कर्तव्य निभाने के बारे में वचन (अंश 30)
कर्तव्य क्या है? परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दिया गया आदेश वह कर्तव्य है जिसे मनुष्य को निभाना चाहिए। वह तुम्हें जो कुछ भी सौंपे वही वह कर्तव्य है जिसे तुम्हें निभाना चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हें अपने दोनों पैर जमीन पर रखना सीखना होगा और उस चीज तक पहुँचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए जो तुम्हारी समझ से बाहर हो। हमेशा यह न सोचो कि दूसरों की रोटी चुपड़ी है और वह काम करने पर अड़े न रहो जो तुम्हारे लिए उपयुक्त न हो। कुछ लोग मेजबानी के लिए उपयुक्त होते हैं, फिर भी वे अगुआ बनने पर जोर देते हैं; कुछ दूसरे लोग अभिनेता बनने लायक होते हैं, लेकिन वे निर्देशक बनना चाहते हैं। हमेशा उच्च पदों के लिए प्रयासरत होना अच्छा नहीं है। व्यक्ति को अपनी भूमिका और स्थान ढूंढ़ना और निर्धारित करना चाहिए—सूझ-बूझ वाला व्यक्ति यही करता है। फिर उसे परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने और उसे संतुष्ट करने के लिए दृढ़ रवैये के साथ अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए। यदि अपना कर्तव्य निभाते समय व्यक्ति का रवैया ऐसा होगा, तो उसका हृदय स्थिर और शांत रहेगा, वह अपने कर्तव्य में सत्य को स्वीकारने में सक्षम हो पाएगा, और धीरे-धीरे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने लगेगा। वह अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने, परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने और अपने कर्तव्य का पर्याप्त रूप से निर्वहन करने में समर्थ हो पाएगा। परमेश्वर की स्वीकृति पाने का यही तरीका है। यदि तुम स्वयं को परमेश्वर के लिए सचमुच खपा सकते हो और सही मानसिकता, उसे प्यार करने और संतुष्ट करने की मानसिकता के साथ अपना कर्तव्य निभा सकते हो, तो तुम्हें पवित्र आत्मा के कार्य से नेतृत्व एवं मार्गदर्शन मिलेगा, तुम सत्य का अभ्यास करने और अपना कर्तव्य निभाते समय सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए तैयार हो जाओगे और ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है। इस तरह, तुम पूरी तरह से सच्चे मनुष्य जैसा जीवन जियोगे। अपने कर्तव्यों के निर्वहन के साथ-साथ लोगों का जीवन धीरे-धीरे उन्नत होता जाता है। जो अपना कर्तव्य नहीं निभाते, वे चाहे जितने भी वर्षों तक विश्वास रख लें, सत्य और जीवन नहीं प्राप्त कर सकते क्योंकि उन्हें परमेश्वर का आशीष नहीं मिला होता। परमेश्वर केवल उन्हीं को आशीष देता है जो खुद को उसके लिए सचमुच खपा देते हैं और अपनी पूरी काबिलियत से कर्तव्यों का पालन करते हैं। तुम जो भी कर्तव्य निभाओ, तुम जो भी कर सकते हो, उसे अपनी जिम्मेदारी और अपना कर्तव्य समझो, उसे स्वीकारो और अच्छे ढंग से पूरा करो। तुम अपना काम अच्छे से कैसे करोगे? ठीक उसी तरह से करके जैसे कि परमेश्वर चाहता है—अपने पूरे दिलो-दिमाग और अपनी पूरी ताकत से। तुम्हें इन शब्दों पर गहन विचार करना चाहिए और सोचना चाहिए कि तुम अपना कर्तव्य दिल