परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

भाग पांच

मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के प्रति उसकी प्रवृत्ति से निर्धारित होता है

परमेश्वर एक जीवित परमेश्वर है, और जैसे लोग भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न तरीकों से बर्ताव करते हैं, वैसे ही इन बर्तावों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति भी भिन्न-भिन्न होती है क्योंकि वह न तो कोई कठपुतली है, और न ही वह शून्य है। परमेश्वर की प्रवृत्ति को जानना मनुष्य के लिए एक नेक खोज है। परमेश्वर की प्रवृत्ति को जानकर लोगों को सीखना चाहिए कि कैसे वे परमेश्वर के स्वभाव को जान सकते हैं और थोड़ा-थोड़ा करके उसके हृदय को समझ सकते हैं। जब तुम थोड़ा-थोड़ा करके परमेश्वर के हृदय को समझने लगोगे, तो तुम्हें नहीं लगेगा कि परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना कोई कठिन कार्य है। जब तुम परमेश्वर को समझ जाओगे, तो उसके बारे में निष्कर्ष नहीं निकालोगे। जब तुम परमेश्वर के बारे में निष्कर्ष निकालना बन्द कर दोगे, तो उसे अपमानित करने की संभावना नहीं रहेगी और अनजाने में ही परमेश्वर तुम्हारी अगुवाई करेगा कि तुम उसके बारे में ज्ञान प्राप्त करो; इससे तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा पैदा होगी। तुम उन मतों, शब्दों एवं सिद्धांतों का उपयोग करके परमेश्वर को परिभाषित करना बंद कर दोगे जिनमें तुम महारत हासिल कर चुके हो। बल्कि, सभी चीज़ों में सदा परमेश्वर के इरादों को खोजकर, तुम अनजाने में ही परमेश्वर के हृदय के अनुरूप बन जाओगे।

इंसान परमेश्वर के कार्य को न तो देख सकता है, न ही छू सकता है, परन्तु जहाँ तक परमेश्वर की बात है, वह हर एक व्यक्ति के कार्यकलापों को, परमेश्वर के प्रति उसकी प्रवृत्ति को, न केवल समझ सकता है, बल्कि देख भी सकता है। इसे हर किसी को पहचानना और इसके बारे में स्पष्ट होना चाहिए। हो सकता है कि तुम स्वयं से पूछते हो, "क्या परमेश्वर जानता है कि मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ? क्या परमेश्वर जानता है कि मैं इस समय क्या सोच रहा हूँ? हो सकता है वह जानता हो, हो सकता है न भी जानता हो"। यदि तुम इस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाते हो, परमेश्वर का अनुसरण करते हो और उसमें विश्वास करते हो, मगर उसके कार्य और अस्तित्व पर सन्देह भी करते हो, तो देर-सवेर ऐसा दिन आएगा जब तुम परमेश्वर को क्रोधित करोगे, क्योंकि तुम पहले ही एक खतरनाक खड़ी चट्टान के कगार पर खड़े डगमगा रहे हो। मैंने ऐसे लोगों को देखा है जिन्होंने बहुत वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास किया है, परंतु उन्होंने अभी तक सत्य-वास्तविकता प्राप्त नहीं की है, और वे परमेश्वर की इच्छा को तो और भी नहीं समझते। केवल अत्यंत छिछले मतों के मुताबिक चलते हुए, उनके जीवन और आध्यात्मिक कद में कोई प्रगति नहीं होती। क्योंकि ऐसे लोगों ने कभी भी परमेश्वर के वचन को जीवन नहीं माना, और न ही कभी परमेश्वर के अस्तित्व का सामना और उसे स्वीकार किया है। