स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II

परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव भाग दो

सच्चे पश्चात्ताप के जरिये मनुष्य परमेश्वर की दया और सहनशीलता प्राप्त करता है

आगे बाइबल की "परमेश्वर द्वारा नीनवे के उद्धार" की कहानी दी गई है।

योना 1:1-2 यहोवा का यह वचन अमित्तै के पुत्र योना के पास पहुँचा: "उठकर उस बड़े नगर नीनवे को जा, और उसके विरुद्ध प्रचार कर; क्योंकि उसकी बुराई मेरी दृष्‍टि में बढ़ गई है।"

योना 3 तब यहोवा का यह वचन दूसरी बार योना के पास पहुँचा: "उठकर उस बड़े नगर नीनवे को जा, और जो बात मैं तुझ से कहूँगा, उसका उस में प्रचार कर।" तब योना यहोवा के वचन के अनुसार नीनवे को गया। नीनवे एक बहुत बड़ा नगर था, वह तीन दिन की यात्रा का था। योना ने नगर में प्रवेश करके एक दिन की यात्रा पूरी की, और यह प्रचार करता गया, "अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा।" तब नीनवे के मनुष्यों ने परमेश्‍वर के वचन की प्रतीति की; और उपवास का प्रचार किया गया और बड़े से लेकर छोटे तक सभों ने टाट ओढ़ा। तब यह समाचार नीनवे के राजा के कान में पहुँचा; और उसने सिंहासन पर से उठ, अपने राजकीय वस्त्र उतारकर टाट ओढ़ लिया, और राख पर बैठ गया। राजा ने प्रधानों से सम्मति लेकर नीनवे में इस आज्ञा का ढिंढोरा पिटवाया: "क्या मनुष्य, क्या गाय-बैल, क्या भेड़-बकरी, या अन्य पशु, कोई कुछ भी न खाए; वे न खाएँ और न पानी पीएँ। मनुष्य और पशु दोनों टाट ओढ़ें, और वे परमेश्‍वर की दोहाई चिल्‍ला-चिल्‍ला कर दें; और अपने कुमार्ग से फिरें; और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्‍चाताप करें। सम्भव है, परमेश्‍वर दया करे और अपनी इच्छा बदल दे, और उसका भड़का हुआ कोप शान्त हो जाए और हम नष्‍ट होने से बच जाएँ।" जब परमेश्‍वर ने उनके कामों को देखा, कि वे कुमार्ग से फिर रहे हैं, तब परमेश्‍वर ने अपनी इच्छा बदल दी, और उनकी जो हानि करने की ठानी थी, उसको न किया।

योना 4 यह बात योना को बहुत ही बुरी लगी, और उसका क्रोध भड़का। उसने यहोवा से यह कहकर प्रार्थना की, "हे यहोवा, जब मैं अपने देश में था, तब क्या मैं यही बात न कहता था? इसी कारण मैं ने तेरी आज्ञा सुनते ही तर्शीश को भाग जाने के लिये फुर्ती की; क्योंकि मैं जानता था कि तू अनुग्रहकारी और दयालु परमेश्‍वर है, और विलम्ब से कोप करनेवाला करुणानिधान है, और दु:ख देने से प्रसन्न नहीं होता। इसलिये अब हे यहोवा, मेरा प्राण ले ले; क्योंकि मेरे लिये जीवित रहने से मरना ही भला है।" यहोवा ने कहा, "तेरा जो क्रोध भड़का है, क्या वह उचित है?" इस पर योना उस नगर से निकलकर, उसकी पूरब ओर बैठ गया; और वहाँ एक छप्पर बनाकर उसकी छाया में बैठा हुआ यह देखने लगा कि नगर का क्या होगा? तब यहोवा परमेश्‍वर ने एक रेंड़ का पेड़ उगाकर ऐसा बढ़ाया कि योना के सिर पर छाया हो, जिससे उसका दु:ख दूर हो। योना उस रेंड़ के पेड़ के कारण बहुत ही आनन्दित हुआ। सबेरे जब पौ फटने लगी, तब परमेश्‍वर ने एक कीड़े को भेजा, जिस ने रेंड़ का पेड़ ऐसा काटा कि वह सूख गया। जब सूर्य उगा, तब परमेश्‍वर ने पुरवाई बहाकर लू चलाई, और धूप योना के सिर पर ऐसी लगी कि वह मूर्च्छित होने लगा; और उसने यह कहकर मृत्यु माँगी, "मेरे लिये जीवित रहने से मरना ही अच्छा है।" परमेश्‍वर ने योना से कहा, "तेरा क्रोध, जो रेंड़ के पेड़ के कारण भड़का है, क्या वह उचित है?" उसने कहा, "हाँ, मेरा जो क्रोध भड़का है वह अच्छा ही है, वरन् क्रोध के मारे मरना भी अच्छा होता।" तब यहोवा ने कहा, "जिस रेंड़ के पेड़ के लिये तू ने कुछ परिश्रम नहीं किया, न उसको बढ़ाया, जो एक ही रात में हुआ, और एक ही रात में नष्‍ट भी हुआ; उस पर तू ने तरस खाई है। फिर यह बड़ा नगर नीनवे, जिसमें एक लाख बीस हज़ार से अधिक मनुष्य हैं जो अपने दाहिने बाएँ हाथों का भेद नहीं पहिचानते, और बहुत से घरेलू पशु भी उसमें रहते हैं, तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊँ?"

नीनवे की कहानी का सारांश

यद्यपि "परमेश्वर द्वारा नीनवे के उद्धार" की कहानी बहुत छोटी है, फिर भी यह व्यक्ति को परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के दूसरे पहलू की झलक दिखाती है। यह समझने के लिए कि उस दूसरे पहलू में वास्तव में क्या है, हमें पवित्रशास्त्र की ओर लौटना होगा और परमेश्वर के एक कृत्य की समीक्षा करनी होगी, जो उसने अपने कार्य की प्रक्रिया में किया था।

पहले हम इस कहानी की शुरुआत पर गौर करते हैं : "यहोवा का यह वचन अमित्तै के पुत्र योना के पास पहुँचा: 'उठकर उस बड़े नगर नीनवे को जा, और उसके विरुद्ध प्रचार कर; क्योंकि उसकी बुराई मेरी दृष्‍टि में बढ़ गई है'" (योना 1:1-2)। पवित्रशास्त्र के इस अंश में, हम जानते हैं कि यहोवा परमेश्वर ने योना को नीनवे शहर जाने का आदेश दिया था। उसने योना को इस नगर में जाने का आदेश क्यों दिया था? बाइबल इसके विषय में बहुत स्पष्ट है : इस नगर के लोगों की दुष्टता यहोवा परमेश्वर की नज़रों में आ गई थी, और इसलिए उसने उस बात की घोषणा करने के लिए योना को उनके पास भेजा था, जो वह करना चाहता था। हालाँकि उसमें ऐसा कुछ भी दर्ज नहीं है, जो हमें यह बता सके कि योना कौन था, किंतु वास्तव में इसका संबंध परमेश्वर को जानने से नहीं है, और इसलिए तुम लोगों को इस मनुष्य, योना को समझने की आवश्यकता नहीं है। तुम लोगों को केवल यह जानने की आवश्यकता है कि परमेश्वर ने योना को क्या करने का आदेश दिया था और ऐसा करने के पीछे परमेश्वर के क्या कारण थे।

