सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन (अंश 18)

कई लोगों ने इसी समस्या का जिक्र किया है : ऊपर दी गई संगति सुनने के बाद, वे स्पष्टता और ऊर्जावान महसूस करते हैं और नकारात्मक नहीं रहते। हालाँकि, उनकी यह स्थिति केवल दस दिनों तक ही रहती है और उसके बाद यह फिर से असामान्य हो जाती है, और उनमें ऊर्जा की कमी हो जाती है। वे नहीं जानते कि आगे कैसे बढ़ना है और क्या करना है। यह समस्या क्या है? इसकी जड़ क्या है? क्या तुम लोगों ने कभी इस बारे में सोचा है? कुछ लोग कहते हैं कि इसका मूल कारण यह है कि लोग सत्य पर ध्यान नहीं देते हैं। तो फिर संगति सुनने के बाद तुम्हारी स्थिति सामान्य कैसे हो जाती है? ऐसा क्यों है कि तुम सत्य सुनने के बाद विशेष रूप से खुश और स्वतंत्र महसूस करते हो? कुछ लोग कहते हैं कि यह पवित्र आत्मा का कार्य है। तो फिर लगभग दस दिनों के बाद पवित्र आत्मा कार्य क्यों नहीं करता? कुछ लोग कहते हैं कि ऐसा इसलिए है क्योंकि वे अब बेहतर बनने का प्रयास नहीं कर रहे और आलसी हो गए हैं। तो फिर पवित्र आत्मा अब भी उन लोगों पर कार्य क्यों नहीं करता जो बेहतर बनने का प्रयास करते हैं? क्या तुम भी बेहतर बनने का प्रयास नहीं कर रहे हो? पवित्र आत्मा कार्य क्यों नहीं करता? लोग जो भी कारण बता रहे हैं, वे वास्तविकता से मेल नहीं खाते। समस्या यह है कि चाहे पवित्र आत्मा कार्य करे या न करे, मनुष्य के सहयोग को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जब सत्य से प्रेम करने वाला व्यक्ति सत्य को स्पष्ट समझने में सक्षम हो जाता है, तो वह हमेशा एक सामान्य स्थिति बनाए रखेगा, भले ही उस अवधि में पवित्र आत्मा कार्य कर रहा हो या नहीं। दूसरी ओर, जब कुछ लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं, चाहे वे सत्य को विशेष रूप से स्पष्ट समझते हों और चाहे पवित्र आत्मा पूर्णता से कार्य कर रहा हो, तब भी वे सीमित सत्य का ही अभ्यास कर सकते हैं। वे खुशी के चंद लमहों में ही सत्य का मामूली अभ्यास कर पाएँगे। अधिकांश समय, वे अभी भी अपनी व्यक्तिगत पसंद के अनुसार कार्य करेंगे, और अक्सर अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करेंगे। इसलिए, किसी व्यक्ति की स्थिति सामान्य है या नहीं और वह सत्य का अभ्यास कर सकता है या नहीं, यह पूरी तरह से पवित्र आत्मा के कार्य पर निर्भर नहीं करता है। यह इस बात पर भी पूरी तरह निर्भर नहीं है कि उस व्यक्ति के लिए सत्य स्पष्ट है या नहीं। यह इस पर निर्भर करता है कि क्या वह व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है और क्या वह सत्य का अभ्यास करने का इच्छुक है। आम तौर पर, जब कोई व्यक्ति धार्मिक उपदेश और संगति सुनता है तो कुछ समय के लिए, उसकी स्थिति बिल्कुल सामान्य हो जाती है। यह सत्य को समझने का परिणाम है; सत्य तुम्हें तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से अवगत कराता है, इससे तुम्हारा दिल खुश और मुक्त हो जाता है, और तुम्हारी स्थितियाँ बेहतर हो जाती हैं। लेकिन कुछ समय के बाद, तुम्हारा सामना अचानक किसी ऐसी चीज से हो सकता है जिसे तुम अनुभव करना नहीं जानते, तुम्हारा हृदय पहले से अधिक अंधकारमय हो जाता है और तुम अनजाने में सत्य को अपने दिमाग के तहखाने में धकेल देते हो; अपने कार्यों में तुम परमेश्वर के इरादे तलाश करने की कोशिश नहीं करते हो, तुम हर बात अपने मन के मुताबिक करते हो, और तुम सत्य का अभ्यास करने का इरादा बिल्कुल नहीं रखते हो। जैसे-जैसे समय