संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों के रहस्य की व्याख्या - अध्याय 6

लोग जब परमेश्वर के कथन पढ़ते हैं तो वे अवाक रह जाते हैं और सोचते हैं कि परमेश्वर ने आध्यात्मिक क्षेत्र में बहुत बड़ा कार्य किया है, कुछ ऐसा जिसे करने में मनुष्य असमर्थ है और जो स्वयं परमेश्वर को खुद व्यक्तिगत रूप से करना चाहिए। इसलिए परमेश्वर एक बार फिर मनुष्यजाति के प्रति सहिष्णुता के वचन बोलता है। उनके हृदय में द्वंद्व चलता रहता है : "परमेश्वर दया और करुणामय प्रेम का परमेश्वर नहीं है। वह तो बस इंसान को मार डालने वाला परमेश्वर है। वह हमारे प्रति सहिष्णु क्यों हो रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि परमेश्वर ने फिर से अपनी रीति बदल ली हो?" जब ये धारणाएँ, ये विचार उनके मन में आते हैं, तो ऐसे विचारों के विरुद्ध वे लड़ने का अधिकतम प्रयास करते हैं। परंतु कुछ समय तक परमेश्वर के कार्य के चलते रहने पर, पवित्र आत्मा कलीसिया में बड़ा कार्य करता है, और सब लोग अपना-अपना कार्य आरंभ कर देते हैं, सभी लोग परमेश्वर की रीति में प्रवेश कर जाते हैं, क्योंकि परमेश्वर जो कहता और करता है उसमें किसी को ज़रा-सी भी अपूर्णता नज़र नहीं आती। परमेश्वर का अगला कदम सटीक रूप से क्या होगा, इस बारे में किसी को हल्की-सी भी भनक नहीं होती। जैसा कि परमेश्वर ने कहा है : "स्वर्ग के नीचे ऐसा कौन है जो मेरे हाथों में नहीं है? कौन है जो मेरे मार्गदर्शन के अनुसार कार्य नहीं करता?" फिर भी मैं तुम्हें कुछ परामर्श देता हूँ : जो विषय तुम्हें स्पष्ट नहीं हैं, उनके बारे में तुममें से किसी को कुछ भी कहना या करना नहीं चाहिए। मैं यह तुम्हारा उत्साह कम करने के लिए नहीं कहता, बल्कि तुम्हें अपने कामों में परमेश्वर के मार्गदर्शन का अनुसरण करने देने के लिए कहता हूँ। "अपूर्णताओं" के बारे में कही गयी मेरी बातों के कारण तुम्हें बिल्कुल भी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए या शंकालु नहीं होना चाहिए; मेरा उद्देश्य मुख्य रूप से परमेश्वर के वचनों पर तुम्हारा ध्यान दिलाना है। लोग फिर अवाक रह जाते हैं जब वे परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ते हैं जो कहते हैं, "आत्मा से संबंधित मामलों में तुझे अनुभव करने में सक्षम होना चाहिए; मेरे वचनों पर तुझे ध्यान लगाना चाहिए। तुझे मेरा आत्मा और मेरे स्वरूप, मेरे वचनों और मेरे स्वरूप को एक अखंड इकाई की तरह समझने में वास्तव में समर्थ होना चाहिए, ताकि सभी लोग मुझे मेरी उपस्थिति में संतुष्ट कर सकें।" कल वे चेतावनी के वचन पढ़ रहे थे, परमेश्वर की सहिष्णुता के बारे में वचन पढ़ रहे थे—किंतु आज, परमेश्वर अचानक आध्यात्मिक विषयों की बात कर रहा है। यह चल क्या रहा है? परमेश्वर अपने बोलने की रीति क्यों बदलता रहता है? इस सबको एक अखंड इकाई क्यों माना जाना चाहिए? कहीं ऐसा तो नहीं कि परमेश्वर के वचन व्यावहारिक न हों? परमेश्वर के वचनों को ध्यानपूर्वक पढ़ने के बाद, पता यह चलता है कि जब परमेश्वर के देह और उसके आत्मा को अलग-अलग किया जाता है, तब देह दैहिक गुणों से युक्त भौतिक शरीर बन जाता है—जिसे लोग चलती-फिरती लाश कहते हैं। देहधारी देह आत्मा से आता है : वह आत्मा का मूर्त रूप है, वचन देह बन जाता है। दूसरे शब्दों में, स्वयं परमेश्वर