परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I

भाग तीन

इसके आगे, हम नूह की कहानी की चर्चा करेंगे और यह किस प्रकार परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव और स्वयं परमेश्वर के विषय से सम्बन्धित है।

पवित्र शास्त्रों के इस भाग में तुम लोग परमेश्वर को नूह के साथ क्या करते हुए देखते हो? कदाचित् यहाँ बैठा हुआ प्रत्येक जन पवित्र शास्त्र को पढ़ने से इसके बारे में कुछ न कुछ जानता है: परमेश्वर ने नूह से एक जहाज़ बनवाया, फिर परमेश्वर ने संसार का नाश करने के लिए जलप्रलय का उपयोग किया। परमेश्वर ने नूह के अपने परिवार के आठ लोगों को बचाने के लिए, जीवित रहने हेतु अनुमति देने के लिए, और मानवजाति की अगली पीढ़ी के पूर्वज बनने के लिए उसे एक जहाज बनाने दिया। अब आइए हम पवित्रशास्त्र को पढ़ें।

ख. नूह

1. परमेश्वर संसार को जलप्रलय से नाश करने का इरादा करता है, नूह को एक जहाज बनाने का निर्देश देता है

(उत्पत्ति 6:9-14) नूह की वंशावली यह है। नूह धर्मी पुरुष और अपने समय के लोगों में खरा था; और नूह परमेश्‍वर ही के साथ साथ चलता रहा। और नूह से शेम, और हाम, और येपेत नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए। उस समय पृथ्वी परमेश्‍वर की दृष्‍टि में बिगड़ गई थी, और उपद्रव से भर गई थी। और परमेश्‍वर ने पृथ्वी पर जो दृष्‍टि की तो क्या देखा कि वह बिगड़ी हुई है; क्योंकि सब प्राणियों ने पृथ्वी पर अपना अपना चाल-चलन बिगाड़ लिया था। तब परमेश्‍वर ने नूह से कहा, "सब प्राणियों के अन्त करने का प्रश्न मेरे सामने आ गया है; क्योंकि उनके कारण पृथ्वी उपद्रव से भर गई है, इसलिये मैं उनको पृथ्वी समेत नष्‍ट कर डालूँगा। इसलिये तू गोपेर वृक्ष की लकड़ी का एक जहाज बना ले, उसमें कोठरियाँ बनाना, और भीतर-बाहर उस पर राल लगाना।"

(उत्पत्ति 6:18-22) "परन्तु तेरे संग मैं वाचा बाँधता हूँ; इसलिये तू अपने पुत्रों, स्त्री, और बहुओं समेत जहाज में प्रवेश करना। और सब जीवित प्राणियों में से तू एक एक जाति के दो दो, अर्थात् एक नर और एक मादा जहाज में ले जाकर, अपने साथ जीवित रखना। एक एक जाति के पक्षी, और एक एक जाति के पशु, और एक एक जाति के भूमि पर रेंगनेवाले, सब में से दो दो तेरे पास आएँगे, कि तू उनको जीवित रखे। और भाँति भाँति का भोज्य पदार्थ जो खाया जाता है, उनको तू लेकर अपने पास इकट्ठा कर रखना; जो तेरे और उनके भोजन के लिये होगा।" परमेश्‍वर की इस आज्ञा के अनुसार नूह ने किया।

इन अंशों को पढ़ने के बाद क्या अब तुम लोगों के पास नूह के बारे में एक सामान्य समझ है कि वह कैसा है? नूह किस प्रकार का व्यक्ति था? मूल पाठ है: "नूह धर्मी पुरुष और अपने समय के लोगों में खरा था।" वर्तमान लोगों की समझ के अनुसार, पीछे उस समय में एक धर्मी व्यक्ति किस प्रकार का व्यक्ति था? एक धर्मी पुरुष को एक सिद्ध पुरुष होना चाहिए। क्या तुम लोग जानते हो कि यह सिद्ध पुरुष मनुष्य की दृष्टि में सिद्ध है या परमेश्वर की दृष्टि में सिद्ध है? बिना किसी शंका के, यह सिद्ध पुरुष परमेश्वर की दृष्टि में एक सिद्ध पुरुष है और मनुष्य की दृष्टि में नहीं। यह तो निश्चित है! ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य अंधा है और देख नहीं सकता है, और सिर्फ परमेश्वर ही पूरी पृथ्वी पर और हर एक व्यक्ति को देखता है, सिर्फ परमेश्वर ही जानता है कि नूह एक सिद्ध पुरुष है। इसलिए, संसार को जलप्रलय से नष्ट करने की परमेश्वर की योजना उस क्षण शुरू हो गई थी जब उसने नूह को बुलाया था।

