परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे (भाग दो)

जो अपने सर्वथा अविश्वासी बच्चों और रिश्तेदारों को कलीसिया में खींचकर लाते हैं, वे बेहद स्वार्थी हैं और सिर्फ़ अपनी दयालुता का प्रदर्शन कर रहे हैं। ये लोग इसकी परवाह किए बिना कि उनका विश्वास है भी या नहीं और यह परमेश्वर की इच्छा है या नहीं, केवल प्रेमपूर्ण बने रहने पर ध्यान देते हैं। कुछ लोग अपनी पत्नी को परमेश्वर के सामने लाते हैं या अपने माता-पिता को परमेश्वर के सामने खींचकर लाते हैं और इसकी परवाह किए बिना कि क्या पवित्र आत्मा सहमत है या उनमें कार्य कर रहा है, वे आँखें बंद कर परमेश्वर के लिए "प्रतिभाशाली लोगों को अपनाते रहते हैं"। इन गैर-विश्वासियों के प्रति दयालुता दिखाने से आखिर क्या लाभ मिल सकता है? यहाँ तक कि अगर वे जिनमें पवित्र आत्मा उपस्थित नहीं है, परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए संघर्ष भी करते हैं, तब भी उन्हें बचाया नहीं जा सकता। जो लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं, उनके लिए वास्तव में इसे प्राप्त करना उतना आसान नहीं है। जो लोग पवित्र आत्मा के कार्य और परीक्षणों से नहीं गुज़रे हैं और देहधारी परमेश्वर के द्वारा पूर्ण नहीं बनाए गए हैं, वे पूर्ण बनाए जाने में सर्वथा असमर्थ हैं। इसलिए जिस क्षण से वे नाममात्र के लिए परमेश्वर का अनुसरण आरंभ करते हैं, उन लोगों में पवित्र आत्मा मौजूद नहीं होता। उनकी स्थिति और वास्तविक अवस्थाओं के प्रकाश में, उन्हें पूर्ण बनाया ही नहीं जा सकता। इसलिए, पवित्र आत्मा उन पर अधिक ऊर्जा व्यय न करने का निर्णय लेता है, न ही वह उन्हें किसी प्रकार का प्रबोधन प्रदान करता है, न उनका मार्गदर्शन करता है; वह उन्हें केवल साथ चलने की अनुमति देता है और अंततः उनके परिणाम प्रकट करेगा—यही पर्याप्त है। मानवता का उत्साह और इच्छाएँ शैतान से आते हैं और किसी भी तरह ये चीज़ें पवित्र आत्मा का कार्य पूर्ण नहीं कर सकतीं। चाहे लोग किसी भी प्रकार के हों, उनमें पवित्र आत्मा का कार्य अवश्य होना चाहिए। क्या मनुष्य दूसरे मनुष्यों को पूरा कर सकते हैं? पति अपनी पत्नी से क्यों प्रेम करता है? पत्नी अपने पति से क्यों प्रेम करती है? बच्चे क्यों माता-पिता के प्रति कर्तव्यशील रहते हैं? और माता-पिता क्यों अपने बच्चों से अतिशय स्नेह करते हैं? लोग वास्तव में किस प्रकार की इच्छाएँ पालते हैं? क्या उनकी मंशा उनकी खुद की योजनाओं और स्वार्थी आकांक्षाओं को पूरा करने की नहीं है? क्या उनका इरादा वास्तव में परमेश्वर की प्रबंधन योजना के लिए कार्य करने का है? क्या वे परमेश्वर के कार्य के लिए कार्य कर रहे हैं? क्या उनकी मंशा सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने की है? वे जो परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू करने के समय से पवित्र आत्मा की उपस्थिति को नहीं पा सके हैं, वे कभी भी पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं पा सकते; ये लोग निश्चित रूप से नष्ट की जाने वाली वस्तुएँ हैं। इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि कोई उनसे कितना प्रेम करता है, यह पवित्र आत्मा के कार्य का स्थान नहीं ले सकता। लोगों का उत्साह और प्रेम, मानवीय इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करता है, पर परमेश्वर की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता और न ही वे परमेश्वर के कार्य का स्थान ले सकते हैं। यहाँ तक कि अगर कोई उन लोगों के प्रति अत्यधिक प्रेम या दया दिखा भी दे, जो नाममात्र के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसके अनुसरण का दिखावा करते हैं, बिना यह जाने कि वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है, फिर भी वे परमेश्वर की सहानुभूति प्राप्त नहीं करेंगे, न ही वे पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करेंगे। भले ही जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर का अनुसरण करते हैं कमज़ोर काबिलियत वाले हों, और बहुत सी सच्चाइयाँ न समझते हों, वे तब भी कभी-कभी पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हैं; लेकिन जो काफी अच्छी काबिलियत