परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III
भाग तीन
आगे, आओ पवित्रशास्त्र के निम्नलिखित अंश पढ़ें।
6. यीशु का पहाड़ी उपदेश
धन्य वचन (मत्ती 5:3-12)
नमक और ज्योति (मत्ती 5:13-16)
व्यवस्था की शिक्षा (मत्ती 5:17-20)
क्रोध और हत्या (मत्ती 5:21-26)
व्यभिचार (मत्ती 5:27-30)
तलाक (मत्ती 5:31-32)
शपथ (मत्ती 5:33-37)
प्रतिशोध (मत्ती 5:38-42)
शत्रुओं से प्रेम (मत्ती 5:43-48)
दान (मत्ती 6:1-4)
प्रार्थना (मत्ती 6:5-8)
7. प्रभु यीशु के दृष्टांत
बीज बोने वाले का दृष्टांत (मत्ती 13:1-9)
जंगली बीज का दृष्टांत (मत्ती 13:24-30)
राई के बीज का दृष्टांत (मत्ती 13:31-32)
खमीर का दृष्टांत (मत्ती 13:33)
जंगली बीज के दृष्टांत की व्याख्या (मत्ती 13:36-43)
छिपे हुए खजाने का दृष्टांत (मत्ती 13:44)
अनमोल मोती का दृष्टांत (मत्ती 13:45-46)
जाल का दृष्टांत (मत्ती 13:47-50)
8. आज्ञाएँ
मत्ती 22:37-39 उसने उससे कहा, "तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख।"
आओ, पहले "यीशु का पहाड़ी उपदेश" के विभिन्न भागों में से प्रत्येक भाग को देखें। ये विभिन्न भाग किस चीज़ से संबंध रखते हैं? ऐसा निश्चितता के साथ कहा जा सकता है कि ये सभी विभिन्न भाग व्यवस्था के युग के नियमों की तुलना में अधिक उन्नत, अधिक ठोस और लोगों के जीवन के अधिक निकट हैं। आधुनिक शब्दों में कहें तो, ये चीज़ें लोगों के वास्तविक अभ्यास के लिए अधिक प्रासंगिक हैं।
आओ, निम्नलिखित विशिष्ट सामग्री को पढ़ें : तुम्हें धन्य वचनों को किस प्रकार समझना चाहिए? तुम्हें व्यवस्था के बारे में क्या जानना चाहिए? क्रोध को किस प्रकार परिभाषित किया जाना चाहिए? व्यभिचारियों से कैसे निपटा जाना चाहिए? तलाक के बारे में कैसे बोला जाता है, और उसके बारे में किस प्रकार के नियम हैं? कौन तलाक ले सकता है और कौन नहीं ले सकता? शपथ, प्रतिशोध, शत्रुओं से प्रेम, दान इत्यादि के बारे में क्या कहेंगे? आदि-आदि। ये सब चीज़ें मनुष्य द्वारा परमेश्वर पर विश्वास और उसका अनुसरण करने के अभ्यास के प्रत्येक पहलू से संबंध रखती हैं। इनमें से कुछ अभ्यास आज भी लागू हैं, हालाँकि वे लोगों से वर्तमान में जो अपेक्षित है, उसकी तुलना में उथले हैं—फिर भी वे काफी प्राथमिक सत्य हैं, जिनका सामना लोग परमेश्वर पर अपने विश्वास में करते हैं। जिस समय से प्रभु यीशु ने काम करना आरंभ किया, उससे पहले ही वह मनुष्यों के जीवन-स्वभाव पर काम करना शुरू कर चुका था, परंतु उसके कार्य के ये पहलू व्यवस्था की नींव पर आधारित थे। क्या इन विषयों पर बोलने के नियमों और तरीकों का सत्य के साथ कोई संबंध था? निस्संदेह था! पिछले सभी विनियम और सिद्धांत, और साथ ही अनुग्रह के युग के ये उपदेश भी, परमेश्वर के स्वभाव और स्वरूप से, और निस्संदेह सत्य से, संबंधित थे। परमेश्वर चाहे जो कुछ भी प्रकट करे, और चाहे वह अभिव्यक्ति का कोई भी तरीका या भाषा इस्तेमाल करे, उसके द्वारा अभिव्यक्त की जाने वाली सभी चीज़ों की नींव, उद्गम और प्रस्थान-बिंदु उसके स्वभाव और स्वरूप के सिद्धांतों में हैं। यह पूर्णत: सत्य है। इसलिए यद्यपि उसके द्वारा कही गई ये चीज़ें अब थोड़ी उथली दिखाई देती हैं, लेकिन तुम अभी भी यह नहीं कह सकते कि वे सत्य नहीं हैं, क्योंकि वे ऐसी चीज़ें थीं जो अनुग्रह के युग में लोगों के