परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III

भाग चार

आगे, आओ पवित्रशास्त्र के निम्नलिखित अंशों को देखें।

9. यीशु चमत्कार करता है

1) यीशु पाँच हज़ार लोगों को खिलाता है

यूहन्ना 6:8-13 उसके चेलों में से शमौन पतरस के भाई अन्द्रियास ने उससे कहा, "यहाँ एक लड़का है जिसके पास जौ की पाँच रोटी और दो मछलियाँ हैं; परन्तु इतने लोगों के लिये वे क्या हैं?" यीशु ने कहा, "लोगों को बैठा दो।" उस जगह बहुत घास थी: तब लोग जिनमें पुरुषों की संख्या लगभग पाँच हज़ार की थी, बैठ गए। तब यीशु ने रोटियाँ लीं, और धन्यवाद करके बैठनेवालों को बाँट दीं; और वैसे ही मछलियों में से जितनी वे चाहते थे बाँट दिया। जब वे खाकर तृप्‍त हो गए तो उसने अपने चेलों से कहा, "बचे हुए टुकड़े बटोर लो कि कुछ फेंका न जाए।" अत: उन्होंने बटोरा, और जौ की पाँच रोटियों के टुकड़ों से जो खानेवालों से बच रहे थे, बारह टोकरियाँ भरीं।

2) लाज़र का पुनरुत्थान परमेश्वर को महिमामंडित करता है

यूहन्ना 11:43-44 यह कहकर उसने बड़े शब्द से पुकारा, "हे लाज़र, निकल आ!" जो मर गया था वह कफन से हाथ पाँव बँधे हुए निकल आया, और उसका मुँह अँगोछे से लिपटा हुआ था। यीशु ने उनसे कहा, "उसे खोल दो और जाने दो।"

प्रभु यीशु द्वारा किए गए चमत्कारों में से हमने सिर्फ इन दो को ही चुना है, क्योंकि ये उस चीज़ को प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त हैं, जिसके बारे में मैं यहाँ बात करना चाहता हूँ। ये दोनों चमत्कार वास्तव में आश्चर्यजनक हैं और अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु द्वारा किए गए चमत्कारों के सच्चे प्रतिनिधि हैं।

पहले, आओ प्रथम अंश पर एक नज़र डालें : यीशु पाँच हज़ार लोगों को खिलाता है।

"पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ" की संकल्पना क्या है? पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ आम तौर पर कितने लोगों के लिए पर्याप्त होंगी? यदि तुम एक औसत व्यक्ति की भूख के आधार पर मापो, तो ये केवल दो व्यक्तियों के लिए ही पर्याप्त होंगी। "पाँच रोटियों और दो मछलियों" का मूलत: यही विचार है। किंतु इस अंश में, पाँच रोटियों और दो मछलियों से कितने लोगों को खिलाया गया? पवित्रशास्त्र में यह दर्ज है : "उस जगह बहुत घास थी: तब लोग जिनमें पुरुषों की संख्या लगभग पाँच हज़ार की थी, बैठ गए।" पाँच रोटियों और दो मछलियों की तुलना में क्या पाँच हज़ार एक बड़ी संख्या है? इतनी बड़ी संख्या क्या दर्शाती है? मानवीय परिप्रेक्ष्य से पाँच हज़ार लोगों में पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ बाँटना असंभव होगा, क्योंकि लोगों और भोजन के बीच का अंतर बहुत बड़ा है। यदि प्रत्येक व्यक्ति को केवल एक छोटा-सा टुकड़ा भी मिलता, तब भी यह पाँच हज़ार लोगों के लिए काफी न होता। परंतु यहाँ प्रभु यीशु ने एक चमत्कार किया—उसने न केवल यह सुनिश्चित किया कि पाँच हज़ार लोग भरपेट खा लें, बल्कि कुछ भोजन बच भी गया। पवित्रशास्त्र में लिखा है : "जब वे खाकर तृप्‍त हो गए तो उसने अपने चेलों से कहा, 'बचे हुए टुकड़े बटोर लो कि कुछ फेंका न जाए।' अत: उन्होंने बटोरा, और जौ की पाँच रोटियों के टुकड़ों से जो खानेवालों से बच रहे थे, बारह टोकरियाँ भरीं।" इस चमत्कार ने लोगों को प्रभु यीशु की पहचान और हैसियत देखने में सक्षम बनाया, और यह भी कि परमेश्वर के लिए कुछ भी असंभव नहीं है—इस तरह उन्होंने परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता की सच्चाई को देखा। पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ पाँच हज़ार लोगों को खिलाने के लिए पर्याप्त थीं, परंतु यदि वहाँ कोई भोजन न होता, तो क्या परमेश्वर पाँच हज़ार लोगों को खिला सकता था? निस्संदेह वह खिला सकता था! यह एक चमत्कार था, इसलिए अनिवार्य रूप से लोगों को लगा कि यह समझ से बाहर, अविश्वसनीय और रहस्यमय है, परंतु परमेश्वर के लिए ऐसा करना कोई बड़ी बात नहीं थी। जब परमेश्वर के लिए यह एक सामान्य चीज़ थी, तो इसे अब व्याख्या करने के लिए क्यों चुना है? क्योंकि इस चमत्कार के पीछे प्रभु यीशु की इच्छा निहित है, जिसे मानवजाति द्वारा कभी देखा नहीं गया है।