वाले हैं, मगर ईमानदारी से विश्वास नहीं करते, वे पवित्र आत्मा की उपस्थिति प्राप्त कर ही नहीं सकते। ऐसे लोगों के उद्धार की कोई संभावना नहीं है। यदि वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ें या कभी-कभी उपदेश सुनें, या परमेश्वर की स्तुति गाएं, तब भी वे अंतत: विश्राम के समय तक बच नहीं पाएंगे। लोग सचमुच खोजते हैं या नहीं यह इससे निर्धारित नहीं होता कि दूसरे उन्हें कैसे आंकते हैं या आसपास के लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं, बल्कि इससे निर्धारित होता है कि क्या पवित्र आत्मा उसके ऊपर कार्य करता है और क्या उन्होंने पवित्र आत्मा की उपस्थिति हासिल कर ली है। इसके अतिरिक्त यह इस बात पर निर्भर है कि क्या एक निश्चित अवधि तक पवित्र आत्मा के कार्य से गुज़रने के बाद उनके स्वभाव बदलते हैं और क्या उन्हें परमेश्वर का कोई ज्ञान मिला है। यदि किसी व्यक्ति पर पवित्र आत्मा कार्य करेगा, तो धीरे-धीरे उस व्यक्ति का स्वभाव बदल जाएगा और परमेश्वर में विश्वास करने का उसका विचार धीरे-धीरे और शुद्ध होता जाएगा। जब तक लोगों में परिवर्तन होता है, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वे कितने समय परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, इसका अर्थ है कि पवित्र आत्मा उन पर कार्य कर रहा है। यदि उनमें परिवर्तन नहीं हुआ है, इसका अर्थ है कि पवित्र आत्मा उन पर कार्य नहीं कर रहा है। ऐसे लोग कुछ सेवा करते भी हैं, तो भी ऐसा करने के लिए उन्हें आशीष पाने की आकांक्षा ही प्रेरित करती है। कभी-कभी सेवा करना, उनके स्वभावों में परिवर्तन के अनुभव का स्थान नहीं ले सकता। आख़िरकार वे तब भी नष्ट किए जाएंगे, क्योंकि राज्य में सेवाकर्मियों की आवश्यकता नहीं होगी, न ही उनकी आवश्यकता होगी, जिनका स्वभाव उन लोगों की सेवा के योग्य होने के लिए नहीं बदला है, जिन्हें पूर्ण बनाया जा चुका है और जो परमेश्वर के प्रति वफ़ादार हैं। अतीत में बोले गए ये वचन, "जब कोई प्रभु पर विश्वास करता है, तो सौभाग्य उसके पूरे परिवार पर मुस्कराता है" अनुग्रह के युग के लिए उपयुक्त हैं, परंतु मानवता के गंतव्य से संबंधित नहीं हैं। ये केवल अनुग्रह के युग के दौरान एक चरण के लिए ही उपयुक्त थे। उन वचनों का अर्थ शांति और भौतिक आशीष पर आधारित था, जिनका लोगों ने आनंद लिया; उनका मतलब यह नहीं था कि प्रभु को मानने वाले का पूरा परिवार बच जाएगा, न ही उनका मतलब यह था कि जब कोई आशीष पाता है, तो पूरे परिवार को भी विश्राम में लाया जा सकता है। किसी को आशीष मिलेगा या दुर्भाग्य सहना पड़ेगा, इसका निर्धारण व्यक्ति के सार के अनुसार होता है, न कि सामान्य सार के अनुसार, जो वह दूसरों के साथ साझा करता है। इस प्रकार की लोकोक्ति या नियम का राज्य में कोई स्थान है ही नहीं। यदि कोई अंत में बच पाता है, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि उसने परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा किया है और यदि कोई विश्राम के दिनों तक बचने में सक्षम नहीं हो पाता, तो इसलिए क्योंकि वे परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी रहे हैं और उन्होंने परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं किया है। प्रत्येक के पास एक उचित गंतव्य है। ये गंतव्य प्रत्येक व्यक्ति के सार के अनुसार निर्धारित किए जाते हैं और दूसरे लोगों से इनका कोई संबंध नहीं होता। किसी बच्चे का दुष्ट व्यवहार उसके माता-पिता को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता और न ही किसी बच्चे की धार्मिकता को उसके माता-पिता के साथ साझा किया जा सकता है। माता-पिता का दुष्ट आचरण उनकी संतानों को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता, न ही माता-पिता की धार्मिकता उनके बच्चों के साथ साझा की जा सकती है। हर कोई अपने-अपने पाप ढोता है और हर कोई अपने-अपने आशीषों का आनंद लेता है। कोई भी दूसरे का स्थान नहीं ले सकता; यही धार्मिकता है। मनुष्य के नज़रिए से, यदि माता-पिता आशीष पाते हैं, तो उनके बच्चों को भी मिलना चाहिए, यदि बच्चे बुरा करते हैं, तो उनके पापों के लिए माता-पिता को प्रायश्चित करना चाहिए। यह मनुष्य का दृष्टिकोण