स्वयं को जानने के बारे में वचन (अंश 47)
क्या तुम लोग अब स्पष्टता से देख सकते हो कि कैसे परमेश्वर का अनुसरण करना है और कैसे सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना है? परमेश्वर पर विश्वास करना और परमेश्वर का अनुसरण करना वास्तव में किस बारे में है? क्या यह कुछ चीजों को त्यागने, स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाने में सक्षम होने और थोड़े से कष्ट सहने, और मार्ग के अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करने के बारे में है, और बस इतना ही? क्या कोई इस तरह से परमेश्वर का अनुसरण कर सत्य प्राप्त कर सकता है? क्या कोई उद्धार प्राप्त कर सकता है? क्या तुम्हारे हृदय में इन चीजों के प्रति स्पष्टता है? कुछ लोग सोचते हैं कि जब व्यक्ति न्याय किए जाने, ताड़ना दिए जाने, और काट-छाँट किए जाने का अनुभव कर लेता है, या उसका असली रंग सामने आ चुका होता है, तो उसका परिणाम तय हो जाता है, और उसकी नियति में उद्धार की कोई उम्मीद नहीं होती है। बहुत-से लोग इस मामले को स्पष्टता से नहीं देख सकते, वे चौराहे पर पहुँचकर हिचकिचाने लगते हैं, वे नहीं जानते हैं कि इस मार्ग पर आगे कैसे चला जाए। क्या इसका यह मतलब नहीं है कि उनमें अभी भी परमेश्वर के कार्य के सच्चे ज्ञान की कमी है? क्या जो हमेशा परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के मनुष्य का उद्धार करने पर संदेह करते हैं, उनमें जरा भी सच्ची आस्था है? सामान्यतया, जब कुछ लोगों को अभी उनकी काट-छाँट करना बाकी होता है और उन्होंने कोई असफलता नहीं झेली होती है, तो उन्हें लगता है कि उन्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए और अपनी आस्था में परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करना चाहिए। हालाँकि, जैसे ही उन्हें कोई झटका लगता है या कोई मुश्किल सामने आती है, वैसे ही उनकी धोखा देने वाली प्रकृति सामने आ जाती है, जो देखने में घृणित है। उसके बाद, उन्हें भी यह घिनौनी महसूस होती है, और अंततः वे अपने परिणाम का फैसला खुद ही सुना देते हैं, वे कहते हैं, “मेरे लिए सब खत्म हो चुका है! अगर मैं ऐसी चीजें करने में सक्षम हूँ, क्या इसका यह मतलब नहीं कि मेरा काम तमाम हो गया है? परमेश्वर मुझे कभी नहीं बचाएगा।” बहुत-से लोग इसी अवस्था में हैं। यहाँ तक कि यह भी कहा जा सकता है कि सभी लोग ऐसे ही हैं। लोग स्वयं के बारे में इस तरह के फैसले क्यों सुनाते हैं? इससे साबित होता है कि वे अभी भी मानवजाति को बचाने का परमेश्वर का इरादा नहीं समझते हैं। सिर्फ एक बार काट-छाँट किए जाने के कारण तुम लंबे समय तक नकारात्मकता में पड़ सकते हो, जहाँ से बाहर निकलने में तुम असमर्थ हो सकते हो, इस हद तक कि तुम अपना कर्तव्य भी छोड़ सकते हो; यहाँ तक कि एक छोटा-सा परिदृश्य भी तुम्हें इतना डरा सकता है कि तुम सत्य का अब और अनुसरण नहीं कर पाओगे, और फंस जाओगे। यह ऐसा है मानो लोग अपने अनुसरण में सिर्फ तभी तक उत्साही होते हैं जब तक उन्हें लगता है कि वे निष्कलंक और निर्दोष हैं, लेकिन जब उन्हें पता चलता है कि वे बहुत ज्यादा भ्रष्ट हैं, तो उनके पास सत्य का अनुसरण करने की हिम्मत नहीं रह जाती। बहुत-से लोगों ने हताशा और नकारात्मकता वाले शब्द बोले हैं जैसे, “मेरे लिए निश्चित रूप से सब खत्म हो चुका है; परमेश्वर मुझे नहीं बचाएगा। यहाँ तक कि अगर परमेश्वर मुझे क्षमा कर देता है, मैं खुद को माफ नहीं कर सकता; मैं कभी नहीं बदल सकता।” लोग परमेश्वर का इरादा नहीं समझते, जिससे पता चलता है कि वे अभी भी उसका कार्य नहीं जानते हैं। दरअसल, लोगों के लिए यह स्वाभाविक है कि वे अपने अनुभवों के दौरान कभी-कभार कुछ भ्रष्ट स्वभाव जाहिर करें, या मिलावटी तरीके से, या गैर जिम्मेदारी से, या अनमने ढंग से और बिना वफादारी के काम करें। