स्वयं को जानने के बारे में वचन (अंश 46)
भ्रष्ट मानवजाति में पुनर्जन्म लिए दानवों या उन लोगों के अलावा जो बुरी आत्माओं के वश में होते हैं, लोगों का प्रकृति सार समान रहता है। कुछ लोग हमेशा यह अध्ययन करना पसंद करते हैं कि विभिन्न लोगों के अंदर किस तरह की आत्माएँ होती हैं, लेकिन यह वास्तविक नहीं है; इस पर ध्यान केंद्रित करना आसानी से भटकावों की ओर ले जा सकता है। कुछ लोग हमेशा यह महसूस करते हैं कि उनकी आत्मा के साथ कुछ गड़बड़ है क्योंकि उन्होंने कुछ अलौकिक घटनाओं का अनुभव किया था, जबकि अन्य लोग सोचते हैं कि उनकी आत्मा के साथ कोई समस्या है क्योंकि वे कभी बदल नहीं सकते। वास्तव में किसी की आत्मा के साथ समस्या हो या न हो, मानवीय प्रकृति समान ही होती है—यह परमेश्वर का प्रतिरोध और उसके साथ विश्वासघात करती है। लोगों के भ्रष्टाचार की सीमा भी लगभग समान ही होती है, जैसे उनकी प्रकृति में समानताएँ होती हैं। कुछ लोग हमेशा संदेह करते हैं कि उनकी आत्मा में कुछ गड़बड़ी है और सोचते हैं, “मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ? मैं तो ऐसा कभी सोच भी नहीं सकता था! क्या मेरी आत्मा में कोई गड़बड़ी है?” उन्हें यह भी संदेह होने लगता है कि उन्हें परमेश्वर ने चुना भी है या नहीं, और परिणामस्वरूप वे और अधिक नकारात्मक हो जाते हैं। कुछ लोग चीजों को शुद्ध रूप में समझते हैं और उन्होंने चाहे कुछ भी किया हो, वे बस सत्य खोजने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और परमेश्वर के वचनों के अनुसार आत्मचिंतन करते हैं : “मैं ऐसा कैसे कर सका? मैंने कैसा स्वभाव प्रकट किया? इसे कैसी प्रकृति नियंत्रित करती है? मैं सत्य के अनुसार कैसे काम कर सकता हूँ?” इस तरह आत्मचिंतन करने से सत्य समझना और अभ्यास का मार्ग ढूँढ़ना, और साथ ही आत्मबोध प्राप्त करना आसान हो जाता है। आत्मपरीक्षण के सबके तरीके और मार्ग भिन्न होते हैं; कुछ लोग सत्य को खोजने और खुद को जानने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जबकि अन्य लोग हमेशा अस्पष्ट और अवास्तविक चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे प्रगति करना मुश्किल और नकारात्मकता में फँस जाना आसान हो जाता है। तुम्हें अब यह समझना है कि तुम्हारी आत्मा चाहे जैसी भी हो, आत्मा की चीजों को न तो कोई देख सकता है और न ही छू सकता है, इसलिए इस पर बहुत ज्यादा ध्यान देना बस राह में रोड़े ही अटकाएगा। प्रमुख बात मानवजाति के प्रकृति सार पर ध्यान केंद्रित करना है, जिसका संबंध लोगों को समझने से है, और अगर तुम लोगों का प्रकृति सार समझ सकते हो, तो तुम लोगों को भी समझ सकते हो। स्पष्ट रूप से यह देखकर कि किसी के प्रकृति सार में क्या चीजें मौजूद हैं, कैसे भ्रष्ट स्वभाव उजागर हो सकते हैं, और उन्हें हल करने के लिए सत्य के कौन से पहलुओं की आवश्यकता होगी—परमेश्वर पर विश्वास करते समय इसी पर ध्यान केंद्रित करना सबसे महत्वपूर्ण है। परमेश्वर के कार्य का इस तरह से अनुभव करके ही कोई सत्य को प्राप्त कर सकता है और अपने भ्रष्ट