लिए परमेश्वर की इच्छा पूरी करने और अपने जीवन-स्वभाव में बदलाव लाने के लिए अपरिहार्य थीं। क्या तुम ऐसा कह सकते हो कि इनमें से कोई भी उपदेश सत्य के अनुरूप नहीं है? नहीं, तुम नहीं कह सकते! इनमें से प्रत्येक उपदेश सत्य है, क्योंकि ये सभी मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाएँ थीं; ये सभी परमेश्वर द्वारा दिए गए सिद्धांत और गुंजाइश थी, जो यह दर्शाते थे कि व्यक्ति को कैसा आचरण करना चाहिए, और वे परमेश्वर के स्वभाव को दर्शाते हैं। हालाँकि, उस समय जीवन में विकास के स्तर के आधार पर केवल यही चीज़ें थीं, जिन्हें वे स्वीकार करने और समझने में सक्षम थे। चूँकि अभी तक मानवजाति के पापों का समाधान नहीं हुआ था, इसलिए प्रभु यीशु केवल ये ही वचन जारी कर सकता था, और वह केवल इस प्रकार के दायरे के भीतर शामिल सरल शिक्षाओं का उपयोग करके ही उस समय के लोगों को यह बता सकता था कि उन्हें किस प्रकार कार्य करना चाहिए, उन्हें क्या करना चाहिए, उन्हें किन सिद्धांतों और दायरे के भीतर चीज़ों को करना चाहिए, और उन्हें किस प्रकार परमेश्वर पर विश्वास करना चाहिए और उसकी अपेक्षाएँ पूरी करनी चाहिए। यह सब उस समय मानवजाति की कद-काठी के आधार पर निर्धारित किया गया था। व्यवस्था के अधीन जीने वाले लोगों के लिए ये शिक्षाएँ ग्रहण करना आसान नहीं था, इसलिए जो प्रभु यीशु ने सिखाया, उसका इसी दायरे में रहना आवश्यक था।
आगे, आओ "प्रभु यीशु के दृष्टांतों" की विभिन्न सामग्रियों पर एक नज़र डालें।
पहला बीज बोने वाले का दृष्टांत है। यह एक बहुत ही रोचक दृष्टांत है; बीज बोना लोगों के जीवन में एक सामान्य घटना है। दूसरा जंगली बीज का दृष्टांत है। जिसने भी फसलें लगाई हैं, और निश्चित ही सभी वयस्कों ने लगाई होंगी, वे जान जाएँगे कि "जंगली बीज" क्या होते हैं। तीसरा राई के बीज का दृष्टांत है। तुम सभी लोग जानते हो कि राई क्या होती है, है न? यदि तुम नहीं जानते, तो तुम लोग बाइबल में देख सकते हो। चौथा खमीर का दृष्टांत है। अब, अधिकतर लोग जानते हैं कि खमीर को किण्वन के लिए इस्तेमाल किया जाता है, और यह ऐसी चीज़ है, जिसका लोग अपने दैनिक जीवन में उपयोग करते हैं। अगले दृष्टांत, जिनमें से छठा छिपे हुए खजाने का दृष्टांत, सातवाँ अनमोल मोती का दृष्टांत और आठवाँ जाल का दृष्टांत है, लोगों के वास्तविक जीवन से लिए गए हैं। ये दृष्टांत किस प्रकार की तसवीर चित्रित करते हैं? यह परमेश्वर के एक सामान्य व्यक्ति बनने और मनुष्यों के साथ रहने, मनुष्यों से बात करने और उन्हें उनकी आवश्यकता की चीज़ें प्रदान करने के लिए जीवन की भाषा, मनुष्य की भाषा का उपयोग करने की तसवीर है। जब परमेश्वर देहधारी हुआ और लंबे समय तक मनुष्यों के बीच रहा, तो लोगों की विभिन्न जीवन-शैलियों का अनुभव करने और उन्हें देखने के बाद, ये अनुभव उसकी शिक्षण-सामग्री बन गए, जिसके जरिये उसने अपनी दिव्य भाषा को मानवीय भाषा में रूपांतरित कर लिया। निस्संदेह, इन चीज़ों ने भी, जो उसने जीवन में देखीं और सुनीं, मनुष्य के पुत्र के मानवीय अनुभव को समृद्ध किया। जब वह लोगों को कुछ सत्य, परमेश्वर की कोई इच्छा समझाना चाहता था, तो वह लोगों को परमेश्वर की इच्छा और मानवजाति से उसकी अपेक्षाओं के बारे में बताने के लिए उपर्युक्त जैसे दृष्टांत इस्तेमाल कर सकता था। ये सभी दृष्टांत