तुम्हें पता होना चाहिए कि समस्त मानवजाति आज के दिन तक कैसे विकसित हुई (भाग एक)
6,000 वर्षों के दौरान कार्य की समग्रता समय के साथ धीरे-धीरे बदल गई है। इस कार्य में बदलाव समस्त संसार की परिस्थितियों के अनुसार हुए हैं। परमेश्वर का प्रबंधन का कार्य केवल मानवजाति के पूर्णरूपेण विकास की प्रवृत्ति के अनुसार धीरे-धीरे रूपान्तरित हुआ है; सृष्टि के आरंभ में इसकी पहले से योजना नहीं बनाई गई थी। संसार का सृजन करने से पहले, या इसके सृजन के ठीक बाद, यहोवा ने अभी तक कार्य के प्रथम चरण, व्यवस्था की; कार्य के दूसरे चरण—अनुग्रह की; और कार्य के तीसरे चरण—जीतने की योजना नहीं बनायी थी, जिनमें वह सबसे पहले लोगों के एक समूह—मोआब के कुछ वंशजों के बीच कार्य करता, और इससे वह समस्त ब्रह्माण्ड को जीतता। उसने संसार का सृजन करने के बाद ये वचन नहीं कहे; उसने ये वचन मोआब के बाद नहीं कहे, लूत से पहले की तो बात ही छोड़ो। उसका समस्त कार्य अनायास ही किया गया था। ठीक इसी तरह से उसका छह-हजार-वर्षों का प्रबंधन कार्य विकसित हुआ है; संसार का सृजन करने से पहले उसने किसी भी तरीके से मानवजाति के विकास के लिए सारांश संचित्र के जैसी कोई योजना नहीं लिखी। परमेश्वर के कार्य में वह प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त करता है कि वह क्या है; वह किसी योजना को बनाने पर अत्यधिक विचार नहीं करता है। वास्तव में, बहुत से भविष्यद्वक्ताओं ने बहुत सी भविष्यवाणियाँ की हैं, परंतु फिर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि परमेश्वर का कार्य सदैव ही एक सटीक योजना-बनाना रहा है; भविष्यवाणियाँ परमेश्वर के वास्तविक कार्य के अनुसार की गई थीं। उसका समस्त कार्य सर्वाधिक वास्तविक कार्य है। वह समयों के विकास के अनुसार अपने कार्य को सम्पन्न करता है, और वह अपना सबसे अधिक वास्तविक कार्य चीज़ों के परिवर्तनों के अनुसार करता है। उसके लिए, कार्य को सम्पन्न करना किसी बीमारी के लिए दवा देने के सदृश है; वह अपना कार्य करते समय अवलोकन करता है; और अपने अवलोकनों के अनुसार कार्य करता है। अपने कार्य के प्रत्येक चरण में, वह अपनी विशाल बुद्धि को व्यक्त करने और अपनी विशाल योग्यता को व्यक्त करने में सक्षम है; वह उस युग विशेष के कार्य के अनुसार अपनी विशाल बुद्धि और विशाल अधिकार को प्रकट करता है, और उन युगों के दौरान उसके द्वारा वापस लाए गए लोगों में से किसी को भी अपना समस्त स्वभाव देखने देता है। वह लोगों की आवश्यकताओं की आपूर्ति करता है और उस कार्य को करता है जो प्रत्येक युग में अवश्य किए जाने वाले कार्य के अनुसार उसे करना चाहिए; वह लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति उस हद तक करता है जिस तक शैतान ने उन्हें भ्रष्ट कर दिया है। यह इस तरह था जब उन्हें पृथ्वी पर परमेश्वर को अभिव्यक्त करने और सृजन के बीच परमेश्वर की गवाही देने की अनुमति देने के लिए यहोवा ने आरंभ में आदम और हव्वा का सृजन किया, किन्तु सर्प द्वारा प्रलोभन दिए जाने के बाद हव्वा ने पाप किया; आदम ने भी वही किया, और उन्होंने बगीचे में एक साथ अच्छे और बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल खाया। और इस प्रकार, यहोवा के पास उनके बीच क्रियान्वित करने के लिए अतिरिक्त कार्य था। उसने उनकी नग्नता देखी और पशुओं की खालों के वस्त्रों