परमेश्वर का कार्य एवं मनुष्य का अभ्यास (भाग एक)
मनुष्य के बीच परमेश्वर के कार्य को मनुष्य से अलग नहीं किया जा सकता है, क्योंकि मनुष्य इस कार्य का उद्देश्य है, और परमेश्वर के द्वारा रचा गया एकमात्र ऐसा प्राणी है जो परमेश्वर की गवाही दे सकता है। मनुष्य का जीवन एवं मनुष्य की सम्पूर्ण क्रियाएं परमेश्वर से अविभाज्य हैं, और उन सब को परमेश्वर के हाथों के द्वारा नियन्त्रित किया जाता है, और यह भी कहा जा सकता है कि कोई भी व्यक्ति परमेश्वर से स्वाधीन होकर अस्तित्व में नहीं रह सकता है। कोई भी इसका इंकार नहीं कर सकता है, क्योंकि यह एक तथ्य है। वह सब कुछ जो परमेश्वर करता है वह मानवजाति के लाभ के लिए है, और शैतान के षडयन्त्रों की ओर निर्देशित होता है। वह सब कुछ जिसकी मनुष्य को आवश्यकता होती है वह परमेश्वर की ओर से ही आता है, और परमेश्वर ही मनुष्य के जीवन का स्रोत है। इस प्रकार, मनुष्य परमेश्वर से अलग होने में असमर्थ है। इसके अतिरिक्त, परमेश्वर के पास मनुष्य से अलग होने का कभी कोई इरादा नहीं था। वह कार्य जो परमेश्वर करता है वह सम्पूर्ण मानवजाति के लिए है, और उसके विचार हमेशा उदार होते हैं। तो मनुष्य के लिए, परमेश्वर का कार्य एवं परमेश्वर के विचार (अर्थात्, परमेश्वर की इच्छा) दोनों ही ऐसे "दर्शन" हैं जिन्हें मनुष्य के द्वारा पहचाना जाना चाहिए। ऐसे दर्शन परमेश्वर के प्रबंधन भी हैं, और यह ऐसा कार्य है जिसे मनुष्य के द्वारा नहीं किया जा सकता है। इसी बीच, वे अपेक्षाएं जिन्हें परमेश्वर अपने कार्य के दौरान मनुष्य से करता है उन्हें मनुष्य के "रीति व्यवहार" कहा जाता है। दर्शन स्वयं परमेश्वर के कार्य हैं, या मानवजाति के लिए उसकी इच्छा है या उसके कार्य के उद्देश्य एवं महत्व हैं। दर्शनों को प्रबंधन का एक हिस्सा भी कहा जा सकता है, क्योंकि यह प्रबंधन परमेश्वर का कार्य है, और मनुष्य की ओर निर्देशित होता है, जिसका अभिप्राय है कि यह वह कार्य है जिसे परमेश्वर मनुष्य के मध्य करता है। यह कार्य वह प्रमाण एवं वह मार्ग है जिसके माध्यम से मनुष्य परमेश्वर को जान पाता है, और यह मनुष्य के लिए परम आवश्यक है। परमेश्वर के कार्य के ज्ञान पर ध्यान देने के बजाए, यदि लोग केवल परमेश्वर में विश्वास के सिद्धान्तों पर ही ध्यान देते हैं, या तुच्छ महत्वहीन ब्योरों पर ध्यान देते हैं, तो वे साधारण तौर पर परमेश्वर को नहीं जान पाएंगे, और इसके अतिरिक्त, वे परमेश्वर के हृदय के अनुसार नहीं होंगे। परमेश्वर के विषय में मनुष्य के ज्ञान के लिए परमेश्वर का कार्य अत्याधिक सहायक है, और इसे दर्शन कहते हैं। ये दर्शन परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर की इच्छा, और परमेश्वर के कार्य के लक्ष्य एवं महत्व हैं; वे सब मनुष्य के लाभ के लिए हैं। रीति व्यवहार उस ओर संकेत करता है जिसे मनुष्य के द्वारा किया जाना चाहिए, यह कि इसे उन प्राणियों द्वारा किया जाना चाहिए जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। यह मनुष्य का कर्तव्य भी है। जिसे मनुष्य को करना चाहिए वह कोई ऐसा कार्य नहीं है जिसे मनुष्य के द्वारा बिलकुल प्रारम्भ से ही