परमेश्वर का कार्य एवं मनुष्य का अभ्यास (भाग दो)

जिसमें दर्शन शामिल हैं वह मुख्यतः स्वयं परमेश्वर के कार्य की ओर संकेत करता है, और जिसमें रीति व्यवहार शामिल होता है उसे मनुष्य के द्वारा किया जाना चाहिए, और इसका परमेश्वर से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। परमेश्वर के कार्य को स्वयं परमेश्वर के द्वारा पूर्ण किया गया है, और मनुष्य के रीति व्यवहार को स्वयं मनुष्य के द्वारा हासिल किया गया है। जिसे स्वयं परमेश्वर द्वारा किया जाना चाहिए उसे मनुष्य के द्वारा किए जाने की आवश्यकता नहीं है, और जिसका मनुष्य के द्वारा अभ्यास किया जाना चाहिए उससे परमेश्वर का कोई सम्बन्ध नहीं है। परमेश्वर का कार्य स्वयं उसकी सेवकाई है, और इसका मनुष्य से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस कार्य को मनुष्य के द्वारा किए जाने की कोई जरूरत नहीं है, और, इससे बढ़कर, मनुष्य उस कार्य को करने में असमर्थ है जिसे परमेश्वर के द्वारा किया जाना है। जिसका अभ्यास करने के लिए मनुष्य से अपेक्षा की जाती है उसे मनुष्य के द्वारा पूरा किया जाना चाहिए, चाहे यह उसके जीवन का बलिदान हो, या गवाही देने के लिए उसे शैतान के हवाले करना हो—इन सब को मनुष्य के द्वारा पूरा किया जाना चाहिए। स्वयं परमेश्वर समस्त कार्य को पूरा करता है जिसे उसे पूरा करना चाहिए, और जिसे मनुष्य को करना चाहिए उसे मनुष्य को दिखाया गया है, तथा बाकि बचा हुआ कार्य मनुष्य पर छोड़ दिया गया है। परमेश्वर अतिरिक्त कार्य नहीं करता है। वह केवल उसी कार्य को करता है जो उसकी सेवकाई के अंतर्गत है, और वह केवल मनुष्य को मार्ग दिखाता है, तथा केवल मार्ग को खोलने का ही कार्य करता है, और मार्ग प्रशस्त करने का कार्य नहीं करता है; इसे मनुष्य के द्वारा समझा जाना चाहिए। सत्य को अभ्यास में लाने का अर्थ है परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाना, और यह सब मनुष्य का कर्तव्य है, और यह वह है जिसे मनुष्य के द्वारा किया जाना चाहिए, और इसका परमेश्वर के साथ कोई लेना देना नहीं है। यदि मनुष्य मांग करता है कि परमेश्वर भी मनुष्य के समान उसी रीति से कष्ट उठाए और सत्य में परिष्कृत हो, तो मनुष्य अनाज्ञाकारी हो गया है। परमेश्वर का कार्य अपनी सेवकाई करना है, तथा मनुष्य का कर्तव्य है कि वह बिना किसी प्रतिरोध के परमेश्वर के सभी मार्गदर्शन को माने। वह जिसे मनुष्य को अवश्य प्राप्त करना है वह उसे पूरा करने के योग्य है, उस तरीके के बावजूद जिसके अंतर्गत परमेश्वर कार्य करता हैं एवं रहता है। केवल स्वयं परमेश्वर ही मनुष्य से अपेक्षाएं कर सकता है, कहने का तात्पर्य है, केवल स्वयं परमेश्वर ही मनुष्य से अपेक्षाएं करने के लिए उपयुक्त है। मनुष्य के पास कोई विकल्प नहीं होना चाहिए, उसे पूरी तरह से अधीन होने और अभ्यास करने के सिवाए कुछ नहीं करना चाहिए; यही वह एहसास है जिसे मनुष्य के द्वारा धारण किया जाना चाहिए। जब एक बार वह कार्य पूरा हो जाता है जिसे स्वयं परमेश्वर के द्वारा किया जाना चाहिए, तो मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह कदम दर कदम इसका अनुभव करे। यदि, अंत में, जब परमेश्वर का सम्पूर्ण प्रबंधन पूरा हो जाता है, जब मनुष्य ने अब तक वह कार्य नहीं किया है जिसकी अपेक्षा परमेश्वर के द्वारा की गई है, तो मनुष्य को दण्ड दिया जाना चाहिए। यदि मनुष्य परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं करता है, तो यह मनुष्य की अनाज्ञाकारिता