सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन (अंश 14)

कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जियोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे। संगति करते समय कैसे खुलना है, यह सीखना जीवन-प्रवेश की ओर पहला कदम है। इसके बाद, तुम्हें अपने विचारों और कार्यों का विश्लेषण करना सीखना होगा, ताकि यह देख सको कि उनमें से कौन-से गलत हैं और किन्हें परमेश्वर पसंद नहीं करता, और तुम्हें उन्हें तुरंत उलटने और सुधारने की आवश्यकता है। इन्हें सुधारने का मकसद क्या है? इसका मकसद यह है कि तुम अपने भीतर उन चीजों से पीछा छुड़ाओ जो शैतान से संबंधित हैं और उनकी जगह सत्य को लाते हुए, सत्य को स्वीकार करो और उसका पालन भी करो। पहले, तुम हर काम अपने कपटी स्वभाव के अनुसार करते थे, जो कि झूठ और कपट है; तुम्हें लगता था कि तुम झूठ बोले बिना कुछ नहीं कर सकते। अब जब तुम सत्य समझने लगे हो, और शैतान के काम करने के ढंग से नफरत करते हो, तो तुमने उस तरह काम करना बंद कर दिया है, अब तुम ईमानदारी, पवित्रता और समर्पण की मानसिकता के साथ कार्य करते हो। यदि तुम अपने मन में कुछ भी नहीं रखते, दिखावा नहीं करते, ढोंग नहीं करते, चीजें नहीं छिपाते, यदि तुम भाई-बहनों के सामने अपने आपको खोल देते हो, अपने अंतरतम विचारों और सोच को छिपाते नहीं, बल्कि दूसरों को अपना ईमानदार रवैया दिखा देते हो, तो फिर धीरे-धीरे सत्य तुम्हारे अंदर जड़ें जमाने लगेगा, यह खिल उठेगा और फलदायी होगा, धीरे-धीरे तुम्हें इसके परिणाम दिखाई देने लगेंगे। यदि तुम्हारा दिल ईमानदार होता जाएगा, परमेश्वर की ओर उन्मुख होता जाएगा और यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना जानते हो, और इन हितों की रक्षा न कर पाने पर जब तुम्हारी अंतरात्मा परेशान हो जाए, तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम पर सत्य का प्रभाव पड़ा है और वह तुम्हारा जीवन बन गया है। एक बार जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तो जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो ईशनिंदा करता है, परमेश्वर का भय नहीं मानता, कर्तव्य निभाते समय अनमना रहता है या कलीसिया के काम में गड़बड़ी कर बाधा डालता है, तो तुम सत्य-सिद्धांतों के अनुसार प्रतिक्रिया दोगे, तुम आवश्यकतानुसार उसे पहचानकर उजागर कर पाओगे। अगर सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बना है और तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव के भीतर रहते हो, तो जब तुम्हें उन बुरे लोगों और शैतानों का पता चलता है जो कलीसिया के कार्य में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करते हैं, तुम उन पर ध्यान नहीं दोगे और उन्हें अनसुना कर दोगे; अपने विवेक द्वारा धिक्कारे जाए बिना, तुम उन्हें नजरअंदाज कर दोगे। तुम यह भी सोचोगे कि कलीसिया के कार्य में कोई भी बाधाएँ डाले तो इससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे कितना भी नुकसान पहुँचे, तुम परवाह नहीं करते, हस्तक्षेप नहीं करते, या दोषी महसूस नहीं करते—जो तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति बनाता है जिसमें जमीर और विवेक नहीं है, एक छद्म-विश्वासी बनाता है, मजदूर बनाता है। तुम जो खाते हो वह परमेश्वर का है, तुम जो पीते हो वह परमेश्वर का है, और तुम परमेश्वर से आने वाली हर चीज का आनंद लेते