परमेश्वर के दैनिक वचन : बाइबल के बारे में रहस्य | अंश 279
बाइबल हज़ारों साल से इंसानी इतिहास का हिस्सा रही है। इतना ही नहीं, लोग इसे परमेश्वर की तरह मानते हैं। यहाँ तक कि अंत के दिनों में इसने...
हम परमेश्वर के प्रकटन के लिए बेसब्र सभी साधकों का स्वागत करते हैं!
दर्शनों में अभ्यास के लिए अनेक मार्ग होते हैं। मनुष्य से की गई व्यावहारिक मांगें भी इन दर्शनों के भीतर होती हैं, चूँकि यह परमेश्वर का कार्य है जिसे मनुष्य के द्वारा पहचाना जाना चाहिए। अतीत में, विशेष सभाओं या बड़ी सभाओं के दौरान जिन्हें विभिन्न स्थानों में आयोजित किया जाता था, रीति व्यवहार के मार्ग के केवल एक पहलु के विषय में ही बोला जाता था। इस प्रकार के रीति व्यवहार ऐसे थे कि उन्हें अनुग्रह के युग के दौरान अभ्यास में लाया जाना था, वे बमुश्किल ही परमेश्वर के ज्ञान से कोई सम्बन्ध रखते थे, क्योंकि अनुग्रह के युग का दर्शन मात्र यीशु के क्रूसारोहण का दर्शन था, और वहाँ कोई अति महान दर्शन नहीं थे। मनुष्य से अपेक्षा की गई थी कि वह क्रूसारोहण के माध्यम से मानवजाति के लिए परमेश्वर के छुटकारे के कार्य से अधिक और कुछ भी न जाने, और इस प्रकार अनुग्रह के युग के दौरान मनुष्य के जानने के लिए अन्य दर्शन नहीं थे। इस रीति से, मनुष्य के पास परमेश्वर का सिर्फ थोड़ा सा ही ज्ञान था, और यीशु के प्रेम एवं करूणा के ज्ञान के अलावा, मनुष्य के लिए अभ्यास में लाने हेतु केवल कुछ साधारण एवं दयनीय चीजें थीं, ऐसी चीज़ें जो आज की अपेक्षा बिलकुल अलग हैं। अतीत में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उसकी सभा का रूप कैसा था, मनुष्य परमेश्वर के कार्य के व्यावहारिक ज्ञान के विषय में बात करने में असमर्थ था, और कोई भी स्पष्ट रूप से यह कहने के योग्य तो बिलकुल भी नहीं था कि मनुष्य के लिए प्रवेश करने हेतु रीति व्यवहार का सबसे उचित मार्ग कौन सा था। उसने सहिष्णुता एवं धीरज की एक नींव में मात्र कुछ साधारण विवरणों को जोड़ दिया था; उसके रीति व्यवहार के मूल-तत्व में साधारण तौर पर कोई परिवर्तन नहीं हुआ था, क्योंकि उसी युग के अंतर्गत परमेश्वर ने कोई और नया कार्य नहीं किया था, और जो अपेक्षाएं उसने मनुष्य की थीं वे मात्र सहिष्णुता एवं धीरज थे, या क्रूस उठाना था। ऐसे रीति व्यवहारों के अलावा, यीशु के क्रूसारोहण की तुलना में कोई ऊँचे दर्शन नहीं थे। अतीत में, अन्य दर्शनों का कोई उल्लेख नहीं था क्योंकि परमेश्वर ने अत्याधिक कार्य नहीं किया था, और क्योंकि उसने मनुष्य से केवल सीमित मांगें ही की थीं। इस रीति से, जो कुछ मनुष्य ने किया था उसके बावजूद, वह इन सीमाओं का उल्लंघन करने में असमर्थ था, ऐसी सीमाएं जो मनुष्य के लिए अभ्यास में लाने हेतु मात्र कुछ साधारण एवं छिछली चीज़ें थीं। आज मैं अन्य दर्शनों के विषय में बात करता हूँ क्योंकि आज, अधिक कार्य किया गया है, ऐसा कार्य जो व्यवस्था के युग एवं अनुग्रह के युग से कई गुना अधिक है। मनुष्य से की गई अपेक्षाएं भी पिछले युगों की तुलना में कई गुना अधिक ऊँची हैं। यदि मनुष्य ऐसे कार्य को पूर्ण रूप से जानने में असमर्थ है, तो यह कोई बड़ा महत्व नहीं रखेगा; यह कहा जा सकता है कि यदि मनुष्य इसके प्रति अपने सम्पूर्ण जीवनकाल की कोशिशों का समर्पण न करे तो उसे ऐसे कार्य को पूरी तरह से समझने में कठिनाई होगी। विजय के कार्य में, केवल रीति व्यवहार के मार्ग के विषय में ही बात करना मनुष्य के विजय को असंभव बना देगा। मनुष्य से कोई अपेक्षा किए बिना मात्र दर्शनों के विषय में बात करना भी मनुष्य के विजय को असंभव कर देगा। यदि रीति व्यवहार के मार्ग के अलावा और कुछ नहीं बोला जाता, तो मनुष्य की दुखती रग पर चोट करना, या मनुष्य की अवधारणाओं को दूर करना असंभव होता, और इस प्रकार मनुष्य पर पूर्ण रूप से विजय पाना भी असंभव होता। दर्शन मनुष्य के विजय के प्रमुख यन्त्र हैं, फिर भी यदि