सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन (अंश 16)
सत्य को समझने और उसका अभ्यास करने का उद्देश्य यह है कि लोग सत्य को जिएँ, मानव के समान जिएँ और जिन सत्यों को वे समझते हैं और अभ्यास में लाने में सक्षम हैं, उन्हें अपना जीवन बनाएँ। उन्हें अपना जीवन बनाने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि ये सत्य लोगों के कार्यों, जीवन, आचरण और अस्तित्व का आधार और स्रोत बन जाएँ—ये सत्य लोगों के जीने का ढंग बदल दें। पहले लोग किस आधार पर जीते थे? चाहे उनमें विश्वास रहा हो या न रहा हो, वे शैतानी स्वभावों पर भरोसा करके जीते थे और वे परमेश्वर के वचनों या सत्य के आधार पर नहीं जीते थे। क्या एक सृजित प्राणी को इसी तरह जीना चाहिए? (नहीं।) परमेश्वर मनुष्य से क्या अपेक्षा करता है? (यही कि लोग उसके वचनों के अनुसार जिएँ।) परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना—क्या यही वह लक्ष्य नहीं है जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों को रखना चाहिए? (हाँ, यही वह लक्ष्य है।) एक सृजित प्राणी के पास परमेश्वर के वचनों पर भरोसा करके जीने का स्वरूप होना चाहिए। परमेश्वर की दृष्टि में ऐसे लोग सच्चे सृजित प्राणी हैं। इसलिए तुम्हें नियमित रूप से यह सोचना चाहिए कि तुम्हारे कौन-से वचन, तुम्हारे कौन-से कार्य, तुम्हारे व्यवहार के कौन-से सिद्धांत, तुम्हारे अस्तित्व के कौन-से लक्ष्य और दुनिया से निपटने के तुम्हारे कौन-से तरीके सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं, परमेश्वर द्वारा मनुष्य से की जाने वाली अपेक्षाओं के अनुरूप हैं और इनमें से कौन-से परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं से कतई संबंधित नहीं हैं। अगर तुम अक्सर इन चीजों के बारे में चिंतन-मनन करोगे तो तुम धीरे-धीरे प्रवेश हासिल कर लोगे। अगर तुम इन चीजों के बारे में सोच-विचार नहीं करते हो, तो सिर्फ सतही प्रयास करने का कोई लाभ नहीं है; बेमन से कार्य करने, विनियमों का पालन करने और अनुष्ठानों में शामिल होने से अंततः तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। तो परमेश्वर में आस्था आखिर क्या है? परमेश्वर में आस्था असल में परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने की प्रक्रिया है और यह शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए मनुष्य को एक ऐसे मनुष्य में बदलने की प्रक्रिया है जो परमेश्वर की दृष्टि में एक सच्चा सृजित प्राणी है। यदि कोई जीने के लिए अभी भी अपने शैतानी स्वभाव और प्रकृति पर निर्भर रहता है, तो क्या वह परमेश्वर की दृष्टि में योग्य सृजित प्राणी है? (नहीं।) तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तुम परमेश्वर को स्वीकारते हो, तुम परमेश्वर की संप्रभुता स्वीकारते हो और यह स्वीकारते हो कि तुम्हें सब कुछ परमेश्वर देता है, लेकिन क्या तुम परमेश्वर के वचनों को जीते हो? क्या तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार जीते हो? क्या तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो? क्या तुम जैसा सृजित प्राणी परमेश्वर के सामने आ पाता है? क्या तुम परमेश्वर के साथ रहने में सक्षम हो? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है? क्या जिसे तुम जीते हो और जिस रास्ते पर तुम चलते हो, वह परमेश्वर के अनुकूल है? (नहीं।) तो परमेश्वर में तुम्हारी आस्था का क्या अर्थ है? क्या तुमने सही रास्ते पर प्रवेश किया है? परमेश्वर में तुम्हारी आस्था केवल शब्द और स्वरूप में ही है। तुम परमेश्वर के नाम में विश्वास करते हो और उसके नाम को स्वीकारते हो, और तुम स्वीकारते हो कि परमेश्वर तुम्हारा सृष्टिकर्ता और संप्रभु है लेकिन तुमने परमेश्वर की संप्रभुता या परमेश्वर के आयोजन मूल रूप से स्वीकार नहीं किए हैं, और तुम पूरी तरह परमेश्वर के अनुरूप नहीं हो सकते। अर्थात परमेश्वर में तुम्हारी आस्था का अर्थ पूरी तरह से चरितार्थ नहीं हुआ है। भले ही तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, लेकिन तुमने अपनी भ्रष्टता त्याग कर उद्धार प्राप्त नहीं किया है, और अपनी आस्था में तुम्हें जिस सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए था, उसमें तुमने प्रवेश नहीं किया है। यह एक गलती है। इसे इस तरह से देखें तो परमेश्वर में आस्था कोई साधारण बात नहीं है।
अब क्या तुम लोगों को दिल से महसूस होता है कि परमेश्वर के वचन समझना और सत्य का अभ्यास करना महत्वपूर्ण है? (महसूस होता है।) तुम सभी जानते हो कि सत्य का अभ्यास करना महत्वपूर्ण है, फिर भी ऐसा करना कोई साधारण बात नहीं है बल्कि यह कठिनाइयों से घिरा हुआ है। इसे कैसे ठीक किया जा सकता है? जब भी तुम पर कठिनाइयाँ आएँ, तुम्हें प्रार्थना करते हुए परमेश्वर के सम्मुख आकर परमेश्वर के वचनों में सत्य जरूर खोजना चाहिए, ताकि तुम अपनी कठिनाइयाँ दूर कर सको, अपनी कमजोरियाँ और बाहरी परिवेश की कठिनाइयाँ दूर कर सको, और सत्य का अभ्यास कर सको। यह अनुभव करके तुम्हारे पास परमेश्वर की स्वीकृति पाने की आशा रहेगी। यदि तुमने सत्य को और समझ लिया और तुम सत्य का अभ्यास करने में भी सक्षम हो, तो फिर तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने वाले व्यक्ति बन सकते हो, और ऐसा करके तुम्हारी आस्था को परमेश्वर की स्वीकृति मिलेगी। यदि तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का नाम स्वीकारते हो, और तुम मानते हो कि सभी चीजों पर उसकी संप्रभुता है और वह सृष्टिकर्ता है, लेकिन तुम्हारे जीवन में सत्य से, परमेश्वर की अपेक्षाओं से या एक सृजित प्राणी को क्या करना चाहिए उससे संबंधित एक अंश भी नहीं है तो क्या तुम्हारा परिणाम अंततः समस्यात्मक नहीं होगा? जिसका इन चीजों से कोई लेना-देना नहीं है, क्या वह परमेश्वर के पास आ सकता है? तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर के पास आ सकते हो, लेकिन क्या परमेश्वर तुम्हारी जैसी आस्था को स्वीकृति देता है? वह स्वीकृति नहीं देता, और इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि परमेश्वर तुम जैसे सृजित प्राणी को न तो स्वीकृति देता है और न उसे ऐसे प्राणी की आवश्यकता है। यदि परमेश्वर तुम्हारी आस्था को न तो स्वीकारता है और न स्वीकृति देता है, तो क्या वह एक व्यक्ति के रूप में तुम्हें स्वीकृति दे सकता है? (वह नहीं दे सकता।) यही अंत है : परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाएगा और तुम्हारा परिणाम तय हो चुका होगा! क्या तुम लोग अपने लिए यही परिणाम चाहते हो? (नहीं, हम यह परिणाम नहीं चाहते हैं।) तुम लोग किस प्रकार का परिणाम चाहते हो? (परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने वाला।) परमेश्वर द्वारा स्वीकृत होने के लिए तुम्हें सबसे पहले क्या समझना चाहिए? तुम्हें सबसे पहले कहाँ प्रवेश करना चाहिए? सबसे पहले, तुम्हें यह जानना चाहिए कि लोगों की कौन-सी करनी परमेश्वर को प्रसन्न करती है और कौन-सी करनी उसे अप्रसन्न करती है। पहले इन चीजों का सारांश तैयार करो ताकि तुम्हें