सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन (अंश 12)

समस्याओं का सामना करते समय सत्य खोजना बहुत महत्वपूर्ण है। अगर तुम सत्य खोजते हो, तो तुम न केवल समस्या हल करने में सक्षम होगे, बल्कि सत्य का अभ्यास कर उसे प्राप्त करने में भी सक्षम होगे। अगर तुम सत्य नहीं खोजते, बल्कि अपने तर्क पर जोर देते हो और हमेशा अपनी राय के अनुसार काम करते हो, तो तुम न केवल अपनी भ्रष्टता की समस्या हल करने में असफल होगे, बल्कि जानबूझकर पाप भी करोगे, और यह परमेश्वर का विरोध करने का मार्ग है। उदाहरण के लिए, मान लो अपने कर्तव्य निभाने में तुम्हारी काट-छाँट की जाती है, और तुम सत्य नहीं खोजते, बल्कि हठपूर्वक अपने तर्क पर जोर देते हो। तुम सोच सकते हो, “मैंने अपना काम किया है, और मैंने साफ तौर पर कुछ बुरा नहीं किया है, लेकिन सिर्फ कुछ गलतियों के लिए न केवल मेरी काट-छाँट की जाती है, बल्कि मुझे उजागर कर अपमानित भी किया जाता है, जो मेरे प्रति नापसंदगी दर्शाता है। परमेश्वर का प्रेम कहाँ है? मैं उसे क्यों नहीं देख सकता? कहा जाता है कि परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है, तो ऐसा कैसे है कि परमेश्वर दूसरों से प्रेम करता है लेकिन मुझसे नहीं करता?” सारी शिकायतें उड़ेल दी जाती हैं। क्या ऐसी दशा में लोग सत्य प्राप्त कर सकते हैं? नहीं कर सकते। जब परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते में समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, और उन्हें हल करने, खुद को बदलने और अपने भ्रामक दृष्टिकोण और कट्टर विचार छोड़ने के बजाय तुम हठपूर्वक परमेश्वर का विरोध करते हो, तो इसका परिणाम केवल यह हो सकता है कि परमेश्वर तुम्हें छोड़ देगा, और तुम भी उससे मुँह मोड़ लोगे। तुम परमेश्वर के प्रति शिकायतों से भरे होगे, उसकी संप्रभुता पर संदेह कर उसे नकार दोगे और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार नहीं होगे। इससे भी बदतर, तुम इस बात से इनकार करोगे कि परमेश्वर सत्य और धार्मिकता है, और यह परमेश्वर का विरोध करने का सबसे गंभीर रूप है। लेकिन अगर तुम सभी चीजों में सत्य खोजते हो, तो तुम परमेश्वर के इरादे समझ चुके होगे और तुम्हें वह मार्ग मिल चुका होगा जिस पर तुम चल सकते हो। ऐसा करके तुम न केवल इस बात की पुष्टि करोगे कि जिस परमेश्वर पर तुम विश्वास करते हो, वह सत्य, मार्ग, जीवन और प्रेम है; बल्कि तुम इस बात की पुष्टि भी करोगे कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है सही करता है, उसके द्वारा मनुष्य का परीक्षण और शोधन सही है, जिसका उद्देश्य मनुष्य का उद्धार और शुद्धिकरण है। तुम परमेश्वर की धार्मिकता और पवित्रता का ज्ञान प्राप्त कर लोगे, और साथ ही तुम परमेश्वर के कार्य को भी जान लोगे और उसके प्रेम की महानता देखोगे। यह कितना बड़ा इनाम है! क्या तुम सत्य खोजे बिना, परमेश्वर और उसके कार्य को हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर लेकर ऐसा इनाम प्राप्त कर सकते हो? निश्चित रूप से नहीं। चूँकि मनुष्य शैतान द्वारा बहुत गहराई से भ्रष्ट कर दिया गया है, इसलिए उसके तमाम क्रियाकलाप और कर्म और वह सब जो वह प्रकट करता है, शैतान के स्वभाव के हैं, और वे सब सत्य के विपरीत और परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं। मनुष्य परमेश्वर के महान प्रेम का आनंद लेने के योग्य नहीं है। फिर भी परमेश्वर मनुष्य के प्रति बहुत चिंतित है, उसे रोजाना अनुग्रह प्रदान करता है, और उसका परीक्षण और शोधन करने हेतु उसके लिए तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों की व्यवस्था करता है, ताकि वह बदल सके। परमेश्वर हर तरह के परिवेश के जरिये मनुष्य का खुलासा करता है, उसे आत्मचिंतन कर खुद को जानने, सत्य समझने और जीवन प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है। परमेश्वर मनुष्य से बहुत प्रेम करता है, और उसका प्रेम इतना वास्तविक है कि मनुष्य उसे देख और छू सकता है। अगर तुमने यह सब अनुभव किया है, तो तुम महसूस कर सकते हो कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है, मनुष्य के उद्धार की खातिर करता है, और यह सबसे सच्चा प्रेम है। अगर परमेश्वर ऐसा व्यावहारिक कार्य न करता, तो कोई न कह सकता कि मनुष्य कितना गिर गया है! फिर भी ऐसे बहुत लोग हैं जो परमेश्वर का सच्चा प्रेम नहीं देखते, जो अभी भी प्रसिद्धि, फायदे और रुतबे के पीछे भागते हैं, जो बाकी लोगों से कहीं बेहतर होने का प्रयास करते हैं, जो हमेशा दूसरों को फँसाने और नियंत्रित करने की इच्छा रखते हैं। क्या वे खुद को परमेश्वर के साथ होड़ में नहीं रख रहे? अगर वे ऐसा ही करते रहे, तो परिणाम अकल्पनीय होंगे! अपने न्याय के कार्य से परमेश्वर मनुष्य की भ्रष्टता उजागर करता है, ताकि वह उसे जान सके। वह मनुष्य के गलत अनुसरणों पर रोक लगाता है। परमेश्वर उत्कृष्ट कार्य करता है! भले ही परमेश्वर जो करता है, वह मनुष्य को प्रकट कर उसका न्याय करता है, लेकिन उसे बचाता भी है। यह सच्चा प्रेम है। जब तुम्हें खुद इसका एहसास हो जाता है, तो क्या तुम सत्य के इस पहलू को प्राप्त नहीं कर लेते? जब कोई व्यक्ति खुद इसे महसूस कर लेता है और यह समझ प्राप्त कर लेता है, और जब वह ये सत्य समझ लेता है, तो क्या उसे फिर भी परमेश्वर के प्रति शिकायतें होती हैं? नहीं—वे सब खत्म हो जाती हैं। फिर वह स्वेच्छा और दृढ़ता से परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सकता है। अगली बार जब कोई परीक्षण या शोधन होता है, या उसकी काट-छाँट की जाती है, तो उसे तुरंत एहसास हो जाता है कि परमेश्वर जो कर रहा है वह सही है, और परमेश्वर उसे उजागर कर बचा रहा है। वह जल्दी ही अपने तर्क पर जोर न देकर, धारणाओं और शिकायतों से मुक्त होकर, परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हुए उसे स्वीकारने और समर्पित होने में सक्षम हो जाता है। अगर लोग इस हद तक समर्पित हो सकते हैं, तो यह कई शोधनों का अनुभव करने के जरिये, पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा पूर्ण किए जाने से होता है।

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