कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 41)

परमेश्वर के घर में, सत्य का अनुसरण करने वाले सभी लोग परमेश्वर के सामने एकजुट रहते हैं, न कि विभाजित। वे सभी एक ही साझा लक्ष्य के लिए कार्य करते हैं : अपने कर्तव्य को निभाना, खुद को मिला हुआ कार्य करना, सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना, परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार कार्य करना और उसके इरादों को पूरा करना। यदि तुम्हारा लक्ष्य इसके लिए नहीं है बल्कि तुम्हारे अपने लिए है, अपनी स्वार्थी इच्छाओं को पूरा करने के लिए है, तो यह एक भ्रष्ट शैतानी स्वभाव का खुलासा है। परमेश्वर के घर में लोग सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभाते हैं, जबकि अविश्वासियों के कार्य उनके शैतानी स्वभावों द्वारा नियंत्रित होते हैं। ये दो बहुत अलग रास्ते हैं। अविश्वासी अपनी राय जाहिर नहीं करते, उनमें से हर एक के अपने लक्ष्य और योजनाएँ होती हैं और हर कोई अपने हितों के लिए जी रहा होता है। यही कारण है कि वे सभी अपने लाभ के लिए छीना-झपटी करते रहते हैं और जो भी उन्हें मिलता है उसका एक इंच भी छोड़ने को तैयार नहीं होते। वे विभाजित होते हैं, एकजुट नहीं होते, क्योंकि उनका एक सामान्य लक्ष्य नहीं होता। वे जो करते हैं उसके पीछे का इरादा और उद्देश्य एक ही होता है। वे सभी अपने लिए ही प्रयास करते हैं। इस पर सत्य का शासन नहीं होता बल्कि इस पर भ्रष्ट शैतानी स्वभाव का शासन होता है और वही इसे नियंत्रित करता है। वे अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के नियंत्रण में रहते हैं और अपनी सहायता नहीं कर सकते और इसलिए वे पाप में गहरे से गहरे धंसते चले जाते हैं। परमेश्वर के घर में, यदि तुम लोगों के कार्यों के सिद्धांत, तरीके, प्रेरणा और प्रारंभ बिंदु अविश्वासियों से अलग नहीं होंगे, यदि तुम भी भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के कब्जे, नियंत्रण और बहकावे में रहोगे और यदि तुम्हारे कार्यों का प्रारंभ बिंदु तुम्हारे अपने हित, प्रतिष्ठा, गर्व और हैसियत होगी, तो फिर तुम लोग अपना कर्तव्य उसी तरह निभाओगे जैसे अविश्वासी लोग कार्य करते हैं। यदि तुम लोग सत्य का अनुसरण करते हो तो तुम लोगों को अपने कार्य करने के तरीके को बदलना चाहिए। तुम्हें अपने हितों और अपने व्यक्तिगत इरादों और इच्छाओं को त्याग देना चाहिए। जब तुम लोग कार्य करते हो तो तुम्हें सबसे पहले सत्य पर एक साथ संगति करनी चाहिए और आपस में कार्य विभाजित करने से पहले परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं को समझना चाहिए और साथ ही इस बात पर भी नजर रखनी चाहिए कि कौन किसमें अच्छा है और कौन बुरा। तुम्हें उन कार्यों को लेना चाहिए जिन्हें तुम करने में सक्षम हो और अपने कर्तव्य को दृढ़ता से निभाना चाहिए। चीजों के लिए लड़ो या छीना-झपटी मत करो। तुम्हें समझौता करना और सहनशील होना सीखना चाहिए। यदि किसी ने अभी-अभी कोई कर्तव्य निभाना शुरू किया है या किसी कार्य क्षेत्र के लिए कोई कौशल बस सीखा ही है, लेकिन वह कुछ कार्य करने में सक्षम नहीं है, तो तुम्हें उन्हें मजबूर नहीं करना चाहिए। तुम्हें उन्हें ऐसे कार्य सौंपने चाहिए जो थोड़े आसान हों। इससे उनके लिए अपने कर्तव्य निर्वहन में परिणाम प्राप्त करना आसान हो जाता है। सहनशील, धैर्यवान और सैद्धांतिक होने का यही मतलब है। यही वो चीज है जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए; परमेश्वर भी लोगों से इसी की अपेक्षा करता है और लोगों को भी इसी का अभ्यास करना चाहिए। यदि तुम किसी