सफलता या असफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है (भाग दो)

पतरस को व्यवहार एवं शुद्धीकरण के माध्यम से सिद्ध किया गया था। उसने कहा था, "मुझे हर समय परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करना होगा। वह सब जो मैं करता हूँ उसमें मैं केवल परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने का प्रयास करता हूँ, और चाहे मुझे ताड़ना मिले, या मेरा न्याय किया जाए, मैं अभी भी ऐसा करके प्रसन्न हूँ।" पतरस ने अपना सब कुछ परमेश्वर को दे दिया, एवं अपना काम, अपने वचन, और सम्पूर्ण जीवन परमेश्वर के प्रेम के खातिर दे दिया। वह ऐसा व्यक्ति था जो पवित्रता की खोज करता था, और जितना अधिक उसने अनुभव किया, उसके हृदय की गहराई के भीतर परमेश्वर के लिए उसका प्रेम उतना ही महान था। इसी बीच पौलुस ने सिर्फ बाहरी कार्य किया था, और यद्यपि उसने कड़ी मेहनत भी की थी, फिर भी उसका परिश्रम उसके कार्य को उचित रीति से करने के लिए और इस प्रकार एक प्रतिफल पाने के लिए था। अगर वह जानता कि उसे कोई प्रतिफल नहीं मिलेगा, तो उसने अपने काम को छोड़ दिया होता। जिस चीज़ की पतरस परवाह करता था वह उसके हृदय के भीतर का सच्चा प्रेम था, और उस चीज़ की परवाह करता था जो व्यावहारिक था और जिसे हासिल किया जा सकता था। उसने इस बात की परवाह नहीं की कि उसे प्रतिफल मिलेगा या नहीं, किन्तु इस बात के विषय में परवाह की कि उसके स्वभाव को बदला जा सकता है या नहीं। पौलुस ने हमेशा और कड़ी मेहनत करने के विषय में परवाह की थी, उसने बाहरी कार्य एवं समर्पण, और उन सिद्धान्तों के विषय में परवाह की थी जिन्हें साधारण लोगों के द्वारा अनुभव नहीं जा सकता था। वह अपने भीतर बदलावों और परमेश्वर के सच्चे प्रेम की परवाह नहीं करता था। पतरस के अनुभव सच्चे प्रेम एवं सच्चे ज्ञान को हासिल करने के लिए थे। उसके अनुभव परमेश्वर से एक करीबी सम्बन्ध को पाने के लिए थे, और एक व्यावहारिक जीवन को जीने के लिए था। पौलुस का कार्य यीशु के द्वारा सौंपे गए उस कार्य के कारण था, और उन चीज़ों को प्राप्त करने के लिए था जिनकी वह लालसा करता था, फिर भी ये चीज़ें स्वयं एवं परमेश्वर के विषय में उसके ज्ञान से सम्बन्धित नहीं थीं। उसका कार्य मात्र ताड़ना एवं न्याय से बचने के लिए था। जिस चीज़ की पतरस ने खोज की थी वह शुद्ध प्रेम था, और जिस चीज़ की पौलुस ने खोज की थी वह धार्मिकता का मुकुट था। पतरस ने पवित्र आत्मा के कार्य के कई वर्षों का अनुभव किया था, और उसके पास मसीह का एक व्यावहारिक ज्ञान, साथ ही साथ स्वयं का गंभीर ज्ञान था। और इस प्रकार, परमेश्वर के प्रति उसका प्रेम शुद्ध था। कई वर्षों के शुद्धीकरण ने यीशु एवं जीवन के विषय में उसके ज्ञान को उन्नत किया था, और उसका प्रेम शर्तरहित प्रेम था, और यह स्वतः ही उमड़ने वाला प्रेम था, और उसने बदले में कुछ नहीं मांगा था, न ही उसने किसी लाभ की आशा की थी। पौलुस ने कई वर्षों तक काम किया था, फिर भी उसने मसीह के महान ज्ञान को धारण नहीं किया था, और स्वयं के विषय में उसका ज्ञान भी दयनीय रूप से थोड़ा सा था। उसके पास मसीह के लिए कोई प्रेम ही नहीं था, और उसका कार्य और वह पथक्रम जिस पर वह दौड़ता था वह अंतिम कीर्ति पाने के लिए था। जिस चीज़ की उसने खोज की थी वह अति उत्तम मुकुट था, विशुद्ध प्रेम नहीं। उसने सक्रिय रूप से खोज नहीं की थी, परन्तु निष्क्रिय रूप से ऐसा किया था; वह अपने कर्तव्य को नहीं निभा रहा था, परन्तु पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा कब्ज़ा किए जाने के पश्चात् उसे अपने अनुसरण में बाध्य किया गया था। और इस प्रकार, उसका अनुसरण यह साबित नहीं करता है कि वह परमेश्वर का एक योग्य प्राणी था; वह पतरस था जो परमेश्वर का एक योग्य प्राणी था जिसने अपने कर्तव्य को निभाया था। मनुष्य सोचता है कि वे सभी जो परमेश्वर के प्रति कोई योगदान देते हैं उन्हें प्रतिफल प्राप्त करना चाहिए, और यह कि योगदान जितना अधिक होगा, उतना ही अधिक यह मान लिया जाता है कि उन्हें परमेश्वर का अनुग्रह प्राप्त होना चाहिए। मनुष्य के दृष्टिकोण का सारलेनदेन संबंधी है, और वह परमेश्वर के एक प्राणी के रूप में सक्रियता से अपने दायित्व के निर्वहन का प्रयास नहीं करता है। परमेश्वर के लिए, जितना अधिक लोग परमेश्वर के प्रेम और परमेश्वर के प्रति सम्पूर्ण आज्ञाकारिता की खोज करते हैं, जिसका अर्थ यह भी है कि परमेश्वर के एक प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाना, उतना ही अधिक वे परमेश्वर की स्वीकृति को पाने के योग्य होते हैं। परमेश्वर का दृष्टिकोण यह मांग करता है कि मनुष्य अपने मूल