कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 38)

क्या चल रहा होता है, जब कुछ लोगों में अपने कर्तव्य निभाने के लिए पेशेवर ज्ञान की बेहद कमी होती है, और उनके लिए कुछ भी सीखना बहुत मुश्किल होता है? ऐसा इसलिए क्योंकि उनमें काबिलियत कम होती है। सत्य बेहद कम काबिलियत वाले लोगों की पहुँच से परे होता है और वे लोग आसानी से नहीं सीखते। उनमें से ज़्यादातर में घातक कमियाँ होती हैं; न केवल उनमें अंतरात्मा या विवेक नहीं होता बल्कि उनके दिलों में परमेश्वर के लिए भी जगह नहीं होती। उनकी आँखें बेजान और धुंधली होती हैं और वे जानवरों की तरह भावशून्य होते हैं। वे केवल खाना, पीना और मौज-मस्ती करना जानते हैं, और वे अध्ययन नहीं करते या उनमें कोई कौशल नहीं होता। वे चीजों को केवल सतही तौर पर सीखते हैं, और सोचते हैं कि उन्हें समझ आ गया है, जबकि उन्होंने केवल ऊपरी स्तर पर ही कुछ जाना होता है। जब दूसरे लोग कुछ ज्यादा समझाने की कोशिश करते हैं, तो वे यह मानकर सुनने से मना कर देते हैं कि इसकी जरूरत नहीं है। दूसरे लोग जो कुछ भी कहते हैं, वे उनकी कोई बात सुनते या स्वीकारते नहीं हैं, और नतीजा यह होता है कि वे कुछ भी हासिल नहीं कर पाते और मूल रूप से बेकार होते हैं। खराब काबिलियत होना घातक होता है। यदि किसी का स्वभाव भी खराब है, उसमें नैतिकता की कमी है, सलाह नहीं सुनता, सकारात्मक चीजें स्वीकार नहीं कर पाता, और नई चीजें सीखने और अपनाने की इच्छा नहीं रखता है, तो ऐसा व्यक्ति बेकार ही होता है! जो लोग अपने कर्तव्य निभाते हैं, उनमें अंतरात्मा और विवेक होगा, उन्हें अपनी सामर्थ्य और अपनी कमियाँ पता होंगी, और वो समझ पाएँगे कि उनमें क्या नहीं है और उन्हें क्या सुधारना चाहिए। उन्हें हमेशा यही लगेगा कि उनमें बहुत कमी है, और अगर वे अध्ययन नहीं करते और नई चीजें नहीं स्वीकारते, तो उन्हें निकाला जा सकता है। यदि उनके दिल में आने वाले संकट की समझ है, तो इससे उन्हें प्रेरणा मिलती है और चीजें सीखने की इच्छा होती है। एक ओर, व्यक्ति को खुद को सत्य से सुसज्जित करना चाहिए, और दूसरी ओर, उसे अपने कर्तव्य निभाने से जुड़ा पेशेवर ज्ञान हासिल करना चाहिए। इस तरह अभ्यास करके वे प्रगति कर सकते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करने से उन्हें अच्छे नतीजे मिलेंगे। केवल अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और मानव के समान जीने से ही जीवन मूल्यवान हो सकता है, इसलिए अपने कर्तव्यों का पालन करना सबसे सार्थक चीज है। कुछ लोगों का स्वभाव खराब होता है और वे न केवल अज्ञानी होते हैं बल्कि घमंडी भी होते हैं। वे हमेशा सोचते हैं कि सभी चीजों के संबंध में सत्य खोजने और हमेशा दूसरों की सुनने से दूसरे लोग उन्हें नीचा समझेंगे, और वे दूसरों की नजर में गिर जाएंगे, और इस तरह के आचरण से गरिमा कम होती है। वास्तव में, इसका उल्टा होता है। अहंकारी और आत्म-तुष्ट