उस युग में, परमेश्वर ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए नूह को बुलाने का इरादा किया। उसे यह क्यों करना पड़ा? क्योंकि उस घड़ी परमेश्वर के पास उसके हृदय में एक योजना थी। उसकी योजना संसार को जलप्रलय से नाश करने की थी। संसार को क्यों नाश करना है? यहाँ कहा गया है: "उस समय पृथ्वी परमेश्वर की दृष्टि में बिगड़ गई थी, और उपद्रव से भर गई थी।" तुम लोग इस वाक्यांश से क्या देखते हो "पृथ्वी उपद्रव से भर गई थी"? यह पृथ्वी पर एक घटना है जब संसार और इसके लोग चरमावस्था तक बिगड़ गए हैं, और वह है: "पृथ्वी उपद्रव से भर गई थी।" आज की भाषा में, "उपद्रव से भर गई थी" मतलब सबकुछ गड़बड़ है। मनुष्य के लिए, इसका मतलब है कि जीवन के सभी दौर में कोई क्रम नहीं है, और परिस्थितियाँ बहुत ही अस्तव्यस्त हैं और उन्हें सम्भालना कठिन है। परमेश्वर की नज़रों में, इसका मतलब है कि संसार के लोग बहुत ही भ्रष्ट हैं। किस हद तक भ्रष्ट हैं? उस हद तक भ्रष्ट हैं कि परमेश्वर आगे से उन्हें देखना बर्दाश्त नहीं कर सकता है और वह इसके विषय में आगे से और धीरज नहीं धर सकता है। उस हद तक भ्रष्ट हैं कि परमेश्वर उसे नष्ट करने का निर्णय लेता है। जब परमेश्वर ने ठान लिया था कि संसार को नष्ट कर दे, तो उसने जहाज़ बनाने के लिए किसी को ढूढ़ने की योजना बनाई। फिर परमेश्वर ने इस कार्य करने के लिए नूह को चुना, जो यह है कि नूह को जहाज़ बनाने दिया जाए। नूह को क्यों चुना? परमेश्वर की नज़रों में, नूह एक धर्मी पुरुष है, और चाहे परमेश्वर उसे कुछ भी करने का निर्देश दे वह उसी के अनुसार कार्य करेगा। इसका मतलब है कि जो कुछ भी परमेश्वर उसे करने के लिए कहेगा वह उसे करेगा। परमेश्वर अपने साथ कार्य करने के लिए, जो कुछ उसने सौंपा है उसे पूर्ण करने के लिए, और पृथ्वी पर अपने कार्य को पूर्ण करने के लिए ऐसे ही व्यक्ति को ढूँढना चाहता था। वापस उस समय, क्या नूह के अलावा कोई और व्यक्ति था जो ऐसे कार्य को पूर्ण कर सकता था? निश्चित रूप से नहीं! नूह ही एकमात्र उम्मीदवार था, ऐसा एकमात्र व्यक्ति जो उसे पूर्ण कर सकता था जिसे परमेश्वर ने सौंपा था, और इस प्रकार परमेश्वर ने उसे चुना था। लेकिन क्या उस समय लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर का दायरा एवं मापदंड वैसे ही थे जैसे अब हैं? उत्तर यह है कि इसमें बिलकुल एक अन्तर है! मैं क्यों पूछता हूँ? उस समय के दौरान परमेश्वर की नज़रों में केवल नूह ही एक धर्मी पुरुष था, एक अर्थ में उसकी पत्नी और उसके बेटे और बहूएँ सभी धर्मी लोग नहीं थे, लेकिन परमेश्वर ने नूह के कारण इन लोगों को अब भी बचाकर रखा था। परमेश्वर ने उनसे उस तरह से अपेक्षा नहीं की थी जैसे वह आज के लोगों से अपेक्षा करता है, और इसके बजाए उसने नूह के परिवार के आठ सदस्यों को सुरक्षित रखा। उन्होंने नूह की धार्मिकता के कारण परमेश्वर की आशीष को प्राप्त किया। यदि नूह नहीं होता, तो उनमें से कोई भी उस कार्य को पूर्ण नहीं कर सकता था जो परमेश्वर ने सौंपा था। इसलिए, नूह ही ऐसा एकमात्र व्यक्ति था जिससे अपेक्षा की गई थी कि वह उस समय संसार के विनाश में जीवित बचा रहे, अन्य लोग बस अतिरिक्त सहायक लाभार्थी थे। यह दर्शाता है कि, परमेश्वर ने अपने प्रबंधकीय कार्य को आधिकारिक रूप से प्रारम्भ किया उसके पहले के युग में, ऐसे सिद्धान्त एवं मापदंड जिसके तहत वह लोगों से व्यवहार करता और उनसे अपेक्षा करता था वे अपेक्षाकृत शिथिल थे। आज के लोगों के लिए, ऐसा प्रतीत होता है कि जिस तरह से परमेश्वर ने नूह के परिवार के आठ सदस्यों से व्यवहार किया उसमें निष्पक्षता का अभाव है। किन्तु कार्य के उस परिमाण की तुलना में जिसे वह अब लोगों पर करता है और उसके वचन की मात्रा की तुलना में जिसे वह देता है, वह व्यवहार जो परमेश्वर ने नूह के परिवार के आठ लोगों से किया वह महज एक कार्य सिद्धान्त था जिसने उस समय उसके कार्य की पृष्ठभूमि प्रदान की थी। तुलनात्मक रूप से, क्या नूह के परिवार के आठ लोगों ने परमेश्वर से कहीं ज़्यादा प्राप्त किया था या क्या आज के लोगों ने?