लगा कर कैसे निभा सकते हो। उदाहरण के लिए, यदि तुम किसी को बिना सिद्धांतों के, लापरवाही से और अपनी मनमर्जी से कर्तव्य निभाते देखते हो और मन में सोचते हो कि, “मुझे क्या परवाह, यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है,” तो क्या यह अपना कर्तव्य पूरे मन से निभाना है? नहीं, यह गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार है। यदि तुम जिम्मेदार व्यक्ति हो, तो तुम्हारे सामने ऐसी स्थिति आने पर तुम कहोगे, “यह ठीक नहीं है। यह काम भले ही मेरी निगरानी के दायरे में न हो, लेकिन मैं अगुआ को इस मामले की शिकायत करके उन्हें इसे सिद्धांतों के अनुसार संभालने दे सकता हूँ।” ऐसा करने के बाद सभी लोग समझ लेंगे कि यह उचित था, तुम्हारे हृदय को सुकून मिलेगा, और तुम अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुके होगे। फिर तुम अपना कर्तव्य पूरी लगन से निभा चुके होगे। कोई भी कर्तव्य निभाते समय यदि तुम हमेशा ध्यान नहीं देते हो और कहते हो, “अगर मैं यह काम आसान और सतही तरीके से निपटा दूँ, तो मैं इसे जैसे-तैसे करके भी काम चला सकता हूँ। आखिर, कोई इसकी जाँच तो करेगा नहीं। अपनी सीमित काबिलियत और पेशेवर कौशल के साथ मैंने उस काम में अपना सर्वश्रेष्ठ किया है। काम चलाने के लिए यह काफी है। इसके अलावा, कोई भी न तो इसके बारे में पूछेगा, न ही इसे लेकर मेरे प्रति गंभीर होगा—यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है।” क्या ऐसी मंशा और ऐसी मानसिकता रखना तुम्हारा अपना कर्तव्य पूरे मन से निभाना है? नहीं, यह अनमना होना है, और यह तुम्हारे शैतानी तथा भ्रष्ट स्वभाव का प्रकटन है। क्या तुम अपने शैतानी स्वभाव पर भरोसा करते हुए पूरी लगन से अपना कर्तव्य निभा सकते हो? नहीं, ऐसा संभव नहीं होगा। तो, अपना कर्तव्य पूरी लगन से करने का क्या मतलब है? तुम कहोगे : “भले ही ऊपर वाले ने इस कार्य के बारे में पूछताछ नहीं की है, और यह परमेश्वर के घर के सभी कार्यों में बहुत महत्वपूर्ण नहीं लगता, फिर भी मैं इसे अच्छी तरह से करूँगा—यह मेरा कर्तव्य है। कोई कार्य महत्वपूर्ण है या नहीं, यह एक बात है; मैं इसे अच्छी तरह से कर सकता हूं या नहीं, यह दूसरी बात है।” महत्वपूर्ण क्या है? तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह और पूरी लगन से निभा सकते हो या नहीं, और तुम सिद्धांतों का पालन कर सत्य के अनुरूप अभ्यास कर सकते हो या नहीं। यही महत्वपूर्ण है। यदि तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो और सिद्धांतों के अनुसार काम कर सकते हो, तो तुम वास्तव में पूरे मन से अपना कर्तव्य निभा रहे हो। यदि तुमने एक प्रकार का कर्तव्य अच्छी तरह से निभाया है, लेकिन तुम अभी संतुष्ट नहीं हो और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण प्रकार का कोई कर्तव्य निभाना चाहते हो, और तुम उसे अच्छी तरह से करने में सक्षम हो, तो यह अपने कर्तव्य को उससे भी आगे की सीमा तक पूरी लगन से निभाना है। यदि तुम अपना कर्तव्य पूरे मन से करने में सक्षम हो, तो इसका क्या अर्थ निकलता है? एक तरह से, इसका