होना, कुछ भी न सीखना, हर चीज में पीछे रहना और पुराने ढंग का होना, और ज्ञान, अंतर्दृष्टि और विचारों की कमी होना असल में शर्मनाक है, और यह तब होता है जब कोई इंसान ईमानदारी और गरिमा खो देता है। कुछ लोग कुछ भी ठीक से नहीं कर पाते, वे जो कुछ सीखते हैं उसकी आधी-अधूरी समझ रखते हैं, केवल कुछ धर्म-सिद्धांत समझकर ही संतुष्ट हो जाते हैं और सोचते हैं कि वे सक्षम हैं। मगर वे अभी भी कुछ हासिल नहीं कर पाते, और उनको कोई ठोस परिणाम नहीं मिलते। यदि तुम उन्हें बताते हो कि उन्हें कोई समझ नहीं है और उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया है, तो वे इससे आश्वस्त नहीं होते और लगातार अपनी बात पर बहस करते रहते हैं। लेकिन जब वे कोई काम करते हैं, तो वे उसे खराब ढंग से करते हैं, और वे आधे-अधूरे होते हैं। अगर कोई किसी काम को ठीक से नहीं सँभाल सकता तो क्या वह बेकार नहीं है? क्या वह निकम्मा नहीं है? बहुत ही कम काबिलियत वाले लोग सबसे आसान काम भी नहीं सँभाल पाते। वे निकम्मे होते हैं और उनके जीवन का कोई मूल्य नहीं होता। कुछ कहते हैं, “मैं छोटे कस्बों में पला-बढ़ा हूँ, मुझे शिक्षा या ज्ञान नहीं मिला है और मेरी काबिलियत कम है, तुम लोगों के उलट जो शहर में रहते हैं, शिक्षित और जानकार हैं, इसलिए तुम हर चीज में उत्कृष्टता प्राप्त कर सकते हो।” क्या यह कथन सही है? (नहीं।) इसमें गलत क्या है? (कोई व्यक्ति कुछ हासिल कर पाएगा या नहीं, इसका उसके परिवेश से कोई लेना-देना नहीं होता; यह मुख्य रूप से इस पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति सीखने और खुद को बेहतर बनाने की कोशिश करता भी है या नहीं।) परमेश्वर लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, यह इस बात से तय नहीं होता कि वे कितने पढ़े-लिखे हैं या वे किस तरह के परिवेश में पैदा हुए या कितने प्रतिभाशाली हैं। इसके बजाय, वह सत्य के प्रति लोगों के नजरिए के आधार पर उनके साथ व्यवहार करता है। यह रवैया किस बात से जुड़ा है? यह उनकी मानवता से जुड़ा है और उनके स्वभाव से भी। यदि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो तो तुमको सत्य को सही तरीके से सँभालने लायक होना चाहिए। यदि तुम्हारा रवैया विनम्रता और सत्य को स्वीकार करने का है, तो भले ही तुम्हारी काबिलियत कुछ कम हो, परमेश्वर फिर भी तुम्हें प्रबुद्ध करेगा और तुमको कुछ हासिल करने देगा। अगर तुम्हारी काबिलियत अच्छी है, लेकिन हमेशा अहंकारी और आत्मतुष्ट बने रहते हो, लगातार सोचा करते हो कि तुम जो कुछ भी कहते हो वह सही है और दूसरे जो कुछ भी कहते हैं वह गलत है, दूसरे जो भी सुझाव दें उसे अस्वीकार कर देते हो, यहाँ तक कि सत्य को भी नकार देते हो, चाहे उसके बारे में जैसी भी संगति की जाए और हमेशा उसका विरोध करते हो, तो क्या तुम जैसा व्यक्ति परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकता है? क्या पवित्र आत्मा