कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 37)
वे कौन से प्राथमिक सिद्धांत हैं जिन पर किसी व्यक्ति का कर्तव्य पालन आधारित होता है? व्यक्ति को परमेश्वर के घर के मानकों, सिद्धांतों और मांगों के अनुसार कार्य करना चाहिए, सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए और परमेश्वर के वचनों, सत्य का उपयोग करके और परमेश्वर के घर के कार्य और उसके हितों की रक्षा को सिद्धांत मानकर पूरा करते हुए अपने पूरे दिल और पूरी ताकत से अपने कर्तव्यों का अच्छे से पालन करना चाहिए। तो फिर आम तौर पर कोई अपने लिए कैसे कार्य करता है? वे जो चाहे करते हैं, अपने कार्य-कलापों में अपने हितों को प्राथमिकता देते हैं और उन्हें बाकी सब से ऊपर रखते हैं। वे वही करते हैं, जिसमें उनका अपना हित हो, पूरी तरह से अपनी स्वार्थी दैहिक इच्छाओं को पूरा करने के लिए कार्य करते हैं और न्याय, विवेक और तर्क पर जरा भी विचार नहीं करते; ऐसी बातें उनके दिल में नहीं आतीं। वे केवल शैतानी स्वभाव का पालन करते हैं और मनुष्य की प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हैं, इधर-उधर की योजनाएँ बनाते हैं और शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं। यह जीने का कैसा तरीका है? यह शैतान के जीने का तरीका है। परमेश्वर का अनुसरण करते समय और अपने कर्तव्यों का पालन करते समय व्यक्ति को सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए, और कम से कम उसके पास विवेक और तर्क होना चाहिए—यह न्यूनतम अपेक्षा है। कुछ लोग कहते हैं : “आज मेरा मूड खराब है, इसलिए मैं इस मामले में सतही रहना चाहता हूँ।” क्या यह काम करने का जमीर वाला तरीका है? (ऐसा नहीं है।) जब तुम लापरवाही से काम करना चाहते हो, तो क्या तुम इसके प्रति अपने जमीर से सचेत होते हो? (हाँ, हम होते हैं।) क्या कभी ऐसा भी होता है जब तुम इसके प्रति सचेत नहीं होते? (हाँ, होता है।) तो क्या तुम अपनी जाँच करने और इस तथ्य का पता लगाने में सक्षम होते हो? (कुछ हद तक होते हैं।) यह पता चलने के बाद कि तुम बेपरवाह थे, अगली बार जब तुम्हारे मन में अनमने होने के समान विचार आते हैं, तो क्या तुम उनके खिलाफ विद्रोह करने और उनका समाधान करने में सक्षम होते हो? (जब मुझे ऐसे विचारों के बारे में पता चलता है, तो मैं कुछ हद तक उनके खिलाफ विद्रोह कर सकता हूँ।) अपने विचारों और इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करते समय हर बार मन में एक संघर्ष होगा, और यदि इस संघर्ष के अंत में तुम्हारी स्वार्थी इच्छाएँ प्रबल होती हैं, तो तुमने जानबूझकर परमेश्वर का विरोध किया है और खतरे में हो। मान लो कि तुम 10 वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हो, और पहले तीन वर्षों तक तुम उलझन में रहते हो और कुछ हद तक उत्साही रहते हो, लेकिन तीन साल बाद तुम्हें एहसास होता है कि परमेश्वर में विश्वास करते समय व्यक्ति को सत्य का अभ्यास करना चाहिए, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए, और अपनी दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए। फिर धीरे-धीरे तुम खुद अपनी भ्रष्टता और दुर्भावनाओं तथा अपनी दुष्ट और अहंकारी प्रकृति को पहचानना शुरू कर देते हो, और तब तुम वास्तव में खुद को जानने लगते हो—तुम अपने भ्रष्ट सार को जान जाते हो। तुम्हें महसूस होता है कि सत्य को स्वीकार करना अत्यंत आवश्यक है और यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों के समाधान के लिए महत्वपूर्ण है, और केवल इसी समय