हो, फिर भी तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान तुमसे संबंधित नहीं है—जो तुम्हें गद्दार बनाता है, जो उसी हाथ को काटता है जो उसे भोजन देता है। अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो क्या तुम इंसान भी हो? यह एक दानव है, जिसने कलीसिया में पैठ बना ली है। तुम परमेश्वर में विश्वास का दिखावा करते हो, चुने हुए होने का दिखावा करते हो, और तुम परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करना चाहते हो। तुम एक इंसान का जीवन नहीं जी रहे, इंसान से ज्यादा राक्षस जैसे हो, और स्पष्ट रूप से छद्म-विश्वासियों में से एक हो। अगर तुम्हें परमेश्वर में सच्चा विश्वास है, तब यदि तुमने सत्य और जीवन नहीं भी प्राप्त किया है, तो भी तुम कम से कम परमेश्वर की ओर से बोलोगे और कार्य करोगे; कम से कम, जब परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान किया जा रहा हो, तो तुम उस समय खड़े होकर तमाशा नहीं देखोगे। यदि तुम अनदेखी करना चाहोगे, तो तुम्हारा मन कचोटेगा, तुम असहज हो जाओगे और मन ही मन सोचोगे, “मैं चुपचाप बैठकर तमाशा नहीं देख सकता, मुझे दृढ़ रहकर कुछ कहना होगा, मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी, इस बुरे बर्ताव को उजागर करना होगा, इसे रोकना होगा, ताकि परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान न पहुँचे और कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त न हो।” यदि सत्य तुम्हारा जीवन बन चुका है, तो न केवल तुममें यह साहस और संकल्प होगा, और तुम इस मामले को पूरी तरह से समझने में सक्षम होगे, बल्कि तुम परमेश्वर के कार्य और उसके घर के हितों के लिए भी उस ज़िम्मेदारी को पूरा करोगे जो तुम्हें उठानी चाहिए, और उससे तुम्हारे कर्तव्य की पूर्ति हो जाएगी। यदि तुम अपने कर्तव्य को अपनी जिम्मेदारी, अपना दायित्व और परमेश्वर का आदेश समझ सको, और यह महसूस करो कि परमेश्वर और अपनी अंतरात्मा का सामना करने के लिए यह आवश्यक है, तो क्या फिर तुम सामान्य मानवता की निष्ठा और गरिमा को नहीं जी रहे होगे? तुम्हारा कर्म और व्यवहार “परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो” होगा, जिसके बारे में वह बोलता है। तुम इन वचनों के सार का पालन कर रहे होगे और उनकी वास्तविकता को जी रहे होगे। जब सत्य किसी व्यक्ति का जीवन बन जाता है, तब वह इस वास्तविकता को जीने में सक्षम होता है। लेकिन अगर तुमने अभी तक इस वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तो जब तुम धोखा, छल या स्वांग प्रकट करते हो या जब तुम मसीह-विरोधियों की बुरी शक्तियों को परमेश्वर के घर के कार्य में गड़बड़ी करते और विघ्न डालते देखते हो, तो तुम्हें कुछ भी महसूस नहीं होता और कुछ भी अनुभव नहीं होता। चाहे ये चीज़ें ठीक तुम्हारे सामने हो रही हों, तुम फिर भी हँस पाते हो और सहज अंतरात्मा के साथ खा और सो पाते हो और तुम्हें थोड़ा-सा भी खेद नहीं होता। इन दोनों जीवन में से तुम कोई भी जीवन जी सकते हो, तुम लोग कौन-सा चुनते हो? क्या यह स्वतः सिद्ध नहीं है कि सच्ची मानव-सदृशता, सकारात्मक चीजों की वास्तविकता क्या है, और नकारात्मक चीजों की दुष्ट राक्षसी प्रकृति क्या है? जब सत्य लोगों का जीवन नहीं बना होता, तो वे काफी दयनीय और दुखद जीवन जीते हैं। चाहकर भी सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होना; चाहकर