लोगों के जीवन से संबंधित थे; एक भी दृष्टांत ऐसा नहीं था जो मनुष्य के जीवन से अछूता था। जब प्रभु यीशु मनुष्यों के साथ रहता था, तो उसने किसानों को अपने खेतों की देखभाल करते हुए देखा था, और वह जानता था कि जंगली बीज कौन-से होते हैं और खमीर उठना क्या होता है; वह समझता था कि मनुष्य खजाने को पसंद करते हैं, इसलिए उसने खजाने और मोती दोनों रूपकों का उपयोग किया। जीवन में उसने बार-बार मछुआरों को जाल फैलाते हुए देखा था; प्रभु यीशु ने इसे और मनुष्यों के जीवन से संबंधित अन्य गतिविधियों को देखा; और उसने उस प्रकार के जीवन का अनुभव भी किया। किसी भी अन्य सामान्य मनुष्य के समान ही उसने मनुष्यों की दिनचर्या और उनके तीन वक्त भोजन करने का अनुभव किया था। उसने व्यक्तिगत रूप से एक औसत व्यक्ति के जीवन का अनुभव किया और दूसरों की ज़िंदगी को भी देखा। जब उसने यह सब देखा और व्यक्तिगत रूप से इसका अनुभव किया, तो उसने यह नहीं सोचा कि किस प्रकार एक अच्छा जीवन पाया जाए या वह किस प्रकार से अधिक स्वतंत्रता और आराम से जी सकता है। इसके बजाय अपने प्रामाणिक मानव-जीवन के अनुभव से प्रभु यीशु ने लोगों के जीवन में कठिनाई देखी, उसने शैतान के अधिकार-क्षेत्र में और उसकी भ्रष्टता के अधीन पाप का जीवन जी रहे लोगों की कठिनाई, दुर्दशा और विषाद को देखा। जब वह व्यक्तिगत रूप से मानव-जीवन का अनुभव ले रहा था, तब उसने यह भी अनुभव किया कि भ्रष्टता के बीच जी रहे लोग कितने असहाय हैं, और उसने पाप में जीने वाले मनुष्यों की दुर्दशा को देखा और अनुभव किया, जो शैतान और बुराई द्वारा दी गई यातना में हर दिशा खो बैठे थे। जब प्रभु यीशु ने ये चीज़ें देखीं, तो क्या उसने उन्हें अपनी दिव्यता से देखा या अपनी मानवता से? उसकी मानवता सचमुच मौजूद थी और वह बहुत अधिक जीवित थी; वह इस सबका अनुभव कर सकता था और इसे देख सकता था। किंतु निस्संदेह, उसने इन चीज़ों को अपने सार में भी देखा, जो उसकी दिव्यता है। अर्थात्, स्वयं मसीह, प्रभु यीशु, जो एक मनुष्य था, ने इसे देखा, और उसके द्वारा देखी गई हर चीज़ ने उसे उस कार्य का महत्व और आवश्यकता महसूस कराई, जिसे उसने उस समय हाथ में लिया था, जब वह देह में रहा था। यद्यपि वह स्वयं जानता था कि जो उत्तरदायित्व उसे देह में लेना आवश्यक है, वह बहुत बड़ा है, और वह जानता था कि जिस पीड़ा का वह सामना करेगा, वह कितनी दारुण होगी, फिर भी जब उसने पाप में जी रहे मनुष्यों को असहाय देखा, जब उसने उनकी ज़िंदगी की दुर्दशा और व्यवस्था के अधीन उनके कमज़ोर संघर्ष को देखा, तो उसने अधिकाधिक पीड़ा का अनुभव किया, और वह मानवजाति को पाप से बचाने के लिए अधिकाधिक व्याकुल हो गया। चाहे उसे किसी भी प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़े या किसी भी प्रकार की पीड़ा सहनी हो, वह पाप में जी रही मानवजाति को बचाने के लिए और अधिक कृतसंकल्प हो गया। इस प्रक्रिया के दौरान, तुम कह सकते हो कि प्रभु यीशु ने उस कार्य को और अधिक स्पष्टता से समझना आरंभ कर दिया था, जो उसे करने की आवश्यकता थी और जो उसे सौंपा गया था। वह उस कार्य को पूरा करने के लिए अधिकाधिक उत्सुक भी हो गया, जो उसे करना था—मानवजाति के समस्त पाप ग्रहण करना, मनुष्यों के लिए प्रायश्चित करना ताकि वे अब पाप में न जीएँ, और साथ ही परमेश्वर पापबलि की वजह