के कारण है; इसका अर्थ यह नहीं है कि परमेश्वर ने अपने कार्य को सावधानी से नहीं किया है। वे सभी जो परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में नहीं ला सकते हैं, वे जो परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकते हैं, और वे जो अपनी वफादारी नहीं दे सकते हैं और अपने कर्तव्य को निभा नहीं सकते हैं—उन सभी को दण्ड दिया जाएगा। आज, जो कुछ हासिल करने की अपेक्षा तुम सब से की जाती है वे अतिरिक्त मांगे नहीं हैं, किन्तु मनुष्य के कर्तव्य हैं, और वह है जिसे समस्त लोगों के द्वारा किया जाना चाहिए। यदि तुम लोग अपने कर्तव्य को निभाने, या इसे भली भांति करने में भी असमर्थ हो, तो क्या तुम सब स्वयं अपने ऊपर मुसीबतें नहीं ला रहे हो? क्या तुम लोग मृत्यु की याचना नहीं कर रहे हो? तुम लोग अब भी भविष्य एवं संभावनाओं की आशा कैसे कर सकते हो? परमेश्वर का कार्य मानवजाति के लिए है, तथा मनुष्य का सहयोग परमेश्वर के प्रबंधन के लिए है। जब परमेश्वर ने वह सब कुछ किया जिसको करने की उससे अपेक्षा की गई उसके पश्चात्, मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने रीति व्यवहार में उदार हो, और परमेश्वर के साथ सहयोग करे। परमेश्वर के कार्य में, मनुष्य को कोई कसर बाकी नहीं रखना चाहिए, उसे अपनी वफादारी अर्पित करनी चाहिए, और अनगिनत अवधारणाओं में सलंग्न नहीं होना चाहिए, या निष्क्रिय होकर बैठना और मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर मनुष्य के लिए स्वयं को बलिदान कर सकता है, अतः मनुष्य क्यों परमेश्वर के प्रति अपनी वफादारी को अर्पित नहीं कर सकता है? परमेश्वर मनुष्य के प्रति एक हृदय एवं एक मस्तिष्क का है, अतः मनुष्य क्यों थोड़ा सा भी सहयोग अर्पित नहीं कर सकता है? परमेश्वर मानवजाति के लिए कार्य करता है, अतः मनुष्य क्यों परमेश्वर के प्रबंधन के लिए अपने कुछ कर्तव्य पूरा नहीं कर सकता है? परमेश्वर का कार्य इतनी दूर तक आ गया है, फिर भी तुम लोग अभी भी देखते रहते हो किन्तु कोई कार्य नहीं करते हो, तुम लोग सुनते तो हो किन्तु हिलते नहीं। क्या ऐसे लोग विनाश के पात्र नहीं हैं? परमेश्वर ने पहले ही अपना सर्वस्व मनुष्य को अर्पित कर दिया है, अतः आज मनुष्य ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ क्यों है? परमेश्वर के लिए, उसका कार्य उसकी प्राथमिकता है, और उसके प्रबंधन का कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। मनुष्य के लिए, परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाना और परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करना ही उसकी प्राथमिकता है। तुम सब को इसे समझना चाहिए। तुम सभी से कहे गए वचन तुम्हारे सार-तत्व के केन्द्रीय भाग में पहुँच गए हैं, और परमेश्वर का कार्य अभूतपूर्व क्षेत्र में प्रवेश कर चुका है। अनेक लोग अभी भी सच्चाई को या इस मार्ग के झूठ को नहीं समझते हैं; वे अभी भी प्रतीक्षा कर रहे हैं और देख रहे हैं, और अपने कर्तव्य को नहीं निभा रहे हैं। इसके बजाए, वे परमेश्वर के द्वारा दिए गए प्रत्येक वचन एवं कार्य को जांचते हैं, वे इस बात पर ध्यान केन्द्रित करते हैं कि वह क्या खाता है एवं पहनता है, तथा उनकी अवधारणाएं और भी अधिक दुखदायी हो गई हैं। क्या ऐसे लोग बात का बतंगड़ नहीं बना रहे हैं? इस प्रकार के लोग कैसे ऐसे मनुष्य हो सकते हैं जो परमेश्वर को खोजते हैं? और वे कैसे ऐसे लोग हो सकते हैं जो जानते बूझते परमेश्वर के अधीन