स्वभाव को स्वच्छ कर सकता है। लेकिन खुद को कैसे जानें? अपनी खुद की प्रकृति को कैसे जानें? व्यक्ति अपने प्रकृति सार को उन स्वभावों के अनुसार देख सकता है जिन्हें वह अपने कार्यकलापों द्वारा प्रकट करता है, इसलिए खुद को जानने की कुंजी अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना है। केवल अपने भ्रष्ट सार को जानने के जरिए कोई अपने प्रकृति सार को जानने में सक्षम हो सकता है, और अपने प्रकृति सार को स्पष्ट रूप से देखना ही खुद को अच्छी तरह समझना है। खुद को जानना एक गहन काम है, और किसी को बचाया जा सकता है या नहीं, इसकी कुंजी यह है कि वे खुद को कितना जानते हैं। केवल जब कोई वास्तव में खुद को जान लेता है, तभी वह सच में पश्चात्ताप कर सकता है, आसानी से सत्य को स्वीकार कर सकता है, और उद्धार के मार्ग पर कदम रख सकता है। जो लोग खुद को नहीं जानते, उनके लिए सत्य को स्वीकार करना असंभव है, सच में पश्चात्ताप करना तो दूर की बात है। इसलिए अहम मुद्दा अपना खुद का भ्रष्ट स्वभाव समझना है। झूठी आध्यात्मिकता के पीछे कतई न भागो; हमेशा इस पर ध्यान केंद्रित करने से कि किसी की आत्मा क्या है, लोगों को भटकाना, गलत राह दिखाना और उन्हें नुकसान पहुँचाना आसान हो जाता है। खुद को जानना, अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझना, और मनुष्य के प्रकृति सार को स्पष्ट रूप से देखने पर ध्यान केंद्रित करना लोगों के लिए वास्तविक होता है, और ये सब कुछ भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को हल करने और लोगों के लिए सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर का उद्धार पाने के लिए लाभकारी होगा।
शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद मानवजाति का प्रकृति सार केवल मामूली अंतर के साथ मूल रूप से समान ही होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सबके पूर्वज समान हैं, एक ही संसार में रहते हैं, और उन्होंने समान भ्रष्टता का अनुभव किया है। उन सभी में एक समान चीजें हैं। फिर भी कुछ लोग एक माहौल में एक तरह के काम करने में सक्षम होते हैं, और कुछ लोग एक अन्य माहौल में अन्य किस्म के काम करने में सक्षम होते हैं; कुछ लोग शिक्षा पाकर कुछ हद तक परिष्कृत हो जाते हैं, और कुछ अशिक्षित रहने के कारण अपरिष्कृत रहते हैं; कुछ लोगों का चीजों के प्रति एक तरह का दृष्टिकोण होता है, दूसरों का दूसरी तरह का दृष्टिकोण होता है; कुछ लोग एक तरह के सामाजिक परिवेश में रहते हैं, कुछ दूसरी तरह के सामाजिक परिवेश में रहते हैं, और वे विरासत में भिन्न रीति-रिवाज और रहन-सहन की आदतें पाते हैं। लेकिन मनुष्य की प्रकृति के भीतर प्रकट होने वाली चीजों का सार पूरी तरह समान होता है। इसलिए इसकी कोई जरूरत नहीं है कि तुम हमेशा इस चिंता में लगे रहो कि तुम्हारे पास किस तरह की आत्मा है, या हमेशा चिंतित रहो कि कहीं वह दुष्ट आत्मा तो नहीं है। यह ऐसी चीज है जिस तक मनुष्य नहीं पहुँच सकता; यह केवल परमेश्वर जान सकता है, और मनुष्य अगर यह जान भी सकता तो उसके लिए