मतलब है कि तुम अपना कर्तव्य परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुसार निभा रहे हो। दूसरे संदर्भ में, इसका मतलब है कि तुमने परमेश्वर की जाँच को स्वीकार लिया है और तुम्हारे हृदय में परमेश्वर है; इसका मतलब यह है कि तुम अपना कर्तव्य दिखावे के लिए या मनमाने तरीके से या अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार नहीं कर रहे हो, बल्कि तुम इसे परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया एक आदेश मान रहे हो और तुम इसे उस जिम्मेदारी के साथ, लगन से कर रहे हो, और तुम इसे मनमाने ढंग से नहीं बल्कि पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कर रहे हो। तुम अपने कर्तव्य निर्वहन में पूरा मन लगा रहे हो—यह पूरे हृदय से अपना कर्तव्य निभाना है। कुछ लोग कर्तव्य पालन के सत्यों को नहीं समझते। जब उन पर कोई मुश्किल आती है, तो वे शिकायत करते हैं और वे हमेशा अपने व्यक्तिगत हितों, लाभों और हानियों को लेकर बखेड़ा खड़ा करते हैं। वे सोचते हैं, “अगर मैं अगुआ द्वारा मुझे दिया गया काम अच्छी तरह से करूँगा, तो इससे उन्हें सम्मान और गौरव मिलेगा, पर मुझे कौन याद रखेगा? किसी को पता भी नहीं चलेगा कि वह काम मैंने किया था और इसका सारा श्रेय अगुआ को मिलेगा। क्या इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना दूसरों की सेवा करना नहीं है?” यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह विद्रोहशीलता है—ये अजीब किस्म के लोग हैं। ये परमेश्वर के आदेश को सही ढंग से नहीं समझते हैं। ये हमेशा अधिकार वाले पदों पर बने रहना चाहते हैं, श्रेय लेना और इनाम पाना चाहते हैं, वे खुद को अच्छा दिखाना चाहते हैं। वे हमेशा शोहरत और लाभ पर ध्यान क्यों देते हैं? इससे पता चलता है कि शोहरत और लाभ पाने की उनकी आकांक्षा बहुत प्रबल है, और वे यह नहीं समझते कि कर्तव्य निर्वहन परमेश्वर को संतुष्ट करने के बारे में है, या यह कि परमेश्वर हर व्यक्ति के दिल की गहराई की जाँच करता है। इन लोगों में परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था नहीं होती, इसलिए वे उन तथ्यों के आधार पर फैसले करते हैं जिन्हें वे अपनी आँखों से देख पाते हैं, जिसके कारण उनमें गलत दृष्टिकोण विकसित होते हैं। परिणामस्वरूप, वे अपने काम में नकारात्मक और निष्क्रिय हो जाते हैं और अपने कर्तव्यों को पूरे मन और पूरी ताकत से करने में असमर्थ हो जाते हैं। चूँकि उनमें सच्ची आस्था नहीं है और वे नहीं जानते कि परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराई की जाँच करता है, इसलिए वे अपना ध्यान दूसरों को दिखाने के लिए कर्तव्य-निर्वाह करने, खुद के उठाए कष्टों और कठिनाइयों को दूसरों को बताने और अगुआओं तथा कार्यकर्ताओं से प्रशंसा और अनुमोदन पाने पर केंद्रित करते हैं। वे सोचते हैं कि कोई कर्तव्य निभाना केवल तभी सार्थक है जब वे उसे इस तरीके से करें, और वह तभी गौरवशाली होता है, जब हर कोई उन्हें ऐसा करते हुए देखे। क्या यह नीचतापूर्ण नहीं है? वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन वे न केवल आस्थाहीन हैं, बल्कि वे सत्य को जरा भी स्वीकारते या समझते नहीं हैं। ऐसे लोग अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से कैसे निभा सकते हैं? क्या उनके स्वभाव में कोई समस्या नहीं है? यदि तुम उनके साथ सत्य के बारे में संगति करने का प्रयास करो और वे फिर भी इसे स्वीकार न करें, तो वे दुष्ट स्वभाव वाले हैं। वे अपनी उचित जिम्मेदारियाँ निभाने में विफल रहते हैं और अपने कर्तव्य में बने नहीं रहते। देर-सवेर, उन्हें हटा दिया जाना चाहिए। जो लोग कर्तव्य निभाते हैं, उन्हें सामान्य मानवता वाला होना चाहिए। उन्हें विवेकशील होना चाहिए और उन्हें परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पित होने योग्य होना चाहिए। परमेश्वर विभिन्न लोगों को विभिन्न काबिलियतें और गुण प्रदान करता है और विभिन्न लोग अलग-अलग कर्तव्य निभाने के लिए सुयोग्य होते हैं। तुमको नकचढ़ा नहीं होना चाहिए और अपनी पसंद के आधार पर केवल आरामदेह तथा अपनी इच्छाओं के अनुरूप आसान कर्तव्य नहीं चुनने चाहिए। ऐसा करना गलत है। यह दिल लगा कर कर्तव्य निभाना नहीं है और यह कोई कर्तव्य निभाना भी नहीं है। किसी कर्तव्य का निर्वाह करने के लिए जो सबसे पहली चीज तुम्हें करनी चाहिए वह है उसमें अपना पूरा दिल लगा देना। अगली बात यह है कि तुम चाहे जो कुछ भी कर रहे हो, चाहे वह बड़ा काम हो या छोटा, गंदा हो या थकाऊ, दूसरों के सामने किया जाने वाला काम हो या दूसरों की नजरों से दूर किया जाने वाला काम, महत्वपूर्ण हो या महत्वहीन, तुम्हें उन सभी को अपना कर्तव्य मानना चाहिए और उन्हें अपने पूरे दिलो-दिमाग और अपनी पूरी ताकत से करने के सिद्धांत का पालन करना चाहिए। यदि अपना कर्तव्य निभाने के बाद तुम्हें अनुभव होता है कि तुम्हारे किए गए कुछ कामों के बारे में तुम्हारा अंतःकरण पूरी तरह से साफ नहीं है, और भले ही तुमने अपना पूरा दिल लगा कर काम किया हो, फिर भी तुम्हारा कुछ काम अच्छी तरह से न हुआ हो और तुम्हारे प्रयासों के परिणाम बहुत अच्छे न हों, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? कुछ लोग सोचते हैं, “ठीक है, मैंने अपने कर्तव्य में पूरा मन लगाया है, लेकिन परिणाम बहुत अच्छे नहीं थे। यह मेरी समस्या नहीं है। यह अब परमेश्वर के हाथ में है।” यह कैसा दृष्टिकोण है? क्या यह सही दृष्टिकोण है? वे वास्तव में स्वयं को परमेश्वर के लिए सचमुच खपा नहीं रहे हैं क्योंकि वे समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की खोज करने के इच्छुक नहीं हैं; वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के इच्छुक नहीं हैं और अब भी अपने कर्तव्य के प्रति उनका परिप्रेक्ष्य अनमना है। ऐसा लगता है कि इस प्रकार के लोगों के पास हृदय ही नहीं होता। जब हम अपने कर्तव्य को पूरे दिल से निभाने की बात करते हैं, तो इसका मतलब है अपने पूरे दिल का उपयोग करना—तुम अपना कर्तव्य आधे-अधूरे दिल से नहीं कर सकते। तुमको खुद को समर्पित कर देना चाहिए, अपना कर्तव्य ध्यान से निभाना चाहिए और जिम्मेदार रवैया अपना कर अपनी निष्ठा दिखाते हुए सुनिश्चित