समझा गया था, किन्तु ये वे अपेक्षाएं हैं जिन्हें परमेश्वर अपने कार्य के दौरान मनुष्य से करता है। जब परमेश्वर कार्य करता है तो ये अपेक्षाएं क्रमशः और गहरी तथा और उन्नत होती जाती हैं। उदाहरण के लिए, व्यवस्था के युग के दौरान, मनुष्य को व्यवस्था का पालन करना पड़ा, और अनुग्रह के युग के दौरान, मनुष्य को क्रूस उठाना पड़ा था। राज्य का युग भिन्न हैः मनुष्य से की गई अपेक्षाएं व्यवस्था के युग एवं अनुग्रह के युग के दौरान की गई अपेक्षाओं की तुलना में कहीं अधिक ऊँची हैं। जैसे जैसे दर्शन और अधिक उन्नत हो जाते हैं, मनुष्य से की गई अपेक्षाएं भी और अधिक उन्नत होती जाती हैं, तथा वे हमेशा के लिए स्पष्ट एवं और अधिक वास्तविक होती जाती हैं। इसी प्रकार, दर्शन भी वृहद रूप से वास्तविक हो जाते हैं। ये अनेक वास्तविक दर्शन न केवल परमेश्वर के प्रति मनुष्य की आज्ञाकारिता के लिए सहायक हैं, बल्कि इसके अतिरिक्त, परमेश्वर के विषय में उसके ज्ञान के लिए भी सहायक हैं।
पूर्वकालीन युगों की तुलना में, राज्य के युग के दौरान परमेश्वर का कार्य और अधिक व्यावहारिक है, मनुष्य के मूल-तत्व एवं उसके स्वभाव के प्रति और अधिक निर्देशित है, और उनके लिए स्वयं परमेश्वर की गवाही देने हेतु और अधिक योग्य है जो उसका अनुसरण करते हैं। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर राज्य के युग के दौरान कार्य करता है, तो वह अतीत के किसी भी समय की अपेक्षा मनुष्य पर स्वयं को और अधिक प्रगट करता है, जिसका अर्थ है कि वे दर्शन जिन्हें मनुष्य के द्वारा पहचाना जाना चाहिए वे किसी भी पूर्वकालीन युग की अपेक्षा कहीं अधिक ऊँचे हैं। क्योंकि मनुष्य के मध्य परमेश्वर का कार्य अभूतपूर्व क्षेत्र में प्रवेश कर चुका है, ऐसे दर्शन जिन्हें राज्य के युग के दौरान मनुष्य के द्वारा जाना गया है वे सम्पूर्ण प्रबंधकीय कार्य के मध्य सबसे ऊँचे हैं। परमेश्वर का कार्य अभूतपूर्व क्षेत्र में प्रवेश कर चुका है, और इस प्रकार ऐसे दर्शन जिन्हें मनुष्य के द्वारा जाना गया है वे सभी दर्शनों में सबसे ऊँचे हो गए हैं, और इसके परिणामस्वरूप मनुष्य का रीति व्यवहार किसी भी पूर्वकालीन युग की अपेक्षा सबसे अधिक ऊँचा हो गया है, क्योंकि मनुष्य का रीति व्यवहार दर्शनों के साथ कदम मिलाते हुए बदलता जाता है, और दर्शनों की पूर्णता मनुष्य से की गई अपेक्षाओं की पूर्णता को भी चिन्हित करती है। जैसे ही परमेश्वर की सम्पूर्ण प्रबंधकीय योजना थोड़ी देर के लिए ठहर जाती है, वैसे ही मनुष्य का रीति व्यवहार भी रुक जाता है, और परमेश्वर के कार्य के बिना, मनुष्य के पास पिछले समयों के सिद्धान्त का पालन करने के सिवाए कोई विकल्प नहीं होगा, या मनुष्य के पास वापस मुड़ने का कोई मार्ग नहीं होगा। नए दर्शनों के बिना, मनुष्य के द्वारा कोई नया अभ्यास नहीं किया जाएगा; सम्पूर्ण दर्शनों के बिना, मनुष्य के द्वारा कोई पूर्ण अभ्यास नहीं किया जाएगा; उच्चतर दर्शनों के बिना, मनुष्य के द्वारा कोई उच्चतर अभ्यास नहीं किया जाएगा। परमेश्वर के पदचिन्हों के साथ साथ मनुष्य का रीति व्यवहार बदलता जाता है, और, उसी प्रकार, परमेश्वर के कार्य के