कर्तव्य एवं हैसियत को पुनः प्राप्त करे। मनुष्य परमेश्वर का एक प्राणी है, और इस प्रकार परमेश्वर से कोई मांग करने के द्वारा मनुष्य को स्वयं का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए, और परमेश्वर के एक प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाने से अधिक और कुछ नहीं करना चाहिए। पतरस एवं पौलुस परमेश्वर के प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य को निभा सकते हैं या नहीं इसके अनुसार उनकी नियति को मापा गया था, और उनके योगदान के आकार के अनुसार नहीं; जो कुछ उन्होंने शुरुआत से खोजा था उसके अनुसार उनकी नियति को निर्धारित किया गया था, इसके अनुसार नहीं कि उन्होंने कितना अधिक कार्य किया था, या उनके विषय में अन्य लोगों के आंकलन के अनुसार नहीं। और इस प्रकार, परमेश्वर के एक प्राणी के रुप में अपने कर्तव्य को सक्रिय रूप से निभाना ही सफलता का पथ है; परमेश्वर के सच्चे प्रेम के पथ को खोजना ही सबसे सही पथ है; अपने पुराने स्वभाव में बदलावों, और परमेश्वर के शुद्ध प्रेम की खोज करना ही सफलता का पथ है। सफलता के लिए ऐसा पथ ही मूल कर्तव्य की पुनः प्राप्ति का पथ है साथ ही साथ परमेश्वर के किसी प्राणी का मूल रूप भी है। यह पुनः प्राप्ति का पथ है, और साथ ही यह शुरूआत से लेकर समाप्ति तक परमेश्वर के समस्त कार्य का लक्ष्य भी है। यदि मनुष्य का अनुसरण (खोज) व्यक्गित फिज़ूल मांगों एवं तर्कहीन लालसाओं से कलंकित हो जाता है, तो वह प्रभाव जिसे हासिल किया जाता है वह मनुष्य के स्वभाव में हुए परिवर्तन नहीं होंगे। यह पुनः प्राप्ति के कार्य से विपरीत है। यह निःसन्देह पवित्र आत्मा के द्वारा किया गया कार्य नहीं है, और इस प्रकार यह साबित करता है कि इस प्रकार के अनुसरण को परमेश्वर के द्वारा स्वीकृति नहीं दी जाती है। ऐसे अनुसरण का क्या महत्व है जिसे परमेश्वर के द्वारा स्वीकृति नहीं दी जाती है?

पौलुस के द्वारा किए गए कार्य को मनुष्य के सामने प्रदर्शित किया गया था, किन्तु परमेश्वर के लिए उसका प्रेम कितना शुद्ध था, उसके हृदय की गहराई में परमेश्वर के लिए उसका प्रेम कितना अधिक था—इन्हें मनुष्य के द्वारा देखा नहीं जा सकता है। मनुष्य केवल उस कार्य को देख सकता है जिसे उसने किया था, जिससे मनुष्य जान जाता है उसे निश्चित रूप से पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किया गया था, और इस प्रकार मनुष्य सोचता है कि पौलुस पतरस की अपेक्षा बेहतर था, यह कि उसका कार्य अधिक बड़ा था, क्योंकि वह कलीसियाओं की आपूर्ति करने में सक्षम था। पतरस ने केवल अपने व्यक्तिगत अनुभवों को ही देखा था, और अपने कभी कभार के कार्य के दौरान सिर्फ थोड़े से ही लोगों को अर्जित किया था। उसकी ओर से सिर्फ थोड़ी सी ही जानी मानी पत्रियां हैं, किन्तु कौन जानता है कि उसके हृदय की गहराई में परमेश्वर के लिए उसका प्रेम कितना गहरा था? पौलुस प्रति दिन परमेश्वर के लिए काम करता था: जब तक करने के लिए काम था, उसने उसे किया, उसने सोचा कि इस रीति से वह उस मुकुट को पाने में सक्षम होगा, और परमेश्वर को संतुष्ट कर सकता था, फिर भी उसने अपने कार्य के माध्यम से स्वयं को बदलने के तरीकों की खोज नहीं की थी। पतरस के जीवन की कोई भी चीज़ जिसने परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट नहीं किया था उसने उसे बेचैन कर दिया था। यदि उसने परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट नहीं किया होता, तो उसे ग्लानी महसूस होती, और वह उपयुक्त तरीके की खोज करता जिसके द्वारा वह परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करने के लिए कठिन परिश्रम कर सकता था। यहाँ तक कि उसके जीवन की छोटी से छोटी और अत्यंत महत्वहीन पहलुओं में भी, वह अब भी परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने के लिए स्वयं से अपेक्षा करता था। जब उसके पुराने स्वभाव की बात आई तो वह कुछ कम की मांग नहीं कर रहा था, वह सत्य की गहराई में आगे बढ़ने के लिए स्वयं के विषय में अपनी अपेक्षाओं में हमेशा की तरह कठोर था। पौलुस केवल ऊपरी प्रतिष्ठा एवं रुतबे की खोज करता था। वह मनुष्य के सामने स्वयं का दिखावा करने की कोशिश करता था, और उसने जीवन में प्रवेश के लिए कोई गहन प्रगति की कोशिश नहीं की थी। जिसकी वह परवाह करता था वह सिद्धान्त था, वास्तविकता नहीं। कुछ लोग कहते हैं, पौलुस ने परमेश्वर के लिए कितना अधिक कार्य किया था, तो परमेश्वर के द्वारा उसका स्मरणोत्सव क्यों नहीं मनाया गया था? पतरस ने परमेश्वर के लिए सिर्फ थोड़ा सा ही काम किया था, और कलीसिया के लिए कोई बड़ा योगदान नहीं दिया था, अतः