कार्य क्षेत्र में काफी कुशल हो और दूसरों से ज्यादा उस क्षेत्र में सबसे लंबे समय से कार्य कर रहे हो, तो फिर तुम्हें अधिक कठिन कार्य सौंपा जाना चाहिए। तुम्हें इसे परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए और समर्पण करना चाहिए। नुकताचीनी मत करो और यह कहते हुए शिकायत न करो कि “मुझे परेशान क्यों किया जा रहा है? वे अन्य लोगों को आसान कार्य देते हैं और मुझे कठिन कार्य देते हैं। क्या वे मेरे जीवन को कठिन बनाने की कोशिश कर रहे हैं?” “तुम्हारे जीवन को कठिन बनाने की कोशिश कर रहे हैं”? इससे तुम्हारा क्या मतलब है? कार्य व्यवस्थाएँ प्रत्येक व्यक्ति के अनुरूप होती हैं; जो लोग सक्षम होते हैं वे अधिक कार्य करते हैं। यदि तुमने बहुत कुछ सीखा है और परमेश्वर द्वारा तुम्हें बहुत कुछ दिया गया है, तो तुम्हारे कंधों पर अधिक भारी बोझ डाला जाना चाहिए—इसलिए नहीं कि तुम्हारा जीवन कठिन बने, बल्कि इसलिए कि यह तुम्हारे लिए बिल्कुल उपयुक्त है। यह तुम्हारा कर्तव्य है, इसलिए अपनी मर्जी से चुनने या ना कहने या इससे अपनी जान छुड़ाने की कोशिश न करो। तुम्हें क्यों लगता है कि यह कठिन है? असल बात तो यह है कि यदि तुम इसे दिल लगा कर करोगे तो तुम आसानी से यह कार्य कर सकते हो। तुम्हारा यह सोचना कि यह कठिन है, कि यह पक्षपातपूर्ण व्यवहार है और तुम्हें जानबूझकर परेशान किया जा रहा है—यह एक भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा है। यह अपने कर्तव्य को निभाने से इनकार करना है, परमेश्वर से स्वीकार करना नहीं है। यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है। जब तुम अपनी मर्जी से अपने कर्तव्य चुनते हो और जो भी कार्य मामूली और आसान हो केवल उन्हें ही करते हो, केवल वही करते हो जिससे तुम अच्छे दिखो तो यह एक भ्रष्ट शैतानी स्वभाव है। तुम्हारा अपने कर्तव्य स्वीकार न कर पाना या समर्पण न कर पाना यह साबित करता है कि तुम अभी भी परमेश्वर के प्रति विद्रोही हो, कि तुम उसका विरोध कर उसे ठुकरा रहे हो और उससे बच रहे हो। यह एक भ्रष्ट स्वभाव है। जब तुम्हें पता चले कि यह एक भ्रष्ट स्वभाव है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? यदि तुम्हें लगता है कि दूसरों को दिए गए कार्य आसानी से पूरे किए जा सकते हैं जबकि तुम्हें दिए गए कार्य तुम्हें लंबे समय तक व्यस्त रखते हैं और उनके लिए तुम्हें काफी शोध करने की आवश्यकता होती है और तुम इसके कारण दुखी हो, तो क्या तुम्हारा यह दुखी महसूस करना सही है? बिल्कुल नहीं। तो, जब तुम्हें लगे कि यह सही नहीं है तो तुम्हें क्या करना चाहिए? यदि तुम विरोध करते हो और यह कहते हो कि, “जब भी वे लोगों में कार्य बांटते हैं, तो वे मुझे सबसे कठिन, गंदे और कड़ी मेहनत वाले कार्य देते हैं, और दूसरों को ऐसे कार्य देते हैं जो मामूली, आसान और महत्वपूर्ण होते हैं। क्या उन्हें लगता है कि वे मुझे जहाँ चाहे वहाँ धकेल सकते हैं? यह कार्यों को वितरित करने का एक उचित तरीका नहीं है!”—यदि तुम्हारी यही सोच है, तो यह गलत है। चाहे कार्यों के वितरण में कोई भटकाव हो या न हो और चाहे उन्हें उचित रूप से वितरित किया जाए या नहीं, परमेश्वर किस चीज की पड़ताल करता है? वह एक व्यक्ति के दिल की पड़ताल करता है। वह देखता है कि क्या उसके दिल में समर्पण है, क्या वह परमेश्वर के कोई बोझ उठा सकता है और क्या वह परमेश्वर से प्रेम करता है। परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार तुम्हारे यह सारे बहाने अमान्य हैं, तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन मानक के अनुरूप नहीं है और तुममें सत्य