तुम्हें महसूस होता है कि सत्य-वास्तविकता का न होना काफी दयनीय है। हालाँकि जब भी किसी की भ्रष्टता उजागर होती है तो उसके दिल में एक संघर्ष छिड़ जाता है, लेकिन इनमें से किसी भी संघर्ष में वे अपनी स्वार्थी इच्छाओं को हराने में असमर्थ होते हैं और अभी भी अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हैं। वास्तव में वे खुद भी अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके दिल में शैतानी स्वभाव ही अधिकार जमाए है और इसलिए सत्य को अभ्यास में लाना कठिन है। इससे साबित होता है कि उनके पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं है और यह कहना बहुत मुश्किल है कि अंत में उनका उद्धार होगा या नहीं। यदि तुम में वास्तव में इच्छाशक्ति है, तो तुम्हें उन सत्यों को अभ्यास में लाना चाहिए जिन्हें तुम समझते हो, और जब तुम इन सत्यों का अभ्यास करते हो तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन से भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें रोकते हैं, तुम्हें हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उस पर भरोसा करना चाहिए, भ्रष्ट स्वभावों के समाधान के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए, भ्रष्ट स्वभावों के विरुद्ध लड़ने का साहस और अपनी दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करने का साहस रखना चाहिए। यदि तुम्हारी आस्था ऐसी है, तो तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो। हालाँकि कभी-कभार ऐसे समय भी आएँगे जब तुम असफल हो जाओगे, फिर भी तुम हतोत्साहित नहीं होगे और फिर भी शैतान पर विजय पाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना कर सकोगे और उस पर भरोसा रख सकोगे। कई वर्षों तक इस तरह से लड़ते हुए, तुम्हारे अपनी दैहिक इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने और सत्य का अभ्यास करने की घटनाएँ बढ़ जाएँगी और तुम्हारे असफल होने की घटनाएँ धीरे-धीरे कम हो जाएँगी और यदि तुम कभी-कभार असफल होते भी हो तो तुम निराश नहीं होगे और तब तक प्रार्थना करना और परमेश्वर का आदर करना जारी रखोगे जब तक सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम नहीं हो जाते। इसका मतलब यह होगा कि तुम्हारे लिए आशा बाकी है, कि बादल छँट गए हैं और तुम नीला आकाश देख सकते हो। जब तक ऐसे समय होंगे जब तुम सत्य का अभ्यास करते हुए सफल होते हो तो इससे यह साबित होता है कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जिसके पास इच्छाशक्ति है और जिसके पास उद्धार प्राप्त करने में सक्षम होने की आशा है। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे अंततः इसका अभ्यास करते समय कई असफलताओं से गुजरने के बाद ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हैं। चाहे कोई कितनी भी बार असफल हो और चाहे वह कितना भी निराश क्यों न हो, जब तक वह परमेश्वर पर भरोसा कर सकता है और उसकी ओर देख सकता है, तब तक उसके पास हमेशा ऐसा समय आएगा जब वह सफल होगा। चाहे वे बार-बार असफल होते हों, जब तक वे हार नहीं मानते तब तक उनके लिए आशा बनी रहेगी। जब वह दिन आएगा जब उन्हें वास्तव में पता चलेगा कि वे सत्य का अभ्यास कर सकते हैं, सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं, प्रमुख मामलों में शैतान के साथ समझौता नहीं करते-विशेष रूप से अपने कर्तव्यों के पालन के मामले में-और अपनी गवाही पर दृढ़ता से बने रहते हुए भी अपने कर्तव्यों को नहीं छोड़ते, तब उनके बचाए जाने की पूरी आशा है।
