परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

भाग दो

अब्राहम के समय के समान ही इस अवधि के दौरान, परमेश्वर ने एक शहर को भी नष्ट किया था। यह शहर सदोम कहलाता था। निःसन्देह, बहुत से लोग सदोम की कहानी से परिचित हैं, परन्तु कोई भी परमेश्वर के विचारों से परिचित नहीं है जो इस नगर के उसके विनाश की पृष्ठभूमि थी।

और इस प्रकार आज, अब्राहम के साथ परमेश्वर के निम्नलिखित संवाद के माध्यम से, हम उस समय के उसके विचारों को सीखेंगे, साथ ही इसी बीच उसके स्वभाव के विषय में भी जानेंगे। इसके आगे, आओ हम पवित्र शास्त्र के निम्नलिखित अंश को पढ़ें।

ख. परमेश्वर को सदोम नष्ट करना ही होगा

(उत्पत्ति 18:26) यहोवा ने कहा, "यदि मुझे सदोम में पचास धर्मी मिलें, तो उनके कारण उस सारे स्थान को छोड़ूँगा।"

(उत्पत्ति 18:29) फिर उसने उससे यह भी कहा, "कदाचित् वहाँ चालीस मिलें।" उसने कहा, "तो भी मैं ऐसा न करूँगा।"

(उत्पत्ति 18:30) फिर उसने कहा, "कदाचित् वहाँ तीस मिलें।" उसने कहा, "तो भी मैं ऐसा न करूँगा।"

(उत्पत्ति 18:31) फिर उसने कहा, "कदाचित् उसमें बीस मिलें।" उसने कहा, "मैं उसका नाश न करूँगा।"

(उत्पत्ति 18:32) फिर उसने कहा, "कदाचित् उसमें दस मिलें।" उसने कहा, "तो भी मैं उसका नाश न करूँगा।"

ये कुछ उद्धरण हैं जिन्हें मैंने बाइबल से चुना है। वे सम्पूर्ण, एवं मूल अनुवाद नहीं हैं। यदि तुम लोग उन्हें देखना चाहते हो, तो तुम लोग स्वयं ही उन्हें बाइबल में देख सकते हो; समय बचाने के लिए, मैंने मूल विषय-वस्तु के एक भाग को हटा दिया है। मैंने यहाँ पर केवल कुछ मुख्य अंशों और वाक्यों का चयन किया है, और कई वाक्यों को हटा दिया है जिनका आज हमारी सहभागिता से कोई सम्बन्ध नहीं है। सभी अंश एवं विषय-वस्तु जिन के विषय में हम सहभागिता करते हैं, हमारा ध्यान कहानियों के विवरणों के ऊपर से और इन कहानियों में मनुष्य के आचरण के ऊपर से हट जाता है; उसके बजाए, हम केवल परमेश्वर के विचारों एवं युक्तियों के विषय में बात करते हैं जो उस समय थे। परमेश्वर के विचारों एवं युक्तियों में, हम परमेश्वर के स्वभाव को देखेंगे, और सभी चीज़ों से जो परमेश्वर ने किया था, हम सच्चे स्वयं परमेश्वर को देखेंगे—और इस में हम अपने उद्देश्य को हासिल करेंगे।

परमेश्वर केवल ऐसे लोगों के विषय में ही चिंता करता है जो उसके वचनों को मानने और उसकी आज्ञाओं का पालन करने के योग्य हैं