संगमनुष्य का ज्ञान वअनुभव भी बदलता जाता है। इसकी परवाह किए बगैर कि मनुष्य कितना समर्थ है, वह अब भी परमेश्वर से अविभाज्य है, और यदि परमेश्वर एक क्षण के लिए भी कार्य करना बंद कर दे, तो मनुष्य तुरन्त ही उसके क्रोध से मर जाएगा। मनुष्य के पास घमण्ड करने के लिए कुछ भी नहीं है, क्योंकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आज मनुष्य का ज्ञान कितना ऊँचा है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उसके अनुभव कितने गहरे हैं, क्योंकि वह परमेश्वर के कार्य से अविभाज्य है—क्योंकि मनुष्य का रीति व्यवहार, और जिसे उसे परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में खोजना चाहिए, वे उन दर्शनों से अविभाज्य हैं। परमेश्वर के कार्य के प्रत्येक उदाहरण में ऐसे दर्शन हैं जिन्हें मनुष्य के द्वारा पहचाना जाना चाहिए, ऐसे दर्शन जिनका अनुसरण मनुष्य के प्रति परमेश्वर की उचित अपेक्षाओं के द्वारा किया जाता है। बुनियाद के रूप में इन दर्शनों के बिना, मनुष्य साधारण तौर पर रीति व्यवहार में असमर्थ होगा, और न ही मनुष्य बिना लड़खड़ाए परमेश्वर का अनुसरण करने के योग्य होगा। यदि मनुष्य परमेश्वर को नहीं जानता या परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझता, तो वह सब कुछ जो मनुष्य करता है वह व्यर्थ है, और परमेश्वर के द्वारा ग्रहण किए जाने के योग्य नहीं है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य के वरदान कितने अधिक हैं, क्योंकि वह अभी भी परमेश्वर के कार्य तथा परमेश्वर के मार्गदर्शन से अविभाज्य है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य के कार्य कितने अच्छे या अनेक हैं, क्योंकि वे तब भी परमेश्वर के कार्य का स्थान नहीं ले सकते हैं। और इस प्रकार, किसी भी परिस्थिति के अंतर्गत मनुष्य का रीति व्यवहार दर्शनों से विभाज्य नहीं है। जो नए दर्शनों को स्वीकार नहीं करते हैं उनके पास कोई नया रीति व्यवहार नहीं होता है। उनके रीति व्यवहार का सत्य के साथ कोई रिश्ता नहीं है क्योंकि वे सिद्धान्त में बने रहते हैं और मृत व्यवस्था का पालन करते हैं; उनके पास बिलकुल भी नए दर्शन नहीं हैं, और परिणामस्वरूप, वे नए युग में अभ्यास में लाने के लिए कुछ नहीं करते हैं। उन्होंने दर्शनों को खो दिया है, और ऐसा करने से उन्होंने पवित्र आत्मा के कार्य को भी गंवा दिया है, और सत्य को खो दिया है। ऐसे लोग जो सत्य से विहीन हैं वे झूठ की संतान हैं, वे शैतान के मूर्त रूप हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कोई किस प्रकार का व्यक्ति है, वे परमेश्वर के कार्य के दर्शनों से रहित नहीं हो सकते हैं, और पवित्र आत्मा की उपस्थिति से वंचित नहीं हो सकते हैं; जैसे ही कोई व्यक्ति दर्शनों को खो देता है, वे तुरन्त ही अधोलोक में उतर जाते हैं और अंधकार के बीच निवास करते हैं। दर्शनों से विहीन लोग ऐसे लोग हैं जो मूर्खता से परमेश्वर के पीछे पीछे चलते हैं, वे ऐसे लोग हैं जो पवित्र आत्मा के कार्य से रहित हैं, और नरक में निवास कर रहे हैं। ऐसे लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, और परमेश्वर