से उनके शरीर को ढक दिया। इसके बाद उसने आदम से कहा, "तू ने जो अपनी पत्नी की बात सुनी, और जिस वृक्ष के फल के विषय मैं ने तुझे आज्ञा दी थी कि तू उसे न खाना, उसको तू ने खाया है इसलिये भूमि तेरे कारण शापित है ... और अन्त में मिट्टी में मिल जाएगा क्योंकि तू उसी में से निकाला गया है; तू मिट्टी तो है और मिट्टी ही में फिर मिल जाएगा।" स्त्री से उसने कहा, "मैं तेरी पीड़ा और तेरे गर्भवती होने के दु:ख को बहुत बढ़ाऊँगा; तू पीड़ित होकर बालक उत्पन्न करेगी; और तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।" उसके बाद से उसने उन्हें अदन की वाटिका से निर्वासित कर दिया, और उन्हें वाटिका से बाहर रहने दिया, जैसे कि अब आधुनिक मानव पृथ्वी पर रहता है। जब परमेश्वर ने आरंभ में मनुष्य का सृजन किया, तब उसने मनुष्य का सृजन करने के बाद उसे साँप द्वारा प्रलोभित होने देने और फिर मनुष्य और साँप को शाप देने की योजना नहीं बनाई थी। उसकी वास्तव में इस प्रकार की कोई योजना नहीं थी; यह केवल चीज़ों का विकास था जिसने उसे अपनी सृष्टि के बीच नया कार्य दिया। यहोवा के पृथ्वी पर आदम और हव्वा के बीच इस कार्य को सम्पन्न करने के बाद, मानवजाति कई हजार वर्षों तक तब तक विकसित होती रही जब, "यहोवा ने देखा कि मनुष्यों की बुराई पृथ्वी पर बढ़ गई है, और उनके मन के विचार में जो कुछ उत्पन्न होता है वह निरन्तर बुरा ही होता है। और यहोवा पृथ्वी पर मनुष्य को बनाने से पछताया, और वह मन में अति खेदित हुआ। ... परन्तु यहोवा के अनुग्रह की दृष्टि नूह पर बनी रही।" इस समय यहोवा के पास और नये कार्य थे, क्योंकि जिस मानवजाति का उसने सृजन किया था वह सर्प के द्वारा प्रलोभित किए जाने के बाद बहुत अधिक पापमय हो चुकी थी। इन परिस्थितियों को देखते हुए, यहोवा ने इस लोगों में से नूह के परिवार का चयन किया और उन्हें बचाया, और संसार को जलप्रलय के द्वारा नष्ट करने का अपना कार्य सम्पन्न किया। मानवजाति आज के दिन भी तक इसी तरीके से विकसित होती जा रही है, उत्तरोत्तर भ्रष्ट हो रही है, और जब मानवजाति का विकास अपने शिखर पर पहुँच जाएगा, तब यह मानवजाति का अंत भी होगा। संसार के बिल्कुल आरंभ से लेकर अंत तक परमेश्वर के कार्य का भीतरी सत्य सदैव ऐसा ही रहा है। यह वैसा ही है जैसे कि मनुष्यों को कैसे उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा। हर एक व्यक्ति को उस श्रेणी में पूर्वनियत किए जाने से दूर जिसमें वे बिल्कुल आरंभ से संबंधित हैं, लोगों को केवल विकास की एक प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही धीरे—धीरे श्रेणीबद्ध किया जाता है। अंत में, जिस किसी को भी पूरी तरह से बचाया नहीं जा सकता है उसे उसके पुरखों के पास लौटा दिया जाएगा। मानवजाति के बीच परमेश्वर का कोई भी कार्य संसार के सृजन के समय पहले से तैयार नहीं किया गया था; बल्कि, यह चीज़ों का विकास था जिसने परमेश्वर को मानवजाति के बीच अधिक वास्तविक एवं व्यवहारिक रूप से कदम-दर-कदम अपना कार्य करने दिया। यह ठीक वैसे ही है जैसे कि यहोवा परमेश्वर ने स्त्री को प्रलोभित करने के लिए साँप का सृजन नहीं किया था। यह उसकी विशिष्ट योजना नहीं थी, न ही यह कुछ ऐसा था जिसे उसने जानबूझ कर पूर्वनियत किया था; कोई कह सकता है कि यह अनपेक्षित था। इस प्रकार यह इसलिए था क्योंकि यहोवा ने आदम और