यह किसी काम का न होता। हमेशा अपनी आत्मा का विश्लेषण करने या उस पर विचार करने की इच्छा करने का कोई लाभ नहीं है; ऐसा सबसे अज्ञानी और भ्रमित दिमाग वाले लोग करते हैं। जब तुम कुछ गलत करते हो या किसी तरह का अपराध करते हो तो यह कहकर खुद पर संदेह न करो : “क्या मेरी आत्मा में कोई गड़बड़ है? क्या यह किसी बुरी आत्मा का काम है? मैं ऐसा बेवकूफी का काम कैसे कर सकता था?” तुम चाहे जो भी करो, समस्या की जड़ में जाने के लिए तुम्हें अपनी प्रकृति को देखना चाहिए, और उन सत्यों को खोजना चाहिए जिनमें लोगों को प्रवेश करना चाहिए। अगर तुम अपनी आत्मा की जाँच करोगे, तो तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा—अगर तुम यह जान भी गए कि तुम्हारे अंदर किस तरह की आत्मा है, तो भी तुम अपनी प्रकृति नहीं जान पाओगे, न ही अपनी समस्याओं को हल कर पाओगे। इसलिए कुछ लोग हमेशा यही बात करते हैं कि उनके अंदर कैसी आत्मा है, मानो वे असाधारण रूप से आध्यात्मिक या पेशेवर हों, जबकि वास्तव में वे कहीं ज्यादा नौसिखिए और मूर्ख होते हैं। कुछ लोग खासतौर पर आध्यात्मिक रूप से बोलते हैं, सोचते हैं कि उनके बोले हुए शब्द बहुत गहन हैं, और साधारण लोग उन्हें नहीं समझेंगे। वे कहते हैं, “यह महत्वपूर्ण है कि हम जाँच करें कि हमारी आत्माएँ क्या हैं। अगर हमारे अंदर मानव आत्माएँ नहीं हैं, तो भले ही हम परमेश्वर में विश्वास करते हों, हमें बचाया नहीं जा सकता। हमें परमेश्वर को हमसे विमुख नहीं होने देना चाहिए।” यह सुनने पर कुछ लोग बिगड़ जाते हैं और गुमराह हो जाते हैं, गहराई से यह महसूस करते हैं कि ये शब्द तर्कपूर्ण हैं, और जाँचने लगते हैं कि उनके अंदर किस तरह की आत्मा है। चूँकि वे अपनी आत्मा पर इतना विशिष्ट ध्यान देते हैं कि वे मनोरोगी हो जाते हैं, कुछ भी करते समय अपनी आत्मा की जाँच करने लगते हैं, और अंततः वे कोई समस्या खोज लेते हैं : “मैं जो भी करता हूँ उसमें मैं सत्य के विरुद्ध क्यों जाता हूँ? मेरे अंदर लेशमात्र भी मानवता या समझ क्यों नहीं है? मैं निश्चित रूप से एक बुरी आत्मा हूँ।” वास्तव में बुरी प्रकृति के साथ और सत्य के बिना इंसान ऐसा कुछ भी कैसे कर सकता है जो सत्य के अनुरूप हो? उनके कार्य कितने भी अच्छे क्यों न हों, वे अभी भी सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहे हैं, और अभी भी परमेश्वर के प्रति द्वेषपूर्ण हैं। इंसानों की प्रकृति बुरी होती है और उसे शैतान ने भ्रष्ट किया और ढाला है; उनमें मानव के समान कुछ नहीं है, वे सरासर परमेश्वर से विद्रोह करते हैं और उसका विरोध करते हैं, और वे परमेश्वर से इतने दूर होते हैं कि वे शायद परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कुछ कर ही नहीं सकते। इंसान की सहज प्रकृति में ऐसा कुछ है ही नहीं जो परमेश्वर के अनुरूप हो। यह एकदम स्पष्ट है।