उसे क्यों सिद्ध बनाया गया था? पतरस एक निश्चित बिन्दु तक परमेश्वर से प्रेम करता था, जिसकी अपेक्षा परमेश्वर के द्वारा की गई थी; केवल ऐसे लोगों के पास ही गवाही होती है। और पौलुस के विषय में क्या? पौलुस किस हद तक परमेश्वर से प्रेम करता था, क्या तू जानता है? पौलुस का काम किसके लिए था? और पतरस का काम किसके लिए था? पतरस ने अधिक कार्य नहीं किया था, लेकिन क्या तू जानता है कि उसके हृदय की गहराई में क्या था? पौलुस का कार्य कलीसियाओं के प्रयोजन, एवं कलीसियाओं की सहायता से सम्बन्धित था। जो कुछ पतरस ने अनुभव किया था वे उसके जीवन स्वभाव में हुए परिवर्तन थे; उसने परमेश्वर के प्रेम का अनुभव किया था। अब जबकि तू उनके सार के अन्तर को जानता है, तो तू देख सकता है कि कौन, अन्ततः, सचमुच में परमेश्वर पर विश्वास करता था, और कौन वाकई में परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता था। उनमें से एक सचमुच में परमेश्वर से प्रेम करता था, और दूसरा वाकई में परमेश्वर से प्रेम नहीं करता था; एक अपने स्वभाव में परिवर्तनों से होकर गुज़रा था, और दूसरा नहीं; एक की लोगों के द्वारा अत्यंत प्रशंसा की गई थी, और वह बड़े शख्सियत का था, और दूसरे ने विनम्रतापूर्वक सेवा की थी, और उस पर लोगों के द्वारा आसानी से ध्यान नहीं दिया गया था; एक ने पवित्रता की खोज की थी, और दूसरे ने नहीं, और हालाँकि वह अशुद्ध नहीं था, फिर भी वह शुद्ध प्रेम को धारण किए हुए नहीं था; एक सच्ची मानवता को धारण किए हुए था, और दूसरा नहीं; एक परमेश्वर के एक प्राणी के एहसास को धारण किए हुए था, और दूसरा नहीं। पतरस एवं पौलुस के सार में भिन्नताएं ऐसी ही हैं। वह पथ जिस पर पतरस चला था वह सफलता का पथ था, जो सामान्य मानवता की पुनः प्राप्ति एवं परमेश्वर के प्राणी के कर्तव्य को हासिल करने का भी पथ है। पतरस उन सभी का प्रतिनिधित्व करता है जो सफल हैं। वह पथ जिस पर पौलुस के द्वारा चला गया था वह असफलता का पथ है, और वह उन सभी लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जो ऊपरी तौर पर स्वयं को समर्पित एवं खर्च करते हैं, और विशुद्ध रूप से परमेश्वर से प्रेम नहीं करते हैं। पौलुस उन सभी लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जो सत्य को धारण नहीं करते हैं। परमेश्वर पर अपने विश्वास में, वह सब जो पतरस ने किया था उसमें उसने परमेश्वर को संतुष्ट करने का प्रयास किया था, और वह सब जो परमेश्वर से आता था उसमें उसने आज्ञा मानने का प्रयास किया था। बिना जरा सी भी शिकायत के, वह अपने जीवन में ताड़ना एवं न्याय, साथ ही साथ शुद्धीकरण, क्लेश एवं कमी को स्वीकार कर सकता था, उसमें से कुछ भी परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम को पलट नहीं सकता था। क्या यह परमेश्वर का चरम प्रेम नहीं है? क्या यह परमेश्वर के एक प्राणी के कर्तव्य की परिपूर्णता नहीं है? ताड़ना, न्याय, क्लेश—तू मृत्यु तक आज्ञाकारिता हासिल करने में सक्षम है, और यह वह चीज़ है जिसे परमेश्वर के एक प्राणी के द्वारा हासिल किया जाना चाहिए, यह परमेश्वर के प्रेम की पवित्रता है। यदि मनुष्य इतना कुछ हासिल कर सकता है, तो वह परमेश्वर का एक योग्य प्राणी है, तथा ऐसा और कुछ नहीं है जो सृष्टिकर्ता की इच्छा को बेहतर ढंग से संतुष्ट कर सकता है। कल्पना कर कि तू परमेश्वर के लिए काम कर सकता है, फिर भी तू परमेश्वर की आज्ञा नहीं मानता है, और सचमुच में परमेश्वर से प्रेम करने में असमर्थ है। इस रीति से, तूने न केवल परमेश्वर के एक प्राणी के अपने कर्तव्य को नहीं निभाया होगा, बल्कि तू परमेश्वर के द्वारा निन्दित भी किया जाएगा, क्योंकि तू ऐसा व्यक्ति है जो सत्य को धारण नहीं करता है, जो परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने में असमर्थ है, और जो परमेश्वर के प्रति अनाज्ञाकारी है। तू केवल परमेश्वर के लिए कार्य करने के विषय में परवाह करता है, और सत्य को अभ्यास में लाने, या स्वयं को जानने के विषय में कोई परवाह नहीं करता है। तू सृष्टिकर्ता को समझता एवं जानता नहीं है, और सृष्टिकर्ता के प्रेम या उसकी आज्ञा का पालन नहीं करता है। तू ऐसा व्यक्ति है जो सहज रूप से परमेश्वर के प्रति अनाज्ञाकारी है, और इस प्रकार ऐसे लोग सृष्टिकर्ता के प्रिय नहीं है।