तुम जैसे व्यक्ति पर कार्य करेगा? वह नहीं करेगा। परमेश्वर कहेगा कि तुम्हारा स्वभाव बुरा है और तुम उसकी प्रबुद्धता प्राप्त करने के योग्य नहीं हो, और अगर तुम पश्चात्ताप नहीं करते, तो वह उसे भी वापस ले लेगा जो कभी तुम्हारे पास था। यही बेनकाब होना है। ऐसे लोग दयनीय जीवन जीते हैं। साफ तौर पर वे शून्य होते हैं, हर काम में अनाड़ी होते हैं, फिर भी उन्हें लगता है कि वे बहुत कुशल हैं, और हर मामले में दूसरों से बेहतर हैं। वे कभी भी दूसरों के सामने अपने दोषों या अपनी कमियों की चर्चा नहीं करते, न ही अपनी कमजोरियों और नकारात्मकता की। वे हमेशा अपनी योग्यता का दिखावा करते हैं और दूसरों पर झूठी छाप छोड़ते हैं, जिससे दूसरों को लगता है कि वे हर चीज में निपुण हैं, उनमें कोई कमजोरी नहीं है, उन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं है, उन्हें दूसरों की राय सुनने की कोई आवश्यकता नहीं है, अपनी कमजोरियों को दूर करने के लिए दूसरों की क्षमता से सीखने की आवश्यकता नहीं है, और वे हमेशा हर किसी से बेहतर ही रहेंगे। यह किस तरह का स्वभाव है? (अहंकारी स्वभाव।) इतना अहंकार। ऐसे लोग दयनीय जीवन जीते हैं! क्या वे सचमुच सक्षम हैं? क्या वे सचमुच चीजें हासिल कर सकते हैं? अतीत में उन्होंने कई चीजों में गड़बड़ की है, और इसके बावजूद ऐसे लोग अभी भी सोचते हैं कि वे कुछ भी कर सकते हैं। क्या यह पूरी तरह अनुचित नहीं है? जब लोगों में इस हद तक विवेक की कमी होती है, तो वे भ्रमित हो जाते हैं। ऐसे लोग नई चीजें नहीं सीखते या नई चीजें स्वीकार नहीं करते। अंदर से वे रूखे, संकीर्ण सोच वाले और दरिद्र होते हैं, और चाहे जैसे भी हालात हों, वे सिद्धांतों को जानने और समझने या परमेश्वर के इरादे समझने में नाकाम रहते हैं, और केवल विनियमों पर टिके रहना, शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को बोलना और दूसरों के सामने दिखावा करना जानते हैं। नतीजा यह होता है कि उन्हें किसी सत्य की कोई समझ नहीं होती और उनमें सत्य-वास्तविकता का थोड़ा भी अंश नहीं होता, फिर भी वे इतने अहंकारी बने रहते हैं। वे बस भ्रमित लोग होते हैं, जो तर्क से पूरी तरह अप्रभावित होते हैं, और जिन्हें केवल निकाला जा सकता है।

जब तुम लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करते हो, तो क्या तुम अलग-अलग राय स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हो? क्या तुम दूसरों को बोलने देते हो? (हाँ, पहले मैं अक्सर भाई-बहनों के सुझाव नहीं सुनता था और इसी बात पर जोर देता था कि काम मेरे ही तरीके से किए जाएँ। लेकिन फिर जब तथ्यों से साबित हुआ कि मैं गलत हूँ, तब मुझे एहसास हुआ कि उनके अधिकाँश सुझाव सही थे, कि यह वह प्रस्ताव था जिस पर सब लोगों ने चर्चा की थी और जो दरअसल उपयुक्त था, और यह कि अपने विचारों पर भरोसा करने के कारण मैं चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रहा