दर्शनों के अलावा अन्य कोई मार्ग नहीं होता, तो मनुष्य के पास अनुसरण करने के लिए कोई मार्ग नहीं होता, और उसके पास प्रवेश का कोई माध्यम तो बिलकुल भी नहीं होता। आरम्भ से लेकर अंत तक यह परमेश्वर के कार्य का सिद्धान्त रहा है: दर्शनों में वह बात है जिसे अभ्यास में लाया जा सकता है, इस प्रकार ऐसे दर्शन भी हैं जो ऐसे रीति व्यवहार से अलग हैं। मनुष्य के जीवन और उसके स्वभाव दोनों में हुए परिवर्तनों की मात्रा दर्शनों में हुए परिवर्तनों के साथ साथ होती है। यदि मनुष्य केवल अपने स्वयं के प्रयासों पर ही भरोसा करता, तो उसके लिए बड़ी मात्रा में परिवर्तन हासिल करना असंभव होता। दर्शन स्वयं परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के प्रबंधन के विषय में बोलते हैं। रीति व्यवहार मनुष्य के रीति व्यवहार के पथ की ओर, और मनुष्य के अस्तित्व की ओर संकेत करता है; परमेश्वर के सम्पूर्ण प्रबंधन में, दर्शनों एवं रीति व्यवहार के बीच सम्बन्ध ही परमेश्वर एवं मनुष्य के बीच का सम्बन्ध है। यदि दर्शनों को हटा दिया जाता, या यदि रीति व्यवहार के विषय में बातचीत किए बिना ही उन्हें बोला जाता, या यदि वहाँ केवल दर्शन ही होते और मनुष्य के रीति व्यवहार का उन्मूलन कर दिया जाता, तो ऐसी चीज़ों को परमेश्वर का प्रबंधन नहीं माना जा सकता था, और ऐसा तो बिलकुल भी नहीं कहा जा सकता था कि परमेश्वर का कार्य मानवजाति के लिए है; इस रीति से, न केवल मनुष्य के कर्तव्य को हटा दिया जाता, बल्कि यह परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य का खण्डन भी होता। यदि, आरम्भ से लेकर अंत तक, परमेश्वर के कार्य को सम्मिलित लिए बिना ही मनुष्य से मात्र अभ्यास करने की अपेक्षा की जाती, और, इसके अतिरिक्त, यदि मनुष्य से यह अपेक्षा न की जाती कि वह परमेश्वर के कार्य को जाने, तो ऐसे कार्य को परमेश्वर का प्रबंधन बिलकुल भी नहीं कहा जा सकता था। यदि मनुष्य परमेश्वर को नहीं जानता, और परमेश्वर की इच्छा से अनजान होता, और अस्पष्ट एवं वैचारिक रीति से आँख बंद करके अपने रीति व्यवहार को सम्पन्न करता, तो वह कभी भी पूरी तरह से योग्य प्राणी नहीं हो पाता। और इस प्रकार ये दोनों चीज़ें अनिवार्य हैं। यदि केवल परमेश्वर का कार्य ही होता, कहने का तात्पर्य है, यदि केवल दर्शन ही होते और यदि मनुष्य के द्वारा कोई सहयोग या रीति व्यवहार नहीं होता, तो ऐसी चीज़ों को परमेश्वर का प्रबंधन नहीं कहा जा सकता था। यदि केवल मनुष्य का रीति व्यवहार एवं प्रवेश ही होता, तो इसके बावजूद कि वह पथ कितना ऊँचा है जिसमें मनुष्य ने प्रवेश किया, यह भी ग्रहणयोग्य न होता। मनुष्य के प्रवेश को कार्य एवं दर्शनों के साथ कदम मिलाते हुए धीरे धीरे परिवर्तित होना होगा; यह सनक से बदल नहीं सकता है। मनुष्य के रीति व्यवहार के सिद्धान्त स्वतंत्र एवं असंयमित नहीं होते है, किन्तु निश्चित सीमाओं के अंतर्गत होते हैं। ऐसे सिद्धान्त कार्य के दर्शनों के साथ कदम मिलाते हुए परिवर्तित होते हैं। अतः परमेश्वर का प्रबंधन आख़िरकार परमेश्वर के कार्य एवं मनुष्य के रीति व्यवहार पर आकर टिक जाता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2023 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।
बाइबल हज़ारों साल से इंसानी इतिहास का हिस्सा रही है। इतना ही नहीं, लोग इसे परमेश्वर की तरह मानते हैं। यहाँ तक कि अंत के दिनों में इसने...
जिस समय यीशु ने यहूदिया में कार्य किया था, तब उसने खुलकर ऐसा किया, परंतु अब, मैं तुम लोगों के बीच गुप्त रूप से काम करता और बोलता हूँ।...
राज्य के युग में, परमेश्वर नए युग की शुरूआत करने, अपने कार्य के साधन बदलने, और संपूर्ण युग में काम करने के लिये अपने वचन का उपयोग करता है।...
स्वभाव में परिवर्तन को प्राप्त करने की कुंजी, अपने स्वयं के स्वभाव को जानना है, और यह अवश्य परमेश्वर से प्रकाशनों के अनुसार होना चाहिए।...