स्वयं को जानने के बारे में वचन (अंश 48)

जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उनमें से किस तरह के व्यक्ति को बचाए जाने की संभावना सबसे कम है, और किस तरह की प्रकृति के कारण विनाश की संभावना सबसे ज्यादा है? क्या तुम लोग यह स्पष्ट रूप से समझते हो? चाहे कोई अगुआ हो या अनुयायी, मनुष्य की सामान्य प्रकृति क्या होती है? मनुष्य की प्रकृति में सामान्य तत्व परमेश्वर के प्रति विश्वासघात है; हर एक व्यक्ति परमेश्वर को धोखा देने में सक्षम है। परमेश्वर को धोखा देना किसे कहते हैं? इसकी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होती हैं? क्या जो लोग परमेश्वर में विश्वास करना बंद कर देते हैं, वही उसे धोखा देते हैं? लोगों को मनुष्य का सार समझना चाहिए और इसकी जड़ तक जाना चाहिए। तुम्हारे नाज-नखरे, कमियाँ, बुरी आदतें या संस्कारों में कमी सभी सतही पहलू हैं। अगर तुम हमेशा इन मामूली चीजों से चिपके रहते हो, बिना सोचे-समझे विनियम लागू करते हो और जो जरूरी है उसे समझने में नाकाम रहते हो, अपनी प्रकृति में निहित चीजों और अपने भ्रष्ट स्वभाव को अनसुलझा रहने देते हो, तो तुम अंततः भटक जाओगे और परमेश्वर का विरोध करने लगोगे। परमेश्वर को लोग कभी भी और कहीं भी धोखा दे सकते हैं—यह एक गंभीर समस्या है। शायद कुछ देर के लिए तुम्हारे पास थोड़ा-सा परमेश्वर से प्रेम करने वाला हृदय हो, तुम उत्साह के साथ खुद को खपाओ और थोड़ी निष्ठा के साथ अपने कर्तव्य निभाओ; या इस दौरान तुम्हारे पास पूरी तरह सामान्य विवेक और अंतरात्मा हो, लेकिन लोग अस्थिर और चंचल होते हैं, वे एक इकलौती घटना की वजह से कहीं भी और कभी भी परमेश्वर का विरोध करने और उसे धोखा देने में सक्षम होते हैं। उदाहरण के लिए, किसी के पास पूरी तरह से सामान्य विवेक हो सकता है, उसके पास पवित्रात्मा का कार्य, व्यावहारिक अनुभव, बोझ और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति निष्ठा हो सकती है, लेकिन जब उसकी आस्था बहुत मजबूत हो, तभी परमेश्वर का घर एक ऐसे मसीह-विरोधी को निष्कासित कर दे जिसकी वह पूजा करता है, तो उसके मन में धारणाएँ पनपने लगती हैं। वह एकदम से नकारात्मक हो जाता है, अपने कार्य में उत्साह खो देता है, अपना कर्तव्य अनमना होकर निभाता है, प्रार्थना नहीं करना चाहता, और शिकायत करता है, “प्रार्थना क्यों करूँ? अगर किसी इतने अच्छे इंसान को निष्कासित किया जा सकता है, तो किसे बचाया जा सकता है? परमेश्वर को लोगों के साथ ऐसा बर्ताव नहीं करना चाहिए!” उसके शब्दों की प्रकृति क्या है? सिर्फ एक घटना उसकी इच्छा के अनुसार नहीं होती और वह परमेश्वर पर फैसला सुनाने लगता है। क्या यह परमेश्वर को धोखा देने की अभिव्यक्ति नहीं है? लोग कभी भी और कहीं भी परमेश्वर से भटक सकते हैं; किसी स्थिति का सामना करने पर उनमें धारणाएँ पनप सकती हैं और वे परमेश्वर की निंदा और आलोचना कर सकते हैं—क्या यह परमेश्वर को धोखा देने की अभिव्यक्ति नहीं है? यह बहुत बड़ी बात है। अब शायद तुम्हें लगे कि तुम्हारे मन में परमेश्वर के प्रति कोई धारणा नहीं है और तुम उसके प्रति समर्पण कर सकते हो, लेकिन अगर तुम कुछ गलत कर बैठे और अचानक तुम्हारे साथ सख्ती से काट-छाँट की जाए, तो क्या तब भी तुम समर्पण कर सकोगे? क्या तुम समाधान के लिए सत्य की खोज कर पाओगे? अगर तुम समर्पण नहीं कर सकते या अपने विद्रोहीपन की समस्या सुलझाने के लिए सत्य नहीं