वास्तविकता का अभाव है। तुम्हारे अंदर बिल्कुल भी समर्पण नहीं है और जब तुम कोई ऐसा कार्य करते हो जिसमें बहुत मेहनत लगती है या जो तुच्छ होता है तो तुम शिकायत करने लगते हो। आखिर यहाँ समस्या क्या है? सबसे पहले तो तुम्हारी मानसिकता ही गलत है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया गलत है। यदि तुम हमेशा अपने अभिमान और हितों के बारे में सोचते रहते हो और परमेश्वर के इरादों की परवाह नहीं करते और तुम्हारे अंदर बिल्कुल भी समर्पण नहीं है, तो यह वह सही रवैया नहीं है जो तुम्हें अपने कर्तव्य के प्रति रखना चाहिए। यदि तुम ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाते और तुम्हारे पास परमेश्वर-प्रेमी दिल होता, तो तुम उन कार्यों को कैसे करते जो तुच्छ, मेहनत वाले या कठिन हैं? तुम्हारी मानसिकता अलग होती : तुम कठिन कार्य करना पसंद करते और अपने कंधे पर भारी बोझ उठाने की कोशिश करते। तुम उन कार्यों को अपने हाथों में ले लेते जिन्हें अन्य लोग करना नहीं चाहते और तुम इन्हें केवल परमेश्वर के प्रेम के लिए और उसे संतुष्ट करने के लिए करते। तुम बिना कोई शिकायत किए खुशी से यह कार्य करते। तुच्छ, कड़ी मेहनत वाले और कठिन कार्य लोगों की असलियत दिखा देते हैं। तुम उन लोगों से कैसे अलग हो जो केवल आसान और महत्वपूर्ण कार्य ही लेते हैं? तुम उनसे कोई बेहतर नहीं हो। क्या बात ऐसी ही नहीं है? तुम्हें इन चीजों को इसी तरह से देखना चाहिए। तो फिर, जो चीज सबसे ज्यादा लोगों की असलियत का खुलासा करती है वह उनके द्वारा अपने कर्तव्य का पालन करना है। कुछ लोग हर समय बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और दावा करते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करने और उसके प्रति समर्पण करने के लिए तैयार हैं, लेकिन जब उन्हें अपने कर्तव्य निभाने में कोई कठिनाई आती है, तो वे सभी प्रकार की शिकायतों और नकारात्मक शब्दों का उपयोग करना शुरू कर देते हैं। यह स्पष्ट है कि वे लोग पाखंडी हैं। यदि कोई सत्य का प्रेमी है, तो जब उसे अपने कर्तव्य को करने में किसी कठिनाई का सामना करना पड़ेगा, तो वह परमेश्वर से प्रार्थना करेगा और अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाते हुए सत्य की तलाश करेगा, भले ही इसकी उचित व्यवस्था न की गई हो। भले ही उसका सामना भारी, तुच्छ, या कठिन कार्यों से क्यों न हो जाए वह शिकायत नहीं करेगा, और वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाले हृदय के साथ अपने कार्यों को अच्छी तरह से करने और अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने में सक्षम हो सकता है। उसे ऐसा करने में बहुत आनंद मिलता है और परमेश्वर को यह देखकर सुकून मिलता है। इस तरह के व्यक्ति को परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है। जैसे ही किसी को तुच्छ, कठिन या ऐसे कार्यों का सामना करना पड़े जिसमें बहुत मेहनत करनी पड़े और वह चिड़चिड़ा और क्रोधित हो जाता है और वह किसी को भी अपनी आलोचना नहीं करने देता, तो वह ऐसा व्यक्ति नहीं है जो खुद को ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खपाता है। उन्हें केवल बेनकाब कर निकाला जा सकता है। आमतौर पर जब तुम लोग इन अवस्थाओं में होते हो, तो क्या तुम इस समस्या की गंभीरता को समझ पाते हो? (कुछ हद तक।) यदि तुम इसे थोड़ा बहुत समझ भी लेते हो, तो क्या तुम इसे अपनी ताकत, अपनी आस्था और अपने आध्यात्मिक कद के दम पर बदल सकते हो? तुम्हें इस रवैये को बदलने की जरूरत है। तुम्हें सबसे पहले यह सोचने की जरूरत है, “यह रवैया गलत है। क्या मैं अपने