स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

सब वस्तुओं के जीवन का स्रोत परमेश्वर है (IV) भाग दो

परमेश्वर किस प्रकार आत्मिक संसार पर शासन करता है और उसे चलाता है

1. अविश्वासियों का जीवन और मृत्यु चक्र

किसी आत्मा के लिये जन्म लेने के बाद जो भूमिका वे निभाते हैं—इस जीवन में उनकी भूमिका क्या है-किस परिवार में वे जन्म लेते हैं और उनका जीवन किस प्रकार का है, इन सबका उनके पिछले जीवन से गहरा संबंध होता है। मनुष्य के संसार में हर प्रकार के लोग आते हैं, और उनके द्वारा निभाई गई भूमिकाएं भिन्न-भिन्न होती हैं, उनके द्वारा किये गए कार्य भिन्न होते हैं। ये कौन से कार्य हैं? कुछ लोग अपना कर्ज़ चुकाने आते हैं: अगर उन्होंने पिछली ज़िंदगी में किसी से बहुत पैसा उधार लिया है तो वे उसे चुकाने आते हैं। कुछ लोग अपना ऋण उगाहने आते हैं। वे अपने विगत जीवन में अनेक घोटालों के शिकार हुए हैं, उन्होंने अपार धन गंवाया है और इसलिए जब वे आत्मिक संसार में आते हैं तो उसके बाद आत्मिक संसार उन्हें न्याय देगा और उन्हें इस जीवन में अपना कर्जा उगाहने का अवसर देगा। कुछ लोग एहसान चुकाने आये हैं: अपने विगत जीवन के दौरान-अपनी मृत्यु से पूर्व-कोई उन पर दयावान था और इस जीवन में उन्हें एक बड़ा अवसर प्रदान किया गया है कि वे जन्म लें और उस एहसान का बदला चुका सकें। जबकि अन्य अपने जीवन का मुआवज़ा वसूल करने के लिए जन्म लेते हैं और वे किसके जीवन का मुआवज़ा वसूलते हैं? विगत जीवन में जिस व्यक्ति ने उसके प्राण लिये थे सारांश में, प्रत्येक व्यक्ति का वर्तमान जीवन अपने विगत जीवन के साथ प्रगाढ़ रुप से जुड़ा है, वह इस प्रकार जुड़ा है कि पृथक नहीं किया जा सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति का वर्तमान जीवन उसके पूर्व जीवन से गहन रुप में प्रभावित रहता है। उदाहरण के लिये, सांग ने अपनी मृत्यु से पहले ली के साथ एक बड़ी राशि का घोटाला किया। तो क्या सांग ली का ऋणी बन गया? यदि वह ऋणी है तो क्या यह स्वाभाविक है कि ली अपना ऋण सांग से वसूल करे? और इसलिये, उनकी मृत्यु उपरान्त, उनके मध्य एक ऋण है जिसको चुकता किया जाना है और जब वे पुनर्जन्म लेते हैं और सांग मनुष्य बनता है, कहने का अर्थ यह है कि ली सांग के पुत्र के रुप में पुनः उत्पन्न होकर अपना ऋण वसूल करता है, तो ली अपना ऋण कैसे उगाहता है? जिसमें सांग उसका पिता है। इस जीवन में यही होगा, इस वर्तमान जीवन में, ली का पिता सांग खूब धन अर्जित करता है, और वह धन इसके पुत्र ली द्वारा बर्बाद किया जाता है। चाहे सांग कितना भी धन कमाये, उसका पुत्र ली, उसकी "सहायता" उसे व्यय करने में करता है। सांग चाहे कितना भी धन अर्जित करे, वह कभी काफी नहीं होता, इसी बीच उसका पुत्र ली, किसी न किसी कारण से पिता के धन को विभिन्न तरीकों और साधनों से उड़ाता है। सांग असमंजस्य में हैः "यह क्या हो रहा है? क्यों मेरा पुत्र हमेशा से आवारा रहा है? ऐसा क्यों है कि दूसरे लोगों के पुत्र इतने अच्छे हैं? मेरा पुत्र महत्वकांक्षी क्यों नहीं है। वह धन अर्जित करने में इतना बेकार