परमेश्वर का कार्य और स्वभाव जानने के बारे में वचन (अंश 24)

परमेश्वर मानवजाति से प्रेम करता है—यह सच है और हर कोई इस तथ्य को स्वीकारता है—तो, परमेश्वर मनुष्य से कैसे प्रेम करता है? (परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है, मनुष्य को सत्य प्रदान करता है, उन्हें उजागर करता है, उन्हें न्याय देता है, अनुशासित करता है, उनका परीक्षण और शोधन करता है, जिससे वे सत्य समझ सकें और सत्य प्राप्त कर सकें।) यह एक ऐसी चीज है जिसका तुम सभी लोगों ने अनुभव किया है और इसे देखा है। मानवजाति के प्रति परमेश्वर के प्रेम की अभिव्यक्ति हर युग में भिन्न होती है—कुछ मामलों में परमेश्वर का प्रेम लोगों की धारणाओं के अनुरूप होता है और वे तुरंत इसे समझ सकते हैं और स्वीकार सकते हैं, लेकिन कभी-कभी परमेश्वर का प्रेम लोगों की धारणाओं के विपरीत होता है और वे इसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते। परमेश्वर के प्रेम के कौन से पहलू लोगों की धारणाओं के विपरीत होते हैं? परमेश्वर का न्याय, ताड़ना, निंदा, दण्ड, क्रोध, श्राप इत्यादि। कोई भी इन चीजों का सामना करने के लिए तैयार नहीं होता, न ही वे इन्हें स्वीकार सकते हैं, न ही उन्होंने कभी कल्पना की होती है कि परमेश्वर का प्रेम इस तरह से प्रकट हो सकता है। तो, मनुष्य ने आरंभ में परमेश्वर के प्रेम की सीमाओं को कैसे निर्धारित किया था? उन्होंने मूल रूप से प्रभु यीशु द्वारा बीमारों को चंगा करने, राक्षसों को खदेड़ बाहर निकालने, पाँच हजार लोगों को पाँच रोटियों और दो मछलियों से पेट भर कर खिलाने, ढेर सारा अनुग्रह प्रदान करने और खोए हुए लोगों की तलाश करने तक ही परमेश्वर के प्रेम की सीमाओं को निर्धारित किया था—उनके चित्रण में, परमेश्वर मानवजाति के साथ एक छोटे मेमने की तरह व्यवहार करता है, यानी वह उन्हें बहुत नरमी से सहलाता है। उनके लिए यही परमेश्वर का प्रेम है। इसीलिए जब वे परमेश्वर को कठोरता से बात करते हुए और न्याय, ताड़ना, पिटाई और अनुशासित करते हुए देखते हैं तो यह परमेश्वर के बारे में उनके कल्पित संस्करण के विपरीत होती है और इसलिए वे अपने मन में धारणाएँ बना लेते हैं, विद्रोही हो जाते हैं और यहाँ तक कि परमेश्वर को नकार भी देते हैं। अगर परमेश्वर को तुम लोगों को शाप देने की जरूरत पड़े, मान लो कि तुम लोगों में मानवता की कमी है, तुम लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और किसी जानवर से बेहतर नहीं हो और वह तुम्हें नहीं बचाएगा, तो ऐसे हालात में तुम लोग क्या सोचोगे? क्या तुम सोचोगे कि परमेश्वर का प्रेम सच्चा नहीं है, कि परमेश्वर प्रेम नहीं करता? क्या तुम्हारा उस पर से भरोसा उठ जाएगा? कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर मुझे बचाने के लिए मुझे न्याय और ताड़ना देता है, लेकिन अगर वह मुझे शाप देगा तो मैं उसे अपने परमेश्वर के रूप में कभी नहीं स्वीकारूँगा। यदि परमेश्वर किसी को शाप देता है तो क्या यह उसके लिए अंत का सूचक नहीं है? क्या इसका यह मतलब नहीं है कि उसे दंड दिया जाएगा और नरक में भेज दिया जाएगा? बिना किसी नतीजे की उम्मीद के परमेश्वर पर विश्वास करने का क्या फायदा है?” क्या यह एक विकृत धारणा नहीं है? यदि भविष्य में कभी परमेश्वर तुम्हें शाप देता है, तो क्या तुम तब भी उसके पीछे चलोगे जैसे अभी चलते हो? क्या तुम तब भी अपना कर्तव्य निभाओगे? यह कहना मुश्किल