यह कि नूह का बुलाया जाना एक साधारण तथ्य है, परन्तु वह मुख्य बिन्दु जिसके विषय में हम बात कर रहे हैं—इस अभिलेख में परमेश्वर का स्वभाव, परमेश्वर की इच्छा एवं उसका सार—वह साधारण नहीं है। परमेश्वर के इन विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए, हमें पहले समझना होगा कि परमेश्वर किस प्रकार के व्यक्ति को बुलाने की इच्छा करता है, और इसके माध्यम से, हमें उसके स्वभाव, इच्छा एवं सार को समझना होगा। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। अतः परमेश्वर की नज़रों में, यह महज किस प्रकार का व्यक्ति है जिसे वह बुलाता है? यह ऐसा व्यक्ति होगा जो उसके वचनों को सुन सके, जो उसके निर्देशों का अनुसरण कर सके। ठीक उसी समय, यह ऐसा व्यक्ति भी होगा जिसके पास ज़िम्मेदारी की भावना हो, कोई ऐसा व्यक्ति जो उस ज़िम्मेदारी एवं कर्तव्य के रूप में इससे व्यवहार करने के द्वारा परमेश्वर के वचन को क्रियान्वित करेगा जिसे निभाने के लिए वो बाध्य है। तब क्या इस व्यक्ति को ऐसा व्यक्ति होने की अवश्यकता है जो परमेश्वर को जानता है? नहीं। उस समय अतीत में, नूह ने परमेश्वर की शिक्षाओं के बारे में बहुत कुछ नहीं सुना था या परमेश्वर के किसी कार्य का अनुभव नहीं किया था। इसलिए, परमेश्वर के बारे में नूह का ज्ञान बहुत ही कम था। हालाँकि यहाँ लिखा है कि नूह परमेश्वर के साथ साथ चलता रहा, फिर भी क्या उसने कभी परमेश्वर के व्यक्तित्व को देखा था? उत्तर है पक्के तौर पर नहीं! क्योंकि उन दिनों में, सिर्फ परमेश्वर के संदेशवाहक ही लोगों के पास आते थे। जबकि वे चीज़ों को कहने एवं करने के द्वारा परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकते थे, वे महज परमेश्वर की इच्छा एवं इरादों को सूचित कर रहे थे। परमेश्वर का व्यक्तित्व मनुष्य पर आमने-सामने प्रकट नहीं हुआ था। पवित्र शास्त्र के इस भाग में, हम सब मूल रूप से देखते हैं कि इस व्यक्ति नूह को क्या करना था और उसके लिए परमेश्वर के निर्देश क्या थे। अतः वह सार क्या था जिसे यहाँ परमेश्वर के द्वारा व्यक्त किया गया था? सब कुछ जो परमेश्वर करता है उसकी योजना सुनिश्चितता के साथ बनाई जाती है। जब वह किसी चीज़ या परिस्थिति को घटित होते देखता है, तो उसकी दृष्टि में इसे नापने के लिए एक मापदंड होगा, और यह मापदंड निर्धारित करेगा कि इसके साथ निपटने के लिए वह किसी योजना की शुरुआत करता है या नहीं या उसे इस चीज़ एवं परिस्थिति के साथ किस प्रकार निपटना है। वह उदासीन नहीं है या उसके पास सभी चीज़ों के प्रति कोई भावनाएँ नहीं हैं। यह असल में पूर्णत: विपरीत है। यहाँ एक वचन है जिसे परमेश्वर ने नूह से कहा था: "सब प्राणियों के अन्त करने का प्रश्न मेरे सामने आ गया है; क्योंकि उनके कारण पृथ्वी उपद्रव से भर गई है, इसलिये मैं उनको पृथ्वी समेत नष्‍ट कर डालूँगा।" इस समय परमेश्वर के वचनों में, क्या उसने कहा था कि वह सिर्फ मनुष्यों का विनाश कर रहा था? नहीं! परमेश्वर ने कहा कि वह हाड़-मांस के सब जीवित प्राणियों का विनाश करने जा रहा था। परमेश्वर ने विनाश क्यों चाहा? यहाँ परमेश्वर के स्वभाव का एक और प्रकाशन है: परमेश्वर की दृष्टि में, मनुष्य की भ्रष्टता के प्रति, सभी प्राणियों की अशुद्धता, उपद्रव एवं अनाज्ञाकारिता के प्रति उसके धीरज की एक सीमा होती है। उसकी सीमा क्या है? यह ऐसा है जैसा परमेश्वर ने कहा था: "और परमेश्‍वर ने पृथ्वी पर जो दृष्‍टि की तो क्या देखा कि वह बिगड़ी हुई है; क्योंकि सब प्राणियों ने पृथ्वी पर अपना अपना चाल-चलन बिगाड़ लिया था।" इस वाक्यांश "क्योंकि सब प्राणियों ने पृथ्वी पर अपना अपना चाल-चलन बिगाड़ लिया था" का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कोई भी जीवित प्राणी, परमेश्वर का अनुसरण करने वालों समेत, ऐसे लोग जो परमेश्वर का नाम पुकारते थे, ऐसे लोग जो किसी समय परमेश्वर को होमबलि चढ़ाते थे, ऐसे लोग जो मौखिक रूप से परमेश्वर को स्वीकार करते थे और यहाँ तक कि परमेश्वर की स्तुति भी करते थे—जब एक बार उनका व्यवहार भ्रष्टता से भर गया और परमेश्वर की दृष्टि तक पहुँच गया, तो उसे उन्हें नाश करना होगा। यह परमेश्वर की सीमा थी। अतः परमेश्वर किस हद तक मनुष्य एवं सभी प्राणियों की भ्रष्टता के प्रति सहनशील बना रहा? उस हद तक जब सभी लोग, चाहे परमेश्वर के अनुयायी हों या अविश्वासी, सही मार्ग पर नहीं चल रहे थे। उस हद तक कि मनुष्य केवल नैतिक रूप से भ्रष्ट और बुराई से भरा हुआ नहीं था, बल्कि जहाँ कोई व्यक्ति नहीं था जो परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता था, किसी ऐसे व्यक्ति की तो बात ही छोड़ दीजिए जो विश्वास करता था कि परमेश्वर के द्वारा इस संसार पर शासन किया जाता है और यह कि परमेश्वर लोगों को ज्योति में और सही मार्ग पर ला सकता है। उस हद तक जहाँ मनुष्य ने परमेश्वर के अस्तित्व को तुच्छ जाना और परमेश्वर को अस्तित्व में रहने की अनुमति नहीं दी। जब एक बार मनुष्य की भ्रष्टता इस बिन्दु पर पहुँच गई, तो परमेश्वर के पास आगे और धीरज नहीं होगा। इसके बजाए उसका स्थान कौन लेगा? परमेश्वर के क्रोध और परमेश्वर के दण्ड का आगमन। क्या यह परमेश्वर के स्वभाव का एक आंशिक प्रकाशन नहीं था? इस वर्तमान युग में, क्या परमेश्वर की दृष्टि में अभी भी कोई धर्मी मनुष्य है? क्या परमेश्वर की दृष्टि में अभी भी कोई सिद्ध मनुष्य है? क्या यह युग ऐसा युग है जिसके अंतर्गत परमेश्वर की दृष्टि में पृथ्वी पर सभी प्राणियों का व्यवहार भ्रष्ट हो गया है? आज के दिन और युग में, ऐसे लोगों को छोड़ कर जिन्हें परमेश्वर पूर्ण करना चाहता है, ऐसे लोग जो परमेश्वर का अनुसरण और उसके उद्धार को स्वीकार कर सकते हैं, क्या हाड़-मांस के सभी लोग परमेश्वर के धीरज की सीमा को चुनौती नहीं दे रहे हैं? क्या सभी चीज़ें जो तुम लोगों के आस-पास घटित होती हैं, जिन्हें तुम लोग अपनी आँखों से देखते हो और अपने कानों से सुनते हो, और इस संसार में व्यक्तिगत रूप से अनुभव करते हो उपद्रव से भरी हुई नहीं हैं? परमेश्वर की दृष्टि में, क्या एक ऐसे संसार, एवं ऐसे युग को समाप्त नहीं कर देना चाहिए? यद्यपि इस वर्तमान युग की पृष्ठभूमि नूह के समय की पृष्ठभूमि से पूर्णतः अलग है, फिर भी वे भावनाएँ एवं क्रोध जो मनुष्य की भ्रष्टता के प्रति परमेश्वर में है वे वैसी ही बनी रहती हैं जैसी वे पिछले समय में थीं। परमेश्वर अपने कार्य के कारण सहनशील होने में समर्थ है, किन्तु सब प्रकार की परिस्थितियों एवं हालातों के अनुसार, परमेश्वर की दृष्टि में इस संसार को बहुत पहले ही नष्ट कर दिया जाना चाहिए था। जैसा पिछले समय में था जब जलप्रलय के द्वारा संसार का विनाश किया गया था उसके लिहाज से परिस्थिति बिल्कुल अलग है। किन्तु अन्तर क्या है? साथ ही यह ऐसी चीज़ है जो परमेश्वर के हृदय को अत्यंत दुःखी करती है, और कदाचित् कुछ ऐसा है जिसकी तुम लोगों में से कोई भी सराहना नहीं कर सकता है।