और अयोग्य क्यों है, मुझे क्यों सदा उसकी सहायता करनी पड़ती है? चूंकि मुझे उसे संभालना हैं मैं संभालूंगा, परन्तु ऐसा क्यों है कि चाहे मैं कितना भी धन उसे दूं, वह सदा और अधिक चाहता है? वह कोई ईमानदारी का काम क्यों नहीं करता? वह क्यों एक आवारागर्द है, खाना-पीना, वेश्यावृत्ति और जुएबाजी करना—इन सभी में लगा रहता है? आखिर ये हो क्या हो रहा है?" फिर सांग कुछ समय तक विचार करता है: "कहीं ऐसा तो नहीं कि विगत जीवन में मैं उसका ऋणी रहा हूं? अरे हां, हो सकता था कि विगत जीवन में मैं उसका ऋणी रहा हूँ। तब तो ठीक है, मैं वह कर्ज उतार दूंगा। जब तक मैं पूरा चुकता न कर दूं, यह किस्सा समाप्त होने वाला नहीं है!" वह दिन आ सकता है जब ली ने अपना ऋण वसूल कर लिया हो और जब वह चालीस या पचास वर्ष का हो, तो एक दिन ऐसा आयेगा जब उसे अचानक अक्ल आ जाएगी: "अपने जीवन के पूर्वाद्ध में मैंने एक भी भला काम नहीं किया। मैंने अपने पिता के कमाये हुए धन को लुटाया, मुझे एक अच्छा इन्सान होना चाहिये! मैं स्वयं को मज़बूत बनाऊंगा। मैं एक ऐसा व्यक्ति बनूंगा जो ईमानदार हो और अच्छा जीवन जीता हो। और मैं अपने पिता को कभी दुःख नहीं पहुंचाऊंगा!" वो ऐसा क्यों सोचने लगा? वो अचानक एक बेहतर इंसान कैसे बन गया? क्या इसकी कोई वजह है? क्या वजह है? वास्तव में ऐसा इसलिये है क्योंकि उसने अपना ऋण वसूल कर लिया है, कर्ज चुकता हो चुका है। इसमें कारण और प्रभाव है। कहानी बहुत पहले आरम्भ हुई थी, उन दोनों के पैदा होने से भी पहले, और उनकी ये कहानी वर्तमान तक चली आई। और दोनों में से कोई किसी को दोष नहीं दे सकता। सांग ने अपने पुत्र को चाहे जो सिखाया हो, उसके पुत्र ने कभी नहीं सुना, और एक दिन भी ईमानदारी से कार्य नहीं किया—परन्तु जिस दिन कर्ज चुकता हो गया, उसको सिखाने की कोई आवश्यकता नहीं रही; उसका पुत्र स्वाभाविक रुप से समझ गया। यह एक साधारण-सा उदाहरण है और निःसन्देह ऐसे अनेक उदाहरण हैं। और यह लोगों को क्या संदेश देता है? (कि उन्हें अच्छा बनना चाहिये।) उन्हें कोई बुरा काम नहीं करना चाहिये और उनके बुरे कार्य का प्रतिफल मिलेगा। तुम देख सकते हो कि अधिकांश अविश्वासी बहुत दुष्टता करते हैं और उनकी दुष्टता का उन्हें प्रतिफल भी मिला है, ठीक है? परन्तु क्या यह प्रतिफल एकतरफा है? जिन बातों का प्रतिफल मिलता है उनकी पृष्ठभूमि होती है और एक कारण होता है। क्या तुम सोचते हो कि तुम्हारे किसी के साथ बेईमानी करने के बाद कुछ नहीं होगा? क्या तुम सोचते हो कि उनके साथ धन संबंधी धोखाधड़ी करने के पश्चात् तुम्हें कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ेगा जबकि तुमने उसका धन हड़प लिया है? यह तो असंभव होगा: जैसा करोगे वैसा भरोगे-यह पूर्णतया सत्य है! कहने का अर्थ है कि इससे फर्क नहीं पड़ता कि वे कौन हैं, या वे विश्वास करते हैं अथवा नहीं कि परमेश्वर है, प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यवहार की जवाबदेही लेनी होगी और अपने कार्यो के परिणामों को भुगतने के लिये तैयार रहना होगा। इस साधारण उदाहरण के संबंध में-सांग को