देह में रहता है। परमेश्वर के स्वरूप से परमेश्वर के आत्मा के अलग होने की गंभीरता ऐसी है। परिणामस्वरूप, कहने को तो उसे मानव कहा जाता है, किंतु वह मानवजाति का अंग नहीं है। वह मानवीय गुणों से रहित है, वह ऐसा स्वरूप है जिसे स्वयं परमेश्वर वस्त्र पहनाता है, ऐसा स्वरूप जिसे परमेश्वर स्वीकृति देता है। परमेश्वर का वचन परमेश्वर के आत्मा को मूर्त रूप देता है, और परमेश्वर का वचन सीधे देह में प्रकट होता है—जो दर्शाता है कि परमेश्वर देह में रहता है और जो अधिक व्यावहारिक परमेश्वर है, इस प्रकार परमेश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करता है और परमेश्वर के प्रति मनुष्य के विद्रोह के युग का अंत करता है। लोगों को परमेश्वर को जानने का मार्ग बताने के बाद, परमेश्वर एक बार फिर विषय बदल देता है, और विषय के दूसरे पहलू की ओर मुड़ जाता है।

"जो कुछ भी है उस पर मैं अपने क़दम रख चुका हूँ, ब्रह्माण्ड के पूरे विस्तार पर मैं नज़रें डाल चुका हूँ, और मैं सभी लोगों के बीच चला हूँ और मैंने मनुष्य के बीच मीठे और कड़वे स्वादों को चखा है।" सीधे-सादे होते हुए भी, ये वचन मानवजाति को आसानी से समझ में नहीं आते। विषय बदल गया है, किंतु सार में यह वैसा ही है : इससे लोग अब भी देहधारी परमेश्वर को जान सकते हैं। परमेश्वर ऐसा क्यों कहता है कि उसने मनुष्य के बीच मीठे और कड़वे स्वादों को चखा है? वह ऐसा क्यों कहता है कि वह सभी लोगों के बीच चला है? परमेश्वर आत्मा है, और वह देहधारी स्वरूप भी है। आत्मा, जो देहधारी स्वरूप की सीमाओं से बँधा नहीं होता, जो कुछ भी है उस पर अपने क़दम रख सकता है, आत्मा ब्रह्माण्ड के पूरे विस्तार पर नज़रें डाल सकता है, जो दिखाता है कि परमेश्वर का आत्मा संपूर्ण ब्रह्माण्ड में समाया है, वह एक छोर से दूसरे छोर तक पृथ्वी को ढक लेता है, कुछ भी ऐसा नहीं है जो परमेश्वर के हाथों से व्यवस्थित न हुआ हो और कोई जगह ऐसी नहीं है जहाँ परमेश्वर के पदचिह्न न पाए जा सकें। हालाँकि आत्मा देहधारी हो गया है और मानव के रूप में जन्मा है, किंतु आत्मा का अस्तित्व सारी मानवीय आवश्यकताओं को नकारता नहीं है; परमेश्वर का अस्तित्व सामान्य रूप से खाता, वस्त्र पहनता, सोता और निवास करता है, और वही सब करता है जो सामान्य तौर पर लोगों को करना चाहिए। फिर भी चूँकि उसका आंतरिक सार भिन्न है, इसलिए वह सामान्य "मनुष्य" जैसा नहीं है। हालाँकि वह लोगों के बीच रहकर कष्ट सहता है, फिर भी वह इन कष्टों के कारण आत्मा को तजता नहीं है। हालाँकि उसे आशीष प्राप्त है, किंतु इस आशीष के कारण वह आत्मा को विस्मृत नहीं करता। आत्मा और स्वरूप मौन रहकर सद्भाव से कार्य करते हैं। आत्मा और स्वरूप को अलग नहीं किया जा सकता, न ही वे कभी अलग हुए हैं, क्योंकि स्वरूप आत्मा का ही मूर्त रूप है, वह आत्मा से ही उत्पन्न होता है, उस आत्मा से जिसका एक रूप है। इस प्रकार देह में आत्मा के लिए पारलौकिकता असंभव है; अर्थात, आत्मा अलौकिक काम नहीं कर सकता, जिसका तात्पर्य है कि आत्मा भौतिक शरीर से अलग नहीं हो सकता। यदि वह दैहिक शरीर से अलग हो जाए, तो परमेश्वर का देहधारण समूचा अर्थ ही खो बैठेगा। जब आत्मा भौतिक शरीर में पूर्णतः अभिव्यक्त होता है, तभी मनुष्य व्यावहारिक स्वयं परमेश्वर को जान सकता है, और तभी परमेश्वर की इच्छा भी