जब वह जलप्रलय के द्वारा संसार का नाश कर रहा था, तब परमेश्वर नूह को जहाज़ बनाने, और कुछ तैयारी के काम के लिए बुला सकता था। परमेश्वर एक पुरुष—नूह—को बुला सकता था कि वह उसके लिए कार्यों की इन शृंखलओं को अंजाम दे। किन्तु इस वर्तमान युग में, परमेश्वर के पास कोई नहीं है कि उसे बुलाए। ऐसा क्यों है? हर एक व्यक्ति जो यहाँ बैठा है वह शायद उस कारण को समझता और जानता है। क्या तुम लोगों को आवश्यकता है कि मैं इसे बोलकर बताऊँ? ज़ोर से कहने से हो सकता है कि तुम लोगों का चेहरा उतर जाए या सब परेशान हो जाएँ। कुछ लोग कह सकते हैं: "हालाँकि परमेश्वर की दृष्टि में हम धर्मी लोग नहीं हैं और हम सिद्ध लोग नहीं हैं, फिर भी यदि परमेश्वर हमें कोई चीज़ करने के लिए निर्देश देता है, तो हम अभी भी इसे करने में समर्थ होंगे। इससे पहले, जब उसने कहा कि एक विनाशकारी तबाही आ रही थी, तो हमने भोजन एवं चीज़ों को तैयार करना शुरू कर दिया था जिनकी आवश्यकता किसी आपदा में होगी। क्या यह सब परमेश्वर की माँगों के अनुसार नहीं किया गया था? क्या हम सचमुच में परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग नहीं कर रहे थे? जो चीज़ें हमने कीं क्या उनकी तुलना जो कुछ नूह ने किया उससे नहीं की जा सकती है? हमने हो किया क्या वो करना सच्ची आज्ञाकारिता नहीं है? क्या हम परमेश्वर के निर्देशों का अनुसरण नहीं कर रहे थे? क्या हमने जो परमेश्वर ने कहा वो इसलिए नहीं किया क्योंकि हमें परमेश्वर के वचनों में विश्वास है? तो परमेश्वर अब भी दुःखी क्यों है? परमेश्वर क्यों कहता है कि उसके पास बुलाने के लिए कोई भी नहीं है?" क्या तुम लोगों के कार्यों और नूह के उन कार्यों के बीच कोई अन्तर है? अन्तर क्या है? (आपदा के लिए आज भोजन तैयार करना हमारा अपना इरादा था।) (हमारे कार्य "धर्मिता" तक नहीं पहुँच सकते हैं, जबकि नूह परमेश्वर की दृष्टि में एक धर्मी पुरुष था।) जो कुछ तुम लोगों ने कहा वह बहुत गलत नहीं है। जो नूह ने किया वह भौतिक रूप से उससे अलग है जो लोग अब कर रहे हैं। जब नूह ने वैसा किया जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया था तो वह नहीं जानता था कि परमेश्वर के इरादे क्या थे। उसे नहीं पता था कि परमेश्वर क्या पूरा करना चाहता था। परमेश्वर ने नूह को सिर्फ एक आज्ञा दी थी, उसे कुछ करने के लिए निर्देश दिया था, किन्तु बिना अधिक विवरण के, वह आगे बढ़ा और इसे किया। उसने गुप्त में परमेश्वर के इरादों को जानने की कोशिश नहीं की, न ही उसने परमेश्वर का विरोध किया या न ही उसके पास दो मन था। वह मात्र गया और इसे एक शुद्ध एवं सरल हृदय के अनुसार किया। जो कुछ करने के लिए परमेश्वर ने उसे अनुमति दी उसने उसे किया, और कार्यों को करने के लिए परमेश्वर के वचन को मानना एवं सुनना उसका दृढ़ विश्वास था। जो कुछ परमेश्वर ने उसे सौंपा था उसके साथ उसने इसी प्रकार स्पष्टवादिता एवं सरलता से व्यवहार किया था। उसका सार—उसके कार्यों का सार आज्ञाकारिता थी, दूसरा-अनुमान नहीं था, प्रतिरोध नहीं था, और इसके अतिरिक्त, अपनी व्यक्तिगत रुचियों और अपने लाभ एवं हानि के विषय में सोचना नहीं था। इसके आगे, जब परमेश्वर ने कहा कि वह जलप्रलय से संसार का नाश करेगा, तो उसने नहीं पूछा कब या इसकी गहराई तक पहुँचने की कोशिश नहीं की, और उसने निश्चित तौर पर परमेश्वर से नहीं पूछा कि वह किस प्रकार संसार को नष्ट करने जा रहा था। उसने केवल वही किया जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया था। चाहे जैसे भी हो परमेश्वर चाहता था कि इसे बनाना है या इसे किससे बनाना है, उसने बिलकुल वैसा ही किया जैसा परमेश्वर ने उसे कहा था और उसके तुरन्त बाद कार्य का प्रारम्भ भी किया था। उसने इसे परमेश्वर को संतुष्ट करने की एक मनोवृत्ति के साथ किया था। क्या वह इसे आपदा को हटाने के लिए स्वयं की सहायता के लिए कर रहा था? नहीं। क्या उसने परमेश्वर से पूछा कि संसार को नष्ट होने में कितना समय बाकी है? उसने नहीं पूछा। क्या उसने परमेश्वर से पूछा या क्या वह जानता था कि जहाज़ बनाने के लिए कितना समय लगेगा? वह यह भी नहीं जानता था। उसने केवल आज्ञा को माना, ध्यान से सुना, और इसके अनुसार किया। इस समय के लोग वैसे नहीं हैं: जैसे ही परमेश्वर के वचन से हल्की सी जानकारी निकलती है, जैसे ही लोग परेशानी या समस्या के किसी चिन्ह का आभास करते हैं, वे तुरन्त कार्य करने के लिए उछलने लगते हैं, चाहे कुछ भी हो जाए और कीमत की परवाह किए बगैर, इसकी तैयारी करने के लिए कि वे आपदा के बाद क्या खाएँगे, क्या पियेंगे एवं क्या उपयोग करेंगे, यहाँ तक कि जब विपत्ति आती है तो वे बच निकलने के अपने मार्गों की योजना बना लेते हैं। इससे भी अधिक दिलचस्प तो यह है कि, इस मुख्य क्षण में, मानवीय दिमाग बहुत ही "उपयोगी" होते हैं। उन परिस्थितियों के अंतर्गत जहाँ परमेश्वर ने कोई निर्देश नहीं दिया है, मनुष्य बिलकुल उपयुक्त ढंग से सब कुछ की योजना बना लेता है। तुम लोग इसका वर्णन करने के लिए "सिद्ध" शब्द का उपयोग कर सकते हो। जहाँ तक यह बात है कि परमेश्वर क्या कहता है, परमेश्वर के इरादे क्या हैं, या परमेश्वर क्या चाहता है, कोई भी परवाह नहीं करता है और कोई भी इसकी सराहना करने की कोशिश नहीं करता है। क्या यह आज के लोगों और नूह के बीच में सबसे बड़ा अन्तर नहीं है?