पहले, आओ यह समझने का प्रयास करें कि ये पाँच हज़ार लोग किस प्रकार के थे। क्या वे प्रभु यीशु के अनुयायी थे? पवित्रशास्त्र से हम जानते हैं कि वे उसके अनुयायी नहीं थे। क्या वे जानते थे कि प्रभु यीशु कौन है? निश्चित रूप से नहीं! कम से कम, वे यह नहीं जानते थे कि जो व्यक्ति उनके सामने खड़ा है वह प्रभु यीशु है, या हो सकता है कि कुछ लोग केवल इतना जानते हों कि उसका नाम क्या है, और वे उसके द्वारा की गई चीज़ों के बारे में कुछ जानते हों या उनके बारे में उन्होंने कुछ सुना हो। प्रभु यीशु के बारे में उनकी उत्सुकता केवल तभी जाग्रत हुई थी, जब उन्होंने उसके बारे में कहानियाँ सुनी थीं, पर तुम लोग निश्चित रूप से यह नहीं कह सकते कि वे उसका अनुसरण करते थे, और यह तो बिलकुल भी नहीं कह सकते कि वे उसे समझते थे। जब प्रभु यीशु ने इन पाँच हज़ार लोगों को देखा, तो वे भूखे थे और केवल अपना पेट भरने के बारे में ही सोच सकते थे, इसलिए यह इस संदर्भ में था कि प्रभु यीशु ने उनकी इच्छा पूरी की। जब उसने उनकी इच्छा पूरी की, तो उसके हृदय में क्या था? इन लोगों के प्रति उसका रवैया क्या था, जो केवल अपना पेट भरना चाहते थे? इस समय प्रभु यीशु के विचार और उसका रवैया परमेश्वर के स्वभाव और सार से संबंधित थे। इन लोगों का सामना करने पर, जो खाली पेट थे और केवल भरपेट भोजन करना चाहते थे, और जो उसके प्रति उत्सुकता और आशा से भरे थे, प्रभु यीशु ने केवल उन पर अनुग्रह करने के लिए इस चमत्कार का उपयोग करने के बारे में सोचा। किंतु उसने यह आशा नहीं की कि वे उसके अनुयायी बन जाएँगे, क्योंकि वह जानता था कि वे केवल मौज-मस्ती करना और पेट भरकर खाना चाहते थे, इसलिए उसने वहाँ जो कुछ उसके पास था, उसका सर्वोत्तम उपयोग किया, और पाँच हज़ार लोगों को खिलाने के लिए पाँच रोटियों और दो मछलियों का उपयोग किया। उसने उन लोगों की आँखें खोल दीं, जिन्हें रोमांचक चीज़ें देखने में मज़ा आता था, जो चमत्कार देखना चाहते थे, और उन्होंने अपनी आँखों से उन चीज़ों को देखा, जिन्हें देहधारी परमेश्वर पूरी कर सकता था। यद्यपि प्रभु यीशु ने उनकी उत्सुकता शांत करने के लिए कुछ मूर्त चीज़ों का उपयोग किया, किंतु वह अपने हृदय में पहले से जानता था कि ये पाँच हज़ार लोग बस अच्छा भोजन करना चाहते हैं, इसलिए उसने उन्हें उपदेश नहीं दिया, बल्कि उनसे कुछ भी नहीं कहा—उसने बस उन्हें वह चमत्कार घटित होता देखने दिया। वह इन लोगों के साथ ठीक उसी तरह से व्यवहार नहीं कर सकता था, जिस तरह से वह अपने उन शिष्यों के साथ करता था जो वास्तव में उसका अनुसरण करते थे, परंतु परमेश्वर के हृदय में सभी प्राणी उसके शासन के अधीन हैं, और आवश्यकता पड़ने पर वह अपनी दृष्टि में सभी प्राणियों को परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने देता है। भले ही ये लोग नहीं जानते थे कि वह कौन है या वे उसे समझते नहीं थे या रोटियाँ और मछली खाने के बाद भी उनके ऊपर उसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था या उसके प्रति उनमें कोई कृतज्ञता नहीं थी, यह ऐसा कुछ नहीं था जिसका परमेश्वर ने मुद्दा बनाया हो—उसने उन्हें परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने का एक अद्भुत अवसर दिया था। कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसमें उसके सिद्धांत होते हैं, कि वह अविश्वासियों पर नज़र नहीं रखता या उनकी सुरक्षा नहीं करता, और कि, विशेष रूप से, वह उन्हें अपने अनुग्रह का आनंद नहीं उठाने देता। क्या मामला वास्तव में ऐसा ही है? परमेश्वर की नज़रों में, जब तक वे ऐसे जीवित प्राणी हैं जिन्हें उसने स्वयं बनाया है, वह उनका प्रबंधन और उनकी परवाह करेगा; और अनेक तरीकों से वह उनके साथ व्यवहार करेगा, उनके लिए योजना बनाएगा और उन पर शासन करेगा। सभी चीज़ों के प्रति परमेश्वर के यही विचार और यही रवैया है।