होते हैं? वे अपनी वाफदारी एवं कर्तव्य को अपने मस्तिष्क के पीछे रखते हैं, और इसके बजाए परमेश्वर के पते ठिकाने पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। वे उपद्रवी हैं! यदि मनुष्य ने वह सब कुछ समझ लिया है जिसे समझने की अपेक्षा उससे की जाती है, और यदि वह उन सब को अभ्यास में ला चुका है जिसे अभ्यास में लाने की अपेक्षा उससे की जाती है, तो परमेश्वर निश्चय ही अपनी आशीषें मनुष्य को प्रदान करेगा, क्योंकि जो अपेक्षा परमेश्वर मनुष्य से करता है वह मनुष्य का कर्तव्य है, और यह वह है जिसे मनुष्य के द्वारा किया जाना चाहिए। यदि मनुष्य यह समझने में असमर्थ है कि किस बात को समझने के लिए उससे अपेक्षा की जाती है, और यदि वह उसे अभ्यास में लाने में असमर्थ है जिसे उसे अभ्यास में लाना चाहिए, तो मनुष्य को दण्ड दिया जाएगा। ऐसे लोग जो परमेश्वर के साथ सहयोग नहीं करते हैं वे परमेश्वर के प्रति शत्रुता रखते हैं, ऐसे लोग जो नए कार्य को स्वीकार नहीं करते हैं वे इसके विरुद्ध हैं, हालाँकि इस प्रकार के लोग ऐसा कुछ नहीं करते हैं जो स्पष्ट रूप से इसके विरुद्ध हो। वे सभी जो सत्य को अभ्यास में नहीं लाते है जिसकी अपेक्षा परमेश्वर के द्वारा की जाती है तो वे ऐसे लोग हैं जो जानबूझकर परमेश्वर के वचनों का विरोध करते हैं और उसके प्रति अनाज्ञाकारी हैं, भले ही ऐसे लोग पवित्र आत्मा के कार्य के प्रति "विशेष ध्यान" देते हों। ऐसे लोग जो परमेश्वर के वचनों का पालन नहीं करते हैं और परमेश्वर के अधीन नहीं होते हैं वे विद्रोही हैं, तथा वे परमेश्वर के विरोध में हैं। वे लोग जो अपने कर्तव्य को नहीं निभाते हैं वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर के साथ सहयोग नहीं करते हैं, और वे लोग जो परमेश्वर के साथ सहयोग नहीं करते हैं वे ऐसे लोग हैं जो पवित्र आत्मा के कार्य को स्वीकार नहीं करते हैं।

जब परमेश्वर का कार्य किसी निश्चित बिन्दु पर पहुंच जाता है, और उसका प्रबंधन किसी निश्चित बिन्दु पर पहुंच जाता है, तो जो लोग उसके हृदय के अनुसार हैं वे उसकी अपेक्षाओं को पूरा करने में सक्षम होते हैं। परमेश्वर अपने स्वयं के मापदंडों के अनुसार मनुष्य से अपेक्षाएं करता है, और उसके अनुसार मनुष्य से अपेक्षाएं करता है जिसे हासिल करने के लिए मनुष्य सक्षम है। अपने प्रबंधन के विषय में बात करते समय, वह मनुष्य के लिए मार्ग की ओर संकेत करता है, और मनुष्य को जीवित बचे रहने के लिए एक मार्ग प्रदान करता है। परमेश्वर का प्रबंधन और मनुष्य का रीति व्यवहार दोनों एक ही चरण के कार्य हैं, और उन्हें एक साथ ही क्रियान्वित किया जाता है। परमेश्वर के प्रबंधन की बातचीत मनुष्य के स्वभाव में हुए परिवर्तन को स्पर्श करती है, और उस विषय में मनुष्य द्वारा बात की जानी चाहिए, व मनुष्य के स्वभाव में हुआ परिवर्तन, परमेश्वर के कार्य को स्पर्श करता है; ऐसा कोई समय नहीं है जिसके तहत इन दोनों को अलग किया जा सके। मनुष्य का रीति व्यवहार कदम दर कदम बदल रहा है। यह इसलिए है क्योंकि मनुष्य के प्रति परमेश्वर की अपेक्षाएं भी बदल रही हैं, और क्योंकि परमेश्वर का कार्य हमेशा बदल रहा है और प्रगति कर रहा है। यदि मनुष्य का रीति व्यवहार सिद्धान्तों के जाल में उलझा रहता है, तो इससे साबित होता है कि वह परमेश्वर के कार्य एवं मार्गदर्शन से वंचित है; यदि मनुष्य का रीति व्यवहार कभी नहीं बदलता है या गहराई में नहीं जाता है, तो इससे साबित होता है कि मनुष्य के रीति व्यवहार को मनुष्य की इच्छानुसार क्रियान्वित किया गया है, और यह सत्य का अभ्यास नहीं है; यदि मनुष्य के पास कोई मार्ग नहीं है जिस पर वह कदम रखे, तो वह पहले ही से शैतान के हाथों में पड़ चुका है, और उसे शैतान के द्वारा नियन्त्रित किया गया है, जिसका अर्थ है कि उसे दुष्ट आत्मा के द्वारा नियन्त्रित किया गया है। यदि मनुष्य का रीति व्यवहार अधिक गहराई में नहीं जाता है, तो परमेश्वर का कार्य विकास नहीं करेगा, और यदि परमेश्वर के कार्य में कोई बदलाव नहीं होता है, तो मनुष्य का प्रवेश एक ठहराव की ओर आ जाएगा; ये अपरिहार्य है। परमेश्वर के सम्पूर्ण कार्य के दौरान, यदि मनुष्य को सदैव यहोवा की व्यवस्था में बने रहना पड़ता, तो परमेश्वर का कार्य उन्नति नहीं कर सकता था, और सम्पूर्ण युग को एक अंत तक पहुंचाना बिलकुल भी संभव नहीं होता। यदि मनुष्य हमेशा क्रूस को पकड़े रहता और धीरज एवं विनम्रता का अभ्यास करता रहता, तो परमेश्वर के कार्य के लिए निरन्तर प्रगति करना असंभव होता। छः हजार वर्षों के प्रबंधन को साधारण रूप से ऐसे लोगों के बीच से समाप्त नहीं किया जा सकता है जो सिर्फ व्यवस्था में बने रहते हैं, या सिर्फ क्रूस को थामे रहते हैं और धीरज एवं विनम्रता का अभ्यास करते हैं। इसके बजाए, परमेश्वर के प्रबंधन का सम्पूर्ण कार्य अंतिम दिनों के उन लोगों के बीच में समाप्त होता है, जो परमेश्वर को जानते हैं, और जिन्हें शैतान के चंगुल से छुड़ाकर वापस लाया गया है, और जिन्होंने शैतान के प्रभाव को अपने आपसे पूरी तरह से उतार दिया है। ये परमेश्वर के कार्य की अनिवार्य दिशा है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि धार्मिक कलीसियाओं के उन लोगों के रीति व्यवहार प्रचलन से बाहर हो गए हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि जिसे वे अभ्यास में लाते हैं वह आज के कार्य से अलग हो गया है। अनुग्रह के युग में, जिसे वे अभ्यास में लाते थे वह सही था, किन्तु चूँकि युग गुज़र चुका है और परमेश्वर का कार्य बदल चुका है, तो उनका रीति व्यवहार धीरे धीरे प्रचलन से बाहर हो गया है। इसे नए कार्य एवं नए प्रकाश के द्वारा पीछे छोड़ दिया गया है। इसके मूल बुनियाद के आधार पर, पवित्र आत्मा का कार्य कई कदम गहराई में बढ़ चुका है। फिर भी वे लोग परमेश्वर के कार्य की मूल अवस्था से अभी भी चिपके हुए हैं, और पुराने रीति व्यवहारों एवं पुराने प्रकाश पर अभी भी अटके हुए हैं। तीन या पाँच वर्षों में परमेश्वर का कार्य बड़े रूप में बदल सकता है, अतः क्या 2,000 वर्षों के समयक्रम में और अधिक महान रूपान्तरण भी नहीं हुए होंगे? यदि मनुष्य के पास कोई नया प्रकाश या रीति व्यवहार नहीं है, तो इसका अर्थ है कि वह पवित्र आत्मा के कार्य के साथ साथ बना नहीं रहा। यह मनुष्य की असफलता है; परमेश्वर के नए कार्य के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है क्योंकि, आज, ऐसे लोग जिनके पास पवित्र आत्मा का मूल कार्य है वे अभी भी प्रचलन से बाहर हो चुके रीति व्यवहारों में बने रहते हैं। पवित्र आत्मा का कार्य हमेशा आगे बढ़ रहा है, और वे सभी जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में हैं उन्हें भी और अधिक गहराई में बढ़ना और कदम दर कदम बदलना चाहिए। उन्हें एक ही चरण पर रूकना नहीं चाहिए। ऐसे लोग जो पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं जानते हैं केवल वे ही परमेश्वर के मूल कार्य के मध्य बने रहेंगे, और वे पवित्र आत्मा के नए कार्य को