है। कुछ लोग अपने कर्तव्य पर दृढ़ बने रहने में सक्षम होते हैं; वे सत्य का अनुसरण करने पर जोर देते हैं और तैयार रहते हैं। हालाँकि, अन्य लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं और जीवन की प्रगति को महत्व नहीं देते हैं—वे इन चीजों की उपेक्षा करते हैं। वे केवल पुरस्कार और सुविधाएँ प्राप्त करने और परमेश्वर के घर में एक उपयोगी व्यक्ति बनने के बारे में सोचते हैं। उन्हें जब भी समय मिलता है, वे हमेशा यही संक्षेप में बताते रहते हैं कि उन्होंने हाल ही में क्या-क्या काम किए हैं, उन्होंने चर्च के लिए कौन से अच्छे कर्म किए हैं, उन्होंने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है और उन्हें क्या पुरस्कार और ताज दिए जाने चाहिए। ये वे चीजें हैं जिनका वे अपने खाली समय में संक्षेप में बताते रहते हैं। जब परमेश्वर ऐसे लोगों को शाप देता है तो क्या यह उनके लिए चौंकाने वाली और अनपेक्षित बात नहीं होती है? क्या वे तुरंत परमेश्वर पर विश्वास करना बंद करने के लिए उत्तरदायी हैं? क्या इसकी कोई संभावना है? (हाँ।) एक सृजित प्राणी का अपने सृष्टिकर्ता के प्रति जो एकमात्र दृष्टिकोण होना चाहिए, वह है समर्पण का, ऐसा समर्पण जो बिना शर्त हो। यह ऐसी चीज़ है, जिसे आज कुछ लोग स्वीकार करने में असमर्थ हो सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और उसमें सत्य वास्तविकता नहीं है। जब परमेश्वर ऐसी चीजें करता है जो तुम्हारी धारणाओं से उलट होती है, तो अगर तुम्हारे परमेश्वर को गलत समझने की संभावना है—तुम परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हो और उसे धोखा दे सकते हो—तो फिर तुम परमेश्वर के समक्ष समर्पण कर पाने से बहुत दूर हो। जबकि मनुष्य को परमेश्वर के वचन द्वारा पोषण और सिंचन प्रदान किया जाता है, फिर भी वे वास्तव में एक ही लक्ष्य के लिए प्रयास कर रहे हैं, जो अंततः परमेश्वर के प्रति बिना शर्त पूर्ण समर्पण करने में सक्षम होना है, जिस बिंदु पर तुम, एक सृजित प्राणी, आवश्यक मानक तक पहुँच चुके होगे। कई बार ऐसा भी होता है जब परमेश्वर जानबूझकर तुम्हारी धारणाओं से उलट चीजें करता है, और जानबूझकर ऐसी चीजें करता है जो तुम्हारी इच्छा के विपरीत होती हैं और जो सत्य के भी विपरीत प्रतीत हो सकती हैं; तुम्हारे प्रति विचारहीन और तुम्हारी प्राथमिकताओं के विरुद्ध प्रतीत हो सकती हैं। इन चीजों को स्वीकार करना तुम्हारे लिए मुश्किल हो सकता है, तुम उनका कोई मतलब नहीं समझ पाते, और चाहे तुम उनका कैसे भी विश्लेषण करो, तुम्हें वे गलत प्रतीत हो सकती हैं और शायद तुम उन्हें स्वीकार न कर पाओ, तुम्हें ऐसा लग सकता है कि परमेश्वर का ऐसा करना अनुचित था—पर दरअसल परमेश्वर ने यह जानबूझकर किया होता है। तो फिर ऐसी चीजें करने के पीछे परमेश्वर का क्या लक्ष्य होता है? यह तुम्हारी परीक्षा लेने और तुम्हें प्रकट करने के लिए होता है, यह देखने के लिए कि तुम सत्य की खोज करने में सक्षम हो या नहीं, कि तुममें परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण है या नहीं। परमेश्वर जो कुछ भी करता है और जो भी अपेक्षा करता है उसका कोई आधार न खोजो, उसका कारण न पूछो। परमेश्वर के साथ तर्क करने का कोई लाभ नहीं है। तुम्हें बस यह स्वीकार करना है कि परमेश्वर सत्य है, और तुम्हें पूर्ण समर्पण में सक्षम होना है। तुम्हें बस यह स्वीकार करना है कि परमेश्वर तुम्हारा सृष्टिकर्ता