यद्यपि रोटी और मछली खाने वाले पाँच हज़ार लोगों ने प्रभु यीशु का अनुसरण करने की योजना नहीं बनाई, फिर भी उसने उनसे कोई कठोर माँग नहीं की; जब उन्होंने भरपेट खा लिया, तो क्या तुम लोग जानते हो कि प्रभु यीशु ने क्या किया? क्या उसने उन्हें ज़रा भी उपदेश दिया? ऐसा करने के बाद वह कहाँ गया? पवित्रशास्त्र में दर्ज नहीं है कि प्रभु यीशु ने उनसे कुछ कहा था; बस अपना चमत्कार पूरा करके वह चुपके से चला गया। तो क्या उसने इन लोगों से कोई अपेक्षा की? क्या उसके मन में उनके प्रति कोई नफ़रत थी? नहीं, ऐसा कुछ नहीं था। वह बस इन लोगों पर अब और ध्यान देना नहीं चाहता था, जो उसका अनुसरण नहीं कर सकते थे, और इस समय उसके हृदय में दर्द था। क्योंकि उसने मानवजाति की भ्रष्टता को देखा था और उसके द्वारा नकारे जाने का अनुभव किया था, जब उसने इन लोगों को देखा और जब वह उनके साथ था, तो मनुष्य की मूढ़ता और अज्ञानता से वह बहुत दुःखी हुआ और उसके हृदय को पीड़ा पहुँची, वह बस इन लोगों को जल्दी से जल्दी छोड़कर चला जाना चाहता था। प्रभु ने अपने हृदय में उनसे कोई अपेक्षाएँ नहीं कीं, वह उन पर कोई ध्यान देना नहीं चाहता था, और इससे भी अधिक, वह अपनी ऊर्जा उन पर व्यय नहीं करना चाहता था। वह जानता था कि वे उसका अनुसरण नहीं कर सकते, किंतु इस सबके बावजूद, उनके प्रति उसका रवैया अभी भी बिलकुल स्पष्ट था। वह बस उनके साथ दयालुता का बरताव करना चाहता था, उन्हें अनुग्रह प्रदान करना चाहता था, और निस्संदेह, यह अपने शासन के अधीन प्रत्येक प्राणी के प्रति परमेश्वर का रवैया था—प्रत्येक प्राणी के साथ दयालुता का व्यवहार करना, उनका भरण-पोषण करना, उनका पालन-पोषण करना। जिस मुख्य कारण से प्रभु यीशु देहधारी परमेश्वर था, उस कारण से उसने बहुत ही प्राकृतिक ढंग से स्वयं परमेश्वर के सार को प्रकट किया और इन लोगों के साथ दयालुता का बरताव किया। उसने उनके साथ परोपकार और सहनशीलता वाले हृदय से व्यवहार किया, और ऐसे हृदय से उसने उन पर दया दिखाई। चाहे इन लोगों ने प्रभु यीशु को जैसे भी देखा, और चाहे इसका जैसा भी परिणाम होता, उसने हर प्राणी के साथ समस्त सृष्टि के प्रभु की अपनी स्थिति के आधार पर व्यवहार किया। उसने जो कुछ भी प्रकट किया, वह बिना किसी अपवाद के परमेश्वर का स्वभाव और स्वरूप था। प्रभु यीशु ने चुपचाप यह काम किया, और फिर चुपचाप चला गया—परमेश्वर के स्वभाव का यह कौन-सा पहलू है? क्या तुम कह सकते हो कि यह परमेश्वर की प्रेममय करुणा है? क्या तुम कह सकते हो कि यह परमेश्वर की निस्स्वार्थता है? क्या कोई सामान्य व्यक्ति ऐसा कर सकता है? निश्चित रूप से नहीं! सार रूप में, ये पाँच हज़ार लोग कौन थे, जिन्हें प्रभु यीशु ने पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ खिलाईं? क्या तुम कह सकते हो कि वे ऐसे लोग थे, जो उसके अनुकूल थे? क्या तुम कह सकते हो कि वे सभी परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण थे? ऐसा निश्चितता के साथ कहा जा सकता है कि वे प्रभु यीशु के बिलकुल भी अनुरूप नहीं थे, और उनका सार परमेश्वर के प्रति एकदम शत्रुतापूर्ण था। परंतु परमेश्वर ने उनके साथ कैसा बरताव किया? उसने परमेश्वर के प्रति लोगों का विरोध शांत करने के लिए एक तरीके का उपयोग किया था—इस तरीके को "दयालुता" कहते हैं। अर्थात्, यद्यपि प्रभु यीशु ने उन्हें पापियों के रूप में देखा, किंतु परमेश्वर की नज़रों में वे फिर भी उसकी रचना थे, इसलिए उसने इन पापियों के साथ फिर भी दयालुता का व्यवहार किया। यह परमेश्वर की सहनशीलता है, और यह सहनशीलता परमेश्वर की अपनी पहचान और सार से निर्धारित होती है। इसलिए, यह ऐसी चीज़ है, जिसे करने में परमेश्वर द्वारा सृजित कोई भी मनुष्य सक्षम नहीं है—केवल परमेश्वर ही इसे कर सकता है।