खोज सकते, तो अब भी यह संभावना है कि तुम परमेश्वर को धोखा दे दो। हो सकता है तुमने वास्तव में यह न कहा हो कि “मैं अब परमेश्वर में विश्वास नहीं करता,” लेकिन उस वक्त तुम्हारा हृदय उसे पहले ही धोखा दे चुका है। तुम्हें स्पष्ट रूप से समझना है कि मनुष्य की प्रकृति वास्तव में क्या है। क्या धोखा देना ही इस प्रकृति का सार है? बहुत कम लोग ही मनुष्य की प्रकृति का सार स्पष्ट रूप से समझ पाते हैं। निस्संदेह, कुछ लोगों में थोड़ी-सी अंतरात्मा और अपेक्षाकृत अच्छी मानवता होती है, तो कुछ में कोई मानवता नहीं होती, लेकिन चाहे किसी में अच्छी मानवता हो या बुरी, या चाहे वह खूब काबिल हो या कम काबिल हो, इनमें एक समान बात यह है कि ये सब परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। मनुष्य की प्रकृति मूलतः परमेश्वर को धोखा देने की है। तुम लोग सोचा करते थे, “चूँकि शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए मनुष्य प्रकृतिवश परमेश्वर को धोखा देते हैं, इसलिए धीरे-धीरे बदलने के सिवाय मैं इस मामले में और कुछ नहीं कर सकता।” क्या तुम लोग अभी भी इसी तरह सोचते हो? तो तुम्हीं बताओ, क्या कोई भ्रष्ट हुए बिना भी परमेश्वर को धोखा दे सकता है? लोग भ्रष्ट हुए बिना भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। जब परमेश्वर ने मनुष्यों को बनाया, उसने उन्हें स्वतंत्र इच्छा दी। मनुष्य विशेष रूप से नाजुक हैं; उनमें यह जन्मजात इच्छा नहीं होती कि वे परमेश्वर के करीब आकर कहें, “परमेश्वर हमारा सृष्टिकर्ता है, और हम सृजित प्राणी हैं।” मनुष्यों में ऐसी कोई संकल्पना नहीं होती है। उनमें स्वाभाविक रूप से सत्य का अभाव होता है, न उनमें परमेश्वर की आराधना करने जैसा कोई भाव होता है। परमेश्वर ने मनुष्यों को स्वतंत्र इच्छा दी है, उन्हें सोचने की अनुमति दी है, लेकिन लोग सत्य नहीं स्वीकारते, परमेश्वर को बिल्कुल भी नहीं जानते, और वे नहीं जानते कि उसके प्रति समर्पण कैसे करें और उसकी आराधना कैसे करें। मनुष्यों में ये चीजें नहीं होतीं, इसलिए वे भ्रष्ट हुए बिना भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। क्यों कहें कि तुम परमेश्वर को धोखा देने में सक्षम हो? जब शैतान तुम्हें ललचाने आता है, तुम शैतान का अनुसरण करते हो और परमेश्वर को धोखा देते हो। तुम्हें परमेश्वर ने बनाया लेकिन तुम उसका अनुसरण नहीं करते, उसके बजाय शैतान का अनुसरण करते हो—क्या यह तुम्हें गद्दार नहीं बनाता? परिभाषा के अनुसार गद्दार वह होता है, जो धोखा देता है। क्या तुम इसका सार पूरी तरह से समझते हो? इसलिए, परमेश्वर को लोग कभी भी और कहीं भी धोखा दे सकते हैं। लोग परमेश्वर को धोखा सिर्फ तब नहीं देंगे जब वे पूरी तरह परमेश्वर के राज्य और उसके प्रकाश में रहेंगे, जब शैतान का सब कुछ नष्ट हो जाएगा और जब उन्हें पाप करने के लिए ललचाने या लुभाने वाली कोई चीज नहीं होगी। अगर उन्हें पाप करने के लिए लुभाने वाली कोई भी चीज है तो वे अभी भी परमेश्वर को धोखा देने में सक्षम होंगे। इसलिए मनुष्य निकम्मे हैं। कुछ वचन और सिद्धांत बघार लेने भर से तुम्हें लग सकता है कि तुम कुछ सत्य समझते हो और परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकते, इसलिए तुम्हें कम से कम मिट्टी के बर्तनों से अधिक मूल्यवान समझा जाना चाहिए, सोने-चाँदी की तरह न सही, काँसा या लोहा तो मानना ही चाहिए, लेकिन तुम खुद को जरूरत