कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 34)
कुछ लोग कर्तव्य निभाने के दौरान कष्ट सहने को तैयार नहीं रहते, कोई भी समस्या सामने आने पर हमेशा शिकायत करते हैं और कीमत चुकाने से इनकार कर देते हैं। यह कैसा रवैया है? यह अनमना रवैया है। अगर तुम अपना कर्तव्य अनमने होकर निभाओगे, इसे अनादर के भाव से देखोगे तो इसका क्या नतीजा मिलेगा? तुम अपना कार्य खराब ढंग से करोगे, भले ही तुम इस काबिल हो कि इसे अच्छे से कर सको—तुम्हारा प्रदर्शन मानक पर खरा नहीं उतरेगा और कर्तव्य के प्रति तुम्हारे रवैये से परमेश्वर बहुत नाराज रहेगा। अगर तुमने परमेश्वर से प्रार्थना की होती, सत्य खोजा होता, इसमें अपना पूरा दिल और दिमाग लगाया होता, अगर तुमने इस तरीके से सहयोग किया होता तो फिर परमेश्वर पहले ही तुम्हारे लिए हर चीज तैयार करके रखता ताकि जब तुम मामलों को संभालने लगो तो हर चीज दुरुस्त रहे और तुम्हें अच्छे नतीजे मिलें। तुम्हें बहुत ज्यादा ताकत झोंकने की जरूरत न पड़ती; तुम हरसंभव सहयोग करते तो परमेश्वर तुम्हारे लिए पहले ही हर चीज की व्यवस्था करके रखता। अगर तुम धूर्त या काहिल हो, अगर तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते, और हमेशा गलत रास्ते पर चलते हो तो फिर परमेश्वर तुम पर कार्य नहीं करेगा; तुम यह अवसर खो बैठोगे और परमेश्वर कहेगा, “तुम किसी काम के नहीं हो; मैं तुम्हारा उपयोग नहीं कर सकता। तुम एक तरफ खड़े रहते हो। तुम्हें चालाक बनना और सुस्ती बरतना पसंद है, है ना? तुम आलसी और आरामपरस्त हो, है ना? तो ठीक है, आराम ही करते रहो!” परमेश्वर यह अवसर और अनुग्रह किसी और को देगा। तुम लोग क्या कहते हो : यह हानि है या लाभ? (हानि।) यह प्रचंड हानि है!
परमेश्वर उन लोगों को पूर्ण बनाता है जो उससे सचमुच प्रेम करते हैं, और उन सबको भी जो विभिन्न किस्म के परिवेशों में सत्य का अनुसरण करते हैं। वह लोगों को इस लायक बनाता है कि वे विभिन्न परिवेशों या परीक्षणों के जरिये उसके वचनों का अनुभव कर सकें, इससे सत्य की समझ और परमेश्वर का सच्चा ज्ञान हासिल कर सकें, और अंततः सत्य हासिल कर सकें। अगर तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव इस ढंग से कर लो तो तुम्हारा जीवन स्वभाव बदल जाएगा, और तुम सत्य और जीवन हासिल कर लोगे। इन वर्षों के अनुभव से तुम लोग कितना हासिल कर चुके हो? (बहुत ज्यादा।) तो क्या अपना कर्तव्य निभाते हुए थोड़ा-सा कष्ट सहना और थोड़ी-सी कीमत चुकाना सार्थक नहीं है? तुम्हें बदले में क्या हासिल हुआ है? तुम बहुत सारा सत्य समझ चुके हो। यह अनमोल खजाना है! परमेश्वर पर विश्वास करके लोग क्या पाना चाहते हैं? क्या इसका उद्देश्य सत्य और जीवन हासिल करना नहीं है? क्या तुम्हें लगता है कि इन परिवेशों का अनुभव किए बिना तुम सत्य हासिल कर लोगे? बिल्कुल भी नहीं कर सकते। अगर कभी तुम्हारे सामने कुछ खास मुसीबतें आती हैं या तुम कुछ विशेष परिवेशों का सामना करते हो, तब तुम्हारा रवैया हमेशा उनसे बचने या भागने, उन्हें नकारने और उनसे पिंड छुड़ाने का रहता है—अगर तुम खुद को परमेश्वर के आयोजनों के रहमोकरम पर नहीं छोड़ते, उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण के लिए अनिच्छुक रहते हो, और सत्य से नियंत्रित होना नहीं चाहते हो—अगर तुम हमेशा खुद फैसले करना चाहते