यहोवा परमेश्वर की चेतावनी नीनवे के लोगों तक पहुँचती है

हम दूसरे अंश, योना की पुस्तक के तीसरे अध्याय पर चलते हैं : "योना ने नगर में प्रवेश करके एक दिन की यात्रा पूरी की, और यह प्रचार करता गया, 'अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा।'" ये वे वचन हैं, जो परमेश्वर ने नीनवे के लोगों को बताने के लिए सीधे योना को दिए थे, इसलिए निस्संदेह, ये वे वचन हैं, जिन्हें यहोवा नीनवे के लोगों से कहना चाहता था। ये वचन लोगों को बताते हैं कि परमेश्वर ने नगर के लोगों से घृणा करनी शुरू कर दी थी, क्योंकि उनकी दुष्टता उसकी नज़रों में आ गई थी, और इसलिए वह इस नगर को नष्ट करना चाहता था। किंतु नगर को नष्ट करने से पहले परमेश्वर नीनवे के नागरिकों के लिए एक घोषणा करेगा, और साथ ही वह उन्हें अपनी दुष्टता के लिए पश्चात्ताप करने और नए सिरे से शुरुआत करने का एक अवसर देगा। यह अवसर चालीस दिन तक रहेगा, इससे ज्यादा नहीं। दूसरे शब्दों में, यदि नगर में रहने वाले लोगों ने चालीस दिनों के भीतर पश्चात्ताप न किया, अपने पाप स्वीकार न किए या यहोवा परमेश्वर के सामने दंडवत न किया, तो परमेश्वर इस नगर को वैसे ही नष्ट कर देगा, जैसे उसने सदोम को नष्ट किया था। यहोवा परमेश्वर यही बात नीनवे के लोगों से कहना चाहता था। साफ बात है, यह कोई सामान्य घोषणा नहीं थी। इस बात ने लोगों को न केवल यहोवा परमेश्वर के क्रोध से अवगत कराया, बल्कि इससे नीनवे के लोगों के प्रति उसका रवैया भी ज़ाहिर हो गया, और साथ ही नगर के भीतर रहने वाले लोगों के लिए एक गंभीर चेतावनी के रूप में भी काम किया। इस चेतावनी ने उन्हें बताया कि अपने बुरे कार्यों से उन्होंने यहोवा परमेश्वर की घृणा को न्योता दिया है, और उनके दुष्कर्म उन्हें शीघ्र ही तबाही के कगार पर पहुँचा देंगे। इसलिए नीनवे के हर निवासी का जीवन आसन्न संकट में था।

यहोवा परमेश्वर की चेतावनी के प्रति नीनवे और सदोम की प्रतिक्रिया में स्पष्ट अंतर

उखाड़ फेंकने का क्या अर्थ है? बोलचाल की भाषा में इसका अर्थ है मौजूद न रहना। लेकिन किस तरह? कौन एक पूरे नगर को उखाड़कर फेंक सकता है? निस्संदेह मनुष्य के लिए ऐसा काम करना असंभव है। नीनवे के लोग मूर्ख नहीं थे; ज्यों ही उन्होंने इस घोषणा को सुना, त्यों ही वे इसके अभिप्राय को समझ गए। वे जानते थे कि घोषणा परमेश्वर की ओर से आई है, वे जानते थे कि परमेश्वर अपना कार्य करने जा रहा है, और वे जानते थे कि उनकी दुष्टता ने यहोवा परमेश्वर को क्रोधित कर दिया है, इसीलिए उसका क्रोध उन पर बरस रहा है, जिससे वे शीघ्र ही अपने नगर के साथ नष्ट हो जाने वाले हैं। यहोवा परमेश्वर की चेतावनी सुनने के बाद नगर के लोगों ने कैसा व्यवहार किया? बाइबल राजा से लेकर आम आदमी तक, सभी लोगों की प्रतिक्रिया का बहुत विस्तार से वर्णन करती है। पवित्रशास्त्र में ये वचन दर्ज हैं : "तब नीनवे के मनुष्यों ने परमेश्‍वर के वचन की प्रतीति की; और उपवास का प्रचार किया गया और बड़े से लेकर छोटे तक सभों ने टाट ओढ़ा। तब यह समाचार नीनवे के राजा के कान में पहुँचा; और उसने सिंहासन पर से उठ, अपने राजकीय वस्त्र उतारकर टाट ओढ़ लिया, और राख पर बैठ गया। राजा ने प्रधानों से सम्मति लेकर नीनवे में इस आज्ञा का ढिंढोरा पिटवाया: 'क्या मनुष्य, क्या गाय-बैल, क्या भेड़-बकरी, या अन्य पशु, कोई कुछ भी न खाए; वे न खाएँ और न पानी पीएँ। मनुष्य और पशु दोनों टाट ओढ़ें, और वे परमेश्‍वर की दोहाई चिल्‍ला-चिल्‍ला कर दें; और अपने कुमार्ग से फिरें; और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्‍चाताप करें।'"

यहोवा परमेश्वर की घोषणा सुनने के बाद नीनवे के लोगों ने सदोम के लोगों के रवैये से ठीक विपरीत रवैया दिखाया—जहाँ सदोम के लोगों ने खुले तौर पर परमेश्वर का विरोध किया और बुरे से बुरा कार्य करते चले गए, वहीं नीनवे के लोगों ने इन वचनों को सुनने के बाद इस मामले को नज़रअंदाज़ नहीं किया, और न ही उन्होंने प्रतिरोध किया। इसके बजाय उन्होंने परमेश्वर पर विश्वास किया और उपवास की घोषणा कर दी। "विश्वास किया" शब्दों का यहाँ क्या अर्थ है? ये शब्द विश्वास और समर्पण की ओर संकेत करते हैं। यदि हम इन शब्दों की व्याख्या करने के लिए नीनवे के लोगों के वास्तविक व्यवहार का उपयोग करें, तो इनका अर्थ यह है कि उन्होंने विश्वास किया कि परमेश्वर ने जैसा कहा है, वह वैसा कर सकता है और करेगा, और कि वे पश्चात्ताप करने के लिए तैयार थे। क्या नीनवे के लोग आसन्न आपदा से डर गए? यह उनका विश्वास था, जिसने उनके हृदय में भय पैदा कर दिया था। तो नीनवे के लोगों के विश्वास और भय को प्रमाणित करने के लिए हम किस चीज़ का उपयोग कर सकते हैं? जैसा कि बाइबल कहती है : "... उपवास का प्रचार किया गया और बड़े से लेकर छोटे तक सभों ने टाट ओढ़ा।" कहने का तात्पर्य है कि नीनवे के लोगों ने सच में विश्वास किया, और इस विश्वास से भय उत्पन्न हुआ, जिसने तब उन्हें उपवास करने और टाट ओढ़ने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार उन्होंने दिखाया कि वे पश्चात्ताप करना शुरू कर रहे हैं। सदोम के लोगों के बिलकुल विपरीत, नीनवे के लोगों ने न केवल परमेश्वर का विरोध नहीं किया, बल्कि उन्होंने अपने व्यवहार और कार्यों के जरिये स्पष्ट रूप से अपना पश्चात्ताप भी दिखाया। निस्संदेह, ऐसा नीनवे के सभी लोगों ने किया, केवल आम लोगों ने नहीं—राजा भी इसका अपवाद नहीं था।