है और कार्य करने का मनुष्य का तरीक़ा है; यह परमेश्वर का दृष्टिकोण नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के परिणाम का निर्धारण उसके आचरण से पैदा होने वाले सार के अनुसार होता है और इसका निर्धारण सदैव उचित तरीक़े से होता है। कोई भी दूसरे के पापों को नहीं ढो सकता; यहाँ तक कि कोई भी दूसरे के बदले दंड नहीं पा सकता। यह सुनिश्चित है। माता-पिता द्वारा अपनी संतान की बहुत ज़्यादा देखभाल का अर्थ यह नहीं कि वे अपनी संतान के बदले धार्मिकता के कर्म कर सकते हैं, न ही किसी बच्चे के माता-पिता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ स्नेह का यह अर्थ है कि वे अपने माता-पिता के लिए धार्मिकता के कर्म कर सकते हैं। यही इन वचनों का वास्तविक अर्थ है, "उस समय दो जन खेत में होंगे, एक ले लिया जाएगा और दूसरा छोड़ दिया जाएगा। दो स्त्रियाँ चक्‍की पीसती रहेंगी, एक ले ली जाएगी और दूसरी छोड़ दी जाएगी।" लोग बुरा करने वाले बच्चों के प्रति गहरे प्रेम के आधार पर उन्हें विश्राम में नहीं ले जा सकते, न ही कोई अपनी पत्नी (या पति) को अपने धार्मिक आचरण के आधार पर विश्राम में ले जा सकता है। यह एक प्रशासनिक नियम है; किसी के लिए कोई अपवाद नहीं हो सकता। अंत में, धार्मिकता करने वाले धार्मिकता ही करते हैं और बुरा करने वाले, बुरा ही करते हैं। अंतत: धार्मिकों को बचने की अनुमति मिलेगी, जबकि बुरा करने वाले नष्ट हो जाएंगे। पवित्र, पवित्र हैं; वे गंदे नहीं हैं। गंदे, गंदे हैं और उनमें पवित्रता का एक भी अंश नहीं है। जो लोग नष्ट किए जाएँगे, वे सभी दुष्ट हैं और जो बचेंगे वे सभी धार्मिक हैं—भले ही बुरा कार्य करने वालों की संतानें धार्मिक कर्म करें और भले ही किसी धार्मिक व्यक्ति के माता-पिता दुष्टता के कर्म करें। एक विश्वास करने वाले पति और विश्वास न करने वाली पत्नी के बीच कोई संबंध नहीं होता और विश्वास करने वाले बच्चों और विश्वास न करने वाले माता-पिता के बीच कोई संबंध नहीं होता; ये दोनों तरह के लोग पूरी तरह असंगत हैं। विश्राम में प्रवेश से पहले एक व्यक्ति के रक्त-संबंधी होते हैं, किंतु एक बार जब उसने विश्राम में प्रवेश कर लिया, तो उसके कोई रक्त-संबंधी नहीं होंगे। जो अपना कर्तव्य करते हैं, उनके शत्रु हैं जो कर्तव्य नहीं करते हैं; जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं और जो उससे घृणा करते हैं, एक दूसरे के उलट हैं। जो विश्राम में प्रवेश करेंगे और जो नष्ट किए जा चुके होंगे, दो अलग-अलग असंगत प्रकार के प्राणी हैं। जो प्राणी अपने कर्तव्य निभाते हैं, बचने में समर्थ होंगे, जबकि वे जो अपने कर्तव्य नहीं निभाते, विनाश की वस्तु बनेंगे; इसके अलावा, यह सब अनंत काल के लिए होगा। क्या तुम एक सृजित प्राणी के तौर पर अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए अपने पति से प्रेम करती हो? क्या तुम एक सृजित प्राणी के तौर पर अपने कर्तव्य पूरा करने के लिए अपनी पत्नी से प्रेम करते हो? क्या तुम एक सृजित प्राणी के तौर पर अपने नास्तिक माता-पिता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ हो? परमेश्वर पर विश्वास करने के मामले में मनुष्य का दृष्टिकोण सही या ग़लत है? तुम परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हो? तुम क्या पाना चाहते हो? तुम परमेश्वर से कैसे प्रेम करते हो? जो लोग पैदा हुए प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर सकते और जो पूरा प्रयास नहीं कर सकते, वे विनाश की वस्तु बनेंगे। आज लोगों में एक दूसरे के बीच भौतिक संबंध होते हैं, उनके बीच खून के रिश्ते होते हैं, किंतु भविष्य में, यह सब ध्वस्त हो जाएगा। विश्वासी और अविश्वासी संगत नहीं हैं, बल्कि वे एक दूसरे के विरोधी हैं। वे जो विश्राम में हैं, विश्वास करेंगे कि कोई परमेश्वर है और उसके प्रति समर्पित होंगे, जबकि वे जो परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी हैं, वे सब नष्ट कर दिए गए होंगे। पृथ्वी पर परिवारों का अब और अस्तित्व नहीं होगा; तो माता-पिता या संतानों या पतियों और पत्नियों के बीच के रिश्ते कैसे हो सकते हैं? विश्वास और अविश्वास की अत्यंत असंगतता से ये संबंध पूरी तरह टूट चुके होंगे!