कुछ लोग कहते हैं, "पौलुस ने अत्यधिक मात्रा में काम किया था, और उसने कलीसियाओं के लिए बड़े बोझ को अपने कंधों पर उठाया था और उनके लिए इतना अधिक योगदान दिया था। पौलुस की तेरह पत्रियों ने दो हज़ार वर्षों के अनुग्रह के युग को बनाए रखा था, और वे मात्र चारों सुसमाचारों के बाद दूसरे नम्बर पर आते हैं। कौन उसके साथ तुलना कर सकता है? कोई भी यूहन्ना के प्रकाशित वाक्य के गूढ़ अर्थ को समझ नहीं सकता है, जबकि पौलुस की पत्रियां जीवन प्रदान करती हैं, और वह कार्य जो उसने किया था वह कलीसियाओं के हित के लिए था। और कौन ऐसी चीज़ों को हासिल कर सकता था? और पतरस ने क्या काम किया था?" जब मनुष्य अन्य लोगों को मापता है, तो यह उनके योगदान के अनुसार होता है। जब परमेश्वर मनुष्य को मापता है, तो यह मनुष्य के स्वभाव के अनुसार होता है। उन लोगों के मध्य जो जीवन की तलाश करते हैं, पौलुस ऐसा व्यक्ति था जो अपने स्वयं के सार को नहीं जानता था, जो परमेश्वर के विरूद्ध था। और इस प्रकार, वह ऐसा व्यक्ति था जो विस्तृत अनुभवों से होकर गुज़रा था, और ऐसा व्यक्ति था जो सत्य को अभ्यास में नहीं लाया था। पतरस अलग था। वह परमेश्वर के एक जीव के रूप में अपनी अपूर्णताओं, कमज़ोरियों, एवं अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानता था, और इस प्रकार उसके पास अभ्यास का एक मार्ग था कि उसके माध्यम से अपने स्वभाव को बदल दे; वह उन में से एक नहीं था जिसके पास केवल सिद्धान्त ही था किन्तु जो कोई वास्तविकता धारण नहीं करता था। ऐसे लोग जो परिवर्तित होते हैं वे नए लोग हैं जिन्हें बचाया गया है, वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करने के योग्य थे। ऐसे लोग जो नहीं बदलते हैं वे उनसे सम्बन्धित हैं जो स्वभाविक रूप से गुज़रे ज़माने की बेकार चीज़ें हैं; वे ऐसे लोग हैं जिन्हें बचाया नहीं गया है, अर्थात्, ऐसे लोग जिनसे परमेश्वर के द्वारा घृणा की गई है और जिन्हें ठुकरा दिया गया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उनका कार्य कितना महान है क्योंकि परमेश्वर के द्वारा उनका स्मरणोत्सव नहीं मनाया जाएगा। जब तू इसकी तुलना अपने स्वयं के अनुसरण से करता है, तो तू अन्ततः पतरस या पौलुस के समान उसी किस्म का व्यक्ति है या नहीं यह स्वतः ही प्रमाणित होना चाहिए। यदि जो कुछ तू खोजता है उसमें अभी भी कोई सच्चाई नहीं है, और यदि तू आज भी पौलुस के समान अभिमानी एवं गुस्ताख है, और अभी भी उसके समान चतुराई से बोलते हुए स्वयं की ख्याति को बढ़ाने वाला व्यक्ति है, तो तू बिना किसी सन्देह के एक पतित व्यक्ति है जो असफल हो जाता है। यदि तू पतरस के समान ही कोशिश करता है, यदि तू अभ्यास एवं सच्चे बदलावों की कोशिश करता है, और अभिमानी या हठी नहीं है, किन्तु अपने कर्तव्य को निभाने का प्रयास करता है, तो तू परमेश्वर के ऐसा प्राणी होगा जो विजय हासिल कर सकता है। पौलुस अपने स्वयं के सार एवं भ्रष्टता को नहीं जानता था, और वह अपने स्वयं की अनाज्ञाकारिता को तो बिलकुल भी नहीं जानता था। उसने कभी मसीह के विषय में अपनी निन्दनीय अवज्ञा का उल्लेख नहीं किया था, न ही वह बहुत अधिक खेदपूर्ण था। उसने केवल एक संक्षिप्त व्याख्या प्रस्तुत की थी, और, अपने हृदय की गहराई में, वह परमेश्वर के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित नहीं था। हालाँकि वह दमिश्क के मार्ग में गिर गया था, फिर भी उसने अपने भीतर गहराई से झांक कर नहीं देखा था। वह महज लगातार काम करके संतुष्ट था, और उसने अपने आप को जानने और अपने पुराने स्वभाव को बदलने को महत्वपूर्ण विषय नहीं माना था। वह महज सत्य बोल कर, एवं अपने स्वयं के विवेक के एक दास के रूप में दूसरों की आपूर्ति कर, और अपने बीते पापों के लिए स्वयं को सांत्वना देने और स्वयं को माफ करने के लिए आगे से यीशु के चेलों को न सता कर संतुष्ट था। वह लक्ष्य जिसका उसने अनुसरण किया था वह भविष्य के मुकुट एवं क्षणिक कार्य से अधिक और कुछ नहीं था, वह लक्ष्य जिसका उसने अनुसरण किया था वह प्रचुर अनुग्रह था। उसने पर्याप्त सच्चाई की कोशिश नहीं की थी, न ही उसने यह कोशिश की थी कि उस सत्य की और अधिक गहराई में प्रगति करे जिसे उसने पहले नहीं समझा था। और इस प्रकार स्वयं के विषय में उसके ज्ञान को झूठा कहा जा सकता है, और उसने ताड़ना एवं न्याय को स्वीकार नहीं किया था। यह कि वह कार्य करने में सक्षम था इसका अर्थ यह नहीं है कि उसने अपने खुद के स्वभाव या सार के ज्ञान को धारण किया था; उसका ध्यान केवल बाहरी अभ्यास पर था। इसके अतिरिक्त, जिसके लिए उसने कठिन परिश्रम किया था वह नहीं बदला था, बल्कि ज्ञान बदला था। उसका कार्य पूरी तरह से दमिश्क के मार्ग पर यीशु के प्रकटीकरण का परिणाम था। यह कोई ऐसी चीज़ नहीं थी जिसे उसने मूल रूप से करने का दृढ़ निश्चय किया था, न ही यह ऐसा कार्य था जो उसके द्वारा अपने पुराने स्वभाव के काँट छाँट को स्वीकार करने के बाद घटित हुआ था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उसने