परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 200

वह दृष्टिकोण जो परमेश्वर चाहता है कि लोगों में परमेश्वर के प्रति होना चाहिए

वास्तव में, परमेश्वर लोगों से ज्यादा अपेक्षा नहीं करता—कम से कम, उसे उतनी अपेक्षा नहीं जितनी लोग कल्पना करते हैं। परमेश्वर की वाणी के बिना, या उसके स्वभाव की किसी अभिव्यक्ति, कार्य या वचन के बिना, परमेश्वर को जानना तुम्हारे लिए बहुत कठिन है, क्योंकि लोगों को परमेश्वर की इच्छा और इरादों का निष्कर्ष निकालना पड़ेगा, जो उनके लिए बहुत कठिन है। लेकिन उसके कार्य के अंतिम चरण के बारे में, परमेश्वर ने बहुत से वचन कहे हैं, बहुत सारा काम किया है, और मनुष्य से बहुत-सी अपेक्षाएं की हैं। उसने अपने वचनों में और अपने विशाल कार्य में लोगों को बता दिया है कि उसे क्या पसंद है, उसे किससे घृणा है, और उन्हें किस प्रकार मनुष्य बनना चाहिए। इन बातों को समझने के बाद, लोगों के हृदय में परमेश्वर की अपेक्षा की सही परिभाषा होनी चाहिए, क्योंकि वे परमेश्वर में अस्पष्टता और अमूर्तता के बीच विश्वास नहीं करते, और वे अब अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, या अस्पष्टता और अमूर्तता और शून्यता के बीच परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते हैं; बल्कि लोग परमेश्वर के कथन को सुनने के योग्य हैं, उसकी अपेक्षा के स्तर को समझने में वे सक्षम हैं, और उन्हें प्राप्त कर पाते हैं, और परमेश्वर मनुष्य की भाषा का उपयोग लोगों को वह सब बताने में करता है जो उन्हें जानना और समझना चाहिए। आज भी, यदि लोग इस बात से अनजान हैं कि परमेश्वर की उनसे क्या अपेक्षा है, परमेश्वर क्या है, वे परमेश्वर में क्यों विश्वास करते हैं और उन्हें कैसे परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए, और कैसे उससे व्यवहार करना चाहिए तो इसमें फिर समस्या है। ... परमेश्वर की मनुष्य से सही अपेक्षा और जो उनका अनुसरण करते हैं इस प्रकार हैं। परमेश्वर जो उसका अनुसरण करते हैं, उनसे पांच बातें चाहता हैः सही विश्वास, वफादार अनुकरण, पूर्ण आज्ञापालन, सच्चा ज्ञान और हृदय से आदर।