से ज्यादा ऊँचा आँकते हो। क्या तुम जानते हो कि मनुष्य वास्तव में क्या हैं? परमेश्वर को लोग कभी भी और कहीं भी धोखा दे सकते हैं, उनकी कीमत धेले भर नहीं है; जैसा कि परमेश्वर ने कहा : मनुष्य जानवर हैं, निकम्मे दुष्ट हैं। लेकिन अपने हृदय में लोग इस तरह से नहीं सोचते। वे सोचते हैं, “मुझे नहीं लगता कि मैं निकम्मा दुष्ट हूँ। मैं इस मामले की थाह क्यों नहीं ले सकता? मैंने इसका अनुभव कैसे नहीं किया है? परमेश्वर में मेरा सच्चा विश्वास है; मुझमें आस्था है, इसलिए मैं परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकता। परमेश्वर के वचन बिल्कुल सत्य हैं, लेकिन मैं इस वाक्यांश को नहीं समझ सकता, ‘परमेश्वर को लोग कभी भी और कहीं भी धोखा दे सकते हैं।’ मैं पहले ही परमेश्वर का प्रेम देख चुका हूँ; मैं उसे कभी धोखा नहीं दे सकता।” लोग अपने हृदय में ऐसा ही सोचते हैं, लेकिन परमेश्वर के वचन सत्य हैं, उन्हें ऐसे ही हवा में नहीं बोला गया है। तुम लोगों के सामने हर मामला स्पष्ट कर दिया गया है, तुम्हें पूरी तरह से समझा दिया गया है; सिर्फ इसी तरह से तुम लोग अपनी भ्रष्टता पहचान सकोगे और धोखा देने की समस्या का समाधान कर सकोगे। परमेश्वर के राज्य में कोई विश्वासघात नहीं होगा; जब लोग परमेश्वर के प्रभुत्व में रहते हैं और शैतान के नियंत्रण में नहीं होते तो वे वास्तव में स्वतंत्र होते हैं। तब परमेश्वर को धोखा देने के बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं होगी; ऐसी चिंता फिजूल और गौण होगी। भविष्य में यह घोषणा की जा सकती है कि तुम लोगों में ऐसी कोई चीज नहीं है जो परमेश्वर को धोखा दे, लेकिन फिलहाल ऐसी स्थिति नहीं है। क्योंकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव है, इसलिए वे कभी भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। ऐसा नहीं है कि कुछ विशेष परिस्थितियाँ ही विश्वासघात की तरफ ले जाती हैं, और ये विशेष परिस्थितियाँ या दबाव न होने पर तुम परमेश्वर को धोखा नहीं दोगे—बिना दबाव के भी तुम उसे धोखा दे सकते हो। यह मनुष्य के भ्रष्ट सार की समस्या है, मनुष्य की प्रकृति की समस्या है। भले ही तुम अभी कुछ सोच या कर नहीं रहे हो, तुम्हारी प्रकृति की वास्तविकता का अस्तित्व वास्तव में है, और इसे कोई मिटा नहीं सकता। चूँकि तुम्हारे अंदर परमेश्वर को धोखा देने की प्रकृति है; परमेश्वर तुम्हारे हृदय में नहीं है; तुम्हारे अंतरतम में न तो परमेश्वर के लिए कोई जगह है, न सत्य की उपस्थिति है; इस तरह तुम कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हो। फरिश्तों की बात अलग है; उनमें परमेश्वर का स्वभाव या सार तो नहीं होता, लेकिन वे पूरी तरह परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाते हैं क्योंकि उन्हें परमेश्वर ने विशेष रूप से अपनी सेवा के लिए बनाया है, हर जगह अपने आदेश पूरे कराने के लिए बनाया है। वे पूरी तरह से परमेश्वर के हैं। जहाँ तक मनुष्यों की बात है, परमेश्वर ने चाहा कि वे धरती पर रहें, लेकिन अपनी आराधना करने की योग्यता उन्हें नहीं दी। इसलिए मनुष्य परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं और उसका विरोध कर सकते हैं। इससे साबित होता है कि मनुष्यों को कोई भी इस्तेमाल कर सकता है और चुनौती दे सकता है; उनकी अपनी कोई संप्रभुता नहीं है। मनुष्य ऐसे प्राणी हैं, जिनकी कोई गरिमा नहीं है और वे निकम्मे हैं!