दण्डित किया जाना और ली का ऋण चुकाया जाना—क्या यह उचित है? बिल्कुल उचित है। जब लोग इस प्रकार के कार्य करते हैं तो उसी प्रकार का परिणाम मिलता है। और क्या यह आत्मिक संसार के प्रशासन से अलग कर दिया गया है? यह आत्मिक संसार के प्रशासन से पृथक नहीं किया जा सकता; अविश्वासी होने के बावजूद, जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, उनके अस्तित्व को ऐसी स्वर्गीय आज्ञाओं और आदेशों से होकर गुजरना पड़ता है जिनसे कोई बच नहीं सकता; चाहे मानव संसार में उसका पद कितना भी ऊंचा क्यों न हो, इस सच्चाई से कोई बच नहीं सकता।

वे लोग जिन्हें परमेश्वर में विश्वास नहीं है अक्सर इस गलतफहमी में रहते हैं कि वह प्रत्येक चीज़ जिसे देखा जा सकता है अस्तित्व में है, जबकि प्रत्येक वह चीज जिसे देखा नहीं जा सकता, जो लोगों से बहुत दूरी पर है, उसका अस्तित्व नहीं है। वे इस बात पर विश्वास करना अधिक पंसद करते हैं कि "जीवन और मृत्यु चक्र" जैसी कोई चीज नहीं है और कोई "दण्ड" नहीं है और इसलिए वे बिना किसी खेद या अनुताप के पाप और दुष्टता करते हैं—जिसके बाद वे दण्डित किये जाते हैं और वे पशु के रुप में जन्म लेते हैं। अविश्वासियों में से अधिकतर लोग इस पापमय चक्र में फंस जाते हैं। और ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वे इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि आत्मिक संसार समस्त जीवधारियों के संबंध में अपने प्रशासन में सख्त है। चाहे तुम विश्वास करो अथवा नहीं, वह सच्चाई तो है, क्योंकि एक भी व्यक्ति या वस्तु परमेश्वर की आंखों के परिक्षेत्र से बच नहीं सकती और एक भी व्यक्ति या वस्तु स्वर्गीय आज्ञाओं और परमेश्वर के आदेशों के नियमों और उनकी सीमाओं से बच नहीं सकता। और इसलिये मैं तुम में से प्रत्येक को यह साधारण उदाहरण देता हूं; तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो अथवा नहीं, पाप करना और दुष्टतापूर्ण कार्य करना अस्वीकार्य है, इनके दुष्परिणाम होते हैं और यह बिल्कुल सुनिश्चित है। जब धोखे से कोई किसी का धन हड़पता है और दण्डित किया जाता है तो ऐसा दण्ड उचित और तर्कसंगत है और धर्मी है। साधारण रुप से देखे जाने वाले व्यवहार जैसे कि यह है, वे आत्मिक संसार से दण्डित किये जाते हैं, स्वर्गीय आज्ञाओं और परमेश्वर के आदेशों से दण्डित होते हैं और इसलिये गंभीर आपराधिक और दुष्टतापूर्ण व्यवहार—बलात्कार करना, लूटपाट करना, धोखाधड़ी और चालाकी, चोरी और डाका डालना, हत्या और आगजनी और इसी प्रकार की अन्य बातें—अलग अलग प्रकार की सख्ती वाले दण्ड की श्रृंखला के दायरे में आते हैं। और इन कठोर दंड के दायरे में क्या-क्या आता है? उनमें से कुछ में सख्ती के स्तरों का निर्धारण करने के लिये समय का प्रयोग करते हैं, कुछ विभिन्न तरीकों को इस्तेमाल करते हैं और अन्य ऐसा उस माध्यम से करते हैं, जहां लोग जन्म के बाद जाते हैं। उदाहरण के लिये, कुछ लोगों के मुख दुष्टतापूर्ण बातों से भरे रहते हैं। यह दुष्टतापूर्ण बातों से मुख भरा रहना किस बात को बताता है? इसका अर्थ होता है दूसरों को गाली