परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें
भाग एक
सबसे पहले, आओ हम एक भजन गाएँ: राज्य गान (I) राज्य जगत में अवतरित होता है।
राज्य गान (I) राज्य जगत में अवतरित होता है
1. परमेश्वर का राज्य धरती पर आ चुका है; परमेश्वर का व्यक्तित्व पूर्ण है समृद्ध है। कौन है जो शांत रहे और आनंद ना करे? कौन है जो शांत रहे और नाच ना करे? ओह सिय्योन, परमेश्वर के गुणगान के लिये, अपनी विजय-पताका उठाओ। जग में उसका पवित्र नाम फैलाने के लिये, अपना विजय-गीत गाओ। अनगिनत लोग ख़ुशी से परमेश्वर का यश-गान करते हैं, अनगिनत आवाज़ें उसके नाम की प्रशंसा करती हैं। वे उसके अद्भुत कर्मों को देखते हैं। अब उसका राज्य धरती पर आ चुका है।
2. धरती की सब चीज़ो, ख़ुद को निर्मल करो; आओ और परमेश्वर को भेंट चढ़ाओ। सितारो, आसमां में अपने घरौंदों में लौट जाओ, ऊपर आसमानों में परमेश्वर की शक्ति दिखाओ। धरती पर आवाज़ें उठती हैं और गाती हैं, परमेश्वर के लिये अपना असीम प्रेम और अनंत आदर बरसाती हैं। वो बड़े ग़ौर से सुनता है उन्हें। अनगिनत लोग ख़ुशी से परमेश्वर का यश-गान करते हैं, अनगिनत आवाज़ें उसके नाम की प्रशंसा करती हैं। वे उसके अद्भुत कर्मों को देखते हैं। अब उसका राज्य धरती पर आ चुका है।
3. उस दिन हर चीज़ फिर से जी उठती है, परमेश्वर स्वयं आता है धरती पर। फूल ख़ुशी से खिल उठते हैं, पंछी गाते हैं और हर चीज़ आनंद मनाती है। देखो, जैसे ही परमेश्वर के राज्य की सलामी गूंजती है, शैतान का राज्य ढहने लगता है, रौंदा जाता है, फिर कभी न उठने के लिये, डूब जाता है यश-गान के तले। अनगिनत लोग ख़ुशी से परमेश्वर का यश-गान करते हैं, अनगिनत आवाज़ें उसके नाम की प्रशंसा करती हैं। वे उसके अद्भुत कर्मों को देखते हैं। अब उसका राज्य धरती पर आ चुका है।
4. किसमें है साहस जो धरती पर विरोध करे? जब लोगों के बीच परमेश्वर खड़ा होता है, तो वह धरती पर अपना रोष और सब विपदाएं लेकर आता है। जगत परमेश्वर का राज्य बन चुका है। बादल आसमां में अठखेलियां करते हैं, झीलें और झरने धुन पर झूम उठते हैं। जानवर निकल आते हैं अपनी मांद से, और परमेश्वर जगा देता इंसान को उसके ख़्वाब से। जिसका इंतज़ार था लोगों को आख़िर वो दिन आ गया है, परमेश्वर को वे अपने मधुरतम गीत अर्पित कर रहे हैं। अनगिनत लोग ख़ुशी से परमेश्वर का यश-गान करते हैं, अनगिनत आवाज़ें उसके नाम की प्रशंसा करती हैं। वे उसके अद्भुत कर्मों को देखते हैं। अब उसका राज्य धरती पर आ चुका है। वे उसके अद्भुत कर्मों को देखते हैं। अब उसका राज्य धरती पर आ चुका है।
इस भजन को गाते हुए, हर बार तुम लोग क्या सोचते हो? (हम उत्तेजित और रोमांचित हो जाते हैं, और सोचते हैं कि राज्य का सौन्दर्य कितना महिमामय है, कैसे मनुष्य और परमेश्वर हमेशा के लिए साथ होंगे।) क्या किसी ने सोचा है कि परमेश्वर के साथ रहने के लिए मनुष्य को कौन-सा रूप अपनाना पड़ेगा? तुम लोगों के ख्याल में, किसी व्यक्ति को परमेश्वर के साथ जुड़ने और राज्य के महिमामय जीवन का आनन्द लेने के लिए कैसा होना चाहिए? (उसके स्वभाव में बदलाव आना चाहिए।) उसके स्वभाव में बदलाव आना चाहिए, लेकिन किस सीमा तक? इस बदलाव के बाद वह कैसा हो जाएगा? (वह पवित्र बन जाएगा।) पवित्रता का मानक क्या है? (इंसान के सभी विचार और सोच मसीह के अनुकूल होने चाहिए।) ऐसी अनुकूलता कैसे प्रदर्शित होती है? (इंसान परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करता या उससे विश्वासघात नहीं करता, बल्कि परमेश्वर के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो सकता है, और वह अपने हृदय में परमेश्वर का भय मानते हुए श्रद्धा रखता है।) तुम लोगों के कुछ उत्तर सही दिशा में हैं। तुम लोग दिल खोलकर अपनी बात कहो। (जो लोग राज्य में परमेश्वर के साथ रहते हैं वे किसी व्यक्ति, घटना एवं वस्तु द्वारा बाधित हुए