परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

भाग छे के क्रम में

हालाँकि परमेश्वर मनुष्य से छिपा हुआ है, फिर भी सभी चीज़ों के मध्य उसके कार्य मनुष्य के लिए पर्याप्त हैं कि वह परमेश्वर को जान सके

अय्यूब ने परमेश्वर के चेहरे को नहीं देखा था, या परमेश्वर के द्वारा बोले गए वचनों को नहीं सुना था, और उसने व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर के कार्य का अनुभव तो बिलकुल भी नहीं किया था, परन्तु परमेश्वर के प्रति उसके भय एवं अपनी परीक्षाओं के मध्य उसकी गवाही को सभी लोगों के द्वारा देखा गया था, और परमेश्वर के द्वारा उनसे प्रेम किया गया है, उनमें आनन्द मनाया गया है, और उनकी प्रशंसा की गई है, और लोग उनसे ईर्ष्या करते हैं और उनकी तारीफ करते हैं, और इसके अतिरिक्त, उनका गुणगान करते हैं। उसके जीवन के विषय में कुछ भी महान या असाधारण नहीं था: बिलकुल किसी साधारण मनुष्य के समान, उसने एक साधारण जीवन जीया था, सूर्य उगने पर काम पर जाना और सूर्य अस्त होने पर अपने घर पर विश्राम के लिए वापस आना। अन्तर यह है कि इन अनेक साधारण दशकों के दौरान, उसने परमेश्वर के मार्ग के भीतर एक अंतर्दृष्टि हासिल की थी, और परमेश्वर की महान सामर्थ्य एवं संप्रभुता का एहसास किया और उसे समझा था, जैसा किसी और व्यक्ति ने कभी भी नहीं किया था। वह किसी भी साधारण मनुष्य की अपेक्षा चतुर नहीं था, उसका जीवन खासतौर पर कठिन नहीं था, इसके अतिरिक्त, न ही उसके पास विशेष अदृश्य कुशलताएं थीं। हालाँकि जो उसने धारण किया था वह ऐसा व्यक्तित्व था जो ईमानदार, उदार, एवं सीधा था, एक ऐसा व्यक्तित्व जो निष्पक्षता एवं धार्मिकता से प्रेम करता था, और जो सकारात्मक चीज़ों से प्रेम करता था—जिनमें से कुछ भी अधिकांश सामान्य लोगों के द्वारा धारण नहीं किया जाता है। उसने प्रेम एवं घृणा के मध्य अन्तर किया, उसके पास न्याय का एक एहसास था, वह अडिग एवं दृढ़ था, और वह अपने विचारों में परिश्रमी था, और इस प्रकार पृथ्वी पर अपने साधारण समय के दौरान उसने उन सभी असाधारण चीज़ों को देखा जिन्हें परमेश्वर ने किया था, और उसने परमेश्वर की महानता, पवित्रता एवं धार्मिकता को देखा, उसने मनुष्य के लिए परमेश्वर की चिंता, कृपालुता, और सुरक्षा को देखा था, और उसने सर्वोच्च परमेश्वर की प्रतिष्ठिता एवं अधिकार को भी देखा था। अय्यूब क्यों इन चीज़ों को हासिल कर सका जो किसी भी साधारण मनुष्य से परे थीं इसका पहला कारण था क्योंकि उसके पास एक शुद्ध हृदय था, और उसका हृदय परमेश्वर से सम्बन्धित था, और उसकी अगुवाई सृष्टिकर्ता के द्वारा की गई थी। दूसरा कारण था उसका अनुसरण: निर्दोष, एवं सिद्ध होने के लिए अय्यूब का अनुसरण, और ऐसा व्यक्ति जो स्वर्ग की इच्छा को माने, जिसे परमेश्वर के द्वारा प्रेम किया जाए, और जो बुराई से दूर रहे। अय्यूब ने परमेश्वर को देखने या परमेश्वर के वचनों को सुनने में असमर्थ होते हुए भी इन चीज़ों को धारण एवं इनका अनुसरण किया; हालाँकि उसने परमेश्वर को कभी नहीं देखा था, फिर भी वह उन माध्यमों को जान गया था जिनके द्वारा वह सभी चीज़ों के ऊपर शासन करता है; और वह उस बुद्धि को समझ गया था जिसके तहत परमेश्वर ऐसा करता है। हालाँकि उसने परमेश्वर के द्वारा कहे गए वचनों को कभी नहीं सुना था, फिर भी अय्यूब जानता था कि मनुष्य को प्रतिफल देने और मनुष्य से ले लेने के सभी कार्य परमेश्वर की ओर से आते हैं। हालाँकि उसके जीवन के वर्ष किसी भी