स्वयं को जानने के बारे में वचन (अंश 45)

इंसान में अक्सर कुछ नकारात्मक दशाएँ होती हैं। उनमें से कुछ दशाएँ लोगों को प्रभावित कर सकती हैं या उन्हें बाधित कर सकती हैं। कुछ दशाएँ व्यक्ति को सच्चे मार्ग से भटकाकर गलत दिशा में ले जा सकती हैं। लोग किसका अनुसरण करते हैं, किस पर ध्यान देते हैं, और किस मार्ग को चुनते हैं—ये सब उनकी आंतरिक दशाओं से जुड़ा होता है। लोग कमजोर हैं या मजबूत, यह भी सीधे-सीधे उनकी आंतरिक दशाओं से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए, बहुत से लोग अब परमेश्वर के दिन पर विशेष रूप से जोर देते हैं। उन सबकी यही इच्छा है : वे चाहते हैं कि परमेश्वर का दिन जल्दी से आ जाए ताकि वे खुद को इस कष्ट से, इन बीमारियों से, इस यातना से, और अन्य प्रकार की पीड़ाओं से मुक्त कर सकें। लोग सोचते हैं कि जब परमेश्वर का दिन आएगा तो वे उन दुख-तकलीफ़ों से मुक्त हो जाएंगे जिन्हें वे अभी भोग रहे हैं, उन्हें फिर कभी मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ेगा, और वे आशीषों का आनंद ले पाएंगे। अगर कोई इस तरह की मनोस्थिति में परमेश्वर को समझने की कोशिश करता है या सत्य का अनुसरण करता है, तो उसकी जीवन प्रगति बहुत सीमित होगी। जब उन्हें कोई असफलता मिलती है या उनके साथ कुछ अप्रिय होता है तो उनके भीतर की सारी कमजोरी, सारी नकारात्मकता, और विद्रोह बाहर आ जाता है। तो अगर किसी की दशा असामान्य या गलत है, तो उसके अनुसरण का लक्ष्य भी गलत होगा और निश्चय ही नापाक होगा। तुम गलत मनोदशाओं से प्रवेश पाने की कोशिश करते हो, मगर फिर भी सोचते हो कि तुम अपने अनुसरण में अच्छा कर रहे हो, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप काम कर रहे हो, और सत्य के अनुरूप अभ्यास कर रहे हो। तुम यह नहीं मानते कि तुम परमेश्वर की इच्छाओं के विरुद्ध जा चुके हो या उसके इरादों से भटक गए हो। तुम ऐसा महसूस कर सकते हो, लेकिन जब कोई अप्रिय घटना या माहौल तुम्हें कष्ट देता है, तुम्हारे कमजोर पहलुओं को और उन चीजों को छूता है जिनसे तुम्हें प्रेम है और जिनका तुम दिल की गहराइयों से पालन करते हो, तो तुम नकारात्मक हो जाओगे, तुम्हारी उम्मीदें और सपने टूट जाएंगे, और तुम स्वाभाविक रूप से कमजोर हो जाओगे। तो उस समय तुम्हारी स्थिति तय करती है कि तुम मजबूत हो या कमजोर। अभी तो बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें लगता है कि वे बहुत मजबूत हैं, उनके पास थोड़ा आध्यात्मिक कद है, और उनके अंदर पहले से कहीं ज्यादा आस्था है। उन्हें लगता है कि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग को अपनाया है, और उन्हें उस पर चलने के लिए प्रेरित करने को दूसरे लोगों की जरूरत नहीं है। इस मामले में, जब वे खास परिस्थितियों का सामना करते हैं या मुश्किल में पड़ते हैं, तो वे नकारात्मक या कमजोर क्यों हो जाते हैं? फिर वे शिकायत क्यों करते हैं और अपनी आस्था को क्यों त्याग देते हैं? यह दर्शाता है कि प्रत्येक व्यक्ति के अंदर कुछ नकारात्मक और असामान्य दशाएँ होती हैं। कुछ मानवीय अशुद्धियों को छोड़ना आसान नहीं होता। भले ही तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है, तो भी तुम उन्हें पूरी तरह नहीं छोड़ सकते। इसे परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के आधार पर करना चाहिए। अपनी स्वयं की दशाओं पर चिंतन-मनन करने के बाद लोगों को परमेश्वर के वचन से उनकी तुलना करनी चाहिए, और अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करना चाहिए। केवल तभी धीरे-धीरे उनकी दशाएँ बदलेंगी। ऐसा नहीं है कि जब लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़ेंगे, और अपनी दशाओं के बारे में जानेंगे, तो वे तुरंत ही उन्हें बदल पाएंगे। अगर लोग अक्सर परमेश्वर के वचनों को पढ़ेंगे, अपनी दशाओं को स्पष्ट रूप से देखेंगे, और परमेश्वर से प्रार्थना करके सत्य की दिशा में प्रयत्न करेंगे, तो जब भविष्य में वे फिर से भ्रष्टता दिखाएँगे, या जब वे किसी असामान्य दशा में होंगे तो वे उसे पहचानने में सक्षम हो पाएंगे, और वे परमेश्वर से प्रार्थना करने में समर्थ हो पाएंगे, और समस्या को हल करने के लिए सत्य का इस्तेमाल कर पाएंगे, और उनकी गलत दशा में परिवर्तन आ सकेगा और वे धीरे-धीरे बदल पाएंगे। इस तरह, वे अशुद्धियों और उन चीजों को छोड़ने में समर्थ हो पाएंगे जिन्हें छोड़ देना चाहिए, जिन्हें लोग अपने भीतर सहेजे रहते हैं। परिणाम पाने से पहले लोगों के पास एक निश्चित स्तर का अनुभव होना चाहिए।

परमेश्वर में अपने विश्वास के आरंभ से ही, बहुत से लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर आशीष पाने के पीछे भागते हैं, और जब उनका सामना ऐसी चीजों से होता है जो उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होतीं, तो वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं। वे परमेश्वर पर संदेह करने लगते हैं और उसे लेकर धारणाएं बना लेते हैं या गलतफहमियां पाल लेते हैं। अगर कोई सत्य पर उनके साथ संगति नहीं करता है, तो वे दृढ़ नहीं बने रह पाएंगे, और वे किसी भी पल परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूं। मान लो कि किसी ने परमेश्वर में अपने विश्वास को लेकर हमेशा से धारणाएं और कल्पनाएं गढ़ रखी हैं। इस व्यक्ति का मानना है कि अगर वह अपने परिवार को त्यागकर अपने कर्तव्य को करता है, तो परमेश्वर उसकी रक्षा करेगा और उसे आशीष देगा, और उसके परिवार का ध्यान रखेगा, और परमेश्वर को यही तो करना चाहिए। फिर किसी दिन उसके साथ कुछ ऐसा हो जाता है जो वह नहीं चाहता था—वह बीमार पड़ जाता है। अपने मेजबान परिवार के साथ रहना इतना आरामदेह नहीं है जितना अपने खुद के घर में रहना होता, और शायद वे उसका बहुत अच्छी तरह ध्यान भी नहीं रखेंगे। वह इसे सहन नहीं कर पाता है, और लंबे समय के लिए नकारात्मक और निराश हो जाता है। वह सत्य का अनुसरण भी नहीं करता, और सत्य को स्वीकार भी नहीं करता। इसका मतलब है कि लोगों के भीतर कुछ दशाएँ होती हैं, और अगर वे न तो पहचानें, न समझें, और न ही यह महसूस करें कि ये दशाएँ गलत हैं, तो भले ही उनके भीतर अभी भी जुनून हो, और वे बहुत कुछ अनुसरण करते हों, मगर किसी न किसी बिंदु पर उनका सामना किसी ऐसी परिस्थिति से होगा जो उनकी आंतरिक दशा को उजागर कर देगी, और उन्हें लड़खड़ाकर गिरा देगी। जब तुम चिंतन-मनन करने या खुद को जान पाने में सक्षम नहीं होते हो तो यही होता है। वे सभी लोग जो सत्य को नहीं समझते हैं, ऐसे ही होते हैं; तुम नहीं जानते कि वे कब लड़खड़ाकर गिर जाएंगे, कब वे नकारात्मक और कमजोर हो जाएंगे, या कब वे परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। देख लो, जो लोग सत्य को नहीं समझते, उन्हें कितने संकट का सामना करना पड़ता है! लेकिन सत्य को समझना सरल बात नहीं है। इसमें बहुत समय लगता है जब तुम अंततः प्रकाश की हल्की सी झलक पा सको, रत्ती भर भी सच्चा ज्ञान पा सको, और जरा से भी सत्य को समझ सको। अगर तुम्हारे इरादे बुरी तरह से दूषित हैं और उन्हें सुधारा नहीं जा सकता, तो वे कभी भी तुम्हारे ज्ञान के हल्के से प्रकाश को बुझा देंगे, और तुम्हारी मामूली सी आस्था तक को मिटा देंगे, और यह निश्चय ही बहुत खतरनाक है। फिलहाल तो अहम मुद्दा यह है कि सभी लोगों के मन में परमेश्वर को लेकर कुछ निश्चित धारणाएं और कल्पनाएं होती हैं, लेकिन जब तक उनका खुलासा नहीं होता, वे उन्हें स्वीकार नहीं करते; वे अंदर ही छिपी रहती हैं, और तुम नहीं जानते कि किस समय, या किन परिस्थितियों में वे बाहर आ जाएंगी और लोगों को लड़खड़ा देंगी। भले ही सबकी आकांक्षाएं अच्छी होती हैं, और वे अच्छे विश्वासी बनना और सत्य को पाना चाहते हैं, मगर उनके इरादे बहुत अधिक दूषित होते हैं, और उनमें बहुत सी धारणाएं और कल्पनाएं होती हैं जो उनके सत्य का अनुसरण करने और जीवन प्रवेश पाने में भारी बाधा डालती हैं। वे ये चीजें करना चाहते हैं लेकिन कर नहीं पाते। उदाहरण के लिए, लोगों के लिए तब समर्पण करना मुश्किल हो जाता है जब उनके साथ काट-छांट की जाती है; जब उनकी परीक्षा ली जाती है या उनका शोधन किया जाता है, तब वे परमेश्वर से बहस करना चाहते हैं। जब वे बीमार पड़ते हैं या किसी संकट में घिर जाते हैं तो वे अपनी रक्षा न करने के लिए परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं। इस तरह के लोग कैसे परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर सकते हैं? वे परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल होने के न्यूनतम मानक तक भी नहीं पहुँच पाते, तो वे सत्य को कैसे पा सकते हैं? कुछ लोग छोटी से छोटी चीज के भी उनके अनुरूप न होने पर नकारात्मक हो जाते हैं; वे दूसरे लोगों के फैसलों के कारण लड़खड़ा जाते हैं, और गिरफ्तार होने पर परमेश्वर से विश्वासघात करते हैं। यह तो सच है कि तुम कभी नहीं जान सकते कि भविष्य में क्या होना है, सुख मिलेगा या बर्बादी आएगी। हर व्यक्ति के अंदर ऐसा कुछ होता है जिसके पीछे वह जाना और उसे पाना चाहता है; उनके पास ऐसी चीजें होती हैं जो उन्हें पसंद होती हैं। ऐसी चीजों के पीछे जाना जो उन्हें पसंद होती हैं, उन पर आपदा ला सकती है, लेकिन वे इसे महसूस नहीं करते, वे अभी भी यही मानते हैं कि जिन चीजों के लिए वे कोशिश करते हैं और जिन्हें पसंद करते हैं, वे सही हैं, और इन चीजों में कोई बुराई नहीं है। लेकिन अगर किसी दिन दुर्भाग्य आ पड़ता है, और वे चीजें जिनके लिए वे कोशिश करते हैं और जिन्हें पसंद करते हैं उनसे छीन ली जाती हैं, तो वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं, और खुद को संभाल नहीं पाते। वे जान नहीं पाएंगे कि क्या हुआ था, वे अन्यायी होने के लिए परमेश्वर के बारे में शिकायत करेंगे, और परमेश्वर के विरुद्ध उनके विश्वासघात की भावना सामने आ जाएगी। अगर लोग खुद को नहीं जानेंगे, तो वे समझ नहीं पाएंगे कि उनका कमजोर पहलू क्या है, न ही वे यह समझ पाएंगे कि उनके लिए कहां असफल होना या लड़खड़ाना आसान होगा। यह वाकई दुखद है। इसीलिए हम कहते हैं कि अगर तुम खुद को नहीं जानते हो तो तुम कभी भी लड़खड़ा सकते हो या असफल हो सकते हो, और खुद को खत्म कर सकते हो।

बहुत से लोगों ने कहा है : “मैं सत्य के हर पक्ष को समझता हूं, मगर मैं उसका अभ्यास नहीं कर सकता।” यह लोगों के सत्य का अभ्यास न करने के मूल कारण को उजागर करता है। वे किस तरह के लोग हैं जो सत्य को समझते तो हैं पर फिर भी उसका अभ्यास नहीं कर सकते? निश्चित रूप से, केवल वही लोग सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते हैं जो सत्य से विमुख हो गए हैं और उससे घृणा करते हैं, और यह समस्या उनकी प्रकृति में है। सत्य को न समझ पाने वाले लोग भी यदि सत्य से प्रेम करते हैं, तो वे अपनी अंतरात्मा के अनुसार काम करेंगे और कोई बुरा काम नहीं करेंगे। अगर किसी व्यक्ति की प्रकृति सत्य से विमुख हो गई है, तो वह कभी सत्य का अभ्यास नहीं कर पाएगा। जो लोग सत्य से विमुख हो चुके हैं, वे केवल परमेश्वर की आशीष पाने के लिए उसमें विश्वास करते हैं, सत्य पर चलने और उद्धार पाने के लिए नहीं। यदि वे अपने कर्तव्यों को करते भी हैं, तो ऐसा सत्य को पाने की खातिर नहीं होता बल्कि पूरी तरह से आशीष पाने के लिए होता है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जिन पर अत्याचार होता है और वे अपने घरों को नहीं लौट पाते हैं, अपने हृदय में सोचते हैं, “परमेश्वर में मेरे विश्वास के कारण मुझ पर जुल्म हुआ है और मैं अपने घर नहीं लौट सकता। एक दिन परमेश्वर मुझे एक बेहतर घर देगा; परमेश्वर मुझे व्यर्थ ही कष्ट नहीं भोगने देगा,” या “मैं जहां भी हूं, परमेश्वर मुझे खाने के लिए भोजन देगा, और वह मुझे किसी अंधी गली में नहीं जाने देगा। अगर वह मुझे किसी अंधी गली में जाने देगा, तो वह वास्तविक परमेश्वर नहीं होगा। परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा।” क्या ऐसी चीजें मनुष्य के भीतर मौजूद नहीं होतीं? कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सोचते हैं, “मैंने परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के लिए अपने परिवार को छोड़ दिया, और अब परमेश्वर को मुझे उन लोगों के हाथों में नहीं छोड़ना चाहिए जो सत्ताधारी हैं; मैंने इतने उत्साह से अनुसरण किया है, परमेश्वर को मेरी रक्षा कर मुझे आशीष देनी चाहिए। हम परमेश्वर के दिन के आगमन की इतनी कामना करते हैं, तो परमेश्वर का दिन जल्द से जल्द आ जाना चाहिए। परमेश्वर को मनुष्य की इच्छाओं को पूरा करना चाहिए।” बहुत से लोग इस प्रकार