पूरी होगी। दैहिक शरीर और आत्मा को मनुष्य से अलग-अलग मिलवाने के बाद ही परमेश्वर मनुष्य के अँधेपन और अवज्ञाकारिता की ओर ध्यान दिला पाता है : "फिर भी मनुष्य मुझे कभी भी वास्तव में समझ नहीं पाया है, न ही मेरी यात्रा के दौरान उसने मुझ पर कभी ध्यान दिया है।" एक ओर तो, परमेश्वर कह रहा है कि वह दैहिक शरीर में गुप्त रूप से छिपता है, लोगों को दिखाने के लिए कभी कुछ अलौकिक नहीं करता; दूसरी ओर, शिकायत करता है कि मनुष्य उसे जानता ही नहीं। इसमें कोई अंतर्विरोध नहीं है। वास्तव में, विस्तृत दृष्टिकोण से, यह देख पाना कठिन नहीं है कि परमेश्वर अपना उद्देश्य इन दो पहलुओं से ही पूरा करता है। यदि परमेश्वर अलौकिक चिह्न और चमत्कार करता, तो उसे बड़ा कार्य हाथ में लेने की आवश्यकता ही नहीं होती। वह बस मुख से ही लोगों को मृत्यु का श्राप दे देता, और वे उसी क्षण मर जाते, इस प्रकार सभी लोग क़ायल हो जाते—किंतु इससे परमेश्वर का देहधारी होने का उद्देश्य पूरा नहीं होता। यदि परमेश्वर सच में इस प्रकार कार्य करता, तो लोग उसके अस्तित्व में कभी जानते-बूझते विश्वास नहीं कर पाते। वे सच्चा विश्वास कर पाने में असमर्थ होते, और गलती से शैतान को ही परमेश्वर समझ लेते। ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि लोग कभी परमेश्वर का स्वभाव नहीं जान पाते—क्या यह परमेश्वर के देहधारी होने के अर्थ का ही एक पहलू नहीं है? यदि लोग परमेश्वर को जानने में असमर्थ होते, तो लोगों के बीच हमेशा उस अज्ञात परमेश्वर, उस अलौकिक परमेश्वर का ही बोलबाला होता। और इसमें क्या लोग अपनी ही धारणाओं के वशीभूत नहीं होते? अधिक स्पष्ट रूप से कहें, तो क्या शैतान यानी, दुष्टात्मा का ही दबदबा नहीं हो जाता? "मैं क्यों कहता हूँ कि मैंने सामर्थ्य वापस ले लिया है? मैं क्यों कहता हूँ कि देहधारण के बहुत अधिक मायने है?" जिस क्षण परमेश्वर देहधारी हो जाता है, यही वह क्षण होता है जब वह सामर्थ्य वापस ले लेता है, और यही वह समय भी होता है जब उसकी दिव्यता सीधे कार्य करने के लिए प्रकट होती है। सभी लोग धीरे-धीरे व्यावहारिक परमेश्वर को जानने लगते हैं, और परमेश्वर को अपने हृदय में अधिक गहरा स्थान देते हुए, अपने हृदय से शैतान का स्थान पूरी तरह मिटा देते हैं। अतीत में लोग अपने मन में शैतान की छवि में ही परमेश्वर को देखते थे, ऐसे परमेश्वर के रूप में जो अदृश्य और अमूर्त था; और फिर भी वे मानते थे कि इस परमेश्वर का न केवल अस्तित्व है, बल्कि वह भाँति-भाँति के चिह्न दिखाकर चमत्कार भी कर सकता है, और दुष्टात्माओं द्वारा वश में किए गए लोगों के कुरूप चेहरों की तरह के अनेक रहस्य भी प्रकट कर सकता है। इससे सिद्ध होता है कि लोगों के मन में जो परमेश्वर है, वह परमेश्वर की छवि नहीं है, बल्कि परमेश्वर से भिन्न किसी अन्य चीज़ की छवि है। परमेश्वर ने कहा है कि वह लोगों के हृदय के 0.1 प्रतिशत पर अधिकार पाना चाहता है। यह उच्चतम मानक है जिसकी वह लोगों से अपेक्षा करता है। सतह पर जो कुछ है उससे परे, इन वचनों का एक व्यावहारिक पहलू भी है। यदि इसे इस प्रकार समझाया नहीं जाता, तो लोग सोचते कि उनसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ बेहद निम्न हैं, मानो परमेश्वर उनके बारे में बहुत कम समझता है। क्या मनुष्य की मानसिकता ऐसी ही नहीं है?

