते हो और गुमराह भी हो सकते हो। भ्रष्ट मानवजाति के लिए रुतबा एक जाल है। लेकिन कोई भी इस बाधा से बच नहीं सकता है, सभी को इससे गुजरना होगा, यह सिर्फ इस बात पर निर्भर करता है कि तुम इससे कैसे निपटते हो। यदि तुम मानवीय तरीकों से निपटते हो, तो तुम अपने आप को रोकने या अपने खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम नहीं होगे। इसे केवल सत्य का उपयोग करके हल किया जा सकता है। सत्य इस समस्या को हल कर सकता है। यदि तुम सत्य खोज सकते हो तो इस समस्या को जड़ से खत्म कर सकते हो। यदि तुम इस कठिनाई को हल करने के लिए सत्य का उपयोग नहीं कर सकते, यदि तुम महज स्वयं को रोक रहे हो और चीजों के खिलाफ विद्रोह कर रहे हो—अपने विचारों, अपने दृष्टिकोणों, अपने ख्यालों से विद्रोह कर रहे हो और हमेशा बस इसी तरह विद्रोह करते रहते हो—तो यह कौन-सा तरीका है? यह नकारात्मक और निष्क्रिय दृष्टिकोण है। तुम्हें इसे हल करने के लिए सकारात्मक तरीकों का उपयोग करना चाहिए, अर्थात्, तुम्हें इसे सत्य के जरिए हल करना चाहिए, और इस मामले को अच्छी तरह से समझना चाहिए। सबसे पहले उन विभिन्न दृष्टिकोणों को देखो जिसका उपयोग मसीह-विरोधी और झूठे अगुआ प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे की तलाश करने और अपने घमंड और गर्व की रक्षा करने के लिए करते हैं। उन्हें स्पष्ट रूप से देखने के बाद, तुम महसूस करोगे : “ओह, कितना शर्मनाक है, सच में शर्मनाक! क्या मैं भी उन दृष्टिकोणों का उपयोग करता हूँ?” फिर, तुम आत्म-चिंतन करने लगोगे और जल्द ही तुमको एहसास होगा : “ओह, मैं भी कई ऐसे दृष्टिकोण अपनाता हूँ, मैं उन मसीह-विरोधियों और झूठे अगुआओं से इतना अलग नहीं हूँ।” तुम्हारे दिल में कुछ पछतावा होगा, और तुम सबक लेने के संकल्प के साथ कहोगे, “मैं अब और अपना रुतबा बचाकर यह बेशर्मी नहीं दिखा सकता।” ऐसी बातों पर ध्यान मत दो कि दूसरे लोग तुम्हारा सम्मान करते हैं या नहीं, तुम दूसरों की कितनी समस्याएँ हल कर सकते हो, कोई तुम्हारी बात सुनता है या नहीं, या तुम्हारे लिए कितने लोगों के दिल में जगह है। यदि ऐसी बातें हमेशा तुम्हारे हृदय में रहेंगी तो तुम विचलित और व्यथित हो जाओगे और तुम्हारे पास सत्य के अनुसरण के लिए कम समय बचेगा। तुमने अपनी सीमित-सी ताकत और कीमती समय को प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा पाने की महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करने में लगा दिया। लिहाजा, तुमने सत्य और जीवन प्राप्त नहीं किया है। यद्यपि तुमने रुतबा प्राप्त कर लिया है और तुम्हारी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी हो गई हैं, फिर भी तुमने जीवन प्रवेश नहीं किया है और तुमने पवित्रात्मा के कार्य को खो दिया है। इसका अंतिम परिणाम क्या होगा? तुम्हें निकाल कर दंडित किया जाएगा। ऐसा क्यों होता है? तुमने गलत रास्ता चुना। यदि तुम पौलुस की हद तक जा चुके हो, तो तुम्हें अंत में दंडित किया जाएगा। लेकिन यदि तुम पौलुस की हद तक नहीं गए हो और समय पर अपना मार्ग बदल लेते हो, तो छुटकारे के लिए गुंजाइश बची है, और अभी भी उद्धार की आशा है।
परमेश्वर पर विश्वास करने वालों की चाहे जो भी समस्याएँ हों, चाहे ये रुतबा, प्रसिद्धि, लाभ और धन का अनुसरण हो या फिर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करने का, हर हाल में सभी समस्याएँ सत्य की खोज के माध्यम से अवश्य हल की जानी चाहिए। कोई भी समस्या सत्य से किनारा करके नहीं निकल सकती। कोई भी मामला सत्य से अलग नहीं है। जैसे ही कोई व्यक्ति परमेश्वर पर अपने विश्वास के सत्य से भटक जाता है, उसका विश्वास खोखला हो जाता है। किसी और चीज को पाने की कोशिश करना बेकार है। कुछ लोग केवल सम्मानजनक और शानदार कर्तव्य निभाने से संतुष्ट रहते हैं, जिससे दूसरे लोग उनका आदर करें और उनसे ईर्ष्या महसूस करें। क्या यह सार्थक है? यह तुम्हारा अंतिम परिणाम नहीं है, न ही यह तुम्हारा अंतिम पुरस्कार है, और यह निश्चित रूप से तुम्हारा गंतव्य नहीं है। इसलिए तुम चाहे जो कर्तव्य निभाओ, यह केवल अस्थायी है, चिरस्थायी नहीं। यह ऐसी कोई स्वीकृति या पुरस्कार नहीं है जो परमेश्वर ने तुम्हें दे दिया हो। आखिरकार, लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर नहीं है कि वे कौन-सा कर्तव्य निभाते हैं, बल्कि इस बात पर निर्भर है कि वे सत्य को समझ और हासिल कर सकते हैं या नहीं, और अंत में, वे पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं या नहीं, खुद को उसके आयोजन की दया पर छोड़ सकते हैं या नहीं, अपने भविष्य और नियति पर कोई ध्यान न देकर एक योग्य सृजित प्राणी बन सकते हैं या नहीं। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है, और ये वे मानक हैं जिनका उपयोग वह पूरी मानवजाति को मापने के लिए करता है। ये मानक अपरिवर्तनीय हैं, और यह तुम्हें याद रखना चाहिए। इन मानकों को अपने मन में अंकित कर लो, और किसी अवास्तविक चीज को पाने की कोशिश करने के लिए कोई दूसरा मार्ग ढूँढ़ने की मत सोचो। उद्धार पाने की इच्छा रखने वाले सभी लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानक हमेशा के लिए अपरिवर्तनशील हैं। वे वैसे ही रहते हैं, फिर चाहे तुम कोई भी क्यों न हो। तुम केवल परमेश्वर की अपेक्षाओं और मानकों के अनुसार परमेश्वर में विश्वास करके उद्धार पा सकते हो। अगर तुम अस्पष्ट चीजों को पाने की कोशिश करने के लिए कोई और मार्ग खोजते हो, और कल्पना करते हो कि तुम भाग्य से सफल हो जाओगे, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर का विरोध करता है और उसे धोखा देता है, और तुम निस्संदेह परमेश्वर से शाप और दंड पाओगे।
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