बिना, सत्य का अनुसरण करने के द्वारा, निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभा सकते हैं। फिर वे अंधकार के प्रभाव से पूरी तरह अलग हो सकते हैं, अपना दिल परमेश्वर के अनुरूप बना सकते हैं, और परमेश्वर का भय मानते हुए, बुराई से दूर रह सकते हैं।) (चीज़ों के बारे में हमारा दृष्टिकोण परमेश्वर के अनुरूप बन सकता है, और हम अंधकार के प्रभाव से अलग हो सकते हैं। कम से कम ऐसी जगह जा सकते हैं जहाँ शैतान हमारा शोषण न करे, हम अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करके परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकें। हम मानते हैं कि अंधकार के प्रभाव से अलग होना आवश्यक है। यदि कोई अंधकार के प्रभाव से अलग नहीं हो सके और शैतान के बंधनों को तोड़कर आज़ाद न हो सके, तो उसने परमेश्वर के उद्धार को प्राप्त नहीं किया है।) (परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने के मानक पर खरा उतरने के लिए लोगों को परमेश्वर के साथ हृदय एवं मन से एक होना चाहिए और परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करना चाहिए। उन्हें स्वयं को जानने, सत्य को अभ्यास में लाने, परमेश्वर की समझ प्राप्त करने, परमेश्वर से प्रेम कर सकने, और परमेश्वर के अनुरूप हो सकने में समर्थ होना चाहिए। एक व्यक्ति को बस इतना ही करने की आवश्यकता है।)
लोगों के हृदय में परिणाम का बोझ कितना भारी होता है
ऐसा लगता है कि तुम लोगों के हृदय में उस मार्ग के बारे में कुछ विचार हैं, जिसका तुम लोगों को पालन करना चाहिए, और तुम लोगों ने उसकी कुछ समझ या जानकारी विकसित कर ली है। किन्तु जो कुछ तुम लोगों ने कहा है, वे खोखले शब्द हैं या वास्तविक, यह तुम लोगों के दिन-प्रतिदिन के अभ्यास में ध्यान लगाने पर निर्भर करता है। बीते वर्षों में तुम लोगों ने सिद्धांतों और सत्य की वास्तविक विषयवस्तु के संदर्भ में सत्य के प्रत्येक पहलू से विशेष फल प्राप्त किए हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि लोग आजकल सत्य के लिए प्रयास करने पर जोर देते हैं, और परिणामस्वरूप, सत्य के हर पहलू और हर मद ने निश्चित रूप से कुछ लोगों के हृदय में जड़ें जमा ली हैं। लेकिन वह क्या है जिससे मैं सबसे अधिक डरता हूँ? वह ये है कि इस तथ्य के बावजूद कि सत्य के इन विषयों और इन सिद्धांतों ने तुम्हारे दिल में जड़ें जमा ली हैं, तुम्हारे दिल में उनकी वास्तविक विषयवस्तु का सार बहुत कम है। जब तुम लोग समस्याओं का सामना करते हो, तुम्हारा परीक्षणों और विकल्पों से सामना होता है—तब तुम लोगों के लिए इन सत्यों की वास्तविकता का कितना व्यवहारिक उपयोग होगा? क्या यह तुम्हें कठिनाइयों से पार पाने और परीक्षाओं से उबरने में सहायता कर सकती है जिससे तुम परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर सको? क्या तुम लोग परीक्षणों में अडिग रहकर परमेश्वर के लिए शानदार गवाही दोगे? क्या तुम लोगों ने इन मामलों से कभी कोई सरोकार रखा है? मैं तुम लोगों से पूछता हूँ : तुम्हारे दिल में और प्रतिदिन के अपने विचारों और चिंतन में, तुम लोगों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्या है? क्या तुम लोग कभी इसके निष्कर्ष पर पहुँचे हो? ऐसा क्या है जो तुम लोगों को सबसे महत्वपूर्ण लगता है? कुछ लोग कहते हैं, "बेशक, वह सत्य को अभ्यास में लाना है," जबकि कुछ लोग कहते हैं "बेशक, वह प्रतिदिन परमेश्वर के वचन पढ़ना है।" कुछ लोग कहते हैं, "बेशक, वह प्रतिदिन परमेश्वर के सामने आकर उससे प्रार्थना करना है," और ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं, "बेशक, वह हर दिन अपने कर्तव्य का ठीक से निर्वहन करना है।" फिर कुछ लोग ऐसे हैं जो कहते हैं कि वे सदा इस बारे में सोचते रहते हैं कि परमेश्वर को किस प्रकार से संतुष्ट किया जाए, कैसे सभी चीज़ों में