परमेश्वर का कार्य और स्वभाव जानने के बारे में वचन (अंश 27)

“ईशनिंदा और परमेश्वर की बदनामी करना पाप है, जिसे इस जीवन में या आने वाली दुनिया में माफ नहीं किया जाएगा, और जो यह पाप करते हैं उनका दोबारा कभी देहधारण नहीं होगा।” इसका मतलब है कि परमेश्वर का स्वभाव मनुष्य द्वारा अपमानित होने को बर्दाश्त नहीं करता। यह संदेह से परे निश्चित है कि ईशनिंदा और परमेश्वर को बदनाम करना पाप है, जिसे इस जीवन में या आने वाली दुनिया में माफ नहीं किया जाएगा। परमेश्वर के खिलाफ ईशनिंदा, चाहे जानबूझकर की गई हो या अनजाने में, यह परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करती है और चाहे कोई भी वजह हो, परमेश्वर के खिलाफ ईशनिंदा वाले शब्द बोलना निश्चित रूप से निंदनीय होगा। हालाँकि कुछ लोग ऐसी परिस्थितियों में निंदनीय और ईशनिंदा वाले शब्द बोलते हैं, जहाँ उन्हें यह समझ नहीं आता या जहाँ उन्हें दूसरों द्वारा गुमराह किया गया है, नियंत्रित किया गया है और दबाया गया है। इन शब्दों को कहने के बाद, वे असहज महसूस करते हैं, उन्हें लगता है कि वे इसके लिए दोषी हैं, और उन्हें बहुत पछतावा होता है। इसके बाद वे इसमें बदलाव लाते हुए और ज्ञान पाते हुए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करते हैं और इसी वजह से परमेश्वर उनके पिछले अपराधों को अब याद नहीं रखता। तुम लोगों को परमेश्वर के वचनों को ठीक से जानना चाहिए और उन्हें अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर मनमाने ढंग से लागू नहीं करना चाहिए। तुम्हें जरूर समझना चाहिए कि उसके वचन किसके लिए लक्षित हैं, और वह किस संदर्भ में बोल रहा है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को मनमाने ढंग से लागू या लापरवाही से परिभाषित नहीं करना चाहिए। जो लोग नहीं जानते कि अनुभव कैसे करना है वे किसी भी चीज के बारे में आत्म-चिंतन नहीं करते, और वे खुद को परमेश्वर के वचनों से नहीं आँकते, जबकि जिनके पास कुछ अनुभव और अंतर्दृष्टि होती है, उनके अतिसंवेदनशील होने की संभावना रहती है, जब वे परमेश्वर के शापों, उसकी घृणा और लोगों को निकाले जाने के बारे में पढ़ते हैं तो वे खुद को मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों से आँकते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते हैं और हमेशा उसे गलत समझ लेते हैं। कुछ लोगों ने परमेश्वर के मौजूदा वचनों को नहीं पढ़ा और उसके मौजूदा कार्यों की जांच-पड़ताल नहीं की, पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता प्राप्त करना तो दूर की बात है। उन्होंने परमेश्वर की आलोचना में बात की, और फिर किसी ने उन तक सुसमाचार फैलाया, जिसे उन्होंने स्वीकार लिया। इसके बाद, उन्हें अपने किए पर पछतावा हुआ और वे पश्चात्ताप करना चाहते हैं, ऐसी स्थिति में हम देखेंगे कि आगे चलकर उनके व्यवहार और अभिव्यक्तियां कैसी होंगी? अगर विश्वास करना शुरू करने के बाद भी उनका व्यवहार बहुत खराब रहता है, और वे सारी उम्मीद छोड़ते हुए सोचते हैं, “मैंने पहले ही परमेश्वर के बारे में ईशनिंदा, बदनामी और आलोचना वाले शब्द बोले हैं, और अगर परमेश्वर ऐसे लोगों को दंडित करता है, तो मेरा अनुसरण निरर्थक ही है,” तो वे पूरी तरह से असफल होंगे। उन्होंने खुद को निराशा में धकेल दिया है और खुद ही अपनी कब्र खोद ली है।