ऊपर दिए गए अंशों में कई मुख्य शब्द समाविष्ट हैं: संख्या। पहला, यहोवा ने कहा कि यदि उसे नगर में पचास धर्मी मिलें, तो वह उस सारे स्थान को छोड़ देगा, दूसरे शब्दों में, वह नगर का नाश नहीं करेगा। अतः क्या वहाँ सदोम के भीतर वास्तव में पचास धर्मी थे? वहाँ नहीं थे। इसके तुरन्त बाद, अब्राहम ने परमेश्वर से क्या कहा? उसने कहा, कदाचित् वहाँ चालीस मिलें। परमेश्वर ने कहा, मैं नाश नहीं करूंगा। इसके आगे, अब्राहम ने कहा, यदि वहाँ तीस मिलें? परमेश्वर ने कहा, मैं नाश नहीं करूंगा। यदि वहाँ बीस मिलें? मैं नाश नहीं करूंगा। दस? मैं नाश नहीं करूंगा। क्या वहाँ नगर के भीतर वास्तव में दस धर्मी थे? वहाँ पर दस नहीं थे—केवल एक ही था। और वह कौन था? वह लूत था। उस समय, सदोम में मात्र एक ही धर्मी व्यक्ति था, परन्तु क्या परमेश्वर बहुत कठोर था या बलपूर्वक मांग कर रहा था जब बात इस संख्या तक पहुंच गयी? नहीं, वह कठोर नहीं था। और इस प्रकार, जब मनुष्य लगातार पूछता रहा, "चालीस हों तो क्या?" "तीस हों तो क्या?" जब वह "दस हों तो क्या" तक नहीं पहुंच गया? परमेश्वर ने कहा, "यदि वहाँ पर मात्र दस भी होंगे तो मैं उस नगर को नाश नहीं करूंगा; मैं उसे बचा रखूंगा, और इन दस के कारण सभी को माफ कर दूंगा।" दस की संख्या काफी दयनीय होती, परन्तु ऐसा हुआ कि, सदोम में वास्तव में उतनी संख्या में भी धर्मी लोग नहीं थे। तो तू देख, कि परमेश्वर की नज़रों में, नगर के लोगों का पाप एवं दुष्टता ऐसी थी कि परमेश्वर के पास उसे नष्ट करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। परमेश्वर का क्या अभिप्राय था जब उसने कहा कि वह उस नगर को नष्ट नहीं करेगा यदि उस में पचास धर्मी मिलें? परमेश्वर के लिए ये संख्याएं महत्वपूर्ण नहीं थीं। जो महत्वपूर्ण था वह यह कि उस नगर में ऐसे धर्मी हैं या नहीं जिन्हें वह चाहता था। यदि उस नगर में मात्र एक धर्मी मनुष्य होता, तो परमेश्वर उस नगर के विनाश के कारण उनकी हानि की अनुमति नहीं देता। इसका अर्थ यह है कि, इसके बावजूद कि परमेश्वर उस नगर को नष्ट करने वाला था या नहीं, और इसके बावजूद कि उसके भीतर कितने धर्मी थे या नहीं, परमेश्वर के लिए यह पापी नगर श्रापित एवं घिनौना था, और इसे नष्ट किया जाना चाहिए, इसे परमेश्वर की दृष्टि से ओझल हो जाना चाहिए, जबकि धर्मी लोगों को बने रहना चाहिए। युग के बावजूद, मानवजाति के विकास की अवस्था के बावजूद, परमेश्वर की मनोवृत्ति नहीं बदलती है: वह बुराई से घृणा करता है, और अपनी नज़रों में धर्मी की परवाह करता है। परमेश्वर की यह स्पष्ट मनोवृत्ति ही परमेश्वर की हस्ती (मूल-तत्व) का सच्चा प्रकाशन है। क्योंकि वहाँ उस नगर के भीतर केवल एक ही धर्मी व्यक्ति था, इसलिए परमेश्वर और नहीं हिचकिचाया। अंत का परिणाम यह था कि सदोम को आवश्यक रूप से नष्ट किया जाएगा। इस में तुम लोग क्या देखते हो? उस युग में, परमेश्वर ने उस नगर को नष्ट नहीं किया होता यदि उसके भीतर पचास धर्मी होते, और तब भी नष्ट नहीं करता यदि दस धर्मी भी होते, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर ने मानवजाति को क्षमा करने और उसके प्रति सहनशील होने का निर्णय लिया होता, या कुछ लोगों के कारण मार्गदर्शन देने का कार्य किया होता जो उसका आदर करने और उसकी आराधना करने के योग्य होते। परमेश्वर मनुष्य की धार्मिकता में बड़ा विश्वास करता है, ऐसे लोगों में बड़ा विश्वास करता है जो उसकी आराधना करने के योग्य हैं, और वह ऐसे लोगों में बड़ा विश्वास करता है जो उसके सामने भले कार्यों को करने के योग्य हैं।

