परमेश्वर का कार्य और स्वभाव जानने के बारे में वचन (अंश 20)
सभी भ्रष्ट मनुष्यों में शैतानी प्रकृति होती है। उन सबमें शैतानी स्वभाव होता है और वे कहीं भी, कभी भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। कुछ लोग पूछते हैं, “परमेश्वर ने मनुष्यों को बनाया और वे परमेश्वर के हाथों में हैं। तो फिर परमेश्वर मनुष्यों की रक्षा क्यों नहीं करता, इसके बजाय उन्हें परमेश्वर को धोखा क्यों देने देता है? तो क्या परमेश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है?” यह वाकई एक सवाल है। इसमें तुम्हें क्या दिक्कतें नजर आ रही हैं? परमेश्वर का एक सर्वशक्तिमान पक्ष है और उसका एक व्यावहारिक पक्ष भी है। लोग शैतान के हाथों भ्रष्ट हुए बिना भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। मनुष्यों के पास इस संबंध में स्वयं अपनी कोई इच्छा नहीं होती है कि उन्हें परमेश्वर की आराधना किस प्रकार करनी चाहिए और शैतान को कैसे त्यागना चाहिए, कैसे शैतान से नहीं जुड़ना चाहिए और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए। परमेश्वर के पास सत्य, जीवन और मार्ग है, परमेश्वर का अपमान नहीं किया जा सकता है...। मनुष्यों के पास इनमें से कुछ भी नहीं होता है। वे शैतान की प्रकृति की इन चीजों की असलियत नहीं समझते और सत्य को बिल्कुल भी नहीं समझते, इसलिए वे कहीं भी, कभी भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। यही नहीं, शैतान के हाथों भ्रष्ट होने के बाद उनके भीतर शैतान की चीजें आ जाती हैं और उनके लिए परमेश्वर को धोखा देना और भी आसान हो जाता है। समस्या यही है। यदि तुम परमेश्वर का सिर्फ व्यावहारिक पक्ष देखते हो, उसका सर्वशक्तिमान पक्ष नहीं देखते तो तुम्हारे लिए परमेश्वर को धोखा देना और मसीह को एक साधारण व्यक्ति मानकर देखना आसान होगा और तुम कभी नहीं जान पाओगे कि वह मनुष्यजाति को बचाने के लिए आखिर इतने सारे सत्य कैसे प्रदान कर सकता है। यदि तुम परमेश्वर का सिर्फ सर्वशक्तिमान पक्ष देखते हो और उसका व्यावहारिक पक्ष नहीं देखते तो तुम्हारे लिए परमेश्वर का विरोध करना भी आसान होगा। यदि तुम इन दोनों में से कोई भी पक्ष नहीं देखते तो इसकी संभावना और भी अधिक है कि तुम परमेश्वर का विरोध करोगे। इसलिए परमेश्वर को जानना क्या दुनिया में सबसे कठिन बात नहीं है? लोग परमेश्वर को जितना अधिक जान जाते हैं, वे उतना ही अधिक परमेश्वर के इरादे समझ लेते हैं और यह समझ जाते हैं कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसका अर्थ जरूर होता है। यदि लोगों के पास परमेश्वर का सच्चा ज्ञान हो, तो वे ऐसे नतीजे हासिल कर सकते हैं। भले ही परमेश्वर का एक व्यावहारिक पक्ष है लेकिन लोग उसे कभी पूरी तरह से नहीं जान सकते। परमेश्वर अत्यंत महान और अद्भुत रूप से अथाह है तो दूसरी तरफ लोगों की सोच बहुत सीमित है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि मनुष्य हमेशा परमेश्वर के सामने एक बच्चा होता है? इसका यही मतलब है।
जब परमेश्वर कुछ कहता या करता है तो लोग हमेशा गलत समझते हैं, “परमेश्वर ऐसा कैसे कर सकता है? परमेश्वर सर्वशक्तिमान है!” लोगों की हमेशा अपनी ही धारणाएँ होती हैं। जहाँ तक परमेश्वर के सांसारिक कष्ट सहने की बात है, कुछ लोग सोचते हैं, “क्या परमेश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है? क्या उसे सांसारिक कष्टों का स्वाद चखने की आवश्यकता है? क्या परमेश्वर को नहीं पता कि सांसारिक कष्ट कैसे होते हैं?” यह परमेश्वर की कार्यप्रणालियों का व्यावहारिक पक्ष है। अनुग्रह के युग में यीशु को मानवजाति के छुटकारे के लिए सलीब पर चढ़ाया गया था, लेकिन मनुष्य परमेश्वर को नहीं समझता और अपने मन में हमेशा परमेश्वर के बारे में कुछ धारणाएँ पालकर कहता है : “सारी मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए परमेश्वर को शैतान से केवल यह कहना था, ‘मैं सर्वशक्तिमान हूँ। तू मानवजाति को मेरे पास आने से रोकने की हिम्मत करता है? तुझे मानवजाति को मुझे सौंपना ही होगा।’ इन कुछ वचनों के साथ हर चीज़ का समाधान किया जा सकता था—तो क्या परमेश्वर के पास अधिकार नहीं था? कुल मिलाकर परमेश्वर को बस इतना कहने की आवश्यकता थी कि मानवजाति को मुक्त किया गया था और मनुष्य के पापों को क्षमा किया गया था, तो मनुष्य निष्पाप हो जाता। क्या ये चीज़ें परमेश्वर के वचनों द्वारा तय नहीं की जा सकतीं थीं? यदि परमेश्वर के वचनों से स्वर्ग एवं पृथ्वी और सभी वस्तुएं अस्तित्व में आ गई थीं, तो परमेश्वर इस मुद्दे को क्यों नहीं सुलझा सका? क्यों परमेश्वर को स्वयं सलीब पर चढ़ने की आवश्यकता पड़ी थी?” परमेश्वर का सर्वशक्तिमान पहलू और उसका व्यावहारिक पहलू दोनों यहाँ पर कार्य कर रहे थे। उसके व्यावहारिक पहलू के सम्बन्ध में, देहधारी परमेश्वर ने पृथ्वी पर अपने साढ़े-तैंतीस सालों में अत्यधिक दुख सहा था और अंत में उसे सलीब पर लटका दिया गया। उसने सबसे भयानक दुख सहा। फिर वह पुनर्जीवित हो गया, और परमेश्वर का पुनरुत्थान उसकी सर्वशक्तिमत्ता का ही एक पहलू था। परमेश्वर ने कोई संकेत नहीं किया था, या कोई लहू नहीं बहाया था या वर्षा नहीं की थी और यह नहीं कहा था कि यह एक पापबलि है। उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया था, बल्कि उसने मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए व्यक्तिगत रूप में देहधारण किया था और उसे सलीब पर कीलों से ठोंक दिया गया था, ताकि मानव जाति को इस तथ्य का पता चले। इस तथ्य की वजह से, मानवजाति परमेश्वर को जान पाई कि परमेश्वर ने उसे छुटकारा दिया है और यह प्रमाण है कि परमेश्वर ने वस्तुतः मनुष्य को बचाया है। कोई भी देहधारण कार्य को क्रियान्वित करे या यदि आत्मा उस कार्य को सीधे तौर पर करे, यह सब जरूरी है। इसका अर्थ है कि चीज़ों को इस रीति से करने से उस कार्य को बहुत ही मूल्यवान और सार्थक बना दिया जाता है, और चीज़ों को केवल इस रीति से करने से ही मानवजाति उसके लाभों की फसल काट सकती है। यह इसलिए है क्योंकि सम्पूर्ण मानवजाति परमेश्वर के प्रबंधन का उद्देश्य है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि यह शैतान के साथ युद्ध करने और उसे अपमानित करने के लिए ही मानवजाति का प्रबंधन किया गया था। और वास्तव में, क्या यह अंत में मनुष्य के लिए अच्छा नहीं है? मनुष्य के लिए, यह एक ऐसी चीज है जिसे याद रखा जाना चाहिए और जो सबसे मूल्यवान और सार्थक है, क्योंकि परमेश्वर ऐसे लोगों को बनाना चाहता है जो परमेश्वर की एक समझ के साथ क्लेश से उभरे हैं, जिन्हें परमेश्वर के द्वारा पूर्ण बनाया गया है और जो शैतान की भ्रष्टता से होकर आए हैं; अतः इस कार्य को निश्चित रूप से इसी रीति से ही किया जाना चाहिए। परमेश्वर अपने कार्य की प्रत्येक अवस्था में किस पद्धति को नियोजित किया जाए उसका निर्णय मानवजाति की आवश्यकताओं पर आधारित होता है। परमेश्वर का कार्य निश्चित रूप से अंधाधुंध तरीकों का उपयोग करके नहीं किया जाता है। परन्तु लोगों की अपनी पसंद और अपनी अवधारणाएं होती हैं। उदाहरण के लिए, यीशु के सलीब पर चढ़ने के बारे में, लोग सोचते हैं : “परमेश्वर को सलीब पर चढ़ाए जाने का हमसे क्या लेना-देना है?” वे सोचते हैं कि कोई सम्बन्ध नहीं है, किन्तु मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर को सलीब पर चढ़ना ही था। सलीब पर चढ़ाया जाना उस समय का सबसे भयानक कष्ट था, क्या