उसका आज्ञापालन किया जाए, और कैसे उसकी इच्छा के साथ सामंजस्य बिठाकर कार्य किया जाए। क्या यह सही है? क्या यह बस इतना ही है? उदाहरण के लिए, कुछ लोग कहते हैं: "मैं केवल परमेश्वर को समर्पित होना चाहता हूँ, किन्तु जब कोई समस्या आती है तब मैं ऐसा नहीं कर पाता।" कुछ लोग कहते हैं, "मैं केवल परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहता हूँ, अगर मैं उसे केवल एक बार ही संतुष्ट कर पाऊँ तो भी मुझे मंज़ूर है—लेकिन मैं उसे कभी संतुष्ट नहीं कर पाता।" कुछ लोग कहते हैं, "मैं केवल परमेश्वर को समर्पित होना चाहता हूँ। परीक्षण के समय बिना किसी शिकायत या निवेदन के, मैं केवल उसके आयोजनों, संप्रभुता और व्यवस्थाओं को समर्पित होना चाहता हूँ। लेकिन लगभग हर बार मैं ऐसा कर पाने में असफल हो जाता हूँ।" कुछ लोग तो ये भी कहते हैं, "जब निर्णय लेने की बात आती है, तब मैं कभी सत्य को अभ्यास में लाने को नहीं चुन पाता। मैं हमेशा देह को संतुष्ट करना चाहता हूँ, हमेशा अपनी व्यक्तिगत, स्वार्थी अभिलाषाओं को संतुष्ट करना चाहता हूँ।" इसका क्या कारण है? परमेश्वर के परीक्षणों के आने से पहले ही, क्या तुम लोगों ने स्वयं को कई बार चुनौती दी है, और स्वयं को कई बार आजमाया और जाँचा है? विचार करो कि क्या तुम लोग वास्तव में परमेश्वर को समर्पित हो सकते हो, क्या परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो, और क्या गारंटी दे सकते हो कि तुम परमेश्वर से विश्वासघात नही करोगे; विचार करो कि क्या तुम लोग स्वयं को संतुष्ट किये बिना, अपनी अभिलाषाओं को संतुष्ट किये बिना, व्यक्तिगत पसंद के बगैर, केवल परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो। क्या कोई ऐसा करता है? वास्तव में, केवल एक ही तथ्य है जिसे तुम लोगों की आँखों के सामने रखा गया है। उसी में तुममें से हर एक की सबसे ज़्यादा रूचि है, वही तुम लोग सबसे अधिक जानना चाहते हो, और यह प्रत्येक व्यक्ति के परिणाम और मंज़िल का मामला है। तुम लोगों को शायद इसका एहसास न हो, परन्तु इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। जब मनुष्य के परिणाम की सच्चाई की, मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रतिज्ञा की, और परमेश्वर मनुष्य को किस प्रकार की मंज़िल तक पहुँचाने का इरादा करता है, इन सबकी बात आती है, तो मैं जानता हूँ कि ऐसे कुछ लोग हैं जो पहले ही कई बार इन विषयों पर परमेश्वर के वचनों का अध्ययन कर चुके हैं। फिर ऐसे भी लोग हैं जो बारंबार इसके उत्तर खोज कर रहे हैं और अपने मन में इस पर विचार कर रहे हैं, लेकिन फिर भी उन्हें कोई परिणाम नहीं मिलता, या शायद किसी अस्पष्ट निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। अंत में वे इस बारे में निश्चित नहीं हो पाते कि किस प्रकार का परिणाम उनका इंतज़ार कर रहा है। अपना कर्तव्य निभाते समय, अधिकांश लोग निम्नलिखित प्रश्नों के निश्चित उत्तर जानना चाहते हैं : "मेरा परिणाम क्या होगा? क्या मैं इस मार्ग पर अंत तक चल सकता हूँ? मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है?" कुछ लोग इस प्रकार चिंता करते हैं : "मैंने अतीत में कुछ काम किए हैं, कुछ बातें कही हैं; मैं परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी रहा हूँ, मैंने परमेश्वर से विश्वासघात करने वाले कुछ काम किए हैं, और कुछ मामलों में मैं परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर पाया हूँ, परमेश्वर के हृदय को ठेस पहुँचायी है, उसे निराश किया, उसे मुझसे घृणा और नफरत करने पर मजबूर किया है। इसलिए शायद मेरा परिणाम अज्ञात है।" यह कहना उचित होगा कि अधिकतर लोग अपने परिणाम के बारे में असहज महसूस करते हैं। कोई यह कहने का साहस नहीं करता, "मैं सौ प्रतिशत निश्चित हूँ कि मैं जीवित रहूँगा; मैं सौ प्रतिशत निश्चित हूँ कि