किस प्रकार कार्य किया था, क्योंकि उसका पुराना स्वभाव नहीं बदला था, और इस प्रकार उसके कार्य ने उसके अतीत के पापों का प्रायश्चित नहीं किया था परन्तु मात्र उस समय की कलीसियाओं के मध्य एक निश्चित भूमिका निभाई थी। क्योंकि ऐसा ही कोई व्यक्ति, जिसका पुराना स्वभाव नहीं बदला था—कहने का तात्पर्य है, जिसने उद्धार प्राप्त नहीं किया था, तथा सत्य से और भी अधिक विहीन था—वह उन लोगों में से एक बनने में बिलकुल असमर्थ था जिन्हें प्रभु यीशु के द्वारा स्वीकार किया गया था। वह कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो यीशु मसीह के लिए प्रेम एवं आदर से भरा हुआ था, न ही वह ऐसा व्यक्ति था जो सत्य की खोज करने में कुशल था, और वह ऐसा व्यक्ति तो बिलकुल भी नहीं था जो देहधारण के रहस्य की खोज करता था। वह महज ऐसा व्यक्ति था जो मिथ्या वाद-विवाद में कुशल था, और जो किसी ऐसे व्यक्ति से राजी नहीं होता था जो उससे अधिक ऊँचे होते थे या जो सत्य को धारण किए हुए थे। वह ऐसे लोगों या सच्चाइयों से ईर्ष्या करता था जो उसके विपरीत होती थीं, या उसके प्रति शत्रुता में होती थीं, वह उन प्रतिभावान लोगों को प्राथमिकता देता था जो शानदार छवि को प्रस्तुत करते थे और गंभीर ज्ञान धारण करते थे। वह गरीब लोगों से परस्पर बातचीत करना पसंद नहीं करता था जो सही राह की खोज करते थे तथा किसी और चीज़ की नहीं सिर्फ सत्य की परवाह करते थे, और इसके बजाय धार्मिक संगठनों के वरिष्ठ सुप्रसिद्ध व्यक्तियों से सम्बन्ध रखते थे जो केवल सिद्धान्तों की ही बात करते थे, और जो प्रचुर ज्ञान धारण किए हुए थे। उसके पास पवित्र आत्मा के नए कार्य का कोई प्रेम नहीं था, और उसने पवित्र आत्मा के नए कार्य की गतिशीलता की परवाह नहीं की थी। इसके बजाय, उसने उन रीति विधियों एवं सिद्धान्तों की तरफदारी की थी जो सामान्य सच्चाइयों से कहीं ऊँचे थे। अपने सहज सार और उसकी सम्पूर्णता में जिसकी उसने खोज की थी, वह इस योग्य नहीं है कि उसे एक मसीही कहा जाए जो सत्य का अनुसरण करता है, और वह परमेश्वर के घराने में एक वफादार सेवक तो बिलकुल भी नहीं था, क्योंकि उसका पाखंड बहुत अधिक था, और उसकी अनाज्ञाकारिता बहुत ही बड़ी थी। हालाँकि वह प्रभु यीशु के एक सेवक के रूप में जाना जाता है, फिर भी वह स्वर्ग के राज्य के फाटक में प्रवेश करने लायक बिलकुल भी नहीं था, क्योंकि शुरूआत से लेकर अन्त तक उसके कार्य को धार्मिकता नहीं कहा जा सकता है। उसे महज किसी ऐसे मनुष्य के रूप में देखा जाता है जो पांखडी था, और जिसने अधर्म किया था, फिर भी जिसने मसीह के लिए भी कार्य किया था। हालाँकि उसे दुष्ट नहीं कहा जा सकता है, फिर भी उसे उचित रीति से ऐसा मनुष्य कहा जा सकता है जिसने अधर्म किया था। उसने काफी कार्य किया था, फिर भी उसका न्याय उसके कार्य की मात्रा के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए जिसे उसने किया था, किन्तु केवल उसकी गुणवत्ता एवं सार के आधार पर किया जाना चाहिए। केवल इसी रीति से इस मामले की तह तक पहुंचना संभव है। वह हमेशा मानता था: मैं कार्य करने में सक्षम हूँ, मैं अधिकांश लोगों से बेहतर हूँ; मैं प्रभु के बोझ को अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक समझता हूँ, और जैसा मैं गहराई से पश्चाताप करता हूँ वैसा कोई नहीं करता है, क्योंकि मुझ पर बड़ी ज्योति चमकी थी, और मैंने बड़ी ज्योति देखी है, और इस प्रकार मेरा पश्चाताप किसी अन्य की अपेक्षा अधिक गहरा है। उस समय, यह वह चीज़ है जो उसने अपने हृदय में सोचा था। अपने कार्य के अन्त में, पौलुस ने कहा: "मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, और मेरे लिए धर्म का मुकुट रखा हुआ है।" उसकी कुश्ती, कार्य और दौड़ पूरी तरह से धार्मिकता के मुकुट के लिए था, और वह सक्रिय रूप से आगे नहीं बढ़ा था; हालाँकि वह अपने कार्य में लापरवाह नहीं था, फिर भी यह कहा जा सकता है कि उसका कार्य महज उसकी ग़लतियों की भरपाई करने के लिए, और उसके विवेक के आरोपों की भरपाई करने के लिए था। उसने केवल अपने कार्य को पूरा करने, अपनी दौड़ को समाप्त करने, और जितना जल्दी हो सके अपनी लड़ाई को लड़ने की आशा की थी, ताकि वह बहुत जल्द ही अपने बहुप्रतीक्षित धार्मिकता के मुकुट को प्राप्त कर सके। जिस चीज़ की वह लालसा करता था वह अपने अनुभवों एवं सच्चे ज्ञान के साथ प्रभु यीशु से मुलाकात करना नहीं था, बल्कि जितना जल्दी हो सके अपने कार्य को समाप्त करना था, जिससे वह उन प्रतिफलों को प्राप्त कर सके जिन्हें उसके कार्य ने उसके लिए अर्जित किया था जब वह प्रभु यीशु से मिला था। उसने स्वयं