भी परमेश्वर से प्रेम करने में असमर्थ होना; और लालायित होकर भी परमेश्वर के लिए खुद को खपाने में अशक्त होना—वे प्रभारी बनने में असमर्थ रहते हैं—यह भ्रष्ट मनुष्यों की दयनीयता और दुःख है। यह समस्या हल करने के लिए व्यक्ति को सत्य स्वीकार कर उसका अनुसरण करना चाहिए; नया जीवन पाने के लिए उसे अपने दिल में सत्य का स्वागत करना चाहिए। चाहे वे खुद कुछ भी करें या सोचें, जो लोग सत्य स्वीकारने में असमर्थ होते हैं, वे सत्य का अभ्यास करने में भी असमर्थ होते हैं, और भले ही बाहरी तौर पर वे अच्छा करते हों, यह फिर भी दिखावा और धोखा ही होता है—यह फिर भी पाखंड ही होता है। इसलिए, अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम जीवन प्राप्त नहीं करोगे, और यही समस्या की जड़ है।

ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का केवल संकल्प और इच्छा ही होती है; सत्य उनका जीवन नहीं बना है। इसके परिणाम स्वरूप, जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे राक्षसी लोगों या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह कलीसिया के कार्य में बाधा पड़ती है, और परमेश्वर के चुने गए लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो? या फ़िर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? दोनों में से कुछ नहीं; यह मुख्य रूप से भ्रष्ट स्वभावों द्वारा बेबस होने का परिणाम है। तुम्हारे द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों में से एक है कपटी स्वभाव; जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो पहली चीज जो तुम सोचते हो वह है तुम्हारे हित, पहली चीज जिस पर तुम विचार करते हो वह है नतीजे, कि यह तुम्हारे लिए फायदेमंद होगा या नहीं। यह एक कपटी स्वभाव है, है न? दूसरा है स्वार्थी और नीच स्वभाव। तुम सोचते हो, “परमेश्वर के घर के हितों के नुकसान से मेरा क्या लेना-देना? मैं कोई अगुआ नहीं हूँ, तो मुझे इसकी परवाह क्यों करनी चाहिए? इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है।” ऐसे विचार और शब्द तुम सचेतन रूप से नहीं सोचते, बल्कि ये तुम्हारे अवचेतन द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं—जो वह भ्रष्ट स्वभाव है जो तब दिखता है जब लोग किसी समस्या का सामना करते हैं। ऐसे भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे सोचने के तरीके को नियंत्रित करते हैं, वे तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देते हैं और तुम जो कहते हो उसे नियंत्रित करते हैं। अपने दिल में, तुम खड़े होकर बोलना चाहते हो, लेकिन तुम्हें आशंकाएँ होती हैं, और जब तुम बोलते भी हो, तो इधर-उधर की हाँकते हो, और बात बदलने की गुंजाइश छोड़ देते हो, या फिर टाल-मटोल करते हो और सत्य नहीं बताते। स्पष्टदर्शी लोग इसे देख सकते हैं; वास्तव में, तुम अपने दिल में जानते हो कि तुमने वह सब नहीं कहा जो तुम्हें कहना चाहिए था, कि तुमने जो कहा उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, कि तुम सिर्फ बेमन से कह रहे थे, और समस्या हल नहीं हुई है। तुमने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है, फिर भी तुम खुल्लमखुल्ला कहते हो कि तुमने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है, या जो कुछ हो रहा था वह तुम्हारे लिए अस्पष्ट था। क्या यह सच है? और क्या तुम सचमुच यही सोचते