कुछ लोग हमेशा बहुत ज्यादा संवेदनशील होते हैं और इस बात को बहुत महत्व देते हैं कि उनमें आध्यात्मिक समझ है या नहीं, या उनकी आत्मा किस प्रकार की है, और इस सबके दौरान अपनी प्रकृति को समझने की बात भुला ही देते हैं। यह तरबूज को गंवाकर तिल चुनने वाली बात है। क्या वास्तविक को नजरअंदाज करके एक भ्रम को पाने की कोशिश करना मूर्खता नहीं है? क्या तुमने अध्ययन के इन वर्षों में आत्मा की चीजों या जीवात्मा के मामलों को अच्छी तरह समझ लिया है? क्या तुमने देख लिया है कि तुम्हारी आत्मा कैसी है? अगर तुम अपनी जीवात्मा की गहराई में अपने प्रकृति सार की चीजों की गहराई में नहीं जाओगे और इसके बजाय हमेशा अपनी आत्मा का ही अध्ययन करोगे, तो क्या तुम्हारे अध्ययन का कोई परिणाम होगा? क्या यह किसी नेत्रहीन व्यक्ति द्वारा मोमबत्ती जलाने और मोम बर्बाद करने जैसा ही नहीं है? तुम अपनी असली कठिनाइयों को एक ओर रख देते हो और इस बारे में नहीं सोचते कि उन्हें कैसे हल किया जा सकता है, तुम हमेशा टेढ़े-मेढ़े तरीके अपनाते हो और हमेशा इसी उधेड़बुन में रहते हो कि तुम्हारी आत्मा किस प्रकार की है, लेकिन क्या इससे कोई भी समस्या हल हो सकती है? यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते, कभी कोई ईमानदार काम नहीं करते बल्कि हमेशा अपनी आत्मा का अध्ययन करते हो, तो तुम सबसे मूर्ख इंसान हो। वाकई बुद्धिमान लोगों का रवैया यह होता है : “भले ही परमेश्वर कुछ भी करे या मुझसे कैसा भी व्यवहार करे, भले ही मैं कितना भी भ्रष्ट होऊं या मेरी मानवता कैसी भी हो, मैं सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर को जानने के प्रयास के अपने संकल्प से नहीं डिगूँगा।” केवल परमेश्वर को जानकर ही व्यक्ति अपने भ्रष्ट स्वभाव को सुधार सकता है और परमेश्वर के इरादे पूरे करने के अपने कर्तव्य को पूरा कर सकता है; यही मानव जीवन की दिशा है, मनुष्यों को यही पाने की कोशिश करनी चाहिए, और यही उद्धार का एकमात्र मार्ग है। तो, यथार्थवादी है सत्य का अनुसरण करना, अपनी भ्रष्ट प्रकृति को जानना, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने के लिए सत्य समझना, और अपना कर्तव्य ऐसे निभा पाना जिससे परमेश्वर संतुष्ट हो। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना और एक सच्चे इंसान के समान जीना—यही यथार्थवादी है। यथार्थवादी है परमेश्वर से प्रेम करना, परमेश्वर के समक्ष समर्पण करना, और परमेश्वर का साक्षी बनना। परमेश्वर यही परिणाम चाहता है। उन चीजों पर शोध करना व्यर्थ है जिन्हें न तो छुआ जा सकता है न देखा जा सकता है। जो यथार्थवादी है उससे उनका कोई लेना-देना नहीं है, और न ही परमेश्वर के कार्य के प्रभावों से कोई लेना-देना है। चूँकि अब तुम एक भौतिक देह में रहते हो, इसलिए तुम्हें सत्य समझने, अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने, निष्ठावान व्यक्ति बनने, और अपने स्वभाव को बदलने की कोशिश करनी चाहिए। ये वे चीजें हैं जो अधिकांश लोग प्राप्त कर सकते हैं।