को राहत देने के लिए, एवं भविष्य के मुकुट के बदले में एक सौदा करने के लिए अपने कार्य का उपयोग किया था। जिस चीज़ की उसने खोज की थी वह सत्य या परमेश्वर नहीं था, परन्तु केवल मुकुट ही था। ऐसा अनुसरण किस प्रकार मानक स्तर का हो सकता है? उसकी प्रेरणा, कार्य, वह मूल्य जो उसने चुकाया, और उसकी समस्त कोशिशें—उसकी अद्भुत कल्पनाएं उन सब में व्याप्त थीं, और उसने अपनी स्वयं की इच्छाओं के अनुसार पूरी तरह से कार्य किया था। उसके कार्य की सम्पूर्णता में, उस कीमत में ज़रा सी भी स्वेच्छा नहीं थी जो उसने चुकाई थी; वह महज किसी सौदे में संलग्न हो रहा था। उसके प्रयास उसके कर्तव्य को निभाने के लिए स्वेच्छा से नहीं किए गए थे, परन्तु सौदे के उद्देश्य को हासिल करने के लिए इच्छापूर्वक किए गए थे। क्या ऐसे प्रयासों का कोई औचित्य है? कौन ऐसे अशुद्ध प्रयासों की प्रशंसा करेगा? किसके पास ऐसे प्रयासों में रुचि है? उसका कार्य भविष्य के स्वप्नों से भरा हुआ था, अद्भुत योजनाओं से भरा हुआ था, और किसी ऐसे पथ को शामिल नहीं करता था जिसके द्वारा मानव के स्वभाव को बदला जाए। उसका इतना अधिक परोपकार एक ढोंग था; उसका कार्य जीवन प्रदान नहीं करता था, परन्तु सभ्यता का झूठा दिखावा था; यह एक सौदा करना था। ऐसा कार्य किस प्रकार अपने मूल कर्तव्य की पुनः प्राप्ति के पथ पर मनुष्य की अगुवाई कर सकता है?

वह सब जिसकी पतरस खोज करता था वह परमेश्वर के हृदय के अनुसार था। उसने परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने की कोशिश की थी, और क्लेश एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी, वह फिर भी परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए तैयार था। परमेश्वर में किसी विश्वासी के द्वारा इससे बड़ा अनुसरण नहीं हो सकता है। जो कुछ पौलुस खोजता था उसे उसके स्वयं के शरीर के द्वारा, उसकी स्वयं की धारणाओं के द्वारा, और उसकी स्वयं की योजनाओं एवं युक्तियों के द्वारा कलंकित किया गया था। वह किसी भी मायने में परमेश्वर का एक योग्य प्राणी नहीं था, वह कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जिसने परमेश्वर की इच्छा को पूर्ण करने की कोशिश की थी। परतस ने परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित होने की कोशिश की थी, और हालाँकि वह कार्य बड़ा नहीं था जिसे उसने किया था, फिर भी उसके अनुसरण के पीछे की प्रेरणा एवं वह पथ जिस पर वह चला था वे सही थे; हालाँकि वह अनेक लोगों को पाने में सक्षम नहीं था, फिर भी वह सत्य के मार्ग की खोज करने में सक्षम था। इस कारण से ऐसा कहा जा सकता है कि वह परमेश्वर का एक योग्य प्राणी था। आज, भले ही तू एक कार्यकर्ता नहीं हैं, फिर भी तुझे परमेश्वर के प्राणी के कर्तव्य को निभाने में सक्षम होना चाहिए, और परमेश्वर के सभी आयोजनों के प्रति समर्पित होने की कोशिश करनी चाहिए। परमेश्वर जो कुछ भी कहे तुझे उसका पालन करने, और सभी प्रकार के क्लेशों एवं परिष्करण का अनुभव करने में सक्षम होना चाहिए, और हालाँकि तू कमज़ोर है, फिर भी तुझे अपने हृदय में अभी भी परमेश्वर से प्रेम करने में सक्षम होना चाहिए। ऐसे लोग जो अपने स्वयं के जीवन की ज़िम्मेदारी लेते हैं वे परमेश्वर के प्राणी के कर्तव्य को निभाने के लिए तैयार हैं, और अनुसरण के प्रति ऐसे लोगों का दृष्टिकोण ही सही दृष्टिकोण है। ये ऐसे लोग हैं जिनकी परमेश्वर को ज़रूरत है। यदि तूने अधिक कार्य किया होता, और दूसरों ने तेरी शिक्षाओं को पाया होता, परन्तु तू स्वयं न बदलता, और कोई गवाही नहीं देता, या तेरे पास कोई सही अनुभव नहीं होता, कुछ इस तरह कि तेरे जीवन के अन्त पर, और जो कुछ तूने किया है उसमें से कोई अभी भी गवाही नहीं देता है, तो तू ऐसा इंसान है जो बदल चुका है? क्या तू ऐसा व्यक्ति है जो सत्य का अनुसरण करता है? उस समय, पवित्र आत्मा ने तेरा उपयोग किया था, परन्तु जब उसने तेरा उपयोग किया था, तो उसने तेरे उस भाग का उपयोग किया था जो कार्य कर सकता था, और उसने तेरे उस भाग का उपयोग नहीं किया था जो कार्य नहीं कर सकता था। यदि तूने बदलने की कोशिश की होती, तो तुझे उपयोग किए जाने की प्रक्रिया के दौरान धीरे धीरे पूर्ण बनाया गया होता। फिर भी पवित्र आत्मा कोई ज़िम्मेदारी स्वीकार नहीं करता है कि अन्ततः तुझे हासिल किया जाएगा या नहीं, और यह तेरे अनुसरण के तरीके पर निर्भर करता है। यदि तेरे व्यक्तिगत स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हैं, तो यह इसलिए है क्योंकि तेरे अनुसरण के प्रति तेरा दृष्टिकोण ग़लत है। यदि तुझे कोई प्रतिफल नहीं दिया जाता, तो यह तेरी स्वयं की समस्या है, और