नीनवे के राजा का पश्चात्ताप यहोवा परमेश्वर की प्रशंसा पाता है

जब नीनवे के राजा ने यह समाचार सुना, तो वह अपने सिंहासन से उठा खड़ा हुआ, उसने अपने वस्त्र उतार डाले और टाट पहनकर राख में बैठ गया। तब उसने घोषणा की कि नगर में किसी को भी कुछ भी चखने की अनुमति नहीं दी जाएगी, और किसी भेड़, बैल या अन्य मवेशी को घास-पानी नहीं दिया जाएगा। मनुष्य और पशु दोनों को एक-समान टाट ओढ़ना था, और लोगों को बड़ी लगन से परमेश्वर से विनती करनी थी। राजा ने यह घोषणा भी की कि उनमें से प्रत्येक अपने बुरे मार्ग को छोड़ देगा और हिंसा का त्याग कर देगा। उसके द्वारा लगातार किए गए इन कार्यों को देखते हुए, नीनवे के राजा के हृदय में सच्चा पश्चात्ताप था। उसके द्वारा किए गए ये कार्य—अपने सिंहासन से उठ खड़ा होना, अपने राजकीय वस्त्र उतार देना, टाट ओढ़ना और राख में बैठ जाना—लोगों को बताता है कि नीनवे का राजा अपने शाही रुतबे को छोड़ रहा था और आम लोगों के साथ टाट ओढ़ रहा था। कहने का तात्पर्य है कि नीनवे का राजा यहोवा परमेश्वर से आई घोषणा सुनने के बाद अपने बुरे मार्ग पर चलते रहने या अपने हाथों से हिंसा जारी रखने के लिए अपने शाही पद पर जमा नहीं रहा; बल्कि उसने अपने अधिकार को दरकिनार कर यहोवा परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप किया। इस समय नीनवे का राजा एक राजा के रूप में पश्चात्ताप नहीं कर रहा था; बल्कि वह परमेश्वर की एक सामान्य प्रजा के रूप में अपने पाप स्वीकार करने और पश्चात्ताप करने के लिए परमेश्वर के सामने आया था। इतना ही नहीं, उसने पूरे शहर से भी उसी तरह यहोवा परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करने और अपने पाप स्वीकार करने के लिए कहा, जिस तरह उसने किया था; इसके अलावा, उसके पास एक विशिष्ट योजना भी थी कि ऐसा कैसे किया जाए, जैसा कि पवित्रशास्त्र में देखने को मिलता है : "क्या मनुष्य, क्या गाय-बैल, क्या भेड़-बकरी, या अन्य पशु, कोई कुछ भी न खाए; वे न खाएँ और न पानी पीएँ। ... और वे परमेश्‍वर की दोहाई चिल्‍ला-चिल्‍ला कर दें; और अपने कुमार्ग से फिरें; और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्‍चाताप करें।" नगर का शासक होने के नाते, नीनवे का राजा उच्चतम हैसियत और सामर्थ्य रखता था और जो चाहता, कर सकता था। यहोवा परमेश्वर की घोषणा सामने आने पर वह उस मामले को नज़रअंदाज़ कर सकता था या बस यों ही अकेले अपने पापों का प्रायश्चित कर सकता था और उन्हें स्वीकार कर सकता था; नगर के लोग पश्चात्ताप करें या न करें, वह इस मामले को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर सकता था। किंतु नीनवे के राजा ने ऐसा बिलकुल नहीं किया। उसने न केवल अपने सिंहासन से उठकर टाट ओढ़कर और राख मलकर यहोवा परमेश्वर के सामने अपने पाप स्वीकार किए और पश्चात्ताप किया, बल्कि उसने अपने नगर के सभी लोगों और पशुओं को भी ऐसा करने का आदेश दिया। यहाँ तक कि उसने लोगों को आदेश दिया कि "परमेश्वर की दोहाई चिल्ला चिल्लाकर दो।" कार्यों की इस शृंखला के जरिये नीनवे के राजा ने सच में वह किया, जो एक शासक को करना चाहिए। उसके द्वारा किए गए कार्यों की शृंखला ऐसी है, जिसे करना मानव-इतिहास में किसी भी राजा के लिए कठिन था, और निस्संदेह, कोई अन्य राजा ये कार्य नहीं कर पाया। ये कार्य मानव-इतिहास में अभूतपूर्व कहे जा सकते हैं, और ये मानवजाति द्वारा स्मरण और अनुकरण दोनों के योग्य हैं। मनुष्य की उत्पत्ति के समय से ही, प्रत्येक राजा ने परमेश्वर का प्रतिरोध और विरोध करने में अपनी प्रजा की अगुआई की है। किसी ने भी कभी अपनी दुष्टता से छुटकारा पाने, यहोवा परमेश्वर से क्षमा पाने और आने वाले दंड से बचने के लिए परमेश्वर से विनती करने हेतु अपनी प्रजा की अगुआई नहीं की। किंतु नीनवे का राजा परमेश्वर की ओर मुड़ने, कुमार्ग त्यागने और अपने हाथों के उपद्रव का त्याग करने में अपनी प्रजा की अगुआई कर पाया। इतना ही नहीं, वह अपने सिंहासन को भी छोड़ पाया, और बदले में, यहोवा परमेश्वर का मन बदल गया और उसे अफ़सोस हुआ, उसने अपना कोप त्याग दिया, नगर के लोगों को जीवित रहने दिया और उन्हें सर्वनाश से बचा लिया। राजा के कार्यों को मानव-इतिहास में केवल एक दुर्लभ चमत्कार ही कहा जा सकता है, यहाँ तक कि उन्हें भ्रष्ट मनुष्यों का आदर्श भी कहा जा सकता है, जो परमेश्वर के सामने अपने पाप स्वीकार करते हैं और पश्चात्ताप करते हैं।

परमेश्वर नीनवे के लोगों के हृदय की गहराइयों में सच्चा पश्चात्ताप देखता है

परमेश्वर की घोषणा सुनने के बाद, नीनवे के राजा और उसकी प्रजा ने अनेक कार्यों को अंजाम दिया। उनके इन कार्यों और व्यवहार की प्रकृति क्या थी? दूसरे शब्दों में, उनके समग्र व्यवहार का सार क्या था? उन्होंने जो किया, वह क्यों किया? परमेश्वर की नज़रों में उन्होंने ईमानदारी से पश्चात्ताप किया था, न केवल इसलिए कि उन्होंने पूरी लगन से परमेश्वर से विनती की थी और उसके सम्मुख अपने पाप स्वीकार किए थे, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने अपना दुष्ट आचरण छोड़ दिया था। उन्होंने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद वे बेहद डर गए थे और यह मानते थे कि वह वैसा ही करेगा, जैसा उसने कहा है। उपवास करके, टाट पहनकर और राख में बैठकर वे अपने तौर-तरीके सुधारने और बुराई से दूर रहने की इच्छा व्यक्त करना चाहते थे, और उन्होंने यहोवा परमेश्वर से अपना निर्णय और उन पर पड़ी विपत्ति वापस लेने के लिए विनती करते हुए अपना कोप रोकने की प्रार्थना की। यदि हम पूरे व्यवहार की जाँच करें, तो हम देख सकते हैं कि वे पहले ही समझ गए थे कि उनके पिछले बुरे काम यहोवा परमेश्वर के लिए घृणास्पद थे, और हम यह भी देख सकते हैं कि वे यह समझ गए थे कि वह किस कारण से उन्हें शीघ्र ही नष्ट कर देगा। इसीलिए वे सभी पूरा पश्चात्ताप करना, अपने बुरे मार्गों से हटना और अपने हाथों के उपद्रव को त्याग देना चाहते थे। दूसरे शब्दों में, एक बार जब वे यहोवा परमेश्वर की घोषणा से अवगत हो गए, तो उनमें से प्रत्येक ने अपने हृदय में भय महसूस किया; उन्होंने अपना बुरा आचरण बंद कर दिया और फिर वे कार्य नहीं किए, जो यहोवा परमेश्वर के लिए इतने घृणास्पद थे। इसके अतिरिक्त, उन्होंने यहोवा परमेश्वर से उनके पिछले पाप क्षमा करने और उनसे उनके पिछले कार्यों के अनुसार व्यवहार न करने की विनती की। वे फिर कभी दुष्टता में लिप्त न होने और यहोवा परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार कार्य करने के लिए तैयार थे, ताकि यहोवा परमेश्वर यथासंभव फिर कभी कुपित न हो। उनका पश्चात्ताप सच्चा और संपूर्ण था। वह उनके हृदय की गहराई से आया था और वास्तविक और स्थायी था।

एक बार जब नीनवे के लोग, राजा से लेकर प्रजा तक, यह जान गए कि यहोवा परमेश्वर उनसे क्रोधित है, तो परमेश्वर उनका अगला हर कार्य, उनका समग्र आचरण, उनका हर एक निर्णय और चुनाव स्पष्ट और प्रत्यक्ष रूप से देख सकता था। परमेश्वर का हृदय उनके व्यवहार के अनुसार बदल गया। उस क्षण परमेश्वर की मनःस्थिति क्या थी? बाइबल तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर दे सकती है। पवित्रशास्त्र में ये वचन दर्ज हैं: "जब परमेश्‍वर ने उनके कामों को देखा, कि वे कुमार्ग से फिर रहे हैं, तब परमेश्‍वर ने अपनी इच्छा बदल दी, और उनकी जो हानि करने की ठानी थी, उसको न किया।" यद्यपि परमेश्वर ने अपना मन बदल लिया था, फिर भी उसकी मनःस्थिति बिलकुल भी जटिल नहीं थी। उसने अपना क्रोध व्यक्त करने के बजाय उसे शांत किया, और फिर नीनवे शहर पर विपत्ति न लाने का निर्णय लिया। परमेश्वर का निर्णय—विपत्ति से नीनवे के लोगों को बख्श देना—इतना शीघ्र होने का कारण यह है कि परमेश्वर ने नीनवे के हर व्यक्ति के हृदय का अवलोकन कर लिया था। उसने देखा कि उनके हृदय की गहराइयों में क्या है : अपने पापों के लिए उनका सच्चा पश्चात्ताप और स्वीकृति, परमेश्वर में उनका सच्चा विश्वास, उनका गहरा बोध कि कैसे उनके बुरे कार्यों ने परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित कर दिया, और इस वजह से यहोवा परमेश्वर से तुरंत मिलने वाले दंड से पैदा हुआ भय। साथ ही, यहोवा परमेश्वर ने उनके हृदय की गहराइयों से निकली उनकी प्रार्थनाएँ भी सुनीं, जिनमें उससे विनती की गई थी कि वह अब उन पर क्रोधित न हो, ताकि वे इस विपत्ति से बच सकें। जब परमेश्वर ने इन सभी तथ्यों का अवलोकन किया, तो धीरे-धीरे उसका क्रोध जाता रहा। चाहे उसका क्रोध पहले कितना भी विराट क्यों न रहा हो, लेकिन जब उसने इन लोगों के हृदय की गहराइयों में सच्चा पश्चात्ताप देखा, तो उसका हृदय पिघल गया, और इसलिए वह उन पर विपत्ति लाना सहन नहीं कर पाया, और उसने उन पर क्रोध करना बंद कर दिया। इसके बजाय उसने उन्हें अपनी दया और सहनशीलता प्रदान करना जारी रखा और वह उनका मार्गदर्शन और आपूर्ति करता रहा।