से मनुष्य के पाप क्षमा कर सके, जिससे उसे मानवजाति को बचाने का अपना कार्य आगे बढ़ाने की अनुमति मिले। ऐसा कहा जा सकता है कि अपने हृदय में प्रभु यीशु अपने आप को मानवजाति के लिए अर्पित करने, अपना बलिदान करने के लिए तैयार था। वह एक पापबलि के रूप में कार्य करने, सूली पर चढ़ाए जाने के लिए भी तैयार था, और निस्संदेह, वह इस कार्य को पूरा करने के लिए उत्सुक था। जब उसने मानव-जीवन की दयनीय दशा देखी, तो वह बिना एक भी क्षण या क्षणांश की देरी के, जल्दी से जल्दी अपना लक्ष्य पूरा करने के लिए और अधिक इच्छुक हो गया। ऐसी अत्यावश्यकता महसूस करते हुए उसने यह भी नहीं सोचा कि उसका अपना दर्द कितना भयानक होगा, न ही उसने कोई और आशंका पाली कि उसे कितना अपमान सहना होगा। उसके हृदय में बस एक ही दृढ़ विश्वास था : यदि वह अपने को अर्पित करेगा, यदि वह पापबलि के रूप में सूली पर चढ़ जाएगा, तो परमेश्वर की इच्छा पूरी हो जाएगी और परमेश्वर अपना नया कार्य शुरू कर पाएगा। मनुष्य का जीवन और पाप में उसके अस्तित्व की स्थिति पूर्णत: रूपांतरित हो जाएगी। उसका दृढ़ विश्वास और जो कुछ करने के लिए वह कृतसंकल्प था, वे मनुष्य को बचाने से संबंध रखते थे, और उसका एक ही उद्देश्य था : परमेश्वर की इच्छा पर चलना, ताकि वह अपने कार्य के अगले चरण की सफलतापूर्वक शुरुआत कर सके। उस समय प्रभु यीशु के मन में बस यही था।
देह में रहते हुए देहधारी परमेश्वर में सामान्य मानवता थी; उसके अंदर एक सामान्य व्यक्ति की भावनाएँ और चेतना थी। वह जानता था कि खुशी क्या होती है, पीड़ा क्या होती है, और जब उसने मनुष्य को इस प्रकार का जीवन जीते देखा, तो उसने गहराई से महसूस किया कि लोगों को मात्र कुछ शिक्षाएँ देने, कुछ प्रदान करने या कुछ सिखाने से पाप से बाहर नही निकाला जा सकता। न ही उनसे कुछ आज्ञाओं का पालन करवाने से उन्हें पाप से छुटकारा दिया जा सकता था—केवल मानवजाति के पाप अपने ऊपर लेकर और पापमय देह के समान बनकर ही वह मानवजाति की स्वतंत्रता जीत सकता था और बदले में मानवजाति के लिए परमेश्वर की क्षमा प्राप्त कर सकता था। इसलिए जब प्रभु यीशु ने लोगों की पापमय ज़िंदगी का अनुभव कर लिया और उसे देख लिया, तो उसके हृदय में एक प्रबल इच्छा प्रकट हुई—मनुष्यों को उनकी पाप में संघर्ष करती ज़िंदगी से छुटकारा दिलाने की। इस इच्छा ने उसे अधिकाधिक यह महसूस करवाया कि उसे यथाशीघ्र सूली पर चढ़ना चाहिए और मानवजाति के पाप अपने ऊपर ले लेने चाहिए। लोगों के साथ रहने और उनके पापमय जीवन की दुर्गति देखने, सुनने और महसूस करने के बाद उस समय प्रभु यीशु के ये विचार थे। देहधारी परमेश्वर द्वारा मानवजाति के लिए इस प्रकार की इच्छा करना, उसके द्वारा इस प्रकार का स्वभाव व्यक्त और प्रकट करना—क्या यह कोई औसत व्यक्ति कर सकता है? इस प्रकार के परिवेश में रहते हुए कोई औसत व्यक्ति क्या देखेगा? वह क्या सोचेगा? यदि किसी औसत व्यक्ति ने इस सबका सामना किया होता, तो क्या वह समस्याओं को उच्च परिप्रेक्ष्य से देख पाता? निश्चित रूप से नहीं! यद्यपि देहधारी परमेश्वर का बाहरी रूप-रंग ठीक मनुष्य के समान है, और यद्यपि वह मानवीय ज्ञान सीखता है और मानवीय भाषा बोलता है, और कभी-कभी अपने विचार मनुष्य की पद्धतियों या बोलने के तरीकों से भी व्यक्त करता है, फिर भी, जिस तरीके से वह मनुष्यों