कुछ लोगों के पास स्पष्ट रूप से बुरी आत्माओं का काम होता है और वे उनके वश में हो सकते हैं। क्या इस तरह का इंसान परमेश्वर में विश्वास करके बच सकता है? यह कहना मुश्किल है, और यह इस पर निर्भर करता है कि क्या वे विवेक से काम करते हैं और उनकी मानसिक स्थिति सामान्य होती है या नहीं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या वे सत्य समझ सकते हैं और उसे अभ्यास में ला सकते हैं। अगर वे इस कसौटी पर खरे नहीं उतर सकते, तो उन्हें किसी भी तरह से नहीं बचाया जा सकता। अब तुम सबके पास सामान्य विवेक है, तुम सामान्य रूप से बात करते हो, और तुमने किसी अलौकिक या असामान्य घटना का अनुभव नहीं किया है। हालांकि कभी-कभी तुम्हारी दशाएँ थोड़ी असामान्य होती हैं और तुम्हारे काम करने के कुछ तरीके गलत होते हैं, मगर ये सब मानव प्रकृति के प्रकटीकरण हैं। वास्तव में, दूसरे लोगों के साथ भी ऐसा ही है—बस उनके प्रकटीकरण की पृष्ठभूमि और समय भिन्न होते हैं। ऐसा लगता है कि अभी तुम लोगों का कुछ आध्यात्मिक कद हो गया है और दूसरों को आत्मा के मामलों व बयानों के बारे में बोलते सुनने के बाद तुम भी उनकी नकल करते हो और उनका अनुसरण करते हो, जैसे तुम खुद आत्मा के मामलों को बहुत अच्छी तरह समझते हो और बड़े महान व्यक्ति हो। आध्यात्मिक क्षेत्र की बातों को केवल परमेश्वर जानता और नियंत्रित करता है, और लोग परमेश्वर के वचनों के जरिये इसे थोड़ा भी समझ सकें तो यही बहुत है, तो कोई भी आध्यात्मिक क्षेत्रों को पूरी तरह कैसे समझ सकता है? क्या इन्हीं चीजों पर हमेशा सोचते रहने से भटक जाना आसान नहीं है? आजकल सब लोगों के अंदर ऐसी अवस्था है। तुम भले ही इन मामलों पर हमेशा गंभीरता से चर्चा न करो, और भले ही तुम इनके कारण कमजोर या असफल न हो, पर फिर भी तुम दूसरों के इन शब्दों से अस्थायी रूप से प्रभावित हो सकते हो। भले ही तुम इस तरह के मामले पर बहुत ध्यान न दो, पर फिर भी तुम आसानी से अपने हृदय में आत्मा की चीजों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हो, और यदि ऐसा दिन आ जाए जब तुम वास्तव में कुछ गलत चीजें कर दो, कोई असफलता मिले और तुम लड़खड़ा जाओ, तो तुम्हें यह कहकर अपने ऊपर संदेह करना चाहिए : “क्या मेरी आत्मा भी गलत है?” तुम आमतौर पर कभी संदेह नहीं करते, और दूसरों को संदेह से ग्रस्त देखकर उन्हें बेतुका मानते हो। लेकिन अगर ऐसा दिन आता है जब तुम्हारी काट-छाँट की जाती है, या कोई और कहता है कि तुम शैतान हो, या कि तुम बुरी आत्मा हो, तो तुम इस पर विश्वास कर लोगे, और उनकी ही तरह तुम भी संदेह से ग्रस्त हो जाओगे, और खुद को उससे निकाल पाने में असमर्थ होगे। वास्तव में, अधिकांश लोग इस समस्या से आसानी से प्रभावित हो सकते हैं, वे आत्मा के मामलों को अविश्वसनीय रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं और अपनी प्रकृति को समझने या जीवन प्रवेश जैसे मामलों को नजरअंदाज कर देते हैं। यह उन्हें वास्तविकता से कोसों दूर कर देता है और एक अनुभवात्मक भटकाव है।