हो और खुद से जुड़ी हर चीज को अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार नियंत्रित करना चाहते हो तो देर-सबेर परमेश्वर तुम्हें यकीनन दरकिनार कर देगा या शैतान को सौंप देगा। अगर लोग यह बात समझ जाएँ तो उन्हें तुरंत पीछे मुड़ जाना चाहिए और परमेश्वर की अपेक्षा वाले सही मार्ग के अनुसार अपने जीवन की राह पर चलना चाहिए। यही सही मार्ग है, और जब मार्ग सही होता है तो इसका मतलब है कि दिशा भी सही है। इस मार्ग पर चलते हुए झटके लग सकते हैं और परेशानियाँ आ सकती हैं, हो सकता है कि वे लड़खड़ा जाएँ या कभी-कभी रुष्ट होकर कई दिनों तक नकारात्मक हो जाएँ। अगर वे लगन से अपना कर्तव्य निभाते रहते हैं और चीजों को लटकाते नहीं हैं तो ये सारी मामूली दिक्कतें होंगी, लेकिन उन्हें फौरन आत्म-चिंतन कर इन समस्याओं को हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए, उन्हें बिल्कुल भी टालमटोल नहीं करनी चाहिए, न मैदान छोड़ना चाहिए, न अपने कर्तव्य छोड़ने चाहिए। यह सबसे महत्वपूर्ण है। अगर तुम मन-ही-मन यह सोचते हो, “नकारात्मक और कमजोर पड़ना कोई बड़ी बात नहीं है; यह आंतरिक मामला है। परमेश्वर को इसका पता नहीं चलता। और यह देखते हुए कि मैंने अतीत में कितने कष्ट भोगे और कितनी कीमत चुकाई, वह निश्चित रूप से मेरे प्रति नरमी बरतेगा,” और अगर यह कमजोरी और नकारात्मकता जारी रहती है, तुम सत्य नहीं खोजते या परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो परिवेश आयोजित किए हैं उनसे सबक नहीं लेते, तो फिर तुम बारम्बार मौके गँवाते रहोगे और नतीजतन तुम ऐसे सभी अवसर खो बैठोगे या इन्हें नाकाम और नष्ट कर दोगे जिनमें परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बनाना चाहता है। इसका परिणाम क्या होगा? तुम्हारा हृदय अंधकारमय होता जाएगा, तुम्हें अब अपनी प्रार्थना में परमेश्वर की अनुभूति नहीं होगी और तुम इस हद तक नकारात्मक हो जाओगे कि तुम्हारे विचार बुराई और विश्वासघात से ओतप्रोत हो जाएँगे। फिर तुम अत्यंत कष्टों के जाल में फँस जाओगे और खुद को नितांत अशक्त और परेशान पाओगे। तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे पास न कोई मार्ग या दिशा है, न तुम कोई रोशनी देख पा रहे हो, न उम्मीद खोज पा रहे हो। क्या इस तरह जीना थकान-भरा है? (बिल्कुल है।) जो लोग सत्य के अनुसरण के उजले मार्ग पर नहीं चलना चाहते, वे सदा शैतान की सत्ता के अधीन रहेंगे, निरंतर पाप और अंधकार में जिएँगे, और उनके लिए कोई उम्मीद नहीं बचेगी। क्या तुम लोग इन शब्दों का अर्थ समझ सकते हो? (मुझे सत्य का अनुसरण कर अपना कर्तव्य पूरे दिलोदिमाग से निभाना चाहिए।) जब तुम्हारे सामने अचानक कोई कर्तव्य आता है और यह तुम्हें सौंप दिया जाता है तो कठिनाइयों का सामना करने से बचने की मत सोचो; अगर कोई चीज संभालना कठिन है तो इसे दरकिनार कर अनदेखा मत करो। तुम्हें इसका आमना-सामना करना चाहिए। तुम्हें हर समय यह याद रखना चाहिए कि परमेश्वर लोगों के साथ है, अगर उन्हें कोई कठिनाई हो रही है तो सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोजने की जरूरत है और परमेश्वर के साथ रहते कुछ भी कठिन नहीं है। तुममें यह आस्था होनी चाहिए। चूँकि तुम मानते हो कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है तो फिर अपने ऊपर