अन्य विषयों के बारे में वचन (अंश 81)
जो लोग परमेश्वर के रास्ते पर चलते हैं, उन्हें कम से कम अपना सब कुछ त्यागने में सक्षम होना चाहिए। परमेश्वर ने बाइबल में एक बार कहा था, “तुम में से जो कोई अपना सब कुछ त्याग न दे, वह मेरा चेला नहीं हो सकता” (लूका 14:33)। अपने पास जो कुछ भी है, उसे त्यागने से क्या तात्पर्य है? इसका तात्पर्य यह है कि अपने परिवार को त्यागना, अपने कार्य को त्यागना, अपने सभी सांसारिक झंझटों को त्यागना। क्या यह करना आसान है? नहीं, यह बहुत ही कठिन है। ऐसा करने की इच्छाशक्ति न हो तो यह कभी नहीं किया जा सकता। जब किसी व्यक्ति के पास त्यागने की इच्छाशक्ति होती है, तो उसमें स्वाभाविक रूप से कठिनाइयाँ सहने की इच्छाशक्ति होती है। यदि कोई कठिनाइयाँ नहीं सह सकता है, तो वह चाहते हुए भी कुछ त्याग नहीं पाएगा। कुछ ऐसे लोग हैं जो अपने परिवार त्याग चुके हैं और अपने प्रियजनों से दूर हो चुके हैं, पर कुछ दिनों तक अपना कर्तव्य निभाने के बाद उन्हें घर की याद सताने लगती है। यदि वे सच में यह सहन नहीं कर पाते, तो अपने घर का हालचाल लेने के लिए चुपके से वहाँ जाते हैं और फिर अपना कर्तव्य निभाने के लिए वापस आ जाते हैं। कुछ लोग जो अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपना घर छोड़ चुके हैं, उन्हें नववर्ष और अन्य छुट्टियों पर अपने प्रियजनों की बहुत याद आती है और जब रात में बाकी सभी लोग सो जाते हैं, तो वे छिपकर रोते हैं। रोने-धोने के बाद वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और काफी बेहतर महसूस करते हैं, जिसके बाद वे अपने कर्तव्य निभाना जारी रखते हैं। हालाँकि ये लोग अपने परिवारों को त्यागने में सक्षम थे, लेकिन वे अत्यधिक पीड़ा सहने में असमर्थ हैं। यदि वे देह के इन संबंधों के लिए अपनी भावनाओं को भी नहीं त्याग पा रहे हैं, तो वे वास्तव में स्वयं को परमेश्वर के लिए कैसे खपा पाएँगे? कुछ लोग अपना सब कुछ त्याग कर परमेश्वर का अनुसरण करने में सक्षम होते हैं। वे अपनी नौकरी और अपने परिवारों को त्याग देते हैं। लेकिन ऐसा करने में उनका लक्ष्य क्या है? कुछ लोग अनुग्रह और आशीष पाने का प्रयास कर रहे हैं और कुछ पौलुस की तरह केवल ताज और पुरस्कार की ही इच्छा रखते हैं। कुछ लोग सत्य और जीवन पाने और उद्धार हासिल करने के लिए अपना सब कुछ त्याग देते हैं। तो इनमें से कौन सा लक्ष्य परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है? निस्संदेह, यह सत्य की खोज और जीवन प्राप्त करना है। यह पूर्ण रूप से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है और यह परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। यदि कोई व्यक्ति सांसारिक वस्तुएँ या धन नहीं त्याग सकता, तो क्या वह सत्य प्राप्त कर पाएगा? एकदम नहीं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपना सब कुछ त्याग कर अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, लेकिन वे सत्य की खोज नहीं करते और अपने कर्तव्य निभाने में सदैव अनमने रहते हैं। कुछ वर्षों तक इसी तरह कार्य करने के बाद, उनके पास कोई अनुभवात्मक गवाही नहीं होती है और उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया होता है। जो केवल प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा तलाशते हैं और जो मसीह-विरोधियों की राह पर चलते हैं, वे सत्य प्राप्त करने में और भी कम सक्षम हैं। ऐसे कई लोग हैं जिनका परमेश्वर में विश्वास अपने खाली समय में थोड़ा सा कर्तव्य निभाने तक