यदि परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास सच्चा है, तो तुम अकसर उसकी देखरेख प्राप्त करोगे

नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर द्वारा अपने इरादे बदलने में कोई झिझक या ऐसी चीज़ शामिल नहीं थी, जो अस्पष्ट या अज्ञात हो। बल्कि, यह शुद्ध क्रोध से शुद्ध सहनशीलता में हुआ एक रूपांतरण था। यह परमेश्वर के सार का एक सच्चा प्रकटन है। परमेश्वर अपने कार्यों में कभी अस्थिर या संकोची नहीं होता; उसके कार्यों के पीछे के सिद्धांत और उद्देश्य स्पष्ट और पारदर्शी, शुद्ध और दोषरहित होते हैं, जिनमें कोई धोखा या षड्यंत्र बिलकुल भी मिला नहीं होता। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के सार में कोई अंधकार या बुराई शामिल नहीं होती। परमेश्वर नीनवे के नागरिकों से इसलिए क्रोधित हुआ, क्योंकि उनकी दुष्टता के कार्य उसकी नज़रों में आ गए थे; उस समय उसका क्रोध उसके सार से निकला था। किंतु जब परमेश्वर का कोप जाता रहा और उसने नीनवे के लोगों पर एक बार फिर से सहनशीलता दिखाई, तो वह सब जो उसने प्रकट किया, वह भी उसका अपना सार ही था। यह संपूर्ण परिवर्तन परमेश्वर के प्रति मनुष्य के रवैये में हुए बदलाव के कारण था। इस पूरी अवधि के दौरान परमेश्वर का अनुल्लंघनीय स्वभाव नहीं बदला, परमेश्वर का सहनशील सार नहीं बदला, परमेश्वर का प्रेममय और दयालु सार नहीं बदला। जब लोग दुष्टता के काम करते हैं और परमेश्वर को ठेस पहुँचाते हैं, तो वह उन पर क्रोध करता है। जब लोग सच में पश्चात्ताप करते हैं, तो परमेश्वर का हृदय बदलता है, और उसका क्रोध थम जाता है। जब लोग हठपूर्वक परमेश्वर का विरोध करते हैं, तो उसका कोप निरंतर बना रहता है और धीरे-धीरे उन्हें तब तक दबाता रहता है, जब तक वे नष्ट नहीं हो जाते। यह परमेश्वर के स्वभाव का सार है। परमेश्वर चाहे कोप प्रकट कर रहा हो या दया और प्रेममय करुणा, यह मनुष्य के हृदय की गहराइयों में परमेश्वर के प्रति उसका आचरण, व्यवहार और रवैया ही होता है, जो यह तय करता है कि परमेश्वर के स्वभाव के प्रकाशन के माध्यम से क्या व्यक्त होगा। यदि परमेश्वर किसी व्यक्ति पर निरंतर अपना क्रोध बनाए रखता है, तो निस्संदेह ऐसे व्यक्ति का हृदय परमेश्वर का विरोध करता है। चूँकि इस व्यक्ति ने कभी सच में पश्चात्ताप नहीं किया है, परमेश्वर के सम्मुख अपना सिर नहीं झुकाया है या परमेश्वर में सच्चा विश्वास नहीं रखा है, इसलिए उसने कभी परमेश्वर की दया और सहनशीलता प्राप्त नहीं की है। यदि कोई व्यक्ति अकसर परमेश्वर की देखरेख, उसकी दया और उसकी सहनशीलता प्राप्त करता है, तो निस्संदेह ऐसे व्यक्ति के हृदय में परमेश्वर के प्रति सच्चा विश्वास है, और उसका हृदय परमेश्वर के विरुद्ध नहीं है। यह व्यक्ति अकसर सच में परमेश्वर के सम्मुख पश्चात्ताप करता है; इसलिए, भले ही परमेश्वर का अनुशासन अकसर इस व्यक्ति के ऊपर आए, पर उसका कोप नहीं आएगा।

इस संक्षिप्त विवरण से लोग परमेश्वर के हृदय को देख सकते हैं, उसके सार की वास्तविकता को देख सकते हैं, और यह देख सकते हैं कि परमेश्वर का क्रोध और उसके हृदय के बदलाव बेवजह नहीं हैं। परमेश्वर द्वारा कुपित होने और अपना मन बदल लेने पर दिखाई गई स्पष्ट विषमता के बावजूद, जिससे लोग यह मानते हैं कि परमेश्वर के सार के इन दोनों पहलुओं—उसके क्रोध और उसकी सहनशीलता—के बीच एक बड़ा अलगाव या अंतर है, नीनवे के लोगों के पश्चात्ताप के प्रति परमेश्वर का रवैया एक बार फिर से लोगों को परमेश्वर के सच्चे स्वभाव का दूसरा पहलू दिखाता है। परमेश्वर के हृदय का बदलाव मनुष्य को सच में एक बार फिर से परमेश्वर की दया और प्रेममय करुणा की सच्चाई दिखाता है, और परमेश्वर के सार का सच्चा प्रकाशन दिखाता है। मनुष्य को मानना पड़ेगा कि परमेश्वर की दया और प्रेममय करुणा मिथक नहीं हैं, न ही वे मनगढ़ंत हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उस क्षण परमेश्वर की भावना सच्ची थी, और परमेश्वर के हृदय का बदलाव सच्चा था—परमेश्वर ने वास्तव में एक बार फिर मनुष्य के ऊपर अपनी दया और सहनशीलता बरसाई थी।

नीनवे के लोगों ने अपने हृदय के सच्चे पश्चात्ताप से परमेश्वर की दया प्राप्त की और अपना परिणाम बदल लिया

क्या परमेश्वर के हृदय के बदलाव और उसके कोप में कोई विरोध था? बिलकुल नहीं! ऐसा इसलिए है, क्योंकि उस समय-विशेष पर परमेश्वर की सहनशीलता का अपना कारण था। वह कारण क्या हो सकता है? वह कारण बाइबल में दिया गया है : "प्रत्येक व्यक्ति अपने कुमार्ग से फिर गया," और "अपने हाथों के उपद्रवी कार्यों को तज दिया।"

यह "कुमार्ग" मुटठीभर बुरे कार्यों को संदर्भित नहीं करता, बल्कि उस बुरे स्रोत को संदर्भित करता है, जिससे लोगों का व्यवहार उत्पन्न होता है। "अपने कुमार्ग से फिर जाने" का अर्थ है कि ऐसे लोग ये कार्य दोबारा कभी नहीं करेंगे। दूसरे शब्दों में, वे दोबारा कभी इस बुरे तरीके से व्यवहार नहीं करेंगे; उनके कार्यों का तरीका, स्रोत, उद्देश्य, इरादा और सिद्धांत सब बदल चुके हैं; वे अपने मन को आनंदित और प्रसन्न करने के लिए दोबारा कभी उन तरीकों और सिद्धांतों का उपयोग नहीं करेंगे। "अपने हाथों के उपद्रव को त्याग देना" में "त्याग देना" का अर्थ है छोड़ देना या दूर करना, अतीत से पूरी तरह से नाता तोड़ लेना और कभी वापस न मुड़ना। जब नीनवे के लोगों ने हिंसा त्याग दी, तो इससे उनका सच्चा पश्चात्ताप सिद्ध हो गया। परमेश्वर लोगों के बाहरी रूप के साथ-साथ उनका हृदय भी देखता है। जब परमेश्वर ने नीनवे के लोगों के हृदय में सच्चा पश्चात्ताप देखा जिसमें कोई सवाल नहीं थे, और यह भी देखा कि वे अपने कुमार्गों से फिर गए हैं और उन्होंने हिंसा त्याग दी है, तो उसने अपना मन बदल लिया। कहने का तात्पर्य है कि इन लोगों के आचरण, व्यवहार और कार्य करने के विभिन्न तरीकों ने, और साथ ही उनके हृदय में पापों की सच्ची स्वीकृति और पश्चात्ताप ने परमेश्वर को अपना मन बदलने, अपने इरादे बदलने, अपना निर्णय वापस लेने, और उन्हें दंड न देने या नष्ट न करने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार, नीनवे के लोगों ने अपने लिए एक अलग परिणाम प्राप्त किया। उन्होंने अपने जीवन को छुड़ाया और साथ ही परमेश्वर की दया और सहनशीलता प्राप्त कर ली, और इस मुकाम पर परमेश्वर ने भी अपना कोप वापस ले लिया।

