सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन (अंश 17)

लोग सोचते हैं कि सत्य का अभ्यास करना कठिन है, तो फिर कुछ लोग इसका अभ्यास करने में सक्षम क्यों हैं? यह सब इस पर निर्भर करता है कि व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि जो लोग सत्य का अभ्यास करते हैं वे अच्छी मानवता वाले लोग होते हैं। यह कथन सही है। कुछ लोगों में अच्छी मानवता होती है और वे कुछ सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होते हैं। हालाँकि, कुछ लोगों में मानवता की कमी होती है, और उनके लिए सत्य का अभ्यास करना कठिन होता है, जिसका अर्थ यह है कि ऐसा करने के लिए उन्हें कुछ हद तक कष्ट सहना पड़ता है। मुझे बताओ, क्या जो व्यक्ति सत्य का अभ्यास नहीं करता वह अपने कार्यों में सत्य की तलाश करता है? वह इसकी तलाश कतई नहीं करता। वह अपने इरादे लेकर आता है और सोचता है कि उन्हें पूरा करना अच्छा और उसके हित में होगा, इसलिए वह अपने इन इरादों के अनुसार कार्य करता है। वह सत्य का अभ्यास नहीं करता इसका कारण है क्योंकि उसके हृदय में कुछ ग़लत है, और उसका हृदय सही नहीं है। वह खोजता नहीं है, वह जाँच नहीं करता है, और न ही वह परमेश्वर के सामने प्रार्थना करता है; वह बस ढिठाई से अपनी स्वयं की इच्छाओं के अनुसार ही कार्य करता है। इस प्रकार के व्यक्ति में साधारणतया सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं होता है। हालाँकि उसके मन में सत्य के प्रति कोई प्रेम नहीं है, किन्तु वह सिद्धांतों के अनुरूप कुछ चीजें कर सकता है और ऐसी चीजें कर सकता है जो सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करती हैं। हालाँकि, उल्लंघन की ऐसी कमी का मतलब यह नहीं है कि उसने परमेश्वर के इरादे तलाशे हैं। केवल यही कहा जा सकता है कि यह महज संयोग है। कुछ लोग कुछ निश्चित चीजें बिना खोजे भ्रामक और अव्यवस्थित रीति से करते हैं, लेकिन वे तथ्य के बाद ही अपने आपको जाँच पाते हैं। यदि उन्हें पता लगता है कि ऐसी चीज़ों को करना सत्य के साथ मेल नहीं खाता है, तो वे अगली बार से ऐसा करने से परहेज करेंगे। इससे यह माना जा सकता है कि उनमें सत्य के लिए थोड़ा सा प्रेम है। इस किस्म का व्यक्ति थोड़ा सा परिवर्तित होने में सक्षम होता है। ऐसे लोग जिनमें सत्य के लिए प्रेम नहीं है वे न तो उसे उस समय खोजेंगे, और न ही उसके बाद वे अपने आपको जाँचेंगे। वे कभी बारीकी से नहीं जाँचते हैं कि अंत में वे जो करते हैं वे सही हैं या गलत, इस प्रकार वे हमेशा सिद्धान्तों और सत्य का उल्लंघन करते हैं। भले ही वे कुछ ऐसा करें जो सिद्धान्तों का उल्लंघन नहीं करता है, फिर भी यह सत्य के अनुरूप नहीं होता है, और सिद्धान्तों का यह तथा-कथित गैर-उल्लंघन साधारणतया दृष्टिकोण का मामला है। अतः इस प्रकार का व्यक्ति किस दशा में होता है जब वे अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हैं? वे विस्मित और नासमझ दशा में कार्य नहीं कर रहे हैं, और ऐसा नहीं था कि वे इस बारे में अस्पष्ट थे कि इस तरह से कार्य करना वास्तव में सत्य के अनुरूप था या नहीं। यह वह परिस्थिति नहीं है जिसके अंतर्गत वे अपने आपको पाते हैं, बल्कि वे ढिठाई से अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य करने पर अड़े रहते हैं; उन्होंने उस तरह से कार्य करने का मन बना लिया है, और उनका सत्य की खोज करने का इरादा बिल्कुल भी नहीं है। यदि वे सचमुच में परमेश्वर के इरादे खोजते हैं, तो परमेश्वर के इरादे पूरी तरह से समझने से पहले, वे निम्नलिखित कार्रवाई पर विचार करेंगे : “मैं पहले आगे