इनकी स्पष्ट समझ हो जाए; फिर जब तुम काम करोगे तो तुम्हें पता लग जाएगा कि कैसे कार्य करना है। यह इतना सरल है। क्या ऐसी चीजों का सारांश तैयार करना आसान है? यह बहुत आसान है। जिन्होंने अतीत में बुरे कर्म किए और जो निकाल दिए गए थे, उन लोगों की उन चीजों का संक्षिप्त विवरण तैयार करो जो उन्होंने की थीं और जिनसे परमेश्वर घृणा करता है, उनकी विफलताओं ने जो सबक सिखाए उनका संक्षिप्त विवरण तैयार करो और उनमें से कोई भी बुरी चीज मत करो। फिर, जिन लोगों को परमेश्वर ने स्वीकृति दी थी, उनके अच्छे व्यवहार का सारांश तैयार करो और उन चीजों को और अधिक करो। इस तरह तुम परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर लोगे। तुम्हें पता लगाना होगा कि परमेश्वर के इरादों के सर्वाधिक अनुरूप बनने के लिए तुम्हें क्या करना है और क्या अभ्यास करना है, और तुम्हें समझना होगा कि परमेश्वर कैसे लोगों और कैसी चीजों से सबसे अधिक घृणा करता है, और परमेश्वर कैसे लोगों और कैसी चीजों से प्रसन्न होता है। तुम्हें पता होना चाहिए कि इनके बीच अंतर कैसे किया जाए, और उनका वर्गीकरण करना और संक्षिप्त विवरण तैयार करना सबसे अच्छा है ताकि उनकी स्पष्ट समझ हो सके। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मानक और सीमा को अपने हृदय में रखो। इस सिद्धांत, इस मानक, इस सीमा के साथ तुम्हारे पास कार्य करने के सिद्धांत होंगे, और तुम सिद्धांतों के अनुसार चीजें कर सकोगे। यदि तुम्हारे पास यह सिद्धांत और मानक नहीं है, तो चीजें करते समय तुम्हारे पास कोई निश्चितता नहीं होगी, और तुम यह नहीं बता पाओगे कि तुम जो चीजें करते हो उनमें से कौन-सी बुरी और कौन-सी अच्छी हैं। हो सकता है तुम्हें कोई चीज बुरी न लगे, लेकिन परमेश्वर की नजर में वह बुरी है; या हो सकता है कि तुम्हें कोई चीज अच्छी लगे, जबकि परमेश्वर की नजर में वह बुरी है। यदि तुम ये सब चीजें करते हो तो क्या यह परेशानी वाली बात नहीं है? यदि तुम जानबूझकर और अनवरत ऐसे काम करते हो जिन्हें परमेश्वर स्वीकृति नहीं देता और तुम केवल कुछ ही ऐसे काम करते हो जिन्हें परमेश्वर स्वीकृति देता है लेकिन तुम मानते हो कि तुमने बहुत सारे ऐसे काम किए हैं तो क्या तुम भ्रमित नहीं हो रहे हो? यदि तुम जो अधिकांश कार्य करते हो वे परमेश्वर की दृष्टि में बुरे हैं तो क्या वह तब भी तुम्हें स्वीकृति दे सकता है? (वह स्वीकृति नहीं दे सकता।) यह जानते हुए भी कि परमेश्वर किसी चीज को स्वीकृति नहीं देता है, तुम्हें इसे करना चाहिए या नहीं? (मुझे इसे नहीं करना चाहिए।) क्या तुम्हारा इसे करना बुरा कर्म है या अच्छा कर्म? (बुरा कर्म है।) यदि तुम पहचान लो कि यह एक बुरा कर्म है और बाद में इसे दोबारा कभी न करो तो इसे क्या कहा जाएगा? अपने हाथों से हिंसा का त्याग करना, जो सच्चे पश्चात्ताप की अभिव्यक्ति है। यदि तुम जानते हो कि तुमने बुराई की है और निश्चित हो कि परमेश्वर इसे स्वीकृति नहीं देता है तो तुम्हारे पास पश्चात्ताप करने वाला हृदय होना चाहिए। यदि तुम आत्म-चिंतन नहीं करते और इसके बजाय अपनी बुरी करनी का बचाव कर इसे जायज ठहराते हो तो तुम मुसीबत में हो : तुम्हें निश्चित रूप से निकाल दिया जाएगा, और तुम आगे अपना कर्तव्य निभाने योग्य नहीं रहोगे। तो अपना कर्तव्य निभाने में किस सिद्धांत में पारंगत होना है और कौन-सा मार्ग अपनाया जाना है? परमेश्वर की स्वीकृति पाने के लिए किस इरादे से आगे बढ़ना चाहिए? (सत्य खोजो और सभी चीजों में परमेश्वर के इरादे समझो।) हर कोई यह जानता है, लेकिन