परमेश्वर की करुणा और सहनशीलता दुर्लभ नहीं है—बल्कि मनुष्य का सच्चा पश्चात्ताप दुर्लभ है

परमेश्वर नीनवे के लोगों से चाहे जितना भी क्रोधित रहा हो, लेकिन जैसे ही उन्होंने उपवास की घोषणा की और टाट ओढ़कर राख पर बैठ गए, वैसे ही उसका हृदय नरम होने लगा, और उसने अपना मन बदलना शुरू कर दिया। जब उसने घोषणा की कि वह उनके नगर को नष्ट कर देगा—उनके द्वारा अपने पाप स्वीकार करने और पश्चात्ताप करने से पहले के क्षण तक भी—परमेश्वर उनसे क्रोधित था। लेकिन जब वो लोग लगातार पश्चात्ताप के कार्य करते रहे, तो नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर का कोप धीरे-धीरे उनके प्रति दया और सहनशीलता में बदल गया। एक ही घटना में परमेश्वर के स्वभाव के इन दो पहलुओं के एक-साथ प्रकाशन में कोई विरोध नहीं है। तो विरोध के न होने को कैसे समझना और जानना चाहिए? नीनवे के लोगों द्वारा पश्चात्ताप करने पर परमेश्वर ने एक के बाद एक ये दो एकदम विपरीत सार व्यक्त और प्रकाशित किए, जिससे लोगों ने परमेश्वर के सार की वास्तविकता और अनुल्लंघनीयता देखी। परमेश्वर ने लोगों को निम्नलिखित बातें बताने के लिए अपने रवैये का उपयोग किया : ऐसा नहीं है कि परमेश्वर लोगों को बरदाश्त नहीं करता, या वह उन पर दया नहीं दिखाना चाहता; बल्कि वे कभी परमेश्वर के सामने सच्चा पश्चात्ताप नहीं करते, और उनका सच में अपने कुमार्ग को छोड़ना और हिंसा त्यागना एक दुर्लभ बात है। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर मनुष्य से क्रोधित होता है, तो वह आशा करता है कि मनुष्य सच में पश्चात्ताप करेगा, दरअसल वह मनुष्य का सच्चा पश्चात्ताप देखना चाहता है, और उस दशा में वह मनुष्य पर उदारता से अपनी दया और सहनशीलता बरसाता रहेगा। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य का बुरा आचरण परमेश्वर के कोप को जन्म देता है, जबकि परमेश्वर की दया और सहनशीलता उन लोगों पर बरसती है, जो परमेश्वर की बात सुनते हैं और उसके सम्मुख वास्तव में पश्चात्ताप करते हैं, जो कुमार्ग छोड़कर हिंसा त्याग देते हैं। नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर के व्यवहार में उसका रवैया बहुत साफ तौर पर प्रकट हुआ था : परमेश्वर की दया और सहनशीलता प्राप्त करना बिलकुल भी कठिन नहीं है; और वह इंसान से सच्चा पश्चात्ताप चाहता है। यदि लोग कुमार्ग छोड़कर हिंसा त्याग देते हैं, तो परमेश्वर उनके प्रति अपना हृदय और रवैया बदल लेता है।

सृष्टिकर्ता का धार्मिक स्वभाव वास्तविक और स्पष्ट है

जब नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर का हृदय-परिवर्तन हुआ, तो क्या उसकी दया और सहनशीलता एक दिखावा थी? बिलकुल नहीं! तो फिर परमेश्वर द्वारा इस एक स्थिति से निपटने के दौरान उसके स्वभाव के इन दो पहलुओं के बीच बदलाव से क्या दिखाया गया है? परमेश्वर का स्वभाव पूरी तरह से संपूर्ण है—वह बिलकुल भी विभाजित नहीं है। चाहे वह लोगों पर कोप प्रकट कर रहा हो या दया और सहनशीलता दिखा रहा हो, ये सब उसके धार्मिक स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ हैं। परमेश्वर का स्वभाव जीवंत और एकदम स्पष्ट है, वह अपने विचार और रवैये चीज़ों के विकसित होने के हिसाब से बदलता है। नीनवे के लोगों के प्रति उसके रवैये का रूपांतरण मनुष्य को बताता है कि उसके अपने विचार और युक्तियाँ हैं; वह कोई मशीन या मिट्टी का पुतला नहीं है, बल्कि स्वयं जीवित परमेश्वर है। वह नीनवे के लोगों से क्रोधित हो सकता था, वैसे ही जैसे उनके रवैये के कारण उसने उनके अतीत को क्षमा किया था। वह नीनवे के लोगों के ऊपर दुर्भाग्य लाने का निर्णय ले सकता था, और उनके पश्चात्ताप के कारण वह अपना निर्णय बदल भी सकता था। लोग नियमों को कठोरता से लागू करना, और ऐसे नियमों का परमेश्वर को सीमांकित और परिभाषित करने के लिए उपयोग करना पसंद करते हैं, वैसे ही जैसे वे परमेश्वर के स्वभाव को समझने के लिए सूत्रों का उपयोग करना पसंद करते हैं। इसलिए, जहाँ तक मानवीय विचारों के दायरे का संबंध है, परमेश्वर न तो सोचता है, न ही उसके पास कोई ठोस विचार हैं। वास्तव में परमेश्वर के विचार चीज़ों और वातावरण में परिवर्तन के अनुसार निरंतर रूपांतरण की स्थिति में रहते हैं। जब ये विचार रूपांतरित हो रहे होते हैं, तब परमेश्वर के सार के विभिन्न पहलू प्रकट हो रहे होते हैं। रूपांतरण की इस प्रक्रिया के दौरान, ठीक उसी क्षण, जब परमेश्वर अपना मन बदलता है, तब वह मानवजाति को अपने जीवन का वास्तविक अस्तित्व दिखाता है और यह भी दिखाता है कि उसका धार्मिक स्वभाव गतिशील जीवन-शक्ति से भरा है। उसी समय, परमेश्वर मानवजाति के सामने अपने कोप, अपनी दया, अपनी प्रेममय करुणा और अपनी सहनशीलता के अस्तित्व की सच्चाई प्रमाणित करने के लिए अपने सच्चे प्रकाशनों का उपयोग करता है। उसका सार चीज़ों के विकसित होने के ढंग के अनुसार किसी भी समय और स्थान पर प्रकट हो सकता है। उसमें एक सिंह का कोप और एक माता की ममता और सहनशीलता है। उसका धार्मिक स्वभाव किसी भी व्यक्ति द्वारा प्रश्न किए जाने, उल्लंघन किए जाने, बदले जाने या तोड़े-मरोड़े जाने की अनुमति नहीं देता। समस्त मामलों और सभी चीज़ों में परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, अर्थात् परमेश्वर का कोप और उसकी दया, किसी भी समय और स्थान पर प्रकट हो सकती है। वह समस्त सृष्टि के प्रत्येक कोने में इन पहलुओं को मार्मिक अभिव्यक्ति देता है, और हर गुज़रते पल में उन्हें जीवंतता के साथ लागू करता है। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव समय या स्थान द्वारा सीमित नहीं है; दूसरे शब्दों में, परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव समय या स्थान की बाधाओं के अनुसार यांत्रिक रूप से व्यक्त या प्रकाशित नहीं होता, बल्कि, किसी भी समय और स्थान पर बिल्कुल आसानी से व्यक्त और प्रकाशित होता है। जब तुम परमेश्वर को अपना मन बदलते और अपने कोप को थामते और नीनवे के लोगों का नाश करने से पीछे हटते हुए देखते हो, तो क्या तुम कह सकते हो कि परमेश्वर केवल दयालु और प्रेमपूर्ण है? क्या तुम कह सकते हो कि परमेश्वर का कोप खोखले वचनों से युक्त है? जब परमेश्वर प्रचंड कोप प्रकट करता है और अपनी दया वापस ले लेता है, तो क्या तुम कह सकते हो कि वह मनुष्यों के प्रति सच्चा प्रेम महसूस नहीं करता? यह प्रचंड कोप परमेश्वर द्वारा लोगों के बुरे कार्यों के प्रत्युतर में व्यक्त किया जाता है; उसका कोप दोषपूर्ण नहीं है। परमेश्वर का हृदय लोगों के पश्चात्ताप से द्रवित हो जाता है, और यह पश्चात्ताप ही उसका हृदय-परिवर्तन करवाता है। जब वह द्रवित महसूस करता है, जब उसका हृदय-परिवर्तन होता है, और जब वह मनुष्य के प्रति अपनी दया और सहनशीलता दिखाता है, तो ये सब पूरी तरह से दोषमुक्त होते हैं; ये स्वच्छ, शुद्ध, निष्कलंक और मिलावट-रहित हैं। परमेश्वर की सहनशीलता ठीक वही है : सहनशीलता, जैसे कि उसकी दया सिवाय दया के कुछ नहीं है। उसका स्वभाव मनुष्य के पश्चात्ताप और उसके आचरण में भिन्नता के अनुसार कोप या दया और सहनशीलता प्रकाशित करता है। चाहे वह कुछ भी प्रकाशित या व्यक्त करता हो, वह सब पवित्र और प्रत्यक्ष है; उसका सार सृष्टि की किसी भी चीज़ से अलग है। जब परमेश्वर अपने कार्यों में निहित सिद्धांतों को व्यक्त करता है, तो वे किसी भी त्रुटि या दोष से मुक्त होते हैं, और ऐसे ही उसके विचार, उसकी योजनाएँ और उसके द्वारा लिया जाने वाला हर निर्णय और उसके द्वारा किया जाने वाला हर कार्य है। चूँकि परमेश्वर ने ऐसा निर्णय लिया है और चूँकि उसने इस तरह कार्य किया है, इसलिए इसी तरह से वह अपने उपक्रम भी पूरे करता है। उसके उपक्रमों के परिणाम सही और दोषरहित इसलिए होते हैं, क्योंकि उनका स्रोत दोषरहित और निष्कलंक है। परमेश्वर का कोप दोषरहित है। इसी प्रकार, परमेश्वर की दया और सहनशीलता—जो पूरी सृष्टि में किसी के पास नहीं हैं—पवित्र एवं निर्दोष हैं और विचारपूर्ण विवेचना और अनुभव पर खरी उतर सकती हैं।