के नाम को एक नामपट्टी के रूप में लटकाए रहते हैं। ऐसे लोग जो पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं जानते हैं, जो देहधारी परमेश्वर को नहीं जानते हैं, जो परमेश्वर के प्रबंधन की सम्पूर्णता में कार्य के तीन चरणों को नहीं जानते हैं—वे दर्शनों को नहीं जानते हैं, और इस प्रकार वे सत्य से रहित हैं। और ऐसे लोग जो सत्य को धारण नहीं करते हैं क्या वे सभी बुरे काम करनेवाले नहीं हैं? ऐसे लोग जो सत्य को अभ्यास में लाने के इच्छुक हैं, जो परमेश्वर के ज्ञान को खोजने के इच्छुक हैं, व सच में परमेश्वर के साथ सहयोग करते हैं वे ही ऐसे लोग हैं जिनके लिए ये दर्शन नींव के रूप में कार्य करते हैं। उन्हें परमेश्वर के द्वारा स्वीकृत किया जाता है क्योंकि वे परमेश्वर के साथ सहयोग करते हैं, और यही वह सहयोग है जिसे मनुष्य द्वारा अभ्यास में लाया जाना चाहिए।
दर्शनों में अभ्यास के लिए अनेक मार्ग होते हैं। मनुष्य से की गई व्यावहारिक मांगें भी इन दर्शनों के भीतर होती हैं, चूँकि यह परमेश्वर का कार्य है जिसे मनुष्य के द्वारा पहचाना जाना चाहिए। अतीत में, विशेष सभाओं या बड़ी सभाओं के दौरान जिन्हें विभिन्न स्थानों में आयोजित किया जाता था, रीति व्यवहार के मार्ग के केवल एक पहलु के विषय में ही बोला जाता था। इस प्रकार के रीति व्यवहार ऐसे थे कि उन्हें अनुग्रह के युग के दौरान अभ्यास में लाया जाना था, वे बमुश्किल ही परमेश्वर के ज्ञान से कोई सम्बन्ध रखते थे, क्योंकि अनुग्रह के युग का दर्शन मात्र यीशु के क्रूसारोहण का दर्शन था, और वहाँ कोई अति महान दर्शन नहीं थे। मनुष्य से अपेक्षा की गई थी कि वह क्रूसारोहण के माध्यम से मानवजाति के लिए परमेश्वर के छुटकारे के कार्य से अधिक और कुछ भी न जाने, और इस प्रकार अनुग्रह के युग के दौरान मनुष्य के जानने के लिए अन्य दर्शन नहीं थे। इस रीति से, मनुष्य के पास परमेश्वर का सिर्फ थोड़ा सा ही ज्ञान था, और यीशु के प्रेम एवं करूणा के ज्ञान के अलावा, मनुष्य के लिए अभ्यास में लाने हेतु केवल कुछ साधारण एवं दयनीय चीजें थीं, ऐसी चीज़ें जो आज की अपेक्षा बिलकुल अलग हैं। अतीत में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उसकी सभा का रूप कैसा था, मनुष्य परमेश्वर के कार्य के व्यावहारिक ज्ञान के विषय में बात करने में असमर्थ था, और कोई भी स्पष्ट रूप से यह कहने के योग्य तो बिलकुल भी नहीं था कि मनुष्य के लिए प्रवेश करने हेतु रीति व्यवहार का सबसे उचित मार्ग कौन सा था। उसने सहिष्णुता एवं धीरज की एक नींव में मात्र कुछ साधारण विवरणों को जोड़ दिया था; उसके रीति व्यवहार के मूल-तत्व में साधारण तौर पर कोई परिवर्तन नहीं हुआ था, क्योंकि उसी युग के अंतर्गत परमेश्वर ने कोई और नया कार्य नहीं किया था, और जो अपेक्षाएं उसने मनुष्य की थीं वे मात्र सहिष्णुता एवं धीरज थे, या क्रूस उठाना था। ऐसे रीति व्यवहारों के अलावा, यीशु के क्रूसारोहण की तुलना में कोई ऊँचे दर्शन नहीं थे। अतीत में, अन्य दर्शनों का कोई उल्लेख नहीं था क्योंकि परमेश्वर ने अत्याधिक कार्य नहीं किया था, और क्योंकि उसने मनुष्य से केवल सीमित मांगें ही