इन पांच बातों में, परमेश्वर चाहता है कि लोग उससे अब सवाल ना करें, और न ही अपनी कल्पना या मिथ्या और अमूर्त दृष्टिकोण के उपयोग द्वारा उसका अनुसरण करें; वे कल्पनाओं और धारणाओं के साथ उसका अनुसरण न करें। परमेश्वर चाहता है कि जो उसका अनुसरण करते हैं, वे पूरी वफादारी से करें, ना कि आधे-अधूरे हृदय से या बिना किसी प्रतिबद्धता के। जब परमेश्वर तुमसे कोई अपेक्षा करता है, या तुम्हारा परीक्षण करता है, तुम्हारा न्याय करता है, तुमसे व्यवहार करता है और तुम्हें छांटता है, या तुम्हें अनुशासित करता और दंड देता है, तो तुम्हें पूर्ण रूप से उसकी आज्ञा माननी चाहिए। तुम्हें कारण नहीं पूछना चाहिए, या शर्त नहीं रखनी चाहिए, और न तुम्हें तर्क करना चाहिए। तुम्हारी आज्ञाकारिता पूर्णरूपेण होनी चाहिए। परमेश्वर को जानना एक ऐसा क्षेत्र है जिसको लोग बहुत कम जानते हैं। वे अक्सर परमेश्वर पर कथन, उक्ति, और वचन थोपते हैं जो उससे संबंधित नहीं होते, ऐसा यह विश्वास करते हुए कि ये शब्द परमेश्वर के ज्ञान की सबसे मुख्य परिभाषा है। उन्हें पता नहीं कि ये बातें, जो लोगों की कल्पनाओं से आती हैं, उनके अपने तर्क, और अपनी बुद्धि से आती हैं, परमेश्वर के सार-तत्व से उनका ज़रा भी सम्बन्ध नहीं होता। और इसलिए, मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि परमेश्वर द्वारा इच्छित लोगों के ज्ञान में, परमेश्वर मात्र यह नहीं कहता कि तुम परमेश्वर और उसके वचनों को पहचानो बल्कि यह कि परमेश्वर का तुम्हारा ज्ञान सच्चा हो। यदि तुम एक वाक्य भी बोल सको, या कुछ ही चीज़ों के बारे में जानते हो, तो यह थोड़ी-बहुत जागरुकता सही और सच्ची है, और स्वयं परमेश्वर के सार-तत्व के अनुकूल है। क्योंकि परमेश्वर लोगों की अवास्तविक और अविवेकी प्रशंसा और सराहना से घृणा करता है। और तो और, जब लोग उससे हवा समझकर पेश आते हैं तो वह इससे घृणा करता है। जब परमेश्वर से जुड़े विषय पर लोग हल्केपन से पेश आते हैं, जैसा चाहे और बेझिझक, जैसा ठीक लगे बोलते हैं तो वह इससे घृणा करता है; इसके अलावा, वह उनसे भी नफरत करता है जो यह कहते हैं कि वे परमेश्वर को जानते हैं, और परमेश्वर के ज्ञान के बारे में डींगे मारते हैं, परमेश्वर के बारे में बिना किसी रुकावट या विचार किए बोलते हैं। उन पांच अपेक्षाओं में अंतिम अपेक्षा थी हृदय से आदर करना। यह परमेश्वर की परम अपेक्षा है उनसे जो उसका अनुसरण करते हैं। जब किसी के पास परमेश्वर का सही और सत्य ज्ञान है, तो वे परमेश्वर का सच में आदर करने में और बुराई से दूर रहने में सक्षम होते हैं। यह आदर उनके हृदय की गहराई से आता है, यह इच्छा से है, और इस कारण नहीं कि परमेश्वर उन पर दबाव डालता है। परमेश्वर यह नहीं कहता कि तुम किसी अच्छे रवैये, आचरण, या उसके लिए बाहरी व्यवहार का एक उपहार बनाओ; बल्कि वह कहता है कि तुम उसे हृदय की गहराई से आदर दो और उस से डरो। यह आदर तुम्हारे जीवन के स्वभाव के बदलाव से प्राप्त होता है, क्योंकि तुम्हारे पास परमेश्वर का ज्ञान है, क्योंकि तुम्हारे पास परमेश्वर के कामों की समझ है, तुम्हारे परमेश्वर के सार-तत्व की समझ के कारण और क्योंकि तुम इस तथ्य को मानते हो कि तुम परमेश्वर की एक रचना हो। और इसलिए, "हृदय से" शब्द का उपयोग करने का मेरा लक्ष्य आदर को समझाने के लिए है ताकि मनुष्य समझें कि लोगों का परमेश्वर के लिए आदर उनके हृदय की गहराई से आना चाहिए।