क्या इसे जानकर अभ्यास में लाया जा सकता है? एक बार जब तुम इसे समझ लेते हो तो क्या तुम इसे अभ्यास में ला सकते हो? (नहीं, हम नहीं ला सकते।) तो फिर तुम क्या कर सकते हो? तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर भरोसा करना चाहिए, तुम्हें सत्य के लिए कष्ट सहना चाहिए और अपनी महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ, इरादे और दैहिक सुख-सुविधाएँ दरकिनार करनी चाहिए। यदि तुम उन्हें दरकिनार नहीं करते, फिर भी सत्य प्राप्त करना चाहते हो तो क्या तुम कोरी कल्पनाओं में लिप्त नहीं हो? कुछ लोग सत्य को समझना और प्राप्त करना, दोनों काम करना चाहते हैं; वे स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाना चाहते हैं लेकिन वे कोई भी चीज त्याग नहीं सकते। वे अपना भविष्य नहीं त्याग सकते, वे दैहिक सुख-सुविधाएँ नहीं त्याग सकते, वे अपने परिवार का साथ, अपने बच्चे और अपने माता-पिता नहीं त्याग सकते, न ही वे अपने इरादे, अपने उद्देश्य या अपनी इच्छाएँ त्याग सकते हैं। उनके साथ चाहे कुछ भी घटित हो, वे हमेशा खुद को, अपने मामलों को और अपनी स्वार्थी इच्छाओं को तरजीह देते हैं, और सत्य को अंतिम स्थान पर रखते हैं; दैहिक हितों की पूर्ति और अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव उनके लिए सर्वोपरि होते हैं, और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और परमेश्वर को संतुष्ट करना गौण होकर अंतिम स्थान पाते हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं? क्या वे कभी सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं या परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर सकते हैं? (वे ऐसा कभी नहीं कर सकते।) यदि जाहिर तौर पर तुमने अपना कर्तव्य निभाया है और निठल्ले नहीं बैठे रहे हो, लेकिन तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव बिल्कुल भी नहीं सुधरा है तो क्या यह परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण है? (नहीं है।) तुम सभी लोग ये बातें समझते हो, लेकिन जब सत्य को व्यवहार में लाने की बात आती है, तो यह कठिन काम हो जाता है। तुम जो कष्ट सहते हो और कीमत चुकाते हो, वे सत्य का अभ्यास करने में खर्च किए जाने चाहिए, न कि विनियमों और प्रक्रियाओं का पालन करने में। तुम सत्य के लिए चाहे जितने कष्ट सहो, ये कम हैं, और परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने हेतु सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम जो कष्ट सहते हो, वे परमेश्वर को स्वीकार्य हैं और उसके द्वारा स्वीकृत हैं।
अब तुम लोगों के सामने क्या समस्याएँ हैं? एक तो यह है कि तुम कई सत्यों के विवरण नहीं समझते हो और उनका अंतर पहचानने के लिए तुम्हारे हृदय में कोई मानक नहीं है; इसके अलावा, तुम जिन सत्यों को समझते हो उनका अभ्यास करना कठिन है। मान लो कि शुरुआत में सत्य का अभ्यास करना कठिन है, लेकिन तुम इसका जितना अधिक अभ्यास करते हो, यह उतना ही आसान होता जाता है; तुम इसका जितना अधिक अभ्यास करोगे, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की प्रबलता उतनी ही कम होती जाती है; सत्य उत्तरोत्तर प्रबल होता जाता है, साथ ही सत्य का अभ्यास करने की इच्छा भी प्रबल होती जाती है; तुम्हारी स्थिति अधिक से अधिक सामान्य होती जाती है; और देह की स्वार्थी इच्छाएँ और तुम्हारे मानवीय विचार कम प्रभावी होते जाते हैं। यह सामान्य है, और तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति मिलने की