नीनवे की कहानी की अपनी समझ के माध्यम से, क्या तुम लोग अब परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के सार का दूसरा पक्ष देखते हो? क्या तुम परमेश्वर के अद्वितीय धार्मिक स्वभाव का दूसरा पक्ष देखते हो? क्या मनुष्यों में से किसी का इस प्रकार का स्वभाव है? क्या किसी में इस प्रकार का कोप, परमेश्वर का कोप, है? क्या किसी में वैसी दया और सहनशीलता है, जैसी परमेश्वर में है? सृष्टि में ऐसा कौन है, जो इतना बड़ा कोप कर सकता है और मानवजाति को नष्ट करने या उस पर विपत्ति लाने का निर्णय ले सकता है? मनुष्य पर दया करने, उसे सहन करने, क्षमा करने, और परिणामस्वरूप मनुष्य को नष्ट करने का अपना पिछला निर्णय बदलने योग्य कौन है? सृष्टिकर्ता अपना धार्मिक स्वभाव अपनी अनोखी पद्धतियों और सिद्धांतों के माध्यम से प्रकट करता है; वह किन्हीं लोगों, घटनाओं या चीज़ों द्वारा थोपे गए नियंत्रण या प्रतिबंधों के अधीन नहीं है। उसके अद्वितीय स्वभाव के कारण कोई उसके विचारों और युक्तियों को बदलने में सक्षम नहीं है, न ही कोई उसे मनाने और उसका कोई निर्णय बदलने में सक्षम है। समस्त सृष्टि में विद्यमान व्यवहार और विचारों की संपूर्णता उसके धार्मिक स्वभाव के न्याय के अधीन रहती है। वह कोप करे या दया, इसे कोई भी नियंत्रित नहीं कर सकता; केवल सृष्टिकर्ता का सार—या दूसरे शब्दों में, सृष्टिकर्ता का धार्मिक स्वभाव—ही यह तय कर सकता है। ऐसी है सृष्टिकर्ता के धार्मिक स्वभाव की अद्वितीय प्रकृति!

नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये में हुए रूपांतरण का विश्लेषण करने और उसे समझने से क्या तुम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव में पाई जाने वाली दया का वर्णन करने के लिए "अद्वितीय" शब्द का उपयोग कर सकते हो? हमने पहले कहा कि परमेश्वर का कोप उसके अद्वितीय धार्मिक स्वभाव के सार का एक पहलू है। अब मैं दो पहलुओं—परमेश्वर का कोप और परमेश्वर की दया—को उसके धार्मिक स्वभाव के रूप में परिभाषित करूँगा। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव पवित्र है; वह उल्लंघन या प्रश्न किया जाना सहन नहीं करता; वह चीज़ किसी भी सृजित या गैर-सृजित प्राणी के पास नहीं है। वह परमेश्वर के लिए अद्वितीय और अनन्य दोनों है। कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर का कोप पवित्र और अनुल्लंघनीय है। इसी प्रकार, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का दूसरा पहलू—परमेश्वर की दया—भी पवित्र है और उसका भी उल्लंघन नहीं किया जा सकता। सृजित या गैर-सृजित प्राणियों में से कोई भी परमेश्वर के कार्यों में उसका स्थान नहीं ले सकता या उसका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, और न ही कोई सदोम के विनाश या नीनवे के उद्धार में परमेश्वर का स्थान ले सकता था या उसका प्रतिनिधित्व कर सकता था। यह परमेश्वर के अद्वितीय धार्मिक स्वभाव की सच्ची अभिव्यक्ति है।

मानवजाति के प्रति सृष्टिकर्ता की सच्ची भावनाएँ

लोग अक्सर कहते हैं कि परमेश्वर को जानना आसान बात नहीं है। किंतु मैं कहता हूँ कि परमेश्वर को जानना बिल्कुल भी कठिन बात नहीं है, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य को बार-बार अपने कर्म दिखाता है। परमेश्वर ने कभी भी मनुष्य के साथ संवाद करना बंद नहीं किया है, और न ही उसने कभी अपने आपको मनुष्य से गुप्त रखा है, न उसने स्वयं को छिपाया है। उसके विचार, उसकी युक्तियाँ, उसके वचन और उसके कर्म सब मानवजाति के सामने हैं। इसलिए, यदि मनुष्य परमेश्वर को जानना चाहता है, तो वह सभी प्रकार के साधनों और पद्धतियों के जरिये उसे समझ और जान सकता है। मनुष्य के आँख मूँदकर यह सोचने की वजह कि परमेश्वर ने जानबूझकर खुद को मनुष्य से छिपाया है, कि उसका कोई इरादा नहीं है कि मनुष्य परमेश्वर को समझे या जाने, यह है कि मनुष्य नहीं जानता कि परमेश्वर कौन है, और न ही वह परमेश्वर को समझना चाहता है। इससे भी बढ़कर, मनुष्य सृष्टिकर्ता के विचारों, वचनों या कर्मों की परवाह नहीं करता...। सच कहूँ तो, यदि कोई व्यक्ति सृष्टिकर्ता के वचनों या कर्मों पर ध्यान केंद्रित करने और उन्हें समझने के लिए सिर्फ अपने खाली समय का उपयोग करे, और यदि वह सृष्टिकर्ता के विचारों और उसके हृदय की वाणी पर थोड़ा-सा ध्यान दे, तो उसे यह महसूस करने में कठिनाई नहीं होगी कि सृष्टिकर्ता के विचार, वचन और कर्म दृष्टिगोचर और पारदर्शी हैं। इसी प्रकार, यह महसूस करने में बस थोड़ा-सा प्रयास लगेगा कि सृष्टिकर्ता हर समय मनुष्य के मध्य है, कि वह हमेशा मनुष्य और संपूर्ण सृष्टि के साथ वार्तालाप करता रहता है, वह प्रतिदिन नए कर्म कर रहा है। उसका सार और स्वभाव मनुष्य के साथ उसके संवाद में व्यक्त होते हैं; उसके विचार और युक्तियाँ पूरी तरह से उसके कर्मों में प्रकट होते हैं; वह हर समय मनुष्य के साथ रहता है और उसका अवलोकन करता है। वह ख़ामोशी से अपने मौन वचनों के साथ मानवजाति और समूची सृष्टि से बोलता है : मैं स्वर्ग में हूँ, और मैं अपनी सृष्टि के मध्य हूँ। मैं रखवाली कर रहा हूँ, मैं इंतज़ार कर रहा हूँ; मैं तुम्हारे साथ हूँ...। उसके हाथों में गर्मजोशी है और वे मजबूत हैं, उसके कदम हलके हैं, उसकी आवाज़ कोमल और शिष्ट है; उसका स्वरूप समूची मानवजाति को आगोश में भरता हुआ हमारे पास से होकर गुज़र जाता है और मुड़ जाता है; उसका मुख सुंदर और सौम्य है। वह कभी हमें छोड़कर नहीं गया, कभी विलुप्त नहीं हुआ। रात-दिन, वह मानवजाति का निरंतर साथी है, उसका साथ कभी नहीं छोड़ता। मनुष्यों के लिए उसकी समर्पित देखभाल, विशेष स्नेह, मनुष्य के लिए उसकी सच्ची चिंता और प्रेम उस समय धीरे-धीरे प्रकट हुआ, जब उसने नीनवे के नगर को बचाया। विशेष रूप से, यहोवा परमेश्वर और योना के बीच के संवाद ने उस मानवजाति के लिए सृष्टिकर्ता की दया खुलकर प्रकट की, जिसे स्वयं उसने रचा था। इन वचनों से, तुम मनुष्यों के प्रति परमेश्वर की सच्ची भावनाओं की एक गहरी समझ हासिल कर सकते हो ...