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर ऐसे लोगों को देखकर आनंद से भर जाता है? क्या वे उसे आराम पहुँचाते हैं? यह है लोगों का परमेश्वर में विश्वास करने का तरीका जो उनका भाग्य तय करता है। जहाँ तक सवाल यह है कि लोग परमेश्वर की खोज कैसे करते हैं, कैसे परमेश्वर के समीप आते हैं, तो यहाँ लोगों की प्रवृत्ति प्राथमिक महत्व की हो जाती है। अपने सिर के पीछे तैरती खाली हवा समझ कर परमेश्वर की उपेक्षा मत करो; जिस परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास है उसे हमेशा एक जीवित परमेश्वर, एक वास्तविक परमेश्वर मानो। वह तीसरे स्वर्ग में हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठा है। बल्कि, वह लगातार प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में देख रहा है, यह देख रहा है कि तुम क्या करते हो, वह हर छोटे वचन और हर छोटे कर्म को देख रहा है, वो यह देख रहा है कि तुम किस प्रकार व्यवहार करते हो और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति क्या है। तुम स्वयं को परमेश्वर को अर्पित करने के लिए तैयार हो या नहीं, तुम्हारा संपूर्ण व्यवहार एवं तुम्हारे अंदर की सोच एवं विचार परमेश्वर के सामने खुले हैं, और परमेश्वर उन्हें देख रहा है। तुम्हारे व्यवहार, तुम्हारे कर्मों, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति के अनुसार ही तुम्हारे बारे में उसकी राय, और तुम्हारे प्रति उसकी प्रवृत्ति लगातार बदल रही है। मैं कुछ लोगों को कुछ सलाह देना चाहूँगा : अपने आपको परमेश्वर के हाथों में छोटे शिशु के समान मत रखो, जैसे कि उसे तुमसे लाड़-प्यार करना चाहिए, जैसे कि वह तुम्हें कभी नहीं छोड़ सकता, और जैसे कि तुम्हारे प्रति उसकी प्रवृत्ति स्थायी हो जो कभी नहीं बदल सकती, और मैं तुम्हें सपने देखना छोड़ने की सलाह देता हूँ! परमेश्वर हर एक व्यक्ति के प्रति अपने व्यवहार में धार्मिक है, और वह मनुष्य को जीतने और उसके उद्धार के कार्य के प्रति अपने दृष्टिकोण में ईमानदार है। यह उसका प्रबंधन है। वह हर एक व्यक्ति से गंभीरतापूर्वक व्यवहार करता है, पालतू जानवर के समान नहीं कि उसके साथ खेले। मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम बहुत लाड़-प्यार या बिगाड़ने वाला प्रेम नहीं है, न ही मनुष्य के प्रति उसकी करुणा और सहिष्णुता आसक्तिपूर्ण या बेपरवाह है। इसके विपरीत, मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम सँजोने, दया करने और जीवन का सम्मान करने के लिए है; उसकी करुणा और सहिष्णुता बताती हैं कि मनुष्य से उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं, और यही वे चीज़ें हैं जो मनुष्य के जीने के लिए ज़रूरी हैं। परमेश्वर जीवित है, वास्तव में उसका अस्तित्व है; मनुष्य के प्रति उसकी प्रवृत्ति सैद्धांतिक है, कट्टर नियमों का समूह नहीं है, और यह बदल सकती है। मनुष्य के लिए उसके इरादे, परिस्थितियों और प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृत्ति के साथ धीरे-धीरे परिवर्तित एवं रूपांतरित हो रहे हैं। इसलिए तुम्हें पूरी स्पष्टता के साथ जान लेना चाहिए कि परमेश्वर का सार अपरिवर्तनीय है, उसका स्वभाव अलग-अलग समय और संदर्भों के अनुसार प्रकट होता है। शायद तुम्हें यह कोई गंभीर मुद्दा न लगे, और तुम्हारी व्यक्तिगत अवधारणा हो कि परमेश्वर को कैसे कार्य करना चाहिए। परंतु कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि तुम्हारे दृष्टिकोण से बिल्कुल विपरीत नज़रिया सही हो, और अपनी अवधारणाओं से परमेश्वर को आंकने के पहले ही तुमने उसे क्रोधित कर दिया हो। क्योंकि परमेश्वर उस तरह कार्य नहीं करता जैसा तुम सोचते हो, और न ही वह उस मसले को उस नज़र से देखेगा जैसा तुम सोचते हो कि वो देखेगा। इसलिए मैं तुम्हें याद दिलाता हूँ कि तुम आसपास की हर एक चीज़ के प्रति अपने नज़रिए में सावधान एवं विवेकशील रहो, और सीखो कि किस प्रकार सभी चीज़ों में परमेश्वर के मार्ग में चलने के सिद्धांत का अनुसरण करना चाहिए, जो कि परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना है। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा और उसकी प्रवृत्ति के मामलों पर एक दृढ़ समझ विकसित करनी चाहिए; तुम्हें ईमानदारी से प्रबुद्ध लोगों को खोजना चाहिए जो इस पर तुम्हारे साथ संवाद करें। अपने विश्वास में परमेश्वर को एक कठपुतली मत समझो—उसे मनमाने ढंग से मत परखो, उसके बारे में मनमाने निष्कर्षों पर मत पहुँचो, परमेश्वर के साथ सम्मान-योग्य व्यवहार करो। एक तरफ जहाँ परमेश्वर तुम्हारा उद्धार कर रहा है, तुम्हारा परिणाम निर्धारित कर रहा है, वहीं वह तुम्हें करुणा, सहिष्णुता, या न्याय और ताड़ना भी प्रदान कर सकता है, लेकिन किसी भी स्थिति में, तुम्हारे प्रति उसकी प्रवृत्ति स्थिर नहीं होती। यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति पर, और परमेश्वर की तुम्हारी समझ पर निर्भर करता है। परमेश्वर के बारे में अपने ज्ञान या समझ के किसी अस्थायी पहलू के ज़रिए परमेश्वर को सदा के लिए परिभाषित मत करो। किसी मृत परमेश्वर में विश्वास मत करो; जीवित परमेश्वर में विश्वास करो। यह बात याद रखो! यद्यपि मैंने यहाँ पर कुछ सत्यों पर चर्चा की है, ऐसे सत्य जिन्हें तुम लोगों को सुनना चाहिए, फिर भी तुम्हारी वर्तमान दशा और आध्यात्मिक कद के मद्देनज़र, मैं तुम्हारे उत्साह को ख़त्म करने के लिए कोई बड़ी माँग नहीं करूँगा। ऐसा करने से तुम लोगों का हृदय अत्यधिक उदासी से भर सकता है, और तुम्हें परमेश्वर के प्रति बहुत अधिक निराशा हो सकती है। इसके बजाय मुझे आशा है कि तुम लोग, परमेश्वर के प्रति तुम्हारे हृदय में जो प्रेम है, उसका उपयोग कर सकते हो, और मार्ग पर चलते समय परमेश्वर के प्रति सम्मानजनक प्रवृत्ति का उपयोग कर सकते हो। परमेश्वर में विश्वास करने को लेकर इस मामले में भ्रमित मत हो; इसे एक बड़ा मसला समझो। इसे अपने हृदय में रखो, अभ्यास में लाओ, और वास्तविक जीवन से जोड़ो; इसका केवल दिखावटी आदर मत करो। क्योंकि यह जीवन और मृत्यु का मामला है, जो तुम्हारी नियति को निर्धारित करेगा। इसके साथ कोई मजाक मत करो या इसे बच्चों का खेल मत समझो! आज तुम लोगों के साथ इन वचनों को साझा करने के बाद, मुझे नहीं पता कि तुम लोगों ने इन बातों को कितना आत्मसात किया है। आज जो कुछ मैंने यहाँ पर कहा है क्या उसके बारे में तुम्हारे मन में कोई प्रश्न है जो तुम पूछना चाहते हो?

हालाँकि ये विषय थोड़े नए हैं, और तुम लोगों के दृष्टिकोण से, तुम्हारी सामान्य खोज से, और जिस पर ध्यान देने की तुम्हारी प्रवृत्ति है, उससे थोड़ा हट कर हैं, फिर भी मेरा ख्याल है कि कुछ समय तक उन पर संवाद करके, जो कुछ मैंने यहाँ कहा है, उसके बारे में तुम लोग एक सामान्य समझ विकसित कर लोगे। ये सारे विषय नए हैं, और ऐसे विषय हैं जिन पर तुमने पहले कभी विचार नहीं किया, इसलिए मुझे आशा है कि ये तुम लोगों के बोझ को और नहीं बढ़ाएँगे। मैं आज ये बातें तुम्हें भयभीत करने के लिए नहीं बोल रहा, न ही मैं इनका उपयोग तुमसे निपटने के लिए कर रहा हूँ; बल्कि, मेरा लक्ष्य तथ्य की सच्चाई को समझने में तुम लोगों की सहायता करना है। चूँकि इंसान और परमेश्वर के बीच एक दूरी है : यद्यपि इंसान परमेश्वर में विश्वास करता है, फिर भी उसने परमेश्वर को कभी समझा नहीं है, उसकी प्रवृत्ति को कभी नहीं जाना है। मनुष्य ने कभी भी परमेश्वर की प्रवृत्ति के लिए कोई उत्साह नहीं दिखाया है। बल्कि उसने आँख मूँदकर विश्वास किया है, वह आँख मूँदकर आगे बढ़ा है, और वह परमेश्वर के बारे में अपने ज्ञान