नूह की कहानी के इस अभिलेख में, क्या तुम लोग परमेश्वर के स्वभाव के एक भाग को देखते हो? मनुष्य की भ्रष्टता, अशुद्धता एवं उपद्रव के प्रति परमेश्वर के धीरज की एक सीमा है। जब वह उस सीमा तक पहुँच जाता है, तो वह आगे से और धीरज नहीं धरता है और इसके बजाए वह अपने नए प्रबंधन और नई योजना को शुरू करेगा, जो उसे करना है उसे प्रारम्भ करेगा, और अपने कार्यों और अपने स्वभाव के दूसरे पहलु को प्रकट करेगा। उसका यह कार्य यह दर्शाने के लिए नहीं है कि मनुष्य के द्वारा कभी उसका उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए या यह कि वह अधिकार एवं क्रोध से भरा हुआ है, और यह इस बात को दर्शाने के लिए नहीं है कि वह मानवता का नाश कर सकता है। यह ऐसा है कि उसका स्वभाव एवं उसका पवित्र सार अब और यह अनुमति नहीं दे सकता है, और इस प्रकार की मानवता के लिए परमेश्वर के सामने जीवन बिताने हेतु, और उसकी प्रभुता के अधीन जीवन जीने हेतु अब और धीरज नहीं है। कहने का तात्पर्य है, जब सारी मानवजाति उसके विरुद्ध है, जब सारी पृथ्वी में ऐसा कोई नहीं है जिसे वह बचा सकता है, तो ऐसी मानवता के लिए उसके पास आगे से और धीरज नहीं होगा, और वह बिना किसी सन्देह के अपनी योजना को सम्पन्न करेगा—इस प्रकार की मानवता को नाश करने के लिए। परमेश्वर के द्वारा किए गए ऐसे कार्य को उसके स्वभाव के द्वारा निर्धारित किया जाता है। यह एक आवश्यक परिणाम है, और ऐसा परिणाम है जिसे परमेश्वर की प्रभुता के अधीन प्रत्येक सृजे गए प्राणी को सहना होगा। क्या यह नहीं दर्शाता है कि इस वर्तमान युग में, परमेश्वर अपनी योजना को पूर्ण करने और उन लोगों को बचाने के लिए जिन्हें वह बचाना चाहता है और इन्तज़ार नहीं कर सकता है? इन परिस्थितियों के अंतर्गत, परमेश्वर किस बात की सबसे अधिक परवाह करता है? यह नहीं कि किस प्रकार ऐसे लोग जो उसका अनुसरण बिलकुल भी नहीं करते हैं या ऐसे लोग जो उसका विरोध करते हैं वे किसी भी तरह से उससे व्यवहार करते हैं या उसका प्रतिरोध करते हैं, या मानवजाति किस प्रकार उस पर कलंक लगा रही है। वह केवल इसके विषय में परवाह करता है कि वे लोग जो उसका अनुसरण करते हैं, उसकी प्रबंधन योजना में उसके उद्धार की चीजें, उन्हें उसके द्वारा पूर्ण बनाया गया है या नहीं, उन्होंने उसकी संतुष्टि को हासिल किया है या नहीं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो ऐसे लोगों से अलग हैं जो उसका अनुसरण करते हैं, वह मात्र कभी कभार ही अपने क्रोध को व्यक्त करने के लिए थोड़ा सा दण्ड देता है। उदाहरण के लिए: सुनामी, भूकम्प, ज्वालामुखी का विस्फोट, एवं इत्यादि। ठीक उसी समय, वह उनको भी बलपूर्वक बचाता है उनकी देखरेख करता है जो उसका अनुसरण करते है और उन्हें उसके द्वारा बचाया जानेवाला है। परमेश्वर का स्वभाव यह है: एक ओर, वह उन लोगों को अधिकतम धीरज एवं सहनशीलता प्रदान कर सकता है जिन्हें वह पूर्ण बनाने का इरादा करता है, और जब तक वह संभवतः कर सकता है वह उनके लिए इंतज़ार करता है; दूसरी ओर, परमेश्वर शैतान-प्रकार के लोगों से अत्यंत नफ़रत एवं घृणा करता है जो उसका अनुसरण नहीं करते हैं और उसका विरोध करते हैं। यद्यपि वह इस बात की परवाह नहीं करता है कि क्या ये शैतान-प्रकार लोग उसका अनुसरण करते हैं या उसकी आराधना करते हैं, वह तब भी उनसे घृणा करता है जबकि उसके हृदय में उनके लिए धीरज होता है, और चूँकि वह इन शैतान-प्रकार के लोगों के अन्त को निर्धारित करता है, इसलिए वह अपने प्रबंधकीय योजना के चरणों के आगमन का भी इन्तज़ार कर रहा होता है।