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों के पास भ्रष्ट स्वभाव हैं; यह कठोर कानून है। अगर ऐसे खुलासे नहीं होते, तो उन्हें भ्रष्ट मनुष्य क्यों कहा जाता? अगर मनुष्य भ्रष्ट न हों, तो परमेश्वर के उद्धार के कार्य का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। अब समस्या यह है कि, चूँकि लोग सत्य नहीं समझते या असल में खुद को नहीं समझते, और चूँकि वे अपनी अवस्था स्पष्टता से नहीं देख सकते, उन्हें प्रकाश देखने के लिए आवश्यकता होती है कि परमेश्वर प्रकटीकरण और न्याय के अपने वचन अभिव्यक्त करे। वरना, वे संवेदनहीन और मंदबुद्धि बने रहेंगे। अगर परमेश्वर इस तरह से कार्य न करे, तो लोग कभी नहीं बदलेंगे। हर चरण में तुम लोगों पर चाहे जो भी मुश्किल आए, मैं तुम लोगों के साथ सत्य के बारे में संगति करूँगा, स्पष्टता और मार्गदर्शन प्रदान करूँगा, और तब तक करूँगा जब तक तुम लोग सही मार्ग में प्रवेश करने में सक्षम हो जाओ, इतना काफी है। वरना, लोगों का झुकाव हमेशा अति की ओर रहेगा। वे हमेशा बंद गली वाले मार्ग पर चल देंगे, उनके पास आगे का मार्ग नहीं होगा, और वे चलते हुए खुद पर निर्णय सुनाते जाएँगे। जब लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना शुरू ही करते हैं, तब वे अभी खुद को नहीं समझते। और कई बार असफल होने और प्रकट किए जाने के बाद, वे अंततः खुद पर फैसला सुना देते हैं। वे कहते हैं : “मैं एक दानव हूँ; मैं एक शैतान हूँ! मेरे लिए सब खत्म हो चुका है। मेरे बचाए जाने की कोई संभावना नहीं है। मैं उद्धार से परे हूँ।” लोग वाकई बहुत नाजुक होते हैं और उनसे निपटना काफी कठिन होता है, और जैसे-जैसे वे आगे बढ़ेंगे, चरम सीमा तक गिर जाएंगे। जब लोग नहीं देख सकते कि उनका भ्रष्टाचार इतना गहरा है, कि वे दानव हैं, वे अहंकारी और आत्मतुष्ट बन जाते हैं; वे यही मानते हैं कि उन्होंने अनगिनत मुश्किलों का सामना किया है, और वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं और वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के योग्य हैं। लेकिन, जब लोगों को अपने भ्रष्टाचार की गहराई का एहसास होता है, कि वे मनुष्य की तरह नहीं जी रहे थे, बल्कि वे दानव और शैतान हैं, तो वे खुद को निराशा में डुबो लेते हैं और महसूस करते हैं जैसे कि वे उम्मीद से परे हैं; कि वे जरूर परमेश्वर द्वारा निंदित किए गए होंगे, और प्रकट कर बाहर हटा दिए गए होंगे। लोग जब खुद को नहीं समझते तो वे अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं, और जब खुद को समझ जाते हैं तो वे खुद को निराशा में डुबो लेते हैं। लोग इतनी परेशानी और मुश्किल खड़ी करने वाले होते हैं। अगर वे सत्य स्वीकार सकें, अगर एक दिन वे वास्तव में परमेश्वर का इरादा समझ सकें, तो वे कहेंगे : “मेरा भ्रष्टाचार हमेशा से इतना ज्यादा गहरा था और मैं इसे अंततः पहचान चुका हूँ। सौभाग्य से, परमेश्वर मुझे बचाता है, और अब मैं एक शानदार जिंदगी देख सकता हूँ और जीवन के सच्चे मार्ग पर चल सकता