जब तुम परमेश्वर के विचारों और मानवजाति के प्रति उसके रवैये को समझने में वास्तव में समर्थ होते हो, जब तुम प्रत्येक प्राणी के प्रति परमेश्वर की भावनाओं और चिंता को वास्तव में समझ सकते हो, तब तुम सृजनकर्ता द्वारा सृजित हर एक मनुष्य पर व्यय की गई उसकी लगन और प्रेम को समझने में भी समर्थ हो जाओगे। जब ऐसा होगा, तब तुम परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करने के लिए दो शब्दों का उपयोग करोगे। वे कौन-से दो शब्द हैं? कुछ लोग कहते हैं "निस्स्वार्थ," और कुछ लोग कहते हैं "परोपकारी।" इन दोनों में से "परोपकारी" शब्द परमेश्वर के प्रेम की व्याख्या करने के लिए सबसे कम उपयुक्त है। इस शब्द का उपयोग लोग किसी ऐसे व्यक्ति का वर्णन करने के लिए करते हैं, जो उदारमना या व्यापक सोच वाला हो। मैं इस शब्द से घृणा करता हूँ, क्योंकि यह यूँ ही, विवेकहीनता से, बिना सिद्धांतों की परवाह किए दान देने को संदर्भित करता है। यह एक अत्यधिक भावुकतापूर्ण झुकाव है, जो मूर्ख और भ्रमित लोगों के लिए आम है। जब इस शब्द का उपयोग परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करने के लिए किया जाता है, तो इसमें अपरिहार्य रूप से ईशनिंदा का संकेतार्थ होता है। मेरे पास यहाँ दो शब्द हैं, जो अधिक उचित रूप से परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करते हैं। वे दो शब्द कौन-से हैं? पहला शब्द है "विशाल।" क्या यह शब्द बहुत उद्बोधक नहीं है? दूसरा शब्द है "अनंत।" इन दोनों शब्दों के पीछे वास्तविक अर्थ है, जिसका मैं परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करने के लिए उपयोग करता हूँ। शब्दशः लेने पर, "विशाल" शब्द किसी चीज़ की मात्रा और क्षमता का वर्णन करता है, पर वह चीज़ कितनी ही बड़ी क्यों न हो, वह ऐसी होती है जिसे लोग छू और देख सकते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वह मौजूद है—वह कोई अमूर्त चीज़ नहीं है, बल्कि ऐसी चीज़ है, जो लोगों को अपेक्षाकृत सटीक और व्यावहारिक रूप में विचार दे सकती है। चाहे तुम इसे द्विआयामी दृष्टिकोण से देखो या त्रिआयामी दृष्टिकोण से; तुम्हें इसकी मौजूदगी की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह एक ऐसी चीज़ है जो वास्तव में मौजूद है। यद्यपि परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करने के लिए "विशाल" शब्द का उपयोग करना उसके प्रेम का परिमाण निर्धारित करने का प्रयास लग सकता है, किंतु यह इस बात का एहसास भी देता है कि उसके प्रेम का परिमाण निर्धारित नहीं किया जा सकता। मैं कहता हूँ कि परमेश्वर के प्रेम का परिमाण निर्धारित किया जा सकता है, क्योंकि उसका प्रेम खोखला नहीं है, और न ही वह कोई किंवदंती है। बल्कि वह एक ऐसी चीज़ है, जिसे परमेश्वर द्वारा शासित सभी प्राणियों द्वारा साझा किया जाता है, ऐसी चीज़, जिसका सभी प्राणियों द्वारा विभिन्न मात्राओं में और विभिन्न परिप्रेक्ष्यों से आनंद लिया जाता है। यद्यपि लोग उसे देख या छू नहीं सकते, फिर भी यह प्रेम सभी के जीवन में थोड़ा-थोड़ा प्रकट होकर उनके लिए पोषण और जीवन लाता है, और वे हर क्षण परमेश्वर के जिस प्रेम का आनंद लेते हैं उसे गिनते और उसकी गवाही देते हैं। मैं कहता हूँ कि परमेश्वर के प्रेम का परिमाण निर्धारित नहीं किया जा सकता, क्योंकि परमेश्वर द्वारा सभी चीज़ों का भरण-पोषण और पालन-पोषण करने का रहस्य ऐसी चीज़ है, जिसकी थाह पाना मनुष्यों के लिए कठिन है, और ऐसे ही सभी चीज़ों के लिए, और विशेष रूप से मानवजाति के लिए, परमेश्वर के विचार हैं। अर्थात्, परमेश्वर द्वारा मानवजाति के लिए बहाए गए लहू और आसूँओं को कोई नहीं जानता। उस मानवजाति के लिए सृजनकर्ता के प्रेम की गहराई और वज़न को कोई नहीं बूझ सकता, कोई नहीं समझ सकता, जिसे उसने अपने हाथों से बनाया है। परमेश्वर के प्रेम को विशाल बताना उसके अस्तित्व के विस्तार और सच्चाई को समझने-बूझने में लोगों की सहायता करना है। यह इसलिए भी है, ताकि लोग "सृजनकर्ता" शब्द के वास्तविक अर्थ को अधिक गहराई से समझ सकें, और ताकि लोग "सृष्टि" नाम के सच्चे अर्थ की एक गहरी समझ प्राप्त कर सकें। "अनंत" शब्द आम तौर पर किस चीज़ का वर्णन करता है? यह सामान्यतः महासागर या ब्रह्मांड के लिए प्रयुक्त होता है, जैसे "अनंत ब्रह्मांड", या "अनंत महासागर"। ब्रह्मांड की व्यापकता और शांत गहराई मनुष्य की समझ से परे है; वह ऐसी चीज़ है, जो मनुष्य की कल्पना को पकड़ लेती है, जिसके प्रति वे बहुत प्रशंसा महसूस करते हैं। उसका रहस्य और गहराई दृष्टि के भीतर हैं, किंतु पहुँच से बाहर हैं। जब तुम महासागर के बारे में सोचते हो, तो तुम उसके विस्तार के बारे में सोचते हो—वह असीम दिखाई देता है, और तुम उसकी रहस्यमयता और चीज़ों को धारण करने की उसकी महान क्षमता महसूस कर सकते हो। इसीलिए मैंने परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करने के लिए "अनंत" शब्द का उपयोग किया है, ताकि लोगों को यह महसूस करने में मदद मिल सके कि उसके प्रेम की अगाध सुंदरता महसूस करना कितना बहुमूल्य है, और कि परमेश्वर के प्रेम की ताक़त अनंत और व्यापक है। मैंने इस शब्द का प्रयोग लोगों को परमेश्वर के प्रेम की पवित्रता, और उसके प्रेम के माध्यम से प्रकट होने वाली उसकी गरिमा और अनुल्लंघनीयता महसूस करने में सहायता करने के लिए किया। अब क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करने के लिए "अनंत" एक उपयुक्त शब्द है? क्या परमेश्वर के प्रेम का मापन इन दो शब्दों "विशाल" और "अनंत" से हो जाता है? पूर्ण रूप से! मानवीय भाषा में केवल ये दो शब्द ही कुछ उपयुक्त, और परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करने के अपेक्षाकृत करीब हैं। क्या तुम लोगों को ऐसा नहीं लगता? यदि मैं तुम लोगों से परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करवाता, तो क्या तुम लोग इन दो शब्दों का उपयोग करते? बहुत संभव है कि तुम लोग न करते, क्योंकि परमेश्वर के प्रेम की तुम लोगों की समझ-बूझ एक द्विआयामी परिप्रेक्ष्य तक ही सीमित है, और वह त्रिआयामी स्तर की ऊँचाई तक नहीं पहुँची है। इसलिए यदि मैं तुम लोगों से परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करवाता, तो तुम लोगों को लगता कि तुम्हारे पास शब्दों का अभाव है या शायद तुम लोग अवाक् भी रह जाते। आज जिन दो शब्दों के बारे में मैंने बात की है, उन्हें समझना तुम लोगों के लिए कठिन हो सकता है, या शायद तुम लोग उनसे सहमत ही न हों। यह केवल यही दर्शाता है कि परमेश्वर के प्रेम के बारे में तुम लोगों की समझ-बूझ सतही और एक संकीर्ण दायरे तक सीमित है। मैंने पहले कहा है कि परमेश्वर निस्स्वार्थ है; तुम लोगों को यह शब्द "निस्स्वार्थ" याद है। क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर के प्रेम का केवल निस्स्वार्थ के रूप में वर्णन किया जा सकता हो? क्या यह बहुत संकीर्ण दायरा नहीं है? तुम लोगों को इस मुद्दे पर और अधिक चिंतन करना चाहिए, ताकि तुम इससे कुछ प्राप्त कर सको।