देना और भद्दी भाषा का उपयोग करना, वह भाषा जो दूसरों को शाप देती है। यह भद्दी और गन्दी भाषा क्या दर्शाती है? यह दर्शाती है कि किसी का हृदय दुष्टता से भरा है। गन्दी भाषा जो लोगों को शापित करती है, ऐसे ही लोगों के मुख से निकलती है, और ऐसी गन्दी भाषा के साथ सख्त परिणाम जुड़े होते हैं। ऐसे लोग मरने और उचित दण्ड भोगने के पश्चात पुनः गूंगे या मूक उत्पन्न हो सकते हैं। कुछ लोग, जब वे जीवित रहते हैं तो बडे नाप-जोख वाले होते हैं, वे प्रायः दूसरों का लाभ उठाते हैं। विशेषकर उनकी छोटी-छोटी योजनाएं बहुत सोच-विचार करके बनाई गई होती हैं और वे अधिकतर वही कार्य करते हैं जिनसे दूसरों को अधिक हानि पहुंचे। जब उनका पुनर्जन्म होता है तो वह मंदबुद्धि या मानसिक रुप से विकलांग हो सकते हैं। कुछ लोग दूसरों की एकान्तता में ताका-झांकी करते हैं: उनकी आंखें कुछ-कुछ वह सब देख लेती हैं जिसका साक्षी उन्हें नहीं होना चाहिये था और वे इन बातों को जान लेते हैं जिन्हें उन्हें नहीं जानना चाहिये था और इसलिये जब उनका पुनर्जन्म होता है तो अन्धे उत्पन्न हो सकते हैं। कुछ लोग जीवित अवस्था में बहुत फुर्तीले होते हैं। वे प्रायः झगडते हैं और दुष्टता के बहुत से कार्य करते हैं और इस प्रकार जब उनका पुनर्जन्म होता है तो वे विकलांग, लंगड़े, टुंडे या कुबड़े हो सकते हैं, या टेढ़ी गर्दन वाले हो सकते हैं, लचक कर चलने वाले हो सकते हैं या उनका एक पैर दूसरे की अपेक्षा छोटा हो सकता था आदि-आदि। इसमें उन्हें विभिन्न दण्डों को अपनी जीवित अवस्था में किये गये दुष्टता पूर्ण कार्यो के स्तर के अनुसार भोगना पड़ता है। और तुम क्या कहते हो, लोग भैंगे क्यों होते हैं? क्या ऐसे काफी लोग होते हैं? ऐसे आस-पास बहुत से लोग होते हैं। कुछ लोग भैंगे इसलिये होते हैं क्योंकि उन्होंने विगत जीवनकाल में अपनी आँखों का गलत उपयोग किया, उन्होंने अनेक बुरे कार्य किये और इसलिये जब वे इस जीवन में उत्पन्न होते हैं तब उनकी आँखें भैंगी होती हैं और गंभीर मामलों में वे अन्धे भी होते हैं। यह प्रतिफल है! कुछ लोग अपनी मृत्यु पूर्व दूसरों के साथ बहुत अच्छे से निभाते हैं, वे अपने अपने आस-पास के लोगों के साथ बहुत से अच्छे कार्य करते हैं, जैसे जो उनके प्रिय हैं साथी हैं, या वे लोग हैं जो उनसे जुड़े होते हैं। वे दूसरों की सहायता करते हैं, वे दान देते हैं और दूसरों की चिन्ता करते हैं, या आर्थिक रुप से सहायता करते हैं, लोग उनके बारे में बहुत अच्छी राय रखते हैं और जब ऐसे लोग आत्मिक संसार में वापस आते है तब उन्हें दंडित नहीं किया जाता। एक अविश्वासी को जब किसी प्रकार से दण्डित नहीं किया जाता है तो इसका अर्थ है कि वह बहुत ही अच्छा इन्सान था। परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करने के बजाय, वे केवल आसमान में एक वृद्ध व्यक्ति पर अपना विश्वास रखते हैं। वे केवल इतना ही विश्वास करते हैं कि एक आत्मा है जो ऊपर है और जो कुछ वे करते हैं उसे देखता है—वे केवल इसी बात में विश्वास करते हैं। और इसका क्या परिणाम होता है? लोगों के साथ उनका व्यवहार काफी