था और यह मुझमें कमी थी। इस अनुभव के बाद, मुझे एहसास हुआ कि सामंजस्यपूर्ण सहयोग कितना अहम होता है।) तो इससे तुम्हें क्या सीख मिलती है? इसका अनुभव करने पर, क्या तुम्हें कोई लाभ हुआ और क्या सत्य समझ में आया? क्या तुम लोगों को लगता है कि कोई भी पूर्ण है? लोग चाहे जितने शक्तिशाली हों, या चाहे जितने सक्षम और प्रतिभाशाली हों, फिर भी वे पूर्ण नहीं हैं। लोगों को यह मानना चाहिए, यह तथ्य है, और यह वह दृष्टिकोण है जो उन्हें अपनी योग्यताओं और क्षमताओं या दोषों के प्रति रखना चाहिए; यह वह तार्किकता है जो लोगों के पास होनी चाहिए। ऐसी तार्किकता के साथ तुम अपनी शक्तियों और कमज़ोरियों के साथ-साथ दूसरों की शक्तियों और कमज़ोरियों से भी उचित ढंग से निपट सकते हो, और इसके बल पर तुम उनके साथ सौहार्दपूर्वक कार्य कर पाओगे। यदि तुम सत्य के इस पहलू को समझ गए हो और सत्य वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश कर सकते हो, तो तुम अपने भाइयों और बहनों के साथ सौहार्दपूर्वक रह सकते हो, उनकी खूबियों का लाभ उठाकर अपनी किसी भी कमज़ोरी की भरपाई कर सकते हो। इस प्रकार, तुम चाहे जिस कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हो या चाहे जो कार्य कर रहे हो, तुम सदैव उसमें श्रेष्ठतर होते जाओगे और परमेश्वर का आशीष प्राप्त करोगे। यदि तुम हमेशा सोचते हो कि तुम बहुत कुशल हो और दूसरे तुम्हारी तुलना में बदतर हैं, यदि तुम हमेशा अपनी राय को अंतिम राय मनवाना चाहते हो, तो इससे परेशानी होगी। यह स्वभावगत समस्या है। क्या ऐसे लोग अहंकारी और आत्मतुष्ट नहीं हैं? जरा सोचो कि कोई तुमको अच्छी सलाह देता है, और तुम सोचते हो कि अगर तुमने इसे स्वीकार लिया तो वे तुमको नीची नजर से देखने लगेंगे और सोचेंगे कि तुम उन जितने अच्छे नहीं हो। तो तुम बस उनकी बात न सुनने का फैसला ले लेते हो। इसके बजाय, तुम उन पर बड़े-बड़े और शानदार शब्दों से छा जाने की कोशिश करते हो ताकि वे तुम्हारा आदर करें। यदि तुम हमेशा लोगों से इसी तरह बातचीत करते हो, तो क्या तुम उनसे सामंजस्य के साथ सहयोग कर पाओगे? तुम न केवल सामंजस्य स्थापित करने में नाकाम रहोगे, बल्कि इसके परिणाम भी नकारात्मक होंगे। समय के साथ, हर व्यक्ति तुमको बेहद कपटी और धूर्त समझने लगेगा, ऐसा व्यक्ति जिसकी वे थाह नहीं ले सकते। तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते और तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, तो अन्य लोग तुमसे विमुख हो जाते हैं। यदि हर कोई तुमसे विमुख हो जाता है, तो क्या इसका मतलब यह नहीं कि तुमको ठुकरा दिया गया है? मुझे बताओ, परमेश्वर उस व्यक्ति से कैसा व्यवहार करेगा जिसे हर कोई ठुकरा देता है? ऐसे व्यक्ति से परमेश्वर भी घृणा करेगा। परमेश्वर ऐसे लोगों से घृणा क्यों करता है? हालाँकि, अपना कर्तव्य पूरा करने के उनके इरादे सच्चे होते हैं, पर उनके तरीकों से परमेश्वर को घृणा होती है। वे जो भी स्वभाव प्रकट करते हैं और उनकी हर सोच, विचार और इरादे परमेश्वर की नजर में दुष्ट होते हैं, और ये ऐसी चीजें हैं जिनसे परमेश्वर को घृणा है और जो उसे अरुचिकर लगती हैं। जब लोग दूसरों की नजरों में खुद को ऊँचा दिखाने के मकसद से हमेशा अपनी कथनी और करनी में घिनौनी चालें अपनाते हैं, तो इस व्यवहार से परमेश्वर को घृणा होती है।