उम्मीद है। लेकिन मान लो कि तुम लंबे समय से सत्य का अभ्यास कर रहे हो, फिर भी तुम्हारे हित, स्वार्थी इच्छाएँ, इरादे और भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे जीवन के हर पहलू और हिस्से में अभी भी आगे रहते हैं। सत्य का अभ्यास करना तुम्हारे लिए अभी भी बहुत कठिन काम है, और भले ही तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, तुम जो कुछ भी कर रहे हो उसके अधिकांश का सत्य के अभ्यास से कोई संबंध नहीं है। क्या तुम लोगों को यह परेशानी की बात नहीं लगती? यह निश्चित रूप से परेशानी की बात है! इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किस कलीसिया में हो या तुम्हारा परिवेश कैसा है, ये चीजें महत्वपूर्ण नहीं हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या सत्य का अनुसरण करने की तुम्हारी स्थिति उत्तरोत्तर बेहतर हो रही है, क्या परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध अधिक सामान्य हो रहा है, क्या तुम्हारा विवेक, तुम्हारा तर्क और तुम्हारी मानवता अधिक सामान्य होती जा रही है, और क्या परमेश्वर के प्रति तुम्हारी वफादारी और समर्पण बढ़ रहा है। यदि तुममें सकारात्मक चीजें बढ़ और प्रबल हो रही हैं, तो आशा है कि तुम सत्य प्राप्त करोगे। यदि तुममें इन सकारात्मक चीजों का कभी भी कोई संकेत नहीं है, तो तुमने रत्ती भर भी प्रगति नहीं की है, और तुम्हारे स्वभाव में लेशमात्र भी बदलाव नहीं आया है। यदि तुम सत्य का बिल्कुल भी अभ्यास नहीं करते तो तुम जीवन-प्रवेश कैसे पा लोगे? कुछ लोग कहते हैं, “मैंने इसका अभ्यास किया है और कड़ी मेहनत की है। तो फिर मुझे कोई परिणाम क्यों नहीं दिख रहा?” परिणामों में इस तरह के अभाव का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम लोगों ने सत्य का अभ्यास नहीं किया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने कितनी बार इसका अभ्यास करने की कोशिश की, अंतिम परिणाम यह है कि तुम अभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव और शैतानी प्रकृति के अधीन हो, जिसका अर्थ है कि तुम अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव पर विजय पाने के लिए सत्य वास्तविकता और परमेश्वर के वचन का उपयोग नहीं कर रहे हो। क्या इसे इस तरह कहा जा सकता है? (कहा जा सकता है।) तो क्या तुम विजेता हो या विफल? (विफल।) यह एक विफल व्यक्ति होना है, तुम विजेता नहीं हो। जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो, तो तुम्हारे हृदय में एक संघर्ष चल रहा होता है। तुम अपने इरादों को दरकिनार नहीं कर सकते, लेकिन तुम यह तो समझते ही हो कि सत्य क्या कहता है और परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं। संघर्ष की प्रक्रिया में तुम सत्य को दरकिनार कर देते हो; तुम इसका अभ्यास नहीं करते। अंततः तुम अपनी स्वार्थी इच्छाओं की पूर्ति करते हो, अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो और तुम जो जी रहे होते हो वह सत्य का अभ्यास किए बिना तुम्हारी शैतानी प्रकृति होती है। तो अंतिम परिणाम क्या है? (विफल होना।) मान लो कि अंत में तुम इस संघर्ष में विजयी नहीं होते और पहले की तरह ही अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते रहते हो : तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने का विकल्प नहीं चुनते, अपने व्यक्तिगत हितों को प्राथमिकता देते हो, अपनी इच्छाओं और स्वार्थ की पूर्ति करते हो लेकिन परमेश्वर को संतुष्ट नहीं करते, और सत्य का पक्ष