आओ हम अगले अंश को देखें।

2. जलप्रलय के बाद नूह के लिए परमेश्वर की आशीष

(उत्पत्ति 9:1-6) फिर परमेश्‍वर ने नूह और उसके पुत्रों को आशीष दी और उनसे कहा, "फूलो-फलो, और बढ़ो, और पृथ्वी में भर जाओ। तुम्हारा डर और भय पृथ्वी के सब पशुओं, और आकाश के सब पक्षियों, और भूमि पर के सब रेंगनेवाले जन्तुओं, और समुद्र की सब मछलियों पर बना रहेगा: ये सब तुम्हारे वश में कर दिए जाते हैं। सब चलनेवाले जन्तु तुम्हारा आहार होंगे; जैसा तुम को हरे हरे छोटे पेड़ दिए थे, वैसा ही अब सब कुछ देता हूँ। पर मांस को प्राण समेत अर्थात् लहू समेत तुम न खाना। और निश्‍चय ही मैं तुम्हारे लहू अर्थात् प्राण का बदला लूँगा: सब पशुओं और मनुष्यों, दोनों से मैं उसे लूँगा; मनुष्य के प्राण का बदला मैं एक एक के भाई बन्धु से लूँगा। जो कोई मनुष्य का लहू बहाएगा उसका लहू मनुष्य ही से बहाया जाएगा, क्योंकि परमेश्‍वर ने मनुष्य को अपने ही स्वरूप के अनुसार बनाया है।"