और समझ में लापरवाह रहा है। अतः मैं इन मामलों को तुम लोगों के लिए स्पष्ट करने, और यह समझने में तुम लोगों की सहायता करने को मजबूर हूँ कि वह परमेश्वर किस प्रकार का परमेश्वर है जिस पर तुम लोग विश्वास करते हो; वह क्या सोच रहा है; विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ उसके व्यवहार में उसकी प्रवृत्ति क्या है; तुम लोग उसकी अपेक्षाओं को पूरा करने से कितनी दूर हो; और तुम्हारे कार्यकलापों और उस मानक के बीच कितनी असमानता है जिसकी वह तुमसे अपेक्षा करता है। तुम लोगों को ये बातें बताने का मकसद तुम्हें वह पैमाना देना है जिससे तुम खुद को माप सको, ताकि तुम जान सको कि जिस मार्ग पर तुम हो, उसमें तुम्हें कितनी प्राप्ति हुई है, तुम लोगों ने इस मार्ग पर क्या प्राप्त नहीं किया है, और तुम किन क्षेत्रों में शामिल नहीं हुए हो। तुम लोग आपस में संवाद करते समय, आमतौर पर कुछ सामान्य रूप से चर्चित विषयों पर ही बोलते हो जिनका दायरा संकरा होता है, और विषयवस्तु बहुत सतही होती है। तुम लोगों की चर्चा के विषय और परमेश्वर के इरादों में, तुम्हारी चर्चाओं और परमेश्वर की अपेक्षाओं के दायरे एवं मानक में एक दूरी, एक अंतर होता है। इस प्रकार चलते हुए कुछ समय बाद तुम लोग परमेश्वर के मार्ग से बहुत दूर होते चले जाओगे। तुम लोग बस परमेश्वर के मौजूदा कथनों को लेकर उन्हें आराधना की वस्तुओं में बदल रहे हो, और उन्हें रीति-रिवाजों और नियमों के तौर पर देख रहे हो। बस यही कर रहे हो! वास्तव में, तुम लोगों के हृदय में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं है, दरअसल परमेश्वर ने तुम लोगों के हृदय को कभी प्राप्त ही नहीं किया। कुछ लोग सोचते हैं कि परमेश्वर को जानना बहुत कठिन है—यही सत्य है। यह कठिन है! यदि लोगों से अपने कर्तव्य निभाने के लिए कहा जाए और कार्यों को बाहरी तौर पर करने को कहा जाए, उनसे कठिन परिश्रम करने के लिए कहा जाए, तो लोग सोचेंगे कि परमेश्वर पर विश्वास करना बहुत आसान है, क्योंकि यह सब मनुष्य की योग्यताओं के दायरे में आता है। मगर जैसे ही यह विषय परमेश्वर के इरादों और मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति की ओर जाता है, तो सभी के नज़रिए से चीज़ें निश्चित रूप से थोड़ी कठिन हो जाती हैं। क्योंकि इसमें सत्य के बारे में लोगों की समझ और वास्तविकता में उनका प्रवेश शामिल है, तो निश्चित ही इसमें थोड़ी कठिनाई तो है! किन्तु जैसे ही तुम लोग पहले द्वार को पार कर जाते हो और प्रवेश करना शुरू कर देते हो तो धीरे-धीरे चीज़ें आसान होने लगती हैं।

परमेश्वर का भय मानने का आरंभिक बिन्दु उसके साथ परमेश्वर के समान व्यवहार करना है

अभी थोड़ी देर पहले, किसी ने एक प्रश्न उठाया था : ऐसा कैसे है कि हम परमेश्वर के बारे में अय्यूब से अधिक जानते हैं, फिर भी हम परमेश्वर का आदर नहीं कर पाते? हमने पहले ही इस मामले पर थोड़ी-बहुत चर्चा कर ली है, है न? वास्तव में इस प्रश्न के सार पर हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं, हालाँकि तब अय्यूब परमेश्वर को नहीं जानता था, फिर भी उसने उसके साथ परमेश्वर के समान व्यवहार किया था, और उसे स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीज़ों का मालिक माना था। अय्यूब ने परमेश्वर को शत्रु नहीं माना था; बल्कि, उसने सभी चीज़ों के सृष्टिकर्ता के रूप में उसकी आराधना की थी। ऐसा क्यों है कि आजकल लोग परमेश्वर का इतना अधिक विरोध करते हैं? वे परमेश्वर का आदर क्यों नहीं कर पाते? एक कारण तो यह है कि उन्हें शैतान ने बुरी