हव्वा को अदन की वाटिका से निष्कासित किया और फिर कभी मनुष्य का पुनः सृजन नहीं करने की शपथ ली। परंतु परमेश्वर की बुद्धि के बारे में लोगों को केवल इसी आधार पर पता चलता है, ठीक उसी बिंदु की तरह जो मैंने पहले उल्लेख किया: "मेरी बुद्धि शैतान के षडयंत्रों के आधार पर प्रयोग में लायी जाती है।" इससे फर्क नहीं पड़ता कि मानवजाति कितनी भी भ्रष्ट हुई या साँप ने उन्हें कैसे प्रलोभित किया, यहोवा के पास तब भी अपनी बुद्धि थी; इसलिए, जबसे उसने संसार का सृजन किया है, वह नये-नये कार्य में व्यस्त रहा है और उसके कार्य का कोई भी कदम कभी भी दोहराया नहीं गया है। शैतान ने लगातार षडयंत्र किये हैं; मानवजाति लगातार शैतान के द्वारा भ्रष्ट की गई है, यहोवा परमेश्वर ने भी अपने बुद्धिमान कार्य को लगातार सम्पन्न किया है। वह कभी भी असफल नहीं हुआ है, और संसार के सृजन से अब तक उसने कार्य को कभी नहीं रोका है। शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट करने के बाद, परमेश्वर ने अपने उस शत्रु को परास्त करने के लिए जो मानवजाति को भ्रष्ट करता है, लोगों के बीच लगातार कार्य किया। यह लड़ाई संसार के आरंभ से अंत तक चलती रहेगी। यह सब कार्य करते हुए, उसने न केवल शैतान के द्वारा भ्रष्ट की जा चुकी मनुष्य जाति को उसके द्वारा महान उद्धार को प्राप्त करने की अनुमति दी है, बल्कि अपनी बुद्धि सर्वशक्तिमत्ता और अधिकार को देखने की उन्हें अनुमति भी दी है, और अंत में वह मानवजाति को अपना धार्मिक स्वभाव देखने देगा—दुष्टों को दण्ड देगा, और अच्छों को पुरस्कार देगा। उसने आज के दिन तक शैतान के साथ युद्ध किया है और कभी भी पराजित नहीं हुआ है। क्योंकि वह एक बुद्धिमान परमेश्वर है, और उसकी बुद्धि शैतान के षडयंत्रों के आधार पर प्रयोग की जाती है। और इसलिए वह न केवल स्वर्ग की सब चीज़ों को अपने अधिकार के सामने समर्पित करवाता है; बल्कि वह पृथ्वी की सभी चीज़ों को अपने पाँव रखने की चौकी के नीचे रखवाता है, और यही अंतिम बात नहीं है, वह उन बुरे कार्य करने वालों को, जो मानवजाति पर आक्रमण करते हैं और उसे सताते हैं, अपनी ताड़ना के अधीन करता है। कार्य के सभी परिणाम उसकी बुद्धि के कारण उत्पन्न होते हैं। उसने मानवजाति के अस्तित्व से पहले कभी भी अपनी बुद्धि को प्रकट नहीं किया था, क्योंकि स्वर्ग में, और पृथ्वी पर, और समस्त ब्रह्माण्ड में उसके कोई शत्रु नहीं थे, और कोई अंधकार की शक्तियाँ नहीं थीं जो प्रकृति में से किसी भी चीज़ पर आक्रमण करती थी। प्रधान स्वर्गदूत द्वारा उसके साथ विश्वासघात करने के बाद, उसने पृथ्वी पर मानवजाति का सृजन किया, और यह मानवजाति के कारण ही था कि उसने औपचारिक रूप से प्रधान स्वर्गदूत, शैतान के साथ अपना सहस्राब्दि-लंबा युद्ध आरंभ किया, ऐसा युद्ध जो प्रत्येक बाद के चरण के साथ और अधिक घमासान होता गया। इनमें से प्रत्येक चरण में उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि उपस्थित रहती है। केवल इस समय ही स्वर्ग और पृथ्वी में हर चीज़ परमेश्वर की बुद्धि, सर्वशक्तिमत्ता, और विशेषकर परमेश्वर की यथार्थता को देख सकती है। वह आज भी अपने कार्य को उसी यथार्थ तरीके से सम्पन्न करता है; इसके अतिरिक्त, जब वह अपने कार्य को करता है, तो वह अपनी बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता को भी प्रकट करता है; वह तुम लोगों को प्रत्येक चरण के भीतरी सत्य को देखने की अनुमति देता है, यह देखने की अनुमति देता है कि परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को कैसे यथार्थतः समझाया जाए, और विशेष रूप से परमेश्वर की वास्तविकता को कैसे समझाया जाए।