की थीं। इस रीति से, जो कुछ मनुष्य ने किया था उसके बावजूद, वह इन सीमाओं का उल्लंघन करने में असमर्थ था, ऐसी सीमाएं जो मनुष्य के लिए अभ्यास में लाने हेतु मात्र कुछ साधारण एवं छिछली चीज़ें थीं। आज मैं अन्य दर्शनों के विषय में बात करता हूँ क्योंकि आज, अधिक कार्य किया गया है, ऐसा कार्य जो व्यवस्था के युग एवं अनुग्रह के युग से कई गुना अधिक है। मनुष्य से की गई अपेक्षाएं भी पिछले युगों की तुलना में कई गुना अधिक ऊँची हैं। यदि मनुष्य ऐसे कार्य को पूर्ण रूप से जानने में असमर्थ है, तो यह कोई बड़ा महत्व नहीं रखेगा; यह कहा जा सकता है कि यदि मनुष्य इसके प्रति अपने सम्पूर्ण जीवनकाल की कोशिशों का समर्पण न करे तो उसे ऐसे कार्य को पूरी तरह से समझने में कठिनाई होगी। विजय के कार्य में, केवल रीति व्यवहार के मार्ग के विषय में ही बात करना मनुष्य के विजय को असंभव बना देगा। मनुष्य से कोई अपेक्षा किए बिना मात्र दर्शनों के विषय में बात करना भी मनुष्य के विजय को असंभव कर देगा। यदि रीति व्यवहार के मार्ग के अलावा और कुछ नहीं बोला जाता, तो मनुष्य की दुखती रग पर चोट करना, या मनुष्य की अवधारणाओं को दूर करना असंभव होता, और इस प्रकार मनुष्य पर पूर्ण रूप से विजय पाना भी असंभव होता। दर्शन मनुष्य के विजय के प्रमुख यन्त्र हैं, फिर भी यदि दर्शनों के अलावा अन्य कोई मार्ग नहीं होता, तो मनुष्य के पास अनुसरण करने के लिए कोई मार्ग नहीं होता, और उसके पास प्रवेश का कोई माध्यम तो बिलकुल भी नहीं होता। आरम्भ से लेकर अंत तक यह परमेश्वर के कार्य का सिद्धान्त रहा है: दर्शनों में वह बात है जिसे अभ्यास में लाया जा सकता है, इस प्रकार ऐसे दर्शन भी हैं जो ऐसे रीति व्यवहार से अलग हैं। मनुष्य के जीवन और उसके स्वभाव दोनों में हुए परिवर्तनों की मात्रा दर्शनों में हुए परिवर्तनों के साथ साथ होती है। यदि मनुष्य केवल अपने स्वयं के प्रयासों पर ही भरोसा करता, तो उसके लिए बड़ी मात्रा में परिवर्तन हासिल करना असंभव होता। दर्शन स्वयं परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के प्रबंधन के विषय में बोलते हैं। रीति व्यवहार मनुष्य के रीति व्यवहार के पथ की ओर, और मनुष्य के अस्तित्व की ओर संकेत करता है; परमेश्वर के सम्पूर्ण प्रबंधन में, दर्शनों एवं रीति व्यवहार के बीच सम्बन्ध ही परमेश्वर एवं मनुष्य के बीच का सम्बन्ध है। यदि दर्शनों को हटा दिया जाता, या यदि रीति व्यवहार के विषय में बातचीत किए बिना ही उन्हें बोला जाता, या यदि वहाँ केवल दर्शन ही होते और मनुष्य के रीति व्यवहार का उन्मूलन कर दिया जाता, तो ऐसी चीज़ों को परमेश्वर का प्रबंधन नहीं माना जा सकता था, और ऐसा तो बिलकुल भी नहीं कहा जा सकता था कि परमेश्वर का कार्य मानवजाति के लिए है; इस रीति से, न केवल मनुष्य के कर्तव्य को हटा दिया जाता, बल्कि यह परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य का खण्डन भी होता। यदि, आरम्भ से लेकर अंत तक, परमेश्वर के कार्य को सम्मिलित लिए बिना ही मनुष्य से मात्र अभ्यास करने की अपेक्षा की जाती, और, इसके अतिरिक्त, यदि मनुष्य से यह अपेक्षा न की जाती कि वह