अति प्राचीन समयों से लेकर आज के दिन तक, क्या तुम लोगों ने कभी बाइबल में पढ़ा है कि परमेश्वर किसी व्यक्ति से सत्य का संवाद करता है, या किसी व्यक्ति को परमेश्वर के मार्ग के बारे में बताया है? नहीं, कभी नहीं। मनुष्य के लिए परमेश्वर के वचन जिनके विषय में हम पढ़ते हैं वे लोगों को केवल यह बताते थे कि क्या करना था। कुछ लोग गए और उसे किया, परन्तु कुछ लोगों ने नहीं किया; कुछ लोगों ने विश्वास किया, और कुछ लोगों ने नहीं किया। बस यही सब कुछ था। इस प्रकार, उस युग के धर्मी लोग—वे जो परमेश्वर की निगाहों में धर्मी थे—महज ऐसे लोग थे जो केवल परमेश्वर के वचन को सुन सकते थे और परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन कर सकते थे। वे ऐसे सेवक थे जिन्होंने परमेश्वर के वचन को मनुष्य के बीच में सम्पन्न किया था। क्या इस प्रकार के लोगों को ऐसे मनुष्य कहा जा सकता था जो परमेश्वर को जानते थे? क्या उन्हें ऐसे लोग कहा जा सकता था जिन्हें परमेश्वर के द्वारा सिद्ध किया गया था? नहीं, उन्हें नहीं कहा जा सकता था। और इस प्रकार, उनकी संख्या के बावजूद, परमेश्वर की दृष्टि में क्या ये धर्मी लोग परमेश्वर के विश्वासपात्र कहलाने के योग्य थे? क्या उन्हें परमेश्वर के गवाह कहा जा सकता था? बिलकुल भी नहीं! वे निश्चित तौर पर परमेश्वर के विश्वासपात्र एवं गवाह कहलाने के योग्य नहीं थे। और इस प्रकार परमेश्वर ने ऐसे लोगों को क्या कहा? बाइबल में, पवित्र शास्त्र के उन अंशों तक जिन्हें अभी पढ़ा गया है, ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहाँ परमेश्वर ने उन्हें "मेरे सेवक" कहकर सम्बोधित किया है। कहने का तात्पर्य है, उस समय, परमेश्वर की निगाहों में ये धर्मी लोग परमेश्वर के सेवक थे, ये ऐसे लोग थे जो पृथ्वी पर उसकी सेवाकरते थे। और परमेश्वर ने इस विशिष्ट नाम के विषय में किस प्रकार सोचा था? उसने उन्हें ऐसा क्यों कहा था? क्या परमेश्वर के पास ऐसे मापदंड हैं इस बात के विषय में कि वह इन लोगों को अपने हृदय में क्या कहकर पुकारता है? निश्चित तौर पर उसके पास हैं। परमेश्वर के पास मापदंड हैं, इसके बावजूद कि वह लोगों को धर्मी, सिद्ध, ईमानदार, या सेवक कहकर पुकारता है या नहीं। जब वह किसी व्यक्ति को अपना सेवक कहकर पुकारता है, तो उसे दृढ़ विश्वास है कि यह व्यक्ति उसके संदेशवाहकों को ग्रहण करने के योग्य है, और परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करने के योग्य है, और जिस बात की आज्ञा संदेशवाहकों के द्वारा दी जाती है वह उसे सम्पन्न कर सकता है। और यह व्यक्ति क्या सम्पन्न करता है? उसे जिसे पृथ्वी पर क्रियान्वित एवं सम्पन्न करने के लिए परमेश्वर मनुष्य को आज्ञा देता है। उस समय, क्या जिसे पृथ्वी पर क्रियान्वित एवं सम्पन्न करने के लिए परमेश्वर मनुष्य को आज्ञा देता है उसे परमेश्वर का मार्ग कहा जा सकता है? नहीं, इसे नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि उस समय, परमेश्वर ने केवल यह माँगा था कि मनुष्य कुछ साधारण चीज़ों को करे; उसने कुछ साधारण आज्ञाओं को बोला था, मनुष्य को केवल कुछ निश्चित चीज़ें करने को कहते हुए, इससे ज़्यादा और कुछ नहीं। परमेश्वर अपनी योजना के अनुसार कार्य कर रहा था। क्योंकि उस समय, बहुत सी परिस्थितियां तब तक मौजूद नहीं थीं, समय तब तक पूरा नहीं हुआ था, और मानवजाति के लिए परमेश्वर के मार्ग का भार उठाना बहुत मुश्किल था, इस प्रकार परमेश्वर के मार्ग को अभी उसके हृदय से प्रकट होना था। जिन धर्मियों के विषय में परमेश्वर ने कहा था, वे बीस हों या तीस, उन्हें वह अपने सेवकों के रूप में देखता था। जब परमेश्वर के संदेशवाहक इन सेवकों के पास आते, तब वे इन्हें ग्रहण करने, उनकी आज्ञाओं का पालन करने, और उनके वचन के अनुसार कार्य करने के योग्य होते। यह बिलकुल वही था जिसे परमेश्वर की निगाहों में सेवकों के द्वारा किया जाना चाहिए था, और उसे अर्जित किया जाना चाहिए। स्वयं के द्वारा लोगों को विशिष्ट नाम देने में परमेश्वर न्यायसंगत है। वह उन्हें अपने सेवक कहकर नहीं पुकारता है क्योंकि वे वैसे ही थे जैसे अब तुम लोग हो—क्योंकि उन्होंने काफी प्रचार सुना था, वे जानते थे कि परमेश्वर क्या करनेवाला है, वे परमेश्वर की अधिकांश इच्छा को जानते थे, और उसकी प्रबन्धकीय योजना को समझते थे—परन्तु क्योंकि उनकी मानवता सच्ची थी और वे परमेश्वर के वचनों को मानने के योग्य थे; जब परमेश्वर ने उन्हें आज्ञा दी, तो जो कुछ वे कर रहे थे वे उसे दर किनार करने के योग्य थे और उसे सम्पन्न करने के योग्य थे जिसकी परमेश्वर ने आज्ञा दी थी। और इस प्रकार, परमेश्वर के लिए, सेवक की उपाधि[क] के अर्थ में दूसरी परत यह है कि उन्होंने पृथ्वी पर उसके कार्य के साथ सहयोग किया था, और हालाँकि वे परमेश्वर के संदेशवाहक नहीं थे, फिर भी वे पृथ्वी पर परमेश्वर के वचनों का निर्वाहन करनेवाले और उन्हें क्रियान्वित करनेवाले थे। तो तुम लोग देखो, कि ये सेवक या धर्मी लोग परमेश्वर के हृदय में बड़ा प्रभाव रखते थे। वह कार्य जिसकी परमेश्वर पृथ्वी पर साहसिक शुरुआत करने वाला था उसे लोगों की सहायता के बिना पूरा नहीं किया जा सकता था, और परमेश्वर के सेवकों के द्वारा ली गई भूमिका को परमेश्वर के संदेशवाहकों के द्वारा बदला नहीं जा सकता था। प्रत्येक नियत कार्य जिसकी आज्ञा परमेश्वर ने इन सेवकों को दी थी वह उसके लिए अत्याधिक महत्व रखता था, और इस प्रकार वह उन्हें खो नहीं सकता था। परमेश्वर के साथ इन सेवकों के सहयोग के बिना, मानवजाति के मध्य उसका कार्य ठहराव की ओर आ गया होता, जिसके परिणामस्वरूप परमेश्वर की प्रबन्धकीय योजना और परमेश्वर की आशाएं निरर्थक हो गई होतीं।

परमेश्वर उन लोगों के प्रति अत्यंत दयालु है जिनकी वह परवाह करता है, और उन लोगों के प्रति अत्याधिक क्रोधित है जिनसे वह घृणा करताएवं अस्वीकार करता है