ही सीमित है। क्या ऐसे लोगों के लिए सत्य प्राप्त करना आसान होगा? मुझे लगता है कि यह आसान नहीं होगा। सत्य प्राप्त करना कोई साधारण बात नहीं है। इसके लिए व्यक्ति को अनेक कष्ट सहने होंगे और बड़ी कीमत चुकानी होगी। उसे विशेष तौर पर न्याय और ताड़ना, परीक्षण और शोधन तथा काट-छाँट की कठिनाइयों का अनुभव करना होगा। इन सभी कष्टों को सहना होगा। अत्यधिक पीड़ा सहे बिना कोई सत्य प्राप्त नहीं कर सकता। इस अवधि में किसी व्यक्ति को कितनी बार परमेश्वर की प्रार्थना और सत्य की खोज करनी चाहिए? परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप के कितने आँसू बहाने चाहिए? प्रबुद्ध और रोशन होने के लिए किसी को परमेश्वर के वचनों का कितना पाठ करना चाहिए? शैतान को हरा सकने से पहले किसी को कितनी आध्यात्मिक लड़ाइयां जीतनी होंगी? और इन चीजों का अनुभव करने की प्रक्रिया में कितना समय लगता है? कोई अंततः कितने वर्षों में परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त कर पाता है? पतरस का अनुभव देखोगे तो तुम्हें पता चल जाएगा। क्या परमेश्वर का उद्धार और मनुष्य की पूर्णता उतनी सरल है जितना कि लोग समझते हैं? अपना सर्वस्व त्याग देना कोई साधारण बात नहीं है। सब कुछ त्यागने का वास्तव में क्या मतलब है? “अपने सब कुछ” में केवल बाहरी चीजें, परिवार, प्रियजन व दोस्त और पेशा, वेतन, धन-दौलत और संभावनाओं से भी बढ़कर बहुत कुछ शामिल है। इनसे भी आगे इसमें मन और आत्मा से जुड़ी चीज़ें शामिल हैं : जैसे कि ज्ञान, सीखना, चीजों के बारे में नजरिया, जीने के नियम, दैहिक प्राथमिकताएँ और साथ ही प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा जैसी चीजें जिन्हें लोग पाना या हासिल करना चाहते हैं। अपना सब कुछ त्यागने में मुख्यतः ये चीजें शामिल होती हैं; ये सभी अपना सर्वस्व त्यागने के अर्थ का हिस्सा हैं। बाहरी चीजों को एक झटके में त्याग देना आसान है। लेकिन जो चीजें लोगों को पसंद हैं, जिन्हें वो पाने की कोशिश करते हैं और जो उनके दिल के करीब हैं, जो उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण और मूल्यवान हैं और जो एक तरह से उनके व्यक्तित्व को दर्शाती हैं, उन्हें त्यागना सबसे कठिन है। आज अधिकतर लोगों के त्याग न कर पाने का मुख्य कारण यह है कि वे उन चीजों को छोड़ नहीं सकते, क्योंकि ये वही चीजें हैं जिन्हें वे सबसे अधिक महत्व देते हैं और सँजोकर रखते हैं। उदाहरण के लिए, प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा, या यश और धन, अपनी प्रिय आजीविका या सबसे मूल्यवान चीजें—यही वो सब कुछ है जो किसी के पास होता है और इन्हें ही त्यागना सबसे कठिन है। एक बैंक प्रबंधक था जो परमेश्वर में विश्वास करने लगा था। उसने देखा कि परमेश्वर के वचन वास्तव में सत्य हैं और उसने देखा कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह मनुष्य को बचाने का कार्य है। लेकिन जब उसने अपना सब कुछ त्यागने और परमेश्वर का अनुसरण करने का फैसला किया, तो उसे बैंक में अपने पद के साथ जूझना पड़ा। एक पल वह सोचता, “बैंक में मेरा पद अत्यंत मूल्यवान चीज है। इसमें अच्छी कमाई और प्रभाव है,” और अगले ही पल वह सोचता, “परमेश्वर में विश्वास करके मैं सत्य और शाश्वत जीवन पा सकता हूँ। यही महत्वपूर्ण है।” मन ही मन वह निरंतर एक लड़ाई लड़ रहा था। एक पल में वह बैंक प्रबंधक बना रहना चाहता था और अगले ही पल वह परमेश्वर में विश्वास करना चाहता था। एक क्षण वह पैसा पाना चाहता था और अगले ही क्षण