बेहतर होता है। ये लोग दयालु और दयावान होते हैं और जब अन्ततः वे आत्मिक संसार में वापस जाते हैं तब आत्मिक संसार उनका स्वागत करता है और वे जल्द ही दुनिया में वापस आते हैं और नया जन्म पाते हैं। और वे किस प्रकार के परिवार में आयेंगे? यद्यपि वह धनी नहीं होगा, लेकिन उसका पारिवारिक जीवन शान्तिमय होगा, परिवार के सदस्यों में सामंजस्य होगा, उनके दिन शांति, खुशहाली में गुज़रेंगे, प्रत्येक जन खुशी से भरा होगा और उनका जीवन अच्छा होगा। जब व्यक्ति प्रौढ़ अवस्था को प्राप्त करेगा, तो वह अनेक पुत्र और पुत्रियां उत्पन्न करेगा और उसका परिवार बड़ा होगा, उसकी संतानें गुणवान होंगी और सफलता उनके कदम चूमेगी, और वह तथा उसका परिवार अच्छे भाग्य का आनन्द उठायेगा—और ऐसा परिणाम व्यक्ति के विगत जीवन से जुड़ा होता है। कहने का आशय है कि एक व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन उसके मरने के बाद तक, जब वह फिर से जन्म लेता है तो वह कहां जाएगा, पुरुष होंगे अथवा स्त्री, उनका लक्ष्य क्या है, जीवन में वे क्या क्या भोगेंगे, उनकी बाधाएं, वे किन आशीषों का सुख भोगेंगे, वे किनसे मिलेंगे, उनके साथ क्या होगा—कोई इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकता, इससे न तो कोई बच सकता है, न ही छिप सकता है। कहने का अर्थ है कि तुम्हारे जीवन के मार्ग के निश्चित हो जाने के पश्चात, तुम्हारे साथ क्या होता है उसमें, तुम इससे चाहे कितना भी बचने का प्रयत्न करो, चाहे किसी साधन द्वारा तुम बचने का प्रयास करो, आत्मिक संसार में परमेश्वर ने तुम्हारे लिये जो मार्ग निर्धारित कर दिया है तुम्हारे पास उसके उल्लंघन का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि जब तुम जन्म लेते हो तो तुम्हारा प्रारब्ध पहले ही निश्चित किया जा चुका होता है। चाहे वह अच्छा हो अथवा बुरा, प्रत्येक को इसका सामना करना चाहिये और आगे बढते रहना चाहिये; यह वह विषय है जिससे कोई भी जो इस संसार में जीवित है, बच नहीं सकता, और कोई विषय इससे अधिक वास्तविक नहीं है, ठीक है, तुम इसे पूरी रीति से समझ गये न?

इसे समझ लेने के बाद, क्या तुम देखते हो कि परमेश्वर के पास अविश्वासियों के जीवन-मृत्यु चक्र के लिये बिल्कुल सटीक और कठिन जांच और व्यवस्था है? पहले तो, परमेश्वर ने विभिन्न स्वर्गीय आज्ञाएं, आदेश और रीतियां इस आत्मिक राज्य में स्थापित की हैं, इन स्वर्गीय आज्ञाओं, आदेशों और रीतियों की घोषणा के पश्चात, जैसा कि परमेश्वर ने निर्धारित किया है, आत्मिक संसार में विभिन्न आधिकारिक पदों के द्वारा, उनका कड़ाई से पालन किया जाता है और कोई भी उनका उल्लंघन करने का साहस नहीं करता। और इसलिये मनुष्य के संसार में मानवजाति के जीवन और मृत्यु के चक्र में, चाहे कोई पशु जन्म ले या इंसान, नियम दोनों के लिये हैं। क्योंकि यह नियम परमेश्वर की ओर से आते हैं, उन्हें तोड़ने का कोई साहस नहीं करता, न ही कोई उन्हें तोडने योग्य है। यह केवल परमेश्वर के ऐसे प्रभुत्व के कारण ही है और इस कारण है क्योंकि ऐसे नियम हैं, कि भौतिक संसार जिसे लोग देखते