सत्य की खोज और इसका अभ्यास करने के बारे में वचन (अंश 10)

ऐसे बहुत लोग हैं, जो अपने कर्तव्य में व्यस्त होते ही अनुभव करने में असमर्थ हो जाते हैं और सामान्य स्थिति बनाए नहीं रख पाते, और नतीजतन, लगातार सभा आयोजित कर अपने साथ सत्य की संगति किए जाने की माँग करते रहते हैं। यहाँ क्या चल रहा है? वे सत्य नहीं समझते, वे सच्चे मार्ग में नींव नहीं जमा पाए हैं, ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते समय जोश से प्रेरित होते हैं, और लंबे समय तक नहीं सह सकते हैं। जब लोग सत्य नहीं समझते, तो वे जो कुछ भी करते हैं उसमें कोई सिद्धांत नहीं होता। अगर उनके लिए कुछ करने की व्यवस्था की जाती है, तो वे उसमें गड़बड़ी कर देते हैं, वे जो करते हैं उसमें लापरवाह होते हैं, वे सिद्धांतों की तलाश नहीं करते हैं, और उनके दिलों में कोई समर्पण नहीं होता है—जो यह साबित करता है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने में असमर्थ हैं। चाहे तुम कुछ भी करो, तुम्हें सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि तुम इसे क्यों कर रहे हो, वह कौन सी मंशा है जो तुम्हें ऐसा करने के लिए निर्देशित करती है, तुम्हारे ऐसा करने का क्या महत्व है, मामले की प्रकृति क्या है, और क्या तुम जो कर रहे हो वह कोई सकारात्मक चीज़ है या कोई नकारात्मक चीज़ है। तुम्हें इन सभी मामलों की एक स्पष्ट समझ अवश्य होनी चाहिए; तुम्हारे लिए सिद्धान्त के साथ कार्य करने में समर्थ होने के लिए यह बहुत आवश्यक है। अगर तुम कुछ कर रहे हो जिसे तुम्हारा कर्तव्य माना जा सकता है, तो तुम्हें यह विचार करना चाहिए : मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे करना चाहिए, ताकि मैं इसे बस लापरवाही से न करूँ? इस मामले में तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। परमेश्वर से प्रार्थना करना सत्य को खोजने और अभ्यास करने का तरीका, परमेश्वर की इच्छाएँ और परमेश्वर को संतुष्ट करने का तरीका खोजने के लिए है। प्रार्थना ये प्रभाव प्राप्त करने के लिए है। परमेश्वर से प्रार्थना करना, परमेश्वर के निकट आना और परमेश्वर के वचन पढ़ना धार्मिक अनुष्ठान या बाहरी क्रियाकलाप नहीं हैं। यह परमेश्वर के इरादों को खोजने के बाद सत्य के अनुसार अभ्यास करने के उद्देश्य से किया जाता है। अगर तुम उस समय हमेशा कहते हो “परमेश्वर को धन्यवाद,” जब तुमने कुछ नहीं किया होता, और तुम बहुत आध्यात्मिक और गहरी पहुँच रखने वाले लग सकते हो, लेकिन अगर कार्य करने का समय आने पर भी तुम जैसा चाहते हो वैसा ही करते हो, सत्य की तलाश बिल्कुल नहीं करते, तो यह “परमेश्वर का धन्यवाद” एक मंत्र से ज्यादा कुछ नहीं है, यह झूठी आध्यात्मिकता है। अपना कर्तव्य करते समय तुम्हें हमेशा सोचना चाहिए : “मुझे यह कर्तव्य कैसे करना चाहिए? परमेश्वर की इच्छा क्या है?” अपने कार्यों के लिए सिद्धांत और सत्य खोजने हेतु परमेश्वर से प्रार्थना करना और उसके करीब जाना, अपने दिल में परमेश्वर की इच्छाओं की तलाश करना, और जो भी तुम करते हो उसमें परमेश्वर के वचनों या सत्य सिद्धांतों से न भटकना—केवल ऐसा करने वाला इंसान ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करता है; यह सब उन लोगों के लिए अप्राप्य है जो सत्य से प्रेम नहीं करते। ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो चाहे कुछ भी करें, अपने ही विचारों का पालन करते हैं, और चीजों को अत्यधिक एकांगी तरीके से समझते हैं, और सत्य की तलाश भी नहीं करते। वहाँ सिद्धांत का पूर्ण अभाव रहता है, और अपने दिल में वे इस पर कोई विचार नहीं करते कि परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार या उस तरीके से कैसे कार्य करें जो परमेश्वर को संतुष्ट करता है, और केवल हठपूर्वक अपनी ही इच्छा का पालन करना जानते हैं। ऐसे लोगों के दिल में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं, “जब मेरे सामने कठिनाई आती है, तो मैं केवल परमेश्वर से ही प्रार्थना करता हूँ, लेकिन फिर भी ऐसा नहीं लगता कि इसका कोई प्रभाव होता है—इसलिए आम तौर पर अब जब मेरे साथ कुछ घटता है, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करता, क्योंकि परमेश्वर से प्रार्थना करना बेकार है।” ऐसे लोगों के दिलों से परमेश्वर बिल्कुल नदारद होता है। वे सामान्य समय में चाहे जो भी कर रहे हों, सत्य की तलाश नहीं करते; वे केवल अपने विचारों का ही पालन करते हैं। तो क्या उनके कार्यों के सिद्धांत हैं? निश्चित रूप से नहीं। वे सब-कुछ एकांगी तरीके से देखते हैं। यहाँ तक कि जब लोग उनके साथ सत्य सिद्धांतों की संगति करते हैं, तो वे उन्हें स्वीकार नहीं कर पाते, क्योंकि उनके कार्यों में कभी कोई सिद्धांत नहीं रहा होता, उनके हृदय में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं होता, और उनके हृदय में उनके सिवा कोई नहीं होता। उन्हें लगता है कि उनके इरादे नेक हैं, कि वे बुराई नहीं कर रहे, कि उनके इरादों को सत्य का उल्लंघन करने वाला नहीं माना जा सकता, उन्हें लगता है कि अपने इरादों के अनुसार कार्य करना सत्य का अभ्यास करना होना चाहिए, कि इस प्रकार कार्य करना परमेश्वर के प्रति समर्पण करना है। वस्तुतः, इस मामले में वे वास्तव में परमेश्वर की तलाश या उससे प्रार्थना नहीं कर रहे, बल्कि आवेग पर कार्य करते हुए, अपने ही जोशीले इरादों के अनुसार, वे उस तरह अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे जिस तरह परमेश्वर कहता है, उनमें परमेश्वर की आज्ञा मानने वाला दिल नहीं है, उनमें यह इच्छा अनुपस्थित रहती है। लोगों के अभ्यास में यह सबसे बड़ी गलती होती है। अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो और फिर भी वह तुम्हारे दिल में नहीं है, तो क्या तुम परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश नहीं कर रहे? और परमेश्वर पर ऐसी आस्था का क्या परिणाम हो सकता है? तुम इससे क्या हासिल कर सकते हो? और परमेश्वर पर ऐसी आस्था का क्या मतलब है?