क्या लोग यह विश्वास नहीं करते हैं कि सृजन से पहले ही यह दैवनिर्दिष्ट था कि यहूदा यीशु को बेचेगा? वास्तव में, पवित्र आत्मा ने उस समय की वास्तविकता के आधार पर यह योजना बनाई थी। यह सिर्फ ऐसे घटित हुआ कि यहूदा नामका कोई व्यक्ति था, जो सदैव पैसों का गबन किया करता था। इसलिए वह इस भूमिका को निभाने और इस तरह से सेवा में होने के लिए चुना गया। यह स्थानीय संसाधनों को उपयोग में लाने का एक अच्छा उदाहरण है। पहले तो यीशु इस बात से अनभिज्ञ था; उसे केवल तभी पता चला जब एक बार बाद में यहूदा के बारे में बताया गया था। यदि कोई अन्य व्यक्ति इस भूमिका को निभाने में समर्थ होता, तो यहूदा के बजाय किसी और ने इसे किया होता। वह जो पूर्वनियत था वह वास्तव में पवित्र आत्मा के द्वारा उसी समय में किया गया था। पवित्र आत्मा का कार्य सदैव अनायास किया जाता है; किसी भी समय जब वह अपने कार्य की योजना बनाएगा, तो पवित्र आत्मा उसे सम्पन्न करेगा। मैं क्यों सदैव कहता हूँ कि पवित्र आत्मा का कार्य यथार्थवादी होता है? कि वह सदैव नया होता है, कभी पुराना नहीं होता है, और सदैव सबसे अधिक ताजा होता है? जब संसार का सृजन किया गया था तब परमेश्वर के कार्य की योजना पहले से नहीं बनायी गई थी; ऐसा बिलकुल भी नहीं हुआ था! कार्य का हर कदम अपने सही समय पर समुचित प्रभाव प्राप्त करता है, और वे एक दूसरे में हस्तक्षेप नहीं करते हैं। ऐसे बहुत से अवसर हैं, जब तुम्हारे मन की योजनाएँ पवित्र आत्मा के नवीनतम कार्य के साथ बस मिलान नहीं खातीं हैं। उसका कार्य लोगों के तर्क-वितर्क के जैसा आसान नहीं है, न ही वह लोगों की कल्पनाओं जैसा जटिल है; इसमें किसी भी समय, किसी भी स्थान पर, लोगों को उनकी वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार आपूर्ति करना शामिल है। जहाँ तक लोगों के सार की बात है कोई भी उतना स्पष्ट नहीं है जितना वह है, और यह निश्चित रूप से इसी कारण से है कि कोई भी चीज़ लोगों की यथार्थवादी आवश्यकताओं के उतना अनुकूल होने में समर्थ नहीं है जितने अच्छे तरीके से उसका कार्य है। इसलिए, मनुष्य के दृष्टिकोण से, उसका कार्य कई सहस्राब्दि पूर्व अग्रिम में योजनाबद्ध कर दिया गया था। जब वह तुम लोगों के बीच, तुम लोगों की परिस्थिति के अनुसार कार्य करता है, तो वह कार्य भी करता है और किसी भी समय और किसी भी स्थान में बोलता भी है। जब लोग एक निश्चित परिस्थिति होते हैं, तो वह उन वचनों को कहता है जो हूबहू वे होते हैं उनकी उन्हें भीतर आवश्यकता है। यह ताड़ना के समय के उसके कार्य के पहले कदम के समान है। ताड़ना के समय के बाद, लोगों ने एक निश्चित व्यवहार प्रदर्शित किया, उन्होंने निश्चित तरीकों से विद्रोहपूर्ण ढंग से कार्य किया, कुछ सकारात्मक परिस्थितियाँ उभरीं, कुछ नकारात्मक परिस्थितियाँ भी उभरीं, और इस नकारात्मकता की ऊपरी सीमा एक निश्चित स्तर तक पहुँची। परमेश्वर ने इन सब बातों के आधार पर अपना कार्य किया, और इस प्रकार अपने कार्य हेतु अधिक बेहतर प्रभाव प्राप्त करने के लिए इन पर कब्जा कर लिया। वह केवल