जब लोग परमेश्वर के सामने अपना कर्तव्य या कोई कार्य करते हैं, तो उनका दिल शुद्ध होना चाहिए : ताजे पानी के कटोरे की तरह—एकदम साफ, अशुद्धियों से अछूता। तो किस तरह का रवैया सही है? चाहे तुम कुछ भी कर रहे हो, चाहे तुम्हारे दिल में जो हो या जो भी तुम्हारे विचार हों, तुम उस पर दूसरों के साथ संगति कर पाते हो। अगर कोई कहता है कि चीजें करने का तुम्हारा तरीका नहीं चलेगा और वह कोई और विचार रखता है, और अगर तुमको लगता है कि यह बहुत बढ़िया विचार है, तो तुम अपना तरीका छोड़ देते हो, और उसकी सोच के अनुसार काम करने लगते हो। ऐसा करने से हर कोई देखता है कि तुम दूसरों के सुझाव स्वीकार कर सकते हो, सही रास्ता चुन सकते हो, सिद्धांतों के अनुसार और पारदर्शिता और स्पष्टता के साथ कार्य कर सकते हो। तुम्हारे मन में कोई दुर्भावना नहीं रहती और तुम ईमानदारी के रवैये पर भरोसा करके सच्चाई से काम करते और बोलते हो। तुम बिना लाग-लपेट के बोलते हो। यह है, तो है; नहीं है, तो नहीं है। कोई चालाकी नहीं, कोई राज़ नहीं, बस एक बहुत पारदर्शी व्यक्ति। क्या यह एक प्रकार का रवैया नहीं है? यह लोगों, घटनाओं और चीज़ों के प्रति एक रवैया है, और यह एक व्यक्ति के स्वभाव का द्योतक है। दूसरी ओर, कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं जो दूसरों के साथ कभी न खुलें और वह न जताएँ जो वे सोचते हैं। और जो कुछ भी वे करते हैं, उसमें कभी दूसरों के साथ परामर्श नहीं करते, इसके बजाय वे अपने दिल की बात दूसरों को पता नहीं चलने देते, हर मोड़ पर लगातार दूसरों के प्रति सतर्क रहते प्रतीत होते हैं। वे खुद को जितना हो सकता है, उतना ज्यादा ढककर रखते हैं। क्या यह कपटी इंसान नहीं है? उदाहरण के लिए, उनके पास एक विचार है जो उन्हें शानदार लगता है, और वे सोचते हैं, “मैं अभी इसे अपने तक ही रखूँगा। अगर मैं इसे साझा करूँगा, तो तुम लोग इसका इस्तेमाल कर सकते हो और मेरी सफलता हथिया सकते हो। ऐसा कतई नहीं होगा। मैं इसे गुप्त रखूँगा।” या अगर कुछ ऐसा हुआ, जिसे वे पूरी तरह से नहीं समझते, तो वे सोचेंगे : “मैं अभी नहीं बोलूँगा। अगर मैं बोलता हूँ और किसी ने कोई और ऊँची बात कह दी तो क्या होगा, क्या मैं मूर्ख जैसा नहीं दिखूँगा? हर कोई मेरी असलियत जान लेगा, इसमें मेरी कमज़ोरी देखेगा। मुझे कुछ नहीं कहना चाहिए।” इसलिए चाहे जो भी सोच-विचार हों, चाहे जो भी अंतर्निहित उद्देश्य हो, वे डरते हैं कि हर कोई उनकी वास्तविकता जान जाएगा। वे अपने कर्तव्य और लोगों, घटनाओं और