हर बार जब तुम सत्य का अभ्यास करोगे, तो तुम एक अंदरूनी संघर्ष से गुजरोगे। क्या तुम लोगों में से किसी ने सत्य के अभ्यास में किसी संघर्ष का अनुभव नहीं किया है? बिल्कुल भी नहीं। जब कोई व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुका हो और मुश्किल से ही कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता हो, केवल तभी उसके लिए मूल रूप से बड़े संघर्ष नहीं होंगे। हालाँकि विशेष परिस्थितियों और कुछ संदर्भों में वह अभी भी थोड़ा संघर्ष करेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि जितना अधिक कोई व्यक्ति सत्य को समझता है, उतना ही कम वह संघर्ष करता है, और कोई व्यक्ति सत्य को जितना कम समझता है, उतने ही अधिक उसे संघर्ष करने पड़ते हैं। विशेष रूप से नए विश्वासियों के साथ, हर बार जब वे सत्य का अभ्यास करते हैं, तो उनके दिलों में होने वाले संघर्ष अत्यंत भयंकर होंगे। वे भयंकर क्यों होते हैं? क्योंकि लोगों को भ्रष्ट स्वभाव पीछे धकेलते रहते हैं, इसके अलावा न केवल उनकी प्राथमिकताएँ और दैहिक पसंद होती हैं, बल्कि उन्हें वास्तविक कठिनाइयाँ भी होती हैं। सत्य के एक पहलू को समझने के लिए तुम्हें इन चार पहलुओं के विरुद्ध संघर्ष करना होगा जो तुम्हें बाधित कर रहे हैं, जिसका अर्थ है कि सत्य को अभ्यास में लाने से पहले तुम्हें कम से कम इन तीन या चार अवरोधक बाधाओं से गुजरना होगा। क्या तुम लोगों को अपने भ्रष्ट स्वभावों के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करने का यह अनुभव है? जब तुम्हें सत्य का अभ्यास करना होता है और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी होती है, तो क्या तुम लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों की बाधा को दूर करने और सत्य के पक्ष में खड़े होने में सक्षम होते हो? उदाहरण के लिए, कलीसिया को शुद्ध करने का कार्य अंजाम देने के लिए तुम्हारा किसी के साथ जोड़ा बनाया जाता है, लेकिन वे हमेशा भाई-बहनों से यह संगति करते हैं कि परमेश्वर लोगों को यथासंभव अधिकतम सीमा तक बचाता है, और हमें लोगों के साथ प्रेम से पेश आना चाहिए और उन्हें पश्चात्ताप करने के अवसर प्रदान करने चाहिए। तुम्हें पता चलता है कि उनकी संगति में कुछ गड़बड़ है, और हालाँकि वे जो शब्द बोलते हैं वे बिल्कुल सही लगते हैं, लेकिन विस्तृत विश्लेषण करने पर तुम्हें पता चलता है कि वे इरादे और लक्ष्य पाल रहे हैं, किसी को नाराज नहीं करना चाहते, और कार्य व्यवस्थाओं को पूरा नहीं करना चाहते। जब वे इस तरह से संगति करते हैं, तो छोटे आध्यात्मिक कद वाले और विवेकहीन लोग उनसे बाधित हो जाएँगे, वे बेपरवाही से सिद्धांतहीन तरीके से प्रेम दिखाएँगे, दूसरों के प्रति विवेकशील होने की तरफ ध्यान नहीं देंगे, और मसीह-विरोधियों, कुकर्मियों और छद्म-विश्वासियों को उजागर नहीं करेंगे या उनकी सूचना नहीं देंगे। यह कलीसिया को शुद्ध करने के कार्य में बाधा है। यदि मसीह-विरोधियों, कुकर्मियों और छद्म-विश्वासियों को समय रहते निकाला नहीं जा सका, तो यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के उसके वचनों को सामान्य रूप से खाने-पीने और उनके कर्तव्यों के सामान्य निर्वहन को प्रभावित करेगा, और विशेष रूप से परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हुए कलीसिया के काम को अस्त-व्यस्त करेगा। ऐसे समय में तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? जब तुम्हें समस्या का पता चले, तो तुम्हें सामने आकर इस व्यक्ति को उजागर करना