ऊपर हमने प्रथम चमत्कार से परमेश्वर के स्वभाव और सार को देखा। भले ही यह एक कहानी है, जिसे लोग कई हज़ार वर्षों से पढ़ते आ रहे हैं, इसका एक सरल कथानक है, और यह लोगों को एक साधारण घटना दिखाती है, फिर भी इस सरल कथानक में हम कुछ अधिक मूल्यवान चीज़ देख सकते हैं, जो कि परमेश्वर का स्वभाव और स्वरूप है। ये चीज़ें, जो उसका स्वरूप हैं, स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करती हैं और स्वयं परमेश्वर के विचारों की एक अभिव्यक्ति हैं। जब परमेश्वर अपने विचार व्यक्त करता है, तो यह उसके हृदय की आवाज़ की अभिव्यक्ति होती है। वह आशा करता है कि ऐसे लोग होंगे, जो उसे समझ सकते हैं, उसे जान सकते हैं, और उसकी इच्छा को समझ सकते हैं, और जो उसके हृदय की आवाज़ सुन सकते हैं और जो उसकी इच्छा पूरी करने के लिए सक्रियता से सहयोग करेंगे। प्रभु यीशु द्वारा की गई ये चीज़ें परमेश्वर की मूक अभिव्यक्ति थीं।