ऊपर कही गयी बातों और नीचे दिए गए पतरस के उदाहरण को एक साथ रखने पर पाओगे कि पतरस परमेश्वर को सचमुच किसी भी अन्य की तुलना में बेहतर जानता था, क्योंकि वह अज्ञात परमेश्वर की ओर पीठ फेर कर व्यावहारिक परमेश्वर के ज्ञान का अनुसरण कर सकता था। इस बात का विशेष उल्लेख क्यों किया गया है कि उसके माता-पिता परमेश्वर-विरोधी दुष्टात्मा थे? इससे यह सिद्ध होता है कि पतरस अपने हृदय में परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर रहा था। उसके माता-पिता अज्ञात परमेश्वर का प्रतिरूप थे; परमेश्वर द्वारा उनका उल्लेख करने का यही आशय है। अधिकतर लोग इस तथ्य पर अधिक ध्यान नहीं देते। बल्कि वे पतरस की प्रार्थनाओं पर ध्यान देते हैं। कुछ लोगों के होठों और मन में तो हमेशा पतरस की प्रार्थनाएँ ही रहती हैं, फिर भी वे कभी अज्ञात परमेश्वर की तुलना पतरस के ज्ञान से नहीं करते। पतरस अपने माता-पिता के विरुद्ध जा कर परमेश्वर के ज्ञान की खोज क्यों करने लगा? पतरस नाकाम हो चुके लोगों के सबक से क्यों उत्साहित हुआ? उसने उन सब लोगों की आस्था और प्रेम को आत्मसात क्यों किया जो युगों से परमेश्वर से प्रेम करते आ रहे थे? पतरस जान गया कि सभी सकारात्मक बातें परमेश्वर से आती हैं, शैतान द्वारा संसाधित हुए बिना उसी से सीधे तौर पर जारी होती हैं। यह दिखाता है कि वह जिस परमेश्वर को जानता था वह व्यावहारिक परमेश्वर था, अलौकिक परमेश्वर नहीं। ऐसा क्यों कहा गया है कि पतरस ने उन सब लोगों की आस्था और प्रेम को आत्मसात करने पर ध्यान दिया जो युगों से परमेश्वर से प्रेम करते आ रहे थे? इससे देखा जा सकता है कि युगों-युगों से लोगों की विफलता का मुख्य कारण ये था कि उनके अंदर आस्था और विश्वास तो था, किंतु वे व्यावहारिक परमेश्वर को नहीं जानते थे। परिणामस्वरूप, उनकी आस्था अज्ञात ही बनी रही। परमेश्वर इस बात को कहे बिना कि अय्यूब परमेश्वर को जानता था, उसके विश्वास का कई बार उल्लेख क्यों करता है, और परमेश्वर यह क्यों कहता है कि अय्यूब पतरस के बराबर नहीं था? अय्यूब की ये बातें—"मैं ने कानों से तेरा समाचार सुना था, परन्तु अब मेरी आँखें तुझे देखती हैं"—दर्शाती हैं कि उसमें केवल आस्था थी, उसे कोई ज्ञान नहीं था। ये वचन "उसके माता-पिता की प्रतिकूलता ने उसे मेरे कृपालु प्रेम एवं दया का और भी ज्ञान दिया" अधिकतर लोगों की ओर से बहुत सारे प्रश्न खड़े करते हैं : परमेश्वर को जानने के लिए पतरस को प्रतिकूलता की आवश्यकता क्यों थी? वह परमेश्वर को सीधे क्यों नहीं जान सकता था? ऐसा क्यों था कि वह बस परमेश्वर की दया और कृपालु प्रेम को ही जानता था, और परमेश्वर ने किसी अन्य चीज़ की बात नहीं की? अज्ञात परमेश्वर की अवास्तविकता को पहचान लेने के बाद ही व्यावहारिक परमेश्वर के ज्ञान की खोज संभव है; इन वचनों का उद्देश्य लोगों से उनके हृदय से अज्ञात परमेश्वर को बाहर निकालना है। सृष्टि के समय से लेकर आज तक, यदि लोगों को हमेशा परमेश्वर का सच्चा चेहरा पता होता, तो वे शैतान के दुष्कर्मों को पहचान नहीं पाते, क्योंकि मनुष्य की यह सामान्य कहावत—"जब तक पहाड़ न चढ़ो धरातल