अगर तुमने कुछ ऐसा किया है, जो सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन कर परमेश्वर को अप्रसन्न करता है, तो तुम्हें आत्मचिंतन करके खुद को जानने की कोशिश कैसे करनी चाहिए? जब तुम उसे करने जा रहे थे, तब क्या तुमने उससे प्रार्थना की थी? क्या तुमने कभी यह विचार किया, “क्या चीजें इस तरह से करना सत्य के अनुरूप है? अगर यह बात परमेश्वर के सामने लाई जाएगी, तो उसे कैसी लगेगी? अगर उसे इसका पता चलेगा, तो वह खुश होगा या कुपित? वह इससे घृणा करेगा या इसका तिरस्कार करेगा?” तुमने यह जानने की कोशिश नहीं की, है ना? यहाँ तक कि अगर दूसरे लोगों ने तुम्हें याद भी दिलाया, तो तुम तब भी यही सोचोगे कि यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, और यह किसी भी सिद्धांत के खिलाफ नहीं जाता और न ही कोई पाप है। नतीजतन, तुमने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर दिया और उसे क्रोध करने के लिए उकसाया, इस हद तक कि उसे तुमसे नफरत हो जाए। यह लोगों के विद्रोहीपन से उत्पन्न होता है। इसलिए, तुम्हें सभी चीजों में सत्य खोजना चाहिए। तुम्हें इसी का पालन करना चाहिए। अगर तुम पहले से प्रार्थना करने के लिए ईमानदारी से परमेश्वर के सामने आ सको, और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य की तलाश कर सको, तो तुम गलती नहीं करोगे। सत्य के तुम्हारे अभ्यास में कुछ विचलन हो सकते हैं, लेकिन इससे बचना कठिन है, और कुछ अनुभव प्राप्त करने के बाद तुम सही ढंग से अभ्यास करने में सक्षम होगे। लेकिन अगर तुम जानते हो कि सत्य के अनुसार कैसे कार्य करना है, फिर भी इसका अभ्यास नहीं करते, तो समस्या सत्य के प्रति तुम्हारी नापसंदगी है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे उसे कभी नहीं खोजेंगे, चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए। केवल सत्य से प्रेम करने वालों के पास ही परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, और जब ऐसी चीजें होती हैं जो उन्हें समझ नहीं आतीं, तो वे सत्य की खोज करने में सक्षम होते हैं। अगर तुम परमेश्वर के इरादे नहीं समझ सकते और अभ्यास करना नहीं जानते, तो तुम्हें सत्य समझने वाले कुछ लोगों के साथ सहभागिता करनी चाहिए। अगर तुम्हें सत्य समझने वाले लोग न मिल पाएँ, तो तुम्हें शुद्ध समझ वाले कुछ लोगों को ढूँढ़कर एकचित्त होकर एक-साथ परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से खोजना चाहिए, परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए, और परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए एक रास्ता खोले जाने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। अगर तुम सभी सत्य के लिए तरसते हो, सत्य की खोज करते हो, और सत्य पर एक-साथ सहभागिता करते हो, तो एक समय आएगा जब तुममें से किसी को कोई अच्छा समाधान सूझ जाएगा। अगर तुम सभी को वह समाधान उपयुक्त लगता है और वह एक अच्छा उपाय है, तो यह पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी के कारण हो सकता है। फिर अगर तुम अभ्यास का और भी सटीक मार्ग तलाशने के लिए एक-साथ संगति करते हो, तो यह निश्चित रूप से सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होगा। अपने अभ्यास में, अगर तुम पाते हो कि तुम्हारे अभ्यास का तरीका अभी भी कुछ ठीक नहीं है, तो तुम्हें उसे जल्दी से सही करने की आवश्यकता है। अगर तुम थोड़ी गलती करते हो, तो परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा, क्योंकि तुम जो करते हो उसमें तुम्हारे इरादे सही हैं, और तुम सत्य के अनुसार अभ्यास कर रहे हो। तुम बस सिद्धांतों के बारे में थोड़े भ्रमित हो और तुमने अपने अभ्यास में एक त्रुटि कर दी है, जो क्षम्य है। लेकिन जब ज्यादातर लोग चीजें करते हैं, तो वे इसे किए जाने