आगे, आओ हम इस अंश पर नज़र डालें : लाज़र का पुनरूत्थान परमेश्वर को महिमामंडित करता है।

इस अंश को पढ़ने के बाद इसका तुम लोगों पर क्या प्रभाव पड़ा? प्रभु यीशु द्वारा किए गए इस चमत्कार का महत्व पहले वाले चमत्कार से बहुत अधिक था, क्योंकि कोई भी चमत्कार किसी मरे हुए व्यक्ति को क़ब्र से बाहर लाने से ज्यादा आश्चर्यजनक नहीं हो सकता। उस युग में प्रभु यीशु का ऐसा कुछ करना अत्यंत महत्वपूर्ण था। चूँकि परमेश्वर देहधारी हो गया था, इसलिए लोग केवल उसके शारीरिक रूप-रंग, उसके व्यावहारिक पक्ष, और उसके महत्वहीन पक्ष को ही देख सकते थे। यदि कुछ लोगों ने उसके चरित्र की कोई चीज़ या कुछ विशेष योग्यताएँ देखी और समझी भी थीं, जो उसमें दिखाई देती थीं, तो भी यह कोई नहीं जानता था कि प्रभु यीशु कहाँ से आया है, अपने सार में वह वास्तव में कौन है, और वह वास्तव में और क्या कर सकता है। यह सब मानवजाति को अज्ञात था। इसलिए बहुत-से लोग प्रभु यीशु से संबंधित इन प्रश्नों का उत्तर देने और सत्य जानने के लिए प्रमाण ढूँढ़ना चाहते थे। क्या अपनी पहचान साबित करने के लिए परमेश्वर कुछ कर सकता था? परमेश्वर के लिए यह एक आसान बात थी—बच्चों का खेल था। वह अपनी पहचान और सार साबित करने के लिए कहीं भी, किसी भी समय कुछ कर सकता था, परंतु चीज़ों को करने का परमेश्वर का अपना तरीका था—वह हर चीज़ एक योजना के साथ और चरणों में करता था। उसने चीज़ों को विवेकहीनता से नहीं किया; मनुष्य को दिखाने हेतु कुछ करने के लिए सही समय और सही अवसर का इंतज़ार किया, कुछ ऐसा जो अर्थपूर्ण हो। इस तरह उसने अपना अधिकार और अपनी पहचान प्रमाणित की। तो क्या तब लाज़र का फिर से जी उठना प्रभु यीशु की पहचान प्रमाणित कर पाया? आओ, पवित्रशास्त्र के इस अंश को देखें : "और यह कहकर, उसने बड़े शब्द से पुकारा, हे लाज़र, निकल आ! जो मर गया था निकल आया...।" जब प्रभु यीशु ने ऐसा किया, तो उसने बस एक बात कही : "हे लाज़र, निकल आ!" तब लाजर अपनी क़ब्र से बाहर निकल आया—यह प्रभु द्वारा बोले गए कुछ वचनों के कारण संपन्न हुआ था। इस दौरान प्रभु यीशु ने न तो कोई वेदी स्थापित की, न ही उसने कोई अन्य गतिविधि की। उसने बस यह एक बात कही। इसे कोई चमत्कार कहा जाना चाहिए या आज्ञा? या यह किसी प्रकार की जादूगरी थी? सतही तौर पर, ऐसा प्रतीत होता है कि इसे एक चमत्कार कहा जा सकता है, और यदि तुम इसे आधुनिक परिप्रेक्ष्य से देखो, तो निस्संदेह तुम तब भी इसे एक चमत्कार ही कह सकते हो। किंतु इसे किसी मृत आत्मा को वापस बुलाने का जादू निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, और यह किसी तरह की जादूगरी तो बिलकुल भी नहीं थी। यह कहना सही है कि यह चमत्कार सृजनकर्ता के अधिकार का अत्यधिक सामान्य, छोटा-सा प्रदर्शन था। यह परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ्य है। परमेश्वर के पास किसी व्यक्ति को मारने, उसकी आत्मा उसके शरीर से निकालने और अधोलोक में या जहाँ भी उसे जाना चाहिए, भेजने का अधिकार है। कोई कब मरता है और मृत्यु के बाद कहाँ जाता है—यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया जाता है। वह ये निर्णय किसी भी समय और कहीं भी कर सकता है, वह मनुष्यों, घटनाओं, वस्तुओं, स्थान या भूगोल द्वारा विवश नहीं होता। यदि वह इसे करना चाहता है, तो वह इसे कर सकता है, क्योंकि सभी चीज़ें और जीवित प्राणी उसके शासन के अधीन हैं, और सभी चीज़ें उसके वचन और अधिकार द्वारा जन्म लेती हैं, जीती हैं और नष्ट हो जाती हैं। वह किसी मृत व्यक्ति को पुनर्जीवित कर सकता है, और यह भी वह किसी भी समय, कहीं भी कर सकता है। यह वह अधिकार है, जो केवल सृजनकर्ता के पास है।