सोचते हैं—क्या यह मनुष्य की अनावश्यक माँग नहीं है? लोगों ने हमेशा परमेश्वर से अनावश्यक माँगें की हैं, हमेशा ऐसा सोचा है : “हमने अपने कर्तव्यों को करने के लिए अपने परिवारों को त्याग दिया, तो परमेश्वर को हमें आशीष देनी चाहिए। हमने परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप काम किया है, इसलिए परमेश्वर को हमें पुरस्कृत करना चाहिए।” बहुत से लोग परमेश्वर में विश्वास करते हुए इस तरह की बातों को अपने दिल में पालते हैं। वे दूसरे लोगों को स्वयं को परमेश्वर की खातिर खपाने के लिए बड़ी सहजता से अपने परिवारों से दूर जाते और सब कुछ त्यागते देखते हैं, और सोचते हैं, “उन्होंने इतने समय से अपने परिवारों को छोड़ा हुआ है, ऐसा कैसे कि वे अपने परिवारों को याद नहीं करते? वे इस स्थिति से कैसे उबरते हैं? मैं इससे कैसे नहीं उबर सकती? ऐसा कैसे कि मैं अपने परिवार को, पति (या पत्नी) को, और बच्चों को नहीं छोड़ सकती? ऐसा कैसे कि परमेश्वर उन पर मेहरबान है लेकिन मुझ पर नहीं है? पवित्र आत्मा मेरे ऊपर कृपा क्यों नहीं करता या मेरे साथ क्यों नहीं रहता?” यह कैसी स्थिति है? लोगों में समझ का कितना अभाव है; वे सत्य का अभ्यास नहीं करते और फिर वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं, और वे वह नहीं करते जो उन्हें करना चाहिए। लोगों को सत्य का अनुसरण करने वाले मार्ग को चुनना चाहिए, लेकिन वे सत्य से विमुख हो गए हैं, वे दैहिक सुखों की इच्छा करते हैं, और हमेशा आशीष पाना और कृपाओं का सुख भोगना चाहते हैं, साथ ही शिकायत करते रहते हैं कि परमेश्वर की मनुष्य से बहुत अधिक अपेक्षाएँ हैं। वे परमेश्वर से अपेक्षा करते रहते हैं कि वह उनके प्रति कृपालु हो और उन पर और अधिक कृपा बरसाए, और उन्हें दैहिक सुखों का अनुभव करने की अनुमति दे—क्या ये लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं? वे सोचते हैं, “मैंने अपना कर्तव्य करने के लिए अपने परिवार को त्याग दिया है और मैंने इतने कष्ट भोगे हैं। परमेश्वर को मेरे प्रति कृपालु होना चाहिए, ताकि मैं घर को याद न करूं और त्याग करने का संकल्प ले सकूं। उसे मुझे शक्ति प्रदान करनी चाहिए, फिर मैं नकारात्मक और कमजोर नहीं बनूंगा। दूसरे लोग इतने मजबूत हैं, परमेश्वर को मुझे भी मजबूत बनाना चाहिए।” ये शब्द जो लोग बोलते हैं पूरी तरह से तर्क और आस्था से रहित हैं। ये इसलिए बोले जाते हैं कि लोगों की अनावश्यक मांगें पूरी नहीं हुई हैं, जिसने उन्हें परमेश्वर के प्रति असंतोष से भर दिया है। ये वे बातें हैं जो उनके हृदयों से प्रकट होती हैं, और वे पूरी तरह से लोगों की प्रकृति को दर्शाती हैं। ये चीजें लोगों के अंदर बसी होती हैं, और अगर इन्हें त्यागा न जाए, तो वे कभी भी और कहीं भी लोगों को परमेश्वर को लेकर शिकायतें करने और उसे गलत समझने की ओर ले जा सकती हैं। संभव है लोग ईशनिंदा करें, और वे किसी भी पल और किसी भी स्थान पर सच्चे मार्ग को छोड़ सकते हैं। यह बहुत स्वाभाविक है। क्या अब तुम लोग इस मामले को स्पष्ट रूप से देखते हो? लोगों को उन चीजों को जानना चाहिए जो उनकी प्रकृति से प्रकट होती हैं। यह