अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 85)
क्या परमेश्वर से की गई तुम लोगों की प्रार्थनाओं के कोई सिद्धांत हैं? किन परिस्थितियों में तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो? तुम्हारी प्रार्थनाओं में क्या चीजें शामिल होती हैं? ज्यादातर लोग उस वक्त प्रार्थना करते हैं जब वे कष्ट में होते हैं : “हे परमेश्वर, मैं कष्ट में हूँ, मैं तुमसे मेरी मदद करने के लिए विनती करता हूँ।” यही वह पहली बात है जो वे कहते हैं। जब तुम प्रार्थना करते हो तब क्या हमेशा यह कहना ठीक है कि तुम कष्ट में हो? (नहीं।) क्यों नहीं? और यदि यह ठीक नहीं है, तो तुम अभी भी इस तरह से प्रार्थना क्यों करते हो? इससे पता चलता है कि तुम लोग नहीं जानते कि प्रार्थना कैसे करनी है, या जब कोई परमेश्वर के सामने आता है तो उससे क्या कहना और क्या खोजना चाहिए। तुम जब भी थोड़े कष्ट का अनुभव करते हो और उदास होते हो, तब परमेश्वर से यह कहकर प्रार्थना करते हो, “हे परमेश्वर, मैं कष्ट में हूँ! मैं बहुत दुखी महसूस कर रहा हूँ, कृपया मेरी मदद करो।” यह उस व्यक्ति की प्रार्थना है जिसने अभी-अभी परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू किया है। यह एक शिशु की प्रार्थना है। यदि किसी ने कई वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास किया है और अभी भी इसी तरह से प्रार्थना करता है, तो यह एक गंभीर समस्या है। इससे पता चलता है कि वे अभी भी एक शिशु हैं जो जीवन में बड़े नहीं हुए हैं। जो परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं लेकिन यह नहीं जानते कि उसके कार्य का अनुभव कैसे किया जाए, वे सभी ऐसे लोग हैं जो जीवन में विकसित नहीं हुए हैं और जिन्होंने अभी तक परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश नहीं किया है। यदि कोई सचमुच एक विचारशील व्यक्ति है, तो उसे इस बात पर विचार करना चाहिए कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे किया जाए, साथ ही साथ उसके वचनों को कैसे खाना और पीना है और उनका अनुभव और अभ्यास कैसे करना है। जहाँ कहीं भी परमेश्वर के वचन जाते हैं, व्यक्ति का अनुभव भी वैसा ही होना चाहिए; उस स्थान पर परमेश्वर के वचनों का अनुसरण करना आवश्यक है। यदि कोई इस तरह से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव कर सकता है, तो वह कई समस्याओं का सामना करेगा और वह स्वाभाविक रूप से उन्हें हल करने के लिए परमेश्वर से सत्य की तलाश करेगा। यदि कोई हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना करता है और इस तरह से अपनी कठिनाइयों को हल करने के लिए सत्य की खोज करता है, तो वह परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर रहा होता है। अपनी समस्याओं को लगातार हल करने से, लोगों की कठिनाइयाँ कम होती जाएंगी और वे धीरे-धीरे सत्य को समझने लगेंगे और परमेश्वर के कार्य का ज्ञान प्राप्त करने लगेंगे। वे जानेंगे कि उन्हें परमेश्वर के साथ कैसे सहयोग करना चाहिए, साथ ही साथ उसके कार्य के प्रति कैसे समर्पण करना चाहिए। परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग पर प्रवेश करने का यही अर्थ है। कुछ लोग जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं वे नहीं जानते कि उसके कार्य का अनुभव कैसे किया जाए। वे हमेशा भ्रमित रहते हैं—वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, लेकिन उन पर विचार नहीं करते हैं; वे उपदेश सुनते हैं, लेकिन संगति नहीं करते हैं; और जब उन पर मुसीबतें आती हैं, तो वे सत्य खोजना नहीं जानते हैं, न ही वे जानते हैं कि परमेश्वर के इरादों को कैसे समझा जाए और वे