योना की पुस्तक 4:10-11 में निम्नलिखित अंश दर्ज किया गया है : "तब यहोवा ने कहा, 'जिस रेंड़ के पेड़ के लिये तू ने कुछ परिश्रम नहीं किया, न उसको बढ़ाया, जो एक ही रात में हुआ, और एक ही रात में नष्‍ट भी हुआ; उस पर तू ने तरस खाई है। फिर यह बड़ा नगर नीनवे, जिसमें एक लाख बीस हज़ार से अधिक मनुष्य हैं जो अपने दाहिने बाएँ हाथों का भेद नहीं पहिचानते, और बहुत से घरेलू पशु भी उसमें रहते हैं, तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊँ?'" ये यहोवा परमेश्वर के वास्तविक वचन हैं, जो उसके और योना के बीच हुए वार्तालाप से दर्ज किए गए हैं। यद्यपि यह संवाद संक्षिप्त है, फिर भी यह मानवजाति के प्रति सृष्टिकर्ता की परवाह और उसे त्यागने की उसकी अनिच्छा से भरा हुआ है। ये वचन उस सच्चे रवैये और भावनाओं को व्यक्त करते हैं, जो परमेश्वर अपनी सृष्टि के लिए अपने हृदय में रखता है। इन वचनों के जरिये, जो इतने स्पष्ट और सटीक हैं कि मनुष्य ने शायद ही कभी ऐसे स्पष्ट और सटीक वचन सुने हों, परमेश्वर मनुष्यों के प्रति अपने सच्चे इरादे बताता है। यह संवाद नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये को दर्शाता है—किंतु यह किस प्रकार का रवैया है? यह वह रवैया है, जिसे परमेश्वर ने नीनवे के लोगों के प्रति उनके पश्चात्ताप से पहले और बाद में अपनाया, और वह रवैया, जिससे वह मानवजाति के साथ व्यवहार करता है। इन वचनों में उसके विचार और उसका स्वभाव है।

इन वचनों में परमेश्वर के कौन-से विचार प्रकट हुए हैं? यदि पढ़ते समय तुम विवरण पर ध्यान दो, तो तुम्हारे लिए यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि वह "तरस" शब्द का प्रयोग करता है; इस शब्द का उपयोग मानवजाति के प्रति परमेश्वर के सच्चे रवैये को दर्शाता है।

शाब्दिक अर्थ के स्तर पर लोग "तरस" शब्द की व्याख्या विभिन्न प्रकार से कर सकते हैं : पहले, इसका अर्थ है "प्रेम करना और रक्षा करना, किसी चीज़ के प्रति नरमी महसूस करना"; दूसरे, इसका अर्थ है "अत्यधिक प्रेम करना"; और अंत में, इसका अर्थ है "किसी को चोट पहुँचाने का इच्छुक न होना और ऐसा करना सह न पाना।" संक्षेप में, इस शब्द का अर्थ है कोमल स्नेह और प्रेम, और साथ ही साथ किसी व्यक्ति या वस्तु को छोड़ने की अनिच्छा; इसका अर्थ है मनुष्य के प्रति परमेश्वर की दया और सहनशीलता। परमेश्वर ने इस शब्द का उपयोग किया, जो मनुष्यों द्वारा आम तौर पर बोला जाने वाला शब्द है, किंतु यह मानवजाति के प्रति परमेश्वर के हृदय की वाणी और उसके रवैये को प्रकट करने में भी सक्षम है।

यद्यपि नीनवे का नगर ऐसे लोगों से भरा हुआ था, जो सदोम के लोगों के समान ही भ्रष्ट, बुरे और हिंसक थे, किंतु उनके पश्चात्ताप के कारण परमेश्वर का मन बदल गया और उसने उन्हें नष्ट न करने का निर्णय लिया। चूँकि परमेश्वर के वचनों और निर्देशों के प्रति उनकी प्रतिक्रिया ने एक ऐसे रवैये का प्रदर्शन किया, जो सदोम के नागरिकों के रवैये के बिलकुल विपरीत था, और परमेश्वर के प्रति उनके सच्चे समर्पण और अपने पापों के लिए उनके सच्चे पश्चात्ताप, और साथ ही साथ हर लिहाज से उनके सच्चे और हार्दिक व्यवहार के कारण, परमेश्वर ने एक बार फिर उन पर अपनी हार्दिक करुणा दिखाई और उन्हें अपनी करुणा प्रदान की। परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दी जाने वाली चीज़ें और उसकी करुणा की नकल कर पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है, और परमेश्वर की दया, उसकी सहनशीलता, या किसी भी व्यक्ति में मनुष्य के प्रति परमेश्वर की सच्ची भावनाएँ होना असंभव है। क्या कोई है, जिसे तुम महान पुरुष या स्त्री मानते हो, या कोई अतिमानव मानते हो, जो एक ऊँचे मुकाम से, एक महान पुरुष या स्त्री के रूप में, या सबसे ऊँचे मुकाम पर बोलते हुए, मानवजाति या सृष्टि के लिए इस प्रकार का कथन कहेगा? मनुष्यों में से कौन मानव-जीवन की स्थितियों को भली-भाँति जान सकता है? कौन मनुष्य के अस्तित्व का दायित्व और ज़िम्मेदारी उठा सकता है? कौन किसी नगर के विनाश की घोषणा करने के योग्य है? और कौन किसी नगर को क्षमा करने के योग्य है? कौन कह सकता है कि वह अपनी सृष्टि को सँजोता है? केवल सृष्टिकर्ता! केवल सृष्टिकर्ता में ही इस मानवजाति के लिए कोमलता है। केवल सृष्टिकर्ता ही इस मानवजाति के लिए करुणा और स्नेह दिखाता है। केवल सृष्टिकर्ता ही इस मानवजाति के प्रति सच्चा, अटूट स्नेह रखता है। इसी प्रकार, केवल सृष्टिकर्ता ही इस मानवजाति पर दया कर सकता है और अपनी संपूर्ण सृष्टि को सँजो सकता है। उसका हृदय मनुष्य के हर कार्य पर उछलता और पीड़ित होता है : वह मनुष्य की दुष्टता और भ्रष्टता पर क्रोधित, परेशान और दुखी होता है; वह मनुष्य के पश्चात्ताप और विश्वास से प्रसन्न, आनंदित, क्षमाशील और उल्लसित होता है; उसका हर एक विचार और अभिप्राय मानवजाति के अस्तित्व के लिए है और उसी के इर्द-गिर्द घूमता है; उसका स्वरूप पूरी तरह से मानवजाति के वास्ते प्रकट होता है; उसकी संपूर्ण भावनाएँ मानवजाति के अस्तित्व के साथ गुंथी हैं। मनुष्य के वास्ते वह भ्रमण करता है और यहाँ-वहाँ भागता है; वह खामोशी से अपने जीवन का कतरा-कतरा दे देता है; वह अपने जीवन का हर पल अर्पित कर देता है...। उसने कभी नहीं जाना कि अपने ही जीवन पर किस प्रकार दया करे, किंतु उसने हमेशा उस मानवजाति को सँजोया है, जिसकी रचना उसने स्वयं की है...। वह अपना सब-कुछ इस मानवजाति को दे देता है...। वह बिना किसी शर्त के और बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा के अपनी दया और सहनशीलता प्रदान करता है। वह ऐसा सिर्फ इसलिए करता है, ताकि मानवजाति उससे जीवन का पोषण प्राप्त करते हुए उसकी नज़रों के सामने निरंतर जीवित रह सके; वह ऐसा सिर्फ इसलिए करता है, ताकि मानवजाति एक दिन उसके सम्मुख समर्पित हो जाए और यह जान जाए कि वही मनुष्य के अस्तित्व का पोषण करता है और समूची सृष्टि के जीवन की आपूर्ति करता है।