स्वीकार नहीं करेंगे। ऐसे लोग जो अनाज्ञाकारी हैं केवल वे ही पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करने में असमर्थ होंगे। यदि मनुष्य का रीति व्यवहार पवित्र आत्मा के नए कार्य के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चलता है, तो मनुष्य के रीति व्यवहार को निश्चित रूप से आज के कार्य से हानि पहुंचता है, और यह निश्चित रूप से आज के कार्य के अनुरूप नहीं है। ऐसे पुराने लोग साधारण तौर पर परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने में असमर्थ होते हैं, और वे ऐसे अन्तिम लोग तो बिलकुल भी नहीं बन सकते हैं जो परमेश्वर की गवाही देने के लिए खड़े होंगे। इसके अतिरिक्त, सम्पूर्ण प्रबंधकीय कार्य को ऐसे लोगों के समूह के बीच में समाप्त नहीं किया जा सकता है। क्योंकि वे लोग जिन्होंने एक समय यहोवा की व्यवस्था को थामा था, और वे लोग जिन्होंने क्रूस के दुःख को सहा था, यदि वे अन्तिम दिनों के कार्य के चरण को स्वीकार नहीं कर सकते हैं, तो जो कुछ भी उन्होंने किया था वह सब बेकार एवं व्यर्थ होगा। पवित्र आत्मा के कार्य की अत्यंत स्पष्ट अभिव्यक्ति इस स्थान एवं इस समय को सम्मिलित करने में है, और अतीत से चिपके रहना नहीं है। ऐसे लोग जो आज के कार्य के साथ साथ बने नहीं रहते हैं, और जो आज के रीति व्यवहार से अलग हो गए हैं, ये ऐसे लोग हैं जो विरोध करते हैं और पवित्र आत्मा के कार्य को स्वीकार नहीं करते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के वर्तमान कार्य की अवहेलना करते हैं। यद्यपि वे अतीत के प्रकाश को पकड़े रहते हैं, फिर भी इसका अर्थ यह नहीं है कि इसका इंकार करना संभव है कि वे पवित्र आत्मा के कार्य नहीं जानते हैं। मनुष्य के रीति व्यवहार में परिवर्तनों के विषय में, भूतकाल एवं वर्तमान के बीच के रीति व्यवहार की भिन्नताओं के विषय में, पूर्वकालीन युग के दौरान किस प्रकार अभ्यास किया जाता था इसके विषय में, और इसे आज किस प्रकार किया जाता है इसके विषय में यह सब बातचीत क्यों की गई है। मनुष्य के रीति व्यवहार में ऐसे विभाजन के विषय में हमेशा बात की जाती है क्योंकि पवित्र आत्मा का कार्य लगातार आगे बढ़ रहा है, और इस प्रकार मनुष्य के रीति व्यवहार से अपेक्षा की जाती है कि वह निरन्तर बदलता रहे। यदि मनुष्य एक ही अवस्था में चिपका रहता है, तो इससे प्रमाणित होता है कि वह परमेश्वर के कार्य एवं नए प्रकाश के साथ साथ बने रहने में असमर्थ है; इससे यह प्रमाणित नहीं होता है कि प्रबंधन की परमेश्वर की योजना परिवर्तित नहीं हुई है। ऐसे लोग जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा के बाहर हैं वे सदैव सोचते हैं कि वे सही हैं, किन्तु वास्तव में, उसके भीतर परमेश्वर का कार्य बहुत पहले ही रूक गया था, और पवित्र आत्मा का कार्य उनमें अनुपस्थित है। परमेश्वर का कार्य बहुत पहले ही लोगों के एक अन्य समूह को हस्तान्तरित हो चुका था, ऐसा समूह जिस पर उसने अपने नए कार्य को पूरा करने का इरादा किया है। क्योंकि ऐसे लोग जो किसी धर्म में हैं वे परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार करने में असमर्थ हैं, और वे केवल भूतकाल के पुराने कार्य को ही थामे रहते हैं, इस प्रकार परमेश्वर ने इन लोगों को छोड़ दिया है, और उन लोगों पर अपना कार्य करता है जो उसके नए कार्य को स्वीकार करते हैं। ये ऐसे लोग हैं जो उसके नए कार्य में उसका सहयोग करते हैं, और केवल इसी रीति से ही उसके प्रबंधन को पूरा किया जा सकता है। परमेश्वर का प्रबंधन सदैव आगे बढ़ रहा है, तथा मनुष्य का रीति व्यवहार हमेशा से ऊँचा हो रहा है। परमेश्वर सदैव कार्य कर रहा है, और मनुष्य हमेशा अभावग्रस्त होता है, कुछ इस तरह कि दोनों अपने शिरोबिन्दु पर पहुंचते हैं, परमेश्वर एवं मनुष्य सम्पूर्ण एकता में हैं। यह परमेश्वर के कार्य की पूर्णता की अभिव्यक्ति है, और यह परमेश्वर के सम्पूर्ण प्रबंधन का अन्तिम परिणाम है।