हैं, नियमित और क्रमबद्ध है; यह परमेश्वर की ऐसी सार्वभौमिकता के कारण ही है कि मनुष्य इस योग्य है कि वह शान्ति से उस दूसरे संसार के साथ जो मनुष्य के लिये पूर्णरुप से अदृश्य है, अपना सह-अस्तित्व बनाये रखता है और उसके साथ ताल-मेल बनाकर रहता है—जो पूर्णरुप से परमेश्वर की प्रभुता से अनुलंघनीय है। एक आत्मा के देह छोडने के बाद भी, आत्मा में जीवन रहता है और यदि वह परमेश्वर के प्रशासन से रहित होता तो क्या होगा? आत्मा हर स्थान पर भटकती, हर स्थान में बाधा डालती, और मनुष्य के संसार में जीवधारियों को भी हानि पहुंचाएगी। यह हानि न केवल मनुष्य जाति की ही नहीं होती, बल्कि वनस्पति और पशुओं की ओर भी होती—लेकिन पहली हानि लोगों की होती। यदि ऐसा होता-यदि ऐसी आत्मा व्यवस्थारहित होती, और वाकई लोगों को हानि पहुंचाती, वाकई दुष्ट कार्य करती—तो ऐसे आत्मा को आत्मिक जगत में ठीक से संभाला जाता। यदि मामला गंभीर होता तो आत्मा का अस्तित्व समाप्त हो जाता, वह नष्ट हो जाती; यदि संभव हो तो, उसे कहीं रखा जायेगा और उसका पुनर्जन्म होगा। कहने का आशय है कि आत्मिक संसार में विभिन्न आत्माओं का प्रशासन व्यवस्थित होता है और चरणबद्ध तथा नियमों के अनुसार होता है। यह ऐसे प्रशासन के कारण है कि मनुष्य के भौतिक संसार में अराजकता नहीं फैली है, भौतिक संसार के मनुष्य में एक सामान्य मानसिकता है, साधारण तर्कशक्ति है और एक अनुशासित दैहिक जीवन है। मानवजाति के ऐसे सामान्य जीवन के बाद ही बाकी जो देह में जीवनयापन कर रहे हैं, फलते-फूलते रह सकेंगे और पीढ़ी दर पीढ़ी संतान उत्पन्न कर सकेंगे।

अभी तुमने जिन बातों को सुना है उनके विषय में तुम क्या सोचते हो? क्या वे तुम्हारे लिये नये हैं? और आज जब मैंने इन बातों को कहा है तो तुम्हें कैसा लगता है? वे बातें नई हैं, इस बात के अतिरिक्त क्या तुम कुछ और महसूस करते हो? मुझे बताओ। (लोगों को अच्छे व्यवहार वाला होना चाहिये, और मैं देखता हूं परमेश्वर महान और भयभीत करने वाला है।) (मैं परमेश्वर के प्रति अधिक भक्ति-भाव अनुभव करता हूं, यदि भविष्य में मुझे कुछ होता है तो मैं अधिक सचेत रहूंगा, मैं जो कहता हूं और जो करता हूं उसके प्रति में अधिक अनुशासित रहूंगा।) (विभिन्न प्रकार के लोगों के अंत से परमेश्वर कैसे निपटता है, इस विषय पर अभी परमेश्वर का संवाद सुनने के बाद, एक तरह से मुझे लगता है कि परमेश्वर का स्वभाव किसी प्रतिरोध की अनुमति नहीं देता, और मुझे उसकी भक्ति करनी चाहिये; और अन्य तरीके से, मैं इस बात को जानता हूं कि परमेश्वर किस प्रकार के लोगों को पसंद करता है और किस प्रकार के लोगों को पसंद नहीं करता, और इसलिये मैं उनमें से एक बनना चाहूंगा जिन्हें परमेश्वर पसंद करता है।) क्या तुम देखते हो कि इस क्षेत्र में परमेश्वर के कार्य सैद्धांतिक हैं? वे कौन से सिद्धांत हैं जिनके द्वारा वह कार्य करता है? (लोग जो कार्य करते हैं, उन्हीं के अनुसार वह लोगों का अन्त तय करता है।) यह अविश्वासियों के विभिन्न अंजामों के विषय में है जिनकी हमने अभी-अभी बात की। जब अविश्वासियों की बात आती है, तो क्या