बढ़ूँगा और उसे इस तरह से करूँगा। यदि यह सत्य के अनुरूप है, तो मैं उसे इसी तरीके से करता रहूँगा; और यदि यह सत्य के अनुरूप नहीं है, तो मैं जल्दी से इसे ठीक करूँगा तथा इस तरह से कार्य करना बंद कर दूँगा।” यदि वे इस तरह से सत्य की खोज करने में सक्षम हैं, तो वे भविष्य में परिवर्तित होने के योग्य होंगे। इस इरादे के बिना, वे परिवर्तित होने के योग्य नहीं होंगे। एक व्यक्ति जिसके पास हृदय है वह केवल एक बार ही ग़लती कर सकता है जब वह कार्यवाही का प्रारम्भ करता है, अधिक से अधिक दो बार—एक या दो बार, न कि तीन और चार बार, यह सामान्य भावना है। यदि वे उसी ग़लती को तीन या चार बार करते हैं, तो इससे साबित होता है कि उन्हें सत्य से कोई प्रेम नहीं है, और न ही वे सत्य की खोज करते हैं। इस प्रकार का व्यक्ति निश्चित रूप से मानवता वाला व्यक्ति नहीं है। यदि एक-दो बार गलती करने के बाद उनके हृदय में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है, और उनकी अंतरात्मा में कोई हलचल नहीं होती है, तो वे वही गलती तीन-चार बार करेंगे, और इस प्रकार के व्यक्ति बदलने में असमर्थ हैं, वे बस इसी तरह के इंसान हैं—मुक्ति के लिए पूरी तरह अयोग्य। यदि एक बार गलती करने के बाद, उन्हें लगता है कि उन्होंने जो किया है उसमें कुछ गड़बड़ है, और वे इसके लिए अपने आपसे बहुत घृणा करते हैं और अपने हृदय में अपराध-बोध महसूस करते हैं; यदि उनकी स्थिति इस प्रकार की है, तो वे दोबारा इसी तरह के मामलों में शामिल होने पर बेहतर कार्य करेंगे, और धीरे-धीरे वे उसी प्रकार की गलती नहीं करेंगे। वे मन में चाहकर भी उस पर अमल नहीं करेंगे। यह परिवर्तन का एक पहलु है। कदाचित् तुम कहोगे : “मेरा भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदल सकता।” क्या यह सच है कि यह बदल नहीं सकता? बात सिर्फ इतनी है कि तुम बदलना नहीं चाहते हो। यदि तुम सत्य का अभ्यास करने के इच्छुक हो, तो क्या तुम फिर भी बदलने में असमर्थ होओगे? जो लोग ऐसा कहते हैं उनमें इच्छाशक्ति की कमी है। वे सभी घृणित अधम लोग हैं। वे दुख सहने को तैयार नहीं हैं। वे सत्य का अभ्यास नहीं करना चाहते हैं; उसके बजाए वे कहते हैं कि सत्य उनको बदल नहीं सकता है। क्या ऐसे लोग बहुत अधिक धोखेबाज नहीं हैं? बात यह है कि वे सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हैं, उनकी मानवता त्रुटिपूर्ण है, और फिर भी वे कभी भी अपने स्वयं के स्वभाव को नहीं जानते हैं। वे प्रायः संदेह करते हैं कि परमेश्वर का कार्य मनुष्य को सम्पूर्ण कर सकता है या नहीं। ऐसे व्यक्ति कभी भी परमेश्वर को अपना हृदय देने का इरादा नहीं रखते, और न ही कभी कठिनाई सहने की कोई योजना बनाते हैं। उनके यहाँ रहने का एकमात्र कारण केवल यह दूर की कौड़ी है कि शायद उन्हें भविष्य में सौभाग्य प्राप्त हो जाए। इस तरह का व्यक्ति मानवता से रहित है। यदि वे मानवता वाले व्यक्ति होते, जब पवित्र आत्मा उन पर स्पष्ट रूप में कार्य नहीं कर रहा होता है, और उनमें सत्य की थोड़ी सी समझ है, तब भी क्या वे गलत कार्यों में संलग्न हो सकते हैं? मानवता वाला व्यक्ति, चाहे पवित्र आत्मा उन पर कार्य कर रहा हो या नहीं, गलत कार्य करने में असमर्थ होगा। कुछ मानवता विहीन लोग केवल उसी अवस्था में कुछ अच्छे कार्य कर सकते हैं जब पवित्र आत्मा उनके ऊपर कार्य कर रहा हो। उनके ऊपर पवित्र आत्मा के कार्य के बगैर, उनकी प्रकृति का खुलासा हो जाता है। किन लोगों के ऊपर पवित्र आत्मा हमेशा काम करता रह सकता है? अविश्वासियों में से कुछ लोगों के पास अच्छी मानवता है, पवित्र आत्मा भी उनके ऊपर