परमेश्वर लोगों की धोखेबाज प्रकृति को उजागर इसलिए करता है कि वे इस मसले की और अपनी सच्ची समझ पा सकें। इस पहलू से लोग खुद को बदलना शुरू कर अभ्यास का मार्ग खोजने का प्रयास कर सकते हैं, यह समझ सकते हैं कि वे किन चीजों में परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं और उनके कौन-से भ्रष्ट स्वभाव उन्हें परमेश्वर को धोखा देने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। एक बार तुम उस मुकाम पर पहुँच जाते हो जहाँ तुम बहुत से पहलुओं में परमेश्वर के प्रति विद्रोह नहीं करते और अधिकतर पहलुओं में उसे धोखा नहीं देते, तो जब तुम अपने जीवन की यात्रा के अंत पर पहुँचोगे, जब परमेश्वर का कार्य पूरा हो चुका होगा, तुम्हें इस बारे में और चिंता करने की जरूरत नहीं होगी कि क्या तुम भविष्य में परमेश्वर को धोखा दे सकते हो या नहीं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? शैतान के हाथों भ्रष्ट होने से पहले लोग उसके बहकावे में आकर परमेश्वर को धोखा दे देते थे। जब शैतान नष्ट हो जाएगा, तो क्या लोग परमेश्वर को धोखा देना बंद नहीं कर देंगे? वह समय अभी नहीं आया है। लोगों के अंदर अभी भी शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है, वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा देने में सक्षम हैं। एक बार तुमने एक निश्चित चरण तक जीवन का अनुभव कर लिया, जहाँ तुमने परमेश्वर को धोखा देने और उसका विरोध करने के बारे में गलत विचार, धारणाएँ और कल्पनाएँ छोड़ दीं; तुमने सत्य समझ लिया, तुम्हारे हृदय में बहुत सारी सकारात्मक चीजें आ गईं; तुम खुद को और अपने क्रियाकलापों को वश में रख सकते हो; और तुम अब अधिकतर स्थितियों में परमेश्वर को धोखा नहीं देते, तो जब शैतान नष्ट हो जाएगा, तब तुम पूरी तरह बदल जाओगे। परमेश्वर के कार्य का वर्तमान चरण मनुष्य के विश्वासघात और विद्रोह का समाधान करने के लिए है। भविष्य की मानवजाति परमेश्वर को धोखा नहीं देगी क्योंकि शैतान को निपटाया जा चुका होगा। शैतान द्वारा मानवजाति को गुमराह और भ्रष्ट करने के मामले नहीं आएँगे; तब यह मामला मानवजाति से संबंधित नहीं रहेगा। अभी, लोगों को मनुष्य की धोखा देने वाली प्रकृति को समझने के लिए कहा जा रहा है, जो अत्यंत महत्व का मुद्दा है। यहीं से तुम लोगों को शुरुआत करनी चाहिए। परमेश्वर को धोखा देने की प्रकृति का संबंध किससे है? धोखा देने के खुलासे कैसे होते हैं? लोगों को कैसे चिंतन करना और समझना चाहिए? उन्हें कैसे अभ्यास और प्रवेश करना चाहिए? यह सब स्पष्ट रूप से देखना और समझना चाहिए। जब तक किसी के अंदर धोखा देने की प्रकृति मौजूद रहती है, वह कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकता है। ऐसे लोग भले ही खुलेआम परमेश्वर को न नकारें या उससे विद्रोह न करें, तो भी वे बहुत-सी ऐसी चीजें कर सकते हैं जिन्हें लोग धोखा नहीं मानते, लेकिन मूलतः वे धोखा ही हैं। इसका मतलब है कि लोगों के पास कोई स्वायत्तता नहीं है; शैतान ने उन पर पहले ही कब्जा कर लिया है। अगर तुम भ्रष्ट हुए बिना परमेश्वर को धोखा दे सकते हो, तो अब जबकि तुम शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से ओतप्रोत हो तो कितना ज्यादा धोखा दे सकते हो? क्या तुम अब परमेश्वर को कहीं भी और कभी भी धोखा देने में और ज्यादा सक्षम नहीं हो? वर्तमान कार्य उन भ्रष्ट स्वभावों से पीछा छुड़ाने और उन चीजों को कम करने का है, जिनके कारण तुम परमेश्वर को धोखा देते हो, ताकि तुम्हें परमेश्वर द्वारा अपनी उपस्थिति में पूर्ण बनाने और स्वीकार किए जाने के और अवसर मिलें। जैसे-जैसे तुम्हें विभिन्न मामलों में परमेश्वर के कार्य का अनुभव होगा, तुम कुछ सत्य प्राप्त करने और कुछ हद तक पूर्ण होने में सक्षम हो जाओगे। अगर शैतान और राक्षस अभी भी तुम्हें ललचाने आते हैं, या दुष्ट आत्माएँ तुम्हें गुमराह और परेशान करने आती हैं, तो तुम विवेक का कुछ इस्तेमाल कर लोगे और इस प्रकार परमेश्वर को धोखा देने वाले तरीकों से कम पेश आओगे। यह चीज लोगों के अंदर समय के साथ विकसित होती है। जब शुरू में मनुष्यों को बनाया गया था तो वे परमेश्वर के प्रति समर्पण या उसकी आराधना करना नहीं जानते थे, न वे यह जानते थे कि उसे धोखा देना क्या होता है। जब शैतान उन्हें फुसलाने आया, तो उन्होंने उसका अनुसरण करके परमेश्वर को धोखा दिया, वे गद्दार बन गए, क्योंकि वे अच्छाई और बुराई में फर्क नहीं कर पाते थे, और उनमें परमेश्वर की आराधना करने की योग्यता नहीं थी—उससे भी कम उन्हें यह समझ थी कि मानवजाति का सृष्टिकर्ता परमेश्वर है और उसकी आराधना कैसे करनी चाहिए। अब परमेश्वर अपना ज्ञान कराने वाले सत्य—उसका सार, स्वभाव, सर्वशक्तिमत्ता, व्यावहारिकता, आदि—लोगों के अंदर ढालकर उन्हें बचाता है ताकि ये उनका जीवन बन सकें, और उन्हें स्वायत्तता देकर सत्य के अनुसार जीने के लायक बनाता है। जितनी गहराई से तुम परमेश्वर के वचनों और उसके न्याय और ताड़ना का अनुभव करते हो, उतनी ही गहराई से तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझोगे, और यह तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करने, उससे प्रेम करने और उसे संतुष्ट करने का संकल्प देगा। जितना ज्यादा तुम परमेश्वर को जानोगे, अपना भ्रष्ट स्वभाव उतना ही ज्यादा त्याग सकोगे, और तुम्हारे अंदर ऐसी बहुत कम चीजें बचेंगी जो परमेश्वर को धोखा देती हैं और ऐसी चीजें ज्यादा होंगी जो उसके अनुरूप हैं, इस तरह से तुम शैतान को पूरी तरह परास्त कर विजय प्राप्त कर लोगे। सत्य के साथ लोग स्वायत्तता प्राप्त करेंगे और अब उन्हें शैतान न तो गुमराह कर पाएगा, न विवश कर पाएगा, और वे सच्चा मानव जीवन जिएँगे। कुछ लोग पूछते हैं : “अगर मनुष्य के अंदर भ्रष्ट प्रकृति है और वह कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकता है, तो परमेश्वर कैसे कह सकता है कि वह मनुष्य को पूर्ण किया है?” पूर्ण करने का मतलब है कि परमेश्वर के कार्यों का अनुभव करके लोग परमेश्वर को और अपनी प्रकृति को जान लेते हैं, वे समझ जाते हैं कि परमेश्वर की आराधना कैसे करनी है और उसके प्रति समर्पण कैसे करना है। वे परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य में अंतर कर सकते हैं, पवित्र आत्मा के कार्य और