मैं परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर सकता हूँ। मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जो परमेश्वर के हृदय के अनुरूप है; मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जिसकी परमेश्वर प्रशंसा करता है।" कुछ लोग सोचते हैं कि परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना कठिन है, और सत्य को अभ्यास में लाना सबसे कठिन है। परिणामस्वरूप, ये लोग सोचते हैं कि कोई उनकी सहायता नहीं कर सकता, और वे अच्छे परिणाम हासिल करने की आशा नहीं कर पाते। या शायद वे मानते हैं कि वे परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट नहीं कर सकते, इसलिए जीवित नहीं रह सकते। इसी वजह से वे कहते हैं कि उनके पास कोई परिणाम नहीं है, और वे एक अच्छी मंज़िल हासिल नहीं कर सकते। लोग वास्तव में चाहे जिस प्रकार भी सोचते हों, उन सभी ने कई बार अपने परिणाम के बारे में विचार किया होता है। ये लोग अपने भविष्य के प्रश्नों पर और उन प्रश्नों पर कि जब परमेश्वर अपने कार्य को समाप्त कर लेगा, तो उन्हें क्या मिलेगा, वे हमेशा गुणा-भाग करने और योजना बनाने में लगे रहते हैं। कुछ लोग दोगुनी कीमत चुकाते हैं; कुछ लोग अपने परिवार और अपनी नौकरियाँ छोड़ देते हैं; कुछ लोग विवाह-बंधन को तोड़ देते हैं; कुछ लोग परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाने की खातिर त्यागपत्र दे देते हैं; कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ देते हैं; कुछ लोग कठिन रास्ता अपना कर बेहद कठोर और थका देने वाले काम हाथ में लेने लगते हैं; कुछ लोग धन अर्पित करते हैं, अपना सर्वस्व अर्पित कर देते हैं; कुछ लोग सत्य और परमेश्वर को जानने का प्रयास करते हैं। तुम लोग चाहे जैसे अभ्यास करो, क्या वह तरीका जिससे तुम लोग अभ्यास करते हो वह महत्वपूर्ण है या नहीं? (नहीं, महत्वपूर्ण नहीं है।) तो फिर हम इस महत्वहीनता की व्याख्या कैसे करें? यदि अभ्यास का तरीका महत्वपूर्ण नहीं है, तो क्या महत्वपूर्ण है? (बाहरी अच्छा व्यवहार सत्य को अभ्यास में लाने का द्योतक नहीं है।) (हर व्यक्ति के विचार महत्वपूर्ण नहीं हैं; यहाँ मुख्य बात यह है कि हम सत्य को अभ्यास में लाए हैं या नहीं, और हम परमेश्वर से प्रेम करते हैं या नहीं।) (मसीह-विरोधियों और झूठे अगुवाओं का पतन यह समझने में हमारी सहायता करता है कि बाहरी व्यवहार सबसे महत्वपूर्ण बात नहीं है। बाहरी तौर पर ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने बहुत कुछ त्याग दिया है, और वे कीमत चुकाने के लिए तैयार लगते हैं, परन्तु करीब से जाँचने पर हम देख सकते हैं कि उनमें परमेश्वर के लिए श्रद्धा नहीं है; बल्कि वे हर प्रकार से उसका विरोध करते हैं। निर्णायक समय में वे हमेशा शैतान के साथ खड़े रहकर परमेश्वर के कार्य में हस्तक्षेप करते हैं। इस प्रकार, यहाँ मुख्य विचारणीय बातें ये हैं कि समय आने पर हम किसके साथ खड़े होते हैं, और हमारा दृष्टिकोण क्या है।) तुम सभी लोग अच्छा बोलते हो, और ऐसा प्रतीत होता है कि तुम लोगों में पहले से ही सत्य को अभ्यास में लाने की, परमेश्वर के इरादों की, और जो कुछ परमेश्वर मनुष्य से अपेक्षा रखता है, उसकी एक बुनियादी समझ और मानक है। तुम लोग इस प्रकार से बोल पाते हो यह अत्यंत मर्मस्पर्शी है। हालाँकि तुम्हारी बहुत-सी बातें सटीक नहीं होतीं, फिर भी तुम लोग पहले ही सत्य की सही व्याख्या के निकट पहुँच चुके हो, और इससे प्रमाणित होता है कि तुमने लोगों, घटनाओं और अपने आसपास की वस्तुओं की, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित तुम्हारे समस्त परिवेश की, और हर दृश्य वस्तु के बारे में वास्तविक समझ विकसित कर ली है। ये समझ सत्य के निकट है। भले ही जो कुछ तुम लोगों ने कहा है वो बहुत विस्तृत नहीं है, और कुछ शब्द बहुत उचित नहीं हैं, लेकिन तुम्हारी समझ पहले ही सत्य की वास्तविकता के करीब पहुँच रही है। तुम लोगों को इस तरह बोलते हुए सुनकर मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा है।