परमेश्वर की कार्यवाइयों की पृष्ठभूमि में भलों को प्रतिफल देने और दुष्टों को दण्ड देने का सिद्धांत है? क्या तुम देखते हो कि परमेश्वर की कार्यवाई के लिये एक सिद्धांत है? तुम्हें यह देखने योग्य होना चाहिये कि एक सिद्धांत है। वास्तव में अविश्वासी परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, वे परमेश्वर के आयोजन को नहीं मानते और वे परमेश्वर के प्रभुत्व से अनभिज्ञ हैं, परमेश्वर को स्वीकारने की तो बात ही क्या है। अधिक गंभीर बात यह है कि वे परमेश्वर की निन्दा करते हैं और उसे बुरा भला कहते हैं, और उन लोगों के प्रति हिंसक हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं। यद्यपि इन लोगों का परमेश्वर के प्रति ऐसा रवैया है, फिर भी उनके प्रति परमेश्वर की व्यवस्था अपने सिद्धांतो से विचलित नहीं होती; वह अपने सिद्धांतों और स्वभाव के अनुरूप व्यवस्थित रूप से उनका प्रबंधन करता है। परमेश्वर उनके हिंसात्मक रवैये को किस प्रकार लेता है? नादानी की तरह! और इसलिए उसने इन लोगों को-अविश्वासियों में से अधिकतर को—एक बार पशु के रूप में जन्म दिया है। तो अविश्वासी परमेश्वर की दृष्टि में क्या है? (मवेशी।) परमेश्वर की दृष्टि में वे इसी प्रकार के हैं, वे मवेशी हैं। परमेश्वर मवेशियों का बंदोबस्त करता है, और वह मनुष्यों का बंदोबस्त करता है और इस प्रकार के लोगों के लिये उसके सिद्धांत एक समान हैं। इन लोगों के प्रशासन में और उनके प्रति परमेश्वर की कार्यवाइयों में, अभी भी परमेश्वर के स्वभाव को और सभी चीज़ों पर उसकी प्रभुता के विषय में कानून को देखा जा सकता है। अत:, क्या तुम उन सिद्धांतों में परमेश्वर की प्रभुता देखते हो जिनके द्वारा वह अविश्वासियों का बन्दोबस्त करता है जिसके विषय में मैंने अभी बताया? क्या तुम परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को देखते हो? (हां, हम देखते हैं।) तुम उसके प्रभुत्व और उसके स्वभाव को देखते हो। और कहने का अर्थ है कि वह किसी भी चीज़ से निपटे, परमेश्वर अपने ही सिद्धांतों और स्वभाव के अनुसार कार्य करता है। यही परमेश्वर का तत्व है। वह आमतौर पर अपने सिद्धांतों या स्वर्गीय नियमों को नहीं तोड़ता जो उसने स्थापित किए हैं, क्योंकि वह ऐसे लोगों को मवेशी के रूप में देखता है; परमेश्वर ज़रा भी इधर-उधर भटके बिना, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है, किसी भी कारण का उसकी कार्यवाइयों पर बिल्कुल भी प्रभाव नहीं पड़ता, और चाहे वह कुछ भी करे, वह सब उसके सिद्धांतों के अन्तर्गत होता है। इस बात का निर्णय इस तथ्य के द्वारा होता है कि परमेश्वर के पास स्वयं परमेश्वर का तत्व है, जो एक अद्वितीय तत्व, जो किसी रचे गए जीव के पास नहीं होता। परमेश्वर हर वस्तु, हर व्यक्ति, और जो कुछ भी उसने रचा है, उन सभी चीज़ों के मध्य जीव की देखभाल में, नज़रिये में, उनके प्रबंधन में, प्रशासन में न्यायपरायण और उत्तरदायी है, और इसमें वह कभी भी लापरवाह नहीं रहा है। जो अच्छे हैं, वह उनके प्रति अनुग्रही और दयावान है; जो दुष्ट हैं, उन्हें वह निर्ममता से दंड देता है; और विभिन्न जीवों के लिये, वह समयानुकूल और नियमित रूप से, विभिन्न समयों पर मानवजाति के संसार की आवश्यकता अनुसार उचित प्रबंध करता है इस प्रकार करता है कि विभिन्न जीव व्यवस्थित रूप से अपनी-अपनी भूमिकाओं के अनुसार जन्म लेते रहें, और व्यवस्थित रूप से भौतिक जगत और आत्मिक जगत के मध्य आवागमन करते रहें। यही वह है जिसे मनुष्यों को समझना और जानना चाहिये।