दुष्ट आत्माओं के कार्य के बीच अंतर कर पाते हैं, और यह समझते हैं कि शैतान और राक्षस कैसे परमेश्वर का विरोध करते हैं, कैसे मानवजाति परमेश्वर का विरोध करती है, एक सृजित प्राणी क्या है, और सृष्टिकर्ता कौन है। ये सारी चीजें लोगों के अंदर उनके सृजन के बाद परमेश्वर के कार्य के माध्यम से जुड़ती हैं। इसलिए, अंत में पूर्ण किए गए मनुष्य उन मनुष्यों की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण और मूल्यवान हैं जिन्हें शुरू में भ्रष्ट नहीं किया गया था, क्योंकि परमेश्वर ने इनमें कुछ जोड़ा है, उनके अंदर कुछ गढ़ा है। इसलिए, अंत में तैयार किए गए मनुष्यों में आदम और हव्वा से ज्यादा स्वायत्तता है, साथ ही उन्हें इस सत्य की बेहतर समझ है कि खुद कैसा आचरण करना है, और परमेश्वर की आराधना और उसके प्रति समर्पण कैसे करना है। आदम और हव्वा इन चीजों को नहीं जानते थे। जब उन्हें साँप ने लुभाया तो उन्होंने नेकी और बुराई के ज्ञान के पेड़ से फल खा लिया, और इसके बाद उन्हें शर्म का अहसास हुआ, फिर भी वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर की आराधना कैसे करें। तब से अब तक मानवजाति और ज्यादा भ्रष्ट होती गई है। यह बहुत गहन मामला है; कोई भी इसे स्पष्टता से नहीं समझता। मनुष्य देह की सहज प्रवृत्तियों की वजह से लोग कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं, लेकिन अंततः परमेश्वर मनुष्य को पूर्ण करेगा और उन्हें अगले युग में ले जाएगा। यह बात समझना लोगों को मुश्किल लगती है; इसे धीरे-धीरे ही अनुभव किया जा सकता है। एक बार सत्य समझ में आ जाए, तो यह बात सहज रूप से स्पष्ट हो जाएगी।

लोगों के लिए परमेश्वर को जानना क्यों जरूरी है? ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर को जाने बिना लोग उसका विरोध करेंगे। अगर कोई सत्य नहीं समझता, तो वह गुमराह हो सकता है और शैतान और दुष्ट आत्माओं के हाथों इस्तेमाल हो सकता है। वह शैतान के प्रभाव से नहीं बच सकेगा, इस तरह वह उद्धार पाने में विफल हो जाएगा। लेकिन अगर कोई सत्य समझता है, तो उसके पास परमेश्वर का सच्चा ज्ञान होगा, वह उसके प्रति वास्तव में समर्पण कर सकेगा, उसकी गवाही दे सकेगा और उसी का हो जाएगा। शैतान चाहकर भी ऐसे किसी व्यक्ति को गुमराह करने या उसका उत्पीड़न करने में सक्षम नहीं होगा; शैतान के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त होने और उद्धार प्राप्त करने का यही मतलब है, और यही महत्व परमेश्वर की इस अपेक्षा का है कि लोग उसे जानें। अगर तुम परमेश्वर को जानते हो, तो वह तुम्हें बचा सकता है; परमेश्वर को जाने बिना तुम उद्धार नहीं पा सकते। अगर कोई परमेश्वर के इरादों को नहीं समझता और सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं करता, इसके बजाय शैतानी स्वभाव के अनुसार जीता है, और सत्य को थोड़ा-बहुत समझने के बावजूद इसका अभ्यास नहीं करता, जानते हुए भी अपराध करता है, तो वह वास्तव में बचाए जाने लायक नहीं है। तुम लोग अब किस दशा में हो? अगर तुम लोगों के पास अभी थोड़ी-सी भी उम्मीद बची है, तो चाहे परमेश्वर तुम्हारे पुराने