ज्यादातर लोगों के अपने अपराध और दाग हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों ने परमेश्वर का विरोध किया है और ईशनिंदा की बातें कही हैं; कुछ लोगों ने परमेश्वर का आदेश नकारकर अपना कर्तव्य नहीं निभाया है, और परमेश्वर द्वारा ठुकरा दिए गए हैं; कुछ लोगों ने प्रलोभन सामने आने पर परमेश्वर को धोखा दिया है; कुछ लोगों ने गिरफ्तार होने पर “तीन पत्रों” पर हस्ताक्षर करके परमेश्वर को धोखा दिया है; कुछ ने भेंटें चुरा ली हैं; कुछ ने भेंटें बरबाद कर दी हैं; कुछ ने अक्सर कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त कर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाया है; कुछ ने गुट बनाकर दूसरों के साथ अशिष्ट व्यवहार किया है, जिससे कलीसिया अस्त-व्यस्त हो गई है; कुछ ने अक्सर धारणाएँ और मृत्यु फैलाकर भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाया है; और कुछ व्यभिचार और भोग-विलास में लिप्त रहे हैं और उन लोगों का भयानक प्रभाव पड़ा है। जाहिर है, हर किसी के अपने अपराध और दाग हैं। लेकिन कुछ लोग सत्य स्वीकार कर पश्चात्ताप कर पाते हैं, जबकि दूसरे नहीं कर पाते और पश्चात्ताप करने के बजाय मरना पसंद करते हैं। इसलिए लोगों के साथ उनके प्रकृति सार और उनके निरंतर व्यवहार के अनुसार बर्ताव किया जाना चाहिए। जो पश्चात्ताप कर सकते हैं, वे वो लोग होते हैं जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; लेकिन जो वास्तव में पश्चात्ताप न करने वाले होते हैं, जिन्हें हटाकर निकाल दिया जाना चाहिए, उन्हें हटाकर निकाल दिया जाएगा। कुछ लोग कुकर्मी हैं, कुछ अज्ञानी हैं, कुछ मूर्ख हैं और कुछ जानवर हैं। हर कोई अलग है। कुछ कुकर्मी लोगों पर बुरी आत्माओं का साया होता है, जबकि कुछ लोग शैतान और राक्षसों के अनुचर होते हैं। कुछ लोग विशेष रूप से निर्दयी प्रकृति के होते हैं, जबकि कुछ लोग खासकर धोखेबाज होते हैं, कुछ धन के मामले में बहुत लालची होते हैं, और अन्य लोग यौन मामलों में आनंद लेते हैं। हर किसी का व्यवहार अलग है, इसलिए लोगों को उनकी प्रकृति और निरंतर व्यवहार के अनुसार व्यापक रूप से देखा जाना चाहिए। मनुष्य के नश्वर शरीर की सहज प्रवृत्ति के अनुसार, हर व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा होती है, फिर चाहे वह कोई भी हो। वे मनुष्य की धारणाओं के अनुसार चीजों के बारे में सोच सकते हैं, और उनके पास आध्यात्मिक क्षेत्र में सीधे प्रवेश करने की सुविधा नहीं है और ना ही इसका सत्य जानने का कोई तरीका है। उदाहरण के लिए, जब तुम सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हो और उसके नए कार्य के इस चरण को स्वीकारना चाहते हो, फिर भी कोई तुम तक सुसमाचार पहुंचाने नहीं आया है और सिर्फ पवित्र आत्मा का कार्य ही तुम्हें प्रबुद्ध कर रहा है और कहीं ना कहीं तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहा है, तो तुम्हारी जानकारी बेहद सीमित है। तुम्हारे लिए यह जानना असंभव है कि परमेश्वर अभी क्या कार्य कर रहा है और वह भविष्य में क्या करने वाला है। लोग परमेश्वर की थाह नहीं ले सकते; उनके पास ऐसा करने की क्षमता नहीं है, ना तो उनके पास आध्यात्मिक क्षेत्र को सीधे समझने की क्षमता है और ना ही परमेश्वर के कार्य को पूरी तरह से समझने की, स्वर्गदूत की तरह अपनी पूरी इच्छा से उसकी सेवा करने की क्षमता तो बिल्कुल नहीं है। जब तक परमेश्वर अपने वचनों के माध्यम