एक जीवधारी की मृत्यु-भौतिक जीवन का अंत—ये दर्शाता है कि एक जीवधारी भौतिक संसार से आत्मिक संसार में चला गया है, जबकि एक भौतिक जीवन के जन्म का तात्पर्य ये है कि एक जीवधारी आत्मिक संसार से भौतिक संसार में आया है और उसने अपनी भूमिका ग्रहण कर ली है और उसे निभाना आरम्भ कर दिया है। चाहे एक जीवधारी का आगमन हो अथवा गमन, दोनों आत्मिक जगत के कार्य से अटूट रूप से जुड़े हुए हैं। जब कोई भौतिक संसार में आता है तो परमेश्वर द्वारा आत्मिक जगत में उस परिवार के लिये, जिसमें उसे जाना है उस युग में जिसमें वे आते हैं उस पहर में जिसमें वे आते हैं, और वो भूमिका जो उन्हें निभानी है, उचित प्रबंध और व्याख्याएं पहले ही तैयार की जा चुकी होती हैं। और इसलिए इस व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन—जो काम वह करता है, और जो मार्ग वो चुनता है—आत्मिक संसार की व्यवस्थाओं के अनुसार चलता है, जिसमें लेशमात्र की भी त्रुटि नहीं होती है। जिस समय पर भौतिक जीवन समाप्त होता, और जिस तरह और जिस स्थान पर समाप्त होता है, आत्मिक जगत के सामने वह स्पष्ट और प्रत्यक्ष होता है। परमेश्वर भौतिक संसार पर राज्य करता है, और वह आत्मिक जगत पर राज्य करता है, और वह किसी आत्मा के जीवन और मृत्यु के साधारण चक्र में देरी नहीं करेगा, न ही वह आत्मा के जीवन और मृत्यु चक्र के प्रबंधन में किसी प्रकार की गलती कर सकता है। आत्मिक जगत में आधिकारिक पदों पर आसीन प्रत्येक दूत अपने कार्यों को पूरा करता है, और परमेश्वर के निर्देशों और नियमों के अनुसार जो उसे करना चाहिये उसे करता है। और इसलिये मनुष्यों के संसार में, कोई भी भौतिक घटना व्यवस्थित रूप में घटित होती, और उसमें कोई गडबडी नहीं होती। यह सब कुछ इसलिये है कि सब वस्तुओं के विषय में परमेश्वर के नियम सुचारु हैं, और इसके साथ ही क्योंकि परमेश्वर का आधिपत्य प्रत्येक वस्तु पर है, और जिन चीज़ों पर उसका आधिपत्य है उसमें भौतिक संसार सम्मिलित है जिसमें मनुष्य रहता है और इसके अतिरिक्त, मनुष्य के पीछे का वह अदृश्य आत्मिक जगत भी। और इसलिये, यदि मनुष्य एक अच्छा जीवन चाहता है, और एक अच्छे वातावरण में रहना चाहता है, सम्पूर्ण दृश्य भौतिक जगत के अलावा, जो उसे दिया गया है, मनुष्य को आत्मिक संसार भी दिया जाना चाहिए, जिसे कोई भी देख नहीं सकता, जो मनुष्यों की ओर से प्रत्येक जीवधारी का संचालन करता है और जो सुचारु है। इस प्रकार, जब यह कहा जाता है कि सब वस्तुओं के जीवन के लिये परमेश्वर ही मूल है, तो क्या "सब वस्तुओं" के अर्थ की अपनी जानकारी और समझ में हमने कुछ जोड़ा नहीं है?

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