बाइबल के लेखों में, क्या सदोम में परमेश्वर के दस सेवक थे? नहीं, वहाँ नहीं थे! क्या वह नगर परमेश्वर के द्वारा बचाए जाने के योग्य था? उस नगर में केवल एक व्यक्ति—लूत—ने परमेश्वर के संदेशवाहकों को ग्रहण किया था। इसका आशय यह है कि उस नगर में केवल एक ही परमेश्वर का दास था, और इस प्रकार परमेश्वर के पास लूत को बचाने और सदोम के नगर को नष्ट करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं था। हो सकता है कि अब्राहम और परमेश्वर के बीच का संवाद साधारण दिखाई दे, परन्तु वे कुछ ऐसी बात को प्रदर्शित करते हैं जो बहुत ही गम्भीर हैं: परमेश्वर के कार्यों के कुछ सिद्धान्त होते हैं, और किसी निर्णय को लेने से पहले वह अवलोकन एवं चिंतन करते हुए लम्बा समय बिताएगा; इससे पहले कि सही समय आए, वह निश्चित तौर पर कोई निर्णय नहीं लेगा या एकदम से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचेगा। परमेश्वर एवं अब्राहम के बीच का संवाद हमें यह दिखाता है कि सदोम को नाश करने का परमेश्वर का निर्णय जरा सा भी ग़लत नहीं था, क्योंकि परमेश्वर पहले से ही जानता था कि उस नगर में चालीस धर्मी नहीं थे, न ही तीस धर्मी थे, या न ही बीस धर्मी थे। वहाँ पर तो दस धर्मी भी नहीं थे। उस नगर में एकमात्र धर्मी व्यक्ति लूत था। वह सब जो सदोम में हुआ था और उसकी परिस्थितियों का परमेश्वर के द्वारा अवलोकन किया गया था, और वे परमेश्वर के लिए उसके हाथ के समान ही चिरपरिचित थे। इस प्रकार, उसका निर्णय ग़लत नहीं हो सकता था। इसके विपरीत, परमेश्वर की सर्वसामर्थता की तुलना में, मनुष्य कितना सुन्न, कितना मूर्ख एवं अज्ञानी, और कितना निकट-दर्शी है। यह वही बात है जिसे हम परमेश्वर एवं अब्राहम के बीच संवादों में देखते हैं। परमेश्वर आरम्भ से लेकर आज के दिन तक अपने स्वभाव को प्रकट करता रहा है। उसी प्रकार यहाँ पर भी परमेश्वर का स्वभाव है जिसे हमें देखना चाहिए। संख्याएँ सरल हैं, और किसी भी चीज़ को प्रदर्शित नहीं करती हैं, परन्तु यहाँ पर परमेश्वर के स्वभाव का अति महत्वपूर्ण प्रकटीकरण है। परमेश्वर पचास धर्मियों के कारण नगर को नाश नहीं करेगा। क्या यह परमेश्वर की दया के कारण है? क्या यह उसके प्रेम एवं सहिष्णुता के कारण है? क्या तुम लोगों ने परमेश्वर के स्वभाव के इस पहलू को देखाहै? भले ही वहाँ केवल दस धर्मी ही होते, फिर भी परमेश्वर इन दस धर्मियों के कारण उस नगर को नष्ट नहीं करता। यह परमेश्वर की सहनशीलता एवं प्रेम है या नहीं? उन धर्मी लोगों के प्रति परमेश्वर की दया, सहिष्णुता और चिंता के कारण, उसने उस नगर को नष्ट नहीं किया होता। यह परमेश्वर की सहनशीलता है। और अंत में, हम क्या परिणाम देखते हैं? जब अब्राहम ने कहा, "कदाचित् उसमें दस मिलें," परमेश्वर ने कहा, "मैं उसका नाश न करूँगा।" इसके बाद, अब्राहम ने और कुछ नहीं कहा—क्योंकि सदोम के भीतर ऐसे दस धर्मी नहीं थे जिनकी ओर उसने संकेत किया था, और उसके पास कहने के लिए कुछ भी नहीं था, और उस समय उसने जाना कि परमेश्वर ने क्यों सदोम को नष्ट करने के लिए दृढ़ निश्चय किया था। इस में, तुम लोग परमेश्वर के किस स्वभाव को देखते हो? परमेश्वर ने किस प्रकार का दृढ़ निश्चय किया था? अर्थात्, यदि उस नगर में दस धर्मी नहीं होते, तो परमेश्वर उसके अस्तित्व की अनुमति नहीं देता, और वह अनिवार्य रूप से उसे नष्ट कर देता। क्या यह परमेश्वर का क्रोध नहीं है? क्या यह क्रोध परमेश्वर के स्वभाव को दर्शाता है? क्या यह स्वभाव परमेश्वर की पवित्र हस्ती (मूल-तत्व) का प्रकाशन है? क्या यह परमेश्वर के धर्मी सार का प्रकाशन है, जिसका अपमान मनुष्य को नहीं करना चाहिए? इस बात की पुष्टि के बाद कि सदोम में दस धर्मी भी नहीं थे, परमेश्वर निश्चित था कि नगर का नाश कर दे, और परमेश्वर उस नगर के भीतर के लोगों को कठोरता से दण्ड देगा, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर का विरोध किया था, और वे बहुत ही गन्दे एवं भ्रष्ट थे।