कार्य नहीं कर रहा है, फिर भी वे विशेष रूप से बुरे कार्यों में संलग्न नहीं होते हैं। यदि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तो तुम बुरे कार्यों में संलग्न कैसे हो सकते हो? यह मानव प्रकृति की समस्या को प्रदर्शित करता है। लोगों के ऊपर पवित्र आत्मा के कार्य के बगैर उनकी प्रकृति का खुलासा हो जाता है। उनके ऊपर पवित्र आत्मा के कार्य करने से, पवित्र आत्मा उन्हें प्रेरित करेगा, लोगों को प्रबुद्धता और रोशनी प्रदान करेगा, शक्ति के विस्फोट के साथ उन्हें लैस करेगा, ताकि वे कुछ अच्छे कार्य करने में सक्षम हों। यहाँ, यह उनकी प्रकृति के अच्छे होने का मामला नहीं है, बल्कि पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा प्राप्त परिणामों का मामला है। लेकिन जब पवित्र आत्मा लोगों पर काम नहीं कर रहा होता, वे अपनी इच्छाओं का पालन करना पसंद करते हैं, जिसके कारण वे अनजाने में कुछ बुरे काम कर बैठते हैं। तभी उनकी असली प्रकृति उजागर होती है।

लोगों की प्रकृति का समाधान कैसे किया जा सकता है? इसकी शुरुआत मानव प्रकृति का सार समझने से होती है, जिसका परमेश्वर के वचनों के अनुसार विश्लेषण किया जाना चाहिए ताकि यह देखा जा सके कि यह सकारात्मक है या नकारात्मक और क्या यह परमेश्वर का विरोध करती है या परमेश्वर के प्रति समर्पण करती है। ऐसा तब तक करना चाहिए जब तक अपनी प्रकृति के सार का एहसास न हो जाए, और तब वे वास्तव में खुद से नफरत कर सकते हैं और अपने देहसुख के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं। साथ ही, व्यक्ति को परमेश्वर के इरादों और माँगों को समझना चाहिए। सत्य की खोज में तुम्हारा लक्ष्य क्या है? तुम्हें अपने जीवन स्वभाव में बदलाव लाने होंगे। जब तुम्हारा स्वभाव बदल जाएगा, तो तुम्हें सत्य प्राप्त हो जाएगा। अपने वर्तमान आध्यात्मिक कद के साथ, तुम खुद को बुरा कर्म करने, परमेश्वर का विरोध करने या सत्य का उल्लंघन करने वाले काम करने से कैसे रोक सकते हो? यदि तुम बदलना चाहते हो तो तुम्हें इन मामलों पर विचार करना होगा। बुरी प्रकृति की समस्या का मुकाबला करने के लिए, तुम्हें यह समझना होगा कि तुम्हारे पास कौन से भ्रष्ट स्वभाव हैं और तुम क्या करने में सक्षम हो। तुम्हें यह समझना होगा कि अपनी बुरी प्रकृति को नियंत्रित करने के लिए कौन से उपाय करने हैं और उन्हें कैसे अभ्यास में लाना है। यह प्रमुख मुद्दा है। जब तुम्हारे मन में भ्रम हो या तुम्हारी आत्मा में अंधकार हो, तो तुम्हें पता होना चाहिए कि इसे दूर करने के लिए सत्य की तलाश कैसे करें, अपने कर्तव्यों को ठीक से कैसे पूरा करें और सही रास्ता कैसे अपनाएँ। तुम्हें अपने लिए एक सिद्धांत स्थापित करना होगा। यह व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है और इस पर निर्भर करता है कि वह परमेश्वर को चाहने वाला व्यक्ति है या नहीं। एक व्यक्ति है जो अक्सर अपना आपा खो देता है। उसने एक पट्टिका बनाई और उस पर ये शब्द लिखे, “अपने गुस्से पर लगाम लगाओ।” फिर, उसने खुद को संयमित रखने और खुद को चेतावनी देने के लिए इसे अपने अध्ययन कक्ष की दीवार पर लटका दिया। शायद यह किसी काम का हो, लेकिन क्या यह समस्या को पूरी तरह से हल कर सकता है? कदापि नहीं। इसके बावजूद लोगों को खुद पर संयम रखना चाहिए। सबसे पहले उनके भ्रष्ट स्वभाव की समस्या हल करने की आवश्यकता है। अपनी प्रकृति की समस्याओं को हल करने के लिए, उन्हें स्वयं को जानने से शुरुआत करनी होगी। केवल अपने भ्रष्ट स्वभाव के सार को स्पष्ट रूप से देखकर ही वे स्वयं से नफरत कर सकते हैं और देहसुख