हो? क्या तब तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव के नियंत्रण में नहीं हो? भले ही तुम जो कुछ कहते हो उसका कुछ हिस्सा तथ्यों के अनुरूप हो, लेकिन मुख्य स्थानों और महत्वपूर्ण मुद्दों पर तुम झूठ बोलते हो और लोगों को धोखा देते हो, जो साबित करता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो झूठ बोलता है, और जो अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीता है। तुम जो कुछ भी कहते और सोचते हो, वह तुम्हारे मस्तिष्क द्वारा संसाधित किया गया होता है, जिससे तुम्हारा हर कथन नकली, खोखला, झूठा हो जाता है; वास्तव में, तुम जो कुछ भी कहते हो वह तथ्यों के विपरीत, खुद को सही ठहराने की खातिर, अपने फायदे के लिए होता है, और तुम्हें लगता है कि जब तुम लोगों को गुमराह करते हो और उन्हें विश्वास दिला देते हो, तो तुम अपने लक्ष्य हासिल कर लेते हो। ऐसा है तुम्हारे बोलने का तरीका; यह तुम्हारा स्वभाव भी दर्शाता है। तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव से नियंत्रित हो। तुम जो कहते और करते हो, उस पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं होता। यहाँ तक कि अगर तुम चाहते भी, तो भी तुम सच न बता पाते या वह न कह पाते जो तुम वास्तव में सोचते हो; चाहकर भी तुम सत्य का अभ्यास न कर पाते; चाहकर भी तुम अपनी जिम्मेदारियाँ न निभा पाते। तुम जो कुछ भी कहते, करते हो और जिसका भी अभ्यास करते हो, वह सब झूठ है, और तुम सिर्फ अनमने हो। तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव की बेड़ियों में जकड़े हुए और उससे नियंत्रित हो। हो सकता है कि तुम सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास करना चाहो, लेकिन यह तुम पर निर्भर नहीं है। जब तुम्हारे शैतानी स्वभाव तुम्हें नियंत्रित करते हैं, तो तुम वही कहते और करते हो जो तुम्हारा शैतानी स्वभाव तुमसे करने को कहता है। तुम भ्रष्ट देह की कठपुतली के अलावा और कुछ नहीं हो, तुम शैतान का एक औजार बन गए हो। बाद में तुम्हें एक बार फिर भ्रष्ट देह का अनुसरण करने पर और इस बात पर पछतावा महसूस होता है कि तुम सत्य का अभ्यास करने में विफल कैसे हो सकते हो। तुम मन ही मन सोचते हो, “मैं अपने दम पर देह की इच्छाओं पर विजय नहीं पा सकता और मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। मैं उन लोगों को रोकने के लिए खड़ा नहीं हुआ जो कलीसिया के काम में बाधा डाल रहे थे, और मेरा जमीर मुझे कचोट रहा है। मैंने मन बना लिया है कि जब दोबारा ऐसा होगा, तो मुझे उनका डटकर मुकाबला करना होगा और उनकी काट-छाँट करनी होगी जो अपने कर्तव्यों के निर्वाह में कुकर्म कर रहे हैं और कलीसिया के काम में बाधा डाल रहे हैं, ताकि वे अच्छा व्यवहार करें और लापरवाही से काम करना बंद कर दें।” अंततः बोलने का साहस जुटाने के बाद, जैसे ही दूसरा व्यक्ति क्रोधित होता है और मेज पर हाथ पटकता है, तुम डरकर पीछे हट जाते हो। क्या तुम प्रभारी बनने में सक्षम हो? दृढ़ संकल्प और इच्छाशक्ति किस काम की? दोनों ही बेकार हैं। तुम लोगों ने ऐसी कई घटनाओं का सामना किया होगा : जब तुम कठिनाइयों में पड़ जाते हो तो तुम हार मान लेते हो, तुम्हें लगता है कि तुम कुछ नहीं कर सकते और निराश होकर हार मान लेते हो, तुम निराशा में डूब जाते हो और तय कर लेते हो कि तुम्हारे लिए कोई आशा नहीं है और इस बार तुम्हें पूरी तरह से