को और चीज़ों के सार को देखता है, वह भ्रष्ट लोगों द्वारा मनुष्यों को और चीज़ों के सार को देखने के तरीके के समान बिलकुल नहीं है। उसका परिप्रेक्ष्य और वह ऊँचाई, जिस पर वह खड़ा है, किसी भ्रष्ट व्यक्ति के द्वारा अप्राप्य है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर सत्य है, क्योंकि उसके द्वारा धारित देह में भी परमेश्वर का सार है, और उसके विचार तथा जो कुछ उसकी मानवता के द्वारा प्रकट किया जाता है, वे भी सत्य हैं। भ्रष्ट लोगों के लिए, जो कुछ वह देह में व्यक्त करता है, वह सत्य और जीवन के प्रावधान हैं। ये प्रावधान केवल एक व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि पूरी मानवजाति के लिए हैं। किसी भ्रष्ट व्यक्ति के हृदय में केवल वे थोड़े-से लोग ही होते हैं, जो उससे संबद्ध होते हैं। वह केवल उन मुट्ठीभर लोगों की ही परवाह करता है और उन्हीं के बारे में चिंता करता है। जब आपदा क्षितिज पर होती है, तो वह पहले अपने बच्चों, जीवनसाथी, या माता-पिता के बारे में सोचता है। अधिक से अधिक, कोई ज्यादा दयालु व्यक्ति किसी रिश्तेदार या अच्छे मित्र के बारे में कुछ सोच लेगा; पर क्या ऐसे दयालु व्यक्ति के विचार भी इससे आगे जाते हैं? नहीं, कभी नहीं! क्योंकि मनुष्य अंततः मनुष्य हैं, और वे सब-कुछ एक मनुष्य की ऊँचाई और परिप्रेक्ष्य से ही देख सकते हैं। किंतु देहधारी परमेश्वर भ्रष्ट व्यक्ति से पूर्णत: अलग है। देहधारी परमेश्वर का देह कितना ही साधारण, कितना ही सामान्य, कितना ही निम्न क्यों न हो, या लोग उसे कितनी ही नीची निगाह से क्यों न देखते हों, मानवजाति के प्रति उसके विचार और उसका रवैया ऐसी चीज़ें है, जो किसी भी मनुष्य में नहीं हैं, जिनका कोई मनुष्य अनुकरण नहीं कर सकता। वह मानवजाति का अवलोकन हमेशा दिव्यता के परिप्रेक्ष्य से, सृजनकर्ता के रूप में अपनी स्थिति की ऊँचाई से करेगा। वह मानवजाति को हमेशा परमेश्वर के सार और मानसिकता से देखेगा। वह मानवजाति को एक औसत व्यक्ति की निम्न ऊँचाई से, या एक भ्रष्ट व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से बिलकुल नहीं देख सकता। जब लोग मानवजाति को देखते हैं, तो मनुष्य की दृष्टि से देखते हैं, और अपने पैमाने के रूप में वे मनुष्य के ज्ञान और मनुष्य के नियमों और सिद्धांतों जैसी चीज़ों का उपयोग करते हैं। यह उस दायरे के भीतर है, जिसे लोग अपनी आँखों से देख सकते हैं; उस दायरे के भीतर है, जो भ्रष्ट लोगों द्वारा प्राप्य है। जब परमेश्वर मानवजाति को देखता है, तो वह दिव्य दृष्टि से देखता है, और पैमाने के रूप में अपने सार और स्वरूप का उपयोग करता है। इस दायरे में वे चीज़ें शामिल हैं जिन्हें लोग नहीं देख सकते, और यहीं पर देहधारी परमेश्वर और भ्रष्ट मनुष्य पूरी तरह से भिन्न हैं। यह भिन्नता मनुष्यों और परमेश्वर के भिन्न-भिन्न सार से निर्धारित होती है—ये भिन्न-भिन्न सार ही उनकी पहचान और स्थिति को और साथ ही उस परिप्रेक्ष्य और ऊँचाई को निर्धारित करते हैं, जिससे वे चीज़ों को देखते हैं। क्या तुम लोग प्रभु यीशु में स्वयं परमेश्वर की अभिव्यक्ति और प्रकाशन देखते हो? तुम कह सकते हो कि प्रभु यीशु ने जो किया और कहा, वह उसकी सेवकाई से और परमेश्वर के अपने प्रबंधन-कार्य से संबंधित था, कि वह सब परमेश्वर के सार की अभिव्यक्ति और प्रकाशन