बीतता है, तुम उस सत्य को खो देते हो जिसे तुम पहले कभी समझते थे। तुम लगातार अपना स्वभाव प्रकट करते हो, जब तुम्हारा सामना अप्रत्याशित घटनाओं से होता है, तुम कभी भी परमेश्वर के इरादे नहीं खोजते हो, और जब तुम परमेश्वर के करीब भी होते हो, तब भी तुम बिना उत्साह के बस काम करते हो। उस पल जब तुम महसूस करते हो कि तुम्हारा दिल परमेश्वर से बहुत दूर हो गया है, और तुम पहले से ही कई चीजों में परमेश्वर का विरोध कर चुके हो और यहाँ तक कि उसकी कुछ ईशनिंदा भी कर चुके हो। ये बहुत परेशान करने वाली बात है। अभी भी उन लोगों के लिए छुटकारा है जो इस पथ पर बहुत दूर नहीं निकल गए हैं, लेकिन उन लोगों के लिए जो इस हद तक बढ़ गए हैं कि परमेश्वर की निन्दा करते हैं और खुद को परमेश्वर के मुकाबले में खड़ा करते हैं, पद के लिए और भोजन और कपड़े के लिए होड़ करते हैं, उनके लिए कोई छुटकारा नहीं है। सत्य की स्पष्ट रूप से संगति करने का उद्देश्य लोगों को सत्य समझकर उसका अभ्यास करने और अपने स्वभाव में परिवर्तन हासिल करने में सक्षम बनाना है। यह सत्य को समझने के बाद उनके दिलों में प्रकाश और थोड़ी-सी खुशी लाना भर नहीं है। अगर तुम सत्य समझते हो लेकिन सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो सत्य के बारे में संगति करने और उसे समझने का कोई मतलब नहीं है। जब लोग सत्य समझते हैं लेकिन उस पर अमल नहीं करते, तो इसमें क्या समस्या है? यह इस बात का प्रमाण है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, कि वे अपने हृदय में सत्य को स्वीकार नहीं करते, ऐसे में वे परमेश्वर के आशीषों और उद्धार के अवसर से चूक जाएँगे। लोग उद्धार प्राप्त करने में सक्षम हैं या नहीं, इसमें यह महत्वपूर्ण है कि वे सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास करने में सक्षम हैं या नहीं। अगर तुमने उन सभी सत्यों पर अमल किया है जिन्हें तुम समझते हो, तो तुम्हें पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता, रोशनी और मार्गदर्शन मिलेगा, और तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होगे, सत्य की गहरी समझ प्राप्त करोगे, सत्य प्राप्त करोगे, और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करोगे। कुछ लोग सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होते हैं, वे हमेशा शिकायत करते हैं कि पवित्र आत्मा उन्हें प्रबुद्ध या रोशन नहीं करता, कि परमेश्वर उन्हें शक्ति नहीं देता। यह गलत है; यह परमेश्वर को गलत समझना है। पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी लोगों के सहयोग की नींव पर निर्मित होती है। लोगों को ईमानदार और सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार होना चाहिए, और चाहे उनकी समझ गहरी हो या सतही, उन्हें सत्य को अमल में लाने में सक्षम होना चाहिए। तभी वे पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध और रोशन किए जाएँगे। अगर लोग सत्य समझते हैं लेकिन उसे अमल में नहीं लाते—अगर वे केवल इस बात की प्रतीक्षा करते हैं कि पवित्र आत्मा कार्य करके उन्हें सत्य को अमल में लाने के लिए बाध्य करे—तो क्या वे अत्यधिक निष्क्रिय नहीं हैं? परमेश्वर कभी लोगों को कुछ भी करने के लिए बाध्य नहीं करता। अगर लोग सत्य को समझते हैं लेकिन उसे अमल में लाने के इच्छुक नहीं हैं, तो यह दर्शाता है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, या उनकी स्थिति असामान्य है और उसमें किसी प्रकार की रुकावट है। लेकिन अगर