तुम लोग इस अंश से क्या देखते हो? मैंने इन वचनों को क्यों चुना? मैंने जहाज़ पर नूह और उसके परिवार के जीवन से एक उद्धरण क्यों नहीं लिया? क्योंकि उस जानकारी का उस विषय से ज़्यादा सम्बन्ध नहीं है जिस पर आज हम बातचीत कर रहे हैं। जिस पर हम ध्यान दे रहे हैं वह है परमेश्वर का स्वभाव। यदि तुम लोग उन विवरणों के विषय में जानना चाहते हो, तो तुम लोग बाइबल उठाकर स्वयं के लिए पढ़ सकते हो। यहाँ हम इसके विषय में बात नहीं करेंगे। वह मुख्य बात जिसके बारे में हम आज बात कर रहे हैं वह इस विषय में है कि परमेश्वर के कार्यों को कैसे जानें।

नूह ने परमेश्वर के निर्देशों को स्वीकार किया और जहाज़ बनाया और उन दिनों के दौरान जीवित रहा जब परमेश्वर ने संसार का नाश करने के लिए जलप्रलय का उपयोग किया उसके पश्चात, आठ लोगों का उसका पूरा परिवार जीवित बच गया। नूह के परिवार के आठ लोगों को छोड़कर, सारी मानवजाति का नाश कर दिया गया था, और पृथ्वी पर सभी जीवित प्राणियों का नाश कर दिया गया था। नूह के लिए, परमेश्वर ने उसे आशीषें दीं, और उससे और उसके बेटों से कुछ बातें कहीं। ये बातें वे थीं जिन्हें परमेश्वर उन्हें प्रदान कर रहा था और उसके लिए परमेश्वर की आशीष भी थी। यह वह आशीष एवं प्रतिज्ञा है जिसे परमेश्वर किसी ऐसे व्यक्ति को देता है जो उसे ध्यान से सुन सकता है और उसके निर्देशों को स्वीकार कर सकता था, और साथ ही ऐसा तरीका भी है जिससे परमेश्वर लोगों को प्रतिफल देता है। कहने का तात्पर्य है, इसके बावजूद कि नूह परमेश्वर की दृष्टि में एक सिद्ध पुरुष था या एक धर्मी पुरुष था, और इसके बावजूद कि वह परमेश्वर के बारे में कितना कुछ जानता था, संक्षेप में, नूह और उसके तीन पुत्र सभी ने परमेश्वर के वचनों को सुना था, परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग किया था, और वही किया था जिसे उनसे परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार करने की अपेक्षा की गई थी। परिणामस्वरूप, जलप्रलय के द्वारा संसार के विनाश के बाद उन्होंने मनुष्यों एवं विभिन्न प्रकार के जीवित प्राणियों को पुनः प्राप्त करने में परमेश्वर की सहायता की थी, और परमेश्वर की प्रबंधकीय योजना के अगले चरण में बड़ा योगदान दिया था। वह सब कुछ जो उसने किया था उसके कारण, परमेश्वर ने उसे आशीष दी थी। शायद आज के लोगों के लिए, जो कुछ नूह ने किया था वह उल्लेख करने के भी लायक नहीं है। कुछ लोग सोच सकते हैं: नूह ने कुछ भी नहीं किया था; परमेश्वर ने उसे बचाने के लिए अपना मन बना लिया था, अतः उसे निश्चित रूप से बचाया जाना था। उसके जीवित बचने का श्रेय उसे नहीं जाता है। यह वह है जिसे परमेश्वर घटित करना चाहता था, क्योंकि मनुष्य निष्क्रिय है। लेकिन यह वह नहीं है जो परमेश्वर सोच रहा था। परमेश्वर के लिए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कोई व्यक्ति महान है या मामूली, जब तक वे उसे ध्यान से सुन सकते हैं, उसके निर्देशों और जो कुछ वह सौंपता है उसका पालन कर सकते हैं, और उसके कार्य, उसकी इच्छा एवं उसकी योजना के साथ सहयोग कर सकते हैं, ताकि उसकी इच्छा एवं उसकी योजना को निर्विघ्नता से पूरा किया जा सके, तो ऐसा आचरण उसके द्वारा उत्सव मनाए जाने के योग्य है और उसकी आशीष को प्राप्त करने के योग्य है। परमेश्वर ऐसे लोगों को मूल्यवान जानकर सहेजकर रखता है, और वह उनके कार्यों एवं अपने लिए उनके प्रेम एवं उनके स्नेह को ह्रदय में संजोता है। यह परमेश्वर की मनोवृत्ति है। तो परमेश्वर ने नूह को आशीष क्यों दी? क्योंकि परमेश्वर इसी तरह से ऐसे कार्यों एवं मनुष्य की आज्ञाकारिता से व्यवहार करता है।