पर ध्यान ही नहीं जाता"—दर्शाती है कि इन वचनों को बोलने में परमेश्वर का क्या आशय है। चूँकि परमेश्वर लोगों को इस उदाहरण के ज़रिए उसकी सच्चाई को और अधिक गहराई से समझाना चाहता है, इसलिए वह जान-बूझकर दया और कृपालु प्रेम पर बल देता है और यह सिद्ध करता है कि पतरस जिस युग में रहता था वह अनुग्रह का युग था। दूसरे दृष्टिकोण से, यह शैतान के और भी बदसूरत चेहरे को उजागर करता है, जो इंसान को भ्रष्ट करने और नुकसान पहुँचाने के अलावा कुछ नहीं करता, और परमेश्वर की दया एवं कृपालु प्रेम को और भी अधिक विरोध में प्रस्तुत करता है।

परमेश्वर पतरस के परीक्षणों के तथ्यों की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए, उनकी वास्तविक परिस्थितियों का वर्णन भी करता है, और लोगों को बताता है कि परमेश्वर न केवल दया और कृपालु प्रेम से, बल्कि प्रताप और कोप से भी युक्त है, और जो लोग शांतिपूर्वक रहते हैं, आवश्यक नहीं कि वे परमेश्वर के आशीषों में रहते हों। लोगों को पतरस के परीक्षणों के उपरांत उसके अनुभवों के बारे में बताना अय्यूब के इन वचनों, "क्या हम जो परमेश्‍वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?" की सत्यता का और भी बड़ा प्रमाण है। इस प्रकार यह दिखलाता है कि परमेश्वर के बारे में पतरस का ज्ञान सचमुच अभूतपूर्व क्षेत्रों तक पहुँच गया था; उन क्षेत्रों में जो बीते युगों के लोगों द्वारा कभी प्राप्त नहीं किए गए थे, जो युगों से परमेश्वर से प्रेम करते आ रहे लोगों की आस्था और प्रेम को उसके द्वारा आत्मसात करने का और अतीत के युगों में विफल हो चुके लोगों के सबक का उपयोग करके उसके द्वारा स्वयं को प्रोत्साहित करने का फल भी था। इसलिए, जो लोग परमेश्वर के बारे में सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, वे "फल" कहलाते हैं, और उसमें पतरस भी शामिल है। अपने परीक्षणों के दौरान परमेश्वर से पतरस की प्रार्थनाएँ परमेश्वर के बारे में उसका सच्चा ज्ञान दर्शाती हैं। परंतु उत्साह भंग करने वाली बात यह है कि वह परमेश्वर की इच्छा को पूर्ण रूप से समझने में असमर्थ था। यही कारण था कि अपने बारे में पतरस के ज्ञान के आधार पर परमेश्वर ने केवल "मानव हृदय के 0.1 प्रतिशत पर अधिकार पाने" की बात कही। यहाँ तक कि पतरस भी, जो परमेश्वर को सबसे अच्छी तरह जानता था, परमेश्वर की इच्छा को ठीक-ठीक समझ पाने में असमर्थ था। इससे यह ज़ाहिर है कि इंसान में परमेश्वर को जानने की क्षमता का अभाव है, क्योंकि उसे शैतान ने बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिया है; इस बात से हर व्यक्ति इंसान के सार को जान जाता है। ये दो पूर्वशर्तें—लोगों में परमेश्वर को जानने की क्षमता का अभाव और उनमें शैतान की पूर्ण व्याप्ति—परमेश्वर के महा सामर्थ्य के लिए एक विषमता हैं, क्योंकि परमेश्वर केवल वचनों से कार्य करता है, वह कोई उद्यम हाथ में नहीं लेता, और इस प्रकार वह लोगों के हृदय में एक निश्चित स्थान ग्रहण करता है। किंतु परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने के लिए लोगों को मात्र वह 0.1 प्रतिशत ही क्यों