लोग परमेश्वर से प्रार्थना करने में सक्षम हैं, तो परमेश्वर भी कार्य करेगा; अगर वे सत्य का अभ्यास करने के अनिच्छुक हैं और परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, केवल तभी पवित्र आत्मा के पास उनमें कार्य करने का कोई उपाय नहीं होगा। वास्तव में, लोगों को चाहे किसी भी प्रकार की कठिनाई हो, उसे हल किया जा सकता है; मुख्य बात यह है कि वे सत्य के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम हैं या नहीं। आज, तुम लोगों में भ्रष्टता की समस्याएँ कैंसर नहीं हैं, वे कोई लाइलाज बीमारी नहीं हैं। अगर तुम लोग सत्य का अभ्यास करने का संकल्प कर सको, तो तुम्हें पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त होगा, और इन भ्रष्ट स्वभावों को बदलना संभव होगा। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि क्या तुम सत्य का अभ्यास करने का संकल्प कर सकते हो, यही कुंजी है। अगर तुम सत्य का अभ्यास करते हो, अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो, तो तुम पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करने में सक्षम होगे, और निश्चित रूप से बचाए जा सकोगे। अगर, जिस मार्ग पर तुम चल रहे हो वह गलत है, तो तुम पवित्र आत्मा का कार्य खो दोगे, एक गलत कदम दूसरे गलत कदम को जन्म देगा, और तुम्हारे लिए सब खत्म हो जाएगा, और चाहे तुम कितने भी वर्षों तक विश्वास करते रहो, तुम उद्धार प्राप्त नहीं कर सकोगे। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जब काम कर रहे होते हैं, तो वे इस बारे में कभी नहीं सोचते कि काम उस तरह कैसे किया जाए, जिससे परमेश्वर के घर को लाभ हो और जो परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हो—नतीजतन वे बहुत-कुछ ऐसा करते हैं जो स्वार्थ और नीचता से भरा होता है, जो परमेश्वर के लिए तुच्छ और घिनौना होता है; और ऐसा करने से वे उजागर कर निकाल दिए जाते हैं। अगर, सभी चीजों में, लोग सत्य की खोज करने और सत्य के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम होते हैं, तो वे पहले ही परमेश्वर पर आस्था के सही मार्ग पर प्रवेश कर चुके होते हैं, और इसलिए उनके परमेश्वर के इरादों के अनुरूप इंसान बनने की आशा होती है। कुछ लोग सत्य समझते हैं, लेकिन उस पर अमल नहीं करते। इसके बजाय, वे मानते हैं कि सत्य इससे अधिक कुछ नहीं है, और अपनी प्रवृत्तियों और भ्रष्ट स्वभावों को हल करने में असमर्थ होते हैं। क्या ऐसे लोगों पर हँसी नहीं आएगी? क्या वे हास्यास्पद नहीं होते? क्या वे खुद को सबसे बुद्धिमान नहीं समझते? अगर लोग सत्य के अनुसार कार्य करने में सक्षम हों, तो उनके भ्रष्ट स्वभाव बदल सकते हैं। अगर उनका विश्वास और परमेश्वर के प्रति उनकी सेवा उनके अपने स्वाभाविक व्यक्तित्व के अनुसार है, तो उनमें से एक भी अपने स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त करने में सक्षम नहीं होगा। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो दिन भर खुद गलत चुनाव करने के कारण होने वाली चिंता में फँसे रहते हैं। आसानी से उपलब्ध सत्य उन्हें दिया जाता है तो वे उस पर कोई विचार नहीं करते या उसे अमल में लाने का प्रयास नहीं करते, बल्कि अपना अलग रास्ता चुनने पर जोर देते हैं। यह कैसा बेतुका बरताव है; वास्तव में, जब उनके पास आशीषें होती हैं तब भी वे उनका आनंद नहीं ले पाते हैं, और जीवन में कठिनाइयाँ झेलना उनकी नियति है। सत्य का अभ्यास करना बहुत आसान है; तुम अभ्यास करते हो या नहीं, बस