के तरीके को लेकर अपनी कल्पना के आधार पर इसे करते हैं। सत्य के अनुसार अभ्यास कैसे करें या परमेश्वर की स्वीकृति कैसे प्राप्त करें, इस पर विचार करने के लिए वे परमेश्वर के वचनों को आधार नहीं बनाते। इसके बजाय, वे केवल इस बारे में सोचते हैं कि कैसे स्वयं को लाभ पहुँचाया जाए, कैसे दूसरों से अपना आदर करवाया जाए, और कैसे दूसरों से अपनी प्रशंसा करवाई जाए। वे चीजें पूरी तरह से अपने विचारों के आधार पर और विशुद्ध रूप से खुद को संतुष्ट करने के लिए करते हैं, जो परेशानी खड़ी करता है। ऐसे लोग कभी सत्य के अनुसार कार्य नहीं करेंगे, और परमेश्वर हमेशा उनसे घृणा करेगा। अगर वास्तव में तुम्हारे पास अंतरात्मा और विवेक है, तो चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें प्रार्थना करने और खोजने के लिए परमेश्वर के सामने आने में सक्षम होना चाहिए, अपने कामों में उद्देश्यों और मिलावट की गंभीरता से जाँच करने में सक्षम होना चाहिए, यह तय करने में सक्षम होना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार क्या करना उचित है, और बार-बार तोलना और विचारना चाहिए कि कौन-से कार्य परमेश्वर को प्रसन्न करते हैं, कौन-से कार्य परमेश्वर को नाराज करते हैं, और कौन-से कार्य परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करते हैं। तुम्हें मन में इन मामलों पर तब तक बार-बार विचार करना चाहिए, जब तक तुम उन्हें स्पष्ट रूप से समझ नहीं लेते। अगर तुम जान जाते हो कि कुछ करने के पीछे तुम्हारे अपने उद्देश्य हैं, तो तुम्हें इस पर चिंतन करना चाहिए कि तुम्हारे उद्देश्य क्या हैं, वे खुद को संतुष्ट करने के लिए हैं या परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए, वे तुम्हारे लिए फायदेमंद हैं या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए, और उनके क्या परिणाम होंगे...। अगर तुम अपनी प्रार्थनाओं में इस तरह से और अधिक खोज और चिंतन करते हो, और सत्य खोजने के लिए खुद से और प्रश्न पूछते हो, तो तुम्हारे कार्यों में विचलन कम होते जाएँगे। इस तरह से सत्य खोज सकने वाले लोग ही परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहकर उसका भय मानते हैं, क्योंकि ऐसे में तुम परमेश्वर के वचनों की अपेक्षाओं के अनुसार और समर्पित हृदय से खोजते हो, और इस तरह खोजने से तुम जिन निष्कर्षों पर पहुँचते हो, वे सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होंगे।

अगर किसी विश्वासी के कर्म सत्य के अनुरूप नही हैं, तो वह किसी अविश्वासी के समान ही है। वह उस तरह का इंसान है, जिसके दिल में परमेश्वर नहीं होता, और जो परमेश्वर से भटक जाता है, और ऐसा इंसान परमेश्वर के घर में काम पर रखे गए उस कर्मचारी की तरह होता है, जो अपने मालिक के लिए कोई छोटे-मोटे कार्य कर देता है, कुछ मुआवज़ा पाता है और फिर चला जाता है। यह ऐसा इंसान बिल्कुल नहीं हो सकता, जो परमेश्वर पर विश्वास करता है। परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करने के लिए क्या करना है, यह वह पहली चीज़ है, जिसके बारे में तुम्हें चीजें करते समय जाँच और काम करना चाहिए; यह तुम्हारे क्रियाकलापों का सिद्धांत और दायरा होना चाहिए। तुम जो कर रहे हो वह सत्य के अनुरूप है या नहीं, इसका निश्चय तुम्हें इसलिए करना चाहिए, क्योंकि अगर वह सत्य के अनुरूप है, तो वह निश्चित रूप से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। ऐसा नहीं है कि तुम्हें यह मापना चाहिए कि यह बात सही है या गलत है, या क्या यह हर किसी की रुचि के अनुरूप है, या क्या यह तुम्हारी अपनी इच्छाओं के अनुसार है; बल्कि तुम्हें यह निश्चित करना चाहिए कि यह सत्य के अनुरूप है या नहीं, और यह कलीसिया के काम और हितों को लाभ पहुँचाता है या नहीं। अगर तुम इन बातों पर विचार करते