नहीं लेते हो। इसका मतलब है कि तुम पूरी तरह असफल हो, और यह संघर्ष के परिणाम का एक प्रकार है। संघर्ष के परिणाम का दूसरा प्रकार क्या है? जब कुछ घटनाएँ घटती हैं, तो लोगों में आंतरिक संघर्ष भी होते हैं। वे परेशान, दुखी और कमजोर महसूस करते हैं, यहाँ तक कि उनकी गरिमा और चरित्र को भी चुनौती दी जाती है, और उनका घमंड संतुष्ट नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा, उन्हें काट-छाँट झेलनी पड़ती है, या दूसरे उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं, या उन्हें अपमानित किया जाता है, जिससे उनकी गरिमा और चरित्र दोनों का ह्रास होता है। लेकिन इस तरह की स्थिति का सामना होने पर वे परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं, और ऐसा करके उनके हृदय मजबूत होते हैं, और वे सत्य खोजकर इन चीजों को स्पष्ट रूप से देख लेते हैं। वे विलक्षण शक्ति के साथ सत्य का अभ्यास करेंगे और दृढ़ संकल्प रहेंगे। “मुझे न कोई छवि चाहिए, न रुतबा, न थोथा घमंड। भले ही दूसरे लोग मुझे हेय दृष्टि से देखते हैं और गलत समझते हैं, फिलहाल मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने और सत्य का अभ्यास करने का फैसला करता हूँ ताकि परमेश्वर मुझे स्वीकृति दे और इस मामले में मुझसे प्रसन्न हो, और मैं परमेश्वर के हृदय को ठेस न पहुँचा सकूँ।” वे अंततः अपनी छवि और थोथा घमंड, अपने इरादे, अपनी महत्वाकांक्षाएँ और स्वार्थ दरकिनार कर देंगे, और फिर परमेश्वर, सत्य और न्याय का पक्ष लेंगे। सत्य का अभ्यास करने के बाद उनके हृदय संतुष्ट, शांत और आह्लादित होते हैं। वे परमेश्वर का आशीष महसूस करते हैं और महसूस करते हैं कि सत्य का अभ्यास करना अच्छा है; सत्य का अभ्यास करने से उनके हृदय को संतोष और पोषण मिलता है, और उन्हें लगता है कि वे अपने शैतानी और भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित होने और बंदी बनाए जाने के बजाय मनुष्यों की तरह जी रहे हैं। परमेश्वर की गवाही देने और जैसा कि एक सृजित प्राणी को होना चाहिए, उस गवाही और स्थिति पर दृढ़ता से कायम रहने के बाद, वे मानसिक शांति, आनंद और अपने हृदय में खुशी महसूस करते हैं। यह दूसरे प्रकार का परिणाम है। इस तरह का परिणाम कैसा है? (अच्छा है।) लेकिन क्या यह “अच्छा” परिणाम हासिल करना आसान है? (नहीं है।) यह “अच्छा” परिणाम संघर्ष की प्रक्रिया के माध्यम से ही हासिल किया जाना है, और यह संभव है कि संघर्ष में लोग एक-दो बार असफल हों। लेकिन असफलता अपने साथ सबक लेकर आती है : यह लोगों को सत्य का अभ्यास न करने के कारण उनके विवेक पर पड़ने वाले भार का एहसास कराती है, यह एहसास कराती है कि वे परमेश्वर के ऋणी हैं और उनके हृदय कष्ट और दर्द सहते हैं। बाद में जब ऐसी परिस्थितियाँ सामने आएँगी तो लोग अनजाने में ही अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभावों पर काबू पाने में बेहतर होते जाएँगे; धीरे-धीरे वे परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करने के लिए निश्चित रूप से सत्य का अभ्यास करने का चयन करेंगे। यह शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव पर काबू पाने और परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास करने की सामान्य प्रक्रिया है।