सृष्टिकर्ता मनुष्य के लिए अपनी सच्ची भावनाएँ प्रकट करता है

यहोवा परमेश्वर और योना के बीच का यह वार्तालाप निस्संदेह मनुष्य के लिए सृष्टिकर्ता की सच्ची भावनाओं की एक अभिव्यक्ति है। एक ओर यह लोगों को सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन विद्यमान संपूर्ण सृष्टि के संबंध में उसकी समझ के बारे में सूचित करता है; जैसा कि यहोवा परमेश्वर ने कहा था : "फिर यह बड़ा नगर नीनवे, जिसमें एक लाख बीस हज़ार से अधिक मनुष्य हैं जो अपने दाहिने बाएँ हाथों का भेद नहीं पहिचानते, और बहुत से घरेलू पशु भी उसमें रहते हैं, तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊँ?" दूसरे शब्दों में, नीनवे के संबंध में परमेश्वर की समझ सतही बिल्कुल नहीं थी। वह न केवल नगर में रहने वाले जीवित प्राणियों (लोगों और मवेशियों समेत) की संख्या जानता था, बल्कि यह भी जानता था कि कितने लोग अपने दाहिने-बाएँ हाथों का भेद नहीं पहचानते—अर्थात् कितने बच्चे और युवा वहाँ मौजूद थे। यह मानवजाति के संबंध में परमेश्वर की व्यापक समझ का एक ठोस प्रमाण है। दूसरी ओर, यह वार्तालाप लोगों को मनुष्य के प्रति परमेश्वर के रवैये, अर्थात् सृष्टिकर्ता के हृदय में मनुष्य के महत्त्व के संबंध में सूचित करता है। यह वैसा ही है, जैसा यहोवा परमेश्वर ने कहा था : "जिस रेंड़ के पेड़ के लिये तू ने कुछ परिश्रम नहीं किया, न उसको बढ़ाया, जो एक ही रात में हुआ, और एक ही रात में नष्‍ट भी हुआ; उस पर तू ने तरस खाई है। फिर यह बड़ा नगर नीनवे ... तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊँ?" ये योना के प्रति यहोवा परमेश्वर की भर्त्सना के वचन हैं, किंतु ये सब सत्य हैं।

यद्यपि योना को नीनवे के लोगों के लिए यहोवा परमेश्वर के वचनों की घोषणा का काम सौंपा गया था, किंतु उसने यहोवा परमेश्वर के इरादों को नहीं समझा, न ही उसने नगर के लोगों के लिए उसकी चिंताओं और अपेक्षाओं को समझा। इस फटकार से परमेश्वर उसे यह बताना चाहता था कि मनुष्य उसके अपने हाथों की रचना है, और उसने प्रत्येक व्यक्ति के लिए कठिन प्रयास किया है, प्रत्येक व्यक्ति अपने कंधों पर परमेश्वर की अपेक्षाएँ लिए हुए है, और प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर के जीवन की आपूर्ति का आनंद लेता है; प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर ने भारी कीमत चुकाई है। इस फटकार ने योना को यह भी बताया कि परमेश्वर मनुष्य को सँजोता है, जो उसके हाथों की रचना है, वैसे ही जैसे योना स्वयं कद्दू को सँजोता था। परमेश्वर किसी भी कीमत पर, या अंतिम क्षण तक, मनुष्य को आसानी से नहीं त्यागेगा; खासकर इसलिए, क्योंकि नगर में बहुत सारे बच्चे और निरीह मवेशी थे। परमेश्वर की सृष्टि के इन युवा और मासूम प्राणियों से व्यवहार करते समय, जो अपने दाएँ-बाएँ हाथों का भेद भी नहीं पहचानते थे, यह और भी कम समझ में आने वाला था कि परमेश्वर इतनी जल्दबाज़ी में उनका जीवन समाप्त कर देगा और उनका परिणाम निर्धारित कर देगा। परमेश्वर उन्हें बढ़ते हुए देखना चाहता था; उसे आशा थी कि वे उन्हीं मार्गों पर नहीं चलेंगे जिन पर उनके पूर्वज चले थे, उन्हें दोबारा यहोवा परमेश्वर की चेतावनी नहीं सुननी पड़ेगी, और वे नीनवे के अतीत की गवाही देंगे। और तो और, परमेश्वर ने नीनवे द्वारा पश्चात्ताप किए जाने के बाद उसे देखने, नीनवे के पश्चात्ताप के बाद उसके भविष्य को देखने, और इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण रूप से, नीनवे को एक बार फिर अपनी दया के अधीन जीते हुए देखने की आशा की थी। इसलिए, परमेश्वर की नज़र में सृष्टि के वे प्राणी, जो अपने दाएँ-बाएँ हाथों का भेद भी नहीं जान सकते थे, नीनवे का भविष्य थे। वे नीनवे के घृणित अतीत की ज़िम्मेदारी लेंगे, वैसे ही जैसे वे नीनवे के अतीत और यहोवा परमेश्वर के मार्गदर्शन के अधीन उसके भविष्य, दोनों की गवाही देने के महत्वपूर्ण कर्तव्य की ज़िम्मेदारी लेंगे। अपनी सच्ची भावनाओं की इस घोषणा में यहोवा परमेश्वर ने मनुष्य के लिए सृष्टिकर्ता की दया को उसकी संपूर्णता में प्रस्तुत किया। इसने मनुष्य को दिखाया कि "सृष्टिकर्ता की दया" कोई खोखला वाक्यांश नहीं है, न ही यह कोई खोखला वादा है; इसमें ठोस सिद्धांत, पद्धतियाँ और उद्देश्य हैं। परमेश्वर सच्चा और वास्तविक है, और वह किसी झूठ या स्वाँग का उपयोग नहीं करता, और इसी तरह उसकी दया मनुष्य को हर समय और हर युग में निरंतर प्रदान की जाती है। फिर भी, आज तक, योना के साथ सृष्टिकर्ता का संवाद इस बारे में उसका एकमात्र, अनन्य मौखिक कथन है कि वह मनुष्य पर दया क्यों करता है, वह मनुष्य पर दया कैसे करता है, वह मनुष्य के प्रति कितना सहनशील है और मनुष्य के प्रति उसकी सच्ची भावनाएँ क्या हैं। इस वार्तालाप के दौरान यहोवा परमेश्वर के संक्षिप्त वचन संपूर्ण मानवजाति के प्रति उसके विचारों को अभिव्यक्त करते हैं; वे मानवजाति के प्रति परमेश्वर के हृदय के रवैये की सच्ची अभिव्यक्ति हैं, और वे मानवजाति पर प्रचुर मात्रा में दया करने का ठोस सबूत भी हैं। उसकी दया न केवल मनुष्य की वृद्ध पीढ़ियों को प्रदान की जाती है; बल्कि वह मानवजाति के युवा सदस्यों को भी दी जाती है, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक, जैसा हमेशा से होता आया है। यद्यपि परमेश्वर का कोप कुछ निश्चित जगहों पर और कुछ निश्चित युगों में मानवजाति पर बार-बार उतरता है, किंतु उसकी दया कभी खत्म नहीं हुई है। अपनी दया से वह अपनी सृष्टि की एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी का मार्गदर्शन और अगुआई करता है, वह सृष्टि की एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी की आपूर्ति एवं पालन-पोषण करता है, क्योंकि मनुष्य के प्रति उसकी सच्ची भावनाएँ कभी नहीं बदलेंगी। जैसा कि यहोवा परमेश्वर ने कहा : "तो क्या मैं तरस न खाऊँ?" उसने सदैव अपनी सृष्टि को सँजोया है। यह सृष्टिकर्ता के धार्मिक स्वभाव की दया है, और यह सृष्टिकर्ता की पूर्ण अद्वितीयता भी है।

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