हमने क्यों इन अंशों का इस रीति से विश्लेषण किया है? क्योंकि ये कुछ साधारण वाक्य अत्यंत दया एवं अत्याधिक क्रोध के विषय में परमेश्वर के स्वभाव की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। ठीक उसी समय धर्मियों को सहेजकर रखते हुए, उन पर दया करते हुए, उनको सहते हुए, और उनकी देखभाल करते हुए, परमेश्वर के हृदय में सदोम के सभी लोगों के लिए अत्यंत घृणा थी जो भ्रष्ट हो चुके थे। क्या यह अत्यंत दया एवं अत्याधिक क्रोध था, या नहीं? परमेश्वर ने किस तरह से उस नगर को नष्ट किया था? आग से। और उसने आग का इस्तेमाल करके उसे क्यों नष्ट किया था? जब तू किसी चीज़ को आग के द्वारा जलते हुए देखता है, या जब तू किसी चीज़ को जलाने वाला होता है, तो उसके प्रति तेरी भावनाएं क्या होती हैं? तू इसे क्यों जलाना चाहता है? क्या तू महसूस करता है कि अब तुझे इसकी आवश्यकता नहीं है, यह कि तू इसे अब और नहीं देखना चाहता है? क्या तू इसका परित्याग करना चाहता है? परमेश्वर के द्वारा आग का इस्तेमाल करने का अर्थ है परित्याग, एवं घृणा, और यह कि वह सदोम को अब और देखना नहीं चाहता था। यह वह भावना थी जिसने परमेश्वर से आग द्वारा सदोम का सम्पूर्ण विनाश करवाया। आग का इस्तेमाल दर्शाता है कि परमेश्वर कितना क्रोधित था। परमेश्वर की दया एवं सहनशीलता वास्तव में मौजूद है, किन्तु जब वह अपने क्रोध को तीव्रता से प्रवाहित करता है तो परमेश्वर की पवित्रता एवं धार्मिकता मनुष्य को परमेश्वर का वह पहलु भी दिखाती है जो किसी गुनाह की अनुमति नहीं देता है। जब मनुष्य परमेश्वर की आज्ञाओं को पूरी तरह से मानने में समर्थ होता है और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करता है, तो परमेश्वर मनुष्य के प्रति अपनी दया से भरपूर होता है; जब मनुष्य भ्रष्टता, घृणा एवं उसके प्रति शत्रुता से भर जाता है, तो परमेश्वर बहुत अधिक क्रोधित होता है। और वह किस हद तक अत्यंत क्रोधित होता है? उसका क्रोध तब तक बना रहता है जब तक वह मनुष्य के प्रतिरोध एवं बुरे कार्यों को फिर कभी नहीं देखता है, जब तक वे उसकी नज़रों के सामने से दूर नहीं हो जाते हैं। केवल तभी परमेश्वर का क्रोध दूर होगा। दूसरे शब्दों में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह व्यक्ति कौन है, यदि उनका हृदय परमेश्वर से दूर हो गया है, और परमेश्वर से फिर गया है, कभी वापस नहीं लौटने के लिए, तो इसके बावजूद कि, सभी संभावनाओं या अपनी आत्मनिष्ठ इच्छाओं के अर्थ में वे किस प्रकार अपने शरीर में या अपनी सोच में परमेश्वर की आराधना करने, उसका अनुसरण करने और उसकी आज्ञा मानने की इच्छा करते हैं, जैसे ही उनका हृदय परमेश्वर से दूर हो जाता है, परमेश्वर के क्रोध को बिना रूके तीव्रता से प्रवाहित किया जाएगा। यह कुछ ऐसा होगा कि मनुष्य को पर्याप्त अवसर देने के बाद, जब परमेश्वर अपने क्रोध को प्रचंडता से प्रवाहित करता है, जब एक बार उसके क्रोध को तीव्रता से प्रवाहित किया जाता है तो उसके बाद इसे वापस लेने का कोई मार्ग नहीं होगा, और वह ऐसे मनुष्य के प्रति फिर कभी दयावान एवं सहनशील नहीं होगा। यह परमेश्वर के स्वभाव का ऐसा पहलु है जो किसी गुनाह को बर्दाश्त नहीं करता है। यहाँ, यह लोगों को सामान्य प्रतीत होता है कि परमेश्वर एक नगर को नष्ट करेगा, क्योंकि, परमेश्वर की दृष्टि में, वह नगर जो पाप से भरा हुआ था अस्तित्व में नहीं रह सकता था और निरन्तर बना नहीं रह सकता था, और यह न्यायसंगत था कि इसे परमेश्वर के द्वारा नष्ट किया जाना चाहिए। फिर भी उन बातों में जो परमेश्वर के द्वारा सदोम के विनाश के पहले और उसके बाद घटित हुए थे, हम परमेश्वर के स्वभाव की सम्पूर्णता को देखते हैं। वह उन चीज़ों के प्रति सहनशील एवं दयालु है जो उदार, और खूबसूरत, और भली हैं; ऐसी चीज़ें जो बुरी, और पापमय, और दुष्ट हैं, वह उनके प्रति अत्याधिक क्रोधित होता है, कुछ इस तरह कि वह लगातार क्रोध करता है। ये परमेश्वर के स्वभाव के दो सिद्धान्त एवं अति महत्वपूर्ण पहलु हैं, और, इसके अतिरिक्त, उन्हें प्रारम्भ से लेकर अंत तक परमेश्वर के द्वारा प्रकट किया गया है: भरपूर दया एवं अत्यंत क्रोध। तुम लोगों में से अधिकतर लोगों ने परमेश्वर की दया का अनुभव किया है, किन्तु तुम में से बहुत कम लोगों ने परमेश्वर के क्रोध की सराहना की होगी। परमेश्वर की दया एवं करूणा को प्रत्येक व्यक्ति में देखा जा सकता है; अर्थात्, परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के प्रति बहुत अधिक दयालु रहा है। फिर भी कभी कभार—या, ऐसा कहा जा सकता है, कभी नहीं—परमेश्वर ने किसी भी व्यक्ति के प्रति या आज तुम लोगों के बीच के किसी भी समूह के प्रति अत्याधिक क्रोध किया है। शान्त हो जाओ! जल्द ही या बाद में, प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा परमेश्वर के क्रोध को देखा और अनुभव किया जाएगा, किन्तु अभी वह समय नहीं आया है। और ऐसा क्यों है? क्योंकि जब परमेश्वर किसी के प्रति लगातार क्रोधित होता है, अर्थात्, जब वह अपने अत्यंत क्रोध को उन पर तीव्रता से प्रवाहित करता है, तो इसका अर्थ है कि उसने काफी समय से उससे घृणा की है और उसे अस्वीकार किया है, यह कि उसने उनके अस्तित्व को तुच्छ जाना है, और यह कि वह उनकी मौजूदगी को सहन नहीं कर सकता है; जैसे ही उसका क्रोध उनके ऊपर आएगा, वे लुप्त हो जाएंगे। आज, परमेश्वर का कार्य अभी तक उस मुकाम पर नहीं पहुंचा है। परमेश्वर के बहुत अधिक क्रोधित हो जाने पर तुम लोगों में से कोई भी उसके सामने खड़े होने के योग्य नहीं होगा। तो तुम लोग देखते हो कि इस समय परमेश्वर तुम सभी के प्रति अत्याधिक दयालु है, और तुम लोगों ने अभी तक उसका अत्यंत क्रोध नहीं देखा है। यदि ऐसे लोग हैं जो अविश्वास की दशा में बने रहते हैं, तो तुम लोग याचना कर सकते हो कि परमेश्वर का क्रोध तुम लोगों के ऊपर आ जाए, ताकि तुम लोग अनुभव कर सको कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का क्रोध और उसका अनुल्लंघनीय स्वभाव वास्तव में अस्तित्व में है या नहीं। क्या तुम लोग ऐसी हिम्मत कर सकते हो?