परमेश्वर के कार्य के प्रत्येक चरण में मनुष्य से तद्नुरूपी अपेक्षाएं भी होती हैं। वे सभी जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा के भीतर हैं वे पवित्र आत्मा की उपस्थिति एवं अनुशासन के अधीन हैं, और ऐसे लोग जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में नहीं हैं वे शैतान के नियन्त्रण में हैं, और वे पवित्र आत्मा के किसी भी कार्य से रहित हैं। वे लोग जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में हैं वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार करते हैं, वे ऐसे मनुष्य हैं जो परमेश्वर के नए कार्य में सहयोग करते हैं। यदि इस मुख्य धारा के लोग सहयोग करने में असमर्थ होते हैं, और इस समय के दौरान उस सच्चाई का अभ्यास करने में असमर्थ होते हैं जिसकी परमेश्वर के द्वारा अपेक्षा की गई है, तो उन्हें अनुशाषित किया जाएगा, और बहुत खराब स्थिति में उन्हें पवित्र आत्मा के द्वारा छोड़ दिया जाएगा। ऐसे लोग जो पवित्र आत्मा के नए कार्य को स्वीकार करते हैं, वे पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में जीवन बिताएंगे, और पवित्र आत्मा की देखभाल एवं सुरक्षा को प्राप्त करेंगे। ऐसे लोग जो सत्य को अभ्यास रूप में लाने के इच्छुक हैं उन्हें पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध किया जाता है, और ऐसे लोग जो सत्य को अभ्यास में लाने के अनिच्छुक हैं, उन्हें पवित्र आत्मा के द्वारा अनुशासित किया जाता है, और यहाँ तक कि उन्हें दण्ड भी दिया जा सकता है। इसकी परवाह न करते हुए कि वे किस किस्म के व्यक्ति हैं, इस शर्त पर कि वे पवित्र आत्मा की मुख्य धारा के अंतर्गत हों, परमेश्वर उन सब लोगों की ज़िम्मेदारी लेगा जो उसके नाम के निमित्त उसके नए कार्य को स्वीकार करते हैं। ऐसे लोग जो उसके नाम को गौरवान्वित करते हैं और वे उसके वचनों को अभ्यास में लाने के इच्छुक हैं और वे उसकी आशीषों को प्राप्त करेंगे; ऐसे लोग जो उसकी आज्ञाओं को नहीं मानते हैं और उसके वचनों को अभ्यास में नहीं लाते हैं वे उसके दण्ड को प्राप्त करेंगे। वे लोग जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में हैं वे ऐसे लोग हैं जो उसके नए कार्य को स्वीकार करते हैं, और चूँकि उन्होंने उस नए कार्य को स्वीकार कर लिया है, तो उनका परमेश्वर के साथ उचित सहयोग होना चाहिए, और उन्हें ऐसे विद्रोहियों के समान कार्य नहीं करना चाहिए जो अपने कर्तव्य को नहीं निभाते हैं। यह मनुष्य से की गई परमेश्वर की एकमात्र अपेक्षा है। यह उन लोगों के लिए नहीं है जो नए कार्य को स्वीकार नहीं करते हैं: वे पवित्र आत्मा की मुख्य धारा से बाहर हैं, और पवित्र आत्मा का अनुशासन एवं फटकार उन पर लागू नहीं होता है। पूरे दिन, ऐसे लोग शरीर में जीवन बिताते रहते हैं, वे अपने मनों के भीतर ही जीवन बिताते हैं, और कुल मिलाकर जो कुछ वे करते हैं वह उस सिद्धान्त के अनुसार होता है जो उनके स्वयं के मस्तिष्क के विश्लेषण एवं अनुसंधान के द्वारा उत्पन्न हुआ है। यह