यही मायने रखता है। अगर तुम ऐसे इंसान हो, जिसने सत्य का अभ्यास करने का संकल्प लिया है, तो तुम्हारी नकारात्मकता, कमजोरी और भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे दूर होकर बदल जाएँगे; यह इस पर निर्भर करता है कि तुम्हारा हृदय सत्य से प्रेम करता है या नहीं, तुम सत्य को स्वीकार करने में सक्षम हो या नहीं, सत्य प्राप्त करने के लिए तुम कष्ट उठा सकते और कीमत चुका सकते हो या नहीं। अगर तुम वास्तव में सत्य से प्रेम करते हो, तो तुम सत्य प्राप्त करने के लिए सभी प्रकार के दर्द सहने में सक्षम होगे, चाहे लोग बदनाम करें, आलोचना करें या चाहे इसे लोगों द्वारा अस्वीकार किया जा रहा हो। तुम्हें यह सब धैर्य और सहनशीलता के साथ सहन करना चाहिए; और परमेश्वर तुम्हें आशीष देगा और तुम्हारी रक्षा करेगा, वह तुम्हारा त्याग या उपेक्षा नहीं करेगा—यह पक्का है। अगर तुम परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय से प्रार्थना करते हो, परमेश्वर पर निर्भर रहते हो और परमेश्वर का आदर करते हो, तो ऐसा कुछ नहीं होगा जिसे तुम पार न कर सको। तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट हो सकता है, और तुम अपराध कर सकते हो, लेकिन अगर तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है, और अगर तुम सावधानी से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो, तो तुम निर्विवाद रूप से दृढ़ रहने में सक्षम होगे, और निर्विवाद रूप से परमेश्वर द्वारा तुम्हारी अगुआई और सुरक्षा की जाएगी।

कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो केवल काम और प्रचार करने, दूसरों का भरण-पोषण करने के लिए खुद को सत्य से लैस करते हैं, अपनी समस्याएँ हल करने के लिए नहीं, सत्य को अमल में लाने के लिए नहीं। उनकी संगति शुद्ध समझ की और सत्य के अनुरूप हो सकती है, लेकिन वे खुद को उससे नहीं मापते, न ही वे उसका अभ्यास या अनुभव करते हैं। यहाँ क्या समस्या है? क्या उन्होंने वाकई सत्य को अपने जीवन के रूप में स्वीकार किया है? नहीं, उन्होंने नहीं किया। व्यक्ति जिस सिद्धांत का प्रचार करता है, वह कितना भी शुद्ध क्यों न हो, इसका अर्थ यह नहीं कि उसमें सत्य वास्तविकता है। सत्य से लैस होने के लिए, व्यक्ति को पहले खुद उसमें प्रवेश करना चाहिए, और उसे समझकर अमल में लाना चाहिए। अगर व्यक्ति अपने प्रवेश पर ध्यान केंद्रित नहीं करता, बल्कि दिखावा करने के उद्देश्य से दूसरों के सामने सत्य का प्रचार करता है, तो उसका इरादा गलत है। कई नकली अगुआ हैं जो इसी तरह काम करते हैं, जो सत्य वे समझते हैं, उस पर लगातार दूसरों के साथ संगति करते, नए विश्वासियों को पोषण प्रदान करते, लोगों को सत्य का अभ्यास करने, अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने, नकारात्मक न होने की शिक्षा देते हैं। ये तमाम शब्द अच्छे और बढ़िया हैं—प्रेमपूर्ण भी हैं—लेकिन उन्हें बोलने वाले सत्य का अभ्यास क्यों नहीं करते? उनका कोई जीवन-प्रवेश क्यों नहीं है? यहाँ चल क्या रहा है? क्या ऐसा व्यक्ति वास्तव में सत्य से प्रेम करता है? कहना मुश्किल है। इस्राएल के फरीसियों ने दूसरों के सामने बाइबल की व्याख्या इसी तरह की थी, लेकिन वे खुद परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन नहीं कर पाए। जब प्रभु यीशु ने प्रकट होकर कार्य किया, तो उन्होंने परमेश्वर की वाणी सुनी लेकिन प्रभु का विरोध किया। उन्होंने प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ाया और परमेश्वर