तरह भ्रष्ट कर दिया है। गहरी शैतानी प्रकृति के कारण, लोग परमेश्वर के शत्रु बन गए हैं। हालाँकि लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उसे स्वीकार करते हैं, तब भी वे परमेश्वर का विरोध करते हैं और उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं। यह मानव प्रकृति द्वारा निर्धारित होता है। दूसरा कारण यह है कि लोग परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं, पर वे उसके साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार नहीं करते। वे सोचते हैं कि परमेश्वर मनुष्य का विरोधी है, उसे मनुष्य का शत्रु मानते हैं, और सोचते हैं कि परमेश्वर के साथ उनका कोई मेल नहीं है। बस इतनी-सी बात है। क्या इस मामले को पिछले सत्र में नहीं उठाया गया था? इसके बारे में सोचो : क्या यही कारण नहीं है? तुम्हें परमेश्वर का थोड़ा-बहुत ज्ञान हो सकता है, फिर भी इस ज्ञान में क्या है? क्या हर कोई इसी के बारे में बात नहीं कर रहा है? क्या परमेश्वर ने तुम्हें इसी के बारे में नहीं बताया था? तुम केवल इसके सैद्धांतिक और मत-संबंधी पहलुओं को ही जानते हो; लेकिन क्या तुमने कभी परमेश्वर की सच्ची मुखाकृति को समझा है? क्या तुम्हारा ज्ञान आत्मनिष्ठ है? क्या तुम्हें व्यावहारिक ज्ञान और अनुभव है? यदि परमेश्वर तुम्हें न बताता, तो क्या तुम जान पाते? तुम्हारा सैद्धांतिक ज्ञान वास्तविक ज्ञान नहीं दर्शाता। संक्षेप में, चाहे इसके बारे में तुमने कितना भी और कैसे भी जाना हो, जब तक तुम परमेश्वर का वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं करोगे, परमेश्वर तुम्हारा शत्रु ही बना रहेगा, और जब तक तुम परमेश्वर के साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार नहीं करोगे, वह तुम्हारा विरोध करेगा, क्योंकि तुम शैतान के मूर्त रूप हो।

जब तुम मसीह के साथ होते हो, तो शायद तुम उसे दिन में तीन बार भोजन परोस सकते हो या उसे चाय पिला सकते हो और उसके जीवन की आवश्यकताओं का ध्यान रख सकते हो; ऐसा लगेगा जैसे तुमने मसीह के साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार किया है। जब कभी कुछ होता है, तो लोगों का दृष्टिकोण हमेशा परमेश्वर के दृष्टिकोण से विपरीत होता है; लोग हमेशा परमेश्वर के दृष्टिकोण को समझने और स्वीकारने में असफल रहते हैं। जबकि हो सकता है कि लोग केवल ऊपरी तौर पर परमेश्वर के साथ हों, इसका अर्थ यह नहीं है कि वे परमेश्वर के अनुरूप हैं। जैसे ही कुछ होता है, तो मनुष्य और परमेश्वर के बीच मौजूद शत्रुता की पुष्टि करते हुए, मनुष्य की अवज्ञा की असलियत प्रकट हो जाती है। यह शत्रुता ऐसी नहीं है कि परमेश्वर मनुष्य का विरोध करता है या परमेश्वर मनुष्य का शत्रु होना चाहता है, न ही ऐसा है कि परमेश्वर मनुष्य को अपने विरोध में रखकर उसके साथ ऐसा व्यवहार करता है। बल्कि, यह परमेश्वर के प्रति ऐसे विरोधात्मक सार का मामला है जो मनुष्य की आत्मनिष्ठ इच्छा में, और मनुष्य के अवचेतन मन में घात लगाता है। चूँकि मनुष्य उस सब को अपने अनुसंधान की वस्तु मानता है जो परमेश्वर से आता है, किन्तु जो कुछ परमेश्वर से आता है और जिस चीज़ में भी परमेश्वर शामिल है उसके प्रति मनुष्य की प्रतिक्रिया, सर्वोपरि, अंदाज़ा लगाने, संदेह करने और उसके बाद तुरंत ऐसी प्रवृत्ति को अपनाने वाली होती है जो परमेश्वर से टकराव रखती है, और परमेश्वर का विरोध करती है। उसके तुरंत बाद, मनुष्य एक नकारात्मक मनोदशा में परमेश्वर से विवाद या स्पर्धा करता है, वह यहाँ तक संदेह करता है कि ऐसा परमेश्वर उसके अनुसरण