पवित्र आत्मा के नए कार्य की अपेक्षाएं नहीं हैं, और यह परमेश्वर के साथ सहयोग तो बिलकुल भी नहीं है। ऐसे लोग जो परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार नहीं करते हैं वे परमेश्वर की उपस्थिति से वंचित रहते हैं, और, इसके अतिरिक्त, वे परमेश्वर की आशीषों एवं सुरक्षा से रहित होते हैं। उनके अधिकांश वचन एवं कार्य पवित्र आत्मा की पुरानी अपेक्षाओं को थामे रहते हैं; वे सिद्धान्त हैं, सत्य नहीं। ऐसे सिद्धान्त एवं रीति विधियां यह साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि वह एकमात्र चीज़ जो उन्हें एक साथ लेकर आती है वह धर्म है; वे चुने हुए लोग, या परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य नहीं हैं। उनके बीच के सभी लोगों की सभा को मात्र धर्म का महासम्मलेन कहा जा सकता है, और उन्हें कलीसिया नहीं कहा जा सकता है। ये एक अपरिवर्तनीय तथ्य है। उनके पास पवित्र आत्मा का नया कार्य नहीं है; जो कुछ वे करते हैं वह धर्म का सूचक प्रतीत होता है, जैसा जीवन वे जीते हैं वह धर्म से भरा हुआ प्रतीत होता है; उनमें पवित्र आत्मा की उपस्थिति एवं कार्य नहीं होते हैं, और वे पवित्र आत्मा के अनुशासन या प्रबुद्धता को प्राप्त करने के लायक तो बिलकुल भी नहीं हैं। ऐसे समस्त लोग निर्जीव लाशों एवं कीड़ों के समान हैं जो आध्यात्मिकता से रहित हैं। उनके पास मनुष्य के विद्रोहीपन एवं विरोध का कोई ज्ञान नहीं है, उनके पास मनुष्य के समस्त बुरे कार्यों का कोई ज्ञान नहीं है, और वे परमेश्वर के समस्त कार्य एवं परमेश्वर की वर्तमान इच्छा के विषय में बिलकुल भी नहीं जानते हैं। वे सभी अज्ञानी और नीच लोग हैं, वे कूडा करकट हैं जो विश्वासी कहलाने के योग्य नहीं हैं। वे ऐसा कुछ भी नहीं करते हैं जिसका परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के साथ कोई सम्बन्ध हो, और वे परमेश्वर के कार्य को तो बिलकुल भी बिगड़ नहीं सकते हैं। उनके वचन एवं कार्य इतने घृणास्पद, इतने दयनीय, और साधारण तौर पर जिक्र करने के लायक भी नहीं होते हैं। ऐसे लोग जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में नहीं हैं उनके द्वारा किए गए किसी भी कार्य का पवित्र आत्मा के नए कार्य के साथ कोई लेनादेना नहीं होता है। इस कारण, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे क्या करते हैं, क्योंकि वे पवित्र आत्मा के अनुशासन से रहित होते हैं, और, इसके अतिरिक्त, वे पवित्र आत्मा की अद्भुत प्रबुद्धता से रहित होते हैं। क्योंकि वे सभी ऐसे लोग हैं जिनमें सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं है, और पवित्र आत्मा के द्वारा उनसे घृणा और उनका तिरस्कार किया जाता है। उन्हें कुकर्मी कहा जाता हैं क्योंकि वे शरीर के अनुसार चलते हैं, और वे परमेश्वर की नाम पट्टी के अंतर्गत जो उन्हें अच्छा लगता है वही करते हैं। जब परमेश्वर कार्य करता है, तो वे जानबूझकर उसके विरोध में हो जाते हैं, और उसकी विपरीत दिशा में दौड़ते हैं। परमेश्वर के साथ सहयोग करने में मनुष्य की असफलता, साथ ही साथ ऐसे लोगों के द्वारा जानबूझकर परमेश्वर से दूर जाना अपने आपमें सबसे बड़ा विद्रोह है। तो क्या वे अपने उचित दण्ड को प्राप्त नहीं करेंगे? इन लोगों के बुरे कामों का जिक्र होने पर, कुछ लोग उन्हें श्राप देने से स्वयं को रोक नहीं सकते हैं, जबकि परमेश्वर उन्हें अनदेखा करता है। मनुष्य के लिए, ऐसा प्रतीत होता है कि उनके कार्य परमेश्वर के नाम से