करना चाहिए कि काम अच्छी तरह से हों और वे परिणाम प्राप्त हों जो तुम्हें प्राप्त करने चाहिए। केवल तभी इसे पूरी लगन से कर्तव्य निर्वहन कहा जा सकता है। यदि तुम देखते हो कि तुम्हारे काम के परिणाम बहुत अच्छे नहीं हैं, पर तुम मन में सोचते हो कि “मैंने अपनी ओर से सर्वोत्तम किया है। मैंने नींद का त्याग किया है, भोजन छोड़ा है, और देर तक जागा रहा हूँ, कभी-कभी तब भी रुका रहा हूँ जब दूसरे लोग आराम करने या टहलने के लिए बाहर चले गए हों। मैंने कठिनाइयाँ सहन की हैं और मैं दैहिक सुख-सुविधाओं का लालची नहीं रहा हूँ। इसका मतलब है कि मैंने अपना कर्तव्य पूरे दिल से निभाया है।” क्या यह दृष्टिकोण सही है? तुमने अपना समय लगाया है और प्रयास किया है। ऊपर से देखने पर ऐसा लगता है कि तुम इन सभी औपचारिकताओं से गुजरे हो, लेकिन जो परिणाम तुमको मिले हैं वे अच्छे नहीं हैं और तुम इसकी जिम्मेदारी नहीं लेते, साथ ही तुम्हें इसकी परवाह नहीं है। क्या यह पूरे मन से अपना कर्तव्य निभाना है? (नहीं।) यह पूरे मन से अपना कर्तव्य निभाना नहीं है। जब परमेश्वर यह निर्धारित कर रहा होता है कि कोई व्यक्ति अपने पूरे मन से कुछ कर रहा है या नहीं, तो वह क्या देखता है? एक लिहाज से वह यह देखता है कि तुम उस चीज को विवेकशील और उत्तरदायित्वपूर्ण रवैये से देखते हो या नहीं। दूसरे लिहाज से वह यह देखता है कि वह काम करते समय तुम क्या सोच रहे हो, तुम उस कर्तव्य को वैसे ही ध्यान से निभा रहे हो जैसे तुम्हें निभाना चाहिए या नहीं, क्या तुम उसे लगातार सत्य सिद्धांतों के अनुसार कर रहे हो और जब तुम पर कोई कठिनाई आती है तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकने की खातिर समस्याएँ हल करने के लिए एकाग्रता से सत्य की तलाश करते हो या नहीं। मनुष्य जब कार्य करता है, तो परमेश्वर देखता और पड़ताल करता है। वह पूरे समय उनके दिलों को देख रहा होता है। हालाँकि लोगों को यह पता नहीं होता, फिर भी वे कभी-कभी उसकी जाँच को महसूस कर सकते हैं। कुछ लोग अपने कर्तव्यों के प्रति हमेशा अनमने होते हैं और अंततः परमेश्वर उन्हें बेनकाब करने वाले परिवेश की व्यवस्था करता है। उस मुकाम पर उन्हें परमेश्वर द्वारा त्याग दिए जाने का भान होता है, और सभी लोग समझ जाते हैं कि वे विश्वासियों जैसे नहीं हैं—कि वे अविश्वासियों, दानवों और शैतानों जैसे हैं। ऐसे लोगों को उनके कर्तव्य निर्वहन के दौरान ही हटा दिया जाता है। कुछ लोग कर्तव्य निर्वहन करते हुए अक्सर आत्मचिंतन करते हैं। कभी-कभी, उन्हें मिलने वाले परिणाम अच्छे नहीं होते, या कोई समस्या उत्पन्न हो जाती है, वे उसे अपने मन में महसूस कर लेते हैं, और सोचते हैं, “क्या मैं फिर से अनमना हो रहा हूँ?” वे भर्त्सना महसूस करते हैं। ऐसा कैसे होता है? यह परमेश्वर द्वारा किया गया होता है, यह पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता है। तो, परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध क्यों बना रहा है? वह किस आधार पर तुम्हें प्रबोधन दे रहा है? वह किस सन्दर्भ में तुम्हारी भर्त्सना कर रहा है? तुम्हें सही