परमेश्वर के कार्य को जाने, तो ऐसे कार्य को परमेश्वर का प्रबंधन बिलकुल भी नहीं कहा जा सकता था। यदि मनुष्य परमेश्वर को नहीं जानता, और परमेश्वर की इच्छा से अनजान होता, और अस्पष्ट एवं वैचारिक रीति से आँख बंद करके अपने रीति व्यवहार को सम्पन्न करता, तो वह कभी भी पूरी तरह से योग्य प्राणी नहीं हो पाता। और इस प्रकार ये दोनों चीज़ें अनिवार्य हैं। यदि केवल परमेश्वर का कार्य ही होता, कहने का तात्पर्य है, यदि केवल दर्शन ही होते और यदि मनुष्य के द्वारा कोई सहयोग या रीति व्यवहार नहीं होता, तो ऐसी चीज़ों को परमेश्वर का प्रबंधन नहीं कहा जा सकता था। यदि केवल मनुष्य का रीति व्यवहार एवं प्रवेश ही होता, तो इसके बावजूद कि वह पथ कितना ऊँचा है जिसमें मनुष्य ने प्रवेश किया, यह भी ग्रहणयोग्य न होता। मनुष्य के प्रवेश को कार्य एवं दर्शनों के साथ कदम मिलाते हुए धीरे धीरे परिवर्तित होना होगा; यह सनक से बदल नहीं सकता है। मनुष्य के रीति व्यवहार के सिद्धान्त स्वतंत्र एवं असंयमित नहीं होते है, किन्तु निश्चित सीमाओं के अंतर्गत होते हैं। ऐसे सिद्धान्त कार्य के दर्शनों के साथ कदम मिलाते हुए परिवर्तित होते हैं। अतः परमेश्वर का प्रबंधन आख़िरकार परमेश्वर के कार्य एवं मनुष्य के रीति व्यवहार पर आकर टिक जाता है।
प्रबंधकीय कार्य केवल मानवजाति के कारण ही घटित हुआ था, जिसका अर्थ है कि इसे केवल मानवजाति के अस्तित्व के द्वारा ही उत्पन्न किया गया था। मानवजाति से पहले, या शुरुआत में कोई प्रबंधन नहीं था, जब स्वर्गएवं पृथ्वी और समस्त वस्तुओं को सृजा गया था। यदि, परमेश्वर के सम्पूर्ण कार्य में, कोई रीति व्यवहार नहीं होता जो मनुष्य के लिए लाभकारी है, कहने का तात्पर्य है, यदि परमेश्वर भ्रष्ट मानवजाति से उपयुक्त अपेक्षाएं नहीं करता (यदि, परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य में, मनुष्य के अभ्यास हेतु कोई उचित मार्ग नहीं होता), तो इस कार्य को परमेश्वर का प्रबंधन नहीं कहा जा सकता था। यदि परमेश्वर के कार्य की सम्पूर्णता में केवल भ्रष्ट मानवजाति को यह बताना शामिल होता कि किस प्रकार अपने अभ्यास के कठिन कार्य का आरम्भ करें, और परमेश्वर अपने किसी भी उद्यम को क्रियान्वित नहीं करता, और अपनी सर्वसामर्थता या बुद्धि का लेशमात्र भी प्रदर्शन न करता, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मनुष्य से की गई परमेश्वर की अपेक्षाएं कितनी ऊँची होतीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर कितने लम्बे समय तक मनुष्य के मध्य रहता, क्योंकि मनुष्य परमेश्वर के स्वभाव के विषय में कुछ भी पहचान नहीं पाता; यदि स्थिति ऐसी होती, तब इस प्रकार का कार्य परमेश्वर का प्रबंधन कहलाने के योग्य तो बिलकुल भी नहीं होता। साधारण रूप से कहें, तो परमेश्वर के प्रबंधन का कार्य ही वह कार्य है जिसे परमेश्वर के द्वारा किया गया है, और सम्पूर्ण कार्य को परमेश्वर के मार्गदर्शन के अंतर्गत उन लोगों के द्वारा सम्पन्न किया गया जिन्हें परमेश्वर के द्वारा अर्जित किया गया है। ऐसे कार्य को संक्षेप में प्रबंधन कहा जा सकता है, और यह मनुष्य के मध्य परमेश्वर के