हूँ। मुझे नहीं पता कि मैं कैसे परमेश्वर का धन्यवाद कर सकता हूँ।” यह एक सपने से जागने और प्रकाश को देखने जैसा है। क्या उन्हें महान उद्धार नहीं मिला है? उन्हें परमेश्वर की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए? कुछ लोग तब भी स्वयं को नहीं समझते जब मृत्यु करीब होती है; वे अभी भी अहंकारी होते हैं और तथ्यों द्वारा जो खुलासा होता है उसे स्वीकार नहीं कर पाते। उन्हें लगता है कि वे काफी अच्छे हैं : “मैं एक अच्छा व्यक्ति हूँ; मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ?” ऐसा लगता है जैसे उन पर गलती से आरोप लगाए गए हैं। कुछ लोग कई वर्षों तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं और अंत में, वे अभी भी अपनी प्रकृति नहीं समझ पाते। वे हमेशा सोचते हैं कि वे अच्छे लोग हैं और उन्होंने एक क्षण की दुविधा में गलती की है, यहाँ तक कि इस दिन तक, जब उन्हें हटाया जाता है, वे समर्पण नहीं करते। इस तरह का व्यक्ति बहुत अहंकारी और अज्ञानी होता है और सत्य को स्वीकार नहीं करता। वे कभी भी बदलने और मनुष्य बनने में सक्षम नहीं होंगे। इससे तुम लोग पता लगा सकते हो कि भले ही लोगों की प्रकृति परमेश्वर की प्रतिरोधी और उसे धोखा देने वाली है, पर उनकी प्रकृतियों में अंतर है। इसके लिए मनुष्य की प्रकृतियों की गहरी समझ होनी चाहिए।
लोगों की प्रकृतियों में कुछ निश्चित सामान्य लक्षण होते हैं, जिन्हें समझना जरूरी है। सभी लोग परमेश्वर को धोखा देने में सक्षम हैं—यह एक सामान्य लक्षण है—हालाँकि, हर व्यक्ति की कुछ अपनी मुख्य कमजोरियाँ होती हैं। कुछ लोग सत्ता से प्रेम करते हैं, तो कुछ रुतबे से; कुछ धन की पूजा करते हैं, जबकि बाकी भौतिक सुखों की पूजा करते हैं। ये लोगों की प्रकृतियों के अंतर हैं। कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करने के बाद बहुत-सी मुश्किलें झेलते हुए भी मजबूती से खड़े रहने में सक्षम होते हैं, जबकि बाकी लोग थोड़ी-सी कठिनाई का सामना होते ही नकारात्मक बन जाते हैं, शिकायत करते हैं, और मजबूती से खड़े रहने में नाकाम रहते हैं। तो, फिर ऐसा क्यों है कि, उन दोनों के परमेश्वर में विश्वास करने, और दोनों के परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के बावजूद, जब उन पर कोई विपदा आती है तो उनकी प्रतिक्रिया भिन्न होती है? इससे पता चलता है कि, भले ही गहराई तक भ्रष्ट सभी मनुष्यों में शैतान की प्रकृति है, लेकिन उनकी मानवता की गुणवत्ता भिन्न होती है। कुछ लोग सत्य से विमुख हैं और सत्य से घृणा करते हैं, जबकि अन्य इससे प्रेम करने और इसे स्वीकार करने में सक्षम हैं। कुछ लोगों में भ्रष्ट स्वभावों का प्रदर्शन बहुत गंभीर होता है, जबकि दूसरों का प्रदर्शन कम गंभीर होता है। कुछ लोग ज्यादा दयालु हृदय वाले होते हैं, जबकि अन्य बहुत दुष्ट होते हैं। हालाँकि उनकी बातें, व्यवहार, और अभिव्यक्तियाँ अलग हो सकती हैं, लेकिन उनका भ्रष्ट स्वभाव एक ही है; वे सभी शैतान के भ्रष्ट मनुष्य हैं। यह उनके बीच सामान्य लक्षण है। किसी व्यक्ति की प्रकृति परिभाषित करती है कि वह कौन है। हालाँकि हर व्यक्ति की प्रकृति के संदर्भ में समानताएँ होती हैं, लेकिन हर व्यक्ति के साथ उसके सार के अनुसार व्यवहार किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, बुरी वासनाएँ सभी लोगों में सामान्य लक्षण हैं। हर किसी में यह चीजें होती हैं और उनसे आसानी से पार नहीं पाया जा सकता। हालाँकि, कुछ लोगों में इसे लेकर विशेष रूप से मजबूत झुकाव होता है। जब भी ऐसे लोगों का सामना विपरीत लिंग से जुड़े प्रलोभनों से होता है, वह उनके आगे झुक जाते हैं। उनके हृदय वशीभूत हो जाते हैं और वे प्रलोभनों में फंस जाते हैं; वे किसी भी वक्त दूसरे व्यक्ति के साथ भागने और परमेश्वर को धोखा देने के लिए तैयार रहते हैं। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि ऐसे लोगों की बुरी प्रकृति है। जब कुछ लोग इस तरह की चीजों का सामना करते हैं, तो भले ही वे कुछ कमजोरियाँ दिखाएँ या बुरी वासनाओं का प्रदर्शन करें, वे मर्यादा से बाहर नहीं जाएँगे। वे संयम बरतने और इस तरह की स्थिति से बचकर रहने में सक्षम हैं; वे देह सुख के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हैं और प्रलोभन से दूर रह सकते हैं। इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी प्रकृति बुरी है। मनुष्य देह में रहते हैं, इसलिए उनकी बुरी वासनाएँ होती हैं; लेकिन कुछ लोग मनमाने और उतावले होते हैं, वे अपनी वासना में लिप्त रहते हैं, ऐसी चीजें भी करते हैं जिससे कलीसिया के कार्य में बाधा पड़ती है और गड़बड़ी होती है। हालाँकि, कुछ लोग ऐसे नहीं हैं। वे सत्य का अनुसरण करने और इसके अनुसार चलने में सक्षम हैं, और वे देह सुख के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हैं। हालाँकि सभी लोगों में देह की वासनाएँ होती हैं, लेकिन वे इस तरह से व्यवहार नहीं करते। इस तरह से लोगों के प्रकृति सार में भिन्नता होती है। कुछ लोग धन के लालची होते हैं। जब भी वे धन या अच्छी चीज देखते हैं, वे उन्हें अपने लिए लेना चाहते हैं। उनके अंदर इन चीजों को हासिल करने की विशेष रूप से एक मजबूत इच्छा होती है। ऐसे लोग प्रकृति से लालची होते हैं। जो भी भौतिक संपत्तियाँ वे देखते हैं उनका लोभ करते हैं, और यहाँ तक कि वे परमेश्वर के चढ़ावे को चुराने या इसका दुरुपयोग करने की भी कोशिश करते हैं—वे हजारों या लाखों रुपयों की रकम को छूने की भी हिम्मत करते हैं। जितना ज्यादा धन होता है, वे उतने ही साहसी बन जाते हैं। उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय बिल्कुल नहीं होता। यह लालची प्रकृति है। कलीसिया के धन के कुछ रुपये या कुछ दर्जन भर रुपये खर्च करने के बाद कुछ लोगों की अंतरात्मा असहज हो जाती है। वे परमेश्वर के सामने तुरंत घुटने टेककर पश्चाताप के आँसुओं के साथ प्रार्थना करने लगते हैं, परमेश्वर से क्षमा की भीख माँगते हैं। हम नहीं कह सकते कि ऐसे लोग धन के लालची हैं, क्योंकि हर किसी के पास भ्रष्ट स्वभाव और कमजोरियाँ हैं, और इन लोगों की वास्तव में पश्चाताप करने की क्षमता बताती है कि उनके कार्यकलाप सिर्फ उनके भ्रष्ट स्वभाव का सामने आना था। कुछ लोग दूसरों के बारे में आलोचनात्मक होते हैं। वे कहेंगे, “चूँकि इस व्यक्ति ने इस बार कलीसिया के कुछ रुपये खर्च किए हैं, अगली बार वह बहुत सारे रुपये खर्च कर सकता है। वह निश्चित रूप से ऐसा व्यक्ति है जो चढ़ावा चुराता है और उसे बाहर कर देना चाहिए।” इस तरीके से बोलने में थोड़ी सी आलोचनात्मक प्रकृति होती है। लोगों के स्वभाव भ्रष्ट होते हैं, इसलिए वे निश्चित रूप से अपने भ्रष्टाचार का खुलासा करेंगे और बहुत-सी बुरी चीजें करेंगे। यह सामान्य है, लेकिन किसी व्यक्ति का अपने भ्रष्टाचार का खुलासा करना, किसी में बुरे व्यक्ति की प्रकृति होने के समान नहीं है। हालाँकि इन दोनों प्रकार के लोग कुछ एक जैसी चीजें कर सकते हैं, लेकिन वे प्रकृति में अलग हैं। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलता है और ईमानदार व्यक्ति बनना चाहता है, वह अनिवार्य रूप से समय-समय पर झूठ बोलता है, छल या चालाकी करता है, जबकि झूठ बोलना और छल करना दानव की प्रकृति का हिस्सा हैं, दानव हर समय और हर बात में झूठ बोलेगा। हालाँकि दोनों ही झूठ बोलने वाले व्यवहार का प्रदर्शन कर सकते हैं, लेकिन दानव का सार और जो कोई सत्य का अनुसरण करता है, उन दोनों के सार मूलरूप से अलग हैं। तो, क्या यह उचित है, सिर्फ क्षणिक रूप से भ्रष्टाचार दिखाने के कारण, जो लोग ईमानदार बनना चाहते हैं उन्हें दानव या शैतान के रूप में चिह्नित कर दिया जाए? झूठ बोलने या दूसरों के साथ छल करने का अपराध करने का यह मतलब नहीं है कि वे दानव हैं जो हमेशा झूठ बोलते हैं और दूसरों के साथ छल करते हैं। क्योंकि लोगों के प्रकृति सार एक समान नहीं हैं, हम उन्हें एक साथ नहीं रख सकते। क्षणिक अपराध करने वाले किसी व्यक्ति की तुलना दानव से करना मनमाने ढंग से आलोचना और निंदा करने का एक रूप है। यही चीज लोगों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाती है। अगर तुम्हारे अंदर विवेक की कमी है और तुम चीजें स्पष्टता से नहीं देख सकते, तो तुम्हें बिना सोचे नहीं बोलना चाहिए या अंधाधुंध विनियमों को लागू नहीं करना चाहिए, वरना तुम दूसरों को नुकसान पहुँचाओगे। जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ की कमी है और विनियमों से चिपके रहना पसंद करते हैं, उनके दूसरों की आलोचना और निंदा करने की संभावना सबसे ज्यादा होती है। जो लोग सत्य नहीं समझते, वे सिद्धांतों के बिना ही बोलते और कार्य करते हैं, और जो लोग लापरवाही से बोलते हैं और मनमाने ढंग से दूसरों की आलोचना और निंदा करते हैं, वे न तो अपना भला करते हैं और न ही दूसरों का।
तुम लोग अपने हृदय में नहीं जानते कि परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होने के लिए व्यक्ति को परमेश्वर में अपने विश्वास में किस लक्ष्य तक पहुँचना चाहिए। बहुत कम लोग परमेश्वर पर पूरी तरह उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप विश्वास करने में सक्षम होते हैं। तुम लोगों के साथ बहुत सारी समस्याएं हैं, और शायद तुम्हें अभी तक उनका एहसास नहीं हुआ है और तुम उनके बारे में स्पष्ट नहीं हो। यह दिखाता है कि तुम लोग अभी भी सत्य नहीं समझते हो, तुम आत्मचिंतन करने में अक्षम हो, और तुमने अभी तक अपना खुलासा नहीं किया है, और अपने अंदर मौजूद अपनी प्रकृति के विभिन्न विचारों और पहलुओं का विश्लेषण करने में अभी भी अक्षम हो। किसी दिन, जब तुम लोग बहुत-से धर्म उपदेश सुन चुके होगे, और तुम्हें अनुभव हो जाएगा, तब तुम लोग सत्य समझ जाओगे। सिर्फ तब ही तुम लोग सच्चे आत्म-ज्ञान के योग्य हो पाओगे। यद्यपि तुम लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हो, तुमने अभी तक अपने भ्रष्ट स्वभावों को नहीं त्यागा है, और तुम्हारी प्रकृति के अंदर बहुत-सी सतही चीजें हैं, तुम अभी भी अच्छे कपड़े पहनना और अच्छी चीजों का आनंद लेना पसंद करते हो। जब कुछ लोग अच्छे कपड़े पहनते हैं, या अच्छा मोबाइल फोन ले लेते हैं, उनके सुर ही बदल जाते हैं; जब कुछ महिलाएं ऊँची एड़ी के जूते पहनती हैं, उनकी चाल बदल जाती है, और उन्हें अब