मानवता के बीच मूल रूप से परिवार नहीं थे; केवल एक पुरुष और एक महिला का ही अस्तित्व था—दो भिन्न प्रकार के मनुष्य। कोई देश नहीं थे, परिवारों की तो बात ही छोड़ो, परंतु मानवता की भ्रष्टता के कारण, सभी प्रकार के लोगों ने स्वयं को व्यक्तिगत क़बीलों में संगठित कर लिया, बाद में ये देशों और जातियों में विकसित हो गए। ये देश और जातियाँ छोटे-छोटे परिवारों से मिलकर बने थे और इस तरीक़े से सभी प्रकार के लोग, भाषा की भिन्नताओं और सीमाओं के अनुसार विभिन्न नस्लों में बंट गए। वास्तव में, दुनिया में चाहे कितनी भी नस्लें हों, मानवता का केवल एक ही पूर्वज है। आरंभ में, केवल दो प्रकार के ही मनुष्य थे और ये दो प्रकार पुरुष और स्त्री थे। हालाँकि, परमेश्वर के कार्य की प्रगति, इतिहास की गति और भौगोलिक परिवर्तनों के कारण, विभिन्न अंशों तक ये दो प्रकार के लोग और अधिक प्रकारों में विकसित हो गए। आधारभूत रूप में, मानवता में चाहे कितनी नस्लें शामिल हों, समस्त मानवता अभी भी परमेश्वर का सृजन है। लोग चाहे किसी भी नस्ल से संबंधित हों, वे सब उसका सृजन हैं; वे सब आदम और हव्वा के वंशज हैं। यद्यपि वे परमेश्वर के हाथों से नहीं बनाए गए थे, फिर भी वे आदम और हव्वा के वंशज हैं, जिन्हें परमेश्वर ने निजी तौर पर सृजित किया। लोग चाहे किसी भी श्रेणी से संबंधित हों, वे सभी उसके प्राणी हैं; चूँकि वे मानवता से संबंधित हैं जिसका सृजन परमेश्वर ने किया था, इसलिए उनकी मंज़िल वही है, जो मानवता की होनी चाहिए और वे उन नियमों के तहत विभाजित किए गए हैं, जो मनुष्यों को संगठित करते हैं। कहने का अर्थ है कि सभी बुरा करने वाले और सभी धार्मिक लोग अंततः प्राणी ही हैं। प्राणी जो बुरा करते हैं अंततः नष्ट किए जाएंगे, और प्राणी जो धार्मिक कर्म करते हैं, बचे रहेंगे। इन दो प्रकार के प्राणियों के लिए यह सबसे उपयुक्त व्यवस्था है। बुरा करने वाले अपनी अवज्ञा के कारण इनकार नहीं कर सकते कि परमेश्वर की सृष्टि होने पर भी वे शैतान द्वारा क़ब्ज़ा लिए गए हैं और इस कारण बचाए नहीं जा सकते। प्राणी जो स्वयं धार्मिक आचरण करते हैं, इस तथ्य के मुताबिक़ कि वे बच जाएँगे, इनकार नहीं कर सकते कि उन्हें परमेश्वर ने बनाया है और शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद भी उद्धार प्राप्त किया है। बुरा करने वाले ऐसे प्राणी हैं, जो परमेश्वर के लिए अवज्ञाकारी हैं; ये ऐसे प्राणी हैं, जिन्हें बचाया नहीं जा सकता और वे पहले ही पूरी तरह शैतान की पकड़ में जा चुके हैं। बुराई करने वाले लोग भी मनुष्य ही हैं; वे ऐसे मनुष्य हैं, जो चरम सीमा तक भ्रष्ट किए जा चुके हैं और जो बचाए नहीं जा सकते। ठीक जिस प्रकार वे भी प्राणी हैं, धार्मिक आचरण वाले लोग भी भ्रष्ट किए गए हैं, परंतु ये वे मनुष्य हैं, जो अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़कर मुक्त होना चाहते हैं और परमेश्वर को समर्पित होने में सक्षम हैं। धार्मिक आचरण वाले लोग धार्मिकता से नहीं भरे हैं; बल्कि, वे उद्धार प्राप्त कर चुके हैं और अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़कर मुक्त हो गए हैं; वे परमेश्वर को समर्पित हो सकते हैं। वे अंत तक डटे रहेंगे, परंतु कहने का अर्थ यह नहीं कि वे शैतान द्वारा कभी भ्रष्ट नहीं किए गए हैं। परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाने के बाद, उसके सभी प्राणियों में, वे लोग होंगे, जो नष्ट किए जाएंगे और वे होंगे जो बचे रहेंगे। यह उसके प्रबंधन कार्य की एक अपरिहार्य प्रवृत्ति है; इससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता। बुरा करने वालों को बचने की अनुमति नहीं होगी; जो अंत तक परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसका अनुसरण करते हैं, उनका जीवित रहना निश्चित है। चूँकि यह कार्य मानवता के प्रबंधन का है, इसलिए कुछ होंगे जो बचे रहेंगे और कुछ होंगे जो हटा दिए जाएंगे। ये अलग-अलग प्रकार के लोगों के लिए अलग-अलग परिणाम हैं और ये परमेश्वर के प्राणियों के लिए सबसे अधिक उपयुक्त व्यवस्थाएँ हैं। मानवजाति के लिए परमेश्वर का अंतिम प्रबंधन परिवारों को तोड़कर उसे बाँटना है, जातियों को ध्वस्त करके और राष्ट्रीय सीमाओं को तोड़कर ऐसा प्रबंधन बनाना जिसमें परिवारों और राष्ट्रों की सीमाएं न हों क्योंकि अंततः मनुष्यों का पूर्वज एक ही है और वे परमेश्वर की सृष्टि हैं। संक्षेप में, बुरा करने वाले सभी प्राणी नष्ट कर दिए जाएंगे और जो प्राणी परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं, वे बचेंगे। इस तरह, न कोई परिवार होंगे न देश होंगे, विशेष रूप से आने वाले विश्राम के समय में कोई जातियाँ नहीं होंगी; इस प्रकार की मानवता सबसे अधिक पवित्र प्रकार की मानवता होगी। आदम और हव्वा का सृजन मूल रूप से इसलिए किया गया था ताकि मानवता पृथ्वी की सभी चीज़ों की देखभाल कर सके; आरंभ में मनुष्य सभी चीज़ों के स्वामी थे। मनुष्य के सृजन में यहोवा की इच्छा मनुष्य का पृथ्वी पर अस्तित्व बनाए रखने और इसके ऊपर सभी चीज़ों की देखभाल करने की अनुमति देना था, क्योंकि आरंभ में मानवता भ्रष्ट नहीं की गई थी और बुरा करने में असमर्थ थी। हालांकि मनुष्य भ्रष्ट हो जाने के बाद सभी चीज़ों का रखवाला नहीं रहा। परमेश्वर द्वारा उद्धार का उद्देश्य मानवता की इस भूमिका को वापस लाना है, मानवजाति की मूल समझ और मूल आज्ञाकारिता को वापस लाना है; विश्राम में मानवता उस परिणाम को सटीक रूप से दर्शाती है जो परमेश्वर अपने उद्धार के कार्य से प्राप्त करने की आशा रखता है। हालाँकि यह अदन की वाटिका के जीवन के समान जीवन नहीं होगा, किंतु उसका सार वही होगा; अब मानवता न सिर्फ़ अपनी आरंभिक भ्रष्टता-रहित अवस्था जैसी होगी बल्कि ऐसी मानवता होगी, जिसे भ्रष्ट किया गया था और जिसने बाद में उद्धार प्राप्त किया। ये लोग जिन्होंने उद्धार प्राप्त कर लिया है, अंततः (यानी जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाता है) विश्राम में प्रवेश करेंगे। इसी प्रकार, जिन्हें दंड दिया जाना है, उनके परिणाम भी अंत में पूर्ण रूप से प्रकट किए जाएँगे और उन्हें केवल तभी नष्ट किया जाएगा, जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा। दूसरे शब्दों में, जब उसका कार्य समाप्त हो जाता है, तो वे बुरा करने वाले और वे जिन्हें बचाया जा चुका है, सभी प्रकट किए जाएँगे, क्योंकि सभी प्रकार के लोगों को प्रकट करने का कार्य (चाहे वे बुरा करने वाले हों या उनमें से हों जो बचाए गए हैं) सभी मनुष्यों पर एक साथ संपन्न किया जाएगा। बुरा करने वाले हटा दिए जाएँगे और जिन्हें बचे रहने की अनुमति है, वे साथ-साथ प्रकट किए जाएँगे। इसलिए सभी प्रकार के लोगों के परिणाम एक साथ प्रकट