था। यद्यपि उसकी अभिव्यक्ति मानवीय थी, किंतु उसके दिव्य सार और उसकी दिव्यता के प्रकाशन को नकारा नहीं जा सकता। क्या यह मानवीय अभिव्यक्ति वास्तव में मानवता की ही अभिव्यक्ति थी? उसकी मानवीय अभिव्यक्ति अपने मूल सार में, भ्रष्ट लोगों की मानवीय अभिव्यक्ति से पूर्णत: भिन्न थी। प्रभु यीशु देहधारी परमेश्वर था। यदि वह वास्तव में एक सामान्य, भ्रष्ट मनुष्य रहा होता, तो क्या वह पापमय मानवजाति के जीवन को दिव्य परिप्रेक्ष्य से देख सकता था? बिलकुल नहीं! मनुष्य के पुत्र और एक सामान्य मनुष्य के बीच यही अंतर है। सभी भ्रष्ट लोग पाप में जीते हैं, और जब कोई पाप को देखता है, तो उसमें उसके बारे में कोई विशेष भावना उत्पन्न नहीं होती; वे सब एकसमान होते हैं, ठीक कीचड़ में रहने वाले सूअर के समान, जो बिलकुल भी असहज या गंदा महसूस नहीं करता—इसके विपरीत, वह अच्छी तरह से खाता है और गहरी नींद में सोता है। यदि कोई सूअरों के बाड़े को साफ करता है, तो सूअर वास्तव में बेचैनी महसूस करेगा, और वह साफ-सुथरा नहीं रहेगा। जल्दी ही वह दोबारा पूरी सहजता से कीचड़ में लोट लगा रहा होगा, क्योंकि वह एक गंदा जीव है। मनुष्य सूअर को गंदा समझते हैं, किंतु यदि तुम सूअर के रहने की जगह को साफ करो, तो उसे अच्छा नहीं लगता—इसीलिए कोई भी सूअर को अपने घर में नहीं रखता। मनुष्य सूअरों को जिस तरह से देखते हैं, वह हमेशा उससे भिन्न होगा, जैसा सूअर खुद महसूस करते हैं, क्योंकि मनुष्य और सूअर एक ही तरह के नहीं होते। और चूँकि देहधारी मनुष्य का पुत्र उसी तरह का नहीं है जैसे भ्रष्ट मनुष्य हैं, इसलिए केवल देहधारी परमेश्वर ही दिव्य परिप्रेक्ष्य में, परमेश्वर की ऊँचाई पर खड़ा हो सकता है, जहाँ से वह मानवजाति और सभी चीज़ों को देखता है।
जब परमेश्वर देह बनता है और मानवजाति के बीच रहता है, तो वह किस प्रकार की पीड़ा अनुभव करता है? क्या कोई सचमुच इस बात को समझता है? कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर बड़ी पीड़ा सहता है, और यद्यपि वह स्वयं परमेश्वर है, फिर भी लोग उसके सार को नहीं समझते और हमेशा उसके साथ एक मनुष्य के समान व्यवहार करते हैं, जिससे उसे दुःख और अन्याय महसूस होता है—वे कहते हैं कि इन कारणों से परमेश्वर की पीड़ा सचमुच बहुत बड़ी है। अन्य लोग कहते हैं कि परमेश्वर निर्दोष और निष्पाप है, परंतु वह मनुष्य के समान पीड़ा भुगतता है और मानवजाति के साथ रहकर उत्पीड़न, बदनामी और अपमान का सामना करता है; वे कहते हैं कि वह अपने अनुयायियों की ग़लतफहमियाँ और अवज्ञा भी सहता है—इस तरह, वे कहते हैं कि परमेश्वर की पीड़ा को सचमुच मापा नहीं जा सकता। अब, ऐसा प्रतीत होता है कि तुम लोग वास्तव में परमेश्वर को नहीं समझते। वास्तव में यह पीड़ा, जिसके बारे में तुम लोग बात करते हो, परमेश्वर के लिए वास्तविक पीड़ा नहीं है, उसकी पीड़ा इससे कहीं बड़ी है। तो स्वयं परमेश्वर के लिए सच्ची पीड़ा क्या है? देहधारी परमेश्वर के देह के लिए सच्ची पीड़ा क्या है? परमेश्वर के लिए, मानवजाति का उसे नहीं समझना पीड़ा नहीं गिना जाता, और न ही लोगों में परमेश्वर के बारे में कुछ ग़लतफहमियाँ होना और उनका उसे परमेश्वर के रूप में नहीं देखना पीड़ा गिना जाता है। हालाँकि, लोग प्रायः महसूस करते हैं कि परमेश्वर ने अवश्य ही बहुत बड़ा अन्याय सहा है, कि