साधारण मनुष्य से अलग नहीं थे, फिर भी उसने अपने जीवन की असाधारणता को सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के अपने ज्ञान को प्रभावित करने, या परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग के अपने अनुसरण को प्रभावित करने की अनुमति नहीं दी थी। उसकी दृष्टि में, सभी चीज़ों के नियम परमेश्वर के कार्यों से भरे हुए थे, और परमेश्वर की संप्रभुता को किसी व्यक्ति के जीवन के किसी भी भाग में देखा जा सकता था। उसने परमेश्वर को नहीं देखा था, परन्तु वह यह महसूस कर सकता था कि परमेश्वर के कार्य हर जगह हैं, और पृथ्वी पर अपने साधारण समय के दौरान, वह अपने जीवन के प्रत्येक कोने में परमेश्वर के असाधारण एवं अद्भुत कार्यों को देखने में सक्षम था, और परमेश्वर के अद्भुत इंतज़ामों को देख सकता था। परमेश्वर की गोपनीयता एवं खामोशी ने अय्यूब के द्वारा परमेश्वर के कार्यों के एहसास को बाधित नहीं किया, न ही इसने सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के उसके ज्ञान को प्रभावित किया था। उसका जीवन परमेश्वर की संप्रभुता एवं इंतज़ामों का एहसास करना था, जो उसके प्रतिदिन के जीवन के दौरान सभी चीज़ों के मध्य छिपा हुआ था। अपने प्रतिदिन के जीवन में उसने उस परमेश्वर के हृदय की आवाज़ और वचनों को भी सुना एवं समझा था, जो सभी चीज़ों के मध्य खामोश है, फिर भी अपने हृदय की आवाज़ और वचनों को सभी चीज़ों के नियमों के शासन के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। तो तूने देखा कि यदि लोगों के पास अय्यूब के समान ही मानवता एवं अनुसरण होता, तो वे भी अय्यूब के समान ही उसी एहसास एवं ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं, और अय्यूब के समान ही सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता की वही समझ एवं ज्ञान को अर्जित कर सकते हैं। परमेश्वर अय्यूब पर प्रकट नहीं हुआ था या उससे बातचीत नहीं की थी, परन्तु अय्यूब खरा एवं सीधा, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के योग्य था। दूसरे शब्दों में, बिना परमेश्वर के प्रकट हुए या मनुष्य से बात किए, सभी चीज़ों के मध्य परमेश्वर के कार्य और सभी चीज़ों के ऊपर उसकी संप्रभुता किसी मनुष्य के लिए पर्याप्त है ताकि वह परमेश्वर के अस्तित्व, सामर्थ्य और अधिकार को जान सके, और परमेश्वर की सामर्थ्य एवं अधिकार काफी है कि ऐसे मनुष्य को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करवाए। जबकि अय्यूब जैसा साधारण मनुष्य परमेश्वर के भय और बुराई के परित्याग को हासिल करने के योग्य था, तो हर एक साधारण मनुष्य जो परमेश्वर का अनुसरण करता है उसे भी इस योग्य होना चाहिए। हालाँकि ये शब्द एक तर्कसंगत अनुमान के समान सुनाई दे सकते हैं, फिर भी ये परिस्थितियों के नियमों का उल्लंधन नहीं करते हैं। फिर भी ये तथ्य अपेक्षाओं से मेल नहीं खाते हैं: परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना, ऐसा प्रतीत होता है कि, यह अय्यूब का और केवल अय्यूब का ही निरन्तर प्रयास है। "परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने" का जिक्र होने पर लोग सोचते हैं कि इसे केवल अय्यूब के द्वारा ही किया जाना चाहिए, मानो परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की नामपट्टी को अय्यूब के नाम के साथ चिपका दिया गया था और दूसरों से इसका कोई वास्ता नहीं था। इसका कारण स्पष्ट हैः क्योंकि केवल अय्यूब