और तुम्हारा परमेश्वर है। यह किसी भी सिद्धांत से ऊपर है, हर सांसारिक ज्ञान से ऊपर है, हर मानवीय नैतिकता, संहिता, ज्ञान, फलसफे या पारंपरिक संस्कृति से ऊपर है—यह मानवीय भावनाओं, मानवीय धार्मिकता और तथाकथित मानवीय प्रेम से भी ऊपर है। यह हर चीज से ऊपर है। अगर यह तुम्हें स्पष्ट नहीं है तो देर-सवेर तुम्हारे साथ कुछ होगा और तुम गिर पड़ोगे। और कुछ नहीं तो कम से कम, तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर दोगे और भटकाव की राह पर चले जाओगे; अगर तुम आखिर में प्रायश्चित करने में सफल रहते हो, और परमेश्वर की मनोहरता को पहचान लेते हो, अपने अंदर परमेश्वर के कार्य के महत्व को पहचान लेते हो, तब भी तुम्हारे उद्धार की उम्मीद बाकी रहेगी—पर अगर तुम इसकी वजह से गिर पड़ते हो और वापस उठ नहीं पाते, तो तुम्हारे लिए कोई उम्मीद नहीं है। परमेश्वर लोगों का न्याय करे, उन्हें ताड़ना दे, शाप दे, ये सब उन्हें बचाने के लिए हैं, और उन्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें किस चीज से डरना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के ऐसा कहने से डरना चाहिए, “मैं तुम्हें ठुकराता हूँ।” अगर परमेश्वर ऐसा कहता है तो तुम मुसीबत में हो : इसका मतलब है कि परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाएगा, और तुम्हारे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है। और इसलिए, परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने में लोगों को परमेश्वर के इरादे समझने चाहिए। तुम कुछ भी करो, पर परमेश्वर के वचनों में मीन-मेख निकालते हुए यह न कहो, “न्याय और ताड़ना ठीक हैं, पर निंदा, शाप और विनाश—क्या इनका मतलब यह नहीं कि मेरे लिए सब खत्म हो चुका है? सृजित प्राणी होने का क्या फायदा है? इसलिए मैं अब से सृजित प्राणी नहीं बनने वाला हूँ और तुम मेरे परमेश्वर नहीं होगे।” अगर तुम परमेश्वर को नकार दोगे, अपनी गवाही में डटकर नहीं खड़े रहोगे, तो परमेश्वर तुम्हें सचमुच अस्वीकार कर देगा। क्या तुम लोग यह जानते हो? लोग चाहे कितने ही समय से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हों, उन्होंने चाहे कितने ही रास्ते तय किए हों, कितना ही काम किया हो, कितने ही कर्तव्य निभाए हों, इस अवधि में उन्होंने जो कुछ भी किया है वह सब एक चीज की तैयारी के लिए है। वह क्या है? वे अंततः परमेश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण, बिना शर्त समर्पण दिखाने में सक्षम होने की तैयारी करते रहे हैं। “बिना शर्त” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम कोई सफाई नहीं देते, और अपने वस्तुनिष्ठ कारणों की कोई बात नहीं करते, इसका अर्थ है कि तुम बाल की खाल नहीं निकालते; तुम ऐसा करने के योग्य नहीं हो क्योंकि तुम सृजित प्राणी हो। जब तुम परमेश्वर के साथ बाल की खाल निकालते हो तो तुम अपनी जगह नहीं पहचान पाते, और जब तुम परमेश्वर के साथ तर्क करने की कोशिश करते हो—तो एक बार फिर तुम अपनी जगह नहीं पहचान पाते। परमेश्वर के साथ बहस मत करो, हमेशा कारण समझने की कोशिश न करो, समर्पण से पहले समझने पर और समझ न आए तो समर्पण न करने पर अड़े न रहो। जब तुम ऐसा करते हो तो तुम गलत स्थान पर खड़े होते हो, जिसका मतलब है कि परमेश्वर के प्रति तुम्हारा समर्पण संपूर्ण नहीं है, यह सापेक्षिक और सशर्त समर्पण है। वे लोग जो परमेश्वर के प्रति अपने समर्पण