वह सत्य पाना चाहता था। एक पल वह अपना पद हाथ से निकलने नहीं देना चाहता था और अगले ही पल वह शाश्वत जीवन पाना चाहता था। उसका मन इधर-उधर डोलता रहता था। बैंक प्रबंधक के रूप में उसका पद उसके लिए बहुत मूल्यवान था और वह इसे छोड़ नहीं पा रहा था। महीनों तक वह अपने मन में यह लड़ाई लड़ता रहा और अंततः, शायद इच्छा न होने पर भी उसने इसे छोड़ दिया। जो कुछ उसके पास था उसे त्यागना उसके लिए कितना कठिन था! भले ही वह जानता था कि बैंक प्रबंधक के रूप में उसकी स्थिति एक अस्थायी चीज है जो धुएँ के गुबार की तरह गायब हो सकती है, फिर भी उसके लिए इसे छोड़ना आसान नहीं था। कुछ लोग डॉक्टर या वकील या उच्च पदस्थ अधिकारी हैं, और उनका वेतन और आय बहुत ज्यादा है। इन चीजों को त्यागना आसान नहीं है; कौन जानता है कि इन्हें त्यागने के लिए उन्हें अपने भीतर कितने महीनों तक संघर्ष करना होगा। यदि कोई इन चीजों को त्यागने से पहले वर्षों तक संघर्ष करता रहे और तब तक परमेश्वर का कार्य समाप्त हो चुका हो, तो क्या इसका कोई मतलब होगा? तब वह केवल विपत्तियों से घिर सकता है, विलाप कर सकता है और अपने दाँत पीस सकता है। परमेश्वर के राज्य में तुम केवल तभी प्रवेश कर पाओगे जब तुम परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए अपनी सबसे महत्वपूर्ण चीजों को त्याग पाओगे और अपना कर्तव्य निभाओगे और सत्य तथा जीवन पाने के लिए प्रयास करोगे। परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने का अर्थ क्या है? इसका मतलब है कि तुम अपना सब कुछ त्यागने और परमेश्वर का अनुसरण करने, उनके वचनों पर ध्यान देने और उनकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने, हर चीज में उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम हो; इसका मतलब है कि वो तुम्हारा प्रभु और तुम्हारा परमेश्वर बन गया है। परमेश्वर के लिए इसका मतलब है कि तुमने उसके राज्य में प्रवेश पा लिया है और तुम पर चाहे कोई भी विपत्ति आए, तुम्हें उसकी सुरक्षा मिलेगी और तुम बच जाओगे, और तुम उसके राज्य के लोगों में से एक होओगे। परमेश्वर तुम्हें अपने अनुयायी के रूप में स्वीकार करेगा या तुम्हें पूर्ण बनाने का वादा करेगा—लेकिन अपने पहले कदम के रूप में तुम्हें यीशु का अनुसरण करना होगा। केवल तभी तुम्हें राज्य के प्रशिक्षण में कोई भूमिका निभाने का अवसर मिलेगा। यदि तुम यीशु का अनुसरण नहीं करते और परमेश्वर के राज्य के बाहर हो, तो परमेश्वर तुम्हें स्वीकार नहीं करेगा। और यदि परमेश्वर तुम्हें स्वीकार नहीं करता, तो क्या तुम खुद को बचा लिए जाने और परमेश्वर का वादा और उससे पूर्णता पाने की इच्छा के बावजूद यह सब पा सकोगे? तुम नहीं पा सकोगे। यदि तुम परमेश्वर का अनुमोदन पाना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे पहले उसके राज्य में प्रवेश करने लायक बनना होगा। यदि तुम सत्य के अनुसरण के लिए अपना सब कुछ त्याग सकते हो, यदि तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य खोज सकते हो, यदि तुम सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हो और यदि तुम्हारे पास सच्ची अनुभवात्मक गवाही है, तो तुम परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने और उसका वादा हासिल करने के योग्य हो। यदि तुम परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए अपना सब कुछ त्याग नहीं सकते, तो तुम न तो उसके राज्य में प्रवेश करने के योग्य हो, और न ही उसके आशीष और वादे के हकदार। बहुत से लोग अपना सब कुछ त्याग कर परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, फिर भी यह निश्चित नहीं है कि वे सत्य पा सकेंगे। व्यक्ति को सत्य से प्रेम करना चाहिए और उसे प्राप्त कर सकने से पहले उसे स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए। यदि कोई सत्य को पाने का प्रयास नहीं करता है, तो वो इसे पा नहीं सकता। उन लोगों का तो जिक्र ही क्या जो अपने खाली समय में अपने कर्तव्य निभाते हैं—परमेश्वर के कार्य के बारे में उनका अनुभव इतना सीमित है कि उनके लिए सत्य को पाना और भी कठिन होगा। यदि कोई अपना कर्तव्य नहीं निभाता है या सत्य को पाने के लिए प्रयत्नशील नहीं है, तो वह परमेश्वर से उद्धार और पूर्णता प्राप्त करने के अद्भुत अवसर से चूक जाएगा। कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करने का दावा करते हैं, लेकिन अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते और सांसारिक चीजों के पीछे पड़े रहते हैं। क्या यही उनका सब कुछ त्यागना है? यदि कोई परमेश्वर में ऐसे विश्वास करता है, तो क्या वह अंत तक उसका अनुसरण कर पाएगा? प्रभु यीशु के शिष्यों को देखो : उनमें मछुआरे, किसान और एक कर संग्राहक थे। जब प्रभु यीशु ने उन्हें पुकारा और कहा, “मेरे पीछे चले आओ,” तो उन्होंने अपने काम-काज छोड़ दिए और प्रभु का अनुसरण किया। उन्होंने न तो रोजी-रोटी के मुद्दे पर विचार किया, न ही इस बात पर कि बाद में उनके पास दुनिया में जीवित रहने का कोई रास्ता बचेगा या नहीं और वे तुरंत प्रभु यीशु के पीछे चल पड़े। पतरस ने खुद को पूरे दिल से समर्पित करके अंत तक प्रभु यीशु के आदेश का पालन करते हुए अपना कर्तव्य पूरा किया। उसने अपना पूरा जीवन परमेश्वर का प्रेम पाने में लगाया और अंत में परमेश्वर ने उसे पूर्णता प्रदान की। आज कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपना सब कुछ नहीं त्याग सकते, और, फिर भी वे परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना चाहते हैं। क्या वे केवल सपने नहीं देख रहे हैं?
परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए उत्साह होना ही काफी नहीं है। तुम्हें उसके इरादे, लोगों को पूर्णता प्रदान करने का उसका तौर-तरीका, किन लोगों को वह पूर्णता प्रदान करता है और परमेश्वर द्वारा लोगों को पूर्णता प्रदान किए जाने के प्रति जो रुख-रवैया रखना चाहिए, यह सब भी जरूर समझना चाहिए। इसके अलावा, परमेश्वर के अनुयायी के रूप में व्यक्ति को जानना चाहिए कि परमेश्वर के मार्ग पर चलना कितना महत्वपूर्ण है। इसी पर यह निर्भर करता है कि कोई सत्य हासिल कर सकेगा या नहीं। परमेश्वर के मार्ग पर चलने का अर्थ सत्य का आचरण करना है। केवल सत्य का अभ्यास करके ही कोई वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकता है, इसलिए सत्य की प्राप्ति के लिए सत्य का अभ्यास आवश्यक है। यदि कोई सत्य को नहीं समझता या इसका अभ्यास करना नहीं जानता, तो वह इसे किसी भी तरीके से हासिल नहीं कर सकता। यही वजह है कि परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा सत्य का अभ्यास करना है। सत्य का अभ्यास करने वाले ही परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं, वे ही सत्य को पूरी तरह से समझ सकते हैं, और जो सत्य को पूरी तरह से समझते हैं, वे ही परमेश्वर को जानते हैं। ये सभी चीजें सत्य का अभ्यास करने से प्राप्त होती हैं। परमेश्वर पर चाहे जितने लोग विश्वास करें, परमेश्वर यह देखता है कि उनमें से कौन उसके मार्ग का अनुसरण करता