तुम लोगों को अपनी प्रकृति को जानने पर ध्यान देना चाहिए और इस पर कि तुम्हारी प्रकृति के कौन-से पहलू आसानी से तुमसे गलत चीजें करवा सकते हैं या तुम्हें भटका सकते हैं, और तुम्हें, इस आधार पर, अनुभव और पाठों का सार निकालना चाहिए। विशेषकर सेवा करने, जीवन अनुभव, और अपनी प्रकृति को जानने के संदर्भ में धीरे-धीरे गहरा ज्ञान विकसित करके ही तुम अपनी अवस्था को समझ सकोगे और सही दिशा में विकसित होगे। अगर तुम सत्य के इन पहलुओं को आत्मसात कर सको, और उन्हें अपना आंतरिक जीवन बना सको, तो तुम कहीं अधिक स्थिर होगे, उन चीजों के बारे में गैर-जिम्मेदाराना और मनमानी टिप्पणी नहीं करोगे जिन्हें तुम समझते नहीं, अपने शब्दों की वास्तविकता, और असल चीजों के बारे में सहभागिता पर ध्यान केंद्रित करोगे। जब लोग अपनी प्रकृति का अधिक गहन ज्ञान और सत्य की अधिक गहरी समझ पा लेते हैं, तो वे औचित्य के भाव के साथ बोलेंगे, और मनमाने ढंग से नहीं बोलेंगे। जिन लोगों के पास सत्य नहीं होता, वे हमेशा सरल-मन होते हैं, और कुछ भी कहने की हिम्मत रखते हैं; कुछ लोग तो ऐसे भी होते हैं जो परमेश्वर के वचन को प्रसारित करते हुए, कुछ और लोगों को पाने की खातिर, धार्मिक लोगों का अनुसरण करने और परमेश्वर के विरुद्ध ईशनिंदा करने से नहीं हिचकिचाते। उन्हें अंदाजा ही नहीं है कि वे क्या हैं, न ही उन्हें अपनी प्रकृति की कोई समझ है, और उन्हें परमेश्वर का भय नहीं होता। कुछ लोग मानते हैं यह कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन क्या यह वास्तव में बड़ी बात नहीं है? जब ऐसा दिन आएगा जब वे समस्या की गंभीरता को समझेंगे तो वे डर जाएँगे। ऐसा करना कितनी भयावह बात है! वे इस मामले के सार की असलियत नहीं देख पाते, और वे यह तक सोचते हैं कि वे बहुत बुद्धिमान हैं और कि वे सब कुछ समझते हैं; लेकिन वे इससे अनभिज्ञ हैं कि वे परमेश्वर को नाराज कर रहे हैं और इससे भी अनभिज्ञ हैं कि उनका अंत कैसे होगा। अगर तुम अपनी ही प्रकृति को नहीं जानते तो तुम्हारे लिए नर्क या आध्यात्मिक क्षेत्र से जुड़ी सारी बातों को समझना व्यर्थ है। अब प्रमुख बात है खुद को जानने और अपने प्रकृति सार को जानने की मुश्किलों को सुलझाना। तुम्हें अपनी प्रकृति द्वारा प्रकट की गई प्रत्येक दशा को समझना होगा—अगर तुम यह नहीं कर सकते, तो किसी और चीज की समझ व्यर्थ होगी; यह सब कुछ व्यर्थ है भले ही तुम यह देखने के लिए स्वयं का कितना भी विश्लेषण करो कि तुम्हारे अंदर किस तरह की आत्मा या जीवात्मा है। अपनी प्रकृति की उन विभिन्न चीजों को समझना ही कुंजी है जो वास्तव में तुम्हारे अंदर मौजूद हैं। तो, तुम्हारे अंदर चाहे कोई-सी भी आत्मा हो, अब तुम एक सामान्य विचारशक्ति वाले व्यक्ति हो, तो तुम्हें सत्य समझने और स्वीकार करने की कोशिश करनी चाहिए। अगर तुम सत्य समझ सकते हो, तो तुम्हें सत्य के अनुरूप आचरण करना चाहिए—यह मनुष्य का कर्तव्य है। आत्मा के मामलों पर सोचते रहना तुम्हारे लिए किसी काम का नहीं है, यह व्यर्थ है और इसका कोई लाभ नहीं है। आजकल, वे लोग जिनमें बुरी आत्माओं का काम होता है, वे तमाम कलीसियाओं में उजागर किए जा रहे हैं। ये लोग अगर सत्य समझ सकें तो इनके लिए अभी भी उम्मीद है, लेकिन अगर वे सत्य न तो समझ सकें न स्वीकार कर सकें तो उन्हें बस हटाया जा सकता है। अगर कोई सत्य समझ सकता है, तो इससे