लोगों का विश्वास सत्य का स्थान नहीं ले सकता
कुछ लोग कठिनायाँ सह सकते हैं; वे कीमत चुका सकते हैं; उनका बाहरी आचरण बहुत अच्छा होता है, वे बहुत आदरणीय होते हैं; और लोग उनकी सराहना करते हैं। क्या तुम लोग इस प्रकार के बाहरी आचरण को, सत्य को अभ्यास में लाना कह सकते हो? क्या तुम लोग कह सकते हो कि ऐसे लोग परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर रहे हैं? लोग बार-बार ऐसे व्यक्तियों को देखकर ऐसा क्यों समझ लेते हैं कि वे परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं, वे सत्य को अभ्यास में लाने के मार्ग पर चल रहे हैं, और वे परमेश्वर के मार्ग पर चल रहे हैं? क्यों कुछ लोग इस प्रकार सोचते हैं? इसका केवल एक ही स्पष्टीकरण है। और वह स्पष्टीकरण क्या है? स्पष्टीकरण यह है कि बहुत से लोगों को, ऐसे प्रश्न—जैसे कि सत्य को अभ्यास में लाना क्या है, परमेश्वर को संतुष्ट करना क्या है, और यथार्थ में सत्य-वास्तविकता से युक्त होना क्या है—ये बहुत स्पष्ट नहीं हैं। अतः कुछ लोग अक्सर ऐसे लोगों के हाथों धोखा खा जाते हैं जो बाहर से आध्यात्मिक, कुलीन, ऊँचे और महान प्रतीत होते हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो वाक्पटुता से शाब्दिक और सैद्धांतिक बातें कर सकते हैं, और जिनके भाषण और कार्यकलाप सराहना के योग्य प्रतीत होते हैं, तो जो लोग उनके हाथों धोखा खा चुके हैं उन्होंने उनके कार्यकलापों के सार को, उनके कर्मों के पीछे के सिद्धांतों को, और उनके लक्ष्य क्या हैं, इसे कभी नहीं देखा है। उन्होंने यह कभी नहीं देखा कि ये लोग वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं या नहीं, वे लोग सचमुच परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहते हैं या नहीं हैं। उन्होंने इन लोगों के मानवता के सार को कभी नहीं पहचाना। बल्कि, उनसे परिचित होने के साथ ही, थोड़ा-थोड़ा करके वे उन लोगों की तारीफ करने, और आदर करने लगते हैं, और अंत में ये लोग उनके आदर्श बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ लोगों के मन में, वे आदर्श जिनकी वे उपासना करते हैं, मानते हैं कि वे अपने परिवार एवं नौकरियाँ छोड़ सकते हैं, और सतही तौर पर कीमत चुका सकते हैं—ये आदर्श ऐसे लोग हैं जो वास्तव में परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं, और एक अच्छा परिणाम और एक अच्छी मंज़िल प्राप्त कर सकते हैं। उन्हें मन में लगता है कि परमेश्वर इन आदर्श लोगों की प्रशंसा करता है। उनके ऐसे विश्वास की वजह क्या है? इस मुद्दे का सार क्या है? इसके क्या परिणाम हो सकते हैं? आओ, हम सबसे पहले इसके सार के मामले पर चर्चा करें।
लोगों का दृष्टिकोण, उनका अभ्यास, लोग अभ्यास करने के लिए किन सिद्धांतों को चुनते हैं, और लोग किस चीज़ पर जोर देते हैं, इन सब बातों का लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं का कोई लेना-देना नहीं है। चाहे लोग सतही मसलों पर ध्यान दें या गंभीर मसलों पर, शब्दों एवं सिद्धांतों पर ध्यान दें या वास्तविकता पर, लेकिन लोग उसके मुताबिक नहीं चलते जिसके मुताबिक उन्हें सबसे अधिक चलना चाहिए, और उन्हें जिसे सबसे अधिक जानना चाहिए, उसे जानते नहीं। इसका कारण यह है कि लोग सत्य को बिल्कुल भी पसंद नहीं करते; इसलिए, लोग परमेश्वर के वचन में सिद्धांतों को खोजने और उनका अभ्यास करने के लिए समय लगाने एवं प्रयास करने को तैयार नहीं है। इसके बजाय, वे छोटे रास्तों का उपयोग करने को प्राथमिकता देते हैं, और जिन्हें वे समझते हैं, जिन्हें वे जानते हैं, उसे अच्छा अभ्यास और अच्छा व्यवहार मान लेते हैं; तब यही सारांश, खोज करने के