लोगों के बीच उनकी वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार आपूर्ति करने का कार्य कर रहा है। वह अपने कार्य का हर कदम लोगों की वास्तविक परिस्थितियों के अनुसार सम्पन्न करता है। समस्त सृष्टि उसके हाथों में है, क्या वह उन्हें नहीं जान सकता था? लोगों की परिस्थितियों के आलोक में, परमेश्वर, किसी भी समय और स्थान पर, कार्य के उस अगले कदम को करता है जो किया जाना चाहिए। यह कार्य किसी भी तरह से हजारों वर्ष पहले से योजनाबद्ध नहीं किया गया था; यह एक मानवीय धारणा है! जब वह अपने कार्य के प्रभावों को देखता है तो वह कार्य करता है, और उसका कार्य लगातार अधिक गहरा और विकसित होता जाता है; जब वह अपने कार्य के परिणामों का अवलोकन करता है, तो वह अपने कार्य के अगले कदम को सम्पन्न करता है। वह धीरे-धीरे अवस्थांतरण के लिए व समय के साथ लोगों को अपना नया कार्य दृष्टिगोचर कराने हेतु कई चीजों का उपयोग करता है। इस प्रकार का कार्य लोगों की आवश्यकताओं की आपूर्ति करने में समर्थ होता है, क्योंकि परमेश्वर सभी लोगों को बहुत अच्छी तरह से जानता है। वह अपने कार्य को इसी तरह से स्वर्ग से सम्पन्न करता है। इसी प्रकार, देहधारी परमेश्वर भी, वास्तविकता के अनुसार योजना बनाकर और मनुष्यों के बीच कार्य करके, अपने कार्य को इसी प्रकार से सम्पन्न करता है। उसके किसी भी कार्य की संसार के सृजन से पहले योजना नहीं बनायी गई थी, और न ही इसकी पहले से ध्यानपूर्वक योजना बनायी गई थी। संसार के सृजन के 2,000 वर्षों के बाद, यहोवा ने देखा कि मानवजाति इतनी भ्रष्ट हो गई है कि उसने भविष्यवाणी करने के लिए भविष्यद्वक्ता यशायाह के मुँह का उपयोग किया कि व्यवस्था के युग का अंत होने के बाद, वह अनुग्रह के युग में मानवजाति को छुटकारा दिलाने के कार्य को करेगा। निस्संदेह, यह यहोवा की योजना थी, किन्तु यह योजना भी उन परिस्थितियों के अनुसार थी जो उसने उस समय अवलोकन की; उसने निश्चित रूप से आदम का सृजन करने के तुरंत बाद इस बारे में नहीं सोचा। यशायाह ने केवल भविष्यवाणी की, किन्तु यहोवा ने व्यवस्था के युग के दौरान इसके लिए तुरंत तैयारियाँ नहीं की; बल्कि, उसने अनुग्रह के युग के आरंभ में इस कार्य की शुरूआत की, जब संदेशवाहक यूसुफ के स्वप्न में दिखाई दिया और उसने उसे प्रबुद्ध किया, और उसे बताया कि परमेश्वर देहधारी बनेगा, और इस प्रकार उसका देहधारण का कार्य आरंभ हुआ। परमेश्वर ने, जैसा कि लोग कल्पना करते हैं, संसार के सृजन के बाद अपने देहधारण के कार्य के लिए तैयारी नहीं की; यह केवल मनुष्यजाति के विकास के स्तर और शैतान के साथ उसके युद्ध की स्थिति के अनुसार निर्णय लिया गया था।
जब परमेश्वर देह में आता है, तो उसका आत्मा किसी मनुष्य पर उतरता है; दूसरे शब्दों में, परमेश्वर का देह को पहन लेता है। वह अपना कार्य पृथ्वी पर करता है, और अपने साथ विभिन्न प्रतिबंधित कदमों को लाने की बजाय, यह कार्य सर्वथा असीमित होता है। पवित्र आत्मा शरीर में रह कर जो कार्य करता है वह तब भी उसके कार्य के प्रभावों के अनुसार निर्धारित होता है और वह इन चीज़ों का उपयोग उस समयावधि का निर्धारण करने के लिए करता है जब तक वह शरीर में रहते हुए कार्य को करेगा। पवित्र आत्मा अपने कार्य के प्रत्येक चरण को प्रत्यक्ष रूप से प्रकट करता है; जब वह कार्य में आगे बढ़ता है तो वह अपने कार्य