ही इस प्रकार का व्यक्तित्व रखता था जो ईमानदार, उदार, एवं सीधा था, और जो निष्पक्षता एवं धार्मिकता और उन चीज़ों से प्रेम करता था जो सकारात्मक थीं, इस प्रकार केवल अय्यूब ही परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण कर सकता था। तुम सभी ने यहाँ पर निहित अर्थ को समझ लिया होगा—जो यह है क्योंकि कोई भी ऐसी मानवता को धारण नहीं करता है जो सच्चा, उदार, एवं सीधा है, और जो निष्पक्षता एवं धार्मिकता और उससे प्रेम करता है जो सकारात्मक है, कोई भी परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर नहीं रह सकता है, और इस प्रकार वे कभी परमेश्वर के आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकते हैं या परीक्षाओं के बीच में दृढ़ता से स्थिर खड़े नहीं रह सकते हैं। जिसका मतलब यह भी है कि, अय्यूब को छोड़कर, सभी लोगों को अब भी शैतान के द्वारा बांधा एवं जाल में फंसाया जाता है, उनके द्वारा उन सबों पर दोषारोपण, आक्रमण एवं उनका शोषण किया गया है, और वे ऐसे लोग हैं जिन्हें शैतान निगलने की कोशिश करता है, और उन सभी को बिना किसी स्वतन्त्रता के शैतान के द्वारा बंधुआई में ले जाया गया है।

यदि मनुष्य का हृदय परमेश्वर के साथ शत्रुता रखता है, तो वह कैसे परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रह सकता है

जबकि आज के समय के लोग अय्यूब के समान मानवता को धारण नहीं करते हैं, तो उनके स्वभाव का मूल-तत्व क्या है, और परमेश्वर के प्रति उनकी मनोवृत्ति क्या है? क्या वे परमेश्वर का भय मानते हैं? क्या वे बुराई से दूर रहते हैं? ऐसे लोग जो परमेश्वर का भय नहीं मानते हैं और बुराई से दूर नहीं रहते हैं चार शब्दों में उनका सारांश निकला जा सकता हैः परमेश्वर के शत्रु हैं। तुम लोग अकसर इन चार शब्दों को दोहराते हो, परन्तु तुम लोगों ने कभी उनके वास्तविक अर्थ को नहीं जाना है। "परमेश्वर के शत्रु हैं" इन शब्दों में उनके लिए यह अर्थ है: वे यह नहीं कहते हैं कि परमेश्वर मनुष्य को शत्रु के रूप में देखता है, परन्तु मनुष्य परमेश्वर को शत्रु के रुप में देखता है। पहला, जब लोग परमेश्वर पर विश्वास करना प्रारम्भ करते हैं, जिनके पास अपने स्वयं के लक्ष्य, इरादे या महत्वकांक्षाएं नहीं होती हैं? हालाँकि उनका एक भाग परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता है, और उन्होंने उसके अस्तित्व को देखा है, फिर भी परमेश्वर के प्रति उनके विश्वास में अभी भी वे इरादे हैं, और परमेश्वर में विश्वास करने का उनका मुख्य उद्देश्य है कि उसकी आशीषों एवं उन चीज़ों को प्राप्त करें जिन्हें वे चाहते हैं। लोगों के जीवन के अनुभवों में, वे अकसर अपने आपमें सोचते हैं, मैंने परमेश्वर के लिए अपने परिवार और सुनहरे भविष्य को छोड़ दिया, और उसने मुझे क्या दिया है? मुझे इसमें कुछ जोड़ना होगा, और इसे निश्चित करना होगा—क्या मैंने हाल ही में कोई आशीष प्राप्त की है? मैंने इस समय के दौरान बहुत कुछ दिया है, मैं बड़ी दौड़ से दौड़ा हूँ, मैंने बहुत अधिक सहा है—क्या परमेश्वर ने बदले में मुझे कुछ दिया है? क्या उसने मेरे भले कार्यों को स्मरण किया है? मेरा अन्त क्या होगा? क्या मैं परमेश्वर से आशीषों को प्राप्त कर सकता हूँ? प्रत्येक व्यक्ति लगातार, और अकसर अपने हृदय में इस प्रकार का गुणा भाग करता है, और वे परमेश्वर से मांग करते हैं जिनमें उनकी मंशा, महत्वाकांक्षा, एवं सौदे होते हैं। कहने का तात्पर्य है, मनुष्य