से पहले लोगों को जीत नहीं लेता, उन्हें बचा नहीं लेता और सुधारता नहीं है, या अपने व्यक्त किए गए सत्यों से उनका सिंचन और पोषण नहीं करता है, तब तक लोग उसके नए कार्य को स्वीकारने, सत्य और जीवन प्राप्त करने या परमेश्वर को जानने में असमर्थ हैं। अगर परमेश्वर यह कार्य नहीं करता है, तो ये चीजें लोगों के अंदर नहीं आएंगी; यह उनकी सहज प्रवृत्ति से तय होता है। इस तरह, कुछ लोग विरोध या विद्रोह करते हैं, परमेश्वर के क्रोध और घृणा के पात्र बनते हैं, लेकिन परमेश्वर हर मामले को अलग तरीके से देखता है और मनुष्य की सहज प्रवृत्ति के अनुसार हर किसी से अलग तरीके से पेश आता है। परमेश्वर द्वारा किया गया कोई भी कार्य उचित है। वह जानता है कि क्या करना है और कैसे करना है, और वह निश्चित रूप से लोगों से ऐसा कुछ नहीं करवाएगा जो वे सहज रूप से नहीं कर सकते। प्रत्येक व्यक्ति के साथ परमेश्वर का व्यवहार उस व्यक्ति के हालात की वास्तविक परिस्थितियों और उस समय की पृष्ठभूमि के साथ-साथ उस व्यक्ति के क्रियाकलापों और व्यवहार और उसके प्रकृति-सार पर आधारित होता है। परमेश्वर कभी किसी के साथ अन्याय नहीं करेगा। यह परमेश्वर की धार्मिकता का एक पक्ष है। उदाहरण के लिए, हव्वा को साँप ने भले और बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल खाने के लिए बहकाया, लेकिन यहोवा ने उसे यह कहकर धिक्कारा नहीं, “मैंने तुम्हें इसे खाने से मना किया था, फिर भी तुमने ऐसा क्यों किया? तुममें विवेक होना चाहिए था; तुम्हें यह पता होना चाहिए था कि साँप ने केवल तुम्हें बहकाने के लिए वैसा कहा था।” यहोवा ने हव्वा को इस तरह फटकारा नहीं। चूँकि मनुष्य परमेश्वर की रचना हैं, इसलिए वह जानता है कि उनकी सहज प्रवृत्तियाँ क्या हैं, वे सहज प्रवृत्तियाँ क्या करने में सक्षम हैं, किस हद तक लोग स्वयं को नियंत्रित कर सकते हैं, और लोग कहाँ तक जा सकते हैं। यह सब परमेश्वर बहुत स्पष्ट रूप से जानता है। मनुष्य के साथ परमेश्वर का व्यवहार उतना सरल नहीं है, जितना लोग कल्पना करते हैं। जब किसी व्यक्ति के प्रति उसका रवैया घृणा या अरुचि का होता है, या जब यह बात आती है कि वह व्यक्ति किसी दिए गए संदर्भ में क्या कहता है, तो परमेश्वर को उसकी अवस्थाओं की अच्छी समझ होती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के हृदय और सार की जाँच करता है। लोग हमेशा सोचते रहते हैं, “परमेश्वर में सिर्फ उसकी दिव्यता है। वह धार्मिक है और मनुष्य का कोई अपराध सहन नहीं करता। वह मनुष्य की कठिनाइयों पर विचार नहीं करता या खुद को लोगों के स्थान पर रखकर नहीं देखता। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर का विरोध करता है, तो वह उसे दंड देगा।” ऐसा बिल्कुल नहीं है। अगर कोई उसकी धार्मिकता, उसके कार्य और लोगों के प्रति उसके व्यवहार को ऐसा समझता है, तो वह गंभीर रूप से गलत है। परमेश्वर द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के परिणाम का निर्धारण मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित नहीं होता, बल्कि परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव पर आधारित होता है। वह प्रत्येक इंसान को उसकी करनी के अनुसार प्रतिफल देगा। परमेश्वर धार्मिक है, और देर-सबेर वह यह सुनिश्चित करेगा कि सभी लोग हर तरह से आश्वस्त हों।

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