बहुत ही गंभीर मामला है जिसे सावधानी के साथ देखना चाहिए, क्योंकि यह इस मुद्दे को स्पर्श करता है कि लोग अपनी गवाही में दृढ़ रह सकेंगे या नहीं, और इस मुद्दे को कि क्या वे परमेश्वर में अपने विश्वास में उद्धार पा सकेंगे या नहीं। जहां तक उन लोगों की बात है जो थोड़ा सा सत्य समझते हैं, अगर वे यह समझें कि उनके भीतर ये चीजें प्रकट हो रही हैं, और अगर इस समस्या का पता चलने पर, वे इसकी छानबीन कर सकें और इसकी गहराई में जा सकें, तो वे इस समस्या को हल करने में सक्षम होंगे। अगर वे यह नहीं समझेंगे कि उनके अंदर ये चीजें प्रकट हो रही हैं, तो उनके लिए इस समस्या को हल कर पाने का कोई तरीका नहीं होगा, और वे केवल परमेश्वर के प्रकाशन या तथ्यों के खुलासे की ही प्रतीक्षा कर सकते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे आत्म-परीक्षण का मोल नहीं जानते। वे हमेशा यही मानते हैं कि यह एक महत्वहीन चीज है, और वे यह सोचकर खुद को बहला लेते हैं, “सब लोग ऐसे ही होते हैं—थोड़ी-बहुत शिकायत करना कोई बड़ी बात नहीं है। परमेश्वर इसे क्षमा कर देगा और इसे याद नहीं रखेगा।” लोग नहीं जानते कि आत्मचिंतन कैसे करें या समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य कैसे खोजें, वे इनमें से किसी भी चीज का अभ्यास नहीं कर सकते। वे सभी भ्रमित, और अत्यंत आलसी हैं, और साथ ही वे कल्पनाओं पर निर्भर रहते हैं और उनमें डूबे रह सकते हैं। वे कामना करते हैं : “एक दिन परमेश्वर हमारे भीतर आमूलचूल परिवर्तन लाएगा, और फिर हम ऐसे आलसी नहीं रह जाएंगे, हम पूरी तरह से पवित्र हो जाएंगे, और परमेश्वर की शक्ति को ऊँचा मानेंगे।” कल्पना करने के लिए यह एक आकर्षक चीज है, लेकिन यह अवास्तविक है। अगर इतने सारे प्रवचन सुनने के बाद भी कोई व्यक्ति इस तरह की धारणा व्यक्त कर सकता है और ऐसी कल्पनाएं कर सकता है, तो उसे परमेश्वर के कार्य का कोई ज्ञान नहीं है, और आज भी, वह स्पष्ट रूप से नहीं देख पाया है कि परमेश्वर किस तरह लोगों को बचाता है। इस तरह के लोग बेहद अज्ञानी होते हैं। परमेश्वर का घर क्यों हमेशा खुद को जानने और परमेश्वर के स्वभाव को जानने के बारे में संगति करता है? यह हर व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण है। अगर तुम वाकई स्पष्ट रूप से देख सकते हो कि परमेश्वर किस तरह लोगों को बचाता है, तो तुम्हें खुद को जानने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, और तुम्हें नियमित रूप से आत्मचिंतन करना चाहिए—तभी तुम्हें वास्तविक जीवन प्रवेश मिलेगा। जब तुम्हें एहसास होगा कि तुम भ्रष्टता दिखा रहे हो, तो क्या तुम सत्य की खोज कर पाओगे? क्या तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर पाओगे और दैहिक सुखों के खिलाफ विद्रोह कर पाओगे? सत्य का अभ्यास करने के लिए यह पहली शर्त है, और यह एक महत्वपूर्ण कदम है। अगर जो कुछ भी तुम्हारे साथ होता है, और जो कुछ भी तुम करते हो, उन सबमें तुम इससे अवगत रह सकते हो कि कैसे इस तरह से अभ्यास करें जो सत्य के अनुरूप हो, तो तुम्हारे लिए सत्य को अभ्यास में लाना आसान हो जाएगा, और तुम जीवन प्रवेश