अपने हृदय में लगातार परमेश्वर को परखता है, परमेश्वर के बारे में निरन्तर युक्तियों को ईजाद करता है, और लगातार परमेश्वर के साथ अपने अंत के बारे में बहस करता है, और परमेश्वर से एक कथन निकलवाने की कोशिश करता है, यह देखने के लिए कि परमेश्वर उसे वह सब कुछ देता है या नहीं जो वह चाहता है। ठीक इसी समय परमेश्वर का अनुसरण करते हुए, मनुष्य परमेश्वर से परमेश्वर के समान व्यवहार नहीं करता है। वह हमेशा परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश करता है, बिना रूके लगातार उससे मांग करता है, और यहाँ तक कि हर कदम पर उस पर दबाव डालता है, और एक इंच दिए जाने के बाद एक मील हथियाने की कोशिश करता है। ठीक उसी समय परमेश्वर के साथ सौदबाजी करते हुए, मनुष्य उसके साथ बहस भी करता है, और ऐसे लोग भी हैं जो, जब परीक्षाएं उन पर आती हैं या जब वे अपने आप को खतरे में पाते हैं, अकसर कमज़ोर, निष्क्रिय और अपने कार्य में सुस्त, और परमेश्वर के विषय में शिकायतों से भर जाते हैं। जब उसने पहली बार परमेश्वर पर विश्वास करना प्रारम्भ किया था, तब से मनुष्य ने परमेश्वर को एक सौभाग्य का सींग, एवं स्विस सेना का एक चाकू माना है, और अपने आपको परमेश्वर का सबसे बड़ा लेनदार माना है, मानो परमेश्वर से आशीषें और प्रतिज्ञाओं को प्राप्त करने की कोशिश करना उसका जन्मजात अधिकार एवं कर्तव्य था, जबकि परमेश्वर की ज़िम्मेदारी थी कि वह मनुष्य की रक्षा एवं देखभाल करे और उसके लिए चीज़ों की आपूर्ति करे। वे सभी जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं उनके लिए "परमेश्वर में विश्वास करने" की मूल समझ, और परमेश्वर में विश्वास करने की अवधारणा की उनकी गहरी समझ ऐसी ही है। मनुष्य के स्वभाव के मूल-तत्व से लेकर उसके आत्मनिष्ठ अनुसरण तक, ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के भय से कोई सम्बन्ध रखता है। परमेश्वर पर विश्वास करने में मनुष्य के उद्देश्य का परमेश्वर की आराधना के साथ सम्भवतः कोई लेना देना नहीं है। कहने का तात्पर्य है, मनुष्य ने कभी यह विचार नहीं किया और न ही यह समझा है कि परमेश्वर में विश्वास करने में परमेश्वर के भय और परमेश्वर की आराधना की आवश्यकता होती है। ऐसी परिस्थितियों के प्रकाश में, मनुष्य का मूल-तत्व स्पष्ट है। और यह मूल-तत्व क्या है? यह ऐसा है कि मनुष्य का हृदय मैला है, यह धोखे एवं धूर्तता को आश्रय देता है, और यह निष्पक्षता एवं धार्मिकता से प्रेम नहीं करता है, या न ही उससे प्रेम करता है जो सकारात्मक है, और यह घृणित एवं लालची है। मनुष्य का हृदय कभी भी परमेश्वर के अत्याधिक करीब नहीं आ सकता है; उसने इसे बिलकुल भी परमेश्वर को नहीं दिया है। परमेश्वर ने मनुष्य के असली हृदय को कभी भी नहीं देखा है, न ही मनुष्य के द्वारा कभी उसकी आराधना की गई है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर ने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है, या उसने कितना अधिक काम किया है, या उसने मनुष्य को कितना कुछ प्रदान किया है, मनुष्य इसके प्रति अंधा बना रहता है, और पूरी तरह से उदासीन रहता है। मनुष्य ने कभी परमेश्वर को अपना हृदय नहीं दिया है, वह केवल अपने हृदय की ही चिंता करना चाहता है, अपने स्वयं के निर्णयों को ही लेना चाहता है—इसका गुप्त अर्थ यह है कि मनुष्य परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण नहीं करना चाहता है, या परमेश्वर की संप्रभुता एवं