जब प्रभु यीशु ने मृत लाज़र को पुनर्जीवित करने जैसी चीज़ें कीं, तो उसका उद्देश्य मनुष्यों और शैतान के देखने के लिए प्रमाण देना, और मनुष्य और शैतान को यह ज्ञात करवाना था कि मानवजाति से संबंधित सभी चीज़ें, मानवजाति का जीवन और उसकी मृत्यु परमेश्वर द्वारा निर्धारित की जाती हैं, और कि भले ही वह देहधारी हो गया था, फिर भी इस भौतिक संसार का, जिसे देखा जा सकता है, और साथ ही आध्यात्मिक संसार का भी, जिसे मनुष्य नहीं देख सकते, वही नियंत्रक था। यह इसलिए था, ताकि मनुष्य और शैतान जान लें कि मानवजाति से संबंधित कुछ भी शैतान के नियंत्रण में नहीं है। यह परमेश्वर के अधिकार का प्रकाशन और प्रदर्शन था, और यह सभी चीज़ों को यह संदेश देने का परमेश्वर का एक तरीका भी था कि मानवजाति का जीवन और मृत्यु परमेश्वर के हाथों में है। प्रभु यीशु द्वारा लाज़र को पुनर्जीवित किया जाना मानवजाति को शिक्षा और निर्देश देने का सृजनकर्ता का एक तरीका था। यह एक ठोस कार्य था, जिसमें उसने मानवजाति को निर्देश और पोषण प्रदान करने के लिए अपने सामर्थ्य और अधिकार का उपयोग किया था। यह सृजनकर्ता द्वारा बिना वचनों का इस्तेमाल किए मानवजाति को यह सच्चाई दिखाने का एक तरीका था कि वह सभी चीज़ों का नियंत्रक है। यह उसके द्वारा व्यावहारिक कार्यों के माध्यम से मानवजाति को यह बताने का एक तरीका था कि उसके माध्यम से मिलने वाले उद्धार के अलावा कोई उद्धार नहीं है। मानवजाति को निर्देश देने के लिए उसके द्वारा प्रयुक्त यह मूक उपाय चिरस्थायी, अमिट और मनुष्य के हृदय को एक ऐसा आघात और प्रबुद्धता देने वाला है, जो कभी फीके नहीं पड़ सकते। लाज़र को पुनर्जीवित करने के कार्य ने परमेश्वर को महिमामंडित किया—इसका परमेश्वर के प्रत्येक अनुयायी पर एक गहरा प्रभाव पड़ा है। यह हर उस व्यक्ति में, जो इस घटना को गहराई से समझता है, यह समझ और दर्शन मज़बूती से जमा देता है कि केवल परमेश्वर ही मानवजाति के जीवन और मृत्यु पर नियंत्रण कर सकता है। यद्यपि परमेश्वर के पास इस प्रकार का अधिकार है, और यद्यपि उसने लाज़र को पुनर्जीवित करने के माध्यम से मानवजाति के जीवन और मृत्यु के ऊपर अपनी संप्रभुता के बारे में एक संदेश भेजा, फिर भी यह उसका प्राथमिक कार्य नहीं था। परमेश्वर बिना किसी अर्थ के कभी कोई कार्य नहीं करता। हर एक चीज़ जो वह करता है, उसका बड़ा मूल्य होता है और वह खजानों के भंडार में एक नायाब नगीना होती है। वह "किसी व्यक्ति को क़ब्र से बाहर लाने" को अपने कार्य का प्राथमिक या एकमात्र उद्देश्य या मद बिलकुल नहीं बनाएगा। परमेश्वर ऐसी कोई चीज़ नहीं करता, जिसका कोई अर्थ न हो। एक विलक्षण घटना के रूप में लाज़र को पुनर्जीवित करना परमेश्वर का अधिकार प्रदर्शित करने और प्रभु यीशु की पहचान साबित करने के लिए पर्याप्त था। इसीलिए प्रभु यीशु ने इस प्रकार का चमत्कार दोहराया नहीं। परमेश्वर चीज़ों को अपने सिद्धांतों के अनुसार करता है। मनुष्य की भाषा में यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर अपना मस्तिष्क केवल गंभीर कार्यों में व्यस्त रखता है। अर्थात्, जब परमेश्वर चीज़ों को करता है, तब वह अपने कार्य के उद्देश्य से भटकता नहीं। वह जानता है कि इस चरण में वह कौन-सा कार्य करना चाहता है, वह क्या संपन्न करना चाहता है, और वह एकदम अपनी योजना के अनुसार कार्य करेगा। यदि किसी भ्रष्ट व्यक्ति के पास इस प्रकार की क्षमता होती, तो वह बस अपनी योग्यता प्रदर्शित करने के तरीकों के बारे में ही सोचता रहता, ताकि अन्य लोगों को पता चल जाए कि वह कितना दुर्जेय है, जिससे वे उसके सामने झुक जाएँ, ताकि वह उन्हें नियंत्रित कर सके और उन्हें निगल सके। यह बुराई शैतान से आती है—इसे भ्रष्टता कहते हैं। परमेश्वर का इस प्रकार का स्वभाव नहीं है, और उसका इस प्रकार का सार नहीं है। चीज़ों को करने के पीछे उसका उद्देश्य अपना दिखावा करना नहीं है, बल्कि मानवजाति को और अधिक प्रकाशन और मार्गदर्शन प्रदान करना है, और यही कारण है कि लोगों को बाइबल में इस तरह की घटनाओं के बहुत कम उदाहरण देखने को मिलते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि प्रभु यीशु का सामर्थ्य सीमित था, या वह इस प्रकार की चीज़ें नहीं कर सकता था। इसका कारण केवल था कि परमेश्वर ऐसा करना नहीं चाहता था, क्योंकि प्रभु यीशु द्वारा लाज़र को पुनर्जीवित करने का बहुत व्यावहारिक महत्व था, और परमेश्वर के देहधारी होने का प्राथमिक कार्य चमत्कार करना नहीं था, मुर्दों को जीवित करना नहीं था, बल्कि मानवजाति के छुटकारे का कार्य करना था। इसलिए प्रभु यीशु ने जो कार्य पूरा किया, उसमें अधिकांशत: लोगों को शिक्षा देना, उन्हें पोषण प्रदान करना और उनकी सहायता करना था, और लाज़र को पुनर्जीवित करने जैसी घटनाएँ प्रभु यीशु द्वारा की गई सेवकाई का मात्र एक छोटा-सा हिस्सा था। इससे भी अधिक, तुम लोग कह सकते हो कि "दिखावा करना" परमेश्वर के सार का अंग नहीं है, इसलिए अधिक चमत्कार न दिखाकर प्रभु यीशु जानबूझकर संयम नहीं बरत रहा था, न ही यह पर्यावरणीय सीमाओं के कारण था, और यह सामर्थ्य की कमी के कारण तो बिलकुल भी नहीं था।