कार्य, साथ ही साथ परमेश्वर के साथ उन सभी लोगों के सहयोग की ओर संकेत करता है जो उसका अनुसरण करते हैं; इन सभों को सामूहिक रूप से प्रबंधन कहा जा सकता है। यहाँ, परमेश्वर के कार्य को दर्शन कहा जाता है, और मनुष्य के सहयोग को रीति व्यवहार कहा जाता है। परमेश्वर का कार्य जितना अधिक ऊँचा होता है (अर्थात्, दर्शन जितने अधिक ऊँचे होते हैं), परमेश्वर के स्वभाव को मनुष्य के लिए उतना ही अधिक सरल बनाया जाता है, और उतना ही अधिक वह मनुष्य की धारणाओं से भिन्न होता है, और उतना ही ऊँचा मनुष्य का रीति व्यवहार एवं सहयोग होता है। मनुष्य से की गई अपेक्षाएं जितनी ऊँची होती हैं, उतना ही अधिक परमेश्वर का कार्य मनुष्य की धारणाओं से भिन्न होता है, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य की परीक्षाएं, और ऐसे स्तर जिस तक पहुंचने की उससे अपेक्षा की जाती है, वे भी अधिक ऊँचे हो जाते हैं। इस कार्य के निष्कर्ष पर, समस्त दर्शनों को पूरा कर लिया जाएगा, और जिन्हें अभ्यास में लाने के लिए मनुष्य से अपेक्षा की जाती है वे पूर्णता की पराकाष्ठा पर पहुँच जाएंगे। यह ऐसा समय भी होगा जब प्रत्येक को उसके किस्म के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा, क्योंकि जिस बात को जानने के लिए मनुष्य से अपेक्षा की जाती है उन्हें मनुष्य को दिखाया जा चुका होगा। अतः, जब दर्शन सफलता के अपने चरम बिंदु पर पहुँच जाएंगे, तब कार्य तदनुसार अपने अंत को पहुंच जाएगा, और मनुष्य का रीति व्यवहार भी अपने शिरोबिन्दु पर पहुंच जाएगा। मनुष्य का रीति व्यवहार परमेश्वर के कार्य पर आधारित है, और परमेश्वर का प्रबंधन मनुष्य के रीति व्यवहार एवं सहयोग के कारण पूरी तरह से उजागर हो गए हैं। मनुष्य परमेश्वर के कार्य का प्रदर्शन वस्तु है, और परमेश्वर के सम्पूर्ण प्रबंधन के कार्य का उद्देश्य है, और साथ ही परमेश्वर के सम्पूर्ण प्रबंधन का परिणाम भी है। यदि परमेश्वर ने मनुष्य के सहयोग के बिना अकेले ही कार्य किया होता, तो वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं होता जो उसके सम्पूर्ण कार्य को साकार करने के रूप में कार्य करता, और इस रीति से परमेश्वर के प्रबंधन का जरा सा भी महत्व नहीं रहता। केवल ऐसे उपयुक्त पदार्थ को चुनने के द्वारा जो परमेश्वर के कार्य से बाहर है, और जो इस कार्य को अभिव्यक्त कर सकता है, और उसकी सर्वसामर्थता एवं बुद्धि को प्रमाणित कर सकता है, परमेश्वर के प्रबंधन के उद्देश्य को हासिल करना संभव है, और शैतान को पूरी तरह से हराने के लिए इस सम्पूर्ण कार्य का उपयोग करने के उद्देश्य को हासिल करना संभव है। और इस प्रकार, मनुष्य परमेश्वर के प्रबंधन के कार्य का एक अत्यंत आवश्यक भाग है, और मनुष्य ही वह एकमात्र प्राणी है जो परमेश्वर के प्रबंधन को फलवंत कर सकता है और इसके चरम उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है; मनुष्य के अतिरिक्त, अन्य कोई जीवित प्राणी ऐसी भूमिका को अदा नहीं कर सकता है। यदि मनुष्य को प्रबंधकीय कार्य का असली साकार रूप बनना है, तो भ्रष्ट मानवजाति की अनाज्ञाकारिता को पूरी तरह से दूर करना