निकाल दिया गया है। तुम मानते हो कि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो फिर पश्चात्ताप क्यों नहीं करते? क्या तुमने सत्य का अभ्यास किया है? निश्चित रूप से तुम कई वर्षों तक धर्मोपदेशों में भाग लेने के बाद भी कुछ नहीं समझ पाए होगे। तुम बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास क्यों नहीं करते? तुम कभी सत्य नहीं खोजते, उसका अभ्यास करना तो दूर की बात है। तुम सिर्फ लगातार प्रार्थना कर रहे हो, संकल्प कर रहे हो, महत्वाकांक्षाएँ तय कर रहे हो और अपने दिल में प्रतिज्ञा कर रहे हो। और नतीजा क्या होता है? तुम खुशामदी बने रहते हो, तुम अपने सामने आने वाली समस्याओं के बारे में स्पष्टवादी नहीं होते, तुम बुरे लोगों को देखकर उन पर ध्यान नहीं देते, जब कोई बुराई या गड़बड़ी करता है तो तुम प्रतिक्रिया नहीं देते, और अगर तुम व्यक्तिगत रूप से प्रभावित नहीं होते तो तुम अलग रहते हो। तुम सोचते हो, “मैं ऐसी किसी चीज के बारे में बात नहीं करता, जिसका मुझसे कोई सरोकार नहीं है। अगर वह मेरे हितों, मेरी शान या मेरी छवि को ठेस नहीं पहुँचाती, तो मैं बिना किसी अपवाद के हर चीज की उपेक्षा करता हूँ। मुझे बहुत सावधान रहना होगा, क्योंकि जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है। मैं कोई बेवकूफी नहीं करूँगा!” तुम पूरी तरह से और अटूट रूप से दुष्टता, कपट, कठोरता और सत्य से विमुखता के अपने भ्रष्ट स्वभावों से नियंत्रित हो। इन्हें सहना तुम्हारे लिए वानर राजा द्वारा पहने गए उस सुनहरे सरबंद[क] से ज्यादा मुश्किल हो गया है जो असहनीय ढंग से कसता जाता था। भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में रहना बहुत थकाऊ और कष्टदायी है! तुम लोग इस बारे में क्या कहते हो : अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो क्या अपनी भ्रष्टता छोड़ना आसान है? क्या यह समस्या सुलझाई जा सकती है? मैं तुम लोगों को बताता हूँ : अगर तुम लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और अपने विश्वास में भ्रमित रहते हो, अगर तुम सत्य का अभ्यास किए बिना वर्षों तक उपदेश सुनते रहते हो, अगर तुम अंत तक विश्वास करते रहते हो मगर फिर भी केवल कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलकर दूसरों को धोखा दे सकते हो, तो तुम पूरी तरह से एक धार्मिक धोखेबाज, एक पाखंडी फरीसी हो, और इस तरह से तुम्हारा अंत हो जाएगा। तुम लोगों का यही परिणाम होगा। अगर तुम इससे भी बदतर हो, तो एक ऐसी स्थिति आ सकती है जिसमें तुम प्रलोभन में पड़ जाओगे, अपना कर्तव्य छोड़ दोगे, और ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो परमेश्वर को धोखा देता है—उस स्थिति में तुम पिछड़ जाओगे और निकाल दिए जाओगे। यह हमेशा संकट के कगार पर रहना है! इसलिए, अभी सत्य का अनुसरण करने से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं है। सत्य का अभ्यास करने से बेहतर कुछ नहीं है।

फुटनोट :

क. वानर राजा का सुनहरा सरबंद एक महत्वपूर्ण वस्तु है, जो उत्कृष्ट चीनी उपन्यास “पश्चिम की यात्रा” में दिखाई देती है। इस कहानी में वानर राजा के अनियंत्रित व्यवहार की प्रतिक्रिया में उसकी खोपड़ी के चारों ओर दर्दनाक तरीके से कसकर उसके विचारों और कार्यों को नियंत्रित करने के लिए सुनहरे सरबंद का उपयोग किया गया था।

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