पता चलता है कि उसके अंदर अभी भी सामान्य विवेक है, और अगर वह और अधिक सत्य समझता है, तो शैतान उसे न तो गुमराह कर पाएगा न ही उसे नियंत्रित कर पाएगा, और इसकी उम्मीद है कि उसे बचाया जा सकता है। अगर ऐसे लोग दानवों के वशीभूत हैं और अधिकांश समय उनका विवेक बहुत सामान्य नहीं है, तो उनका काम तमाम हो चुका है और परेशानी मोल लेने से बचने के लिए उन्हें हटाना होगा। तुलनात्मक रूप से सामान्य विवेक वाले किसी भी व्यक्ति के लिए, भले ही उसके अंदर कैसी भी आत्मा हो, यदि उसमें थोड़ी आध्यात्मिक समझ है, और वह सत्य को समझ और स्वीकार कर सकता है, तो उसके लिए उद्धार की आशा है। भले ही मनुष्य में सत्य को स्वीकार करने की क्षमता न हो, लेकिन अगर कोई प्रभावी रूप से धर्मोपदेश सुनता है, सत्य पर सहभागिता करते हुए उसे जानने और समझने में सक्षम है, और उसके पास सामान्य समझ है और वह बेतुका नहीं है, तो उसके पास उद्धार पाने की उम्मीद है। लेकिन मुझे डर है कि ऐसे भी लोग होंगे जिनमें आध्यात्मिक समझ नहीं है या जो इंसानी शब्द नहीं समझते, और चाहे अन्य लोग उनके साथ सत्य पर कैसे भी सहभागिता करें, वे उसे नहीं समझ सकते; ये लोग परेशानी खड़ी करने वाले होते हैं और वे श्रमिक के रूप में भी काम नहीं कर सकते। इसके अलावा, परमेश्वर में विश्वास करने वालों को केवल सत्य और उसके अनुसरण पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए। उन्हें आत्मा के बारे में बात करने, अध्ययन करने या उसे समझने पर ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए। यह बेतुका और हास्यास्पद है। अब कुंजी यह है कि व्यक्ति सत्य स्वीकार कर सकता है या नहीं, सत्य समझ सकता है या नहीं, और वास्तविकताओं में प्रवेश कर सकता है या नहीं। यह कुंजी है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि व्यक्ति खुद को जान सकता है या नहीं और खुद पर चिंतन-मनन कर सकता है या नहीं, और वह ऐसा व्यक्ति है या नहीं जो अपनी प्रकृति को समझता है! खुद की आत्मा कैसी है, इसका अध्ययन करना अर्थहीन और खासकर अनुपयोगी है। अगर तुम हमेशा ऐसी चीजों पर अध्ययन करते हो कि तुम्हारी आत्मा कैसी है, तुम्हारी जीवात्मा के साथ क्या चल रहा है, तुम्हारे पास कौन-सी आत्मा है, तुम्हारे पास उच्च श्रेणी की आत्मा है या निम्न श्रेणी की, तुम्हें किस आत्मा से पुनर्जन्म मिला है, तुम पहले कितनी बार आ चुके हो, तुम्हारा अंतिम परिणाम क्या होगा, या भविष्य में क्या निहित है—हमेशा इन चीजों का अध्ययन करते रहने से महत्वपूर्ण मामलों में बाधा पड़ेगी। अगर तुम इनका पूर्ण अध्ययन कर भी लो, तो भी एक दिन जब दूसरे लोग सत्य समझ जाएँगे और वास्तविकताओं में प्रवेश कर लेंगे, तो तुम्हारे पास कुछ नहीं होगा। तुमने महत्वपूर्ण मामलों में बाधा डालकर खुद इसे न्योता दिया होगा। तुमने गलत मार्ग चुना और परमेश्वर में व्यर्थ ही विश्वास किया होगा। तब तुम किसे दोष दोगे? किसी को भी दोष देना बेकार है; यह सब तुम्हारे अपने अज्ञान के कारण हुआ है।
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