लिए उनका लक्ष्य बन जाता है, जिसे वे अभ्यास में लाए जाने वाला सत्य मान लेते हैं। इसका प्रत्यक्ष परिणाम ये होता है कि लोग अच्छे मानवीय व्यवहार को, सत्य को अभ्यास में लाने के विकल्प के तौर पर उपयोग करते हैं, इससे परमेश्वर की कृपा पाने की उनकी अभिलाषा भी पूरी हो जाती है। इससे लोगों को सत्य के साथ संघर्ष करने का बल मिलता है जिसे वे परमेश्वर के साथ तर्क करने तथा स्पर्धा करने के लिए भी उपयोग करते हैं। साथ ही, लोग अनैतिक ढंग से परमेश्वर को भी दरकिनार कर देते हैं, और जिन आदर्शों को वे सराहते हैं उन्हें परमेश्वर के स्थान पर रख देते हैं। लोगों के ऐसे अज्ञानता भरे कार्य और दृष्टिकोण का, या एकतरफा दृष्टिकोण और अभ्यास का केवल एक ही मूल कारण है, आज मैं तुम लोगों को उसके बारे में बताऊँगा : कारण यह है कि भले ही लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हों, प्रतिदिन उससे प्रार्थना करते हों, और प्रतिदिन परमेश्वर के कथन पढ़ते हों, फिर भी वे परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते। और यही समस्या की जड़ है। यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के हृदय को समझता है, और जानता है कि परमेश्वर क्या पसंद करता है, किस चीज़ से वो घृणा करता है, वो क्या चाहता है, किस चीज़ को वो अस्वीकार करता है, किस प्रकार के व्यक्ति से परमेश्वर प्रेम करता है, किस प्रकार के व्यक्ति को वो नापसंद करता है, लोगों से अपेक्षाओं के उसके क्या मानक हैं, मनुष्य को पूर्ण करने के लिए वह किस प्रकार की पद्धति अपनाता है, तो क्या तब भी उस व्यक्ति का व्यक्तिगत विचार हो सकता है? क्या वह यूँ ही जा कर किसी अन्य व्यक्ति की आराधना कर सकता है? क्या कोई साधारण व्यक्ति लोगों का आदर्श बन सकता है? जो लोग परमेश्वर की इच्छा को समझते हैं, उनका दृष्टिकोण इसकी अपेक्षा थोड़ा अधिक तर्कसंगत होता है। वे मनमाने ढंग से किसी भ्रष्ट व्यक्ति की आदर्श के रूप में आराधना नहीं करेंगे, न ही वे सत्य को अभ्यास में लाने के मार्ग पर चलते हुए, यह विश्वास करेंगे कि मनमाने ढंग से कुछ साधारण नियमों या सिद्धांतों के मुताबिक चलना सत्य को अभ्यास में लाने के बराबर है।
परमेश्वर जिस मानक से मनुष्य का परिणाम निर्धारित करता है, उस बारे में अनेक राय हैं
आओ हम इस विषय पर वापस आएँ और परिणाम के मामले पर चर्चा करना जारी रखें।
चूँकि प्रत्येक व्यक्ति अपने परिणाम को लेकर चिंतित होता है, क्या तुम लोग जानते हो कि परमेश्वर किस प्रकार उस परिणाम को निर्धारित करता है? परमेश्वर किस तरीके से किसी व्यक्ति का परिणाम निर्धारित करता है? और किसी व्यक्ति के परिणाम को निर्धारित करने के लिए वह किस प्रकार के मानक का उपयोग करता है? अगर किसी मनुष्य का परिणाम निर्धारित नहीं हुआ है, तो परमेश्वर इस परिणाम को प्रकट करने के लिए क्या करता है? क्या कोई जानता है? जैसा मैंने अभी कहा, कुछ लोगों ने इंसान के परिणाम का, उन श्रेणियों के बारे में जिसमें इस परिणाम को विभाजित किया जाता है, और उन विभिन्न लोगों का जो परिणाम होने वाला है, उस के बारे में पता लगाने के लिए परमेश्वर के वचन पर शोध करने में पहले ही काफी समय बिता दिया है। वे यह भी जानना चाहते हैं कि परमेश्वर के वचन किस प्रकार मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करते हैं, परमेश्वर किस प्रकार के मानक का उपयोग करता है, और किस तरह वह मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करता है। फिर भी, अंत में ये लोग कोई भी उत्तर नहीं खोज पाते। वास्तविक तथ्य में, परमेश्वर के कथनों में इस मामले पर ज़्यादा कुछ कहा नहीं गया है। ऐसा क्यों है? जब तक मनुष्य का परिणाम प्रकट नहीं किया जाता, परमेश्वर किसी को बताना नहीं चाहता है कि अंत में क्या होने जा रहा है, न ही वह किसी को समय से पहले उसकी नियति के बारे में