पा सकोगे। अगर तुम खुद को जानने में समर्थ नहीं हो, तो तुम्हारा जीवन कैसे प्रगति कर सकता है? भले ही तुम कितने भी नकारात्मक और कमजोर हो, अगर तुम आत्मचिंतन नहीं करते और खुद को नहीं पहचान पाते हो, या परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हो, तो इससे बस यही साबित होता है कि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते, तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, और तुम कभी सत्य को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होगे।

पहले, कुछ लोग सोचते थे : “हम बड़े लाल अजगर के शीघ्र पतन की कामना करते हैं और हमें आशा है कि परमेश्वर का दिन शीघ्र ही आएगा। क्या ये वैध अपेक्षाएँ नहीं हैं? क्या परमेश्वर के दिन के शीघ्र आने की कामना करना वैसा ही नहीं है जैसा कि यह कामना करना कि परमेश्वर की महिमा जितनी जल्दी हो सके लाई जाए?” वे गुपचुप रूप से इसे व्यक्त करने के लिए कुछ अच्छे लगने वाले तरीके ढूंढ़ लेते हैं, लेकिन वास्तव में, वे इन चीजों की स्वयं अपने लिए आशा कर रहे होते हैं। अगर वे अपनी खातिर इसकी कामना नहीं कर रहे होते, तो किस चीज की कामना करते? लोग बस यही कामना करते हैं कि जल्दी से अपनी दुखद स्थितियों और इस दर्द भरी दुनिया से मुक्त हो जाएं। कुछ लोग विशेष रूप से ऐसे होते हैं जो पूर्व में परमेश्वर की प्रथम संतान को दिए गए वादों को देखते हैं और इसके लिए उनके अंदर गहरी तृष्णा जाग जाती है। वे जब भी उन शब्दों को पढ़ते हैं, तो यह मरीचिका को देखकर अपनी तृष्णा को शांत करने जैसा होता है। मनुष्य की स्वार्थपूर्ण इच्छाएं अभी पूरी तरह त्यागी नहीं गई हैं, इसलिए तुम चाहे जैसे भी सत्य का अनुसरण करो, यह हमेशा अधमना ही होगा। बहुत से लोग जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, हमेशा परमेश्वर के दिन के आने की कामना करते हैं ताकि वे अपने कष्टों से मुक्त हो सकें और स्वर्ग के राज्य की आशीषों का आनंद ले सकें। जब यह नहीं आता है, तो वे पीड़ा से भर जाते हैं, और कुछ लोग चिल्लाते हैं : “परमेश्वर का दिन कब आएगा? मेरा अभी तक विवाह भी नहीं हुआ है, मैं अब और इंतजार नहीं करता रह सकता! मुझे अपने माता-पिता के प्रति संतान का धर्म निभाना है, मैं अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता! मुझे अभी संतान पैदा करनी है ताकि वे मेरे वृद्ध होने पर मेरी देखभाल करें! परमेश्वर का दिन जल्दी से आना चाहिए! हम सब मिलकर इसके लिए प्रार्थना करें!” वे लोग जो सत्य का अनुसरण करते हैं, अब तक बिना कोई शिकायत किए यहां तक कैसे पहुँच सकते हैं? क्या परमेश्वर के वचन उनका मार्गदर्शन नहीं करते, और परमेश्वर के वचन उनका साथ नहीं देते? लोगों के भीतर बहुत सारी अशुद्धियां होती हैं, क्या शोधन को स्वीकार न करना उनके लिए व्यवहार्य है? वे कष्ट पाए बिना कैसे बदल सकते हैं? लोगों को एक सीमा तक ही शोधित किया जाना चाहिए, और उन्हें आगे बिना कोई शिकायत किए परमेश्वर को अपना आयोजन करने देने के लिए इच्छुक रहना चाहिए—तभी वे पूरी तरह से बदल पाएंगे।

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