आत्मा को सलीब पर चढ़ाया जा सकता था? आत्मा को सलीब पर नहीं चढ़ाया जा सकता और वह परमेश्वर का पूर्वरूप नहीं हो सकता, खून बहाना और मरना तो दूर की बात है। केवल देहधारी को ही सलीब पर चढ़ाया जा सकता था और यह पाप-बलि का प्रमाण था। उसके शरीर ने पापी शरीर का रूप धारण किया और मानवजाति के लिए कष्टों का बोझ उठाया। आत्मा मानवजाति के लिए कष्ट नहीं उठा सकता, न ही वह लोगों के पापों का प्रायश्चित कर सकता है। यीशु को मानवजाति के खातिर सलीब पर चढ़ाया गया था। यह परमेश्वर का व्यावहारिक पक्ष है। परमेश्वर ऐसा कर सकता है और इस तरह से लोगों से प्रेम कर सकता है, जबकि मनुष्य ऐसा नहीं कर सकते। यह परमेश्वर का सर्वशक्तिमान पक्ष है।
परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसमें उसके सर्वशक्तिमान पक्ष के साथ ही उसका व्यावहारिक पक्ष भी शामिल होता है। परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता उसका सार है, उसकी व्यावहारिकता भी उसका सार है; इन दोनों पहलुओं को अलग नहीं किया जा सकता। परमेश्वर का वास्तविक, व्यावहारिक तरीके से कर्म करना उसका व्यावहारिक पहलू है और उसका इस तरह से कार्य कर सकना उसके सर्वशक्तिमान पहलू को भी दर्शाता है। तुम यह नहीं कह सकते, “चूँकि परमेश्वर व्यावहारिक ढंग से कार्य करता है, इसलिए वह व्यावहारिक है, उसका केवल एक व्यावहारिक पक्ष है और उसका कोई सर्वशक्तिमान पहलू नहीं है”; यदि तुम ऐसा कहोगे, तो यह एक विनियम बन जाएगा। यह व्यावहारिक पहलू है लेकिन एक सर्वशक्तिमान पहलू भी है। जो कुछ भी परमेश्वर करता है उसमें उसकी सर्वशक्तिमत्ता और उसकी व्यावहारिकता के दोनों पहलू शामिल होते हैं, और यह सब कुछ उसके सार के आधार पर किया जाता है; यह उसके स्वभाव का एक प्रकटीकरण है, और यह उसके सार और जो वह है उसका एक प्रकाशन है। लोग सोचते हैं कि अनुग्रह के युग में परमेश्वर दया और प्रेम था; किन्तु अभी भी उसका क्रोध और उसका न्याय बरकरार था। परमेश्वर द्वारा फरीसियों और सारे यहूदियों को कोसना-क्या यह उसका क्रोध एवं धार्मिकता नहीं थी? तुम नहीं कह सकते कि अनुग्रह के युग में परमेश्वर केवल दया और प्रेम था, कि मूलतः उसके अंदर कोई क्रोध, कोई न्याय या अभिशाप नहीं था—ऐसा कहना लोगों में परमेश्वर के कार्य के बारे में समझ की कमी को दर्शाता है। अनुग्रह के युग में परमेश्वर का कार्य कुल मिलाकर उसके स्वभाव का एक प्रकटीकरण था। परमेश्वर ने जो कुछ भी किया जिसे मनुष्य देख सकता था वह यह साबित करने के लिए था कि वह स्वयं परमेश्वर है और यह कि वह सर्वशक्तिमान है, और यह साबित करने के लिए था कि स्वयं उसके पास ही परमेश्वर का सार है। क्या इस वर्तमान अवस्था के दौरान परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के कार्य का अर्थ यह था कि उसमें कोई दया या प्रेम नहीं है? नहीं। यदि तुम परमेश्वर के सार को केवल एक वाक्य या कथन में समेटने की कोशिश करते हो तो तुम बहुत घमंडी और आत्मतुष्ट हो, मूर्ख और अज्ञानी हो और यह दर्शाता है कि तुम परमेश्वर को नहीं जानते। कुछ लोग कहते हैं, “हमें परमेश्वर को जानने के बारे में सत्य बताओ, इसे साफ-साफ समझाओ।” तो परमेश्वर को जानने वाले व्यक्ति को क्या कहना चाहिए? वह यही कहेगा, “परमेश्वर को जानने का विषय इतना गहरा है कि मैं इसे चंद वाक्यों में साफ-साफ नहीं समझा सकता। चाहे मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ, मैं इसे बोधगम्य नहीं बना सकता। अगर तुम्हें इसका साराँश पता है तो यही काफी है। कोई भी परमेश्वर को पूरी तरह नहीं जान सकता।” परमेश्वर को न जानने वाला घमंडी इंसान कहेगा, “मुझे पता है वह किस तरह का परमेश्वर है, मैं उसे वाकई समझता हूँ।” क्या