अंतिम दिनों के लोग परमेश्वर के क्रोध को केवल उसके वचनों में देखते हैं, और परमेश्वर के क्रोध को सचमुच में महसूस नहीं करते हैं

क्या परमेश्वर के स्वभाव के वे दो पहलु सहभागिता के योग्य हैं जिन्हें पवित्र शास्त्र के इन अंशों में देखा जाता है? इस कहानी को सुनने के बाद, क्या तुम लोगों के पास परमेश्वर की एक नई समझ है? किस प्रकार की समझ? ऐसा कहा जा सकता है कि उत्पत्ति के समय से लेकर आज तक, किसी भी समूह ने परमेश्वर के अनुग्रह या दया एवं करूणा का उतना आनन्द नहीं लिया है जितना इस अंतिम समूह ने लिया है। हालाँकि, परमेश्वर ने अंतिम चरण में न्याय एवं ताड़ना का कार्य किया है, और उसने अपना कार्य प्रताप एवं क्रोध के साथ किया है, अधिकतर बार परमेश्वर अपने कार्य को पूरा करने के लिए केवल वचनों का ही उपयोग करता है; वह सिखाने, सींचने, प्रदान करने, और पोषण करने के लिए वचनों का ही उपयोग करता है। इसी बीच, परमेश्वर के क्रोध को हमेशा छिपाकर रखा गया है, और उसके वचनों में परमेश्वर के क्रोधपूर्ण स्वभाव का अनुभव करने के अलावा, बहुत ही कम लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर उसके क्रोध का अनुभव किया है। कहने का तात्पर्य है, न्याय एवं ताड़ना के विषय में परमेश्वर के कार्य के दौरान, हालाँकि परमेश्वर के वचनों में प्रकट क्रोध लोगों को परमेश्वर की महिमा और अपराध के प्रति उसकी असहिष्णुता का अनुभव करने देता है, फिर भी यह क्रोध उसके वचनों से परे नहीं जाता है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर मनुष्य को झिड़कने, मनुष्य का खुलासा करने, मनुष्य का न्याय करने, मनुष्य को ताड़ना देने, और यहाँ तक कि मनुष्य की निंदा करने के लिए वचनों का उपयोग करता है—परन्तु परमेश्वर अभी तक मनुष्य के प्रति अत्यंत क्रोधित नहीं हुआ है, और अपने वचनों के बाहर बमुश्किल ही मनुष्य पर अपने क्रोध को तीव्रता से प्रवाहित किया है। इस प्रकार, परमेश्वर की दया एवं करूणा जिनका अनुभव मनुष्य के द्वारा इस युग में किया जाता है वे परमेश्वर के सच्चे स्वभाव का प्रकाशन हैं, जबकि परमेश्वर का क्रोध जिसका अनुभव मनुष्य के द्वारा किया जाता है वह महज उसके कथनों के अन्दाज़ एवं एहसास का प्रभाव है। बहुत से लोग इस प्रभाव को ग़लत रीति से लेते हैं कि ये परमेश्वर के क्रोध का सच्चा अनुभव एवं सच्चा ज्ञान है। परिणामस्वरूप, अधिकतर लोग मानते हैं कि उन्होंने उसके वचनों में परमेश्वर की दया एवं करूणा को देखा है, यह कि उन्होंने मनुष्य के अपराध के विषय में परमेश्वर की असहिष्णुता को भी देखा है, और उन में से अधिकांश लोग मनुष्य के प्रति परमेश्वर की दया एवं सहिष्णुता की सराहना भी करने लगे हैं। परन्तु इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य का व्यवहार कितना बुरा है, या उसका स्वभाव कितना भ्रष्ट है, परमेश्वर ने हमेशा सहन किया है। सहते रहने में, उसका उद्देश्य है कि वे वचन जो उसने कहे हैं, वे कोशिशें जो उसने की है और वह कीमत जो उसने चुकाई है इनके प्रभाव हासिल करने का इंतज़ार उन लोगों में करना जिन्हें वह प्राप्त करना चाहता है। इस प्रकार के परिणाम का इंतज़ार करने में समय लगता है, और इस में मनुष्य के लिए विभिन्न वातावरण की सृष्टि करने की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार जैसे लोग जन्म लेते ही व्यस्क नहीं हो जाते हैं; इस में अट्ठारह या उन्नीस साल लग जाते हैं, और कुछ लोगों को तो बीस या तीस साल लग जाते हैं इससे पहले कि वे परिपक्व होकर व्यस्क हों। परमेश्वर इस प्रक्रिया के पूर्ण होने का इंतज़ार करता है, वह ऐसे समय के आने का इंतज़ार करता है, और वह इस परिणाम के आगमन का इंतज़ार करता है। और उस पूरे समय जब वह इंतज़ार करता है, परमेश्वर अत्यंत दयालु होता है। फिर भी परमेश्वर के कार्य की समयावधि के दौरान बहुत कम संख्या में लोगों को मार गिराया जाता है, और कुछ ही लोगों को परमेश्वर का गम्भीर विरोध करने के कारण दण्ड दिया जाता है। ऐसे उदाहरण परमेश्वर के उस स्वभाव के और भी अधिक बड़े प्रमाण हैं जो मनुष्य के अपराध को बर्दाश्त नहीं करता है, और वे चुने हुए लोगों के प्रति परमेश्वर की सहिष्णुता एवं सहनशक्ति के सच्चे अस्तित्व को पूरी तरह से पुष्ट करते हैं। हाँ वास्तव में, इन प्रतीकात्मक उदाहरणों में, इन लोगों में परमेश्वर के स्वभाव के एक हिस्से का प्रकटीकरण परमेश्वर की समूची प्रबन्धकीय योजना को प्रभावित नहीं करता है। वास्तव में, परमेश्वर के कार्य के इस अंतिम चरण में, परमेश्वर ने उस समयावधि के दौरान चुपचाप सहन किया है जिस में वह इंतज़ार करता रहा है, और उसने अपनी सहनशक्ति एवं अपने जीवन को उन लोगों के उद्धार से बदल लिया है जो उसका अनुसरण करते हैं। क्या तू इसे देखता है? परमेश्वर बिना कारण अपनी योजना में उलट-फेर नहीं करता है। वह अपने क्रोध को तीव्रता से प्रवाहित कर सकता है, और वह दयालु भी हो सकता है; यह परमेश्वर के स्वभाव के दो मुख्य भागों का प्रकटीकरण है। क्या यह बिल्कुल स्पष्ट है, या नहीं है? दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर की बात आती है, तो सही एवं ग़लत, धर्मी एवं अधर्मी, सकारात्मक एवं नकारात्मक—यह सब कुछ मनुष्य को साफ साफ दिखाया जाता है। जो वह करेगा, जो वह पसंद करता है, जिससे वह घृणा करता है—यह सब सीधे तौर पर उसके स्वभाव में प्रतिबिम्बित हो सकता है। ऐसी बातों को परमेश्वर के कार्य में भी स्पष्ट तौर पर और साफ साफ देखा जा सकता है, और वे अस्पष्ट या सामान्य नहीं हैं; इसके बजाए, वे सभी लोगों को परमेश्वर के स्वभाव, और स्वरूप को ख़ास तौर पर ठोस, सही एवं व्यावहारिक रीति से देखने देता है। यही स्वयं सच्चा परमेश्वर है।