है, कौन सत्य का अभ्यास करता है और उनमें से कौन उसके प्रति वास्तव में समर्पित है। परमेश्वर में विश्वास करने वालों को सत्य समझना चाहिए और इसका अभ्यास करना चाहिए ताकि वे उन लोगों में शामिल हो सकें जो परमेश्वर की इच्छा का पालन करते हैं और उसके प्रति समर्पित हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं उन्हें पहले यह समझना चाहिए कि लोगों को अपने जीवन में परमेश्वर पर विश्वास क्यों करना चाहिए, पृथ्वी पर आने के समय से ही मनुष्य को बचाने का कार्य परमेश्वर कैसे कर रहा है, और उद्धार पाने तथा परमेश्वर का वादा और आशीष पाने योग्य बनने से पहले लोगों को सत्य का अनुसरण करते हुए क्या हासिल कर लेना चाहिए। अतीत में, इन सत्यों को कोई नहीं समझता था। हर कोई मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर में विश्वास करता था, और यह सोचता था कि परमेश्वर में विश्वास करने का संबंध आशीष, ताज और पुरस्कार पाने से है। परिणामस्वरूप, वे सभी परमेश्वर के इरादों के विरुद्ध चले गए, सच्चे मार्ग से भटक गए और मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल पड़े। इसीलिए यदि कोई सत्य को समझना और पाना चाहता है और खुद को बचाया जाना चाहता है, तो उसे परमेश्वर पर विश्वास के बारे में अतीत से चले आ रहे ये गलत विचार सुधारने होंगे। खासकर लोगों की धर्म-संबंधी धारणाएँ और कल्पनाएँ तथा उनके धर्मशास्त्रीय विचार बेतुके हैं; वे सभी सत्य विरोधी और ऊपरी तौर पर आकर्षक लगने वाली भ्रांतियाँ हैं। परमेश्वर उन सारे तरीकों को जरा भी नहीं स्वीकार करता जिन पर धर्मावलंबी लोगों का विश्वास है। यदि लोग अब भी उन तौर-तरीकों को जारी रखते हैं और आशीष, ताज और पुरस्कार पाना चाहते हैं—यदि वे इसी प्रकार के दृष्टिकोण के साथ परमेश्वर में विश्वास करना जारी रखते हैं, तो क्या वे सत्य और जीवन प्राप्त कर सकेंगे? बिल्कुल नहीं। तो फिर लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखते हुए कैसा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? तुम्हें इसकी शुरुआत परमेश्वर के इरादे समझने और यह साफ-साफ देखने से करनी चाहिए कि वह लोगों को कैसे बचाता है। यदि तुम सत्य नहीं खोजते, बल्कि अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर में विश्वास करना जारी रखते हो, यदि तुम प्रसिद्धि, लाभ, रुतबे, धन और सांसारिक चीजों के पीछे भागते रहते हो, तो भले ही तुम पूरी दुनिया जीत लो, क्या यह इस लायक होगा कि इसके लिए अंततः अपने जीवन की कीमत चुकाई जाए? कुछ लोग कहते हैं, “जब मैं पर्याप्त पैसे कमा लूँगा, सफल करियर बना लूँगा, जब अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी कर लूँगा और अपने सपने साकार कर लूँगा, तब आकर मैं अच्छा विश्वासी बन जाऊँगा।” क्या परमेश्वर तुम्हारा इंतजार करता है? क्या परमेश्वर का कार्य तुम्हारा इंतजार करता है? यदि तुम इन चीजों को अभी नहीं छोड़ सकते, तो परमेश्वर नहीं कहता कि तुम तुरंत ऐसा करो, लेकिन तुम्हें इन चीजों को छोड़ने का अभ्यास करना चाहिए। यदि तुम सचमुच ऐसा नहीं कर सकते, तो परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर भरोसा करो। उससे मार्गदर्शन लो। इसके साथ ही, तुम्हें सहयोग करना चाहिए और अपने कर्तव्य निभाने चाहिए। कर्तव्य निभाने के पीछे क्या उद्देश्य होता है? दरअसल, इसका उद्देश्य अच्छे कर्मों की तैयारी से है। भले ही तुम अंततः पूरी तरह से पूर्णता प्राप्त न कर सको, फिर भी तुम्हें कम से कम थोड़े-बहुत अच्छे कर्म करने चाहिए, ताकि जब परमेश्वर द्वारा अच्छे लोगों को पुरस्कृत और बुरों को दंडित करने का समय आए, तो तुम उन कर्मों का हिसाब दे सको। परमेश्वर का कार्य एक दिन समाप्त हो जाएगा और वह अच्छे लोगों को पुरस्कृत और बुरे लोगों को दंडित करना शुरू करेगा। वह तुमसे अपने अच्छे कर्म सामने रखने को कहेगा, और यदि तुम्हारे पास कोई अच्छा कर्म नहीं होगा, तो तुम्हारा किस्सा खत्म—तुम्हें निश्चित रूप से दंड मिलेगा। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुमने लगभग दस वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है और तुमने जो सबसे कीमती कर्तव्य निभाया है वह केवल अपने खाली समय में सुसमाचार फैलाना था जिससे कुछ नए लोग परमेश्वर पर विश्वास करने लगे। तुम्हें तो यह भी नहीं पता कि अंत में वे लोग अपने विश्वास में दृढ़ रह सकेंगे या नहीं। क्या तुम परमेश्वर को इसका हिसाब दे सकते हो? तुम जरूर नहीं दे पाओगे। तुम्हें विचार करना चाहिए कि तुम किस तरह के परिणामों का लेखा-जोखा परमेश्वर को दे सकते हो और तुम्हारे पास किस प्रकार की अनुभवात्मक गवाही होनी चाहिए ताकि तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर सको और वह तुम्हारी पहचान अपने अनुयायी के रूप में कर सके। तुम सिर्फ इस बात से संतुष्ट नहीं हो सकते कि तुमने परमेश्वर के वर्तमान देहधारण का तथ्य स्वीकार लिया है और अंत के दिनों के मसीह को अपने दिल में स्वीकार लिया है। परमेश्वर तुममें जो देखना चाहता है वो है तुम्हारी सच्ची अनुभवात्मक गवाही और उसके कार्य के प्रति तुम्हारे समर्पण के फल। परमेश्वर अंत में यही परीक्षा लेगा कि क्या तुमने सत्य प्राप्त कर लिया कि नहीं और क्या तुम्हारे पास जीवन है कि नहीं। तुम्हें परमेश्वर के इरादे समझने ही चाहिए। अगर तुम केवल कलीसिया के रोजनामचे में अपना नाम जुड़वाते हो या कोई कर्तव्य निभाते हो लेकिन सत्य की खोज नहीं करते और परमेश्वर में कुछ वर्षों तक विश्वास रखने के बाद भी तुम्हारे पास कोई अनुभवात्मक गवाही नहीं है, तो क्या परमेश्वर तब भी तुम्हें स्वीकार कर सकता है? यदि परमेश्वर तुम्हें नहीं स्वीकारता, तो तुम उसके घर के बाहर रह जाते हो। अगर तुम केवल परमेश्वर में विश्वास करने का दावा करते हो, लेकिन सत्य की खोज नहीं करते, तो अंत में परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास से क्या हासिल होगा? तुम परमेश्वर के मानकों से बहुत पीछे रह जाओगे! सत्य को प्राप्त करना उतना आसान नहीं है जितना कि लोग मान बैठते हैं; सत्य प्राप्त कर पाने और परमेश्वर को जानने से पहले कई परीक्षणों और तकलीफों, गहन पीड़ा और शोधन की प्रक्रिया से गुजरना होता है। जब तुम परमेश्वर के कार्य के इस तरीके का अनुभव करते हो, अगर तब भी उसका अनुसरण करने के लिए अपना सर्वस्व नहीं त्यागते तो क्या तुम्हें बचाया जा सकता है? क्या तुम अपने थोड़े से खाली समय में परमेश्वर पर विश्वास करने मात्र से उसके कार्य का अनुभव कर सकते हो? तुम यह अनुभव घर में ही परमेश्वर में विश्वास करके किस प्रकार ले सकते हो? तुम बाहरी दुनिया में रह कर यह अनुभव कैसे ले सकते हो? इसीलिए, अपना सर्वस्व त्यागना परमेश्वर का अनुसरण करने की एक शर्त है। यदि तुम अपना सर्वस्व नहीं त्याग सकते, तो तुम सत्य बिल्कुल नहीं पा सकते, और यदि तुम सत्य नहीं पा सकते, तो तुम परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लायक नहीं हो। यह ऐसा तथ्य है जिसे कोई इंसान बदल नहीं सकता।
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