कर्तव्य निर्वहन में अपनी मर्जी से चुनाव नहीं कर रहा? यह तो समर्पण नहीं है। अपना कर्तव्य निभाना तो एक खुशी की बात होनी चाहिए और यह स्वेच्छा और खुशी से किया जाना चाहिए। तो फिर मैं खुश क्यों नहीं हूँ और मैं परेशान क्यों हूँ? मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि मेरा कर्तव्य क्या है और मुझे यही करना चाहिए—तो फिर मैं समर्पण क्यों नहीं कर पा रहा? मुझे परमेश्वर के सामने आना चाहिए और प्रार्थना करनी चाहिए और अपने दिल की गहराई में इन भ्रष्ट स्वभावों के खुलासे को जानना चाहिए।” फिर, जब तुम ऐसा करो, तो तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए : “परमेश्वर, मुझे अपनी मर्जी चलाने की आदत हो गई है—मैं किसी की नहीं सुनता। मेरा रवैया गलत है, और मेरे अंदर कोई समर्पण नहीं है। कृपया मुझे अनुशासित कर मुझे समर्पण करने लायक बना। मैं परेशान नहीं होना चाहता। मैं अब तेरे खिलाफ विद्रोह नहीं करना चाहता। कृपया मुझे प्रेरित कर और मुझे इस कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने में सक्षम बना। मैं शैतान के लिए जीना नहीं चाहता; मैं सत्य के लिए जीना और इसका पालन करना चाहता हूँ।” जब तुम इस तरह से प्रार्थना करोगे, तो तुम्हारे भीतर की स्थिति सुधर जाएगी, और जब वह अवस्था सुधर जाएगी, तो तुम समर्पण करने में सक्षम हो जाओगे। तुम सोचोगे, “सच में यह कोई बड़ी बात नहीं है। बस सिर्फ इतना ही करना है कि मुझे दूसरों की तुलना में अधिक कार्य करना है, जब वे मजे करें तो मुझे नहीं करना या जब वे बेकार गपबाजी करें तो मुझे नहीं करना है। परमेश्वर ने मुझे अतिरिक्त और भारी बोझ दिया है; वह मेरे बारे में ऊँची राय रखता है, यह उसके द्वारा मुझ पर किया उपकार है, और यह साबित करता है कि मैं इस भारी बोझ को उठा सकता हूँ। परमेश्वर मेरे प्रति बहुत अच्छा है और मुझे समर्पित होना चाहिए।” और तुम्हारा रवैया बदल जाएगा और तुम्हें इसका एहसास भी नहीं होगा। जब तुमने पहली बार अपना कर्तव्य स्वीकार किया था तो तुम्हारा रवैया काफी बुरा था। तुम समर्पण करने में असमर्थ थे, परन्तु तुम इसे तुरंत बदलने और तुरंत परमेश्वर की जाँच और अनुशासन को स्वीकार करने में सक्षम हो गए हो। तुम एक आज्ञाकारी रवैये के साथ, सत्य को स्वीकार करने और उसका अभ्यास करने वाले रवैये के साथ फौरन परमेश्वर के पास आने में सक्षम हो गए हो, और तुम परमेश्वर से अपने कर्तव्य को उसकी संपूर्णता में स्वीकारने और उसे पूरे दिल से निभाने में सक्षम हो गए हो। इसके पीछे संघर्ष की एक प्रक्रिया है। संघर्ष की यह प्रक्रिया तुम्हारे परिवर्तन की प्रक्रिया है, तुम्हारे द्वारा सत्य को स्वीकार करने की प्रक्रिया है। क्योंकि लोगों के लिए बिना संदेह किए जो कुछ भी उनके रास्ते में आता है, उसके प्रति समर्पण करने के लिए तैयार होना और खुशी के साथ समर्पण करना असंभव होता है। अगर लोग ऐसा कर सकते, तो इसका मतलब होता कि उनमें कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है और उन्हें बचाने के लिए परमेश्वर द्वारा सत्य व्यक्त करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। लोगों के पास विचार होते हैं; उनका रवैया गलत होता है; उनकी गलत और नकारात्मक अवस्थाएँ होती हैं। ये सभी वास्तविक समस्याएँ हैं—जो मौजूद हैं। लेकिन जब ये नकारात्मक और प्रतिकूल अवस्थाएँ, नकारात्मक भावनाएँ और भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे व्यवहार, तुम्हारे विचारों और तुम्हारे रवैये पर हावी हो जाते हैं और उन्हें नियंत्रित करते हैं, तो तुम क्या करते हो, तुम कैसे अभ्यास करते हो और तुम किस रास्ते