चीजों को हमेशा इस तरह के परिप्रेक्ष्य और रवैये के साथ देखते हैं। यह किस तरह का स्वभाव है? कुटिल, कपटी और दुष्ट स्वभाव। सतह पर ऐसा लगता है कि उन्होंने दूसरों से वह सब कह दिया है, जो उन्हें लगता है कि वे कह सकते हैं, लेकिन सतह के नीचे वे कुछ चीजें रोके रखते हैं। वे क्या रोककर रखते हैं? वे कभी ऐसी बातें नहीं कहते जिनमें उनकी प्रतिष्ठा और हितों की चर्चा हो—उन्हें लगता है कि ये बातें निजी हैं और वे कभी भी उनके बारे में किसी से बात नहीं करते, यहाँ तक कि अपने माता-पिता से भी नहीं। वे ये बातें कभी नहीं कहते। यही मुसीबत है! तुम सोचते हो कि अगर तुम ये बातें नहीं कहोगे तो परमेश्वर को इनका पता नहीं चलेगा? लोग कहते हैं कि परमेश्वर जानता है, पर क्या वे अपने हृदय में आश्वस्त हो सकते हैं कि परमेश्वर को पता होता है? लोगों को कभी यह एहसास नहीं होता कि “परमेश्वर को सब कुछ पता है; कि जो कुछ मैं अपने दिल में सोचता हूँ, भले ही मैंने उसे प्रकट न किया हो, परमेश्वर गुप्त रूप से पड़ताल करता है, परमेश्वर बिल्कुल जानता है। मैं परमेश्वर से कुछ नहीं छिपा सकता, इसलिए मुझे इसे साफ तौर पर बोलना ही होगा, अपने भाई-बहनों के साथ खुलकर संगति करनी होगी। चाहे मेरी सोच और विचार अच्छे हों या बुरे, मुझे उन्हें सत्यता से बताना होगा। मैं कुटिल, धोखेबाज, स्वार्थी या नीच नहीं हो सकता—मुझे एक ईमानदार व्यक्ति होना पड़ेगा।” अगर लोग इस तरह सोच पाएं, तो यही सही रवैया है। सत्य की खोज करने के बजाय, अधिकतर लोगों के अपने तुच्छ एजेंडे होते हैं। अपने हित, इज्जत और दूसरे लोगों के मन में जो स्थान या प्रतिष्ठा वे रखते हैं, उनके लिए बहुत महत्व रखते हैं। वे केवल इन्हीं चीजों को सँजोते हैं। वे इन चीजों पर मजबूत पकड़ बनाए रखते हैं और इन्हें ही बस अपना जीवन मानते हैं। और परमेश्वर उन्हें कैसे देखता या उनसे कैसे पेश आता है, इसका महत्व उनके लिए गौण होता है; फिलहाल वे उसे नजरअंदाज कर देते हैं; फिलहाल वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि क्या वे समूह के मुखिया हैं, क्या दूसरे लोग उनकी प्रशंसा करते हैं और क्या उनकी बात में वजन है। उनकी पहली चिंता उस पद पर कब्जा जमाना है। जब वे किसी समूह में होते हैं, तो प्रायः सभी लोग इसी प्रकार की प्रतिष्ठा, इसी प्रकार के अवसर तलाशते हैं। अगर वे अत्यधिक प्रतिभाशाली होते हैं, तब तो शीर्षस्थ होना चाहते ही हैं, लेकिन अगर वे औसत क्षमता के भी होते हैं, तो भी वे समूह में उच्च पद पर कब्जा रखना चाहते हैं; और अगर वे औसत क्षमता और योग्यताओं के होने के कारण समूह में निम्न पद धारण करते हैं, तो भी वे यह चाहते हैं कि दूसरे उनका आदर करें, वे नहीं चाहते कि दूसरे उन्हें नीची निगाह से देखें। इन लोगों की इज्जत और गरिमा ही होती है, जहाँ वे सीमा-रेखा खींचते हैं : उन्हें इन चीजों को कसकर पकड़ना होता है। भले ही उनमें कोई सत्यनिष्ठा न हो, और न ही