ने उन्हें शाप दिया। इसलिए, जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते या उसका अभ्यास नहीं करते, उन सबकी परमेश्वर द्वारा निंदा की जाएगी। वे कितने अभागे हैं! अगर उनके द्वारा प्रचारित शब्द और धर्म-सिद्धांत दूसरों की मदद कर सकता है, तो वह उनकी मदद क्यों नहीं कर सकता? हम ऐसे व्यक्ति को पाखंडी कह सकते हैं, जिसमें कोई वास्तविकता नहीं है। वे दूसरों को सत्य का शाब्दिक अर्थ प्रदान करते हैं, वे दूसरों से उसका अभ्यास करवाते हैं, लेकिन खुद उसका थोड़ा-सा भी अभ्यास नहीं करते। क्या ऐसा व्यक्ति बेशर्म नहीं होता? उसमें सत्य वास्तविकता नहीं होती, फिर भी वह दूसरों को शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के उपदेश देकर उसके होने का दिखावा करता है। क्या यह सोचा-समझा धोखा और नुकसान नहीं है? अगर ऐसे लोग उजागर कर निकाल दिए जाते हैं, तो इसके लिए केवल वे ही दोषी होंगे। वे दया के पात्र नहीं होंगे। क्या कोई ऐसा व्यक्ति जो केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करता है लेकिन सत्य का अभ्यास नहीं करता, सच्चा परिवर्तन प्राप्त कर सकता है? क्या ऐसे लोग दूसरों को धोखा नहीं दे रहे हैं और खुद को नुकसान नहीं पहुँचा रहे हैं? सत्य पाने का प्रयास पूरी तरह अभ्यास पर आधारित है। सत्य का अभ्यास करने का उद्देश्य अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करना और सच्ची मानवीय सदृशता को जीना है, लेकिन वे अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं पहचानते या अपनी कठिनाइयों को हल करने के लिए सत्य का उपयोग नहीं करते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे दूसरों को कैसे सींचते हैं, उनका भरण-पोषण कैसे करते हैं या उनका समर्थन कैसे करते हैं, वे कभी भी वास्तविक परिणाम प्राप्त नहीं करेंगे क्योंकि उनके पास जीवन में प्रवेश करने या अपना स्वभाव बदलने का कोई मार्ग नहीं है। यदि सत्य के बारे में संगति करने से लोगों की कठिनाइयों या समस्याओं का समाधान नहीं होता है, तो क्या वे केवल ऐसे शब्द और धर्म-सिद्धांत नहीं बोल रहे हैं जो सुनने में तो अच्छे लगते हैं लेकिन बेकार हैं? यदि तुम अपने स्वभाव में बदलाव लाना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने और उन्हें अनुभव करने पर ध्यान देना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम सत्य का कौन सा पहलू समझते हो, तुम्हें उन्हें अभ्यास में लाने पर ध्यान देना होगा। केवल सत्य के अभ्यास और अनुभव से ही तुम्हें समस्याओं का पता चलेगा, और विशेष रूप से, जब तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होंगे तो तुम उन्हें पहचान पाओगे। यदि तुम इन समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की तलाश कर सकते हो, तो तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करोगे, और तुम्हारा जीवन स्वभाव बदल जाएगा। जब तुम सत्य का अभ्यास करने पर चर्चा करोगे तो तुम्हारे पास एक रास्ता होगा, और जब तुम सत्य के बारे में संगति करोगे तो तुम समस्याएँ हल करने में सक्षम होओगे। इससे पता चलता है कि यदि तुम सत्य का अभ्यास करने के इच्छुक हो, तो तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता होगी। यदि तुम सत्य का अभ्यास करने के इच्छुक हो, तो तुम दूसरों की सहायता करने के लिए योग्य होओगे। बदले में, परमेश्वर तुम्हारी प्रशंसा करेगा, और लोग तुम्हें स्वीकार करेंगे।

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