चाहिए; तुम्हें उन्हें रोकना चाहिए और कलीसिया के कार्य की रक्षा करनी चाहिए। तुम सोच सकते हो : “हम सहकर्मी हैं। अगर मैंने उन्हें सीधे उजागर किया और उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया, तो क्या हमारे बीच मनमुटाव नहीं होगा? नहीं, मैं बस यूँ ही नहीं बोल सकता, मुझे थोड़ा और व्यवहार-कुशल होना पड़ेगा।” इसलिए तुम उन्हें एक सरल सा अनुस्मारक देते हुए उन्हें कुछ उपदेश देते हो। तुम्हारी बात सुनने के बाद वे इसे स्वीकार नहीं करते, और तुम्हें गलत ठहराने के लिए कई कारण गिना देते हैं। यदि वे इसे स्वीकार नहीं करते तो परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचेगा। तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम परमेश्वर से प्रार्थना करोगे, कहोगे : “परमेश्वर, कृपया इसे व्यवस्थित करो और इसकी योजना बनाओ। उन्हें अनुशासित करो—मैं कुछ नहीं कर सकता।” तुम सोचते हो कि तुम उन्हें रोक नहीं सकते और इसलिए तुम उन्हें बिना रोक-टोक के जाने देते हो। क्या यह जिम्मेदाराना व्यवहार है? क्या तुम सत्य का अभ्यास करते हो? यदि तुम उन्हें रोक नहीं सकते, तो तुम अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इसकी सूचना क्यों नहीं देते? तुम इस मामले को किसी सभा में क्यों नहीं उठाते ताकि सभी इस पर संगति और चर्चा कर सकें? यदि तुम ऐसा नहीं करते, तो क्या तुम बाद में वास्तव में खुद को दोषी नहीं ठहराओगे? यदि तुम कहते हो, “मैं इसे प्रबंधित नहीं कर सकता, इसलिए मैं इसे अनदेखा कर दूँगा। मेरी अंतरात्मा साफ है,” तो फिर तुम्हारे पास किस प्रकार का दिल है? क्या यह दिल वास्तव में प्यार करने वाला है या दूसरों को नुकसान पहुँचाने वाला है? तुम्हारा दिल बहुत ही दुष्ट है, क्योंकि जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो तुम लोगों को नाराज करने से डरते हो और सिद्धांतों का पालन नहीं करते। दरअसल तुम अच्छी तरह जानते हो कि इस व्यक्ति का इस तरह से काम करने का अपना उद्देश्य है और तुम इस मामले में उसकी बात नहीं सुन सकते। हालाँकि तुम सिद्धांतों का पालन करने और उन्हें दूसरों को गुमराह करने से रोकने में असमर्थ हो, और यह अंततः परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाता है। क्या तुम इसके बाद खुद को दोषी ठहराओगे? (मै ऐसा करुँगी।) क्या खुद को दोषी ठहराने से तुम नुकसान को वापस ला पाओगे? उसकी भरपाई नहीं हो सकती। इसके बाद तुम फिर से विचार करते हो : “मैंने वैसे भी अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली हैं, और परमेश्वर यह जानता है। परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराई तक पड़ताल करता है।” ये किस तरह के शब्द हैं? ये छल-कपट वाले, शैतानी शब्द हैं जो मनुष्य और परमेश्वर दोनों को धोखा देते हैं। तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की हैं, और फिर भी उनसे बचने के लिए कारण और बहाने ढूँढ़ते हो। यह धोखेबाजी और अड़ियलपन है। क्या इस तरह के व्यक्ति में परमेश्वर के प्रति कोई ईमानदारी होती है? क्या उसमें न्याय की भावना होती है? (उसमें नहीं होती।) यह ऐसा व्यक्ति है जो जरा-भी सत्य स्वीकार नहीं करता, यह शैतान की किस्म का व्यक्ति है। जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है, तो तुम सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जीते हो और सत्य का अभ्यास नहीं करते। तुम हमेशा दूसरों को नाराज करने से डरते हो, लेकिन परमेश्वर को नाराज करने से नहीं डरते, यहाँ तक कि अपने पारस्परिक