परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 2

परमेश्वर का स्‍वरूप और अस्तित्‍व, परमेश्वर का सार, परमेश्वर का स्वभाव—यह सब मानवजाति को उसके वचनों के माध्यम से अवगत कराया जा चुका है। जब मनुष्‍य परमेश्वर के वचनों को अनुभव करता है, तो उन्हें अभ्यास में लाने की प्रक्रिया में व‍ह परमेश्वर के कहे वचनों के पीछे छिपे उद्देश्य को समझेगा, परमेश्वर के वचनों के स्रोत और पृष्ठभूमि को समझेगा, और परमेश्वर के वचनों के अभीष्ट प्रभाव को समझेगा और बूझेगा। जीवन और सत्य में प्रवेश करने, परमेश्वर के इरादों को समझने, अपना स्वभाव परिवर्तित करने, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति आज्ञाकारी होने में सक्षम होने के लिए मनुष्य को ये सब चीज़ें अनुभव करनी, समझनी और प्राप्त करनी चाहिए। जिस समय मनुष्य इन चीज़ों को अनुभव करता, समझता और प्राप्त करता है, उसी समय वह धीरे-धीरे परमेश्वर की समझ प्राप्त कर लेता है, और साथ ही उसके विषय में वह ज्ञान के विभिन्न स्तरों को भी प्राप्त कर लेता है। यह समझ और ज्ञान मनुष्य द्वारा कल्पित या निर्मित किसी चीज़ से नहीं आती, बल्कि उससे आती है, जिसे वह अपने भीतर समझता, अनुभव करता, महसूस करता और पुष्टि करता है। इन बातों को समझने, अनुभव करने, महसूस करने और पुष्टि करने के बाद ही मनुष्य के परमेश्वर संबंधी ज्ञान में तत्त्व की प्राप्ति होती है; केवल मनुष्य द्वारा इस समय प्राप्त ज्ञान ही वास्तविक, असली और सटीक होता है और यह प्रक्रिया—परमेश्वर के वचनों को समझने, अनुभव करने, महसूस करने और उनकी पुष्टि करने के माध्यम से परमेश्वर की वास्तविक समझ और ज्ञान प्राप्त करने की यह प्रक्रिया, और कुछ नहीं, वरन् परमेश्वर और मनुष्य के मध्य सच्चा संवाद है। इस प्रकार के समागम के मध्य मनुष्य सच में परमेश्वर के उद्देश्यों को समझ-बूझ पाता है, परमेश्वर के स्‍वरूप और अस्तित्‍व को जान पाता है, सच में परमेश्वर के सार को समझ और जान पाता है, धीरे-धीरे परमेश्वर के स्वभाव को जान और समझ पाता है, संपूर्ण सृष्टि के ऊपर परमेश्वर के प्रभुत्व के बारे में निश्चितता और उसकी सही परिभाषा पर पहुँच पाता है और परमेश्वर की पहचान और स्थिति का ठोस निश्चय और उसका ज्ञान प्राप्त कर पाता है। इस प्रकार के समागम के मध्य मनुष्य परमेश्वर के प्रति अपने विचार थोड़ा-थोड़ा करके बदलता है, वह परमेश्वर को अपनी कल्पना की उड़ान नहीं मानता, या वह उसके बारे में अपने संदेहों को बेलगाम नहीं दौड़ाता, या उसे गलत नहीं समझता, उसकी निंदा नहीं करता, उसकी आलोचना नहीं करता या उस पर संदेह नहीं करता। इस प्रकार, परमेश्वर के साथ मनुष्य के विवाद बहुत कम होंगे, वह परमेश्वर के साथ कम संघर्ष करेगा, और ऐसे मौके कम आएँगे, जब वह परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करेगा। इसके विपरीत, मनुष्य द्वारा परमेश्वर की परवाह और आज्ञाकारिता बढ़ेगी और परमेश्वर के प्रति उसका आदर अधिक वास्तविक और गहन होगा। ऐसे समागम के मध्य, मनुष्य न केवल सत्य का पोषण और जीवन का बपतिस्मा प्राप्त करेगा, बल्कि उसी समय वह परमेश्वर का वास्तविक ज्ञान भी प्राप्त करेगा। ऐसे समागम के मध्य न केवल मनुष्य का स्वभाव बदलेगा और वह उद्धार पाएगा, बल्कि उसी समय वह परमेश्वर के प्रति एक सृजित प्राणी की वास्तविक श्रद्धा और आराधना भी प्राप्त करेगा। इस प्रकार का समागम कर लेने के बाद मनुष्य का परमेश्वर पर विश्वास किसी कोरे कागज़ की तरह या दिखावटी प्रतिज्ञा के समान, या एक अंधानुकरण अथवा मूर्ति-पूजा के रूप में नहीं रहेगा; केवल इस प्रकार के समागम से ही मनुष्य का जीवन दिन-प्रतिदिन परिपक्वता की ओर बढ़ेगा, और तभी उसका स्‍वभाव धीरे-धीरे परिवर्तित होगा और परमेश्वर के प्रति उसका विश्वास कदम-दर-कदम अस्पष्ट और अनिश्चित विश्वास से एक सच्ची आज्ञाकारिता और परवाह में, वास्तविक श्रद्धा में बदलेगा और परमेश्वर के अनुसरण की प्रक्रिया में मनुष्य का रुख भी उत्‍तरोत्‍तर निष्क्रियता से सक्रियता, नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर बढ़ेगा; केवल इस प्रकार के समागम से ही मनुष्य परमेश्वर के बारे में वास्तविक समझ-बूझ और सच्चा ज्ञान प्राप्त करेगा। चूँकि अधिकतर लोगों ने कभी परमेश्वर के साथ वास्तविक समागम नहीं किया है, अत: परमेश्वर के बारे में उनका ज्ञान सिद्धांत, शब्द और वाद पर आकर ठहर जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोगों का एक बड़ा समूह, भले ही कितने भी सालों से परमेश्वर पर विश्वास करता आ रहा हो, लेकिन परमेश्वर को जानने के संबंध में अभी भी उसी स्थान पर है, जहाँ से उसने शुरुआत की थी, और वह सामंती अंधविश्‍वासों और रोमानी रंगों से युक्‍त भक्ति के पारंपरिक रूपों के बुनियादी चरण में ही अटका हुआ है। मनुष्य के परमेश्वर संबंधी ज्ञान के प्रस्थान-बिंदु पर ही रुके होने का अर्थ व्यावहारिक रूप से उसका न होना है। मनुष्य द्वारा परमेश्वर की स्थिति और पहचान की पुष्टि के अलावा परमेश्वर पर मनुष्य का विश्वास अभी भी अस्पष्ट अनिश्‍चतता की स्थिति में ही है। ऐसा होने से, मनुष्य परमेश्वर के प्रति कितनी वास्‍तविक श्रद्धा रख सकता है?