पता नहीं होता कि वे कौन हैं। जब यह बात आती है कि लोग अपने हृदय में किन चीजों को रखते हैं, और वह कौन-सी प्रकृति है जो उन्हें इन दुष्ट, भद्दी और सतही चीजों का खुलासा करने को मजबूर करती है, तो लोगों को अपने भ्रष्ट स्वभावों और अपनी स्वयं की प्रकृति के अंदर की चीजों को जानने की जरूरत होती है। हालाँकि लोग इन भ्रष्ट स्वभावों को महसूस कर सकते हैं, वे उनका समाधान नहीं कर सकते, वे उन्हें नियंत्रित करने और बाहरी रूप में उन्हें जाहिर करने से रोकने के लिए सिर्फ अपनी स्वयं की इच्छा पर निर्भर रह सकते हैं। जैसे-जैसे उनके अनुभव गहरे होते जाते हैं, जैसे-जैसे उनकी प्रकृति और सत्य के सभी पहलुओं के बारे में उनका ज्ञान बढ़ता जाता है, और जैसे-जैसे वे धीरे-धीरे परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझते हैं और उनमें प्रवेश करते हैं, वैसे-वैसे लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और उनकी प्रकृति के पहलू धीरे-धीरे बदलने लगते हैं। पहले, उनका आत्म-ज्ञान बहुत तुच्छ होता है। वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को स्वीकार कर सकते हैं, लेकिन वे सत्य की खोज करने और अपने भ्रष्टाचार का सार जानने में सक्षम नहीं होते। जब वे थोड़ा-सा ज्ञान प्राप्त करते हैं, वे कड़ी मेहनत के माध्यम से खुद को नियंत्रित करना चाहते हैं और देह सुख के विरुद्ध विद्रोह करना चाहते हैं और परिणाम प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन उनकी कोशिशें बेकार चली जाती हैं, और वे अभी भी अपनी समस्या का मूल नहीं देख पाते। जब बाद में वे वास्तव में सत्य समझते हैं, और अपने भ्रष्ट स्वभाव को पूरी तरह से जान लेते हैं, तब वे खुद से घृणा करने लगते हैं। उस समय पर, उन्हें देह सुख के विरुद्ध विद्रोह करने में बहुत ज्यादा प्रयास नहीं करने पड़ते, वे सक्रिय रूप से सत्य का अभ्यास कर सकते हैं, और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं। यद्यपि, कभी-कभी, वे पूरी तरह से सत्य नहीं समझते हैं, लेकिन कम से कम वे अंतरात्मा और तर्क के आधार पर पेश तो आ सकते हैं। जब लोग पहले-पहल परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना शुरू करते हैं, वे सभी परेशानियों का सामना करते हैं; क्योंकि वे सत्य नहीं समझते, और सिद्धांतों को आधार के रूप में लेना नहीं जानते, वह हमेशा पूछते हैं कि इस चीज को या उस चीज को कैसे किया जाए, और वे सिर्फ विनियमों के अनुसार चल सकते हैं। इसके अलावा, मनुष्य हमेशा नकारात्मक दशाओं द्वारा बाधित किए जाते हैं, और कई बार उनके पास आगे बढ़ने का कोई मार्ग नहीं होता। जब नकारात्मक दशाओं की बात होती है, तो लोगों को उन दशाओं का संगति के साथ समाधान करना चाहिए जिनका समाधान संगति के साथ किया जा सकता है। जिनका समाधान संगति के माध्यम से नहीं किया जा सकता, उन्हें तुम नजरअंदाज कर सकते हो। तुम्हें इसके बजाय सामान्य रूप से अभ्यास करने और प्रवेश करने पर ध्यान देना चाहिए, और सत्य पर ज्यादा संगति करनी चाहिए। एक दिन, जब तुम स्पष्टता के साथ सत्य समझ जाओगे, और बहुत-सी चीजों की असलियत देख लोगे, तब तुम्हारी नकारात्मक दशाएं स्वाभाविक रूप से गायब हो जाएँगी। क्या तुम लोगों की पुरानी नकारात्मक दशाएँ अभी तक गायब नहीं हुई हैं? कम से कम, तुम पहले की तुलना में उनका बहुत कम अनुभव करते हो। सिर्फ सत्य का अनुसरण करने में कड़ी मेहनत करने पर ध्यान दो, और