कोई संकट आने पर तुम्हें अभी भी डर क्यों लगता है और ऐसा क्यों लगता है कि तुम्हारे पास कोई सहारा नहीं है? इससे साबित होता है कि तुम परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते हो। अगर तुम उसे अपना सहारा और अपना परमेश्वर नहीं मानोगे तो फिर वह तुम्हारा परमेश्वर नहीं है। वास्तविक जीवन में तुम चाहे जैसी स्थितियों का सामना करो, तुम्हें प्रार्थना करने और सत्य खोजने के लिए बार-बार परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए। भले ही तुम सत्य को समझकर हर दिन मात्र एक मसले से संबंधित कोई चीज हासिल करते हो तो यह समय बर्बाद करना नहीं होगा! अभी तुम लोग एक दिन में कितने समय के लिए परमेश्वर के समक्ष आ पा रहे हो? एक दिन में कितनी बार परमेश्वर के समक्ष आते हो? क्या तुम्हें कोई नतीजा मिला है? अगर कोई व्यक्ति शायद ही कभी परमेश्वर के पास आता है तो उसकी आत्मा मुरझा जाएगी और बहुत अंधकारमय हो चुकी होगी। जब सब कुछ सही चल रहा होता है तो लोग परमेश्वर से दूर भागकर उसकी अनदेखी करते हैं, और उसे तभी खोजते हैं जब मुसीबतें आती हैं। क्या इसे परमेश्वर पर विश्वास करना कहेंगे? क्या इसे परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना कहेंगे? ये छद्म-विश्वासियों के लक्षण हैं। परमेश्वर पर इस तरह का विश्वास रखकर सत्य और जीवन हासिल करना असंभव है।
जब लोग सत्य को नहीं समझते या इसका अभ्यास नहीं करते हैं, वे अक्सर शैतान के भ्रष्ट स्वभावों के बीच जीते हैं। वे तमाम शैतानी जालों के बीच जीते हैं, अपने भविष्य, गौरव, रुतबे और अन्य हितों के बारे में सोचते हैं, और इन चीजों को लेकर माथापच्ची करते रहते हैं। लेकिन अगर तुम यही रवैया अपने कर्तव्य में अपनाओ, सत्य खोजने और इसका अनुसरण करने में अपनाओ, तो तुम सत्य हासिल कर सकते हो। उदाहरण के लिए, तुम तुच्छ-से व्यक्तिगत फायदे के लिए अपना दिमाग मथ डालते हो, तुम इसके बारे में बहुत ही सावधानी और परिश्रम से सोचते हो, हर चीज की योजना पूर्ण रूप से बनाते हो और इसमें बहुत ज्यादा सोच-विचार और ताकत झोंकते हो। अगर तुम इतनी ही ताकत अपना कर्तव्य निभाने और समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजने में लगाओ तो तुम देखोगे कि तुम्हारे प्रति परमेश्वर का अलग रवैया है। लोग परमेश्वर के बारे में लगातार शिकायत करते रहते हैं : “वह दूसरे लोगों के प्रति अच्छा है तो मेरे प्रति क्यों नहीं है? वह मुझे कभी प्रबुद्ध क्यों नहीं करता? मैं हमेशा कमजोर क्यों हूँ? मैं उनके जितना अच्छा क्यों नहीं हूँ?” ऐसा क्यों होता है? परमेश्वर पक्षपात नहीं करता है। अगर तुम परमेश्वर के समक्ष नहीं आते और अपने ऊपर आने वाले संकटों को सदा अपने आप दूर करना चाहते हो तो वह तुम्हें प्रबुद्ध नहीं करेगा। वह तब तक प्रतीक्षा करेगा जब तक तुम उसके पास जाकर विनयपूर्वक प्रार्थना नहीं कर लेते और फिर वह तुम्हें यह प्रदान कर देगा। परमेश्वर किस प्रकार के लोगों को पसंद करता है? परमेश्वर ऐसी किस चीज के इंतजार में है जो लोग उससे माँगें? क्या वह चाहता है कि बेशर्म लोगों की तरह वे उससे पैसा, सुख-सुविधा, शोहरत, लाभ, और खुशी माँगें? परमेश्वर यह पसंद नहीं करता कि लोग उससे ऐसी चीजें माँगें। जो परमेश्वर से ऐसी चीजें माँगते फिरते हैं, वे बेशर्म हैं, सबसे निकृष्ट हैं और परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता है। वह ऐसे लोगों को चाहता है जो पाप को लेकर जाग्रत हो सकें और उससे सत्य खोजें और सत्य को स्वीकार करें—ऐसे ही लोगों को वह स्वीकार्य मानता है। तुम्हें इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए : “हे परमेश्वर, शैतान मुझे बहुत गहराई तक भ्रष्ट कर चुका है, मैं अक्सर अपने भ्रष्ट स्वभावों के साथ जीता हूँ। मैं प्रतिष्ठा और रुतबे से जुड़े तमाम प्रलोभनों से पार नहीं पा रहा हूँ, मैं नहीं जानता कि इनसे कैसे निपटूँ। मुझे सत्य सिद्धांतों की समझ नहीं है। तुमसे प्रबोधन और मार्गदर्शन की विनती करता हूँ,” और “मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार हूँ, लेकिन मुझे लगता है कि मैं अपूर्ण हूँ—एक तो मेरा आध्यात्मिक कद बहुत-ही छोटा है, और दूसरे, मुझे इस विषय की समझ नहीं है। मुझे डर है कि मैं ठीक से चीजें नहीं कर पाऊँगा। मैं तुमसे मदद और मार्गदर्शन की विनती करता हूँ।” परमेश्वर तुम्हारे आने और सत्य खोजने का इंतजार कर रहा है। जब तुम सच्चे दिल के साथ सत्य खोजते हुए परमेश्वर के पास आते हो तो वह तुम्हें प्रबुद्ध और रोशन करेगा, तब तुम्हारे पास एक रास्ता होगा और तुम जान लोगे कि अपना कर्तव्य कैसे निभाना है। अगर तुम सत्य के प्रति हमेशा मेहनत करते रहते हो और अपनी सच्ची दशा लेकर परमेश्वर के सामने प्रार्थना के लिए आते हो, उसका मार्गदर्शन और अनुग्रह माँगते हो तो फिर इस तरह तुम धीरे-धीरे सत्य को समझकर इसका अभ्यास करने लगोगे, और तुम जो कुछ जियोगे उसमें मनुष्य की समानता, सामान्य मानवता और सत्य वास्तविकता होगी। अगर तुम परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील नहीं रहते, सत्य का अनुसरण नहीं करते, और अक्सर अपने तमाम हित साधने के लिए सोच-विचार करते रहते हो, इन्हीं में मगन रहकर कड़ी मेहनत करते हो और यहाँ तक कि अपने विभिन्न हितों के लिए अपना जीवन अर्पित कर देते हो, इनके लिए जो भी जरूरी हो वह सब करते हो, तो फिर तुम शायद लोगों का मान-सम्मान और तमाम फायदे और गौरव पा सकते हो—लेकिन ये चीजें ज्यादा महत्वपूर्ण हैं या सत्य? (सत्य।) लोग इस धर्म-सिद्धांत को जानते हैं, फिर भी सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे अपने ही हितों और रुतबे को अहमियत देते हैं। तो क्या वे सचमुच इसे समझते हैं या फिर यह झूठी समझ है? (यह झूठी समझ है।) दरअसल, वे मूर्ख हैं। वे इस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं समझते हैं। जब वे इसे स्पष्ट रूप से समझने लायक होंगे, तो उन्हें थोड़ा-सा आध्यात्मिक कद हासिल हो चुका होगा। इसके लिए उन्हें सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के वचनों के लिए ताकत झोंकने की जरूरत है; वे लापरवाह और भ्रमित नहीं हो सकते। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और एक दिन ऐसा आता है जब परमेश्वर कहता है, “परमेश्वर अपने वचन बोलना बंद कर चुका है, वह इस मानवजाति से और कुछ नहीं कहना चाहता, और कुछ नहीं करना चाहता, और अब मनुष्य के कार्य का जायजा लेने का समय आ चुका है” तो फिर तुम्हें निकाला जाना तय है। चाहे तुम्हारे समर्थक जितने बड़े हों, तुममें कितनी ही खूबियाँ और प्रतिभाएँ हों, तुम कितने ही पढ़े-लिखे या प्रतिष्ठित हो या इस संसार में तुम्हारा