चाहे तुम कितनी भी दृढ़ता से परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास क्‍यों न करो, वह परमेश्वर संबंधी तुम्‍हारे ज्ञान की जगह नहीं ले सकता, न ही वह परमेश्वर के प्रति तुम्‍हारी श्रद्धा की जगह ले सकता है। चाहे तुमने उसके आशीष और अनुग्रह का कितना भी आनंद क्‍यों न लिया हो, वह तुम्हारे परमेश्वर संबंधी ज्ञान की जगह नहीं ले सकता। चाहे तुम उस पर अपना सर्वस्व अर्पित करने और उसके लिए अपना सब-कुछ व्यय करने के लिए कितने भी तैयार हो, वह तुम्हारे परमेश्वर संबंधी ज्ञान का स्थान नहीं ले सकता। शायद तुम परमेश्वर के कहे हुए वचनों से बहुत परिचित हो गए हो, या शायद तुमने उन्हें रट भी लिया हो और तुम उन्‍हें तेजी से दोहरा सकते हो; लेकिन यह तुम्हारे परमेश्वर संबंधी ज्ञान का स्थान नहीं ले सकता। मनुष्य परमेश्वर का अनुसरण करने का कितना भी अभिलाषी हो, यदि उसका परमेश्वर के साथ वास्तविक समागम नहीं हुआ है, या उसने परमेश्वर के वचनों का वास्तविक अनुभव नहीं किया है, तो परमेश्वर संबंधी उसका ज्ञान खाली शून्य या एक अंतहीन दिवास्वप्न पर आधारित होगा; तुम भले ही परमेश्वर के संपर्क में रहे हो या उससे रूबरू हुए हो, तुम्‍हारा परमेश्वर संबंधी ज्ञान फिर भी शून्य ही है और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी श्रद्धा खोखले नारे या आदर्शवादी अवधारणा के अलावा और कुछ नहीं है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, प्रस्तावना

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