का परीक्षण करता है; इसमें इतना कुछ अलौकिक नहीं है जो मानवीय कल्पना की सीमाओं को विस्तार दे। यह यहोवा के द्वारा आकाश और पृथ्वी और अन्य सब वस्तुओं से सृजन के कार्य के समान है; उसने साथ-साथ योजना बनाई और कार्य किया। उसने ज्योति को अंधकार से अलग किया, और सुबह और शाम अस्तित्व में आए—इसमें एक दिन लगा। दूसरे दिन उसने आकाश का सृजन किया, उसमें भी एक दिन लगा, और फिर उसने पृथ्वी, समुद्र और उन सब चीज़ों को बनाया जिन्होंने उन्हें आबाद किया, इसमें भी एक दिन और लगा। और यह पूरे छठे दिन से, जब परमेश्वर ने मनुष्य का सृजन किया और उसे पृथ्वी पर सभी चीज़ों का प्रबंधन करने दिया, सातवें दिन तक चला, जब उसने सभी चीज़ों का सृजन करना समाप्त कर दिया था, और विश्राम किया था। परमेश्वर ने सातवें दिन को आशीष दी और उसे पवित्र दिन के रूप में निर्दिष्ट किया। उसने सभी चीज़ों का सृजन करने के बाद, इसे पवित्र दिन ठहराया, उनका सृजन करने से पहले नहीं। यह कार्य भी अनायास ढंग से किया गया था; सभी चीज़ों का सृजन करने से पहले, उसने छः दिनों में संसार का सृजन करना और सातवें दिन विश्राम करना तय नहीं किया था; तथ्य बिलकुल भी इसके समान नहीं हैं। उसने ऐसा नहीं कहा, न ही इसकी योजना बनाई। उसने किसी भी तरह से यह नहीं कहा कि सभी चीज़ों का सृजन छः दिनों में पूरा किया जाएगा और कि वह सातवें दिन विश्राम करेगा; बल्कि उसे जो अच्छा लगा उसके अनुसार उसने सृजन किया। एक बार जब उसने सभी चीज़ों का सृजन समाप्त कर लिया, तो पहले ही छठा दिन हो चुका था। यदि यह पाँचवाँ दिन रहा होता जब उसने सभी चीज़ों का सृजन करना समाप्त किया था, तो वह इस प्रकार छठे दिन को पवित्र के रूप में निर्दिष्ट करता; हालाँकि उसने सभी चीज़ों का सृजन करना छः दिनों में समाप्त किया, और इसलिए सातवाँ दिन पवित्र दिन बन गया, जिसे आज के दिन भी प्रख्यापित किया गया है। इसलिए, उसका वर्तमान कार्य उसी तरीके से सम्पन्न किया जाता है। वह तुम लोगों की परिस्थितियों के अनुसार तुम लोगों की आवश्यकताओं की आपूर्ति करता है। अर्थात्, पवित्रात्मा लोगों की परिस्थितियों के अनुसार बोलता और कार्य करता है। पवित्रात्मा सब पर निगरानी रखता है और किसी भी समय, किसी भी स्थान में कार्य करता है। जो कुछ मैं करता हूँ, कहता हूँ, तुम लोगों पर रखता हूँ और तुम लोगों को प्रदान करता हूँ, अपवाद के बिना, यह वह है जिसकी तुम लोगों को आवश्यकता है। इसीलिए मैं यह कहता हूँ कि मेरा कोई भी कार्य वास्तविकता से अलग नहीं है; वह सब वास्तविक हैं, क्योंकि तुम सब लोगों को पता है कि "परमेश्वर का आत्मा सब पर निगरानी रखता है।" यदि यह सब समय से पहले तय किया गया होता, तो क्या यह बहुत अधिक स्पष्ट और निश्चित नहीं होता? तुम सोचते हो कि परमेश्वर ने पूरे छः सहस्राब्दि तक कार्य किया और तब मानवजाति को विद्रोही, प्रतिरोधी, धूर्त और चालाक, देह वाला, शैतानी स्वभाव, आँखों की वासना और अपने स्वयं के भोग-विलास वाला होने के रूप में पूर्वनियत किया। नहीं, यह पूर्वनियत नहीं था, बल्कि शैतान की भ्रष्टता के कारण था। कुछ लोग कहेंगे, "क्या शैतान भी परमेश्वर की पकड़ में नहीं था? परमेश्वर ने पूर्वनियत किया था कि शैतान मनुष्य को इस तरह से भ्रष्ट करेगा, और उसके बाद उसने मनुष्यों के बीच अपना कार्य सम्पन्न किया।" क्या परमेश्वर वास्तव में मानवजाति को भ्रष्ट