अपराध याद रखे या न रखे, तुम्हें कैसी मानसिकता बनाए रखनी चाहिए? “मुझे अपने स्वभाव में बदलाव लाना होगा, परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करना होगा, दोबारा कभी शैतान के बहकावे में नहीं आना होगा, और दोबारा ऐसा कुछ भी नहीं करना होगा जो परमेश्वर के नाम को शर्मसार करे।” लोग अब गहन रूप से भ्रष्ट हैं और किसी काम के नहीं हैं। ऐसे कौन से मुख्य क्षेत्र हैं जिनसे पता चलता है कि उन्हें बचाया जा सकता है या नहीं और उनके लिए कोई उम्मीद बची है या नहीं? मुख्य बात है, किसी उपदेश को सुनने के बाद तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो या नहीं और तुम बदल सकते हो या नहीं। यही मुख्य क्षेत्र हैं। अगर तुम सिर्फ पछताते रहते हो और जब कुछ करने का समय आता है तो जो जी में आए वही करते हो, वही पुराने तरीके अपनाए रहते हो, न सिर्फ सत्य की खोज नहीं करते बल्कि अभी भी पुराने विचारों, तौर-तरीकों और विनियमों से चिपके रहते हो, न तो आत्म-चिंतन करते हो, न खुद को जानने का प्रयास करते हो, इसके बजाय और ज्यादा बिगड़ते जा रहे हो, और अभी भी अपने पुराने मार्ग पर चलने की जिद करते हो, तो तुम्हारे लिए कोई उम्मीद नहीं बची होगी, और तुम्हारा पत्ता साफ कर दिया जाना चाहिए। परमेश्वर के बारे में ज्यादा ज्ञान प्राप्त कर और खुद को गहराई से जानकर तुम बुराई या पाप करने से खुद को बेहतर ढंग से रोक सकोगे। अपनी प्रकृति के बारे में तुम्हारा ज्ञान जितना गहन होगा, उतने ही बेहतर तरीके से तुम खुद को बचा सकोगे, और अपने अनुभवों और सबक का सारांश निकालने के बाद तुम दोबारा असफल नहीं होगे। असल तथ्य यह है कि सब में कुछ दोष होते हैं; बात सिर्फ इतनी है कि इनके लिए परमेश्वर उन्हें उत्तरदायी नहीं ठहराता। दोष सब में हैं, अंतर सिर्फ मात्रा का है; कुछ के बारे में बात की जा सकती है, तो कुछ के बारे में नहीं। कुछ लोग ऐसे काम करते हैं जिनके बारे में दूसरे लोग जानते हैं, तो कुछ लोग ऐसे काम करते हैं कि इनके बारे में किसी को पता नहीं चलता। सबके अपने-अपने अपराध और दोष होते हैं, और वे सब कुछ निश्चित भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, जैसे अहंकार या खुदगर्जी; सभी अपने-अपने कार्य में कुछ भटकते हैं या कभी-कभार विद्रोही होते हैं। यह मानी हुई बात है; भ्रष्ट मानवजाति इनसे बच नहीं सकती। लेकिन लोग जब एक बार सत्य समझ लें तो उन्हें इनसे बचने में सक्षम होना चाहिए और आगे से अपराध नहीं करने चाहिए; उन्हें अतीत के अपराधों से और परेशान होने की जरूरत नहीं है। मुख्य बात यह है कि लोग पश्चात्ताप करते हैं या नहीं, वे वास्तव में बदल चुके हैं या नहीं। जो पश्चात्ताप कर बदल जाते हैं उन्हें ही बचाया जाता है, जबकि जो पश्चात्ताप नहीं करते और नहीं बदलते उन्हें निकाल देना चाहिए। अगर सत्य समझने के बाद भी लोग जानबूझकर अपराध करते हैं, अगर वे कितनी भी काट-छाँट होने या चेतावनी मिलने के बावजूद पश्चात्ताप न करने पर अड़े रहते हैं और बिल्कुल भी नहीं बदलते, तो ऐसे लोगों का उद्धार नहीं हो सकता है।

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