सूचित करना चाहता है—क्योंकि ऐसा करने से मनुष्य को कोई लाभ नहीं होगा। अभी मैं तुम लोगों को केवल उस तरीके के बारे में बताना चाहता हूँ जिससे परमेश्वर मनुष्य का परिणाम निर्धारित करता है, उन सिद्धांतों के बारे में बताना चाहता हूँ जिन्हें वह मनुष्य का परिणाम निर्धारित करने और उस परिणाम को अभिव्यक्त करने के लिए अपने कार्य में उपयोग करता है, और उस मानक के बारे में बताना चाहता हूँ जिसे वह यह निर्धारित करने के लिए उपयोग में लाता है कि कोई व्यक्ति जीवित बच सकता है या नहीं। क्या इन्हीं सवालों को लेकर तुम लोग सर्वाधिक चिंतित नहीं हो? तो फिर, लोग कैसे विश्वास करते हैं परमेश्वर ही मनुष्य का परिणाम निर्धारित करता है? तुम लोगों ने इस मामले पर अभी-अभी कुछ कहा है : तुममें से किसी ने कहा था कि यह कर्तव्य को निष्ठापूर्वक करने और परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर है; कुछ ने कहा कि यह परमेश्वर का आज्ञापालन करना और परमेश्वर को संतुष्ट करना है; किसी ने कहा कि यह परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित होना है; और किसी ने कहा था कि यह गुमनामी में जीना है...। जब तुम लोग इन सत्यों को अभ्यास में लाते हो, जब तुम सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास करते हो जो तुम्हें सही लगते हैं, तो जानते हो परमेश्वर क्या सोचता है? क्या तुम लोगों ने विचार किया है कि इसी प्रकार से चलते रहना परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करता है या नहीं? क्या यह परमेश्वर के मानक को पूरा करता है? क्या यह परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करता है? मेरा मानना है कि अधिकांश लोग इस पर विचार नहीं करते। वे बस परमेश्वर के वचन के किसी एक भाग को या धर्मोपदेशों के किसी एक भाग को या उन कुछ आध्यात्मिक मनुष्यों के मानकों को यंत्रवत् लागू करते हैं जिनका वे आदर करते हैं, और फलां-फलां कार्य करने के लिए स्वयं को बाध्य करते हैं। वे मानते हैं कि यही सही तरीका है, अतः वे उसी के मुताबिक चलते हुए काम करते रहते हैं, चाहे अंत में कुछ भी क्यों न हो। कुछ लोग सोचते हैं : "मैंने बहुत वर्षों तक विश्वास किया है; मैंने हमेशा इसी तरह अभ्यास किया है; लगता है मैंने वास्तव में परमेश्वर को संतुष्ट किया है; और मुझे यह भी लगता है कि मैंने बहुत कुछ प्राप्त किया है। क्योंकि इस दौरान मैं अनेक सत्य समझने लगा हूँ, और ऐसी बहुत-सी बातों को समझने लगा हूँ जिन्हें मैं पहले नहीं समझता था—विशेष रूप से, मेरे बहुत से विचार और दृष्टिकोण बदल चुके हैं, मेरे जीवन के मूल्य काफी बदल चुके हैं, और अब मुझे इस संसार की अच्छी-खासी समझ हो गई है।" ऐसे लोग मानते हैं कि यह पैदावार है, और यह मनुष्य के लिए परमेश्वर के कार्य का अंतिम परिणाम है। तुम्हारी राय में, इन मानकों और तुम लोगों के सभी अभ्यासों को एक साथ लेकर, क्या तुम लोग परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर रहे हो? कुछ लोग पूर्ण निश्चय के साथ कहेंगे, "निस्संदेह! हम परमेश्वर के वचन के अनुसार अभ्यास कर रहे हैं; ऊपर के लोगों ने जो उपदेश दिया था और जो बताया था, हम उसी के अनुसार अभ्यास कर रहे हैं; हम लोग हमेशा अपना कर्तव्य निभाते हैं, परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, हमने परमेश्वर को कभी नहीं छोड़ा है। इसलिए हम पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकते हैं कि हम परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं। हम चाहे परमेश्वर के इरादों को कितना ही क्यों न समझते हों, उसके वचन को चाहे कितना ही क्यों न समझते हों, हम हमेशा परमेश्वर के अनुकूल होने के मार्ग की खोज करते रहे हैं। यदि हम सही तरीके से कार्य करते हैं, और सही तरीके से अभ्यास करते हैं, तो परिणाम निश्चित रूप से सही