परमेश्वर के स्वभाव को मनुष्य से कभी छिपाया नहीं गया है—मनुष्य का हृदय परमेश्वर से भटक गया है

यदि मैं इन चीज़ों के बारे में सहभागिता में विचार विमर्श न करूं, तो तुम लोगों में से कोई भी बाइबल की कहानियों में परमेश्वर के सच्चे स्वभाव को देखने के योग्य नहीं होगा। यह तथ्य है। यह इसलिए है क्योंकि, हालाँकि बाइबल की इन कहानियों ने उन कुछ चीज़ों को दर्ज किया है जिन्हें परमेश्वर ने किया था, फिर भी परमेश्वर ने सिर्फ कुछ वचनों को ही कहा था, और उसने अपने स्वभाव का सीधे तौर पर परिचय नहीं कराया था या मनुष्य पर खुले तौर पर अपनी इच्छा को प्रकट नहीं किया था। बाद की पीढ़ियों ने इन लिखित दस्तावेज़ो को कहानियों से बढ़कर और कुछ नहीं माना है, और इससे लोगों को लगा कि परमेश्वर अपने आपको मनुष्य से छिपाता है, कि यह परमेश्वर का व्यक्तित्व नहीं है जो मनुष्य से छिपा हुआ है, परन्तु उसका स्वभाव एवं इच्छा है जो मनुष्य से छिपा हुआ है। मेरी आज की सहभागिता के बाद, क्या तुम लोग अभी भी महसूस करते हो कि परमेश्वर मनुष्य से पूरी तरह से छिपा हुआ है? क्या तुम लोग अभी भी यह विश्वास करते हो कि परमेश्वर का स्वभाव मनुष्य से छिपा हुआ है?