अब क्या तुम लोगों को सत्य का अभ्यास करना कठिन लगता है? या क्या सत्य का अभ्यास न करते हुए अपनी इच्छानुसार कार्य करना कठिन है? (सत्य का अभ्यास करना कठिन है।) जैसा चाहें वैसा करने के बारे में क्या ख्याल है? (यह आसान है।) इससे तुम लोगों के वास्तविक आध्यात्मिक कद का पता चलता है : तुम लोगों में से कोई भी कतई नहीं बदला है और तुम अभी भी सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हो। ऐसा आध्यात्मिक कद कितना दयनीय है! तुम सभी को लगता है कि सत्य का अभ्यास करना कठिन है और जैसा चाहें वैसा करना आसान है, जिससे साबित होता है कि तुम अभी भी सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हो। तुम्हारे लिए देह की वरीयताओं का पालन करना स्वाभाविक हो गया है; तुम इसके आदी हो गए हो जैसे कि यह एक नियम हो, और इसलिए तुम्हें लगता है कि सत्य का अभ्यास करना बहुत कठिन है : तुम्हें अपने आत्म-सम्मान और रुतबे को नुकसान होने का डर लगातार सताता रहता है, इसलिए तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते हो और इसके बजाय अपने विचारों के अनुसार कार्य करते हो। एक ही विचार से व्यक्ति कायर, एक असफल व्यक्ति बन जाता है जो अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव के वशीभूत होता है, और वह अपनी गवाही और परमेश्वर की स्वीकृति खो देता है। यह कितना आसान है। लेकिन क्या सत्य का अभ्यास करने वाला और परमेश्वर की गवाही देने वाला बनना इतना आसान है? इसके लिए एक प्रक्रिया होनी चाहिए। जब कोई सत्य स्वीकारता है, तो उसके मन में हमेशा एक संघर्ष चलता रहता है, चीजें एक पल में इधर गिरती हैं, और दूसरे पल में उधर। एक अनवरत आंतरिक संघर्ष चलता रहता है, और अंत में यह संघर्ष एक निष्कर्ष पर पहुँचता है : जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं वे इसका अभ्यास करते हैं, गवाही देते हैं और विजयी होते हैं; जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते उनमें बहुत अधिक मनमर्जी होती है, उनमें मानवता की बहुत कमी होती है, वे नीच चरित्र के घृणित लोग होते हैं—ऐसे लोग अपने स्वार्थ और इच्छाएँ पूरी करने का विकल्प चुनते हैं, और पूरी तरह से अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव के वश में होते हैं। जब तुम लोगों के दैनिक जीवन में चीजें घटित होती हैं तो क्या तुम अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव पर विजय पाते हो? या तुम उस स्वभाव के अधीन होकर उससे नियंत्रित होते हो? तुम ज्यादातर किस प्रकार की स्थिति में रहते हो? इस आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि तुम सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति हो या नहीं। यदि तुम ज्यादातर समय अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव पर काबू पा सकते हो और गवाही देने वाले व्यक्ति बन सकते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अभ्यास करता है और सत्य से प्रेम करता है। यदि अधिकांश समय तुम अपनी स्वार्थी इच्छाएँ पूरी करते हो और अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव पर काबू पाने और सत्य के पक्ष में खड़े होने, सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने में असमर्थ रहते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो न तो सत्य का अभ्यास करता है और न ही उसके पास सत्य वास्तविकता है। यह स्पष्ट है कि जिनके पास सत्य वास्तविकता नहीं है, वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं लेकिन उनके पास जीवन प्रवेश नहीं है। तो अपने आप को मापो : तुम लोग अधिकांश समय किसके पक्ष में खड़े होते हो? देह के पक्ष में या सत्य के पक्ष में? जिन मामूली चीजों का सत्य से सरोकार नहीं होता वे मायने नहीं