पद कितना ही बड़ा हो, इनमें से कोई भी चीज किसी काम की नहीं होगी। उस समय तुम्हें यह एहसास होगा कि सत्य कितना अनमोल और महत्वपूर्ण है, तुम समझ लोगे कि अगर तुमने सत्य हासिल नहीं किया है तो तुम्हारा परमेश्वर से कोई वास्ता नहीं है, और तुम जान लोगे कि सत्य हासिल किए बिना परमेश्वर पर विश्वास करना कितना दयनीय और त्रासद है। आजकल कई लोगों के दिलों को इसका हल्का-सा एहसास है, लेकिन दिल की इस भावना के कारण अभी तक उनमें सत्य के अनुसरण का दृढ़-संकल्प पैदा नहीं हुआ है। अपने अंतरतम में उन्होंने सत्य की अनमोलता और अहमियत महसूस नहीं की है। थोड़ी-सी जागरूकता काफी नहीं है; व्यक्ति को इस मामले का सार सचमुच स्पष्ट रूप से समझना चाहिए। जब तुम ऐसा कर लोगे तो यह जान लोगे कि इस समस्या को हल करने के लिए सत्य के किस पहलू का उपयोग करना चाहिए। सत्य ही है जो लोगों के सामने पेश आने वाली तमाम कठिनाइयाँ दूर कर सकता है, और उनके तमाम विकृत विचार, संकीर्ण सोच, दूषित स्वभाव के साथ ही भ्रष्टता से जुड़ी विभिन्न समस्याएँ भी हल कर सकता है। सिर्फ सत्य का अनुसरण करके और समस्याएँ हल करने के लिए लगातार सत्य का प्रयोग करके तुम लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकोगे और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकोगे। तुम्हारे सामने जो भी समस्याएँ आती हैं, उनके समाधान के लिए अगर तुम सिर्फ मानवीय तौर-तरीकों और मानवीय संयम पर निर्भर रहते हो तो तुम इन कठिनाइयों और भ्रष्ट स्वभावों को कभी भी हल नहीं कर सकोगे। कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैं परमेश्वर के वचन और पढ़ूँ, इन्हें पढ़ने में रोज कई और घंटे लगाऊँ, तो क्या मैं यकीनन स्वभावगत बदलाव ला सकूँगा?” यह इस पर निर्भर करता है कि तुम परमेश्वर के वचन किस तरह पढ़ते हो और क्या तुम सत्य को समझकर इसे अमल में ला सकते हो या नहीं। अगर तुम उसके वचन महज आधे-अधूरे मन से पढ़ते हो और सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो फिर तुम सत्य हासिल नहीं कर सकोगे, और अगर तुम सत्य हासिल नहीं कर पाते तो तुम्हारा जीवन स्वभाव नहीं बदलेगा। संक्षेप में, व्यक्ति को निश्चित रूप से सत्य का अनुसरण करना चाहिए, और स्वभावगत बदलाव लाने के लिए सत्य का अनुसरण कर इस पर अमल जरूर करना चाहिए। सत्य का अभ्यास किए बिना परमेश्वर के वचन पढ़ने भर से कभी भी बात नहीं बनेगी। फरीसियों की तरह बनना गलत रास्ता है, जो दूसरों को तो परमेश्वर के वचनों का उपदेश देने और इन पर अमल करने का तरीका बताने में माहिर थे, लेकिन खुद ऐसा नहीं करते थे। परमेश्वर यह अपेक्षा रखता है कि लोग उसके वचन ज्यादा पढ़ें ताकि वे सत्य को समझ सकें, सत्य का अभ्यास कर सकें और सत्य वास्तविकता को जी सकें। परमेश्वर का लोगों से यह कहना कि वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करें, उसके मार्ग पर चलें, और जीवन में सत्य के अनुसरण के सही मार्ग पर चलें, इसका सीधा संबंध उसकी इस अपेक्षा से है कि लोग अपने कर्तव्य निभाते समय अपना पूरा मन और ताकत लगाने का अभ्यास करें। परमेश्वर का अनुसरण करने में लोगों को अपने कर्तव्य निभाते हुए उसके कार्य का अनुभव करना चाहिए ताकि वे उद्धार पा सकें और पूर्ण बनाए जा सकें।
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