अब उन पांच अपेक्षाओं पर विचार करें: क्या तुम्हारे बीच में कोई है जो प्रथम तीन को प्राप्त कर सकता हो? इससे मेरा मतलब सच्चा विश्वास, वफादार अनुसरण, और सम्पूर्ण आज्ञापालन। क्या तुममें से कोई है जो इन चीजों में समर्थ हो? मैं जानता हूँ यदि मैंने सभी पांच के लिए कहा होता तो निश्चित रूप से तुम में से कोई नहीं होता—लेकिन मैंने इसे तीन तक कर दिया है। इसके बारे में सोचें कि तुम इन्हें प्राप्त कर चुके हो या नहीं। क्या "सच्चा विश्वास" प्राप्त करना सरल है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) यह सरल नहीं है, उन लोगों के लिए जो अक्सर परमेश्वर से प्रश्न करते रहते हैं। क्या वफादार अनुसरण प्राप्त करना सरल है? (नहीं, सरल नहीं है।) "वफादार" से क्या तात्पर्य है? (आधे हृदय से नहीं बल्कि पूरे हृदय से।) हां, आधे-अधूरे हृदय से नहीं पूरे हृदय से। तुमने तीर निशाने पर लगाया है! तो क्या तुम इस अपेक्षा को प्राप्त करने में सक्षम हो? तुम्हें कड़ी मेहनत करनी होगी—अभी तुम्हें इस अपेक्षा को प्राप्त करना बाकी है! "पूर्ण आज्ञापालन" की बात करें तो-क्या तुमने इसे प्राप्त कर लिया है? (नहीं।) तुमने इसे भी प्राप्त नहीं किया है। तुम अक्सर आज्ञा पालन नहीं करते, और विरोधी हो जाते हो, तुम अक्सर नहीं सुनते, या मानना नहीं चाहते, या सुनना नहीं चाहते। ये तीन मूलभूत अपेक्षाएं हैं जिन्हें लोग जीवन में प्रवेश करने के बाद प्राप्त कर लेते हैं। और तुम्हें अभी उन्हें प्राप्त करना बाकी है। तो, इस वक्त, क्या तुम्हारे अंदर पूरी क्षमता है? आज जब मैंने ये बातें कहीं तो क्या तुम इससे चिंतित महसूस कर रहे हो? (हां!) तुम्हारा चिंतित होना सही है-तुम्हारे बदले में मैं चिंतित महसूस कर रहा हूँ! मैं अन्य दो अपेक्षाओं पर नहीं जाऊंगा; इसमें कोई संदेह नहीं कि इन्हें कोई भी हासिल करने में सक्षम नहीं है। तुम चिंतित हो। तो क्या तुमने अपने लक्ष्य निर्धारित कर लिए हैं? तुम्हारे लक्ष्य क्या हों, तुम्हारी दिशा क्या हो और तुम्हें अपने प्रयास और अनुसरण किधर लगाने चाहिए? क्या तुम्हारा कोई लक्ष्य है? अगर सीधे तौर पर कहूं: जब तुम ये पांच बातें प्राप्त कर लोगे, तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे। उनमें से प्रत्येक एक सूचक है, लोगों के जीवन में प्रवेश करके परिपक्वता में पहुँचने का सूचक और इसके अंतिम लक्ष्य का सूचक। यदि मैं इन अपेक्षाओं में से एक को भी विस्तार से बोलने के लिए चुनूं और तुमसे अपेक्षा करूं, तो इसे हासिल करना आसान नहीं होगा; लोगों को कुछ हद तक कठिनाई झेलनी पडेगी और विशेष प्रयास करने होंगे। और तुम्हारी मानसिकता किस प्रकार की होनी चाहिए? यह एक कैंसर के मरीज के समान होनी चाहिए जो ऑपरेशन की टेबल पर जाने का इन्तजार कर रहा है। और मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करने की इच्छा रखते हो, परमेश्वर को, और उसकी को संतुष्टि प्राप्त करना चाहते हो, लेकिन तुम कुछ हद कष्ट सहन नहीं करते, विशेष प्रयास नहीं करते तो तुम इन चीजों को प्राप्त करने में सक्षम नहीं होगे। तुमने बहुत प्रचार सुना है, मगर इसको सुनने का यह मतलब नहीं कि प्रचार तुम्हारा हो गया, तुम्हें इसे सुनकर आत्मसात करना चाहिए और इसे किसी ऐसी वस्तु में परिवर्तित करना चाहिए जो तुमसे सम्बंधित हो, तुम्हें इसे अपने जीवन में आत्मसात कर लेना चाहिए, और इसे अपने अस्तित्व में ले आना चाहिए, ताकि ये वचन और प्रचार तुम्हारे जीने के तरीके की अगुवाई करें, और तुम्हारे जीवन में अस्तित्व पूरक मूल्य और अर्थ लायें—और तब तुम्हारा इन वचनों को सुनना मूल्य रखेगा। यदि ये शब्द जो मैंने कहे हैं, तुम्हारे जीवन में कोई सुधार नहीं लाते, या तुम्हारे अस्तित्व में कोई मूल्य नहीं लाते, तो तुम्हारा इन्हें सुनना कोई अर्थ नहीं रखता। तुम इसे समझते हो? इसको समझने के बाद बाकी सब तुम पर है। तुम्हें काम पर लग जाना चाहिए! तुम्हें इन सभी बातों में ईमानदार होना चाहिए! दुविधा में मत रहो-समय भाग रहा है! तुम में से बहुत से दस साल से ज्यादा से विश्वास करते आ रहे हैं। इन दस सालों के विश्वास को पलटकर देखो: तुमने क्या पाया है? तुम्हारे और कितने दशक इस जीवन के बाकी हैं? अधिक समय नहीं बचा। तुम जो भी करो, यह न कहो कि परमेश्वर अपने काम में तुम्हारा इन्तजार करता है और तुम्हारे लिए अवसरों को बचाता है। परमेश्वर निश्चित रूप से पलटकर वही काम नहीं करेगा। क्या तुम अपने दस साल वापिस ला सकते हो? तुम्हारा गुज़रते हुए हर एक दिन और उठते हुए हर कदम के साथ, जो दिन तुम्हारे पास हैं, उनमें से एक दिन कम हो जाता है, घट जाता है, है ना? समय किसी के लिए इन्तजार नहीं करता! तुम परमेश्वर में विश्वास से तभी प्राप्त करोगे, जब तुम इसे अपने जीवन की सबसे बड़ी चीज समझोगे, खाने, कपडे, या किसी अन्य चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण समझोगे! यदि तुम केवल तभी विश्वास करो जब तुम्हारे पास समय हो, और अपना पूरा ध्यान अपने विश्वास को समर्पित करने में असमर्थ हो, यदि हमेशा किसी तरह से काम चलाओ और दुविधा में रहो तो तुम कुछ भी प्राप्त नहीं करोगे।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

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