को चुनते हो, यह सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये पर निर्भर करेगा। तुम्हारी अपनी भावनाएँ हो सकती हैं या तुम नकारात्मक या विद्रोही दशा में हो सकते हो, लेकिन जब ये चीजें तुम्हारे कर्तव्य को निभाने के दौरान प्रकट होती हैं, तो उन्हें आसानी से बदल दिया जाएगा, क्योंकि तुम परमेश्वर के सामने आते हो, क्योंकि तुम सत्य समझते हो, क्योंकि तुम परमेश्वर की तलाश करते हो और क्योंकि तुम्हारा रवैया समर्पण करने और सत्य को स्वीकारने का रवैया है। फिर तुम्हें अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने में कोई परेशानी नहीं होगी और तुम उस बाध्यता और नियंत्रण पर विजय प्राप्त करने में सक्षम हो जाओगे जो भ्रष्ट शैतानी स्वभाव का तुम्हारे ऊपर है। अंत में, तुम अपने कर्तव्य को निभाने में सफल हो जाओगे और तुम परमेश्वर के आदेश को पूरा करोगे और सत्य और जीवन को सुरक्षित करोगे। लोगों के कर्तव्य निभाने और सत्य प्राप्त करने की प्रक्रिया अपने स्वभाव में बदलाव लाने की प्रक्रिया भी है। लोग अपने कर्तव्यों को निभाने के दौरान ही पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त करते हैं, सत्य समझते हैं और वास्तविकता में प्रवेश करते हैं। जब अपने कर्तव्यों को निभाने में कठिनाइयाँ आती हैं तो वे उन्हें हल करने के लिए प्रार्थना करने, खोजने और परमेश्वर के इरादों को समझने के लिए बार-बार परमेश्वर के पास आते हैं, ताकि वे अपने कर्तव्यों को सामान्य रूप से निभा सकें। लोग अपने कर्तव्यों को निभाने के दौरान ही परमेश्वर द्वारा अनुशासित होते हैं और पवित्र आत्मा के निर्देशन में अपना जीवन बिताते हैं, धीरे-धीरे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना सीखते हैं और संतोषजनक ढंग से अपना कर्तव्य निभाते हैं। यह है सत्य का तुम्हारे दिल में नियंत्रण और शासन करना।

कुछ लोगों के लिए, भले ही वे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय किसी भी समस्या का सामना क्यों न करें, वे सत्य की तलाश नहीं करते हैं और हमेशा अपने विचारों, अपनी अवधारणाओं, कल्पनाओं और इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हैं। वे निरंतर अपनी स्वार्थी इच्छाओं को संतुष्ट करते हैं और उनके भ्रष्ट स्वभाव हमेशा उनके कार्यों पर नियंत्रण करते हैं। वे हमेशा अपने कर्तव्य निभाते हुए प्रतीत हो सकते हैं, पर क्योंकि उन्होंने सत्य को कभी स्वीकार नहीं किया है, और वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजें करने में अक्षम हैं, इसलिए वे आखिर में सत्य और जीवन पाने में असफल रहते हैं, और मजदूरों के नाम के ही लायक बन जाते हैं। तो ऐसे लोग अपने कर्तव्यों को करते समय किस पर निर्भर करते हैं? ऐसे व्यक्ति न तो सत्य पर निर्भर करते हैं, न ही परमेश्वर पर। जिस थोड़े से सत्य को वे समझते हैं, उसने उनके हृदयों में संप्रभुत्व हासिल नहीं किया है; वे इन कर्तव्यों को निभाने के लिए अपनी खुद की योग्यताओं और प्रतिभाओं पर, उस ज्ञान पर जो उन्होंने प्राप्त किया है, और साथ ही अपनी इच्छाशक्ति या नेक इरादों पर भरोसा कर रहे हैं। अगर बात ऐसी है, तो क्या वे अपने कर्तव्यों को एक स्वीकार्य स्तर तक निभाने में सक्षम होंगे? जब लोग अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए अपनी स्वाभाविकता, धारणाओं, कल्पनाओं, विशेषज्ञता और शिक्षा पर निर्भर करते हैं, तो भले ही ऐसा प्रतीत हो कि वे अपने कर्तव्य निभा रहे हैं और कोई दुष्टता नहीं कर रहे हैं, पर वे सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे होते, और कुछ भी ऐसा नहीं करते