होगा।" इस दृष्टिकोण के बारे में तुम लोग क्या सोचते हो? क्या यह सही है? शायद कुछ ऐसे लोग हों जो कहें, "मैंने इन चीज़ों के बारे में पहले कभी नहीं सोचा। मैं तो केवल इतना सोचता हूँ कि यदि मैं अपने कर्तव्य का पालन करता रहूँ और परमेश्वर के वचन की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करता रहूँ, तो मैं जीवित रह सकता हूँ। मैंने कभी इस प्रश्न पर विचार नहीं किया कि मैं परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट कर सकता हूँ या नहीं, न ही मैंने कभी यह विचार किया है कि मैं उसके द्वारा अपेक्षित मानक को प्राप्त कर रहा हूँ या नहीं। चूँकि परमेश्वर ने मुझे कभी नहीं बताया, और न ही मुझे कोई स्पष्ट निर्देश प्रदान किए हैं, इसलिए मैं मानता हूँ कि यदि मैं बिना रुके कार्य करता रहूँ, तो परमेश्वर संतुष्ट रहेगा और मुझसे उसकी कोई अतिरिक्त अपेक्षा नहीं होनी चाहिए।" क्या ये विश्वास सही हैं? जहाँ तक मेरी बात है, अभ्यास करने का यह तरीका, सोचने का यह तरीका, और ये सारे दृष्टिकोण—वे सब अपने साथ कल्पनाओं और कुछ अंधेपन को लेकर आते हैं। जब मैं ऐसा कहता हूँ, शायद तुम थोड़ी निराशा महसूस करो और सोचो, "अंधापन? यदि यह अंधापन है, तो हमारे उद्धार की आशा, हमारे जीवित रहने की आशा बहुत कम और अनिश्चित है, है कि नहीं? क्या ऐसी बातें बोलकर तुम हमारा उत्साह नहीं मार रहे?" तुम लोग कुछ भी मानो, मैं जो कहता और करता हूँ उसका आशय तुम लोगों को यह महसूस करवाना नहीं है, मानो तुम लोगों के उत्साह को मारा जा रहा है। बल्कि, यह परमेश्वर के इरादों के बारे में तुम लोगों की समझ को बेहतर करने के लिए है और परमेश्वर क्या सोच रहा है, वो क्या करना चाहता है, वो किस प्रकार के व्यक्ति को पसंद करता है, किससे घृणा करता है, किसे तुच्छ समझता है, वो किस प्रकार के व्यक्ति को पाना चाहता है, और किस प्रकार के व्यक्ति को ठुकराता है, इस पर तुम लोगों की समझ को बेहतर करने के लिए है। यह तुम लोगों के मन को स्पष्टता देने, तुम्हें स्पष्ट रूप से यह जानने में सहायता करने के आशय से है कि तुम लोगों में से हर एक व्यक्ति के कार्य और विचार उस मानक से कितनी दूर भटक गए हैं जिसकी अपेक्षा परमेश्वर करता है। क्या इन विषयों पर विचार-विमर्श करना आवश्यक है? क्योंकि मैं जानता हूँ तुम लोगों ने लंबे समय तक विश्वास किया है, और बहुत उपदेश सुने हैं, लेकिन तुम लोगों में इन्हीं चीज़ों का अभाव है। हालाँकि, तुम लोगों ने अपनी पुस्तिका में हर सत्य लिख लिया है, तुम लोगों ने उसे भी कंठस्थ और अपने हृदय में दर्ज कर लिया है जिसे तुम लोग महत्वपूर्ण मानते हो, हालाँकि तुम लोग अभ्यास करते समय परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए इसका उपयोग करने, अपनी आवश्यकता में इसका उपयोग करने, या आने वाले मुश्किल समय को काटने की खातिर इसका उपयोग करने की योजना बनाते हो, या फिर केवल इन चीज़ों को जीवन में अपने साथ रहने देना चाहते हो, लेकिन जहाँ तक मेरी बात है, यदि तुम केवल अभ्यास कर रहे हो, फिर चाहे जैसे भी करो, केवल अभ्यास कर रहे हो, तो यह महत्वपूर्ण नहीं है। तब सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्या है? महत्वपूर्ण यह है कि जब तुम अभ्यास कर रहे होते हो, तब तुम्हें अंतर्मन में पूरे यकीन से पता होना चाहिए कि तुम्हारा हर एक कार्य, हर एक कर्म परमेश्वर की इच्छानुसार है या नहीं, तुम्हारा हर कार्यकलाप, तुम्हारी हर सोच और जो परिणाम एवं लक्ष्य तुम हासिल करना चाहते हो, वे वास्तव में परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करते हैं या नहीं, परमेश्वर की माँगों को पूरा करते हैं या नहीं, और परमेश्वर उन्हें स्वीकृति देता है या नहीं। ये सारी बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं।
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