क्योंकि तूने स्वयं ही सत्य को अभ्यास में नहीं लाया है, और परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने में असमर्थ है। और इस प्रकार, तेरे व्यक्तिगत अनुभवों से बढ़कर कुछ भी अत्यधिक महत्वपूर्ण नहीं है, और तेरे व्यक्तिगत प्रवेश की अपेक्षा कुछ भी अधिक महत्वपूर्ण नहीं है! कुछ लोग यह कहते हुए समाप्त करते हैं, "मैं ने तेरे लिए इतना अधिक कार्य किया है, और हालाँकि उत्सव मनाने योग्य उपलब्धियां तो शायद नहीं हैं, फिर भी मैं अपने प्रयासों में अब भी परिश्रमी हूँ। क्या तू बस मुझे स्वर्ग में प्रवेश करने नहीं दे सकता है ताकि मैं जीवन के फल को खाऊं?" तुझे जानना होगा कि मैं किस प्रकार के लोगों की इच्छा करता हूँ; ऐसे लोग जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई है, ऐसे लोग जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को गंदा करने की अनुमति नहीं दी गई है। हालाँकि तूने शायद अधिक कार्य किया है, और कई सालों तक कार्य किया है, फिर भी अन्त में तू दुखदाई रूप से मैला है—यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय है कि तू मेरे राज्य में प्रवेश करने की कामना करता है! संसार की नींव से लेकर आज तक, मैं ने कभी भी उन लोगों को अपने राज्य के लिए आसान मार्ग का प्रस्ताव नहीं दिया है जो अनुग्रह पाने के लिए मेरी खुशामद करते हैं। यह स्वर्गीय नियम है, और इसे कोई तोड़ नहीं सकता है! तुझे जीवन की खोज करनी ही होगी। आज, ऐसे लोग जिन्हें पूर्ण बनाया जाएगा वे पतरस के ही समान हैं: वे ऐसे लोग हैं जो अपने स्वयं के स्वभाव में परिवर्तनों की कोशिश करते हैं, और वे परमेश्वर के लिए गवाही देने, और परमेश्वर के प्राणी के रुप में अपने कर्तव्य को निभाने के लिए तैयार हैं। केवल ऐसे ही लोगों को सिद्ध बनाया जाएगा। यदि तू केवल प्रतिफलों की ओर ही देखता है, और अपने स्वयं के जीवन स्वभाव को परिवर्तित करने की कोशिश नहीं करता है, तो तेरे सारे प्रयास व्यर्थ होंगे—और यह एक अटल सत्य है!

पतरस एवं पौलुस के सार में अन्तर से तुझे समझना चाहिए कि वे सभी लोग जो जीवन का अनुसरण नहीं करते हैं वे व्यर्थ में परिश्रम करते हैं! तू परमेश्वर में विश्वास करता है और परमेश्वर का अनुसरण करता है, और इस प्रकार तुझे अपने ह्रदय में परमेश्वर से प्रेम करना होगा। तुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर फेंकना होगा, परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने का प्रयास करना होगा, और परमेश्वर के एक प्राणी के कर्तव्य को निभाना होगा। चूँकि तू परमेश्वर पर विश्वास करता है और परमेश्वर का अनुसरण करता है, तुझे हर एक चीज़ को उसके लिए अर्पण करना चाहिए, और व्यक्तिगत चुनाव या मांग नहीं करना चाहिए, और तुझे परमेश्वर की इच्छा की पूर्ति को हासिल करना चाहिए। चूँकि तुझे सृजा गया था, तो तुझे उस प्रभु की आज्ञा का पालन करना चाहिए जिसने तुझे सृजा था, क्योंकि तू सहज रूप से स्वयं के ऊपर प्रभुता नहीं रखता है, और तेरे पास अपनी नियति को नियन्त्रित करने की योग्यता नहीं है। चूँकि तू ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर में विश्वास करता है, तो तुझे पवित्रता एवं बदलाव की खोज करनी चाहिए। चूँकि तू परमेश्वर का एक प्राणी है, तो तुझे अपने कर्तव्य से चिपके रहना चाहिए, और अपने स्थान को बनाए रखना चाहिए, और तुझे अपने कर्तव्य का अतिक्रमण नहीं करना होगा। यह तुझे विवश करने के लिए नहीं है, या सिद्धान्तों के माध्यम से तुझे दबाने के लिए नहीं है, परन्तु ऐसा पथ है जिसके माध्यम से तू अपने कर्तव्य को निभा सकता है, और जिसे हासिल किया जा सकता है—और हासिल किया जाना चाहिए—उन सभी लोगों के द्वारा जो धार्मिकता को अंजाम देते हैं। यदि तू पतरस एवं पौलुस के सार की तुलना करे, तो तू जान जाएगा कि तुझे किस प्रकार कोशिश करनी चाहिए। उन पथों के विषय में जिन पर पतरस एवं पौलुस के द्वारा चला गया था, एक पथ है सिद्ध बनाए जाने का पथ, और दूसरा पथ है निष्कासन का पथ; पतरस एवं पौलुस दो विभिन्न पथों का प्रतिनिधित्व करते हैं। हालाँकि प्रत्येक ने पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त किया था, और प्रत्येक ने पवित्र आत्मा के अद्भुत ज्ञान एवं रोशनी को हासिल किया था, और प्रत्येक ने उसे स्वीकार किया जिसे प्रभु यीशु के द्वारा उन्हें सौंपा गया था, फिर भी वह फल जो प्रत्येक में उत्पन्न हुआ था वह एक समान नहीं था: एक ने सचमुच में फल उत्पन्न किया था, और दूसरे ने नहीं। उनके मूल-तत्वों से, उस कार्य से जो उन्होंने किया था, उससे जिसे उनके द्वारा बाह्य रूप से अभिव्यक्त किया गया था, और उनके