किए जाएँगे। बुराई करने वालों को अलग करके धीरे-धीरे उनका न्याय या उन्हें दंडित करने से पहले परमेश्वर उद्धार पा चुके लोगों के समूह को विश्राम में प्रवेश की अनुमति नहीं देगा; यह तथ्यों के अनुरूप नहीं होगा। जब बुरा करने वाले नष्ट हो जाते हैं और जो बचे रह सकते हैं, वे विश्राम में प्रवेश करते हैं, तब समस्त ब्रह्मांड में परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा। वहाँ जो आशीष पाएँगे और जो दुर्भाग्य से पीड़ित होंगे, उनके बीच प्राथमिकता का क्रम नहीं होगा; जो आशीष पाएँगे, वे अनंतकाल तक जीवित रहेंगे जबकि जो दुर्भाग्य से पीड़ित होंगे, वे अनंतकाल तक नष्ट होते रहेंगे। कार्य के ये दोनों क़दम साथ-साथ पूर्ण होंगे। यह अवज्ञाकारी लोगों के अस्तित्व के कारण ही है कि समर्पण करने वालों की धार्मिकता प्रकट होगी, और चूँकि ऐसे लोग हैं जिन्होंने आशीष प्राप्त किए हैं, इसलिए ही दुष्टों द्वारा झेले जाने वाला दुर्भाग्य प्रकट किया जाएगा जो उन्हें उनके दुष्ट आचरण के लिए मिलता है। यदि परमेश्वर ने बुरा करने वालों को प्रकट न किया, तो वे लोग, जो ईमानदारी से परमेश्वर को समर्पण करते हैं, कभी भी प्रकाश नहीं देखेंगे; यदि परमेश्वर उन्हें उचित गंतव्य पर नहीं पहुँचाता जो उसे समर्पण करते हैं, तो जो परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी हैं, वे उचित दंड प्राप्त नहीं कर पाएँगे। यही परमेश्वर के कार्य की प्रक्रिया है। यदि वह बुरे को दंड देने एवं अच्छे को पुरस्कृत करने का यह कार्य नहीं करता, तो उसके प्राणी कभी अपने-अपने गंतव्यों तक पहुँचने में सक्षम नहीं हो पाएँगे। जब एक बार मानवजाति विश्राम में प्रवेश कर लेती है, तो बुराई करने वाले नष्ट किए जा चुके होंगे, समस्त मानवता सही मार्ग पर होगी; सभी प्रकार के लोग अपने-अपने प्रकार के साथ होंगे, उन कार्यों के अनुसार जिनका उन्हें अभ्यास करना चाहिए। केवल यही मानवता के विश्राम का दिन होगा, यह मानवता के विकास की अपरिहार्य प्रवृत्ति होगी और केवल जब मानवता विश्राम में प्रवेश करेगी केवल तभी परमेश्वर की महान और चरम कार्यसिद्धि पूर्णता पर पहुँचेगी; यह उसके कार्य का समापन अंश होगा। यह कार्य मानवता के पतनशील भौतिक जीवन का अंत करेगा, साथ ही यह भ्रष्ट मानवता के जीवन का अंत करेगा। इसके बाद से मनुष्य एक नए क्षेत्र में प्रवेश करेंगे। यद्यपि सभी मनुष्य देह में जिएँगे, किंतु इस जीवन के सार और भ्रष्ट मानवता के सार में महत्त्वपूर्ण अंतर होंगे। इस अस्तित्व का अर्थ और भ्रष्ट मानवता के अस्तित्व का अर्थ भी भिन्न होता है। हालाँकि यह एक नए प्रकार के व्यक्ति का जीवन नहीं होगा, यह कहा जा सकता है कि यह उस मानवता का जीवन है, जो उद्धार प्राप्त कर चुकी है, साथ ही ऐसा जीवन, जिसने मानवता और तर्क को पुनः प्राप्त कर लिया है। ये वे लोग हैं, जो कभी परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी थे, जिन्हें परमेश्वर द्वारा जीता गया था और फिर उसके द्वारा बचाया गया था; ये वे लोग हैं, जिन्होंने परमेश्वर का अपमान किया और बाद में उसकी गवाही दी। उसकी परीक्षा से गुजरकर बचने के बाद उनका अस्तित्व सबसे अधिक अर्थपूर्ण अस्तित्व होगा; ये वे लोग हैं, जिन्होंने शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही दी और वे मनुष्य हैं, जो जीवित रहने के योग्य हैं। जो