जिससे परमेश्वर संतुष्ट हो। साथ ही एक दूसरी समस्या भी है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता : अपने कर्तव्य को निभाने की प्रक्रिया के दौरान, यदि तुम्हारी अवधारणाएँ, कल्पनाएँ और व्यक्तिगत इच्छाएँ कभी नहीं बदलती हैं और कभी भी सत्य के साथ प्रतिस्थापित नहीं की जाती हैं, यदि तुम्हारे कार्य और कर्म कभी भी सत्य सिद्धांतों के अनुसार नहीं किए जाते हैं, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? तुम्हें जीवन प्रवेश नहीं मिलेगा, तुम एक मजदूर बन जाओगे और इस प्रकार बाइबल में लिखे गए प्रभु यीशु के ये वचन पूरे करोगे : “उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्‍टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्‍चर्यकर्म नहीं किए?’ तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, ‘मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ’” (मत्ती 7:22-23)। परमेश्वर अपने प्रयास खपाने वालों और मजदूरी करने वालों को कुकर्मी क्यों कहता है? एक बात पर हम निश्चित हो सकते हैं, और वह यह कि ये लोग चाहे किन भी कर्तव्यों को निभाएँ या कोई भी काम करें, इन लोगों की अभिप्रेरणाएँ, उमंग, इरादे और विचार पूरी तरह से उनकी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं से पैदा होते हैं, और ये पूरी तरह से अपने निजी हितों और संभावनाओं की रक्षा के लिए होते हैं, और अपने खुद के गर्व, दंभ और रुतबे की संतुष्टि के लिए होते हैं। यह सब इसी सोच और हिसाब-किताब के आसपास केंद्रित होता है, उनके दिलों में कोई सत्य नहीं होता, और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला और उसके प्रति समर्पण करने वाला दिल नहीं होता—यही समस्या की जड़ है। तुम लोगों के लिए आज किस चीज का अनुसरण करना बहुत जरूरी है? सभी मामलों में, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर के इरादों और उसकी मांग के अनुसार अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे तो तुम परमेश्वर की स्वीकृति पाओगे। तो परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने में खासतौर से क्या शामिल है? तुम जो कुछ भी करो, उसमें परमेश्वर से प्रार्थना करना सीखो, तुम्हें चिंतन करना चाहिए कि तुम्हारी मंशाएँ क्या हैं, तुम्हारे विचार क्या हैं, कि क्या ये मंशाएँ और विचार सत्य के अनुरूप हैं; अगर नहीं हैं तो उन्हें एक तरफ कर देना चाहिए, जिसके बाद तुम्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार चलना चाहिए, और परमेश्वर की जांच-पड़ताल को स्वीकार करना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि तुम सत्य को अभ्यास में लाओ। अगर तुम्हारे अपने इरादे और लक्ष्य हैं, और तुम्हें अच्छी तरह पता है कि वे सत्य का उल्लंघन करते हैं और परमेश्वर के इरादों के उलट हैं, फिर भी तुम प्रार्थना नहीं करते और समाधान के लिए सत्य नहीं खोजते, तो यह बहुत खतरनाक है, और तुम्हारे लिए बुराई करना और परमेश्वर का विरोध करने वाले काम करना आसान हो जाएगा। अगर तुम एक-दो बार कोई बुरा काम करके प्रायश्चित कर लेते हो, तो तुम्हारे उद्धार की अब भी उम्मीद है। अगर तुम बुराई करते रहते हो, तो तुम हर तरह की बुराई के काम करने वाले व्यक्ति हो। अगर तुम इस बिंदु पर भी प्रायश्चित नहीं कर सकते, तो तुम संकट में हो : परमेश्वर तुम्हें दरकिनार कर देगा या त्याग देगा, जिसका मतलब है कि तुम्हें निकाले जाने का खतरा है; जो लोग तमाम तरह के बुरे कर्म करते हैं, उन्हें निश्चित ही दंडित कर निकाल दिया जाएगा।

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