उत्पत्ति के समय से ही, परमेश्वर का स्वभाव उसके कार्य के साथ कदम से कदम मिलाता रहा है। इसे मनुष्य से कभी छिपाया नहीं गया है, बल्कि इसे मनुष्य के लिए पूरी तरह से सार्वजनिक किया गया है और सरल बनाया गया है। फिर भी, समय के बीतने के साथ ही, मनुष्य का हृदय परमेश्वर से और भी अधिक दूर होता गया, और जब मनुष्य की भ्रष्टता और अधिक गहरी होती गई, तो मनुष्य एवं परमेश्वर दूर तथा और अधिक दूर होते गए। आहिस्ता आहिस्ता परन्तु निश्चित रूप से, मनुष्य परमेश्वर की दृष्टि से ओझल हो गया। मनुष्य परमेश्वर को "देखने" में असमर्थ हो गया, जिससे उसके पास परमेश्वर का कोई "समाचार" नहीं रहा; इस प्रकार, वह नहीं जानता कि परमेश्वर अस्तित्व में है या नहीं, और यहाँ तक चला गया है कि परमेश्वर के अस्तित्व का पूरी तरह से इंकार करता है। परिणामस्वरूप, परमेश्वर के स्वभाव और स्वरूपके विषय में मनुष्य की नासमझी इसलिए नहीं है क्योंकि परमेश्वर मनुष्य से छिप गया है, बल्कि इसलिए है क्योंकि उसका हदय परमेश्वर से फिर गया है। हालाँकि मनुष्य परमेश्वर में विश्वास करता है, फिर भी उसका हृदय परमेश्वर से रहित है, और वह इस बारे में अनजान है कि परमेश्वर से कैसे प्रेम करे, न ही वह उसे प्रेम करना चाहता है, क्योंकि उसका हृदय कभी भी परमेश्वर के नज़दीक नहीं आया है और उसने हमेशा से परमेश्वर से परहेज किया है। इसके परिणामस्वरूप, मनुष्य का हृदय परमेश्वर से दूर है। अतः उसका हृदय कहाँ है? वास्तव में, मनुष्य का हृदय कहीं और नहीं गया हैः इसे परमेश्वर को देने के बजाय या इसे परमेश्वर पर प्रकट करने के बजाय कि वह उसे देखे, उसने इसे अपने आपके लिए रख लिया है। यह उस तथ्य के विरोध में है कि कुछ लोग प्रायः परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और कहते हैं, "हे परमेश्वर, मेरे हृदय पर दृष्टि डाल—जो मैं सोचता हूँ तू वह सब कुछ जानता है," और कुछ लोग यह शपथ भी खाते हैं कि वे परमेश्वर को अपने ऊपर दृष्टि डालने देते हैं, यह कि उन्हें दण्ड दिया जा सकता है यदि वे अपनी शपथ को तोड़ते हैं। हालाँकि मनुष्य परमेश्वर को अपने हृदय के भीतर झाँकने देता है, फिर भी इसका अर्थ यह नहीं है कि वह परमेश्वर के आयोजनों एवं इंतज़ामों को मानने के योग्य है, न ही इसका अर्थ यह है कि उसने अपनी नियति एवं सम्भावनाओं एवं अपना सब कुछ परमेश्वर के नियन्त्रण के अधीन कर दिया है। इस प्रकार, ऐसे शपथ के बावजूद जिन्हें तू परमेश्वर के लिए लेता है या उसके प्रति अपनी मनोवृत्ति के बावजूद, परमेश्वर की दृष्टि में तेरा हृदय उसके प्रति अभी भी अवरुद्ध है, क्योंकि तू केवल परमेश्वर को अपने हृदय के भीतर झाँकने देता है किन्तु तू उसे इसका नियन्त्रण करने नहीं देता है। दूसरे शब्दों में, तूने अपना हृदय परमेश्वर को बिलकुल भी नहीं दिया है, और केवल परमेश्वर को सुनाने के लिए मनभावने शब्द बोलता है; इसी बीच, तूने अपने विभिन्न धूर्त इरादों को, और साथ ही अपने षडयन्त्रों, साजिशों, एवं योजनाओं को परमेश्वर से छिपाया है, और तू अपने भविष्य की सम्भावनाओं एवं नियति को अपने हाथों में कसकर पकड़े रहता है, और अत्यंत भयभीत होता है कि उन्हें परमेश्वर के द्वारा ले लिए जाएगा। इस प्रकार, परमेश्वर ने स्वयं के प्रति मनुष्य की ईमानदारी को कभी नहीं देखा है। हालाँकि वह मनुष्य के हृदय की गहराई का अवलोकन करता है, और वह देख सकता है कि मनुष्य अपने हृदय में क्या सोच रहा है और क्या करने की इच्छा करता है, और जो चीजें उसके हृदय के भीतर रखी हुई हैं वह उन्हें देख सकता है, फिर भी मनुष्य का हृदय परमेश्वर से सम्बन्धित नहीं है, उसने उसे परमेश्वर के नियन्त्रण में नहीं दिया है। कहने का तात्पर्य है, परमेश्वर के पास उसका अवलोकन करने का अधिकार है, परन्तु उसके पास उसका नियन्त्रण करने का अधिकार नहीं है। मनुष्य की आत्मनिष्ठ चेतनावस्था में, मनुष्य अपने आपको परमेश्वर की दया पर छोड़ने की इच्छा या इरादा नहीं करता है। मनुष्य ने न केवल अपने आपको परमेश्वर के लिए अवरुद्ध किया है, बल्कि ऐसे लोग भी हैं जो अपने हृदयों को ढांपने के लिए उपायों के बारे में सोचते हैं, परमेश्वर के विषय में मिथ्या प्रभाव उत्पन्न करने और उसका भरोसा हासिल करने के लिए चिकनी चुपड़ी बातों एवं चापलूसी का उपयोग करते हैं, और परमेश्वर कि दृष्टि से अपने असली चेहरे को छिपाने का प्रयास करते हैं। परमेश्वर को देखने की अनुमति न देने में उनका उद्देश्य है कि परमेश्वर को अनुमति न दिया जाए कि वह एहसास करे कि वे वास्तव में कैसे हैं। वे परमेश्वर को अपना हृदय नहीं देना चाहते हैं, परन्तु उन्हें स्वयं के लिए ही रखना चाहते हैं। इसका गुप्त कारण यह है कि जो कुछ मनुष्य करता है और जो कुछ वह चाहता है उसकी योजना, उसकी गणना, और उसका निर्णय स्वयं मनुष्य के द्वारा ही किया जाता है; उसे परमेश्वर की भागीदारी एवं हस्तक्षेप की ज़रूरत नहीं है, और उसे परमेश्वर के आयोजनों एवं इंतज़ामों की आवश्यकता तो बिलकुल भी नहीं है। इस प्रकार, चाहे परमेश्वर की आज्ञाओं, एवं उसके महान आदेश के लिहाज से, या उन अपेक्षाओं के लिहाज से जिन्हें परमेश्वर मनुष्य से करता है, मनुष्य का निर्णय अपने स्वयं के इरादों एवं रुचियों पर, और उस समय की अपनी स्वयं की दशा एवं परिस्थितियों पर आधारित होता है। मनुष्य हमेशा न्याय करने और उस मार्ग को चुनने के लिए जिसे उसे लेना चाहिए अपने उस ज्ञान एवं अंतर्दृष्टि का उपयोग करता है जिन से वह परिचित है, और अपनी स्वयं कि बुद्धिमत्ता का उपयोग करता है, और परमेश्वर के हस्तक्षेप एवं नियन्त्रण की अनुमति नहीं देता है। यह मनुष्य का हृदय है जिसे परमेश्वर देखता है।

फुटनोट:

क. मूल पाठ इसे छोड़ देता है "की उपाधि"

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