तुम लोग अपनी सभी समस्याओं का समाधान करने में सक्षम हो जाओगे। जब तुम अपनी समस्याओं का समाधान कर लोगे, तब तुमने तरक्की कर ली होगी और तुम्हारा विकास हो चुका होगा। जब लोग उस दिन तक अनुभव करते हैं जब तक जीवन के बारे में उनका दृष्टिकोण और उनके अस्तित्व का अर्थ एवं आधार पूरी तरह से बदल नहीं जाते हैं, जब उनका सब कुछ परिवर्तित नहीं हो जाता और वे कोई अन्य व्यक्ति नहीं बन जाते हैं, क्या यह अद्भुत नहीं है? यह एक बड़ा परिवर्तन है; यह एक ऐसा परिवर्तन है जो सब कुछ उलट-पुलट कर देता है। केवल जब दुनिया की कीर्ति, लाभ, पद, धन, सुख, सत्ता और महिमा में तुम्हारी रुचि ख़त्म हो जाती है और तुम आसानी से उन्हें छोड़ पाते हो, केवल तभी तुम एक मनुष्य के समान बन पाओगे। जो लोग अंततः पूर्ण किये जाएंगे, वे इस तरह के एक समूह होंगे। वे सत्य के लिए, परमेश्वर के लिए और धार्मिकता के लिए जीएँगे। यही एक मनुष्य के समान होना है।
कुछ लोग पूछेंगे, “मनुष्य वास्तव में क्या है?” आजकल के लोगों में कोई भी मनुष्य नहीं है। अगर वे मनुष्य नहीं हैं, तो वे क्या हैं? तुम कह सकते हो कि वे पशु, जानवर, शैतान या दानव हैं; बात चाहे जो हो, वे सिर्फ मनुष्य की खाल ओढ़े हैं, लेकिन उन्हें मनुष्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनके पास सामान्य मानवता नहीं है। उन्हें पशु कहना ज्यादा सही रहेगा, लेकिन लोगों के पास भाषा, दिमाग और विचार होते हैं, और लोग विज्ञान और निर्माण में शामिल हो सकते हैं, इसलिए उन्हें उच्च पशुओं के तौर पर ही सूचीबद्ध किया जा सकता है। हालाँकि, लोगों को शैतान द्वारा बहुत गहराई तक भ्रष्ट किया जा चुका है, वे अपनी अंतरात्मा और तर्कबुद्धि बहुत पहले ही खो चुके हैं, और वे परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते और परमेश्वर का भय बिल्कुल नहीं मानते। उन्हें दानव और शैतान कहना पूरी तरह से उचित है। क्योंकि उनकी प्रकृति शैतान की है, और वे शैतानी स्वभावों का खुलासा करते हैं, और शैतानी विचार व्यक्त करते हैं, उन्हें दानव और शैतान कहना ज्यादा सटीक है। लोग बहुत ही ज्यादा गहराई तक भ्रष्ट किए जा चुके हैं और वे मनुष्य के सदृश नहीं है। वे पशुओं और जानवरों की तरह हैं, वे दानव हैं। अभी इस समय, लोग एक चीज या दूसरी चीज नहीं हैं, वे ना तो मनुष्यों से, ना ही राक्षसों से मेल खाते हैं, और उनके पास मनुष्य की सच्ची सादृश्यता भी नहीं है। बहुत-से वर्षों के अनुभव के बाद, कुछ दीर्घकालीन विश्वासी परमेश्वर के साथ थोड़ी आत्मीयता प्राप्त कर लेते हैं, और परमेश्वर को कमोबेश थोड़ा-बहुत समझ सकते हैं, और उन चीजों के बारे में थोड़ी-बहुत चिंता कर सकते हैं जिनके बारे में परमेश्वर चिंता करता है, और उन चीजों के बारे में थोड़ा-बहुत सोच सकते हैं जिनके बारे में परमेश्वर सोचता है—इसका मतलब है कि उनके पास मनुष्य का थोड़ा सा रूप है, और वे अर्ध-निर्मित हैं। नए विश्वासियों ने अभी तक ताड़ना और न्याय, या अधिक काट-छाँट का अनुभव नहीं किया है, उन्होंने सत्य भी ज्यादा नहीं सुना है, उन्होंने बस परमेश्वर के वचन ही पढ़े हैं, लेकिन उनके पास कोई असली अनुभव नहीं है। परिणामस्वरूप, वे मानक से बहुत दूर होते हैं। एक व्यक्ति के अनुभव की गहराई तय करती है कि वह कितना बदल सकता है। परमेश्वर के वचनों का तुम जितना कम अनुभव करोगे, तुम उतना ही कम सत्य समझोगे। अगर तुम्हारे पास कोई अनुभव नहीं है, तो तुम