करने के लिए शैतान को पूर्वनियत करेगा? वह तो अत्यधिक उत्सुक था कि मानवजाति सामान्य रूप में मानव जीवन जीये; क्या वह मानवजाति के जीवन को परेशान करेगा? तब क्या शैतान को परास्त करना और मानवजाति को बचाना एक व्यर्थ प्रयास नहीं होगा? मानवजाति की विद्रोहीशीलता किस प्रकार से पूर्वनियत की जा सकती थी? वास्तविकता में यह शैतान के द्वारा परेशान किये जाने के कारण था; यह परमेश्वर के द्वारा कैसे पूर्वनियत किया जा सकता था? वह शैतान जो परमेश्वर की पकड़ में है जिसे तुम लोग समझते हो और वह शैतान जो परमेश्वर की पकड़ में हैं जिसके बारे में मैं बोल रहा हूँ, बहुत भिन्न हैं। तुम लोगों के कथनों के अनुसार कि "परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, और शैतान उसके हाथों के अंतर्गत है", शैतान उसके साथ विश्वासघात नहीं करेगा। क्या तुमने यह नहीं कहा कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है? तुम लोगों का ज्ञान अत्यधिक अमूर्त है, और यह वास्तविकता से हटकर है; इसमें दम नहीं है और यह कार्य नहीं करता है! परमेश्वर सर्वशक्तिमान है; यह बिल्कुल भी गलत नहीं है। प्रधान स्वर्गदूत ने परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया, क्योंकि परमेश्वर ने आरंभ में उसे अधिकार का एक भाग दिया। निस्संदेह, यह घटना अनपेक्षित घटना थी, जैसे कि हव्वा का साँप के बहकावे में आना। हालाँकि, इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि शैतान कैसे विश्वासघात करता है, परमेश्वर के विपरीत वह सर्वशक्तिमान नहीं है। जैसा कि तुम लोगों ने कहा है, शैतान शक्तिमान है; वह चाहे जो भी करे, परमेश्वर का अधिकार उसे सदैव पराजित करता है। "परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, और शैतान उसके हाथों के अंतर्गत है," इस कथन का यही वास्तविक अर्थ है। इसलिए, शैतान के साथ उसका युद्ध अवश्य एक बार में एक कदम सम्पन्न होना चाहिए; इसके अलावा, वह शैतान की चालबाजियों के उत्तर में अपने कार्य की योजना बनाता है। कहने का अर्थ है कि युगों के अनुसार, वह लोगों को बचाता है और अपनी बुद्धि एवं सर्वशक्तिमत्ता को प्रकट करता है। इसी तरह, अंत के दिनों का कार्य अनुग्रह के युग से पहले पूर्व नियत नहीं किया गया था; इसे व्यवस्थित ढंग से इस तरह से पूर्वनियत नहीं किया गया था: सबसे पहले, मनुष्य के बाहरी स्वभाव में परिवर्तन करो; दूसरा, मनुष्य को उसकी ताड़ना और परीक्षाएँ प्राप्त करवाओ, तीसरा मनुष्य को मृत्यु का अनुभव करवाओ, चौथा मनुष्य को परमेश्वर से प्रेम करने के समयों का अनुभव करवाओ, और सृजित प्राणी के संकल्प को व्यक्त करवाओ, पाँचवाँ, मनुष्य से परमेश्वर की इच्छा पर विचार करवाओ, और परमेश्वर को पूर्णतः ज्ञात करवाओ, और तब मनुष्य को पूर्ण बनाओ। उसने इन सब चीज़ों की योजना अनुग्रह के युग के दौरान नहीं बनाई; बल्कि उसने वर्तमान युग में इन बातों की योजना बनाना आरंभ किया। शैतान कार्य कर रहा है, जैसे कि परमेश्वर भी कार्य कर रहा है। शैतान अपने भ्रष्ट स्वभाव को व्यक्त करता है, जबकि परमेश्वर प्रत्यक्ष रूप से बोलता है और तात्विक चीज़ों को प्रकट करता है। आज यही कार्य किया जा रहा है, और कार्य करने का यही सिद्धांत बहुत पहले, संसार के सृजन के बाद, उपयोग में लाया गया था।
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