हासिल करना है? इसका उत्तर यह कहकर दिया जा सकता है कि परमेश्वर ने इंसान को यह क्षमता ही नहीं दी। इस क्षमता के बिना, यदि मनुष्य परमेश्वर के 100 प्रतिशत ज्ञान पर पहुँच जाएँ, तो परमेश्वर का प्रत्येक कदम उनके लिए एकदम स्पष्ट होगा—और मनुष्य की अंतर्निहित प्रकृति को देखते हुए, लोग तत्काल परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह कर देंगे, वे उठ खड़े होंगे और खुले आम उसका विरोध करेंगे, इसी तरह शैतान का पतन हुआ था। इसलिए परमेश्वर लोगों को कभी कम करके नहीं आँकता, यही वजह है कि वह पहले ही उनका पूरी तरह से विश्लेषण कर चुका है, और उनके बारे में सब कुछ अच्छी तरह से जानता है, इतनी अच्छी तरह से कि उसे यह भी पता है कि उनके रक्त में ठीक-ठीक कितना पानी है। तो उसके सामने इंसान की प्रकृति और कितनी अधिक स्पष्ट है? परमेश्वर कभी गलतियाँ नहीं करता, और वह अपने कथनों के वचन अत्यंत सटीकता से चुनता है। इस प्रकार पतरस को परमेश्वर की इच्छा की सटीक समझ न होने और उसे परमेश्वर का सर्वाधिक ज्ञान होने के बीच कोई टकराव नहीं है; दोनों बातों का एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर ने उदाहरण के रूप में पतरस का उल्लेख उस पर लोगों का ध्यान केंद्रित करने के उद्देश्य से नहीं किया था। अय्यूब जैसा व्यक्ति परमेश्वर को क्यों नहीं जान पाया, जबकि पतरस जान गया? परमेश्वर ऐसा क्यों कहेगा कि इंसान इसे प्राप्त कर सकता है, पर यह भी कहेगा है कि यह उसके महान सामर्थ्य के कारण है? क्या लोग सचमुच स्वाभाविक रूप से अच्छे होते हैं? यह जानना लोगों के लिए आसान नहीं है; यदि मैं इसके बारे में न कहूँ तो किसी को भी इसके आंतरिक अर्थ का बोध नहीं होगा। इन वचनों का उद्देश्य लोगों को एक अंतर्दृष्टि देना है, ताकि उनके अंदर परमेश्वर से सहयोग करने का विश्वास पैदा हो सके। तभी परमेश्वर मनुष्य के सहयोग से कार्य कर सकता है। ऐसी है आध्यात्मिक क्षेत्र की वास्तविक स्थिति, और यह मनुष्य के लिए पूर्णतः अज्ञेय है। लोगों के हृदय में शैतान का स्थान हटाना और वह स्थान परमेश्वर को देना—शैतान के आक्रमण को निष्प्रभावी करने का अर्थ यही है, और तभी कहा जा सकता है कि मसीह पृथ्वी पर उतर आया है, तभी कहा जा सकता है कि पृथ्वी के राज्य मसीह का राज्य बन गए हैं।

इस मुकाम पर, पतरस के कई हज़ार वर्षों से आदर्श और प्रतिमान होने की बात कहने का अर्थ मात्र यह कहना नहीं है कि वह आदर्श और प्रतिमान था; ये बातें आध्यात्मिक क्षेत्र में छिड़े संग्राम की झलक हैं। शैतान इस पूरे समय मनुष्य का भक्षण करने की झूठी आशा के साथ उसमें कार्य करता रहा है, ताकि इसके फलस्वरूप परमेश्वर को अपना संसार नष्ट करना पड़े और अपनी गवाहियाँ गँवानी पड़ें। उसके बावजूद परमेश्वर ने कहा है, "मैं पहले एक आदर्श की रचना करूँगा ताकि मैं मानव-हृदय में छोटे से छोटा स्थान प्राप्त कर सकूँ। इस चरण में, इंसान न तो मुझे खुश करता है और न ही पूर्णतः जानता है; फिर भी, मेरे महान सामर्थ्य के कारण, लोग मेरे समक्ष पूरी तरह से समर्पण और मेरे विरुद्ध विद्रोह करना छोड़ देंगे, और मैं शैतान को परास्त