रखतीं, लेकिन जब ऐसी बड़ी चीजें घटित हों जहाँ तुम्हें कोई फैसला करने की जरूरत पड़े तो क्या तुम सत्य के पक्ष में खड़े होते हो या देह के पक्ष में? (शुरू में हम देह के पक्ष में खड़े होते हैं; लेकिन एक संघर्ष के बाद जब हम प्रार्थना और खोज के माध्यम से कुछ सत्य को समझ लेते हैं तो हम सत्य के पक्ष में खड़े होते हैं।) यह कहना सटीक है कि एक बार जब कोई सत्य को समझ लेता है तो सत्य के पक्ष में खड़ा हो सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि देह के विरुद्ध विद्रोह करने का मतलब यही हो कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। ऐसा नहीं है कि तुम देह के विरुद्ध विद्रोह करके और मनचाही चीजें न करके सत्य का अभ्यास कर रहे हो; बल्कि ऐसा है कि सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम्हें सत्य के सिद्धांतों का पालन और अभ्यास करना होगा। तो तुम लोगों की सामान्य स्थितियाँ क्या हैं? (जिसे हम देह के विरुद्ध विद्रोह कहते हैं वह वास्तव में सत्य का अभ्यास नहीं है; यह तो दरअसल आत्म-नियंत्रण करना हुआ।) अधिकतर लोगों के मामले में ऐसा ही प्रतीत होता है, क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) तो फिर तुम लोग अभी किस स्थिति में हो? क्या तुम्हें अभी भी सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करना बाकी है? (हाँ, हमें अभी भी सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करना बाकी है।) जीवन प्रवेश के बिना परमेश्वर में विश्वास करने का मतलब है कि तुमने अभी तक सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है; तुम लोग इसी अवस्था में रहते हो, इसलिए तुम लोग कई चीजों में अंतर पहचान नहीं पाते। ऐसा क्यों है कि तुम उनमें अंतर पता नहीं कर पाते? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुमने अभी तक केवल कुछ वचनों और सिद्धांतों को समझा है लेकिन सत्य को नहीं समझा है और वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, इसलिए तुम्हारे पास उन अनेक स्थितियों का कोई अनुभव नहीं है। तुम अभी तक उन स्थितियों से नहीं गुजरे हो, इसलिए तुम उन्हें स्पष्ट रूप से नहीं समझा सकते हो। असल में बात यही है। जो कुछ भी है, तुम्हें इसे स्वयं अनुभव करना होगा और अनुभव करने के बाद तुम्हें पता चल जाएगा कि विवरण क्या हैं। तुम्हारी भावनाओं, विचारों और तुम्हारे अनुभव की प्रक्रिया में सबमें विवरण होंगे, और ये विवरण वास्तविकता की बातें हैं। उनके बिना, तुम्हारे पास केवल सतही स्तर का ज्ञान है, इसलिए तुम इसे तोते की तरह दोहराते हो। सतही स्तर के ज्ञान का मतलब है कि तुम शाब्दिक समझ पर ही अटके हुए हो, तुमने अभी तक इसे आत्मसात नहीं किया है और तुम अभी भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने से बहुत दूर हो। क्या इसे इस तरह कहा जा सकता है? (कहा जा सकता है।) तुम लोगों को आज की संगति के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, और चिंतन करना सीखना चाहिए। सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम्हें चिंतन भी करना होगा और अभ्यास करते समय चिंतन करने में और चिंतन करते हुए अभ्यास करने में तुम सत्य के विवरण अधिक से अधिक समझोगे, सत्य के बारे में तुम्हारा ज्ञान और गहरा हो जाएगा, और इस तरह तुम वास्तव में अनुभव कर सकते हो कि सत्य वास्तविकता क्या है। एक बार जब तुम इसे सीख और अनुभव कर लोगे तभी तुम सत्य वास्तविकता प्राप्त कर पाओगे।
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