होगा। इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य को विभिन्न समयों के लिए उपयुक्त रीति व्यवहार दिया जाए, और यह कि परमेश्वर मनुष्य के मध्य अनुकूल कार्य करे। केवल इसी रीति से ऐसे लोगों के समूह को हासिल किया जा सकता है जो प्रबंधकीय कार्य का साकार रूप हैं। परमेश्वर का कार्य मनुष्य के बीच में सिर्फ परमेश्वर के कार्य के माध्यम से ही स्वयं परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकता है; ऐसी गवाही को जीवित मानव प्राणियों की भी आवश्यकता होती है जो उसके कार्य के लिए उपयुक्त होते हैं जिससे उसे हासिल किया जा सके। परमेश्वर पहले इन लोगों पर कार्य करेगा, तब उनके माध्यम से उसके कार्य को अभिव्यक्त किया जाएगा, और इस प्रकार उसकी इच्छा की ऐसी गवाही को जीवधारियों के मध्य दिया जाएगा। और इसमें, परमेश्वर अपने कार्य के लक्ष्य को हासिल कर लेगा। परमेश्वर शैतान को पराजित करने के लिए अकेले कार्य नहीं करता है क्योंकि वह समस्त प्राणियों के मध्य सीधे तौर पर स्वयं के लिए गवाही नहीं दे सकता है। यदि उसे ऐसा करना होता, तो मनुष्य को पूर्ण रूप से आश्वस्त करना असंभव होता, अतः परमेश्वर को मनुष्य को जीतने के लिये उसमें कार्य करना होगा, और केवल तभी वह समस्त प्राणियों के मध्य गवाही देने के योग्य होगा। यदि परमेश्वर को अकेले ही कार्य करना होता, और मनुष्य का कोई सहयोग नहीं मिलता, या यदि मनुष्य से सहयोग की कोई आवश्यकता नहीं होती, तो मनुष्य कभी भी परमेश्वर के स्वभाव को जानने के योग्य नहीं होता, और वह सदा के लिए परमेश्वर की इच्छा से अनजान रहता; इस रीति से, इसे परमेश्वर का प्रबंधन का कार्य नहीं कहा जा सकता था। यदि मनुष्य को केवल स्वयं ही संघर्ष, एवं खोज, एवं कठिन परिश्रम करना पड़ता, परन्तु यदि वह परमेश्वर के कार्य को नहीं समझता, उस दशा में मनुष्य उछल कूद कर रहा होता। पवित्र आत्मा के कार्य के बिना, जो कुछ भी मनुष्य करता है वह शैतान की ओर से होता है, वह विद्रोह करनेवाला और एक कुकर्मी है; वह सब जो भ्रष्ट मानवजाति के द्वारा किया जाता है उनमें शैतान प्रदर्शित होता है, और उनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के अनुरूप है, और सब कुछ शैतान का प्रकटीकरण है। जो कुछ भी कहा गया है उनमें से कुछ भी दर्शनों एवं रीति व्यवहार से अलग नहीं है। दर्शनों की बुनियाद पर, मनुष्य रीति व्यवहार को ढूँढ लेता है, वह आज्ञाकारिता के पथ को ढूँढ लेता है, ताकि वह अपनी अवधारणाओं को दर किनार कर सके और उन चीज़ों को अर्जित कर सके जिसे उसने अतीत में धारण नहीं किया था। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि मनुष्य उसके साथ सहयोग करे, यह कि मनुष्य उसकी अपेक्षाओं के अधीन हो जाए, और मनुष्य परमेश्वर की सर्वसामर्थी सामर्थ का अनुभव करने के लिए, और परमेश्वर के स्वभाव को जानने के लिए स्वयं परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य को देखने की मांग करता है। संक्षेप में, ये ही परमेश्वर के प्रबंधन है। मनुष्य के साथ परमेश्वर की एकता ही प्रबंधन है, और महानतम प्रबंधन है।
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