सम्बन्धित हैं, किन्तु वास्तव में, परमेश्वर के लिए, उसके नाम या उसके प्रति गवाही से उनका कोई रिश्ता नहीं है। जो कुछ भी ये लोग करते हैं उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि यह परमेश्वर से सम्बन्धित नहीं है; यह उसके नाम एवं उसके वर्तमान कार्य दोनों से सम्बन्धित नहीं है। ये लोग स्वयं को ही लज्जित करते हैं, और शैतान को प्रकट करते हैं; ये बुरा काम करने वाले हैं जो क्रोध के दिन के लिए संचय कर रहे हैं। आज, उनके कार्यों की परवाह किए बगैर, और इस शर्त के साथ कि वे परमेश्वर के प्रबंधन को बाधित न करें और उनका परमेश्वर के नए कार्य के साथ कोई लेना देना न हो, ऐसे लोगों को अनुकूल दण्ड के अधीन नहीं किया जाएगा, क्योंकि क्रोध का दिन अभी तक नहीं आया है। लोग विश्वास करते हैं कि ऐसा बहुत कुछ है जिससे परमेश्वर को पहले ही निपट लेना चाहिए था, और वे सोचते हैं कि उन कुकर्मियों को जितनी जल्दी संभव हो उतनी जल्दी दण्ड के अधीन किया जाना चाहिए। किन्तु क्योंकि परमेश्वर का प्रबंधन अभी तक समाप्ति पर नहीं पहुंचा है, और क्रोध के दिन का अभी तक आगमन नहीं हुआ है, इसलिए अधर्मी अभी भी अपने अधर्मी कार्यों को लगातार करते रहते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि जो धर्म में है वे पवित्र आत्मा की उपस्थिति या कार्य से रहित हैं, और यह कि वे परमेश्वर के नाम को लज्जित करते हैं; अतः परमेश्वर अभी भी उनकी अनाज्ञाकारिता को सहने के बजाय उनका नाश क्यों नहीं करता है? ऐसे लोग, जो शैतान के प्रकटीकरण हैं तथा जो शरीर को उजागर करते हैं, वे अज्ञानी एवं नीच लोग हैं और वे बेतुके लोग हैं। इससे पहले कि उन्हें यह समझ में आए कि परमेश्वर किस प्रकार मनुष्यों के मध्य अपना कार्य करता है वे परमेश्वर के क्रोध के आगमन को नहीं देखेंगे, और जब एक बार उन पर पूरी तरह से विजय पा लिया जाता है, तब वे सभी कुकर्मी अपना अपना दण्ड प्राप्त करेंगे, और उनमें से कोई भी क्रोध के दिन से बच निकलने के योग्य नहीं होगा। अभी मनुष्य के दण्ड का समय नहीं है, बल्कि विजय के कार्य को सम्पन्न करने का समय है, अन्यथा ऐसे लोग भी हैं जो परमेश्वर के प्रबंधन को हानि पहुंचाते हैं, उस स्थिति में उनके कार्यों के आधार पर उन्हें दण्ड के अधीन किया जाएगा। मानवजाति के विषय में परमेश्वर के प्रबंधन के दौरान, वे सभी जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा के अंतर्गत हैं वे परमेश्वर से सम्बन्ध रखते हैं। ऐसे लोग जिन्हें पवित्र आत्मा के द्वारा तिरस्कृत एवं अस्वीकार किया जाता है वे शैतान के प्रभाव के अधीन जीवन बिताते हैं, और जिसको वे अभ्यास में लाते हैं उसका परमेश्वर के साथ कोई रिश्ता नहीं होता है। ऐसे लोग जो परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार करते हैं, और जो परमेश्वर के साथ सहयोग करते हैं, केवल वे ही परमेश्वर से रिश्ता रखते हैं, क्योंकि इस बात की परवाह किए बगैर कि वे उसे स्वीकार करते हैं या नहीं परमेश्वर के कार्य का लक्ष्य केवल उनकी ओर ही होता है जो उसे स्वीकार करते हैं, और सभी लोगों की ओर नहीं होता है। वह कार्य जिसे परमेश्वर के द्वारा किया जाता है उसका सदैव एक लक्ष्य होता है, और उसे एक सनक के साथ नहीं किया जाता है। ऐसे लोग जो शैतान के साथ जुड़े हुए हैं वे परमेश्वर की गवाही देने के योग्य नहीं हैं, और वे परमेश्वर के साथ सहयोग करने के योग्य तो बिलकुल भी नहीं हैं।

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