के योग्य है भी या नहीं। इस तथ्य के बावजूद कि मनुष्य की तर्कशक्ति उसे कहती है कि ऐसी हरकत नहीं करनी चाहिए, वह न चाहते हुए भी ऐसा ही करेगा, और वह अंत तक बेहिचक ऐसी ही हरकतें जारी रखेगा। उदाहरण के तौर पर, कुछ लोगों की पहली प्रतिक्रिया क्या होती है जब वे परमेश्वर के बारे में कोई अफवाह या अपयश की बात सुनते हैं? उनकी पहली प्रतिक्रिया यह होती है कि ये अफवाहें सही हैं या नहीं, इनका कोई अस्तित्व है या नहीं, और तब वे प्रतीक्षा करके देखने वाला रवैया अपनाते हैं। और फिर वे सोचने लगते हैं : इसे सत्यापित करने का कोई तरीका नहीं है, क्या वाकई ऐसा हुआ है? यह अफवाह सच है या नहीं? हालाँकि ऐसे लोग ऊपरी तौर पर नहीं दिखाते, मन ही मन संदेह करने लगते हैं, वे पहले ही परमेश्वर पर संदेह करना और परमेश्वर को नकारना शुरू कर चुके होते हैं। ऐसी प्रवृत्ति और दृष्टिकोण का सार क्या है? क्या यह विश्वासघात नहीं है? जब तक उनका सामना किसी समस्या से नहीं होता, तुम ऐसे लोगों का दृष्टिकोण नहीं जान पाते; ऐसा प्रतीत होता है जैसे परमेश्वर से उनका कोई टकराव नहीं है, मानो वे परमेश्वर को शत्रु नहीं मानते। हालाँकि, जैसे ही उनके सामने कोई समस्या आती है, वे तुरंत शैतान के साथ खड़े होकर परमेश्वर का विरोध करने लगते हैं। यह क्या बताता है? यह बताता है कि मनुष्य और परमेश्वर विरोधी हैं! ऐसा नहीं है कि परमेश्वर मनुष्य को अपना शत्रु मानता है, बल्कि मनुष्य का सार ही अपने आप में परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण है। चाहे कोई व्यक्ति कितने ही लम्बे समय से परमेश्वर का अनुसरण करता रहा हो, उसने कितनी ही कीमत चुकाई हो; वह कैसे भी परमेश्वर की स्तुति करता हो, कैसे भी परमेश्वर का प्रतिरोध करने से स्वयं को रोकता हो, यहाँ तक कि परमेश्वर से प्रेम करने के लिए वह अपने आपसे कितनी भी सख्ती करता हो, लेकिन वह कभी भी परमेश्वर के साथ परमेश्वर के रूप में व्यवहार नहीं कर सकता। क्या यह मनुष्य के सार से निर्धारित नहीं होता? यदि तुम उसके साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार करते हो, सचमुच मानते हो कि वह परमेश्वर है, तो क्या तब भी तुम उस पर संदेह कर सकते हो? क्या तब भी तुम्हारा हृदय उस पर कोई प्रश्नचिह्न लगा सकता है? नहीं लगा सकता, है न? इस संसार के चलन बहुत ही दुष्टतापूर्ण हैं, यह मनुष्यजाति भी बहुत बुरी है; तो ऐसा कैसे है कि उसके बारे में तुम्हारी कोई अवधारणा न हो? तुम स्वयं ही बहुत दुष्ट हो, तो ऐसा कैसे हो सकता है कि उसके बारे में तुम्हारी कोई अवधारणा न हो? फिर भी थोड़ी-सी अफवाहें और कुछ निंदा, परमेश्वर के बारे में इतनी बड़ी अवधारणाएँ उत्पन्न कर सकती हैं, और तुम्हारी कल्पना इतने सारे विचारों को उत्पन्न कर सकती हैं, जो दर्शाता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद कितना अपरिपक्व है! क्या थोड़े से मच्छरों और कुछ घिनौनी मक्खियों की बस "भिनभिनाहट" ही काफी है तुम्हें धोखा देने के लिए? यह किस प्रकार का व्यक्ति है? तुम जानते हो परमेश्वर इस प्रकार के इंसान के बारे में क्या सोचता है? परमेश्वर इन लोगों से किस प्रकार व्यवहार करता है इस बारे में उसका दृष्टिकोण वास्तव में बिल्कुल स्पष्ट है। ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर ठंडा रुख अपनाता है—उसकी प्रवृत्ति उन पर कोई ध्यान न देना है, और इन अज्ञानी लोगों को गंभीरता से न लेना है। ऐसा क्यों है? क्योंकि अपने हृदय में उसने ऐसे लोगों को प्राप्त करने की योजना कभी नहीं बनाई जिन्होंने अंत तक उसके प्रति शत्रुतापूर्ण होने की शपथ खाई है, और जिन्होंने कभी भी परमेश्वर के अनुरूप होने का मार्ग खोजने की योजना नहीं बनाई है। शायद मेरी इन बातों से कुछ लोगों को ठेस पहुँचे। अच्छा, क्या तुम लोग इस बात के लिए तैयार हो कि मैं तुम्हें हमेशा इसी तरह ठेस पहुँचाता रहूँ? तुम लोग तैयार हो या न हो, लेकिन जो कुछ भी मैं कहता हूँ वह सत्य है! यदि मैं हमेशा इसी तरह से तुम लोगों को ठेस पहुँचाऊँ, तुम्हारे कलंक उजागर करूँ, तो क्या इससे तुम्हारे हृदय में बसी परमेश्वर की ऊँची छवि प्रभावित होगी? (नहीं होगी।) मैं मानता हूँ कि नहीं होगी। क्योंकि तुम्हारे हृदय में कोई ईश्वर है ही नहीं। वह ऊँचा परमेश्वर जो तुम्हारे हृदय में निवास करता है, जिसका तुम लोग दृढ़ता से समर्थन और बचाव करते हो, वह परमेश्वर है ही नहीं। बल्कि वह मनगढ़ंत इंसानी कल्पना है; उसका अस्तित्व ही नहीं है। अतः यह और भी अच्छा है कि मैं इस पहेली के उत्तर का खुलासा करूँ; क्या यह संपूर्ण सत्य को उजागर नहीं करता? वास्तविक परमेश्वर वो नहीं जिसके होने की कल्पना मनुष्य करता है। मुझे आशा है कि तुम लोग इस वास्तविकता का सामना कर सकते हो, और यह परमेश्वर के बारे में तुम लोगों के ज्ञान में सहायता करेगा।

परमेश्वर जिन्हें स्वीकार नहीं करता

कुछ लोगों के विश्वास को परमेश्वर के हृदय ने कभी स्वीकार नहीं किया है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर यह नहीं मानता कि ये लोग उसके अनुयायी हैं, क्योंकि परमेश्वर उनके विश्वास की प्रशंसा नहीं करता। क्योंकि ये लोग, भले ही कितने ही वर्षों से परमेश्वर का अनुसरण करते रहे हों, लेकिन इनकी सोच और इनके विचार कभी नहीं बदले हैं; वे अविश्वासियों के समान हैं, अविश्वासियों के सिद्धांतों और कार्य करने के तौर-तरीकों, और ज़िन्दा रहने के उनके नियमों एवं विश्वास के मुताबिक चलते हैं। उन्होंने परमेश्वर के वचन को कभी अपना जीवन नहीं माना, कभी नहीं माना कि परमेश्वर का वचन सत्य है, कभी परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने का इरादा ज़ाहिर नहीं किया, और परमेश्वर को कभी अपना परमेश्वर नहीं माना। वे परमेश्वर में विश्वास करने को एक किस्म का शगल मानते हैं, परमेश्वर को महज एक आध्यात्मिक सहारा समझते हैं, इसलिए वे नहीं मानते कि परमेश्वर का स्वभाव, या उसका सार इस लायक है कि उसे समझने की कोशिश की जाए। कहा जा सकता है कि वह सब जो सच्चे परमेश्वर से संबद्ध है उसका इन लोगों से कोई लेना-देना नहीं है; उनकी कोई रुचि नहीं है, और न ही वे ध्यान देने की परवाह करते हैं। क्योंकि उनके हृदय की गहराई में एक तीव्र आवाज़ है जो हमेशा उनसे कहती है : "परमेश्वर अदृश्य एवं अस्पर्शनीय है, उसका कोई अस्तित्व नहीं है।" वे मानते हैं कि इस प्रकार के परमेश्वर को समझने की कोशिश करना उनके प्रयासों के लायक नहीं है; ऐसा करना अपने आपको मूर्ख बनाना होगा। वे मानते हैं कि कोई वास्तविक कदम उठाए बिना अथवा किसी भी वास्तविक कार्यकलाप में स्वयं को लगाए बिना, सिर्फ शब्दों में परमेश्वर को स्वीकार करके, वे बहुत चालाक बन रहे हैं। परमेश्वर इन लोगों को किस दृष्टि से देखता है? वह उन्हें अविश्वासियों के रूप में देखता है। कुछ लोग पूछते हैं : "क्या अविश्वासी लोग परमेश्वर के वचन को पढ़ सकते हैं? क्या वे अपना कर्तव्य निभा सकते हैं? क्या वे ये शब्द कह सकते हैं : 'मैं परमेश्वर के लिए जिऊँगा'?" लोग प्रायः जो देखते हैं वह लोगों का सतही प्रदर्शन होता है; वे लोगों का सार नहीं देखते। लेकिन परमेश्वर इन सतही प्रदर्शनों को नहीं देखता; वह केवल