संबंधों की रक्षा के लिए परमेश्वर के घर के हित भी त्याग दोगे। इस तरह कार्य करने के क्या परिणाम होते हैं? तुम अपने पारस्परिक संबंध तो अच्छी तरह से सुरक्षित कर लोगे, लेकिन परमेश्वर को नाराज कर दोगे, और वह तुम्हें ठुकरा देगा, और तुमसे गुस्सा हो जाएगा। संतुलन के लिहाज से इनमें से कौन-सी चीज बेहतर है? अगर तुम नहीं बता सकते, तो तुम पूरी तरह से भ्रमित हो; यह साबित करता है कि तुम्हें सत्य की थोड़ी-सी भी समझ नहीं है। अगर तुम इसी तरह चलते रहे और कभी समस्या को लेकर जागरूक नहीं हुए, तो वास्तव में खतरा बहुत बड़ा है और अगर अंत में तुम सत्य प्राप्त करने में असमर्थ रहे, तो नुकसान तुम्हारा ही होगा। अगर तुम इस मामले में सत्य की खोज नहीं करते और असफल हो जाते हो, तो क्या तुम भविष्य में सत्य खोज पाओगे? अगर तुम अभी भी ऐसा नहीं कर सकते, तो यह अब नुकसान उठाने का मुद्दा नहीं रहेगा—अंततः तुम्हें हटा दिया जाएगा। अगर तुम्हारे पास एक “खुशामदी व्यक्ति” होने की प्रेरणाएं और दृष्टिकोण हैं, तब तुम सभी मामलों में सत्य का अभ्यास और सिद्धांतों का पालन नहीं कर पाओगे, तुम हमेशा असफल होकर नीचे गिरोगे। यदि तुम जागरूक नहीं होते और कभी सत्य नहीं खोजते, तो तुम छद्म-विश्वासी हो और कभी सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाओगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? इस तरह की चीजों से सामना होने पर, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसे पुकारना चाहिए, उद्धार के लिए विनती करनी चाहिए और माँगना चाहिए कि वह तुम्हें अधिक आस्था और शक्ति दे, और तुम्हें सिद्धांतों का पालन करने में समर्थ बनाए, वो करो जो तुम्हें करना चाहिए, चीजों को सिद्धांतों के अनुसार संभालो, उस स्थिति में मजबूती से खड़े रहो जहाँ तुम्हें होना चाहिए, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करो और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको। अगर तुम अपने स्वार्थों को, अपने अभिमान और एक “खुशामदी व्यक्ति” होने के दृष्टिकोण के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हो, और अगर तुम एक ईमानदार, अविभाजित हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिए, तो तुम शैतान को हरा चुके होगे, और सत्य के इस पहलू को प्राप्त कर चुके होगे। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीने, दूसरों के साथ अपने संबंध सुरक्षित रखने, कभी भी सत्य का अभ्यास न करने, और सिद्धांतों का पालन न करने की हिम्मत करने पर अड़े रहते हो, तो क्या तुम अन्य मामलों में सत्य का अभ्यास कर पाओगे? तुम्हारे पास अभी भी आस्था या शक्ति नहीं होगी। यदि तुम सत्य नहीं खोजते या स्वीकार नहीं करते, तो क्या परमेश्वर में ऐसी आस्था से तुम सत्य प्राप्त कर पाओगे? (नहीं।) और यदि तुम सत्य प्राप्त नहीं कर सकते, तो क्या तुम बचाए जा सकते हो? नहीं बचाए जा सकते। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हो, सत्य वास्तविकता से पूरी तरह वंचित रहते हो, तो तुम कभी भी नहीं बचाए जा सकते। यह बात तुम्हें स्पष्ट होनी चाहिए कि उद्धार के लिए सत्य प्राप्त करना एक आवश्यक शर्त है। तो फिर, तुम सत्य कैसे प्राप्त कर सकते हो? यदि तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो, सत्य के अनुसार जी सकते हो और सत्य तुम्हारे जीवन का आधार बन जाता है, तो तुम सत्य प्राप्त कर जीवन पा लोगे, तब तुम बचाए जाने वाले लोगों में से एक होगे।
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