नष्ट किए जाएँगे वे लोग हैं, जो परमेश्वर के गवाह नहीं बन सकते और जो जीवित रहने के योग्य नहीं हैं। उनका विनाश उनके दुष्ट आचरण के कारण होगा और ऐसा विनाश ही उनके लिए सर्वोत्तम गंतव्य है। भविष्य में, जब मानवता एक सुंदर क्षेत्र में प्रवेश करेगी, तब पति और पत्नी के बीच, पिता और पुत्री के बीच या माँ और पुत्र के बीच ऐसे कोई संबंध नहीं होंगे, जैसा कि लोग कल्पना करते हैं। उस समय, प्रत्येक मनुष्य अपने प्रकार के लोगों का अनुसरण करेगा और परिवार पहले ही ध्वस्त हो चुके होंगे। पूरी तरह असफल होने के बाद, शैतान फिर कभी मानवता को परेशान नहीं करेगा और मनुष्यों में अब और भ्रष्ट शैतानी स्वभाव नहीं होंगे। वे अवज्ञाकारी लोग पहले ही नष्ट किए जा चुके होंगे और केवल समर्पण करने वाले लोग ही बचेंगे। जब बहुत थोड़े से परिवार पूरी तरह बचेंगे; तो भौतिक संबंध कैसे बने रह सकते हैं? अतीत का मनुष्य का दैहिक जीवन पूरी तरह निषिद्ध होगा; तो लोगों के बीच भौतिक संबंध कैसे अस्तित्व में रह सकते हैं? शैतान के भ्रष्ट स्वभावों के बिना, मनुष्यों का जीवन अब अतीत के पुराने जीवन के समान नहीं होगा बल्कि एक नया जीवन होगा। माता-पिता बच्चों को गँवा देंगे और बच्चे माता-पिता को गँवा देंगे। पति पत्नियों को गँवा देंगे और पत्नियाँ पतियों को गँवा देंगी। फिलहाल लोगों का एक दूसरे के साथ भौतिक संबंध होता है, पर जब प्रत्येक विश्राम में प्रवेश कर लेगा, तो उनके बीच कोई संबंध नहीं होगा। केवल इस प्रकार की मानवता में ही धार्मिकता और पवित्रता होगी; केवल इस प्रकार की मानवता ही परमेश्वर की आराधना कर सकती है।

परमेश्वर ने मनुष्यों का सृजन किया और उन्हें पृथ्वी पर रखा और तब से उनकी अगुआई की। फिर उसने उन्हें बचाया और मानवता के लिये पापबलि बना। अंत में, उसे अभी भी मानवता को जीतना होगा, मनुष्यों को पूरी तरह से बचाना होगा और उन्हें उनकी मूल समानता में वापस लौटाना होगा। यही वह कार्य है, जिसे वह आरंभ से करता रहा है—मनुष्य को उसकी मूल छवि और उसकी मूल समानता में वापस लौटाना। परमेश्वर अपना राज्य स्थापित करेगा और मनुष्य की मूल समानता बहाल करेगा, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर पृथ्वी और समस्त सृष्टि पर अपने अधिकार को बहाल करेगा। मानवता ने शैतान से भ्रष्ट होने के बाद परमेश्वर के प्राणियों के साथ-साथ अपने धर्मभीरु हृदय भी गँवा दिए, जिससे वह परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण और अवज्ञाकारी हो गया। तब मानवता शैतान के अधिकार क्षेत्र में रही और शैतान के आदेशों का पालन किया; इस प्रकार, अपने प्राणियों के बीच कार्य करने का परमेश्वर के पास कोई तरीक़ा नहीं था और वह अपने प्राणियों से भयपूर्ण श्रद्धा पाने में असमर्थ हो गया। मनुष्यों को परमेश्वर ने बनाया था और उन्हें परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए थी, पर उन्होंने वास्तव में परमेश्वर से मुँह मोड़ लिया और इसके बजाय शैतान की आराधना करने लगे। शैतान उनके दिलों में बस गया। इस प्रकार, परमेश्वर ने मनुष्य के हृदय में अपना स्थान खो दिया, जिसका मतलब है कि उसने मानवता के सृजन के पीछे का अर्थ खो दिया। इसलिए मानवता के सृजन के अपने अर्थ को बहाल करने के लिए उसे उनकी मूल समानता को बहाल करना होगा और मानवता को उसके भ्रष्ट स्वभाव से मुक्ति दिलानी होगी। शैतान