के लिए शर्तें रखते हैं, क्या परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण करने वाले लोग हैं? क्या तुम परमेश्वर से परमेश्वर की तरह व्यवहार कर रहे हो? क्या तुम परमेश्वर की सृष्टिकर्ता के रूप में आराधना करते हो? अगर नहीं, तो परमेश्वर तुम्हें अभिस्वीकृत नहीं करता। परमेश्वर के प्रति संपूर्ण और बिना शर्त समर्पण हासिल करने के लिए तुम्हें क्या अनुभव करना चाहिए? और इसे कैसे अनुभव करना चाहिए? एक बात तो यह कि लोगों को परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए और उन्हें काट-छाँट स्वीकार करनी चाहिए। इसके साथ ही उन्हें परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करना चाहिए, और अपना कर्तव्य निभाते समय सत्य का अनुसरण करना चाहिए। उन्हें जीवन प्रवेश को समझने से जुड़े सत्य के विभिन्न पहलुओं को समझना चाहिए और परमेश्वर के इरादों की समझ हासिल करनी चाहिए। कई बार, यह लोगों की काबिलियत से बाहर होता है, और उनमें सत्य की समझ प्राप्त करने के लिए अंतर्दृष्टि की शक्तियों का अभाव होता है, और वे दूसरों के उनके साथ संगति करने या परमेश्वर द्वारा तैयार की गई विभिन्न स्थितियों से मिले सबक के बाद ही थोड़ा-बहुत समझ पाते हैं। पर तुम्हें यह बोध होना चाहिए कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर के प्रति समर्पण की भावना होनी चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के साथ तर्क नहीं करना चाहिए या कोई शर्त नहीं रखनी चाहिए; परमेश्वर जो भी करता है वह वही होता है जो किया जाना चाहिए, क्योंकि वह सृष्टिकर्ता है और तुम एक सृजित प्राणी हो। तुम्हारा रवैया समर्पण का होना चाहिए, तुम्हें हमेशा तर्क या शर्त की बात नहीं करनी चाहिए। अगर तुम्हारे अंदर समर्पण के सबसे बुनियादी रवैये का भी अभाव है, और तुम परमेश्वर पर संदेह करने और उससे आशंकित होने की हद तक जा सकते हो, या अपने मन में यह सोच सकते हो, “मुझे यह देखना होगा कि क्या परमेश्वर मुझे सचमुच बचाएगा और क्या परमेश्वर सचमुच धार्मिक है। हर कोई कहता है कि परमेश्वर प्रेम है—तो ठीक है, मुझे यह देखना ही है कि परमेश्वर मेरे अंदर जो कुछ करता है उसमें क्या सचमुच प्रेम शामिल है, क्या यह सचमुच प्रेम है,” अगर तुम निरंतर यह जाँचते रहते हो कि परमेश्वर जो कुछ करता है वह तुम्हारी धारणाओं और रुचियों के अनुरूप है या नहीं, या जिसे तुम सत्य समझते हो उसके अनुरूप है या नहीं, तो तुम गलत स्थान पर खड़े हो और तुम मुसीबत में हो : संभावना है कि तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर बैठोगे। समर्पण से जुड़े सत्य बहुत अहम हैं, और किसी भी सत्य को सिर्फ दो-तीन वाक्यों में पूरी तरह और स्पष्ट रूप से समझाया नहीं जा सकता; वे सब लोगों की विभिन्न अवस्थाओं और भ्रष्टता से जुड़े हुए हैं। सत्य वास्तविकता में प्रवेश एक या दो—या तीन या पाँच—वर्षों में हासिल नहीं किया जा सकता। इसके लिए बहुत-सी चीजों के अनुभव की, परमेश्वर के वचनों के बहुत-से न्याय और ताड़ना के अनुभव की, बहुत-सी काट-छाँट के अनुभव की जरूरत होती है। केवल जब तुम अंततः सत्य का अभ्यास करने की क्षमता प्राप्त कर लोगे तभी तुम्हारा सत्य का अनुसरण असरदार होगा और केवल तभी तुम सत्य-वास्तविकता को प्राप्त करोगे। जिनके पास सत्य वास्तविकता है, केवल वही सच्चे अनुभव वाले लोग होते हैं।

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