के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं। देहसुख के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए भी सिद्धांतों की आवश्यकता होती है। क्या कोई भ्रमित मन से देहसुख के विरुद्ध विद्रोह कर सकता है? जैसे ही कोई समस्या आती है, लोग देहसुख के आगे समर्पण कर देते हैं। कुछ लोग सुंदर स्त्री को देख कर राह में रुक जाते हैं; ऐसे मामले में तुम्हें स्वयं के लिए एक आदर्श-वाक्य तय करना होगा। जब कोई सुंदर स्त्री तुम्हारे पास आए तो क्या तुम्हें वहाँ से चले जाना चाहिए या फिर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें क्या करना चाहिए यदि वह आगे बढ़कर तुम्हारा हाथ पकड़ लेती है? यदि तुम्हारे कोई सिद्धांत नहीं हैं, तो ऐसी स्थिति से सामना होने पर तुम लड़खड़ा जाओगे। यदि तुम धन एवं संपत्ति देखकर स्वयं लालच में अंधे हो जाते हो, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इस प्रश्न पर खासतौर से ध्यान देना चाहिए, और इसके समाधान के लिए स्वयं को प्रशिक्षित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, और समय के साथ, तुम आहिस्ता-आहिस्ता अपने देहसुख त्याग पाओगे। भ्रष्ट प्रकृति के समाधान के विषय में, एक सिद्धांत है जो काफी महत्वपूर्ण है, और वह यह है कि तुम्हें अपनी सारी समस्याएँ परमेश्वर के सामने लानी चाहिए और अपने आप को जाँचना चाहिए। उसके अलावा, उस दिन से हर शाम तुम्हें अपनी स्थितियों की जाँच करनी चाहिए और अपने व्यवहार का सूक्ष्म निरीक्षण करना चाहिए : तुम्हारे कौन-से कृत्य सत्य के अनुरूप किए गए थे और किन कृत्यों से सिद्धान्तों का उल्लंघन हुआ था? यह एक और सिद्धांत है। ये दो बिन्दु बहुत महत्वपूर्ण हैं। पहले के संबंध में, जब तुम्हारा भ्रष्टाचार उजागर हो तो तुम्हें आत्म-चिंतन करना चाहिए। दूसरे के संबंध में, तुम्हें आत्म-चिंतन करना चाहिए और तथ्य के बाद सत्य की खोज करनी चाहिए। तीसरा बिंदु यह है कि तुम्हें यह स्पष्ट होना चाहिए कि सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांत के साथ कार्य करने का क्या मतलब है। यदि तुम वास्तव में ये मामले समझ सकते हो, तो तुम चीजों को सही ढंग से कर सकते हो। यदि तुम इन तीन सिद्धांतों का पालन करते हो, तो तुम खुद को संयमित कर सकते हो, अपनी भ्रष्ट प्रकृति उजागर या व्यक्त होने से रोक सकते हो। ये तुम्हारी प्रकृति का समाधान करने के बुनियादी सिद्धांत हैं। इन सिद्धांतों के साथ, यदि तुम सत्य की ओर काम करने का प्रयास करते हो और जब पवित्र आत्मा तुम पर काम नहीं करता है तब भी सामान्य स्थिति में रहते हो या यदि तुम किसी के द्वारा संगति प्रदान किए बिना भी लंबे समय तक रह पाते हो, तो तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्रेम करता है और देहसुख के विरुद्ध विद्रोह करता है। जो लोग सत्य पर संगति करने, अपनी काट-छाँट के लिए हमेशा दूसरों पर निर्भर रहते हैं, वे गुलाम हैं। ऐसे लोग विकलांग होते हैं और स्वतंत्र रूप से रहने में असमर्थ होते हैं। जो लोग सिद्धांतों के बिना कार्य करते हैं वे लापरवाही से कार्य करेंगे और यदि कुछ समय के लिए उनकी काट-छाँट या संगति नहीं की गई तो वे खुद पर नियंत्रण खो देंगे। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर को कैसे आश्वस्त कर सकता है? इसलिए, प्रकृति की समस्या हल करने के लिए तुम्हें इन तीन सिद्धांतों का पालन करना होगा। ये तुम्हें बड़े अपराध करने से रोकेंगे और सुनिश्चित करेंगे कि तुम परमेश्वर का विरोध न करो या उसके साथ विश्वासघात न करो।

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