नूह के विषय में परमेश्वर की आशीष के लिहाज से, कुछ लोग कहेंगे: "यदि मनुष्य परमेश्वर को ध्यान से सुनता है और परमेश्वर को संतुष्ट करता है, तो परमेश्वर को मनुष्य को आशीष देना चाहिए। क्या यह स्पष्ट नहीं है?" क्या हम ऐसा कह सकते हैं? कुछ लोग कहते हैं: "नहीं।" हम ऐसा क्यों नहीं कह सकते हैं? कुछ लोग कहते हैं: "मनुष्य परमेश्वर की आशीष का आनन्द उठाने के लायक नहीं है।" यह पूर्णतः सही नहीं है। क्योंकि जब कोई व्यक्ति जो कुछ परमेश्वर सौंपता है उसे स्वीकार करता है, तो परमेश्वर के पास न्याय करने के लिए एक मापदंड होता है कि उस व्यक्ति के कार्य अच्छे हैं या बुरे और यह कि उस व्यक्ति ने आज्ञा का पालन किया है या नहीं, और यह कि उस व्यक्ति ने परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट किया है या नहीं और यह कि जो कुछ वे करते हैं वे उपयुक्त हैं या नहीं। परमेश्वर जिसकी परवाह करता है वह किसी व्यक्ति का हृदय है, न कि सतह पर किए गए उनके कार्य। स्थिति ऐसी नहीं है कि परमेश्वर को किसी व्यक्ति को तब तक आशीष देना चाहिए जब तक वे इसे करते हैं, इसके बावजूद कि वे इसे कैसे करते हैं। यह परमेश्वर के बारे में लोगों की ग़लतफ़हमी है। परमेश्वर सिर्फ चीज़ों के अंत के परिणाम को ही नहीं देखता, बल्कि इस पर अधिक जोर देता है कि किसी व्यक्ति का हृदय कैसा है और चीज़ों के विकास के दौरान किसी व्यक्ति की मनोवृत्ति कैसी है, और यह देखता है कि उनके हृदय में आज्ञाकारिता, विचार, एवं परमेश्वर को संतुष्ट करने की इच्छा है या नहीं। उस समय नूह परमेश्वर के विषय में कितना जानता था? क्या यह उतना था जितने ये सिद्धान्त हैं जिन्हें अब तुम लोग जानते हो? उस सच्चाई के पहलुओं के सम्बन्ध में जैसे परमेश्वर की अवधारणाएँ एवं उसका ज्ञान, क्या उसने उतनी सिंचाई एवं चरवाही पाई थी जितनी तुम लोगों ने पाई है? नहीं, उसने नहीं पाई! लेकिन एक तथ्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता है: चेतना में, मस्तिष्कों में, और यहाँ तक कि आज के लोगों के हृदयों की गहराई में भी, परमेश्वर के विषय में उनकी अवधारणाएँ और मनोवृत्ति धुंधली एवं अस्पष्ट है। तुम लोग यहाँ तक कह सकते हो कि लोगों का एक हिस्सा परमेश्वर के अस्तित्व के प्रति एक नकारात्मक मनोवृत्ति को थामे हुए है। लेकिन नूह के हृदय एवं चेतना में, परमेश्वर का अस्तित्व पूर्ण एवं बिना किसी सन्देह के था, और इस प्रकार परमेश्वर के प्रति उसकी आज्ञाकारिता अमिश्रित थी और परीक्षा का सामना कर सकती थी। परमेश्वर के प्रति उसका हृदय शुद्ध एवं खुला हुआ था। उसे परमेश्वर के हर एक वचन का अनुसरण करने हेतु अपने आपको आश्वस्त करने के लिए सिद्धान्तों के बहुत अधिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं थी, न ही उसे परमेश्वर के अस्तित्व को साबित करने के लिए बहुत सारे तथ्यों की आवश्यकता थी, ताकि जो कुछ परमेश्वर ने सौंपा था वह उसे स्वीकार कर सके और जो कुछ भी करने के लिए परमेश्वर ने उसे अनुमति दी थी वह उसे करने के योग्य हो सके। यह नूह और आज के लोगों के बीच आवश्यक अन्तर है, और साथ ही यह बिलकुल सही परिभाषा भी है कि परमेश्वर की दृष्टि में एक सिद्ध पुरुष कैसा होता है। जो परमेश्वर चाहता है वह नूह के समान लोग हैं। वह उस प्रकार का व्यक्ति है जिसकी प्रशंसा परमेश्वर करता है, और बिलकुल उसी प्रकार का व्यक्ति है जिसे परमेश्वर आशीष देता है। क्या तुम लोगों ने इससे कोई अद्भुत प्रकाशन प्राप्त किया है? लोग मनुष्यों को बाहर से देखते हैं, जबकि जो कुछ परमेश्वर देखता है वह लोगों के हृदय एवं उनके सार हैं। परमेश्वर किसी को भी अपने प्रति अधूरा-मन या सन्देह रखने की अनुमति नहीं देता है, न ही वह लोगों को किसी रीति से उस पर सन्देह करने या उसकी परीक्षा लेने की इजाज़त देता है। इस प्रकार, हालाँकि आज लोग परमेश्वर के वचन के आमने-सामने हैं, या तुम लोग यह भी कह सकते हो कि परमेश्वर के आमने-सामने हैं, फिर भी किसी चीज़ के कारण जो उनके हृदयों की गहराई में है, उनके भ्रष्ट मूल-तत्व के अस्तित्व, और उसके प्रति उनकी प्रतिकूल मनोवृत्ति के कारण, परमेश्वर में उनके सच्चे विश्वास से उन्हें अवरोधित किया गया है, और उसके प्रति उनकी आज्ञाकारिता में उन्हें बाधित किया गया है। इस कारण, यह उनके लिए बहुत कठिन है कि वे उसी आशीष को हासिल करें जिसे परमेश्वर ने नूह को प्रदान किया था।

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