अक्षुण्ण, जीते-जागते शैतान हो, और तुम एक दानव हो, यह सीधी-सरल बात है। क्या तुम इसमें विश्वास करते हो? तुम एक दिन उन वचनों को समझ जाओगे। क्या अब कोई अच्छे लोग भी हैं? अगर लोगों के पास मनुष्य का रूप नहीं है, तो हम उन्हें मनुष्य कैसे बोल सकते हैं? उन्हें अच्छे लोग कहने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। उनके पास मनुष्य का सिर्फ आवरण है, लेकिन उनके पास मनुष्य का सार नहीं है, उन्हें मनुष्य की खाल ओढ़े जानवर कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अगर कोई परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए मनुष्य की सादृश्यता वाला व्यक्ति बनना चाहता है, तो उसे परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन, ताड़ना और न्याय का अनुभव करना होगा, सिर्फ तभी वे अंततः परिवर्तन प्राप्त कर सकते हैं। यही मार्ग है; अगर परमेश्वर ऐसा न करे, तो लोग बदलने में सक्षम नहीं होंगे। परमेश्वर को इसी तरीके से धीरे-धीरे कार्य करना होगा। लोगों को न्याय और ताड़ना, और निरंतर काट-छाँट किए जाने का अनुभव करना होगा, और जिन तरीकों से वे अपने भ्रष्ट स्वभावों का खुलासा करते हैं उन्हें उजागर करना होगा। लोग सिर्फ तभी सही मार्ग पर चल सकते हैं जब वे स्वयं पर विचार करने और सत्य समझने में सक्षम होते हैं। अनुभव की एक अवधि और कुछ सत्य समझने के बाद ही लोगों के पास दृढ़ता से खड़े होने की कुछ निश्चितता आ पाती है। मैं देखता हूँ कि अभी भी तुम लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, तुम बहुत ही कम सत्य समझते हो, और अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पाते हो। यद्यपि तुम अपने कर्तव्यों को सक्रियता से निभाने में व्यस्त लगते हो, वास्तव में, तुम सब खतरे के कगार पर हो। मैं तुम्हारे पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं देख पा रहा हूँ, और यह कहना मुश्किल है कि तुम लोग सत्य का अनुसरण करते हो। इससे तुम बड़े खतरे में आ जाते हो। मैंने इस तरह के वचन कई बार बोले हैं, लेकिन बहुत-से लोग नहीं समझ पाते कि इसका क्या मतलब है। कुछ लोग कहते हैं : “अब परमेश्वर में अपने विश्वास में मेरे पास बहुत ज्यादा उत्साह है, मैं अपने रास्ते में ठोकर नहीं खाऊँगा या रास्ता नहीं भटकूंगा। परमेश्वर मेरे साथ ऐसे अनुग्रह का व्यवहार करता है, मैं किसी खतरे में नहीं हूँ।” परमेश्वर हर व्यक्ति के साथ अनुग्रह का व्यवहार करता है, और उनकी रक्षा करता है, लेकिन तुमने सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश नहीं किया है, इसलिए तुम स्वाभाविक रूप से खतरे में हो। परीक्षणों का सामना करते हुए, क्या तुम गारंटी दे पाओगे कि तुम दृढ़ता के साथ खड़े रहने में सक्षम हो? कोई भी व्यक्ति इस तरह की गारंटी देने की हिम्मत नहीं कर सकता। बहुत-से लोग बस शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलने में सक्षम होते हैं। इसका मतलब यह नहीं होता कि वे सत्य समझते हैं, और इसका निश्चित रूप से यह मतलब नहीं है कि उनके पास वास्तविक आध्यात्मिक कद है, और फिर भी वे सोचते हैं कि वे लगभग सफल हो गए हैं। अगर कोई व्यक्ति ऐसी कोई चीज बोल सकता है, इससे पता चलता है कि वे मानक से बहुत दूर हैं। हर व्यक्ति जिसके पास सत्य वास्तविकताएँ नहीं हैं, वह खतरे के कगार पर खड़ा है। यह पूरी तरह से सच है।
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