जब प्रभु यीशु ने लाज़र को पुनर्जीवित किया, तो उसने इन वचनों का उपयोग किया : "हे लाज़र, निकल आ!" उसने इसके अलावा कुछ नहीं कहा। तो ये वचन क्या दर्शाते हैं? ये दर्शाते हैं कि परमेश्वर बोलने के द्वारा कुछ भी कर सकता है, जिसमें एक मरे हुए व्यक्ति को पुनर्जीवित करना भी शामिल है। जब परमेश्वर ने सभी चीज़ों का सृजन किया, जब उसने संसार बनाया, तो उसने ऐसा अपने वचनों—मौखिक आज्ञाओं, अधिकार-युक्त वचनों का उपयोग करके ही किया था, और सभी चीज़ों का सृजन इसी तरह हुआ था, और यह कार्य इसी तरह संपन्न हुआ था। प्रभु यीशु द्वारा कहे गए ये कुछ वचन परमेश्वर द्वारा उस समय कहे गए वचनों के समान थे, जब उसने आकाश और पृथ्वी और सभी चीज़ों का सृजन किया था; वे उसी तरह से परमेश्वर का अधिकार और सृजनकर्ता का सामर्थ्य रखते थे। परमेश्वर के मुँह से निकले वचनों की वजह से सभी चीज़ें बनीं और कायम रहीं, और बिलकुल वैसे ही प्रभु यीशु के मुँह से निकले वचनों के कारण लाज़र अपनी क़ब्र से बाहर आ गया। यह परमेश्वर का अधिकार था, जो उसके द्वारा धारित देह में प्रदर्शित और साकार हुआ था। इस प्रकार का अधिकार और क्षमता सृजनकर्ता की और मनुष्य के उस पुत्र की है, जिसमें सृजनकर्ता साकार हुआ था। लाज़र को पुनर्जीवित करके परमेश्वर द्वारा मानवजाति को यही समझ सिखाई गई है। अब हम इस विषय पर अपनी चर्चा यहीं समाप्त करेंगे।

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