उनके भीतरी सार को देखता है। इसलिए, इन लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति और परिभाषा ऐसी है। ये लोग कहते हैं : "परमेश्वर ऐसा क्यों करता है? परमेश्वर वैसा क्यों करता है? मैं ये नहीं समझ पाता; मैं वो नहीं समझ पाता; यह मनुष्य की अवधारणाओं के अनुरूप नहीं है; तुम मुझे यह बात अवश्य समझाओ...।" इसके उत्तर में मैं पूछता हूँ : क्या तुम्हें यह मामला समझाना सचमुच आवश्यक है? क्या इस मामले का तुमसे वास्तव में कुछ लेना-देना है? तुम कौन हो इस बारे में क्या सोचते हो? तुम कहाँ से आए हो? क्या तुम परमेश्वर को ये संकेत देने योग्य हो? क्या तुम उसमें विश्वास करते हो? क्या वह तुम्हारे विश्वास को स्वीकार करता है? चूँकि तुम्हारे विश्वास का परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है, तो उसके कार्य का तुमसे क्या सरोकार है? तुम नहीं जानते कि परमेश्वर के हृदय में तुम कहाँ ठहरते हो, तो तुम परमेश्वर से संवाद करने योग्य कैसे हो सकते हो?

चेतावनी के शब्द

क्या तुम लोग इन टिप्पणियों को सुनने के बाद असहज नहीं हो? हो सकता है कि तुम लोग इन वचनों को सुनना नहीं चाहते, या उन्हें स्वीकार करना नहीं चाहते, फिर भी वे सब तथ्य हैं। क्योंकि कार्य का यह चरण परमेश्वर के करने के लिए है, यदि परमेश्वर के इरादों से तुम्हारा कोई सरोकार नहीं है, परमेश्वर की प्रवृत्ति की तुम्हें कोई परवाह नहीं है, और तुम परमेश्वर के सार और स्वभाव को नहीं समझते हो, तो अंत में तुम्हारा ही विनाश होगा। मेरे शब्द सुनने में कठोर लगें तो उन्हें दोष मत देना, यदि तुम्हारा उत्साह ठंडा पड़ जाए तो उन्हें दोष मत देना। मैं सत्य बोलता हूँ; मेरा अभिप्राय तुम लोगों को हतोत्साहित करना नहीं है। चाहे मैं तुमसे कुछ भी माँगूं, और चाहे इसे कैसे भी करने की तुमसे अपेक्षा की जाए, मैं चाहता हूँ कि तुम लोग सही पथ पर चलो, और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करो और सही पथ से कभी विचलित न हो। यदि तुम परमेश्वर के वचन के अनुसार आगे नहीं बढ़ोगे, और उसके मार्ग का अनुसरण नहीं करोगे, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह कर रहे हो और सही पथ से भटक चुके हो। इसलिए मुझे लगता है कि कुछ ऐसे मामले हैं जो मुझे तुम लोगों के लिए स्पष्ट कर देने चाहिए, और मुझे तुम लोगों को साफ-साफ, और पूरी निश्चितता के साथ विश्वास करवा देना चाहिए, और परमेश्वर की प्रवृत्ति, परमेश्वर के इरादों, किस प्रकार परमेश्वर मनुष्य को पूर्ण करता है, और वह किस तरीके से मनुष्य के परिणाम को तय करता है, इसे स्पष्ट रूप से जानने में तुम लोगों की सहायता करनी चाहिए। यदि ऐसा दिन आता है जब तुम इस मार्ग पर नहीं चल पाते हो, तो मेरी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है, क्योंकि ये बातें तुम्हें पहले ही साफ-साफ बता दी गयी हैं। जहाँ तक यह बात है कि तुम अपने परिणाम से कैसे निपटोगे—तो यह मामला पूरी तरह से तुम पर है। भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों के परिणामों के बारे में परमेश्वर की भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियाँ हैं। मनुष्य को तौलने के उसके अपने तरीके हैं, और उनसे अपेक्षाओं का उसका अपना मानक है। लोगों के परिणामों को तौलने का उसका मानक ऐसा है जो हर एक के लिए निष्पक्ष है—इसमें कोई संदेह नहीं! इसलिए, कुछ लोगों का भय अनावश्यक है। क्या अब तुम लोगों को तसल्ली मिल गयी? आज के लिए इतना ही। अलविदा!

17 अक्टूबर, 2013

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