जितने समय तक परमेश्वर देह में रहता है, वह अपना व्यक्तित्व मानवजाति को नहीं दिखा सकता और लोगों को अपनी महानता नहीं देखने दे सकता, और कि परमेश्वर विनम्रता से एक मामूली देह में छिपा रहता है, जो उसके लिए बहुत बड़ी यातना होनी चाहिए। लोग परमेश्वर की पीड़ा के बारे में जो कुछ समझ सकते हैं और जो कुछ देख सकते हैं, उसे गंभीरता से ले लेते हैं, और परमेश्वर पर हर प्रकार की सहानुभूति प्रक्षेपित कर देते हैं, यहाँ तक कि उसकी पीड़ा के लिए उसकी थोड़ी स्तुति भी प्रस्तुत कर देते हैं। वास्तव में, इसमें एक अंतर है; लोग परमेश्वर की पीड़ा के बारे में जो कुछ समझते हैं और वह वास्तव में जो महसूस करता है, उसके बीच एक अंतर है। मैं तुम लोगों को सच बता रहा हूँ—परमेश्वर के लिए, चाहे वह परमेश्वर का आत्मा हो या देहधारी परमेश्वर का देह, ऊपर वर्णित पीड़ा सच्ची पीड़ा नहीं है। तो फिर वह क्या है, जिसे परमेश्वर वास्तव में भुगतता है? आओ, केवल देहधारी परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से परमेश्वर की पीड़ा के बारे में बात करें।
जब परमेश्वर देहधारी बनता है, तो एक औसत, सामान्य व्यक्ति बनकर, मानवजाति के बीच लोगों के साथ-साथ रहकर क्या वह लोगों के जीने के तरीकों, व्यवस्थाओं और फ़लसफ़ों को देख और महसूस नहीं कर सकता? जीने के ये तरीके और व्यवस्थाएँ उसे कैसा महसूस कराते हैं? क्या वह अपने हृदय में घृणा महसूस करता है? वह घृणा क्यों महसूस करेगा? मानवजाति के जीने की क्या पद्धतियाँ और व्यवस्थाएँ हैं? वे किन सिद्धांतों में समाहित हैं? वे किस चीज़ पर आधारित हैं? मानवजाति की पद्धतियाँ, नियम इत्यादि, जिन्हें वे जीवन के तरीके से जोड़ते हैं—वे सब शैतान के तर्क, ज्ञान और फ़लसफ़े पर निर्मित हैं। इस प्रकार की व्यवस्थाओं के अधीन जीने वाले मनुष्यों में कोई मानवता, कोई सत्य नहीं होता—वे सभी सत्य की उपेक्षा करते हैं और परमेश्वर से शत्रुता रखते हैं। यदि हम परमेश्वर के सार पर एक नज़र डालें, तो हम देखते हैं कि उसका सार शैतान के तर्क, ज्ञान और फ़लसफ़े के ठीक विपरीत है। उसका सार धार्मिकता, सत्य और पवित्रता, और सभी सकारात्मक चीज़ों की अन्य वास्तविकताओं से भरा हुआ है। ऐसे सार वाले और ऐसी मानवजाति के बीच रहने वाले परमेश्वर को कैसा महसूस होता है? वह अपने हृदय में क्या महसूस करता है? क्या वह दर्द से भरा हुआ नहीं है? उसके हृदय में दर्द है, ऐसा दर्द जिसे कोई व्यक्ति समझ या महसूस नहीं कर सकता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि जिसका भी वह सामना या मुक़ाबला करता है या जो भी वह सुनता, देखता और अनुभव करता है, वह सब मानवजाति की भ्रष्टता, दुष्टता और सत्य के प्रति उनका विद्रोह और प्रतिरोध है। जो कुछ भी मनुष्यों से आता है, वह सब उसकी पीड़ा का स्रोत है। अर्थात्, चूँकि उसका सार भ्रष्ट मनुष्यों के सार के समान नहीं है, इसलिए मनुष्यों की भ्रष्टता उसकी सबसे बड़ी पीड़ा का स्रोत बन जाती है। जब परमेश्वर देह बनता है, तो क्या उसे कोई ऐसा व्यक्ति मिल पाता है, जिसकी भाषा उसके समान हो? ऐसा व्यक्ति मानवजाति में नहीं पाया जा सकता। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिल सकता, जो परमेश्वर के साथ संवाद या विचार-विनिमय कर सकता हो—तो तुम क्या कहोगे कि परमेश्वर को कैसा महसूस होता है? जिन चीज़ों के बारे में लोग चर्चा करते हैं, जिनसे वे प्रेम करते हैं, जिनके पीछे भागते हैं और जिनकी लालसा करते हैं, वे सभी पाप और दुष्ट प्रवृतियों से जुड़ी हुई हैं। परमेश्वर जब इन सबका सामना करता है, तो क्या यह उसके हृदय में कटार जैसा नहीं लगता? इन चीज़ों का सामना करके क्या उसे अपने हृदय में आनंद मिल सकता है? क्या वह सांत्वना पा सकता है? उसके साथ जो रह रहे हैं, वे विद्रोहशीलता और दुष्टता से भरे हुए मनुष्य हैं—उसका हृदय पीड़ित कैसे नहीं हो सकता? वास्तव में कितनी बड़ी है यह पीड़ा, और कौन इस बारे में परवाह करता है? कौन ध्यान देता है? और कौन इसे समझ पाने में सक्षम है? लोगों के पास परमेश्वर के हृदय को समझने का कोई तरीका नहीं है। उसकी पीड़ा ऐसी है, जिसे समझ पाने में लोग विशेष रूप से असमर्थ हैं, और मानवजाति की उदासीनता और संवेदनशून्यता परमेश्वर की पीड़ा को और अधिक गहरा कर देती है।
कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो मसीह की दुर्दशा पर अकसर सहानुभूति दिखाते हैं, क्योंकि बाइबल में एक पद है जिसमें कहा गया है : "लोमड़ियों के भट और आकाश के पक्षियों के बसेरे होते हैं; परन्तु मनुष्य के पुत्र के लिये सिर धरने की भी जगह नहीं है।" जब लोग इसे सुनते हैं, तो वे इसे गंभीरता से ले लेते हैं और मान लेते हैं कि यही सबसे बड़ी पीड़ा है जिसे परमेश्वर सहता है, और यही सबसे बड़ी पीड़ा है जिसे मसीह सहन करता है। अब, इसे तथ्यों के परिप्रेक्ष्य से देखने पर, क्या मामला ऐसा ही है? नहीं; परमेश्वर इन कठिनाइयों को पीड़ा नहीं मानता। उसने कभी देह की पीड़ाओं के कारण अन्याय के विरुद्ध चीख-पुकार नहीं की है, और उसने कभी मनुष्यों को प्रतिफल या पुरस्कार स्वरूप कोई चीज़ देने के लिए बाध्य नहीं किया है। किंतु जब वह मानवजाति की हर चीज़ और मनुष्यों का भ्रष्ट जीवन और उनकी बुराई देखता है, जब वह देखता है कि मानवजाति शैतान के चंगुल में है और शैतान द्वारा क़ैद कर ली गई है और बचकर नहीं निकल सकती, कि पाप में रहने वाले लोग नहीं जानते कि सत्य क्या है, तो वह ये सब पाप सहन नहीं कर सकता। मनुष्यों के प्रति उसकी घृणा हर दिन बढ़ती जाती है, किंतु उसे यह सब सहना पड़ता है। यह परमेश्वर की सबसे बड़ी पीड़ा है। परमेश्वर अपने अनुयायियों के बीच खुलकर अपने हृदय की आवाज़ या अपनी भावनाएँ व्यक्त तक नहीं कर सकता, और उसके अनुयायियों में से कोई भी उसकी पीड़ा को वास्तव में समझ नहीं सकता। कोई भी उसके हृदय को समझने या दिलासा देने की कोशिश तक नहीं करता, जो दिन-प्रतिदिन, साल-दर-साल, बार-बार इस पीड़ा को सहता है। तुम लोग इस सब में क्या देखते हो? परमेश्वर ने मनुष्यों को जो कुछ दिया है, उसके बदले में वह उनसे कुछ नहीं चाहता, किंतु अपने सार की वजह से वह मानवजाति की दुष्टता, भ्रष्टता और पाप बिलकुल भी सहन नहीं कर सकता, बल्कि अत्यधिक नफ़रत और अरुचि महसूस करता है, जो परमेश्वर के हृदय और उसके देह को अनंत पीड़ा की ओर ले जाती हैं। क्या तुम लोगों ने इसे देखा है? ज़्यादा संभावना इस बात की है कि तुम लोगों में से कोई भी इसे नहीं देख सकता, क्योंकि तुम लोगों में से कोई भी वास्तव में परमेश्वर को नहीं समझ सकता। समय के साथ तुम लोगों को धीरे-धीरे इसे अपने आप समझना चाहिए।
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