इंतज़ामों को नहीं मानना चाहता है, न ही वह परमेश्वर के रूप में परमेश्वर की आराधना करना चाहता है। आज मनुष्य की परिस्थितियां ऐसी ही हैं। अब आओ हम फिर से अय्यूब को देखें। सबसे पहले, क्या उसने परमेश्वर के साथ कोई सौदा किया था? क्या परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग को दृढ़ता से थामे रहने में उसके कोई छिपे हुए उद्देश्य हैं? उस समय, क्या परमेश्वर ने किसी से अंत के आने के विषय में बातचीत की थी? उस समय, परमेश्वर ने किसी से भी अंत के बारे में प्रतिज्ञाएं नहीं की थी, और यह इस पृष्ठभूमि के विरुद्ध था कि अय्यूब परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के योग्य था। क्या आज के समय के लोग अय्यूब के साथ तुलना करने पर टिक सकते हैं? बहुत ही अधिक भिन्नताएं हैं, वे अलग अलग श्रेणियों में हैं। हालाँकि अय्यूब के पास परमेश्वर की अधिक समझ नहीं थी, फिर भी उसने अपना हृदय परमेश्वर को दिया था और वह परमेश्वर का हो गया था। उसने परमेश्वर के साथ कभी सौदा नहीं किया था, और उसके पास परमेश्वर के प्रति कोई फिज़ूल इच्छाएं या मांगें नहीं थीं; इसके बजाए, उसने विश्वास किया था कि "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया;" यह वह था जिसे उसने अपने जीवन के अनेक वर्षों के दौरान परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग को सच्चाई से थामें रहने के जरिए देखा और अर्जित किया था। उसी प्रकार से, उसने "क्या हम जो परमेश्‍वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?" के परिणाम को प्राप्त किया था। ये दो वाक्य ऐसे थे जिन्हें उसने अपने जीवन के अनुभवों के दौरान परमेश्वर के प्रति अपनी मनोवृत्ति के परिणामस्वरूप देखा और जाना था, और साथ ही वे उसके अत्यंत सामर्थी हथियार भी थे जिसके साथ उसने शैतान की परीक्षाओं पर विजय प्राप्त किया था, और परमेश्वर के प्रति उसके दृढ़ता से खड़े रहने का आधार भी थे। इस बिन्दु पर, क्या तुम लोग अय्यूब को एक प्यारे इंसान के रूप में देखते हो? क्या तुम लोग ऐसा इंसान बनने की आशा करते हो? क्या तुम लोग शैतान की परीक्षाओं से होकर गुज़रने से डरते हो? क्या तुम लोग परमेश्वर से यह प्रार्थना करने के लिए दृढ़ निश्चय करते हो कि वह तुम लोगों को अय्यूब के समान ही परीक्षाओं के अधीन कर दे? बिना किसी सन्देह के, अधिकांश लोग ऐसी प्रार्थना करने की हिम्मत नहीं करेंगे। तो यह प्रकट है कि तुम लोगों का विश्वास दयनीय रूप से छोटा है; अय्यूब की तुलना में, तुम लोगों का विश्वास साधारण तौर पर उल्लेख करने के लायक भी नहीं है। तुम लोग परमेश्वर के शत्रु हो, तुम लोग परमेश्वर से नहीं डरते हो, तुम लोग परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में दृढ़ता से खड़े रहने में असमर्थ हो, और तुम लोग शैतान के आक्रमणों, आरोपों एवं परीक्षाओं के ऊपर विजय पाने में असमर्थ हो। वह क्या है जो तुम लोगों को परमेश्वर की आशीषें प्राप्त करने के लिए योग्य बनाता है? अय्यूब की कहानी सुनने के बाद और मनुष्य को बचाने के लिए परमेश्वर के इरादे और मनुष्य के उद्धार के अर्थ को समझने के बाद, क्या अब तुम लोगों में अय्यूब के समान परीक्षणों को स्वीकार करने के लिए विश्वास है? क्या तुम लोगों के पास थोड़ा सा दृढ़ निश्चय नहीं होना चाहिए कि तुम लोग स्वयं को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करने दो?

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