करने के लिए इस उदाहरण का उपयोग करूँगा। कहने का तात्पर्य यह कि मानव-हृदय के जिस 0.1 प्रतिशत पर मेरा अधिकार है उसका इस्तेमाल मैं उन समस्त शक्तियों को कुचलने के लिए करूँगा जो शैतान द्वारा मानवजाति के ऊपर प्रयुक्त की जाती रही हैं।" इसलिए आज परमेश्वर उदाहरण के रूप में पतरस का उल्लेख करता है ताकि वह समस्त मानवजाति द्वारा अनुकरण और अभ्यास के लिए साँचे का काम कर सके। आरंभिक अंश के साथ, यह आध्यात्मिक क्षेत्र की स्थिति के बारे में परमेश्वर ने जो कहा है उसकी सच्चाई दिखलाता है : "आज का समय अतीत की तरह नहीं है : मैं ऐसी चीज़ें करूँगा जिन्हें सृष्टि की रचना के समय से कभी नहीं देखा गया है, मैं उन वचनों को बोलने वाला हूँ जिन्हें तमाम युगों के दौरान कभी भी नहीं सुना गया है, क्योंकि मैं चाहता हूँ कि सभी लोग मुझे देह में पहचानें।" इससे यह स्पष्ट है कि परमेश्वर ने आज अपने वचनों पर कार्य करना आरंभ कर दिया है। लोग केवल वही देख सकते हैं जो बाहर हो रहा है, वे वह नहीं देख सकते जो वास्तव में आध्यात्मिक क्षेत्र में चल रहा है, और इसलिए परमेश्वर सीधे-सीधे कहता है, "ये मेरे प्रबंधन के चरण हैं, जिनके बारे में मनुष्य को हल्‍का-सा भी आभास नहीं है। भले ही मैंने स्पष्टता से बोला है लेकिन लोग अभी भी भ्रमित हैं; उन्हें समझाना मुश्किल है। क्या यह मनुष्य की नीचता नहीं है?" इन वचनों के भीतर वचन हैं : वे स्पष्ट करते हैं कि आध्यात्मिक क्षेत्र में सँग्राम छिड़ा है, ठीक वैसे ही जैसे ऊपर वर्णित है।

संक्षेप में पतरस की कहानी बताने के बाद परमेश्वर की इच्छा पूर्णतः पूरी नहीं हुई है, इसलिए परमेश्वर पतरस के मामलों में मनुष्य से निम्न अपेक्षाएँ करता है : "संपूर्ण ब्रह्माण्ड और नभमंडल में, स्वर्ग और पृथ्वी की सभी चीज़ों में, स्वर्ग और पृथ्वी की सभी चीज़ें मेरे कार्य के अंतिम भाग के लिए अपने अंतिम प्रयास लगा देती हैं। निश्चित ही तुम लोग शैतान की शक्तियों के द्वारा आदेश पाते हुए, एक किनारे पर दर्शक बने रहना नहीं चाहते।" पतरस के ज्ञान के बारे में पढ़ने के बाद लोग पूर्णतया प्रबुद्ध हो जाते हैं, और इससे भी अधिक प्रभावी होने के उद्देश्य से, परमेश्वर लोगों को उनकी लंपटता, असंयम, और परमेश्वर के ज्ञान के अभाव का परिणाम दिखाता है; इतना ही नहीं, वह लोगों को फिर से और अधिक सटीकता से बताता है कि आध्यात्मिक क्षेत्र के सँग्राम में वास्तव में क्या हो रहा है। इसी प्रकार से लोग शैतान के हाथों हड़प लिए जाने के विरुद्ध अधिक चौकन्ने हो जाते हैं। यही नहीं, इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि इस बार लोगों का पतन हुआ, तो परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा जैसे वे इस बार बचाए गए थे। सम्मिलित रूप से, ये चेतावनियाँ लोगों पर परमेश्वर के वचनों की छाप को और गहरा कर देती हैं, इससे लोग परमेश्वर की दया को और भी अधिक सँजोते हैं, और परमेश्वर की चेतावनी के वचनों को संभालकर रखते हैं, ताकि इंसान को बचाने का परमेश्वर का लक्ष्य सच्चे अर्थों में पूरा हो सके।

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