नहीं जानते कि उन्हें कैसा रवैया अपनाना चाहिए या कैसे सहयोग करना चाहिए। वे इन बातों को नहीं समझते हैं। वे इन मामलों में नासमझ हैं और उनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है। जो भी मुसीबतें उन पर आती हैं, वे कभी भी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हैं और सत्य की खोज नहीं करते हैं और दिल की गहराई से वे वास्तव में परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते हैं या उसकी ओर नहीं देखते हैं। वे बस कहते हैं, “हे परमेश्वर, मैं कष्ट में हूँ। हे परमेश्वर, मैं कष्ट में हूँ।” वे इस वाक्यांश को इस हद तक दोहराते हैं कि लोग इसकी आवाज से तंग आ जाते हैं और इससे घृणा करते हैं। तुम में से ज्यादातर लोग इसी तरह प्रार्थना करते हैं, है ना? (बिल्कुल करते हैं।) लोगों की प्रार्थनाओं से, कोई भी देख सकता है कि उनकी स्थिति कितनी दयनीय है! तुम केवल तभी परमेश्वर को खोजते हो जब तुम कष्ट में होते हो। जब तुम कष्ट में नहीं होते हो या किसी भी समस्या का सामना नहीं कर रहे होते हो, तो तुम परमेश्वर की कोई आवश्यकता महसूस नहीं करते, न ही तुम उस पर भरोसा करना चाहते हो। तुम बस अपने मालिक बनना चाहते हो। क्या तुम इसी स्थिति में नहीं रहते हो? (बिल्कुल।) जब ज्यादातर लोग परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव करते हैं, इन वचनों के जरिये उनकी काट-छाँट होती है और फिर वे आत्म-चिंतन करके स्वयं को जानने की कोशिश करते हैं तो वे प्रार्थना किस तरह करते हैं? वे सभी एक ही बात कहते हैं, “हे परमेश्वर, मैं कष्ट में हूँ। हे परमेश्वर, मैं कष्ट में हूँ।” क्या इन शब्दों से तुम्हें घृणा महसूस नहीं होती है? (बिल्कुल होती है।) लोग अंदर से इतने मुरझाए हुए हैं—उनकी हालत कितनी दयनीय है! हर बार जब वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, तो वे एक ही, सरल वाक्यांश कहते हैं, जिसमें दिल से निकला एक भी शब्द नहीं होता है। वे सत्य की खोज नहीं करते हैं और वे अपनी समस्याओं को हल नहीं करना चाहते हैं। यह किस तरह की प्रार्थना है? जब कोई प्रार्थना में दिल की बात नहीं कह सकता है और यह नहीं जानता कि उसकी कमियाँ क्या हैं, इसमें असली समस्या क्या है? जब तुम परमेश्वर के सामने आते हो, तो क्या तुम्हें किसी भी चीज के बारे में खुद को प्रबुद्ध करने के लिए उसकी आवश्यकता नहीं होती है? क्या तुम्हें आस्था या शक्ति या अपने रक्षक के रूप में परमेश्वर की आवश्यकता नहीं है? क्या तुम्हें आगे के मार्ग पर चलने के लिए परमेश्वर के प्रबोधन और मार्गदर्शन की जरा भी आवश्यकता नहीं है? जो भी समस्याएँ तुम्हारे भीतर मौजूद हैं क्या उन्हें हल करने के लिए सत्य समझने की आवश्यकता नहीं है? क्या तुम्हें परमेश्वर के अनुशासन और ताड़ना की, या उसके मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं है? क्या तुम्हारे दुखों को दूर करने के लिए तुम्हें परमेश्वर से केवल एक चीज की आवश्यकता है? क्या तुम वास्तव में अपने दिल में महसूस नहीं कर सकते हो कि तुममें कमियाँ कितनी हैं? प्रार्थना करने का तरीका नहीं जानना कोई छोटी समस्या नहीं है; यह दर्शाता है कि तुम नहीं जानते हो कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे किया जाए, इससे पता चलता है कि तुमने परमेश्वर के वचनों को वास्तविक जीवन में नहीं उतारा है, और शायद ही कभी तुम्हारे जीवन में परमेश्वर के साथ कोई वास्तविक संवाद किया है। तुमने तो परमेश्वर के साथ उस तरह का संबंध भी स्थापित नहीं किया है जो परमेश्वर और उसके अनुयायियों के बीच, या सृजित प्राणियों और उनके सृष्टिकर्ता के बीच होना चाहिए। जब तुम्हें किसी समस्या