से मनुष्यों को वापस प्राप्त करने के लिए, उसे उन्हें पाप से बचाना होगा। केवल इसी तरह परमेश्वर धीरे-धीरे उनकी मूल समानता और भूमिका को बहाल कर सकता है और अंत में, अपने राज्य को बहाल कर सकता है। अवज्ञा करने वाले उन पुत्रों का अंतिम तौर पर विनाश भी क्रियान्वित किया जाएगा, ताकि मनुष्य बेहतर ढंग से परमेश्वर की आराधना कर सकें और पृथ्वी पर बेहतर ढंग से रह सकें। चूँकि परमेश्वर ने मानवों का सृजन किया, इसलिए वह मनुष्य से अपनी आराधना करवाएगा; क्योंकि वह मानवता के मूल कार्य को बहाल करना चाहता है, वह उसे पूर्ण रूप से और बिना किसी मिलावट के बहाल करेगा। अपना अधिकार बहाल करने का अर्थ है, मनुष्यों से अपनी आराधना कराना और समर्पण कराना; इसका अर्थ है कि वह अपनी वजह से मनुष्यों को जीवित रखेगा और अपने अधिकार की वजह से अपने शत्रुओं का विनाश करेगा। इसका अर्थ है कि परमेश्वर किसी प्रतिरोध के बिना, मनुष्यों के बीच उस सब को बनाए रखेगा जो उसके बारे में है। जो राज्य परमेश्वर स्थापित करना चाहता है, वह उसका स्वयं का राज्य है। वह जिस मानवता की आकांक्षा रखता है, वह है, जो उसकी आराधना करेगी, जो उसे पूरी तरह समर्पण करेगी और उसकी महिमा का प्रदर्शन करेगी। यदि परमेश्वर भ्रष्ट मानवता को नहीं बचाता, तो उसके द्वारा मानवता के सृजन का अर्थ खत्म हो जाएगा; उसका मनुष्यों के बीच अब और अधिकार नहीं रहेगा और पृथ्वी पर उसके राज्य का अस्तित्व अब और नहीं रह पाएगा। यदि परमेश्वर उन शत्रुओं का नाश नहीं करता, जो उसके प्रति अवज्ञाकारी हैं, तो वह अपनी संपूर्ण महिमा प्राप्त करने में असमर्थ रहेगा, वह पृथ्वी पर अपने राज्य की स्थापना भी नहीं कर पाएगा। ये उसका कार्य पूरा होने और उसकी महान उपलब्धि के प्रतीक होंगे : मानवता में से उन सबको पूरी तरह नष्ट करना, जो उसके प्रति अवज्ञाकारी हैं और जो पूर्ण किए जा चुके हैं, उन्हें विश्राम में लाना। जब मनुष्यों को उनकी मूल समानता में बहाल कर लिया जाएगा, और जब वे अपने-अपने कर्तव्य निभा सकेंगे, अपने उचित स्थानों पर बने रह सकेंगे और परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं को समर्पण कर सकेंगे, तब परमेश्वर ने पृथ्वी पर उन लोगों का एक समूह प्राप्त कर लिया होगा, जो उसकी आराधना करते हैं और उसने पृथ्वी पर एक राज्य भी स्थापित कर लिया होगा, जो उसकी आराधना करता है। पृथ्वी पर उसकी अनंत विजय होगी और वे सभी जो उसके विरोध में हैं, अनंतकाल के लिए नष्ट हो जाएँगे। इससे मनुष्य का सृजन करने की उसकी मूल इच्छा बहाल होगी; इससे सब चीज़ों के सृजन की उसकी मूल इच्छा बहाल होगी और इससे पृथ्वी पर सभी चीज़ों पर और शत्रुओं के बीच उसका अधिकार भी बहाल हो जाएगा। ये उसकी संपूर्ण विजय के प्रतीक होंगे। इसके बाद से मानवता विश्राम में प्रवेश करेगी और ऐसे जीवन में प्रवेश करेगी, जो सही मार्ग पर है। मानवता के साथ परमेश्वर भी अनंत विश्राम में प्रवेश करेगा और मनुष्यों और स्वयं के साथ एक अनंत जीवन का आरंभ करेगा। पृथ्वी पर से गंदगी और अवज्ञा ग़ायब हो जाएगी, पृथ्वी पर से सारा विलाप भी समाप्त हो जाएगा और परमेश्वर का विरोध करने वाली प्रत्येक चीज़ का अस्तित्व नहीं रहेगा। केवल परमेश्वर और वही लोग बचेंगे, जिनका उसने उद्धार किया है; केवल उसकी सृष्टि ही बचेगी।

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