निर्णायक अन्त से, तुझे यह समझना चाहिए कि तुझे कौन सा पथ लेना चाहिए, वह पथ जिस पर चलने के लिए तुझे चयन करना चाहिए। वे स्पष्ट रूप से दो भिन्न भिन्न पथों पर चले थे। पौलुस एवं पतरस, दोनों अपने अपने पथ के सार थे, और इस प्रकार बिलकुल प्रारम्भ से ही इन दो पथों को मिसाल के रूप में दर्शाने के लिए उन्हें प्रदर्शित किया गया था। पौलुस के अनुभवों के मुख्य बिन्दु क्या हैं, और वह इसे क्यों पूरा नहीं कर पाया था? पतरस के अनुभवों के मुख्य बिन्दु क्या हैं, और उसने किस प्रकार सिद्ध बनाए जाने का अनुभव किया था? यदि तू तुलना करे कि उन दोनों ने किसके विषय में चिंता किया, तो तू जान जाएगा कि परमेश्वर को बिलकुल किस किस्म के व्यक्ति की ज़रूरत है, परमेश्वर की इच्छा क्या है, परमेश्वर का स्वभाव कैसा है, किस किस्म के व्यक्ति को अन्ततः सिद्ध बनाया जाएगा, और साथ ही किस किस्म के व्यक्ति को सिद्ध नहीं बनाया जाएगा, उन लोगों का स्वभाव कैसा है जिन्हें सिद्ध बनाया जाएगा, और उन लोगों का स्वभाव कैसा है जिन्हें सिद्ध नहीं बनाया जाएगा—सार के इन मामलों को पतरस एवं पौलुस के अनुभवों में देखा जा सकता है। परमेश्वर ने सभी चीज़ों की सृष्टि की थी, और इस प्रकार वह समूची सृष्टि को अपने प्रभुत्व के अधीन लाता है, और अपने प्रभुत्व के प्रति समर्पित करवाता है; वह सभी चीज़ों को आदेश देगा, ताकि सभी चीज़ें उसके हाथों में हों। परमेश्वर की सारी सृष्टि, जिसमें जानवर, पेड़-पौधे, मानवजाति, पहाड़ एवं नदियां, और झीलें शामिल हैं—सभी को उसके प्रभुत्व के अधीन आना होगा। आकाश एवं धरती पर की सभी चीज़ों को उसके प्रभुत्व के अधीन आना होगा। उनके पास कोई विकल्प नहीं हो सकता है, और उन सब को उसी के आयोजनों के अधीन होना होगा। इसकी आज्ञा परमेश्वर के द्वारा दी गई थी, और यह परमेश्वर का अधिकार है। परमेश्वर सभी चीज़ों को आज्ञा देता है, और प्रत्येक को उसके किस्म के अनुसार वर्गीकृत करके सभी चीजों की पद श्रृंखला का आदेश देता है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार उनके स्वयं के पद को आबंटित करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि यह कितना बड़ा है, कोई भी प्राणी परमेश्वर से बढ़कर नहीं हो सकता है, और सभी चीज़ें मानवजाति की सेवा करती हैं जिन्हें परमेश्वर के द्वारा सृजा गया था, और कोई भी प्राणी परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करने की हिम्मत नहीं करता है या परमेश्वर से कोई मांग नहीं करता है। और इस प्रकार मनुष्य को, परमेश्वर के एक प्राणी के रूप में, मनुष्य के कर्तव्य को निभाना ही होगा। इस बात की परवाह किए बगैर कि वह सभी चीज़ों का प्रभु है या शासक, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य का रुतबा सभी चीज़ों के मध्य कितना ऊँचा है, वह फिर भी परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन सिर्फ एक छोटा सा मानव प्राणी है, और वह एक तुच्छ मानव प्राणी, और परमेश्वर के एक जीवधारी से अधिक और कुछ नहीं है, और वह कभी भी परमेश्वर से ऊपर नहीं होगा। परमेश्वर के एक प्राणी के रूप में, मनुष्य को परमेश्वर के एक प्राणी के अपने कर्तव्य को निभाने की कोशिश करनी चाहिए, और अन्य चुनाव किए बिना परमेश्वर से प्रेम करने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। ऐसे लोग जो परमेश्वर से प्रेम करने की कोशिश करते हैं उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ या उस चीज़ की खोज नहीं करनी चाहिए जिसकी वे व्यक्तिगत रूप से अभिलाषा करते हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है। यदि जिसकी तू खोज करता है वह सत्य है, तो जो कुछ तू अभ्यास में लाता है वह सत्य है, और जो कुछ तू अर्जित करता है वह तेरे स्वभाव में हुआ परिवर्तन है, तो वह पथ जिस पर तूने कदम रखा है वह सही पथ है। यदि जिसे तू खोजता है वह देह की आशीषें हैं, और जिसे तू अभ्यास में लाता है वह तेरी स्वयं की धारणाओं की सच्चाई है, और यदि तेरे स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं है, और तू देह में प्रकट परमेश्वर के प्रति बिलकुल भी आज्ञाकारी नहीं है, और तू अभी भी अस्पष्टता में रह रहा है, तो जिसे तू खोज रहा है वह निश्चय ही तुझे नरक ले जाएगा, क्योंकि वह पथ जिस पर तू चलता है वह असफलता का पथ है। तुझे सिद्ध बनाया जाएगा या निष्कासित किया जाएगा यह तेरे स्वयं के अनुसरण पर निर्भर होता है, जिसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि सफलता या असफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है।

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