परमेश्वर की स्वीकृति या अनुमोदन हो, मगर वे उस आदर, हैसियत और सम्मान को बिल्कुल नहीं खो सकते जिसके लिए उन्होंने दूसरों के बीच कोशिश की है—जो शैतान का स्वभाव है। मगर लोग इसके प्रति जागरूक नहीं होते। उनका विश्वास है कि उन्हें इस इज्जत की रद्दी से अंत तक चिपके रहना चाहिए। वे नहीं जानते कि ये बेकार और सतही चीजें पूरी तरह से त्यागकर और एक तरफ रखकर ही वे असली इंसान बन पाएंगे। यदि कोई व्यक्ति जीवन समझकर इन त्यागे जाने योग्य चीजों को बचाता है तो उसका जीवन बर्बाद हो जाता है। वे नहीं जानते कि दाँव पर क्या लगा है। इसीलिए, जब वे कार्य करते हैं तो हमेशा कुछ छिपा लेते हैं, वे हमेशा अपनी इज्जत और हैसियत बचाने की कोशिश करते हैं, वे इन्हें पहले रखते हैं, वे केवल अपने झूठे बचाव के लिए, अपने उद्देश्यों के लिए बोलते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, अपने लिए करते हैं। वे हर चमकने वाली चीज के पीछे भागते हैं, जिससे सभी को पता चल जाता है कि वे उसका हिस्सा थे। इसका वास्तव में उनसे कोई लेना-देना नहीं होता, लेकिन वे कभी पृष्ठभूमि में नहीं रहना चाहते, वे हमेशा अन्य लोगों द्वारा नीची निगाह से देखे जाने से डरते हैं, वे हमेशा दूसरे लोगों द्वारा यह कहे जाने से डरते हैं कि वे कुछ नहीं हैं, कि वे कुछ भी करने में असमर्थ हैं, कि उनके पास कोई कौशल नहीं है। क्या यह सब उनके शैतानी स्वभावों द्वारा निर्देशित नहीं है? जब तुम इज्जत और हैसियत जैसी चीजें छोड़ने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम अपने भीतर अधिक निश्चिंत और अधिक मुक्त हो पाते हो; तुम ईमानदार होने की राह पर कदम रख देते हो। लेकिन कई लोगों के लिए इसे हासिल करना आसान नहीं होता। मिसाल के लिए, जब कैमरा दिखता है, तो लोग आगे आने के लिए धक्कामुक्की करने लगते हैं; वे कैमरे में दिखना पसंद करते हैं, जितनी ज्यादा कवरेज, उतनी बेहतर; वे पर्याप्त कवरेज न मिलने से डरते हैं और उसे प्राप्त करने का अवसर पाने के लिए हर कीमत चुकाते हैं। क्या यह सब उनके शैतानी स्वभावों द्वारा निर्देशित नहीं है? ये उनके शैतानी स्वभाव हैं। तो तुम्हें कवरेज मिल जाती है—फिर क्या? लोग तुम्हारे बारे में अच्छी राय रखते हैं—तो क्या? वे तुम्हारी आराधना करते हैं—तो क्या? क्या इनमें से कोई भी चीज साबित करती है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है? इसमें से किसी भी चीज का कोई मूल्य नहीं है। जब तुम इन चीजों पर काबू पा लेते हो—जब तुम इनके प्रति उदासीन हो जाते हो और इन्हें महत्वपूर्ण नहीं समझते, जब इज्जत, अभिमान, हैसियत, और लोगों की सराहना तुम्हारे विचारों और व्यवहार को अब नियंत्रित नहीं कर पाते, तुम्हारे कर्तव्य-पालन के तरीके को तो बिल्कुल भी नियंत्रित नहीं करते—तब तुम्हारा कर्तव्य-पालन और भी प्रभावी हो जाता है, और भी शुद्ध हो जाता है।

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