का सामना करना पड़ता है, तो तुम खुद की व्यक्तिपरक मान्यताओं, धारणाओं, विचारों, ज्ञान, योग्यताओं, प्रतिभाओं और भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार चलते हो; तुम्हें परमेश्वर से कोई सरोकार नहीं होता है, इसलिए जब तुम उसके सामने आते हो, तो अक्सर तुम्हारे पास कहने के लिए कुछ नहीं होता है। परमेश्वर पर विश्वास करने वाले लोगों की यही दुखद स्थिति होती है! यह बहुत दयनीय स्थिति है! लोगों की आत्माएँ शुष्क और सुन्न हो जाती हैं। जब जीवन में आध्यात्मिक मामलों की बात होती है तो उन्हें कुछ भी महसूस नहीं होता है, न ही उन्हें इनकी कोई समझ होती है, और जब वे परमेश्वर के सामने आते हैं, तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता है। चाहे तुम खुद को कैसी भी स्थिति में पाते हो, चाहे तुम कैसी भी दुर्दशा का सामना कर रहे हो, और चाहे तुम्हारे सामने कैसी भी कठिनाइयाँ हों, अगर तुम परमेश्वर के सामने मूक खड़े हो, तो क्या उसके ऊपर तुम्हारी आस्था पर प्रश्न नहीं उठाया जाना चाहिए? क्या यह मनुष्य की दयनीय स्थिति नहीं है?
लोगों को परमेश्वर से प्रार्थना क्यों करनी चाहिए? परमेश्वर से प्रार्थना करना परमेश्वर की ओर देखने और उस पर भरोसा करने का मनुष्य का एकमात्र मार्ग है। प्रार्थना के बिना, इन बातों का प्रश्न ही नहीं उठता है; परमेश्वर पर भरोसा करना और उसकी ओर देखना प्रार्थना के माध्यम से ही पूरा होता है। यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर से प्रार्थना किए बिना उस पर विश्वास करता है, तो क्या वह पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त कर सकता है? क्या वह परमेश्वर का कार्य और मार्गदर्शन प्राप्त कर सकता है? यदि तुम अपनी कठिनाइयों को परमेश्वर को नहीं सौंपते हो और उससे प्रार्थना नहीं करते हो और सत्य की खोज नहीं करते हो, तो वह उनका समाधान कैसे करेगा? वह आगे के मार्ग पर उसका अनुसरण करने के लिए तुम्हारा मार्गदर्शन कैसे करेगा? वह तुम्हें तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से कैसे बचाएगा? यह कहा जा सकता है कि प्रार्थना के बिना परमेश्वर में विश्वास करना उसमें सच्चा विश्वास करना नहीं है। मनुष्य और परमेश्वर के बीच एक सामान्य संबंध प्रार्थना पर आधारित होना चाहिए और इसे प्रार्थना के माध्यम से बनाए रखा जाना चाहिए। प्रार्थना परमेश्वर में मनुष्य के विश्वास का प्रतीक है; क्या कोई वास्तव में प्रार्थना करता है, यह परीक्षण करने का एकमात्र मानदंड है कि परमेश्वर के साथ उस व्यक्ति का संबंध सामान्य है या नहीं। यदि कोई प्रार्थना में दिल से निकली बातें कहता है और यदि कोई प्रार्थना में सत्य की खोज कर सकता है, तो वह पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकता है, और यह दर्शाता है कि परमेश्वर के साथ उनका सामान्य संबंध है। यदि कोई शायद ही कभी प्रार्थना करता है और दिल से निकले शब्द बोलने में सक्षम नहीं है, यदि वह हमेशा परमेश्वर के खिलाफ बचाव का रवैया रखता है, तो यह दर्शाता है कि परमेश्वर के साथ उसका संबंध सामान्य नहीं है। और यदि कोई बिल्कुल भी प्रार्थना नहीं करता है, तो यह दर्शाता है कि उसका परमेश्वर के साथ कोई संबंध नहीं है। यदि कोई व्यक्ति अच्छी तरह से और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप प्रार्थना करता है, तो वह उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम होगा और ऐसे व्यक्ति से परमेश्वर प्रेम करता है; जो लोग अक्सर सच्चे मन से प्रार्थना करते हैं वे ईमानदार लोग होते हैं और परमेश्वर के लिए एक साधारण प्रेम रखते हैं। इसलिए, वे सभी जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन उससे प्रार्थना नहीं करते हैं, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध नहीं रखते हैं। वे सभी परमेश्वर से दूर हैं और वे उसके प्रति विद्रोही और प्रतिरोधी हैं। ज्यादातर लोग जो परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हैं वे सत्य के प्रेमी या साधक नहीं हैं और जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं या उसकी खोज नहीं करते हैं वे सच्चे मन से प्रार्थना नहीं कर सकते हैं। उन्हें जो भी कठिनाइयाँ होती हैं, वे प्रार्थना नहीं करते हैं और जब वे प्रार्थना करते हैं, तो वे केवल अपनी कठिनाइयों और पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए परमेश्वर का लाभ उठाना चाहते हैं। वे परमेश्वर के इरादों की परवाह नहीं करते हैं और वे अपनी कठिनाइयों में सत्य के उन पहलुओं की खोज नहीं करते हैं जिनके बारे में उन्हें समझना और प्रवेश करना चाहिए। ऐसे लोग सत्य के लिए लालायित नहीं रहते और परमेश्वर में उनका सच्चा विश्वास नहीं होता है—सार रूप में वे छद्म-विश्वासी हैं। परमेश्वर के विश्वासी के रूप में, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और सभी चीजों में सत्य की खोज करनी चाहिए। भले ही प्रार्थना के तुरंत बाद तुम यह महसूस न करो कि तुम्हारा हृदय उज्ज्वल हो गया है या तुम्हें अभ्यास का मार्ग मिल गया है, फिर भी परमेश्वर की प्रतीक्षा करो और जब तुम प्रतीक्षा करते हो, तो परमेश्वर के वचनों को पढ़ो और सत्य की खोज करो। जब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हो या उपदेश और संगति सुनते हो, तो अपनी समस्याओं को अपने चिंतन और खोज में लाने पर ध्यान केंद्रित करो। यदि तुम इन तरीकों से व्यावहारिक रूप से सहयोग करते हो, तो हो सकता है कि जब तुम परमेश्वर के वचनों पर विचार कर रहे हो या उपदेश और संगति सुन रहे हो, तभी एक चमक के साथ तुममें अंतर्दृष्टि आ जाए। यह भी हो सकता है कि तुम किसी समस्या का सामना करते हो और यह तुम्हें प्रेरित करता है और तुम्हें उस प्रश्न का उत्तर मिल जाता है जिसे तुम हल करने की कोशिश कर रहे हो। क्या यह परमेश्वर का मार्गदर्शन और उसकी व्यवस्था नहीं है? इसलिए, सच्चे मन से परमेश्वर से प्रार्थना करना प्रभावी हो सकता है, लेकिन यह प्रभाव ऐसा नहीं है जिसे तुम प्रार्थना के तुरंत बाद प्राप्त कर सको। इसमें समय लगता है और इसके लिए किसी के सहयोग और अभ्यास की आवश्यकता होती है। कोई यह नहीं कह सकता कि पवित्र आत्मा कब तुम्हें प्रबुद्ध करेगा और तुम्हें उत्तर देगा। यह सत्य की खोज करने और उसे समझने की प्रक्रिया है और यही वह मार्ग है जिस पर चलकर मनुष्य जीवन में आगे बढ़ता है। कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, तुम लोगों को अभी भी यह सीखना बाकी है कि बार-बार प्रार्थना कैसे करें। तुम अभी भी प्रार्थना करना नहीं जानते हो और जब भी तुम किसी समस्या का सामना करते हो, तुम या तो रटे-रटाये शब्द चिल्लाते हो और संकल्प करते हो या परमेश्वर से शिकायत करते हो और अपनी चिंताओं को व्यक्त करते हो, यह कहते हुए कि तुम कैसे कष्ट उठा रहे हो, या फिर अपने आप को तर्कसंगत और उचित ठहराते हो। ये वे चीजें हैं जो तुम्हारे दिल में बसी हैं और इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि तुम लोग सत्य में प्रवेश करने के मामले में इतने धीमे रहे हो। तुम विषय से भटक जाते हो। तुम नहीं जानते कि सत्य का अनुसरण कैसे किया जाए; यह कहना कठिन है कि परमेश्वर में इस तरह विश्वास करना तुम्हारे लिए उद्धार प्राप्त करने के लिए पर्याप्त होगा या नहीं।
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