यह बड़बोलापन नहीं है? जो भी ऐसी बातें करता है वह घनघोर घमंडी है! कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें अगर लोगों ने अनुभव न किया हो या कुछ तथ्य न देखे हों, तो वे इसे वास्तव में नहीं जान सकते या इसका अनुभव नहीं कर सकते, इसलिए उन्हें लगता है कि परमेश्वर को जानना काफी अमूर्त है। जो लोग नहीं जानते वे केवल एक तरह का वक्तव्य सुनते हैं, वे इसके पीछे के तर्क को तो समझते हैं लेकिन इसे जानते नहीं हैं। सिर्फ इसलिए कि तुम इसे नहीं जानते तो इसका मतलब यह नहीं है कि यह सत्य नहीं है। जिनके पास कोई अनुभव नहीं होता उन्हें यह अमूर्त लगता है, लेकिन यह वास्तव में अमूर्त नहीं है। यदि किसी व्यक्ति के पास वास्तव में अनुभव है तो वह परमेश्वर के वचनों का मिलान अपने समुचित प्रसंगों से कर पाएगा और इन्हें लागू करके अभ्यास में लाएगा। सत्य को समझना यही कहलाता है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों के सिर्फ शाब्दिक अर्थ पर ध्यान देते हो लेकिन तुम्हें व्यावहारिक समझ नहीं है तो क्या तुम सत्य को समझ सकते हो? तुम्हें अभ्यास में लाकर इनका अनुभव करना चाहिए। सत्य को समझना इतना आसान नहीं है।
परमेश्वर ने अनुग्रह के युग में पूरी मानवजाति का उद्धार किया। यह परमेश्वर का सर्वशक्तिमान पक्ष है और उसकी सर्वशक्तिमत्ता में उसके सभी व्यावहारिक कार्य शामिल हैं। वह अपना कार्य करके लोगों पर विजय प्राप्त करता है और सभी लोग उसके सामने झुक जाते हैं और उसे स्वीकार कर पाते हैं। अगर लोग परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और व्यावहारिकता को एक-दूसरे से अलग मानते हैं तो वे इन्हें पूरी तरह समझ नहीं पाएंगे। परमेश्वर को समझने के लिए तुम्हें उसकी सर्वशक्तिमत्ता और व्यावहारिकता के दोनों पहलुओं के अपने ज्ञान को मिलाना होगा; तभी तुम नतीजे हासिल कर पाओगे। परमेश्वर वास्तविक रूप से और व्यावहारिक रूप से कार्य करता है, और सत्य व्यक्त करके मानवता की भ्रष्टता को शुद्ध और हल करता है, और वह लोगों की सीधे अगुवाई करने में भी समर्थ है—ये बातें परमेश्वर के व्यावहारिक पक्ष को दिखाती हैं। परमेश्वर अपने स्वभाव और स्वरूप को प्रकट करता है और वो सारे कार्य कर सकता है जो मनुष्य नहीं कर सकते; इसमें परमेश्वर के सर्वशक्तिमान पक्ष को देखा जा सकता है। परमेश्वर के पास यह अधिकार है कि वह जो कुछ भी कहता है उसे साकार कर सके, अपने आदेशों को दृढ़ रख सके और अपनी कही बातों को पूरा करवा सके। परमेश्वर के बोलते समय उसकी सर्वशक्तिमत्ता प्रकट होती है। सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता है, वह शैतान से चतुराई से अपनी सेवा करवाता है, लोगों का परीक्षण करने और उनका शोधन करने के लिए परिवेशों की व्यवस्था करता है और वह उनके स्वभाव को शुद्ध करता और बदलता है—ये सभी चीजें परमेश्वर के सर्वशक्तिमान पक्ष की अभिव्यक्तियाँ हैं। परमेश्वर का सार सर्वशक्तिमान और व्यावहारिक दोनों है, और ये दोनों पहलू एक दूसरे के पूरक हैं। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह उसके अपने स्वभाव का प्रकटीकरण और अपने स्वरूप का प्रकाशन है। परमेश्वर के स्वरूप में उसकी सर्वशक्तिमत्ता, उसकी धार्मिकता और उसका प्रताप शामिल है। प्रारम्भ से लेकर अंत तक परमेश्वर का कार्य उसके सार का प्रकाशन और उसके स्वरूप का प्रकटीकरण है। उसके सार के दो पहलू हैं : एक उसकी सर्वशक्तिमत्ता का पहलू है, दूसरा उसकी व्यावहारिकता का पहलू है। चाहे तुम परमेश्वर के कार्यों के किसी भी चरण को देखो, ये दो पहलू परमेश्वर के हर कार्य में होते हैं। यह परमेश्वर को समझने का एक रास्ता है।
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