मानसिकता रखते हुए कहना चाहिए, “मुझे अपना कर्तव्य पूरा दिल लगा कर करना चाहिए, और इसका मतलब है उसे सत्य के अनुसार करना। क्या मैंने सचमुच पूरे मन से अपना कर्तव्य निभाया है?” यदि तुम हमेशा इस पर विचार करते हो, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा और तुम्हारे भीतर समझ पैदा करेगा कि “मैंने वह कार्य पूरे दिल से नहीं किया था। मैं सोचता था कि मैं काफी अच्छा काम कर रहा हूं, मैंने खुद को 100 में से 99 अंक दिए होते। लेकिन अब मुझे लगता है कि वास्तव में ऐसा नहीं था—मैं वास्तव में मुश्किल से काम कर रहा था।” केवल तभी तुम्हें परमेश्वर के असंतोष का पता चलेगा। यह परमेश्वर द्वारा तुम्हें प्रबुद्ध किया जाना और तुम्हें यह समझने की अनुमति देना है कि तुम वास्तव में अपना कर्तव्य कितना ढंग से निभाते हो और तुम अभी भी उसकी अपेक्षाओं से कितनी दूर हो। यदि कोई अपने कर्तव्य निर्वहन में न्यूनतम मानकों से बहुत नीचे गिर जाए, तो भी क्या परमेश्वर उसे भी प्रबुद्ध करेगा? शायद नहीं। परमेश्वर किसे प्रबुद्ध करता है? सबसे पहले, उन लोगों को जो सत्य से प्रेम करते हैं; दूसरे, समर्पण करने की प्रवृत्ति वालों को; तीसरे, सत्य के लिए लालायित लोगों को; और चौथे उनको जो सभी प्रकार से आत्मनिरीक्षण और आत्मचिंतन करते हैं। ये उस प्रकार के लोग हैं जिन्हें परमेश्वर की प्रबुद्धता मिल सकती है। इस तरह से अभ्यास और अनुभव करने से, पूरे मन से अपना कर्तव्य निभाने का तुम्हारा व्यक्तिगत अनुभव, सत्य के अभ्यास का यह पहलू और वास्तविकता का यह पक्ष और भी अधिक विकसित हो जाएगा। धीरे-धीरे, तुम्हारे मन में यह स्पष्ट हो जाएगा कि कौन से लोग अपने कर्तव्यों को पूरे मन से निभाते हैं और कौन नहीं, इसके अलावा कर्तव्य निर्वहन के प्रति विभिन्न व्यक्तियों के रवैये और व्यवहार कैसे हैं। जब तुम स्वयं को जान लोगे, तो तुम दूसरों को पहचानने में सक्षम हो जाओगे और अपने कर्तव्य में पहले से अधिक सजग हो जाओगे। अनमने होने की मामूली-सी घटना भी तुम्हारी निगाह से नहीं बच पाएगी, और तुम उसे हल करने के लिए सत्य की तलाश कर पाओगे। तुम अपना कर्तव्य निभाते समय सिद्धांतों के अनुसार चीजों को संभालने में सक्षम होगे, तुम सत्य का अधिक-से-अधिक अभ्यास करोगे, और तुम्हारा मन स्थिर और शांत रहेगा। यदि किसी दिन तुम्हारे दिल को लगे कि तुमने अपना कोई कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाया है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इस पर विचार करना चाहिए, जानकारी हासिल करनी चाहिए और दूसरों से सलाह लेनी चाहिए। फिर, इस मामले को जानने से पहले ही तुम इसकी समझ हासिल कर लोगे। क्या इससे तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन में सहायता नहीं मिलेगी? (हाँ।) इससे मदद मिलेगी। तुम चाहे जो कर्तव्य निभा रहे होगे, यही स्थिति रहेगी। अगर लोग अपने कर्तव्य पूरे मन से निभाते हैं, सत्य सिद्धांतों की खोज करते हैं और अपने प्रयासों में लगे रहते हैं, तो अंततः उन्हें परिणाम प्राप्त हो जाएँगे।
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