हो, तो तुम चीज़ों को करते समय परमेश्वर के इरादों के अधिकाधिक अनुरूप होते जाओगे। अगर तुम इन पहलुओं पर विचार नहीं करते, और चीज़ों को करते समय केवल अपनी इच्छा पर निर्भर रहते हो, तो तुम्हारा उन्हें गलत तरीके से करना गारंटीशुदा है, क्योंकि मनुष्य की इच्छा सत्य नहीं है और निश्चित रूप से, वह परमेश्वर के साथ असंगत होती है। अगर तुम परमेश्वर द्वारा अनुमोदित होने की इच्छा रखते हो, तो तुम्हें सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, न कि अपनी इच्छा के अनुसार। कुछ लोग अपने कर्तव्य करने के नाम पर कुछ निजी मामलों में संलग्न रहते हैं। उनके भाई और बहन इसे अनुचित मानते हैं और इसके लिए उन्हें फटकारते हैं, लेकिन ये लोग भूल स्वीकार नहीं करते। उन्हें लगता है कि यह एक व्यक्तिगत मामला है, जिसमें कलीसिया का कार्य, वित्त या उसके लोग शामिल नहीं हैं, और यह कोई बुरा काम नहीं है, इसलिए लोगों को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कुछ चीज़ें तुम्हें निजी मामले लग सकती हैं, जिन पर कोई सिद्धांत या सत्य लागू नहीं होता। किंतु, तुम्हारे द्वारा किए गए कार्य को देखते हुए, तुम बहुत स्वार्थी रहे। तुमने कलीसिया के कार्य या परमेश्वर के घर के हितों पर कोई ध्यान नहीं दिया, न ही इस बात पर ध्यान दिया कि क्या यह परमेश्वर के लिए संतोषजनक होगा; तुम केवल अपने फायदे पर विचार करते रहे। इसमें पहले ही संतों का औचित्य और साथ ही इंसान की मानवता शामिल हैं। भले ही तुम जो कर रहे थे, उससे चर्च के हित नहीं जुड़े थे, न ही उसमें सत्य शामिल था, फिर भी अपने कर्तव्य के पालन करने का दावा करते हुए एक निजी मामले में संलग्न होना सत्य के अनुरूप नहीं है। चाहे तुम कुछ भी कर रहे हो, चाहे मामला कितना भी बड़ा या छोटा हो, और चाहे वह परमेश्वर के परिवार में तुम्हारा कर्तव्य हो या तुम्हारा निजी मामला, तुम्हें इस बात पर विचार करना ही चाहिए कि जो तुम कर रहे हो वह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है या नहीं, साथ ही क्या यह ऐसा कुछ है जो किसी मानवता युक्त इंसान को करना चाहिए। अगर तुम जो भी करते हो उसमें उस तरह सत्य की तलाश करते हो तो तुम ऐसे इंसान हो जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करता है। अगर तुम हर बात और हर सत्य को इस तरह गंभीरता से लेते हो, तो तुम अपने स्वभाव में बदलाव हासिल करने में सक्षम होगे। ऐसे लोग हैं, जो सोचते हैं, “जब मैं अपना कर्तव्य करता हूँ, तब मेरा सत्य का अभ्यास करना तो ठीक है, लेकिन जब मैं अपने निजी कार्य कर रहा होता हूँ, तो मुझे परवाह नहीं कि सत्य क्या कहता है—मैं वही करूँगा जो मुझे पसंद है, जो कुछ भी मुझे अपने फायदे के लिए करना पड़े।” इन शब्दों से तुम देख सकते हो कि वे सत्य के प्रेमी नहीं हैं। वे जो कुछ करते हैं, उसमें कोई सिद्धांत नहीं होता। इस बात पर विचार तक किए बिना कि परमेश्वर के घर पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, वे जो कुछ भी उनके लिए फायदेमंद होगा, करेंगे। नतीजतन, जब वे कुछ कर लेते हैं, तो परमेश्वर उनमें मौजूद नहीं होता, और वे महसूस करते हैं कि वे अंधकार में हैं और परेशान हैं, और नहीं जानते कि क्या हो रहा है। क्या वे अपने इस रेगिस्तान के ही लायक नहीं है? अगर तुम अपने कार्यों में सत्य का अभ्यास नहीं करते और परमेश्वर का अपमान करते हो, तो तुम उसके खिलाफ पाप कर रहे हो। अगर कोई इंसान सत्य से प्रेम नहीं करता और अक्सर अपनी इच्छा के अनुसार काम करता है, तो वह अक्सर परमेश्वर को रुष्ट करेगा। परमेश्वर उसे ठुकरा कर एक किनारे कर देगा। ऐसा इंसान जो कुछ करता है, वह अक्सर परमेश्वर की स्वीकृति पाने में विफल हो जाता है, और अगर वह पश्चाताप न करे, तो सजा उससे दूर नहीं है।

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